प्रश्नकर्ता: प्रकृति के हर कण की उसी अनंत की यात्रा है, कोई धीरे चल रहा है, कोई तेज़ चल रहा है। जो नदी के बीच है वो सबसे तेज़ चल रहा है। हर कोई अपनी सामर्थ्य अनुसार धारा को चुनकर बह रहा है। ज़िन्दा हो तो चलना हो ही रहा है, यात्रा हो रही है।
बड़ी मेहनत करके बीच धारा में आता हूँ परन्तु कुछ देर यात्रा करने के बाद फेंक दिया जाता हूँ। उस वक़्त बड़ा अनाथ अनुभव करता हूँ, जैसे परमात्मा ने अपनी गोद से बाहर फेंक दिया है। ‘ओऽम्’ का उच्चारण करके या भक्तिपूर्ण कविता पढ़कर, सुनकर, लिखकर पुनः उसकी धारा में आता हूँ परन्तु पुनः बाहर फेंक दिया जाता हूँ। जब तक ध्यान परमात्मा की तरफ़ होता है तो बीच धारा में बहता महसूस करता हूँ। जैसे ही ध्यान सांसारिक कर्म की ओर जाता है, सांसारिक चमक-दमक की ओर जाता है, पुनः बाहर फेंक दिया जाता हूँ। जैसे पहाड़ से गिरने जैसा लगता है। ख़ुद को नारकीय स्थिति में पाता हूँ।
तो मेरा सवाल है कि संसार में रहते हुए ध्यान सिर्फ़ उसी की ओर कैसे रहे और संसार की कोई माया अपनी ओर न खींचे? यदि माया और दमित वृत्तियों से किसी तरह बच भी जाऊँ, तो शारीरिक ज़रूरत भूख-प्यास से कैसे बचूँ? परमात्मा से तो ध्यान हट ही जाता है। शरीर ही बाधा बन रहा है। यात्रा कैसे करूँ? परमात्मा का रस प्यारा लगता है। परन्तु किसी पल कौतूहल वश, ऊब के कारण सांसारिक वृत्तियों में रस लेते ही परमात्मा से कब अलग हो जाता हूँ पता ही नहीं चलता। अंततः ख़ुद को नदी किनारे किसी गड्ढे में पाता हूँ।
यह मेरी दशा है, आचार्य जी। कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: एक सूची बनाइए, किन-किन मौकों पर आप धारा से बाहर फेंक दिये जाते हैं। लम्बी सूची बनाइए। जितनी बार दिखाई दे कि धारा से बाहर फेंके गये, सूची बनाइए। क्या हुआ था? किस चीज़ ने आपको बाहर खींच लिया? सूची बीस, चालीस, पचास, साठ विषयों तक जाए। और फिर ज़रा उस सूची का निरीक्षण करिए। उनमें जिन विषयों की बहुलता पाइए उनको अलग से लिखिये। अंततः कुछ तीन-पाँच-सात ऐसे विषय पाएँगे आप जिनके प्रभाव में आप ध्यान और शान्ति की धारा से विलग हो जाते हैं।
अब बात बहुत सीधी है। दुश्मन परदे में नहीं है। दुश्मन अब अनजाना नहीं है; साफ़ दिख गया कौन है जो आपको धारा से बाहर खींच रहा है। वो कोई व्यक्ति हो सकता है, कोई स्थिति हो सकती है, कोई बात हो सकती है, कोई ज़िम्मेदारी हो सकती है, कुछ भी। लिख लेने के बाद अपनेआप से पूछिए – ध्यान ज़्यादा प्रिय है या ये ज़्यादा प्रिय हैं? क्योंकि ध्यान अगर वाक़ई आपको अपने में समाहित किए हुए है, तो आसानी से टूट ही नहीं सकता।
आपने जो लाचारगी, जो विवशता व्यक्त करी है वो वैसी नहीं हो सकती जैसी आप दर्शा रहे हैं। बात ज़रा दूसरी है।
मुझसे पूछेंगे तो मैं कहूँगा ध्यान में रहना या न रहना अपना चुनाव होता है। यह मत कहिए कि आँख खुलती है तो अपनेआप को किसी गड्ढे में पाता हूँ; उस गड्ढे का चयन स्वयं आपने करा है। धारा से विलग होने का भी चयन आपका है और गड्ढों में भी वही विशिष्ट गड्ढा चाहिए आपने स्वयं अँगुली रखकर चुना है। बेबस नहीं हैं आप।
ध्यान से हटना एक चुनाव होता है और जब तक आप यह नहीं मानेंगे, तब तक आगे की कोई यात्रा हो नहीं सकती। चुनाव तो आप करते ही हैं, मैं आपसे कह रहा हूँ, ज़रा और ग़ौर से करिए। पूछिए कि ध्यान में रहने में जो लाभ हैं, ध्यान से छिटकने में भी वही लाभ है क्या, या उससे ज़्यादा?’ ध्यान से छिटकने में अगर ज़्यादा लाभ दिखायी देता हो तो ध्यान करना ही क्यों है? ध्यान कोई मजबूरी, कोई ज़बरदस्ती, कोई नैतिक अनिवार्यता तो है नहीं। लाभप्रद हो तो ध्यान किया जाए, नहीं तो काहे का ध्यान!
आप एक चुनाव कर रहे हैं। आप ध्यान में होते हैं, आप ध्यान तोड़ने का चुनाव करते हैं क्योंकि आपको अपना स्वार्थ कहीं और दिखाई देता है। आपने बड़े कोमल शब्दों में अपनी बात कही है, मैं उत्तर थोड़ा कठोर दे रहा हूँ पर आवश्यक है। आपने ऐसे रखा है जैसे ये सबकुछ आपके साथ हो रहा है, मैं कह रहा हूँ आपके साथ हो नहीं रहा, आप ये सबकुछ कर रहे हैं। आप स्वयं निर्णय लेते हैं ध्यान से उचटने का। क्यों लेते हैं? मुझे बताइए। आपके पास वजह है, मैं कह रहा हूँ उस वजह की ज़रा तफ़्तीश करिए।
आप गणित लगा रहे हैं, मैं गणित लगाने के ख़िलाफ़ नहीं हूँ, मैं ग़लत गणित लगाने के ख़िलाफ़ हूँ। आपका समीकरण उलझा हुआ है। आपका जोड़-घटाव ग़लत बैठ रहा है। आप दो और तीन का जोड़ पंद्रह कर रहे हैं। जो है नहीं वो आपको दिखाई दे रहा है। जो है वो आपको दिख नहीं रहा है। गणित लगाइए, ठीक से लगाइए। आप तो प्रोफ़ेसर हैं। क्या पता गणित के ही हों!
ध्यान आवश्यक इसलिए है क्योंकि लाभ देता है। किसको? आपको। अहम् जल रहा है, इसलिए आपको नदी की धारा में होना है न! वो भी बीचोंबीच। अहम् एक ज्वर है, एक ताप है, एक आग है इसलिए तो आपको ठंडी नदी में बीचोंबीच होना है न! बाहर निकल करके भी अगर शान्ति मिलती हो, ताप शीतल होता हो तो बेशक आप बाहर ही निकलिए। भाई, नदी में तो जल भर है, क्या पता बाहर निकल करके हिम मिल जाता हो! कुछ लाभ होता होगा। लाभ है क्या, वाक़ई?
लाभ हमें दो ही तरह के दिखते हैं; कुछ मिलेगा, नहीं तो कुछ छिनने से बचा लेंगे। किस चीज़ की रक्षा कर रहे हैं आप? क्या बचाकर रखना चाहते हैं? जो आप बचाकर रखना चाहते हैं, वो आपकी शान्ति से ज़्यादा क़ीमत का है क्या? और अगर शान्ति से ज़्यादा क़ीमत का है तो उसे बचा ही लीजिये। फिर शान्ति-शान्ति क्यों कहते हैं? और अगर शान्ति से कम क़ीमत का है तो शान्तिपूर्वक उसका असम्मान करना सीखें। उसकी उपेक्षा, अवहेलना करना सीखें।
आप नहा रहे हैं नदी में, बहते जा रहे हैं। कोई खड़ा हो करके तट पर चिल्ला रहा है, “अरे! बाहर आओ! चलो कपड़े पहनो। मजदूरी का समय हो गया।” आप गोता मार जाइए और अन्दर। दिखाई ही मत दीजिए और आगे बह जाइए। कब तक तट पर दौड़ लगाएगा? कब तक आपको परेशान करेगा? लेकिन पहले आपको तो स्पष्ट हो कि नदी में बहते जाने में जो सुकून है वो धारा छोड़ देने में नहीं है। यह आपको स्पष्ट भी है क्या?
आपने बड़ी एक-पक्षीय कहानी बयान कर दी है। आप कह रहे हैं, ‘नदी से प्यार है। लेकिन मुझे परिस्थितियाँ उठा करके नदी के बाहर किसी गड्ढे में डाल देती हैं’। ये तो आप—मुझे माफ़ करिएगा—लेकिन मुझे भी धोखा दे रहे हैं। ध्यान से आपको थोड़ा-बहुत प्यार है, उसका आपने यहाँ उल्लेख कर दिया। गड्ढे से आपको बहुत-बहुत ज़्यादा प्यार है, वो आप पूरा ही छुपा गये, बात बिलकुल पचा गये।
इंसान को पूरी छूट मिली हुई है। जिधर प्यार होता है उधर जाता है। आपको नदी से प्यार होता, आप नदी में रहते; आपको गड्ढे से प्यार है, आप गड्ढे की तरफ़ जाते हो। गड्ढे की बात ही नहीं बता रहे हो। बताओ कौनसा गड्ढा है? कहाँ जाकर बार-बार गिरते हो, प्रोफ़ेसर साहब? क्या पाते हो उस गड्ढे में? कुछ तो पा रहे हो और वो बताया भी नहीं आपने।
ज़रूर कुछ ऐसा पा रहे हो जिसको ले करके लज्जित भी हो, उसका ज़िक्र भी नहीं करना चाहते; शर्म आती है। शर्म आती ही है तो छोड़ दो न! क्यों ऐसी चीज़ से जुड़े हुए हो जिसका नाम लेते भी बुरा लगे? जिसके बारे में जानते ही हो कि मूल्यहीन है, आप क्यों उससे आसक्त हो? और वो आसक्ति अगर इतनी ही प्रिय है तो फिर ध्यान का नाम मत लीजिए। फिर कौनसी भक्ति, कौनसा अध्यात्म, क्या ज्ञान? गड्ढे में मज़े लीजिए।
तो ये सलाह है मेरी, ये निवेदन है मेरा – सूची बनाएँ। और जितनी बार पायें कि ध्यान टूटा है, जीवन में अशान्ति आई है, तनाव आया है, विक्षेप आए हैं, उतनी बार उस स्थिति का और विषय का नाम लिख लें। जब करीब पचास ऐसे आँकड़े इकट्ठे हो जाएँ तो फिर पूरी सूची का विश्लेषण करें। और मैं कह रहा हूँ जब विश्लेषण करेंगे तो कुछ नाम, कुछ विषय उभरकर आएँगे दो-चार-छह-आठ। अपनेआप से पूछिए कि उन विषयों में इतना रस क्यों है आपको? क्या लाभ है उन रस से?
अध्यात्म में रसना को बड़ा प्रबल शत्रु बताया गया है। रसना समझते हैं? किसी चीज़ में मज़ा आने लग जाना, ‘रसना’। किसी भी चीज़ में मज़ा आ सकता है, हज़ार तरह के गड्ढे हैं संसार में, बैठ गयी रसना। विचित्र बात ये है कि अपने दुख, अपने दर्द, अपनी परतंत्रता, अपनी विवशता में भी रसना बैठ सकती है। आपको इस बात में भी मज़ा आने लग सकता है कि आप कितने दुर्बल और असहाय हैं। और वो मज़ा इतना बढ़ सकता है कि ध्यान के मज़े से, ध्यान के आनन्द से ऊपर का हो जाए।
तो मैं आक्षेप नहीं लगा रहा हूँ कि धार से बाहर निकलकर आप सक्रिय रूप से पदार्थों का या विषयों का रस लूटते हैं। ना। हो सकता है कि ध्यान से टूटकर आप सिर्फ़ रोते हों, दुख मनाते हों, अपनी विवशता का दर्द महसूस करते हों। बिलकुल हो सकता है। मैं कह रहा हूँ उस विवशता में, उस दर्द में, उस रुदन में भी अहम् रस बैठा लेता है। बचिएगा। इस बात में भी बड़ा रस है कि मैं कितना मजबूर हूँ। मजबूरी की कवितायें लिखूँगा, बड़ी सुन्दर कवितायें निकलती हैं अपनी विवशता की। रसों में रस है बार-बार यह घोषित करने का ख़ुद को और दुनिया को – ‘मैं तो मजबूर हूँ’। उसके आगे का रस बताए देता हूँ – ‘मैं मजबूर तो नहीं हूँ, मैं अपनी मर्ज़ी से ही लेकिन ऐसा हूँ’। इसमें भी बड़ा रस है।
अध्यात्म तब है जब आत्मा के प्रति, शान्ति के प्रति प्रेम ऐसा प्रगाढ़ हो कि वो किसी रस की, किसी आकर्षण की, किसी बेबसी की परवाह ही न करे। आपको आमन्त्रित कर रहा हूँ, उस प्रेम में पड़िए। धार में बहिए नहीं, डूब ही जाइए। “जो डूबा सो पार।“ जब तक बह रहे हैं, तभी तक तो कोई आपको उठाकर बाहर खींच रहा है। डूब जाइए। लाश की कौन परवाह करता है। लाश हो जाइए, प्रोफ़ेसर साहब! फिर कोई नहीं आएगा आपके पीछे। अभी आप उपयोगी जीव होंगे तो तट वाले उपयोगिता के चलते आपको बार-बार बाँधते होंगे, खींचते होंगे।
अनुपयोगी हो जाइए, मुर्दे की तरह। उसे सिर्फ़ फूँका जाता है। उसका क्या उपयोग!