प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। मैं फ़िज़िक्स लेक्चरर हूँ, सी.एस.आई.आर. जे.आर.एफ़. फ़िज़िकल एजुकेशन हूँ। आपको सुनता हूँ तो यह बात स्पष्ट होती है कि फ़िज़िक्स और अध्यात्म में एक गहरा संबंध है। बीते वर्षों में आपने अपने व्याख्यानों में, सत्संग में फ़िज़िक्स और विज्ञान को एक अहम महत्व दिया है। मुझे जीवन में शंका की मूलत: समस्या है। मार्गदर्शन है नहीं, बात-बात पर अविश्वास होता है। जब आप किसी भी शंका का समाधान मुझ तक भेजते हैं, तो वह शंका तो कट जाती है परंतु एक और प्रश्न अंदर उठ जाता है। जीवन में असली, ईमानदार और गहरा सवाल पूछने में खुद को असमर्थ महसूस करता हूँ। कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: संसार के बारे में, पदार्थ के बारे में, भौतिक विषयों के बारे में जो भी शंका हो, उसके उन्मूलन की विधि विज्ञान है। जाओ, जाँचो, परखो, प्रयोग करो। एक बार परखो, और सही पाया है या नहीं, ये जानने के लिए दोबारा परखो। जो कुछ तुम्हें प्रतीत हो रहा है वो किसी और के सामने रखो, वो भी परख कर देखे। यदि यह सिद्ध ही हो जाए कि कितनी भी बार परखा जाए, परिणाम एक ही आना है, तो फिर तुमने जो जाना वो तथ्य है, भौतिक जगत का यथार्थ है। ये विज्ञान की विधि है।
दिक्कत इसमें ये होती है कि भौतिक जगत को ले कर के हमारी शंका कितनी भी शांत कर दी जाए, शंकालु मन शंकाग्रस्त तब भी रहता है। अगर उसकी भौतिक शंकाएँ शांत नहीं हुईं हैं और आप उससे जा कर के पूछें, कि “भाई क्या बात है, क्यों परेशान हो?” तो वो आपको बता देगा कि “मुझे ये समझ में नहीं आ रहा, ये बारिश इतना रुक-रुक कर के क्यों हो रही है, आज सूरज के सामने बादल क्यों हैं, समुद्र में लहरें क्यों उठ रहीं हैं, छोटा बच्चा बड़ा कैसे हो जाता है?” वो पचास तरह की भौतिक बातें आपके सामने रख देगा। ठीक है? आप इन सबके विज्ञान-सम्मत उत्तर उसको बता दीजिए, वो उत्तर बिल्कुल ठीक होंगे, तो उसकी ये जो विशिष्ट जिज्ञासाएँ हैं, शमित भी हो जाएँगी। “हाँ भई, बता दिया गया तुमको कि बादलों और लहरों और बच्चों और सूरज और पृथ्वी का रहस्य क्या है, बता दिया गया।“ तो अब उसके पास ये जिज्ञासाएँ नहीं बचीं। तो वो कुछ और जिज्ञासाएँ करेगा, आप उसका भी उत्तर दे दीजिए। फिर जब उसकी जितनी जिज्ञासाएँ शांत की जा सकतीं थीं, आप कर लें, तो अंततः उसको एक अकारण शंका रह जाएगी। अब आप उससे पूछेंगे, “भाई अपनी तकलीफ़ बताओ! तुम्हें शंका क्या है? तुम्हें अकुलाहट किस बात की है? अब तो बताओ!” वो बता नहीं पाएगा।
हुआ है आपके साथ? कि लगता है कुछ ठीक नहीं है, और कोई पूछे कि “क्या ठीक नहीं है,” तो आप बता ही न पाएँ। ऐसा होता है? लगता है “कहीं कुछ कमी है, कहीं कुछ अटक रहा है, कहीं कुछ पूरा नहीं है, कहीं कुछ गड़बड़ है,” और अगर कोई कहेगा कि “भई साफ़-साफ़ बताओ कहाँ कमी है, क्या अटक रहा है, क्या चाहिए,” तो आप बता नहीं पाएँगे। ऐसा होता है न? ये जो अकारण शंका है, ये बाकी सब शंकाओं का मूल है। तो बाकी सब शंकाएँ आप हटा भी दो, जिनको विज्ञान के माध्यम से हटाया जा सकता है, और हटाया जाना चाहिए भी, तो भी ये अकारण शंका बच जाती है। विज्ञान कितनी भी तरक्की कर ले, ये अकारण शंका बनी ही रहेगी, बनी ही रहेगी। इसका मतलब ये नहीं है (कि) विज्ञान को तरक्की नहीं करनी चाहिए, इसका मतलब है विज्ञान को और-और-और ज़्यादा तरक्की करनी चाहिए, ताकि जितनी हमारी भौतिक शंकाएँ हैं वो जल्दी-से-जल्दी हटाई जा सकें।
जब वो भौतिक शंकाएँ जल्दी से हट जाएँगी, तो फिर बचेगी क्या हमारे पास?
श्रोता: अकारण शंका।
आचार्य: अकारण शंका। तो हमें कम-से-कम ये स्पष्ट तो होगा, कि “भाई, ये जो ऊपर-ऊपर हमारी इतनी सारी शंकाओं का जंगल दिखता था, ये ऊपर-ऊपर का था बस। इस सारे जंगल के नीचे बैठी हुई है एक अकारण शंका।“ अब इस अकारण शंका में थोड़ा प्रवेश करते हैं, ठीक है? ‘अकारण’ तो हमने आज तक यही सुना था कि सत्य होता है। ठीक? अकारण तो सत्य होता है, हमें यही पता था, तो ये अकारण शंका कहाँ से आ गई भाई, ये क्या चीज़ है? अकारण माने जिसके पीछे क्या है कुछ पता नहीं, या कि जिसके पीछे कुछ है ही नहीं। शास्त्र हमारे हमें बताते हैं कि “एक तो सत्य अनादि, अकारण है, और एक और है जो अनादि, अकारण है।“ वो कौन है? माया। बस सत्य और माया में अंतर ये है कि सत्य अनादि भी है और अनंत भी; माया अनादि तो है, अनंत नहीं है, उसको खत्म किया जा सकता है। सत्य की तरह माया को अनादि क्यों कहा गया है, विशेषतया अद्वैत में? आप आदि शंकराचार्य के पास जाएँगे तो वो कहेंगे कि “सत्य की तरह माया भी अनादि है,” क्यों? क्योंकि माया सत्य से ही आती है, और कहीं से वो आती ही नहीं, तो सत्य यदि अनादि है तो माया भी अनादि है।
फिर हमारी ये जो प्रथम शंका है ये क्या हुई? ये हमारी प्रथम शंका प्रथम माया को ले कर के है, उसी प्रथम माया का नाम है अहं। आत्मा अनादि-अनंत, उससे सबसे पहले आता है अहं, और फिर बाकी पूरा कारोबार आ जाता है; एक बार अहं आ गया, अब बाकी सब पीछे कहाँ रहेगा, पूरा संसार खड़ा हो जाता है। अहं की आप सारी शंकाएँ सुलझा दीजिए, तो भी उसे अपने-आप को ले कर के बड़ी शंका रहती है, “मैं हूँ भी कि नहीं हूँ?” वही अहं माया है। “मैं हूँ भी कि नहीं हूँ? मैं हूँ कौन? मुझे सब पता तो चल गया, सारा ज्ञान तो दे दिया गया, पर जिसको ज्ञान दिया गया है वो कौन है? सब समझा-बुझा दिया बैठा कर के, महा ज्ञानी हो गए, ज्ञान तो ठीक है, ये ज्ञानी कौन है? ज्ञान तो मिला, पर जिसको मिला है ज्ञान वो है कौन?”
अब जगत के बारे में तो अहं को समझा भी दिया जाए, अहं के बारे में अहं को क्या समझाया जाए! तो इसलिए वो शंका बनी ही रहती है। वही शंका हमारे रोज़मर्रा के जीवन में अनेक रूपों में प्रकट होती है— बिना बात का डर, बिना वजह का गुस्सा, बिना कारण की खीझ। असल में हमारी ये जो सब वृत्तियाँ हैं, ये सब बिना कारण की ही हैं, और उनके पीछे बैठी हुई है अहं-वृत्ति।
अहं बेचारे की समस्या ये कि उसे किसी और पर भरोसा क्या आएगा, उसे खुद पर ही भरोसा नहीं है! जिसे खुद पर न भरोसा हो वो किसी और पर क्या भरोसा करेगा! पर वो पूरी दुनिया पर भरोसा करना चाहता है क्योंकि उसे खुद पर भरोसा नहीं है। वो कहता है कि “मेरा तो कुछ पक्का नहीं, चलो ऐसा करते हैं दुलारे राम पर भरोसा कर लेते हैं, हो सकता है उसका पक्का हो मामला।“ और किसी दूसरे पर भरोसा करना विवशता है अहं की, क्योंकि अपना कुछ पक्का नहीं होता न! ये सब कहानी सुनी-सुनाई लग रही है न, अपनी ही कहानी है न? “कोई सहारा मिल जाए, कोई साथी मिल जाए, कोई संगत मिल जाए, किसी का हाथ थाम लें,” — ये सब आत्म-शंका का ही परिणाम हैं।
तो ऐसा करो तुम, कि इस शंका को अब विश्वास में बदल दो। शंका माने संदेह न? और संदेह बोलता है, “शायद कुछ गड़बड़ है।“ संदेह क्या बोलता है? “शायद कुछ गड़बड़ है।“ तुम्हारे लिए समाधान ये है कि तुम कह दो, “शायद नहीं गड़बड़ है, पूरी ही गड़बड़ है,” शक को यकीन में बदल दो। अभी तक तो यही शक है कि “मैं हूँ भी कि नहीं हूँ,” तुम बोल दो, “पक्का है, मैं नहीं हूँ।“ यही शक है, “कहीं मैं खोखला तो नहीं! कहीं मैं मिट तो नहीं जाऊँगा!” बोल दो, “हाँ!” और इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं, हम खोखले हैं, हम मिटेंगे, हमारी हस्ती क्षणिक है, इसीलिए तो उसे उतनी सुरक्षा की ज़रूरत पड़ती है। आदमी की पूरी जीवन-यात्रा और क्या है, अपने-आप को सुरक्षा देने की कोशिश ही तो! जिसमें दम हो, जिसका वजूद पक्का हो, उसे सुरक्षा देने की ज़रूरत पड़ेगी क्या? और हमें देखिए, हम हर वक्त यही तड़पते रहते हैं कि किसी तरीके से अपने-आप को बचा ले जाएँ। खुद को बचा ले जाने की जो हमारी कोशिश है, वही प्रमाण है इस बात का कि हम अपने-आप को ले कर के बड़े संदेही हैं। और अगर अपने-आप को ले कर के संदेह है ही, तो अपने-आप को बचाने की कितनी भी कोशिशें कर लीजिए, वो संदेह तो नीचे-नीचे कुलबुलाता ही रहेगा। उस संदेह को दबाने-छुपाने की कोशिश मत करिए, मान ही लीजिए, कहिए, “हाँ, गड़बड़ है। अपनी सत्ता में मैं यकीन करना ही नहीं चाहता।“
हम डरते हैं कि अगर अपनी सत्ता में यकीन नहीं करेंगे तो फिर मिट ही जाएँगे। अध्यात्म कहता है, “जो अपनी सत्ता में यकीन नहीं करते, उन्हें फिर कहीं कुछ यकीन करने की ज़रूरत नहीं रह जाती, वो विश्वास से आगे चले जाते हैं। उन्हें एक ऐसी हिम्मत, ऐसा हौसला, ऐसी वीरता मिल जाती है कि अब वो डरते ही नहीं।“ दूसरों पर शक करना आसान है, जो अपने ऊपर शक कर ले गया वो जीत गया। और अपने ऊपर शक है, और वही शक की इकाई अगर दूसरों पर विश्वास भी करने की कोशिश करे, तो उस विश्वास की हैसियत क्या होगी भई! जिन्होंने भी हिम्मत कर के अपने मन को परखा, अपनी वृत्तियों को देखा, वो मुस्कुरा उठे। उन्होंने कहा, “मैं इस चीज़ के बूते इतने दिनों से खेल रहा था! मैं इसके भरोसे यात्रा कर रहा था!” वो कहते हैं, “इतनी यात्रा ही मैंने इतने कष्ट झेल-झेल के कर ली, बहुत बड़ी बात हो गई, आगे की तो और नहीं हो पाएगी।“
जैसे कि आप गाड़ी में बैठे हों, गाड़ी चला रहे हों, और गाड़ी आपकी ज़बरदस्त झटके मारती हो। अंदर पैंतालीस-पचास डिग्री की ऊष्मा हो। इंजन ऐसा हो कि धुँआ साइलेंसर , एक्जॉस्ट से निकलने की जगह भीतर केबिन में भरता हो। और आप दोष देते हों कभी ट्रैफिक को, कभी सड़कों को, कभी मौसम को, कभी दुनिया को। फिर नौबत ऐसी आ जाए कि आपको उतर कर के अपनी गाड़ी को देखना ही पड़े मजबूर हो कर। आप कहें, “दुनिया को तो दोष बहुत दे लिया, सड़क को दोष बहुत दे लिया, थोड़ा अपने-आप को भी देखें।“ और आप पाएँ कि चारों टायर चीथड़े हैं, कब के चीथड़े हो गए, गाड़ी रिंप पर चल रही थी। आप इंजन खोलें तो जैसे ज्वालामुखी लावा फेंकता है वैसे ही इंजन भाँति-भाँति के कूलेंट और ऑयल और पानी फेंके। और उसमें भी चीज़ें बिखरी पड़ी हुईं हैं। बैटरी दो टुकड़े उल्टी पड़ी है, पंखा कब का वीरगति को प्राप्त हो चुका है।
तो फिर आप अब ये नहीं कहेंगे कि “मुझे इस गाड़ी के भरोसे आगे की यात्रा कैसे करनी है?” अब प्रश्न ये नहीं होगा कि “इस गाड़ी के भरोसे आगे की यात्रा कैसे करनी है?” ये उद्घाटन का पल होगा, रिवीलेशन का, ये वो पल होगा जब आप इस गाड़ी पर अब संदेह नहीं करेंगे, आपको विश्वास हो जाएगा; क्या? कि “इसके भरोसे अब आगे की यात्रा नहीं हो सकती।“ आप अगर अब ताज्जुब करेंगे भी, तो बस ये कि “अभी तक की यात्रा मैंने इसके भरोसे कैसे कर ली!”
और जैसे ही आप ये प्रश्न करेंगे, जैसे ही आप ये ताज्जुब करेंगे, आपको याद आएँगे अतीत के अपने सारे कष्ट, आपको याद आएँगे वो सब झटके जो आपकी गाड़ी ने आपको दिए, लगातार दिए; वो सब ठोकरें जो आपको खानी पड़ीं, वो सब कष्ट जो आपको सहने पड़े। और फिर मामला बिल्कुल साफ़ हो जाएगा आपको, आप कहेंगे, “क्यों न पिटता मैं ज़िंदगी में अभी तक, गाड़ी ही ऐसी थी, इसके बूते मैं यात्रा कर रहा था! मैं तो बस बीच-बीच में संदेह कर लिया करता था, कि कहीं गाड़ी में कुछ गड़बड़ तो नहीं। बस इतना ही संदेह था मेरा, ‘कहीं गाड़ी में कुछ गड़बड़ तो नहीं', इससे ज़्यादा मेरी शंका जाती ही नहीं थी। अब स्पष्ट हो गया है कि शंका की कोई ज़रूरत नहीं है, निर्णय आ गया है। और अब मुझे ये प्रश्न बिल्कुल भी नहीं है कि आगे की यात्रा इस गाड़ी के भरोसे कैसे होगी; साफ़ है, नहीं होगी। इसके भरोसे आगे की यात्रा नहीं होगी, जीवन-यात्रा मैं इस गाड़ी पर नहीं कर सकता।“ ये आत्म-अवलोकन कहलाता है।
गाड़ी क्या है? तन और मन। साफ़ दिख गया कि अपनी हालत क्या है, अब बताइए ये प्रश्न कितना महत्वपूर्ण है कि फिर आगे की यात्रा होगी कैसे? अब आप मुक्त हो जाते हैं, आप कहते हैं कि “सड़क है, इरादा है, और मंज़िल है, तो आगे की यात्रा हो ही जानी है। बात ये नहीं है कि आगे की यात्रा कैसे होगी, अगर मैं गाड़ी से उतर गया हूँ तो अब आगे की यात्रा हो जाएगी, बल्कि नहीं उतरता तो नहीं हो पाती। तो अब मैं थोड़े ही डरूँगा कि आगे की यात्रा कैसे होगी। अब तो हो जाएगी, आसान है, क्योंकि मैं गाड़ी से उतर गया हूँ, तो अब तो हो ही जानी है। अब क्या रोना! रोने के दिन बीते।“ ये मैं संकेतों में बात कर रहा हूँ, बात समझ में आ रही है क्या बोल रहा हूँ? तो कोई ये न पूछे कि “अगर अपने ऊपर यकीन करना छोड़ दिया तो किसके ऊपर यकीन करें?” ये वैसी ही बात होगी (कि) कोई कहे कि “ऐसी गाड़ी से उतर गए तो अब आगे की यात्रा कैसे होगी?” अब होगी! अपने ऊपर यकीन करना छोड़ दिया तो अब समझ जाएँगे कि किसके ऊपर करना है। जब तक अपने ऊपर यकीन कर रहे थे, तब तक तो आपके सारे निर्णय ही भ्रमित थे, थे कि नहीं? तभी तक तो नहीं पता था कि अब किस पर विश्वास करें किस पर नहीं। भई विश्वास किस पर करना है अगर ये चुनने का साधन ही उल्टा-पुल्टा हो, तो आप जिस पर भी विश्वास करेंगे धोखा ही तो खाएँगे। लोग आते हैं, कहते हैं, “ज़िंदगी ने बड़े धोखे दिए,” मैं कहता हूँ, “धोखे से पहले विश्वास होता है। जिस पर आपको विश्वास न हो, उससे आपको धोखा मिल सकता है क्या?” तो ज़िंदगी ने धोखे दिए या आपने गलत जगह विश्वास किया? ईमानदारी से बताओ! ज़िंदगी ने धोखे दिए या आपने गलत जगह विश्वास किया?
श्रोता: गलत जगह पर विश्वास किया।
आचार्य: जिसने विश्वास किया था, वो आपके पीछे डंडा ले कर दौड़ा था कि मुझ पर विश्वास करो? उसने आपको ललचाया था, लुभाया था, विज्ञापन दिया था, आकर्षित किया था, कि “आओ मुझ पर विश्वास करो”? कौन गया था उस पर विश्वास करने, किसका निर्णय था कि “मैं इस पर विश्वास करूँगा”? बोलो! आपका। तो अपनी गलती बताइए न, कि मैंने गलत जगह विश्वास किया, ये क्यों बोलते हैं कि उसने मुझे धोखा दिया? सारा दोष किस पर डाल दिया? दूसरे पर। दोष है किसका?
श्रोता: अपना।
आचार्य: ये ऐसी-ऐसी ही बात है कि मरुस्थल में मृग-मरीचिका से आप भ्रमित हो जाएँ और बताएँ कि “ये जो रेत है ये बड़ी छलती है, ईमान-धरम नहीं है इस रेत का। ये रेत लोगों को ऐसे दिखाती है जैसे पानी हो।“ हैं भई! रेत का क्या इरादा है पानी दिखाने का? और रेत का इरादा हो भी, तो आपने रेत पर विश्वास क्यों किया, अपना दोष देखिए न! एक बार वो आपके भीतर, जो जानता है कि विश्वास करना है या नहीं, सही हो जाए, ठीक हो जाए, स्वस्थ हो जाए, उसके बाद क्या जीवन आपको धोखा देगा और छलेगा? बोलिए! उसी का नाम गाड़ी है।
उसकी जो विन्ड-शील्ड है, उस पर टनों राख जमी हुई है, पक्षियों की विष्ठा जमी हुई है, सब कबूतरों ने उसे शौचालय की तरह इस्तेमाल किया है। उसका जो रियर-व्यू-मिरर है, वो पीछे का हाल नहीं दिखा रहा, वो पुराणों में वर्णित सोलह अन्य लोकों का हाल दिखाता है। तो अब धोखा होगा कि नहीं होगा? आगे देख रहे हैं, दिखाई कुछ पड़ नहीं रहा, ऐसी हमारी ज़िंदगी है न? पीछे देख रहे हैं तो जो दिखाई पड़ रहा है वो है ही नहीं। पीछे चला आ रहा है ट्रक, और जो हमारा पौराणिक रियर-व्यू-मिरर है वो क्या दिखा रहा है? कि अप्सराएँ हैं, और दुग्ध की नदियाँ बह रहीं हैं, तो आपने कहा, “आ अप्सरा!” और ट्रक जबरदस्त, वो आ कर के हल्के से चूम गया, फिर आप कहते हैं, “बड़ा धोखा हुआ।“ ट्रक की गलती है? हमारे सारे उपकरण ही अगर चोट खाए हुए हों, विक्षिप्त हों, तो धोखा हमें संसार दे रहा है या हम तैयार खड़े हैं धोखा खाने के लिए?
बात समझ में आ रही है?
मूल शंका का निवारण करो। और हमारी मूल शंका जगत को ले कर के नहीं होती, हमारी मूल शंका स्वयं को ले कर के होती है। जगत को ले कर के हमारी सतही शंकाएँ होतीं हैं, और उनके निवारण के लिए विज्ञान पर्याप्त है। ये सतही शंकाएँ भी अधिकार रखतीं हैं कि इन्हें संबोधित किया जाए, इनका हल किया जाए, इन्हें उत्तर दिया जाए; उसके लिए क्या है?
श्रोता: विज्ञान।
आचार्य: विज्ञान; और विज्ञान उनका हल कर देगा। दुनिया में जो कुछ न समझ में आ रहा हो, उसके लिए ज्ञान-विज्ञान बहुत हैं। अर्थव्यवस्था कैसे चल रही है, ये किताबें बता देंगी। ब्रह्मांड में पूरे क्या चल रहा है, ये भी विज्ञान आपको बहुत हद तक आज बता देगा। जो कुछ भी दुनिया के बारे में जानना चाहते हैं वो आपको किताबों से मिल जाना है, और उसके बारे में भी मैं कह रहा हूँ, रखिए ज्ञान, लेकिन वो सब ज्ञान रख कर भी भीतरी अकुलाहट बची ही रह जाती है। अन्यथा तो आप ये पाते कि जो बड़े-बड़े दार्शनिक हैं और विद्वान हैं और वैज्ञानिक हैं, वो सब अपने ज्ञान और दर्शन और विज्ञान के कारण ही मुक्त हो गए, आत्मज्ञानी हो गए, बुद्ध हो गए; क्या हो जाते हैं?
आपको दुनिया-भर के पुस्तकालयों का ज्ञान हो सकता है, लेकिन अंदरूनी शंका तो फिर भी बनी ही रह जाती है न? तो उस अंदरूनी शंका को संबोधित करना बहुत ज़रूरी है। वो अंदरूनी शंका कैसे संबोधित होगी, हमने क्या कहा? कि उसको शंका मत रखिए, उसको विश्वास में बदल दीजिए, और कहिए, “शंका की कोई बात ही नहीं, समझ में आ गई है बात।“ चारों टायर चीथड़े हैं, और स्टेपनी के नाम पर दो नट , तीन बोल्ट रखे हैं, कहा जा रहा है, “ये स्टेपनी है, लगा लो,” ये हमारी गाड़ी है। “मन्नू भाई मोटर चली रम-पम-पम।“
ये जिसको आप अपनी गाड़ी कह रहे हैं, इससे उतरिए, फिर लिफ़्ट मिलेगी। लाइफ़ में लिफ़्ट माँगता है कि नहीं, या बस गाने ही गाते रहते हैं, “अपनी भी तो लिफ़्ट करा दे”? लिफ़्ट तो तब होगी न, जब अपनी गाड़ी से उतरोगे पहले!
YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=OkAlnP4b2MQ