Articles

पत्नी के ताने और गुरु का ज्ञान || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

Acharya Prashant

13 min
85 reads
पत्नी के ताने और गुरु का ज्ञान || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

प्रश्नकर्ता: चरण स्पर्श आचार्य जी। जिनसे शादी हुई है, तो थोड़ा-सा, बड़े शांत स्वभाव की लगती थीं और थोड़ा स्माइली फेस (हँसमुख चेहरा) भी था। अब वह बड़ा शादी के बाद परेशान करने लगीं। तो हमने बोला, "शादी के पहले तो ऐसी नहीं थी!" तो वह बोलती हैं कि अब तो शादी हो गई है। तो हमने कहा, "हमने तो जो चीज़ें कही थीं शादी के पहले, हम तो कोशिश कर रहे हैं," तो वह नहीं मानती।

आपको देखकर थोड़ा-सा नाराज़ रहती हैं वो। मोबाइल नहीं चेक (जाँचता) करता उसका, वह बीच में चेक करती थी मेरा। तो जैसे शुरू में आपको देखता था तो मैं उसको रात में हेड मसाज वगैरह करके सुला देता था, क्योंकि परेशान बहुत करती थी तो दो-ढाई बजे सुला देता था, फिर आराम से देखता था, आपको मतलब पाँच बजे तक।

उसको लगा कि यह तो अचानक से बड़े केरिंग (देखभाल करने वाला) हो गए हैं। तो हुआ अभी क्या है, वह पहले फैमिली प्लानिंग (परिवार नियोजन) को नहीं सोच रही थी कुछ। और जबसे आपको देखने लगा तो कहती हैं कि बच्चा चाहिए। मैंने कहा अभी नहीं करना है।

अच्छा, आजु-बाजु वाले भी होते है न, तो जैसे, "और खुशखबरी कब मिल रही है?" और अब मेरे से, "तो कर नहीं रहे हो या हो नहीं रहा है?" इस तरीक़े से। मैंने कहा, "हो नहीं रहा है।" फिर स्टाफ़ में, "बगिया में फूल कब खिलेगा?" ऐसे डायरेक्टली (सीधे) नहीं बोल कर ऐसे बोलते हैं मतलब। तो बीच में क्या हुआ आपको सुनना छोड़ा, तो फिर मैं, वह नहीं होता जैसे, जो आपको बंधन में रखना चाहेगा—आप बोलते हो—वह भावुकता का प्रदर्शन बहुत करेगा।

तो वही हुआ, वह भावुक हो गयीं अचानक से। तो उसमें क्या हुआ, बीच में आपको सुनना भी छोड़ा तो प्रेग्नेंट (गर्भवती) हो गयीं वह, सॉरी

(श्रोतागण हँसते हैं)

तो अब वापस जाता हूँ तो दोस्त भी मेरे कुछ परेशान हैं और दोस्त जानने भी लगे हैं कि आपको सुनता हूँ। जैसे एक दोस्त बड़ा परेशान था तो उसने कहा, "सुना है तुमने दोबारा से ड्रिंक छोड़ दिए, कैसे?" उसको भी पता है, मैंने पूछा, "कैसे छोड़ी होगी?" तो कहता है, "दोबारा से आचार्य जी को सुनने लगे?" तो मैंने कहा, "हाँ, उनको सुनने लगा।"

लेकिन अभी मेरे को लग रहा है कि वापस जाऊँगा तो पापा-मम्मी भी ठीक हैं। पापा भी कुछ नहीं कहते, वह तो आपको दवाई बोलते हैं मेरी। अब कैसे क्या मैनेज (संभाल) करूँ? जब कि वह (पत्नी) बोलती है—उसे बताता हूँ कि इस चीज़ से इतने पेड़ कट रहे हैं, इतना प्रकृति को नुकसान हो रहा है, सब में हाँ-हाँ-हाँ-हाँ करती रहती है लेकिन बाद में फिर वही बोलती है।

तो यह चीज़ और थोड़ा इससे दो-तीन दोस्त भी परेशान हैं। इधर-उधर वालों को कैसे, मतलब अपन लोग मान भी जाते हैं कि हाँ ठीक है, नहीं, वह चीज़ नहीं करेंगे। लेकिन इधर-उधर वाले बड़ा पूछ-पूछ कर, पूछ-पूछ कर, पूछ-पूछ कर…

आचार्य प्रशांत: इंसान इंसान में फ़र्क होता है। सेक्स मनुष्य के लिए सुख का एक ज़रिया होता है, ठीक है? अब एक तरह का इंसान वह होता है, जिसके पास ज़िंदगी में कोई भी ऊँचा काम ऐसा नहीं है जो उसको तृप्ति दे, जिसमें वह आनंद के साथ डूब सके। तो वह क्या करेगा? उसके पास फिर एक ही तरीक़ा है मन बहलाव का, सेक्स। क्यों? क्योंकि उसका जीवन खाली है, रिक्त बिलकुल। और स्वभाव हमारा, आनंद धर्मा होते हैं हम। दुख गहराई से किसी को भी पसंद नहीं होता। तो सुख तो सभी माँग रहे होते हैं। प्रश्न यह है कि वह सुख तुम कहाँ से लाते हो अपने लिए?

एक जरिया है सेक्स। और भी बहुत ऊँचे जरिए हैं, जिसमें गहरा आनंद मिलता है और एक तृप्ति भी मिलती है, जो तुम्हें कभी भी बस शारीरिक सुख में नहीं मिल सकती। शारीरिक सुख अपने पीछे बस एक रिक्तता छोड़ कर जाता है। एक ऐसी रिक्तता जो दोहराव माँगती है; कुछ समय बाद फिर से, फिर से। वह तुमको बना नहीं देता, वह तुमको विकसित नहीं कर देता, उससे तुममें कोई परिपक्वता या बोध नहीं आ जाएगा; तुम कितना भी सेक्स कर लो।

और जो दूसरा व्यक्ति है, मैं जिसकी बात कर रहा हूँ, उसके पास जीवन में करने के लिए बहुत कुछ है। वह ऊँचाई को समझता है। वह जानता है कि इंसान हूँ तो क्या करना ज़रूरी है। ठीक है? उसने कोई सेक्स को अपने जीवन से निष्कासित या वर्जित नहीं कर दिया है पर वह यह जानता है भली-भाँति कि क्या करना है मुझे; सब जानते हैं कुछ हद तक।

आपके पास कोई ज़रूरी काम हो, उस वक्त तो आप शारीरिक क्रियाएँ करनी नहीं शुरू कर देते, या कर देते हो? नहीं करते न। तो वैसा ही, उसी दिशा में और विकसित होता है एक दूसरा मनुष्य। सेक्स उसके लिए भी एक मुद्दा होता है पर वह यह जानता है कि उस मुद्दे को जीवन में कहाँ पर रखना है। उसके पास एक वरीयता क्रम होता है। उस क्रम में वह सेक्स को उसकी सही जगह देता है और वह जगह शीर्ष पर नहीं होती, भाई। वह जगह काफ़ी नीचे होती है।

तो यह तो हुई उस व्यक्ति की बात। अब यह व्यक्ति अगर ऐसा है तो यह साथी भी कैसा चुनता है? यह साथी भी ऐसा चुनता है जिसके पास जीवन में करने के लिए कुछ सार्थक हो। यह साथी ऐसा नहीं चुनेगा जिसके पास जीवन में शारीरिक सुखों के अलावा कुछ और न हो। तो अब यह दो लोग हैं और दोनों के पास जीने के लिए बड़ी गहरी वजहें हैं। दोनों के पास करने के लिए बड़े सही काम हैं।

अब जब यह दो व्यक्ति मिलते हैं, शारीरिक रूप से भी, तो वह एक बुलंदी होती है, वह एक ऊँचाई होती है। उस मिलन में भी फिर एक पवित्रता हो सकती है क्योंकि यह व्यक्ति भी संसार से जूझ कर के, अपने कर्तव्यों के लिए लग करके, लड़ कर के, टूट कर के, लहूलुहान होकर के फिर आया है शारीरिक सुख की ओर। और वह जो दूसरा व्यक्ति है उसने भी शर्तें पूरी करी हैं। वह भी पूरी कीमत चुकाने के बाद आया है सेक्स की ओर। सब कुछ और जितना निपट सकता था निपट गया, अब यह आखिरी चीज़ है। अब जैसे अस्तित्व ने आपको अनुमति दे दी है कि हाँ, अब, अब शारीरिक मिलन उचित है, सिर्फ़ अब उचित है।

ऐसे में फिर वासना आपको नीचे खींचने वाला बल नहीं रह जाती। अब वासना आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती क्योंकि आपने उसको बहुत ऊँचा स्थान दिया नहीं है जीवन में। उसको तो आपने यह कहा है कि जब और सब कुछ निपट जाएगा, जब सारी शर्तें पूरी हो जाएँगी, तब तुम। जब और सब कुछ हो जाएगा, तब तुम। तो उस तक पहुँचने का मतलब है कि आपने बड़ी भारी कीमत चुकायी है। उतनी कीमत चुका लो फिर दे लो शरीर को जो वह माँग रहा है। पर कुछ करा न धरा, ज़िंदगी है नाकारा और बिस्तर पर उछलकूद; यह पशुओं का काम है। जैसे योद्धाओं को ही शोभा देता हो।

अच्छा लगेगा? तुम्हें दुश्मन घेरे बैठे हैं और तुम क्या कर रहे हो? तुम बिस्तर पर व्यस्त हो।

सेक्स उनके लिए है जो युद्ध में गए हैं, खून बहाया है, जान लगाई है, सब कुछ करा है, अब सूरज ढल गया है, अब लड़ाई थम गई है। वापस आए हैं, थके हुए, टूटे हुए; इनको शोभा देता है। और इनका साथी भी फिर वैसे ही होना चाहिए जिसने दिन भर कर्तव्य की आग में जलाया है अपनेआप को। और फिर अंत में आकर के जैसे कोई बहुत महत्वपूर्ण चीज़ न हो, वैसे फिर शारीरिक मिलन हुआ है। या उसको यह भी कह सकते हो कि वह फिर बहुत महत्वपूर्ण चीज़ हो जाती है क्योंकि वह सारी शर्तें पूरी करने के बाद की जाती है।

पर तुम आम जोड़ों को देखो वह कौन-सी शर्तें पूरी करते हैं? उन्होंने कौन-सी पात्रता दर्शायी है? वासना जिन्हें बहुत खींचती हो, वह अपनेआप से पूछ लें, ‘मैं इस सुख के लायक हूँ क्या?’ और जो उसका लायक हुए बिना भी उस सुख को लूटे, वह जानवर है; जैसे कुत्ता। कुत्ता कोई योग्यता नहीं दर्शाता लेकिन कामुकता में लिप्त रहता है। छोटे से छोटा तुम सुख लेते हो तो कीमत चुका कर लेते हो, है न?

एक आइसक्रीम खाते हो, उसमें सुख मिलता है, पहले उसके पैसे देते हो, कीमत चुकायी है। कोई और भी तुम्हें सुख मिलता है तो पहले कोई परीक्षा होती है, उसमें सफलता दिखायी होती है। कुछ भी और। कोई पदक जीता है तो पहले उसके लिए दौड़ लगायी होती है। छोटे से छोटा सुख पाने के लिए पहले ज़रा अपने खिलाफ़ जाकर के कुछ कष्ट उठाना पड़ता है। और सेक्स को क्या करोगे, मुफ़्त में लूट लोगे? जो मुफ़्त में लूटे वह जानवर है। बिलकुल जानवर है।

पहले बता तो दो कि क्या जो जीवन के कर्तव्य हैं और जो आवश्यक काम हैं, उनमें तुमने प्रवीणता दिखा दी? हो गए निर्बोझ? या वह सारे कर्तव्य अभी खड़े हैं मुँह खोले? और तुम वासना खेल रहे हो! योग्य व्यक्ति के लिए शारीरिक मिलन भी एक ऊँचाई जैसा होता है।

दो वजहों से दोनों बता दी हैं। पहली वजह यह कि यदि वह योग्य है तो वह चुनाव भी किसी अपने समान योग्य साथी का ही करेगा। और दूसरी वजह यह कि ये दोनों ही अगर योग्य हैं तो एक दूसरे से शारीरिक तल पर मिलेंगे ही तब जब ये बोझ से मुक्त होंगे, जब कर्तव्यों को पूरा कर चुके होंगे, जब लड़ाई में खून बहा चुके होंगे। अन्यथा ये कहेंगे कि यह तो आख़िरी चीज़ है। यह तो वरीयता में सबसे नीचे की चीज़ है। अभी जब बाकी काम बचे हैं, हम इसकी ओर कैसे आ सकते हैं?

तो अध्यात्म तुमको कोई मना नहीं कर देता, वहाँ कोई वर्जना नहीं लगी हुई है कि तुम विवाह नहीं कर सकते या सेक्स नहीं कर सकते। पर वह तुमसे कहता है, जो करो ज़रा इंसान की तरह करो, जानवर की तरह नहीं। और इंसान के लिए पहले आते हैं उसके दायित्व और दायित्व पहले इसलिए आते हैं क्योंकि तुम वह हो जिसे अभी अपनी अपूर्णता को पूर्णता में बदलना है। तुम भीतर से खाली हो और वह तुम्हारी पहली पहचान और पहला रोग है। पहले उसको ठीक करोगे न? पहले उस बीमारी को संबोधित करोगे न? या बस सेक्स-सेक्स?

तो अध्यात्म वर्जित नहीं करता। अध्यात्म कहता है, शर्तें पूरी करो और फिर गौरव के साथ, आत्मसम्मान के साथ, गरिमा के साथ, मूल्य चुका कर के, चोरों की तरह नहीं, पशुओं की तरह नहीं। ऐसा कर्म नहीं करा है कि जिसको बाद में याद करके शर्मिंदा होना पड़े। कुछ ऐसा करा है जो हमारे लिए गर्व की बात है। फिर वह चीज़ ऐसी नहीं है जिसको अंधेरे कमरों में, छुप-छुप कर के, लजा कर के किया जाता है। फिर वह चीज़ ऐसी है कि जिसकी स्मृति भी जीवन को उठाने के काम आती है। और चूँकि वह चीज़ फिर बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है इसीलिए तुम यह नहीं कहोगे कि मुझे यही करते रहना है।

इस बात को ध्यान से समझना। हम सोचते हैं जो चीज़ बहुत महत्त्वपूर्ण होती है, वह तो लगातार चाहिए होती है न। ऐसा नहीं है। ऐसा भी हो सकता है कि कोई चीज़ चूँकि बहुत महत्त्वपूर्ण हो, इसलिए तुम खुद कहते हो, ‘बार-बार नहीं’। वह महत्वपूर्ण इसलिए नहीं है कि वह अपनेआप में बहुत आकर्षक है। वह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि उस तक पहुँचने के लिए बहुत सारे ज़रूरी काम करने होते हैं। वह इसलिए महत्वपूर्ण है। और अपनेआप को वचन दे लो कि जब तक शर्तें पूरी नहीं करूँगा, जब तक पात्रता नहीं दिखाऊँगा, मूल्य नहीं चुकाऊँगा, तब तक अपनेआप को अधिकार ही नहीं दूँगा, मुझे हक़ क्या है?

और विशेषकर विवाह आदि करते समय इस बात का पूरा ख़्याल रखें कि आप जिसके साथ बँधने जा रहे हैं, उसके जीवन में कुछ करने लायक चीज़ें हैं या नहीं हैं। क्योंकि कुछ अगर उसके पास नहीं होगा करने के लिए, तो वह दिन-रात बस सेक्स करेगा या करेगी। क्योंकि और कुछ है ही नहीं! खाली बैठे हो तो क्या करोगे? मन ऊब रहा है तो मनोरंजन चाहिए तो एक ही मनोरंजन है।

तो यह सब सिर्फ़ मज़ाक की बात है कि अध्यात्म में कामुकता की वर्जना है वगैरह, वगैरह। अध्यात्म का काम है जिस भी चीज़ को स्पर्श करे, उसे पवित्र कर दे। अध्यात्म अगर वासना पर भी पड़ता है तो उसे पवित्र कर देता है। मार नहीं देता, पवित्र कर देता है। एक स्पर्श होता है कि तुमने किसी को छुआ और उसे गंदा कर दिया। एक स्पर्श ऐसा भी हो सकता है कि किसी को छुओ और उसे साफ़ कर दो। लेकिन उस लायक बनना पड़ता है। उस लायक बनो कि ऐसे हो सको कि किसी को छुएँगे, तो उसे साफ़ कर देंगे। अब हमें अधिकार मिला है किसी को स्पर्श भी करने का। फिर करो स्पर्श।

बहुत सारे ऋषि हुए हैं, संत हुए हैं। विवाहित थे, उनके संतानें भी थीं। उनके लिए ठीक है, वह कर सकते हैं। उन्होंने योग्यता दिखायी है, शर्तें पूरी करी है। बहुत सारे ऐसे भी हैं जिन्होंने विवाह नहीं किया। वह भी ठीक है। तो कोई नियम नहीं है अध्यात्म में कि विवाह नहीं करोगे या संतान नहीं करोगे। ऋषियों के भी थे पुत्र-पुत्रियाँ। पर यह नियम ज़रूर है कि इंसान हो तो पशुओं जैसा व्यवहार मत करो। यह नियम बिलकुल है। मुझे नहीं मालूम मैं उत्तर दे पाया हूँ या नहीं, क्योंकि सवाल बहुत लम्बा था। पर जितना इस पर कह सकता हूँ, वह यही है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories