प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। आचार्य जी, हम बहुत ऐसे व्यक्तियों को सुनते हैं जो हमें सच ज्ञान की बात बताते हैं, परन्तु फिर भी एक जो आन्तरिक क्रांति है जिसकी आप बात करते हैं कि एक आन्तरिक क्रांति ज़रूरी है बदलाव के लिए, वास्तविक बदलाव के लिए, वो चाहकर भी नहीं हो पाती।
जिस प्रकार से दुर्योधन भी द्वापर युग में गुरुकुल गया, उसने भी वेदों का अध्ययन किया, शास्त्रों का अध्ययन किया, गुरुओं की संगति में रहा, फिर भी वो दुर्योधन ही बना, हम सब उसकी निन्दा करते हैं। उसी जगह पर युधिष्ठिर भी गये पर उनका चरित्र आज हम देखते हैं।
तो ऐसी कौनसी चीज़ है जो उस आन्तरिक क्रांति लाने के लिए ज़रूरी होती है? हममें से क्यों ऐसा कोई नहीं है जो आचार्य जी जैसा, आपके जैसा सोच पाता हो?
आचार्य प्रशांत: प्रेम चाहिए। प्रेम एक गहरी असन्तुष्टि होता है। प्रेम कभी सन्तुष्ट हो पाता है? क्योंकि उसमें पूर्ण प्राप्ति तो होती नहीं। एक असन्तुष्टि चाहिए होती है। सब में चाहिए, ख़ासकर युवा लोगों में तो चाहिए ही चाहिए कि जल्दी से तर कर न बैठ जाओ।
एक बच्चा है, वो देखता है कि कोई साइकिल चलाता हुआ जा रहा है। और कोई साइकिल चलाता हुआ जा रहा है, ये एक छोटे बच्चे के लिए बड़ी अद्भुत बात हो सकती है, हो सकती है न? एक साइकिल ही है पर बच्चे के लिए अद्भुत बात हो सकती है। अब एक बच्चा है जो इसी बात से सन्तुष्ट हो गया कि उसने किसी को देख लिया साइकिल चलाते हुए। क्या ये स्वयं कभी साइकिल चला पाएगा? जो बच्चा दूसरे को साइकिल चलाते देख करके सन्तुष्ट हो गया, क्या वो ख़ुद कभी साइकिल चला पाएगा?
और आप किसी को साइकिल चलाते देखें, इसके आप पर दो तरह के प्रभाव हो सकते हैं। एक, आप कह दें, ‘मैंने देख लिया किसी को साइकिल चलाते हुए, अद्भुत आनंद आया, मज़ा आ गया। क्या चला रहा था! एक पाँव इधर, एक पाँव उधर!’ या कि कई लोग कैंची चलाते हैं न, वो देख करके और गज़ब!
तो एक ये हो सकता है कि दूसरे को देख लिया और प्रमुदित हो गये, अघाय गये बिलकुल, मज़ा आ गया। और दूसरा ये हो सकता है कि देखा कि वो चला रहा है तो अपने भीतर एकदम आस उमड़ी, ‘वो चला रहा है तो मैं भी चलाऊँगा।’
जो पहली बात करी हमने, उसमें दूसरे को चलाता देख कर आपमें संतुष्टि आ गयी और जो दूसरी बात करी हमने, उसमें दूसरे को चलाता देखकर आपमें घोर असन्तुष्टि आ गयी। तो व्यक्ति ऐसा चाहिए जो जब भी कहीं पर कुछ विलक्षण देखे, उत्तम देखे, ऊँचा देखे तो उसमें असन्तुष्टि का भाव आए। वो तभी हो सकता है जब आपमें ऊँचाई से प्रेम हो। कि आपको वो चीज़ दिख गयी है, आप कहें, ‘मुझे दिखी है इससे पेट नहीं भर जाता मेरा। दिखी है तो पानी है।’
और याद रखिए, आप दस साल तक किसी को साइकिल चलाता देखते रहें, उससे आप नहीं चला पाएँगे। आप किसी को साइकिल चलाता देखते रहिए दस साल तक, तो भी आप नहीं चला सकते। या चलाने लग जाएँगे? ख़ुद चलाना तो माने ख़ुद चलाना। हाँ, दूसरा चला रहा है साइकिल, इससे आपमें — मैं कह रहा हूँ —एक उत्साहपूर्ण असन्तुष्टि का संचार होना चाहिए। भीतर से ऊर्जा उठनी चाहिए, जिसको मैं उत्साह कह रहा हूँ। ऊर्जा उठनी चाहिए कि उधर है और सुन्दर है तो मुझे भी चाहिए। अगर उनको मिल सकती है तो मुझे क्यों नहीं!
बताओ कौनसी श्रेष्टता दर्शायी है उन्होंने, मैं भी दर्शाउँगा; बताओ कौनसा मूल्य चुकाया है उन्होंने, मैं भी चुकाउँगा। बताओ उन्होंने कौनसी साधना करी है? जितने कष्ट आएँगे, सब भोगूँगा, वो साधना मैं भी करूँगा पर वो जो सामने है उससे अब हो गया है प्यार। उधर है तो इधर भी चाहिए।
ये समझ में आ रही है बात?
आप किन्हीं भी महापुरुषों का जीवन चरित्र पढ़ें तो आप इसलिए थोड़ी पढ़ रहे हैं कि पढ़ करके आप कहें मैंने पढ़ लिया, अब जान गया। चाहे वो आध्यात्मिक क्षेत्र में लोग हों कि विज्ञान के क्षेत्र में लोग हों, किसी भी क्षेत्र में लोग हों। अन्वेषक हों, गायक हों, कलाकार हों, खिलाड़ी हों, राजनेता हों, कुछ भी हो सकते हैं, मनुष्य की गतिविधियों के इतने क्षेत्र हैं। आप कहीं भी कुछ ऊँचा देखें तो उससे आपको एक समस्या खड़ी हो जानी चाहिए। ये आपके लिए बड़े सौभाग्य का, साथ-ही-साथ बड़ी दिक्क़त का क्षण होना चाहिए जब आपको कहीं ऊँचाई के दर्शन हो जाएँ।
सौभाग्य इसलिए कि दर्शन हो गये और अड़चन ये कि मात्र दर्शन हुए हैं, प्राप्ति नहीं हुई है। होना तो बल्कि ये चाहिए कभी-कभार कि आप बीच में बोल दें कि अरे! बड़ी समस्या खड़ी हो गयी। सौभाग्य कम है, समस्या ज़्यादा है। ये न दिखते तो बेहतर था। हम एक भीतरी ग़लतफ़हमी में जी रहे थे कि भाई उन्मुक्तता, आज़ादी, उच्चता, ये एक सीमा के आगे सम्भव ही नहीं हैं। हमने अपनेआप को ऐसा समझा लिया था और ज़िन्दगी सुकून से कट रही थी।
लेकिन इनसे मिले हैं तो इन्होंने अपने होने मात्र से प्रमाणित कर दिया कि मुक्त जिया जा सकता है, ऊँचाइयाँ सम्भव हैं, आकाश उपलब्ध है। अब हम अपनेआप को कैसे समझा लें कि नहीं-नहीं-नहीं, ये जो हम ऐसे ही केंचुए जैसा जीवन जीते रहते हैं, मिट्टी में लोटते रहते हैं, यही सब कुछ है। अब हमारे लिए अपनेआप को ऐसा आश्वस्त कर पाना बड़ा मुश्किल हो गया है। लो, समस्या खड़ी हो गयी!
तो आप पूछें अपनेआप से कि ये भगवद्गीता हाथ में आ गयी या बुद्ध की जीवनी पढ़ने को मिल गयी, ये अच्छा हुआ कि बुरा हुआ? और आपका एक हिस्सा होना चाहिए जो कहे कि बड़ा बुरा हो गया। क्योंकि अब कुछ ऐसा दिख गया है जिसे अनदेखा नहीं करा जा सकता। बड़ी समस्या आ गयी है और उससे बड़ी समस्या ये आ गयी है कि समस्या से प्यार हो गया है।
समस्या कौन है? — बुद्ध, कृष्ण; ये सब बड़ी समस्याएँ हैं क्योंकि इनके शरीर तो हमारे ही जैसे हैं, जन्म हमारे ही जैसा है, इनके भी माँ-बाप थे, उनकी भी अपेक्षाएँ थीं, इनका भी बचपन था, फिर जवानी आयी, इनके चारों ओर भी स्थितियों के बंधन थे। ठीक है न? कालबद्ध इनके भी अपने संस्कार थे। तो इनमें बहुत कुछ वैसा ही था जैसा हममें हैं। लेकिन उसके बाद भी ये इतना ऊँचा जीवन जी गये। लो हमारे लिए कर दी न समस्या खड़ी!
एक विचित्र सा भाव उठना चाहिए जिसमें प्रेम भी हो, अहोभाव भी हो और मैं तो कहता हूँ थोड़ी-सी ईर्ष्या भी हो। ठीक से समझना कौनसी ईर्ष्या की बात कर रहा हूँ, बड़ी सात्विक ईर्ष्या, जो कहे कि हाड़-मांस का शरीर इनका भी मेरे ही जैसा, पर इनका होना मेरे लिए जितने सौभाग्य की बात है, उतने ही अपमान की बात है। क्या अपमान है? ये इतना आगे निकल गये! एक मीठी सी ईर्ष्या उठती है भीतर — कर कैसे लिया? और मैं कैसे चूका जा रहा हूँ?
तो ये नाता होना चाहिए ऊँचाई के साथ, जहाँ कहीं भी कोई महापुरुष मिले, उसके साथ। ऐसे नहीं कि दूर से नमस्कार कर लिया और कह दिया कि ये तो विशिष्ट हैं या जन्म से ही विलक्षण थे। जैसे हम कह देते हैं न, बाद में कहानियाँ रच लेते हैं। जब कोई ज़िन्दगी में बहुत आगे निकल जाता है तो हम कहने लग जाते हैं कि ये तो जन्म से ही अद्भुत था।
फिर कहानियाँ रची जाती हैं कि उनकी माता जी को भगवान जी ने सपने में दर्शन दिये थे, बालक के पैदा होने से पहले, और कहा था, ‘ये तुम्हारा जो बालक है ये पिछले आठ जन्मों का बड़ा तपस्वी ऋषि है और अब ये बस उसका आख़िरी जन्म है। अब ये पैदा हो रहा है जगत के उद्धार के लिए। और ये पैदा हो करके बड़े महान काम करेगा।'
और इस तरह की कहानियाँ रचकर के हम स्वयं को ही बुद्धू बना लेते हैं। क्योंकि इस कहानी के द्वारा हमने अपनेआप को क्या समझा लिया है, कि वो जो पैदा हो रहे हैं वो जन्म से ही या बल्कि जन्म से पहले से ही विशिष्ट हैं। तो फिर हमारी उनकी क्या तुलना हो सकती है? तो फिर अगर उन्होंने बड़े काम करे तो उन्हें करने दो, हमारी उनकी तुलना तो हो नहीं सकती। हम तो बड़े साधारण जन्म के प्राणी हैं और वो जन्म से ही विशिष्ट हैं। तो उन्होंने अगर बड़े काम करे तो वो उनकी बात है। हम न बड़े हैं न बड़े काम करेंगे।
नहीं। जन्म उनका भी वैसे ही हुआ था जैसे आपका हुआ है। संशय उनमें भी वही थे जो आपमें हैं। जैसे आपको डर लगता है न वैसे उन्हें भी लगता था। पर उन्होंने जीवन के नाज़ुक पलों में बल्कि पग-पग पर थोड़े निडर बेखौफ़ चुनाव करे। वो चुनाव आप भी कर सकते हो।
महानता किसी से भी बहुत दूर नहीं होती है, बस मूल्य चुकाने का चुनाव करना पड़ता है।
आपको बड़ा अचरज हो जाएगा अगर आपको कभी यथार्थ पता चले कि आप जिनको महान बोलते हो, वो हर अर्थ में निन्यानवे प्रतिशत बिलकुल आप ही के जैसे हैं। आप ग़लतियाँ करते हो, वो भी ग़लतियाँ करते थे। आप डगमगाते हो, वो भी कॉंप जाते थे। लेकिन हमने कहानियाँ रच के अपनेआप को ये बता दिया है कि वो हमसे बिल्कुल भिन्न हैं। इतने भी भिन्न नहीं हैं, कोई आपसे भिन्न नहीं होता।
क्या भिन्न होगा कोई! सब एक प्रजाति के हैं न भाई, थोड़ा तार्किक बुद्धि से सोचो! सब एक ही प्रजाति के हैं न? एक ही तरह से पैदा होते हैं, एक ही तरह खाते हैं, पीते हैं, एक ही तरह साँस लेते हैं, एक ही तरह बीमार पड़ते हैं और फिर बूढ़े होते हैं और मर जाते हैं। सब ऐसे ही तो होते हैं? तो आपसे कोई कितना भिन्न हो सकता है?
पर प्रेम तो हो! प्रेम तो हो! वहाँ चल रही है साइकिल तो बच्चा लोट जाए बिलकुल ज़मीन पर! ‘दिखाने भर से नहीं चलेगा, चलाने से चलेगा। मुझे भी चाहिए।’ या तो तुमने हमें ये सब कहानियाँ बतायी नहीं होतीं, महानताओं की। पर अब हमें ये सब कहानियाँ बता दी हैं तो अब हमें रोकना मत। जाना हमें भी उन्हीं के रास्ते है।
नहीं तो ये क्या करते हो बचपन से चौथी क्लास से बच्चों को महान लोगों का चरित्र पढ़ाया जाने लगता है, है न? है न? क्यों पढ़ाया जाने लगता है ताकि परीक्षा में लिखा आओ और कुछ अंक ले लो? क्यों पढ़ाते हैं? तो यही कहना चाहिए कि या तो पढ़ाते नहीं, पर अब पढ़ा दिया है तो अब हम भगत सिंह बन रहे हैं तो रोकना मत। नहीं तो हमने नहीं कहा था कि तुम हमें भगत सिंह के बारे में बताओ। और अब बता दिया है तो तुम्हारी ग़लती, काहे को बताया? अब तो हम बनेंगे भगत सिंह। और अगर नहीं बनते तो हम पर पाखंड का आरोप!
बात पाखंड की है कि नहीं कि उनको जान भी लिया, ये भी कह दिया भगत सिंह अमर रहें, ये भी कह दिया महान थे, ये सब कह दिया और ये सब कहने के बाद अपनी ज़िन्दगी कैसे जी रहे हैं? टिंकू, टिंकू जैसी जी रहा है; रिंकू, रिंकू जैसी जी रहा है। ये तो कोई बात नहीं हुई।
जिसको पता ही नहीं, उसको तो फिर भी माफ़ी मिले। जिसको पता है सबकुछ, उसके बाद भी वो कहे कि मुझे जीवन एकदम थका-हारा, बँधा हुआ, रुँधा हुआ ही जीना है, तो उसकी क्या माफ़ी है फिर? अपनेआप से ये प्रश्न तो करो। चाहे वो विचार के क्षेत्र के क्रांतिकारी हों, दार्शनिक हों, चिन्तक हों; चाहे राजनीति के क्षेत्र के क्रांतिकारी हों; विज्ञान के क्षेत्र के हों; कला के क्षेत्र के हों; किसी क्षेत्र के हों, आपको सब क्रांतिकारियों की ही कहानियाँ क्यों बताई जाती हैं? कभी थोड़ी सी सोचा नहीं बुद्धि लगाकर?
अब उन्नीससौ दस-बीस-तीस का दशक ले लो अगर, तो उस समय भी भारत की आबादी चालीस करोड़ थी तब भी। आज एक-सौ-चालीस करोड़ है, चालीस करोड़ तो तब भी थी लेकिन और चालीस करोड़ की आबादी में न जाने कितने रहे होंगे अक्खु, लक्खु, चिंकू, पिंकू, कालू, शालु, माने आम आदमी, न जाने कितने रहे होंगे। उन सबका वृतांत आपको पढ़ाया जाता है क्या? उनके बारे में कुछ भी बताया जाता है?
बताया किन के बारे में जाता है? तो जिनके बारे में बताया जाता है, उनके बारे में क्यों बताया जाता है? ताकि आपका सामान्य ज्ञान बढ़ जाए? आगे चल के यूपीएससी निकाल लो? क्यों बताया जाता है उनके बारे में? क्योंकि उनके होने से उन दशकों की पहचान है बाबा। उन क्रांतिकारियों के होने से १९२० और १९३० के दशकों की पहचान है। नहीं तो क्या बताओगे उन दशकों के बारे में? कि गंगू के घर बछिया हुई! आम आदमी की तो यही कहानी होती है। इसको लिखें क्या पाठ्यपुस्तकों में?
वो सब बताया गया, क्यों बताया गया? ताकि तुम पर एक उन्माद छा जाए। एक बहुत ऊँचा प्रेम तुम्हें अपनी गिरफ़्त में ले ले। वो तुम्हारे आदर्श बन जाएँ, तुम उन्हें खाने-पीने लगो, वो तुम्हारी साँस में आ जाऍं।
समझ में आ रही है बात?
जो सच्चाई को जानकर के भी उसको जीता नहीं है, बड़े पाखंड का अपराधी होता है। एक बार फिर सोचो, कितने सारे लोग रहे होंगे न, कितने लोग रहे होंगे! और वो लोग क्या हो गये? वक़्त की धूल। तुम उन्हें याद रख रहे हो? एक रामदुलारे रहे होंगे किसी गाँव में, कहीं कोई चुन्नीमल सेठ रहा होगा, कहीं कोई रगड़ू मियाँ रहे होंगे। कोई मतलब इन लोगों का? तो तुम इन्हीं लोगों जैसी ज़िन्दगियाँ जीने की ओर क्यों बढ़ रहे हो?
तुम जिस ज़िन्दगी की ओर बढ़ रहे हो, वो भगत सिंह की है या चुन्नीलाल की? जल्दी बोलना।
श्रोतागण: चुन्नीलाल की।
आचार्य: ये तो अजीब बात है, क़िताबों में भगत सिंह को पढ़ रहे हो! जब चुन्नीलाल जैसी ज़िन्दगी जीनी थी तो क़िताबों में भी चुन्नीलाल को ही पढ़ा होता। तो ये तो हो गया न अब, बड़ा पाखंड हो गया। और ये तय सबने कर रखा होता है और माँ-बाप ने तो पूरा ही तय कर रखा होता है। माँ-बाप को पता चल जाए लड़का भगत सिंह की तरफ़ जा रहा है, तुरन्त छाती पीटने लगेंगे।
एक ग़लती कभी मत करना कि जहाँ कहीं कुछ उत्कृष्ट देखा — अच्छा, सुन्दर, ऊँचा — उसको प्रणाम किया और उससे दूर हो गये। ये मत करना। ये हम करते हैं और हम सोचते हैं हमने ठीक किया। हमने सम्मान दिखा तो दिया। कुछ बहुत ऊँचा दिखा, हमने क्या करा? नमस्ते, नमन, प्रणाम और पीछे हट जाते हैं। जब कहीं कुछ ऊँचा दिखे उसके निकट जाना, डरना नहीं।
सिर झुकाना तो ठीक है पर उसकी ऊँचाई की ओर सिर उठा के भी देखना ताकि ये पता तो चले, आँखों में उसकी ऊँचाई थोड़ा प्रवेश तो करे। पाँव छूना भी ठीक है लेकिन भीतर ये चाह भी उठे कि गले भी मिल सकें। पाँव भर छूने में तो बड़ी सुरक्षा है, पाँव छूकर के तुमने कह दिया आप बड़े हम छोटे, हमने पाँव छुआ, इति श्री। ठीक! आप बड़े हम छोटे। पाँव छूकर के हमने और अपनेआप को ज़िम्मेदारी से मुक्त कर दिया, हम छोटे हैं, बस!
भीतर एक चाह उठनी चाहिए कि हम इस क़ाबिल बन पायें कि इनके गले भी मिल पायें। और वही तो सच्ची बात है न? कोई चीज़ अच्छी लगी है तो उसे दूर-दूर से थोड़े ही सलाम करते रहोगे। उसे ज़िन्दगी बनाओगे न। पर ये बात हमारी शिक्षा में आती नहीं, ये बात हमारे संस्कारों में भी कभी आती नहीं।
एक तरह की हीन भावना है ये ─ कुछ ऊँचा है तो बस उसे दूर से नमस्ते कर लो। ये हीन भावना ही है न, वो ऊँचा है, हम छोटे हैं। तो उसके बहुत निकट जाने का अधिकार कहाँ है हमारा! और जो भी कोई व्यक्ति ऊँचा होता है न, वो कभी ये नहीं चाहता कि बहुत सारे लोग आकर के नमन करें उसे। जानते हो वो क्या चाहता है? वो यही चाहेगा कि तुम भी वही हो जाओ जो वो है। जिस सम्भावना को उसने सार्थक करा है, उसको तुम भी अपने लिए सार्थक कर लो।
और बल्कि वो ये देखेगा कि सब आ-आ के उसको नमस्ते कर रहे हैं ज़्यादा, ये सब चरणस्पर्श, तो दुखी और हो जाएगा। क्यों दुखी हो जाएगा? उठ रहे नहीं हैं, उठ रहे नहीं हैं, झुक और रहे हैं।
नमन का अर्थ ये होता है कि अब हम झुक रहे हैं। माने अब हम अपने जैसा नहीं रहेंगे, हमारी जो अकड़ थी कि मुझे अपने जैसा रहना है और अपना माने छोटा, मैं तो छोटा हूँ। मैं झुक रहा हूँ और झुकने का अर्थ होता है उठना।
झुकना मतलब समझ रहे हो न? क्या झुकता है? ये सिर झुकता है; अहम्, ये झुकता है। और ये कहता है मैं जैसा हूँ ठीक हूँ। तो इसके झुकने का अर्थ होता है कि इसने मान लिया कि मैं जैसा हूँ, मैं ठीक नहीं हूँ। तो ये झुक करके ये स्वीकारता है कि अब मैं उठूँगा। पर आप सिर्फ़ झुक रहे हो और उठ रहे नहीं, तो ये तो विडंबना हो गयी। और फिर जो ऊँचा व्यक्ति है वो दुखी हो जाएगा।
कुछ आ रही है बात समझ में?
आपकी सम्भावना इस विश्व में जो भी महानतम लोग हुए हैं उनसे इतनी भी कम नहीं है। और उसी साझी सम्भावना को वेदान्त में आत्मा कहते हैं। आपकी सम्भावना, जो ऊँचे-से-ऊँचा व्यक्ति आज तक हुआ है, उससे इतनी भी कम नहीं है। ये बात सुनते ही हममें से ज़्यादातर को हर्ष नहीं होता, भय सा होता है न कि बाप रे! इतना, इतना ऊँचा जाना पड़ेगा! उतना ऊँचा जाना ही पड़ेगा, वही नियती है हम सबकी। उतना ऊँचा नहीं जाओगे तो टिंकूलाल बन के रह जाओगे। बनना है टिंकूलाल?
टिंकूलाल बनना हमारी डिफ़ॉल्ट किस्मत होती है। डिफ़ॉल्ट समझते हो? — पूर्वनिर्धारित; वो होना ही होना होता है। वो न हो इसके लिए बड़ी क्रांति, बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। आप कर रहे हो इतनी मेहनत? नहीं करोगे तो टिंकूलाल तो बन ही जाओगे। टिंकूलाल बनने के लिए कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती। जैसी ज़िन्दगी चल रही है, चलने दो, टिंकू लाल बन जाओगे। एक अर्थ में अभी टिंकूलाल हो ही। टिंकूलाल न रह जाओ, उसके लिए मेहनत करनी पड़ती है।
कुछ जम रही है बात?
और मैं ये बात बिलकुल सही लोगों से कर रहा हूँ क्योंकि तुम उम्र की उस अवस्था में हो जिसमें तुम्हारे पास ज्ञान भी है, दुनिया को जान-समझ गये हो, बालक नहीं हो, तो तुम्हारे पास अब बुद्धि है, शारीरिक बल भी है और अभी दुनिया के झंझटों में फँसे नहीं हो तो तुम्हारे ऊपर कोई कर्ज़ और बोझ जैसे कर्तव्य नहीं हैं। तो अभी तुम्हारी जो हालत है, स्थिति है, वो एकदम अनुकूल है ज़िन्दगी को एक ऊँची दिशा देने के लिए। इनसे बेहतर दिन तुम्हें नहीं मिलेंगे।
पाँच साल पीछे देखोगे तो बच्चे थे, हर तरीक़े से दूसरों पर आश्रित थे और पाँच-दस साल आगे देखोगे कि अगर टिंकूलाल की ही ज़िन्दगी जीते रहे तो क्या हुआ? पाँच-दस साल आगे देखोगे तो क्या देखोगे? टिंकूलाल, फिर लाली, फिर लल्लू, लल्ली, अब बन लो भगत सिंह! अब कर लो जीवन में कुछ भी सार्थक काम। अभी ही है, यही पल है। कुछ अनुचित?
हिंदुस्तान के साथ बड़ी त्रासदी है। यहाँ बच्चा जवान नहीं होता, सीधे बाप बन जाता है। कल तक बच्चा था, आज बाप बन गया। जवान? वो तो कभी हुआ ही नहीं। और बाप बनने का मतलब होता है बूढ़ा बन जाना। तो जवानी आयी ही नहीं। बचपन और बचपन से फिर सीधे बुढ़ापा। आज बच्चा, कल बाप।
दुनिया में इतनी मूर्खता फैली हुई है, इतना अन्याय है, इतना अत्याचार है, पागलों ने आग लगा दी है दुनिया में, तुम बस किसी मजबूरी तले अपनेआप को दबा मत लेना। विद्रोह तो कर ही दोगे क्योंकि जो सब चल रहा है दुनिया में वो एकदम प्रत्यक्ष और स्पष्ट है। विद्रोह तो कर ही दोगे। पर कोई करता नहीं, क्यों? क्योंकि सब अपनेआप को मजबूरियों तले दबा लेते हैं। एक बार दब गये तो अब क्या विद्रोह करोगे? वो मत करना बस।
दस-दस साल सरकारी नौकरी की तैयारी चल रही है। ये आदमी कौनसी महानता हासिल करेगा? बताओ। या करेगा? जिन रास्तों से कोई लेना-देना नहीं, उन पर चल पड़े हैं। कहीं भी वेकेंसी (रिक्ति) निकल रही है, खट् से उसका फ़ॉर्म भरे दे रहे हैं। मछली-पालन में फ़ॉर्म भर दिया, मुर्गी-पालन में फ़ॉर्म भर दिया ─ सरकारी नौकरियाँ इन सब की भी निकलती हैं। मत्स्य-पालन और कुक्कुट-पालन। या प्राइवेट में चले गये, वहाँ कुछ भी है, जाओ क्रेडिट कार्ड बेचो, वो बेच रहे हैं।
तब एक पल को याद नहीं आता कि जिन लोगों की कहानियाँ बचपन में पढ़ी थी, क्या उन्होंने ये रास्ते चुने थे? बोलो। और कुछ नहीं तो पचास-सौ महान लोगों को तुम सभी जानते होओगे, ठीक? उन्होंने क्या ये रास्ते चुने थे जो सब टिंकूलाल चुनते हैं? तो जब जीवन में चुनाव का क्षण आता है तो टिंकूलाल क्यों याद रह जाता है? और बुद्ध क्यों बिसरा जाते हैं? यही है बस!
आसान भी नहीं है! कुछ भी नहीं करना है, आसान तो वो हो जिसमें कुछ करना हो। टिंकूलाल तो एक बेहोशी के प्रवाह का नाम है, कुछ नहीं भी करो तो टिंकूलाल बन जाओगे। हैं ही! जैसे माँ के गर्भ से ही टिंकूलाल ही जन्म लेता है। तो टिंकूलाल माने अपना पड़े रहो, समय जो करा रहा है वो होता जाए। एक उम्र आएगी, माँ-बाप तुम्हारी कुण्डलियाँ इधर-उधर मिलाना शुरू कर देंगे। जाति और गोत्र वगैरह देखना शुरू कर देंगे। तुम्हारी ही जाति की कोई कन्या या वर पकड़ लिया जाएगा। बक़ायदा दहेज वगैरह तय किया जाएगा।
प्र२: आपने जैसे कहा कि हमें बचपन में कहानियाँ पढ़ाई जाती हैं ─ भगत सिंह, गाँधी जी, सुभाषचंद्र बोस और आज का समय देखें तो अगर एक महान या एक बड़ी पोस्ट (ओहदा) की बात करें, सब यूपीएससी की तैयारी करते हैं, कलेक्टर बनना चाहते हैं। तो ये समय भगत सिंह के पास ये सोचने का मौका नहीं था क्या? वो भी तो बन सकते थे कलेक्टर। वो भी तो उस टाइम वो जॉब (नौकरी) कर सकते थे, उस टाइम में वो बहुत बड़ी थी एक मायने में जॉब। फिर उन्होंने दूसरा रास्ता चुना क्योंकि उन्हें पता था कि हम इस राह पर जाएँगे अगर, ग़ुलामी वाली ज़िन्दगी जी ली तो हमें कोई याद न करेगा न हम कुछ काम आएँगे अपने देश के। और हम एक अलग राह चुनेंगे तो हम अपने देश के भी काम आ जाएँगे और लोगों के लिए भी प्रेरणा बनेंगे।
आचार्य: और जानते हो, भगत सिंह के लिए ये कलेक्टर वगैरह बनना बहुत आसान था क्योंकि उस समय पढ़े-लिखे लोग बहुत कम होते थे। और भगत सिंह सिर्फ़ औपचारिक रूप से पढ़े-लिखे नहीं थे कि उनके पास डिग्री थी, वो वास्तव में पढ़े-लिखे थे।
हम भगत सिंह की बात सुनते हैं तो उनका सम्बन्ध सिर्फ़ बम और बंदूक से लगाते हैं, उनका पहला नाता किताबों से था। अपनी उम्र के हिसाब से उन्होंने बहुत पढ़ रखा था। पढ़ भी रखा था और लिखा भी। बाईस-तेईस साल की छोटी सी उम्र, उतने में किताबें लिख देना और साथ में बम-बारूद तो चल ही रहा है। बम-बारूद भी चल रहा है, पढ़ाई-लिखाई भी चल रही है और लेखन भी चल रहा है।
इतने प्रतिभाशाली आदमी को तो सब मिल जाता दुनिया से। वो जो माँगता, दुनिया दे देती उसको। तब आईसीएस होता था इंडियन सिविल सर्विस (भारतीय सिविल सेवा), कर लेते उत्तीर्ण। इतनी प्रतिभा के छात्र तो देश में तब बहुत थे ही नहीं। जो लोग ऊँची शिक्षा कर लेते थे, लगभग निश्चित हो जाता था कि उनको सरकारी नौकरी अंग्रेज़ों की मिल ही जाएगी। तो भगत सिंह चाहते तो बढ़िया एकदम तुरन्त मिल जाती। हाथ आयी चीज़ को ठुकराया उन्होंने।
अब सुनो भर नहीं कि साइकिल चल रही है, देख रहे हैं, बड़ा अच्छा लग रहा है। थोड़ा उनके मन में प्रवेश करो — वो क्या देख रहें हैं, वो क्या सोच रहें हैं, वो क्या चाह रहे हैं। यही बात वैज्ञानिकों पर भी लागू होती है, गणितज्ञों पर भी लागू होती है। जिन्होंने धर्म के क्षेत्र में ऊँचे काम किये, उन पर भी यही बात लागू होती है। उनके मन में प्रवेश करो न। एक आम मध्यमवर्गीय ज़िन्दगी जीना तो उनके लिए भी बहुत आसान था और आम ज़िन्दगी भी नहीं, उनको एक ऊँची ज़िन्दगी मिली जा रही थी क्योंकि प्रतिभा संपन्न थे। इंसान कहता है – ना। और वो जो ‘ना’ होती है, वही जवानी की पहचान होती है।
ये थोड़े ही कि टीवी पर एक नई चीज़ आयी और तुरंत जीभ बाहर लटक रही है, लार चू रही है। और वहाँ टीवी पर एक शो शुरू हुआ है जिसमें तुम अपना धंधा करने जाओ तो वो तुमको दस-बीस-पचास लाख रुपए दे देते हैं और तुमने लार चुआनी शुरू कर दी। या कुछ भी चल रहा है दुनिया में और तुम्हारे पास ‘ना’ है ही नहीं। तुम्हारे सामने जो ही चीज़ आयी, तुमने उसको बस सीधे मुँह में रख लिया, गले से उतार लिया।
प्र१: जब हम ये ‘ना’ कह रहे होते हैं, आचार्य जी, तो एक अंदर झिझक चलती है। उस झिझक से कैसे मतलब...?
आचार्य: उसमें तुम्हें कोई नहीं कुछ मदद दे सकता क्योंकि वो झिझक उनको भी लगी थी और उस पल में हर व्यक्ति अकेला ही होता है। वो जो एक झिझक का पल होता है न, तुमसे कितनी ही बातें कर लूँ यहाँ पर, तुम्हारे जीवन के निर्णय तो तुम को अकेले ही लेने पड़ेंगे न? क्योंकि वो तुम्हारा जीवन है।
जब साइकिल चलाने की बारी आएगी तो साइकिल पर तुम हमेशा अपनेआप को अकेला ही पाओगे। हाँ, पचास बहुत अच्छे साइक्लिस्ट (साइकिल चालक) आकर के तुम को प्रदर्शित कर सकते हैं साइकिल कैसे अच्छे तरीक़े से चलायी जाती है। वो महान साइक्लिस्ट हैं, वो आकर के तुमको बता गये ऐसे करना है, पर जिस दिन साइकिल को हाथ लगाओगे, अपनी गाड़ी आगे बढाओगे, अपनी यात्रा पर निकलोगे, उस दिन तो साइकिल पर तुम, उस अकेलेपन में कोई नहीं तुम्हारे साथ हो सकता है।
हाँ, मैं तुम्हारे बगल में खड़ा हो सकता हूँ। ये भी कर सकते हैं कि तुम साइकिल को ले करके निकले तो कुछ दूर तक किसी ने पीछे से पकड़ लिया। पर कौन कितनी देर तक किसी को पकड़ सकता है! थोड़ी ही देर में तुमको अकेला होना ही पड़ेगा।
एक बार शुरुआत कर लो उस ‘ना’ की। जब बोलते हो न तो लगता है जान निकल गयी। और कोई फ़ायदा नहीं दिखायी देता कि ‘ना’ बोल रहे हैं। ‘हाँ’ बोल दो तो दुनिया स्वीकार भी करती है, फ़ायदे भी मिलते हैं, सब तुमसे प्रसन्न रहते हैं। ‘हाँ’ बोलने के, बिक जाने के बहुत फ़ायदे होते हैं। ‘ना’ बोलने में कुछ दिखता ही नहीं है कि फ़ायदा क्या होगा।
सीखो। धीरे-धीरे धीरे-धीरे करके भीतर ताक़त विकसित होती जाती है। ‘ना’ बोलना आसान होता जाता है। अकेलेपन से डर कम लगता है। फिर धीरे-धीरे एक स्थिति ऐसी भी आ जाती है कि अकेलापन बेहतर लगने लगता है। तुम कहते हो अकेलेपन में एक शुद्धता है न। सौ की भीड़ में हो जाओ तो वैसा ही है जैसे सौ ग़ंदगियों में लथपथ हो जाओ। अकेलेपन में एक शुद्धता है।
ये जगह देख रहे हो! अब तो यहाँ फिर भी तुमको कुछ लोग आसपास दिख जाएँ शायद, जब यहाँ आए थे तो यहाँ कोई नहीं था, न कोई यहाँ आना चाहता था। यहाँ सामान मँगाओ तो डिलिवर (बाँटना) करने वाले भी नहीं आते थे। उन्हें लगता था कहाँ जंगल में बुला रहे हैं! अब तो होने लग गया है। और बल्कि ज़्यादा बड़ी समस्या ये है कि वो दिन जब आएगा क्या करेंगे जब यहाँ पर बस जाएगा, भीड़ आ जाएगी। अकेलापन अच्छा है क्योंकि उसमें शुद्धता है, शान्ति है, सुकून है।
डरना क्या है अकेलेपन से? कोई नहीं साथ है हमारे, ये तो सौभाग्य की बात है। ये भय की बात थोड़े ही है। कहे, ‘अकेले रह गये?’ कहे, ‘बधाई हो!’ जो अकेला है वो सौभाग्यशाली है भाई, बधाई हो। और हमारी सहानुभूति बल्कि उनके साथ है जो बेचारे भीड़ में अरे! अरे! अरे! अरे! चालीस जनों की भीड़ में हो और सब के सब एक स्वर से क्या कह रहे हैं? ‘हाँ’। एकाध-दो अकेले होते हैं जो कहते हैं ‘ना’, वो भीड़ से अलग हो जाते हैं। यही उनकी खुशकिस्मती है।
ये जो पूरा विश्व है, मानवता है, ये वैसे भी एक सामूहिक आत्महत्या की ओर सब बढ़ रहे हैं। आत्महत्या भी और सर्वविनाश भी। अपनी हत्या चलो कर लो कर लो, मानवता जितनी प्रजातियाँ हैं पृथ्वी पर, सबकी हत्या करने की ओर बहुत तेज़ी से बढ़ रही है और कर ही रही है। महाविनाश के बिल्कुल हम बीचों-बीच हैं। ये भी नहीं कि कल शुरू होगा। शुरू हो गया, उसके हम एकदम बीचों-बीच है।
ऐसे मूर्खों की भीड़ में शामिल हो करके तुम्हें क्या मिलेगा? तुम्हारा तो धर्म है अपनेआप को अलग कर देना।
प्र३: जैसा आपने बोला, ‘ना’ बोलना तो फिर भी आसान लगता है, वो हो जाता है। पर भीड़ से अलग होने के बाद भीड़ जो कर रही है वो देख कर मन विचलित होता है।
आचार्य: पर भीड़ में ही रहते और वो ही करते जो भीड़ कर रही है, तब मन कितना विचलित होता?
प्र३: वो मैं समझता हूँ लेकिन फिर भी कभी-कभार वो भाव आ जाता है।
आचार्य: जब भीड़ से अलग हो तो तुमने भीड़ के खिलाफ़ एक कदम तो उठा ही लिया न, क्या? अलग हो गये। अब और कुछ कर सकते हो तो करो। और और क्या करा जा सकता है? वो यही करा जा सकता है कि भीड़ में और भी तो होंगे तुम्हारे जैसे। क्योंकि भीड़ में होना, देखो नियती किसी की नहीं होती। भीड़ में होना दुर्गति ही होती है सबकी। तो हो सके तो और जितनों को उससे बाहर खींच सकते हो खींचो।
अगर मन विचलित ही लगता है भीड़ के पागल तरीक़ों को देखकर, तो भीड़ से जितने लोगों को बाहर खींच सकते हो खींचो। वही तरीक़ा है। और क्या करोगे!
समाज में हमेशा सौ, पाँच सौ मरीज़ों पर एक चिकित्सक होता है। समझ में आ गयी न बात? तो भीड़ हमेशा किनकी होती है? मरीज़ों की होती है। और चिकित्सक का क्या काम होता है? एक तरीक़े से देखो तो चिकित्सक मरीज़ों की भीड़ का दुश्मन होता है। क्यों? क्योंकि वो मरीज़ों को ख़त्म कर रहा होता है न? चिकित्सक का काम ही है मरीज़ को ख़त्म कर देना। वो कल तक मरीज़ था, चिकित्सक के हत्थे चढ़ गया तो स्वस्थ हो गया। तो मरीज़ का क्या हुआ? मरीज़ तो ख़त्म हो गया न!
तो चिकित्सक, जो कि हितैषी होता है, उसका काम ही यही है कि जिनका हितैषी है, उन्हें भीड़ से बाहर खींच ले। लेकिन तभी बाहर खींच पाओगे जब पूरे स्वास्थ्य के साथ, पूरे दम के साथ और पूरे आत्मविश्वास के साथ, तुम स्वयं अपने अकेलेपन को जियोगे। आनन्द के साथ, छाती ठोक के। कि भीड़ से अलग हुए हैं तो ये नहीं है कि कहीं जा के छुप गये हैं। कि कोने-कतरे में मुँह छुपाए बैठे हैं। अलग हैं और हुंकार के साथ अलग हैं।
तो ये फिर तुम्हारा जो स्वास्थ्य होता है, तुम्हारा जो अपना आनन्द होता है, इसी को देख करके फिर और लोगों को प्रेरणा मिलती है कि भीड़ से अलग हो पाएँ।
प्र४: जैसे आपने कहा कि अगर हम अपनेआप को भीड़ से अलग करते हैं तो हमारे मन में एक बार ज़रूर आता है ये ख़याल कि लोग तो सब उसी लाइन पर जा रहे हैं, हम क्यों अपनेआप को अलग कर रहे हैं? और इसी चक्कर में हम अपने मानसिक संतुलन को भी खो देते हैं। अपने बीते हुए कल को याद करते हैं और हम समझ नहीं पाते कि मैं कर क्या रहा हूँ।
आचार्य: एक बार नहीं होता, ये बार-बार होता है। कोई ऐसा नहीं है कि एक बार अलग हो जाओगे तो हो जाओगे। डर, संशय, इनका काम है बार-बार उठना। इनका काम है बार-बार उठना, तुम्हारा काम है इनको बार-बार परे कर देना। वो अपना काम करें, तुम अपना काम करो न!
कई बार होगा, तुम देखोगे भीड़ उतना उत्सव मना रही है, तुम कहोगे, ‘मैं ही चूक गया। मैं उनके साथ होता तो मुझे भी मज़े आ रहे होते।’ लेकिन सही होने का, सच्चा होने का, शुद्ध होने का जो आनन्द है, वो किसी भी दूसरी चीज़ से बहुत ऊपर है। और वो जैसे-जैसे मिलता जाता है, वैसे-वैसे फिर तुम्हें पक्का होता जाता है कि कुछ छूट जाए, ज़िन्दगी छूट जाए, मौत आ जाए, इस आनंद को, इस शुद्धता को, इसको तो नहीं छोड़ना।
जो एक चीज़ चाहने लायक थी, वो मिल गयी है। और बड़ी वो एक नाज़ुक चीज़ है, उसके साथ मज़ाक नहीं करते। छोड़ना तो बहुत दूर की बात है, उसके साथ हम खिलवाड़ भी नहीं कर सकते। मौज है!
जानने वालों ने गाया है ─ "हीरा पायो, गाँठ गठियायो।" और बहुत अब बोलने को कुछ बचा नहीं है। हीरा मिल गया है और गाँठ बाँध ली है, अपना हीरा हमारे पास है। वही हमारे आनन्द की चीज़ है। जीवन में एक मूल्य आ गया है।
देखो ऊपरी-ऊपरी बातें सब एक तरफ़, एकदम ज़मीनी बात समझो। जिन दो चीज़ों पर हर इंसान बिक जाता है, मैं उनकी बात तुमसे कर रहा हूँ, ठीक है! और ये दो चीज़ें अगर संभाल लोगे तो कोई बहुत बड़ी बात नहीं है कि क्रांति के लिए बड़ी क़ुर्बानी देनी पड़ेगी, ये सब हो गया, वो सब... कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। क्रांति वगैरह अपनेआप हो जाएँगे। एक सही ज़िन्दगी अपनेआप जीने लगोगे।
ये दो चीज़ें हैं – एक, पैसा, जो कि अधिकांशतः मानसिक कामना होती है। जब हमें पैसा चाहिए होता है न तो हमें चाहिए होता है सत्तर प्रतिशत मन को सन्तुष्ट रखने के लिए और तीस प्रतिशत तन को सन्तुष्ट रखने के लिए। आपको जो पैसा मिलता है, किसी भी आम आदमी को देख लो तो उसका वो बीस-तीस प्रतिशत ही उपयोग तन के लिए करता है। तन के लिए पैसे का क्या उपयोग होता है – खाना, कपड़ा, छत, यही सब होता है। तुम्हारे पैसे का बीस-तीस प्रतिशत ही। और अगर आप अमीर हो तब तो अपने पैसे का आप दो-चार प्रतिशत ही उपयोग करते हो तन के लिए। बाक़ी जितना पैसा होता है उसका उपयोग किसके लिए होता है?
श्रोतागण: मन के लिए।
आचार्य: मन के लिए; मन के लिए कैसे उपयोग होता है? मन को पता है कि मेरे बैंक अकाउंट (बैंक खाता) में दस करोड़ हैं। अब वो काम कहीं नहीं आ रहा पर मन प्रसन्न है और सुरक्षित अनुभव कर रहा है न मन। वो सुरक्षा काल्पनिक है पर मन – ‘मेरे बैंक में इतना पैसा है’। तो एक तो ये चीज़ होती है जहाँ जाकर फँसते हो, पैसा। और पैसा माने हमने कहा सत्तर प्रतिशत मन और तीस प्रतिशत तन। एक यहाँ फँसोगे, सब फँसते हैं। इन्हीं दो चीज़ों से अगर बच लोगे तो ज़िन्दगी में कहीं बहुत फँसना नहीं पड़ेगा।
और दूसरा, इंसान फॅंसता है जाकर के वासना में। और वासना में होता है सत्तर प्रतिशत तन और तीस प्रतिशत मन। सत्तर प्रतिशत वहाँ तन का खेल होता है और तीस प्रतिशत जिसको तुम भावनाएँ कह देते हो; कि मेरी फ़ीलिंग्स (भावनाऍं), मेरे इमोशन्स (भावनाएँ) वगैरह, ये सब। लेकिन चाहे पैसा हो और चाहे वासना, दोनों में खेल तन और मन का ही है। सच्चाई दोनों में कहीं नहीं है, तन और मन का खेल है।
यही दो गड्ढे होते हैं जीवन में। यही दो, सिर्फ़ दो; और इन्हीं में जा के हर इंसान गिर जाता है। रामकृष्ण परमहंस कहते थे, ‘एक कंचन में गिरोगे’ — कंचन माने सोना, पैसा — ‘और दूसरा, कामिनी में गिरोगे।’ कामिनी माने वासना। इन दो से बचे रहो तो हो गयी क्रांति, और कुछ नहीं करना है। इन दो गड्ढ़ों में जाकर के न गिर जाना बस।
पैसा, पूछो अपनेआप से कि तुम्हें तन के लिए कितना चाहिए और मन के लिए कितना चाहिए। तन के लिए जो चाहिए वो आमतौर पर वाजिब ही होता है। कोई आपसे कहे कि आप उतना भी मत कमाओ कि शरीर पर अच्छे कपड़े आ सकें — अच्छे से मेरा आशय है उचित — तो ये ग़लत बात होगी। इतना पैसा तो होना चाहिए कि खाने को बढ़िया मिले, कपड़े-लत्ते का हिसाब रहे, आप कहीं रहने जा रहे हो तो वहाँ पर कमरा आपका बढ़िया ठीक-ठाक रहे। इतना तो पैसा ज़िन्दगी में होना ही चाहिए।
पर ये पैसा तो तन की ज़रूरत है। ज़्यादातर हमारा पैसा किसकी सेवा में लग जाता है? वो पैसा बेकार ही होता है। उसके पीछे मत भागना। जितनी ज़रूरत तन को हो उतना अगर कमा रहे हो तो तृप्त रहना। और वो बहुत ज़्यादा होता नहीं। तन को कितना खिला लोगे? और मन को खिलाने की कोई सीमा नहीं।
तन एक सीमा से ज़्यादा नहीं खा सकता। खिला के देखो तन को! बहुत सारा खाना खा के देखो, खा सकते हो क्या? बहुत सारे कपड़े पहन के देखो, पहन सकते हो क्या? सौ घरों में एक साथ रह सकते हो क्या? कितने ऊँचे बिस्तर पर सोओगे? कितना मोटा गद्दा लगा लोगे? एक सीमा होती है, उसके आगे नहीं जा सकते। नहीं जा सकते न?
लेकिन मन, मन के पास अभी दस लाख है तो मन क्या बोलेगा? ‘बीस हो।’ फिर क्या बोलेगा? ‘एक करोड़ हो।’ फिर क्या बोलेगा? ‘दस करोड़ हो।’ फिर क्या बोलेगा? तो मन में कोई सीमा नहीं होती। मन के लिए मत कमाने लग जाना।
समझ में आ रही है बात?
और सब के ऊपर ये बहुत बड़ा एक फ़ितूर होता है कि अगर बिकेंगे नहीं तो जियेंगे कैसे? पैसा कहाँ से आएगा? जितना तुमको चाहिए सचमुच, उतना आ जाएगा। और अनाप-शनाप पैसा चाहने की कोई सीमा होती नहीं है। तो वो तो फिर तुम कितना भी कमा लो, तब भी सन्तुष्टि नहीं है।
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