काम, क्रोध, लोभ, मोह से छुटकारा कैसे मिले? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2019)

Acharya Prashant

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काम, क्रोध, लोभ, मोह से छुटकारा कैसे मिले? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नमस्कार। मेरा प्रश्न ये है कि जैसे हमारे षडरिपु माने जाते हैं – काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, और मात्सर्य, तो इस पर कैसे काबू पाया जाए?

आचार्य प्रशांत: काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, और मात्सर्य इन पर काबू कैसे किया जाए? काबू करने की कोई ज़रूरत नहीं है, क्योंकि काबू किया नहीं जा सकता। तो कोशिश भी मत करो। कुछ और करके देखते हैं। इन पर काबू करने की कोशिशों की बात बहुत हुई, और वो बातें अधिकांशतः असफल ही रहीं हैं, तो कुछ और करके देखते हैं। क्या करके देखते हैं? समझेंगे।

तुमने कहा क्रोध – उदाहरण लेते हैं – गुस्सा किसी बात पर ही आता है न? तो क्रोध का हमेशा एक विषय होता है। गुस्से का, एंगर का हमेशा एक कारण होता है, एक ऑब्जेक्ट होता है जिसपर गुस्सा आया। है न? एक बात होती है जिसको लेकर गुस्सा आया। तो ये ना कहो कि गुस्सा गायब हो जाए। बड़ा मुश्किल है, पता नहीं सम्भव है भी या नहीं। हम ये करते हैं कि जिस बात पर गुस्सा आता है उस बात को बदल देंगे। हम कहेंगे कि गुस्सा तो चलो आता-ही-आता है, लेकिन अब छोटी बात पर गुस्सा नहीं करेंगे। कोई बहुत बड़ी बात होगी उसी पर गुस्सा करेंगे। और बड़ी बातें क्या हैं? पता करना होगा कि ज़िंदगी में बड़ा, कीमती, महत्वपूर्ण, इम्पॉर्टेंट होता क्या है।

वास्तव में क्या होता है? जो चीज़ें तुम ध्यान से पाओ कि ज़िंदगी में वाकई-वाकई बहुत बड़ी हैं, बड़ी कीमती हैं, अनको लेकर के गुस्सा करो। ये जो ज़रा-ज़रा सी बातें हैं – किसी ने गाली दे दी, गुस्सा कर दिया। किसी ने दस रुपए रख लिए, गुस्सा आ गया। ट्रैफ़िक बहुत है, जाम लगा हुआ है, पहुँच नहीं पा रहे हैं, गुस्सा आ गया। खाने में नमक ज़्यादा है, गुस्सा आ गया – कह दो कि अब छोटी, क्षुद्र, टुच्ची बातों पर गुस्सा नहीं करेंगे। गुस्से को एक ऊँचाई दे दो।

इसी तरीके से तुमने बात करी मोह की, मद की, मात्सर्य की, इन चीज़ों की, इन सबका सम्बन्ध इच्छा से है, डिज़ायर , कामना। डिज़ायरलेस होना बड़ा मुश्किल है, और पता नहीं ज़रुरी भी है या नहीं। तो ये नहीं कहो कि ‘मुझे अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करना है’ या, ‘अपनी इच्छाओं को मार देना है’, कुछ और कहो। कहो कि छोटी इच्छा नहीं करूँगा। जब चाहना ही है, जब आरज़ू करनी ही है, तो किसी ऊँची चीज़ की करूँगा।

(श्रोतागण ताली बजाते हैं)

बड़े-बड़े तपस्वियों के लिए बड़ा मुश्किल रहा है कि वो इच्छा को, तमन्ना को, आरज़ू को मार दें, तुम लोग तो सब जवान लोग हो, कैसे कर पाओगे? कर भी नहीं पाओगे और ज़रूरी भी नहीं है। इच्छा को ऊँचाई दो, चाहो, और जो ऊँची-से-ऊँची चीज़ चाह सकते हो, उसको चाहो। जो कीमती-से-कीमती चीज़ चाह सकते हो, उसको चाहो। कुछ ऐसा माँगो जो ज़िंदगी को बदलकर ही रख दे। कुछ ऐसा माँगो जिसको पाने के बाद कहो कि अब ज़िंदगी शुरू हुई है। छोटी-छोटी इच्छाओं में वक़्त और ऊर्जा, एनर्जी ख़राब करने में क्या मज़ा है? और जो छोटी-छोटी इच्छाएँ होती हैं, ये पूरा दिन खा जाती हैं। और इच्छाओं का क्या है वो तो किसी भी चीज़ को लेकर भड़क जाती हैं। ग़ौर करो कि कैसे पूरी ज़िंदगी इन्हीं ज़रा-ज़रा सी चीज़ों में उलझकर के ख़राब हो जाती है, समाप्त हो जाती है, पता भी नहीं लगता।

ये बात शायद तुम लोग अभी नहीं समझोगे पर मैं मिलता हूँ उनसे भी जो अब चढ़ी उम्र के हैं, पचास, साठ, सत्तर पार कर गए हैं, और अक्सर उन्हें बड़ा अफ़सोस रहता है। वो कहते हैं, पता भी नहीं चला ज़िंदगी कहाँ बह गई, कहाँ व्यर्थ हो गई। और कहाँ बह गई? इन्हीं छोटी-छोटी इच्छाओं में बह गई, और बाद में आदमी देखता है तो कहता है, ‘हाथ क्या आया, लुट ही गए!’ ज़िंदगी माने समय मिला था और वो समय कहाँ बर्बाद कर दिया। और बाद में बड़ा पछतावा रहता है, आदमी निराश रहता है, फ़्रस्ट्रेटेड रहता है। वो नहीं होने देना है।

हमें बड़ा चाहना है, बड़ा माँगना है, और बड़ा हासिल भी करना है। और यकीन रखो कि अगर चाहोगे तो मिलेगा, तुम्हारी चाहत में धार होनी चाहिए, ज़ोर होना चाहिए, ईमानदारी होनी चाहिए, कोई रोक नहीं सकता तुमको।

(श्रोतागण ताली बजाते हैं)

इसी चीज़ को तुम और बातों पर भी लागू कर सकते हो। मात्सर्य आता है, कहते हैं, ‘अरे! मात्सर्य पर नियंत्रण करना है।‘ मात्सर्य का मतलब होता है ईर्ष्या, एन्वी , जेलसी , और हम सब इससे परेशान रहते हैं। लोग आते हैं, कहते हैं कि, ‘जब मैं यूनिवर्सिटी में था मैं तब भी जेलस अनुभव करता था, और अब मैं साठ साल का हो गया हूँ, मैं अभी भी जेलस अनुभव करता हूँ कि मेरा व्यापार, मेरा बिज़नेस , पचास करोड़ का ही है और मेरे पड़ोसी का पाँच-सौ करोड़ का हो गया। और ये जेलसी दिल बहुत जलाती है, सोने नहीं देती, बड़ी हीनता भी लगती है, इन्फ़ीरियॉरिटी भी इसी से अनुभव होती है।‘ तो उनसे मैं क्या कहता हूँ, सुनो – ईर्ष्या या तुलना मन की वृत्ति है, टेंडेंसी है, वो चलेगी; तुम उसे रोकने की कोशिश मत करो, तुम कुछ और करो। तुम कहो कि जब कंपैरिज़न करना ही है तो किसी अपने जैसे से क्यों करें? जो ऊँचे-से-ऊँचा होगा उससे करेंगे, उसके जैसा बनेंगे न। जो क़रीब-क़रीब मेरे ही जैसा है उससे तुलना करके और उससे ईर्ष्या करके मुझे मिल भी क्या जाएगा? मैंने उसकी बराबरी भी कर ली, तो भी क्या मिल गया? मेरे ही जैसा तो है वो, थोड़ा-सा ही तो मुझसे बेहतर था। मैं उससे ऊपर भी निकल गया तो मुझे क्या मिल गया?

तो अब मैं तुलना करूँगा, और मैं ईर्ष्या भी कर लूँगा, इतनी छूट अपने-आपको दूँगा। अब मैं तुलना करूँगा उनसे जो वाकई देखने जैसे लोग हैं, जो वाकई सम्मान के हक़दार हैं। मैं उनकी ज़िंदगी को देखूँगा और उनकी ज़िंदगी को देखकर अपने आपसे पूछूँगा, ‘इनके सामने मैं कहाँ ठहरता हूँ?’ मैं ये नहीं करूँगा कि मेरा नाम है चंगू और मैं मंगू को देखकर कह रहा हूँ कि मंगू से आगे निकलना है – ये तो ईर्ष्या भी बड़े निचले तल की हो गई, कि ईर्ष्या भी कर रहे हैं तो ऐसी ईर्ष्या कर रहे हैं कि चंगू को मंगू से आगे निकलना है। ये कोई बात हुई!

अब मैं देखूँगा दुनिया के ऊँचे-से-ऊँचे लोगों को और पूछूँगा कि ‘अगर वो कर सकता था तो मैं क्यों नहीं? वो भी इंसान पैदा हुआ था, मैं भी। परिस्थितियाँ अलग-अलग हो सकती हैं, पर यही मस्तिष्क उसके पास था, यही मेरे पास है; अगर मेरी राह में रूकावटें हैं तो उसकी भी राह में रूकावटें थी। अगर मेरे पास कुछ संसाधनों की, रिसोर्सेस की कमी है तो उसके पास भी कुछ रिसोर्सेस की कमी थी। वो इतना ऊँचा कैसे निकल गया? फिर अगर मुझे शर्म भी आती होगी तो शर्म में भी कोई बुराई नहीं है, शर्म भी अच्छी बात है। लेकिन छोटी बात पर शर्म नहीं करूँगा, शर्म भी करूँगा तो बड़ी बात पर करूँगा। अगर मुझे इन्फ़ीरियॉरिटी , हीनता अनुभव करनी ही है तो दुनिया के किसी भी क्षेत्र के अग्रणी लोगों के सामने करूँ न, कुछ भला होगा मेरा। बेंचमार्क ऊँचा तो रखूँ, सर उठाकर ही किसी को देखना है तो सितारों को क्यों न देखूँ?’

(श्रोतागण ताली बजाते हैं)

समझ में आ रही है बात?

गेट इन टच विथ द बेस्ट वंस (सबसे अच्छे लोगों के संपर्क में रहें)। हो सकता है कि वो तुम्हारे सामने ना आ सकें। तुम्हारे सामने नहीं आ सकते तो उनकी किताबें पढ़ो। तुम उनका चेहरा नहीं हमेशा देख सकते तो कम-से-कम कमरे में उनके पोस्टर लगा लो। वो तुम्हें दिन-रात जताएँगे कि ‘देखो बेटा, हम ऊँचे पहुँचे, हमने ज़िंदगी सार्थक की, हम खुलकर जिए, तुम भी जी सकते हो।‘ छोटी बातों में मत फँसो। ज़िंदगी की सबसे बड़ी बर्बादी है छोटी-छोटी बातों में फँस जाना।

तुम्हारे कमरे में अच्छी-से-अच्छी किताबें, अच्छे-से-अच्छे फ़ोटो और पोस्टर होने चाहिए। वो सब नहीं जो साधारणतया हॉस्टल्स वगैरह में पाया जाता है। मैंने भी ग्रैजुएशन , पोस्ट ग्रैजुएशन दो बहुत नोटोरियस (कुख्यात) जगहों से करी है, तो तुम जहाँ तक जा सकते हो वहाँ तक गया भी हूँ, वहाँ से वापस भी लौटा हूँ।

(श्रोतागण ताली बजाते हैं)

समझ में आ रही है बात?

अरे अगर रेस लगानी ही है तो किसी लंगड़े के साथ क्यों लगाओगे? जीत भी गए तो क्या मिलेगा? बोलो, क्या मिलेगा? अगर तुम वाकई सीरियस हो, गंभीर हो, कि ‘मुझे दौड़ना है और लंबा दौड़ना है’ तो किसी ऐसे को चुनो न जो मैरथन जानता हो, उसकी संगति भी करो, उससे तुलना भी करो, उससे सीखो भी, ईर्ष्या भी करनी है तो उसी से करो। ठीक?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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