प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जिन कामों में बँधे हुए हैं, उनसे कैसे छूटें? छोड़ने में भी डर लगता है।
आचार्य प्रशांत: छूटने का डर है या छूटने के बाद जो परिणाम होंगे उनका डर है?
तो तुम जिसको छोड़ रहे हो उसके छूटने का डर नहीं है, उसके छूटने के कारण तुम्हारा जो और कुछ छूटेगा, उसका डर है। ऐसी सी बात है कि दो बच्चे खेल रहे हैं बैडमिंटन पर रैकेट और शटल दोनों एक बच्चे की है। जिसकी है वो हैं बेईमान। पर तुम उसे छोड़ नहीं सकते क्योंकि वो छूटा तो रैकेट और शटल भी छूटेगा। फिर जिसको छोड़ रहे हो उसको छोड़ने का डर है या छोड़ने के अंजामों का डर है? किसका डर है?
श्रोता: छोड़ने के अंजामों का।
आचार्य: हो गया न! गेट योर ओन रैकेट, बेबी। कोई और डर की बात नहीं है। पढ़े-लिखे हो, जवान हो, कोई तुम्हारा क्या लेकर चला जाएगा? कुछ भी करके रोज़ी-रोटी कमा लोगे। खुला देश है, खुली अर्थव्यवस्था है, क्या डर रहे हो? और इतने अमीर लगते नहीं कि तुम्हारे पास हेलीकॉप्टर है तो कोई और तुम्हारा हेलीकॉप्टर छीन ले जाएगा। जितना तुमको चाहिए अपने निर्वाह के लिए उतना तो तुम्हें हासिल हो ही जाएगा। किस बात से डर रहे हो?
दो ही तरह की होती हैं निर्भरताएँ — भौतिक और मानसिक। मटेरियल और साइकोलॉजिकल। मटेरियल का तो कोई आधार है ही नहीं, अब मानसिक बता दो, मानसिक रूप से क्या है?
बच्चे हो क्या कि तुम्हें ये यक़ीन चाहिए कि किसी का हाथ है मेरे सिर पर? अब तो तुम्हारी ही उम्र है किसी और के सिर पर हाथ रखने की। एक उम्र होती है उसको पार करने के बाद आपको सहारा माँगना नहीं होता, सहारा देना होता है। और ये काफ़ी खेद की स्थिति होती है कि एक जवान आदमी कहे कि मेरा क्या होगा! जवानी का मतलब तो ये होता है कि जो बेचारे कमज़ोर हैं, मैं उनको जाकर हाथ दे दूँगा कि उठो। आप ख़ुद ही सहारा माँग रहे हो तो फिर कैसे काम चलेगा, बताओ?
इसके लिए एक चीज़ बोली थी मैंने पहले – 'कल्टीवेटेड हेल्पलेसनेस' , ज़बरदस्ती की मजबूरी। मजबूर हो नहीं, अपनेआप को कोशिश कर-करके एहसास करा रहे हो कि अरे, हम तो बड़े मजबूर हैं, पराश्रित है। कल्टीवेटेड हेल्पलेसनेस।
(प्रश्नकर्ता से कहते हैं) सारी कहानियाँ हटाओ दिमाग से और अब बताओ समस्या क्या है। सारी कहानियाँ हटा दो।
मैं बताता हूँ तुम्हें समस्या क्यों नहीं है, प्रमाण देता हूँ। तुममें से ऐसा कोई भी नहीं है जो अपनी गिरी-से-गिरी हालत में भी इतना समय न निकाल सकता हो और इतना कमा न सकता हो कि इसी तरह इस शिविर में बैठा हो जैसा अभी बैठा है। तुम्हारे सारे सहारे छीन लिये जाए न, तो भी तुम इस हालत में रहोगी कि तुम यहाँ ऐसे ही आ सकती हो जैसे अभी आयी हो। इतना समय भी निकाल लोगी, इतना पैसा भी निकाल लोगी और इतना हौसला भी निकाल लोगी, ऐसे ही बैठी रहोगी। अब बताओ क्या छीन गया।
अगर तुम अगले महीने भी यहाँ ऐसे ही बैठ सकती हो जैसे अभी बैठी हो, वो सबकुछ हो जाने के बाद भी जिससे तुम डरती हो, सब गँवाने के बाद भी जिससे तुम डरती हो, तो फिर समस्या क्या है? इतना नालायक़ और निकम्मा यहाँ कौन है जो अपने बूते यहाँ नहीं पहुँच पाएगा और अगर तुम यहाँ पहुँच सकते हो तो ज़िन्दगी में फिर कमी ही क्या है? जन्नत तो यहीं है! यहाँ आ ही गये तो फिर ज़िन्दगी में कमी क्या है?
और तुम्हारी हालत कितनी भी ख़राब हो जाए, इतना तो कर ही लोगे न कि यहाँ तक पहुँच जाओ? नहीं कर पाओगे उतना भी? उतना कर सकते हो तो उसके आगे करने को बचा क्या? ताजमहल खड़ा करना है तुम्हें क्या? या बेबसी के मज़े लूट रहे हो?
"कनीज़ की मजबूरी को मग़रूरी न समझो, सलीम!" डायलॉग था। बोलो न ज़रा, "कनीज़ की मजबूरी को मग़रूरी न समझो, सलीम!"
बहुत मज़ा है न बेबसी में! ‘मैं क्या करूँ? मैं तो बेबस हूँ! मेरे साथ न ऐसा हो जाता है, लो फिर हो गया!’ कोई वाइपर लेकर आओ रे! ‘मेरे से तो ऐसा हो जाता है!’ बच्चे बोलते हैं बिस्तर गीला करने के बाद।
फिर पूछ रहा हूँ, ‘तुम्हारे पास अभी जो कुछ है सब छिन जाए तो भी अगले महीने या उसके अगले महीने यहाँ आ सकती हो कि नहीं सकती हो?
श्रोता: आ सकती हूँ।
आचार्य: तो फिर क्या प्रॉब्लम है? ‘कुछ भी नहीं, जहाँपनाह! आप न समझेंगे!' (मजबूरी का अभिनय करते हुए बोलते हैं)
इनकी तो ट्रेन छिन गयी तब भी आ गयीं। तुम्हारे पास ट्रेन से बड़ा क्या है जो छिन सकता है? कहाँ की राजकुमारी हो भाई कि जिसके पास ट्रेन से भी बड़ा कुछ है, डर लग रहा है छिन न जाए!
जो छिनता हो, अगर छिना ही जा रहा हो, तो एक हद के बाद चिन्ता नहीं करनी चाहिए। अगर वो असली होगा और छिन गया तो तुम्हें तोड़ देगा। अगर वो असली हुआ और तुमसे दूर हो रहा है तो तुम्हें तोड़ देगा, क्योंकि फिर तुम्हारी ज़िद रही होगी तभी तुमसे दूर हुआ। अच्छा है फिर कि तुम टूट ही जाओ! और अगर नकली है और तुमसे दूर हो रहा है तो तुम्हें कोई अन्तर पड़ना ही नहीं है।
दोनों ही स्थितियाँ तुम्हारे लिए शुभ हैं। असली तुमसे दूर हुआ तो तुम टूट जाओगे, बिलकुल बिखर जाओगे। और नकली तुमसे दूर हुआ तो तुममें कोई अन्तर पड़ना ही नहीं है। दोनों ही स्थितियों में तुम पर क्या असर पड़ेगा? एक स्थिति में वैसे ही असर नहीं पड़ा और दूसरी स्थिति में असर पड़ने के लिए तुम बाक़ी ही नहीं रहे, टूट गये। ठीक है।
तुम्हें जहाँ तक देख रहा हूँ, तुम्हें असली के दूर होने का डर नहीं है, तुम्हें यही डर है कि कोई ऐसी ही छोटी-मोटी चीज़, नकली चीज़ दूर न हो जाए, छिन न जाए।
श्रोता: आचार्य जी, यहाँ से जाने के बाद तो और ज़्यादा प्रश्न चलते रहते हैं दिमाग में, जब तक कि नेक्स्ट अगला शिविर नहीं आ जाता।
आचार्य: वो चल अभी भी रहे हैं। उनको चलते रहना है इसीलिए आप उनको अभी बोलेंगे नहीं। ये नेक्स्ट टाइम (अगली बार) बोल रहे हैं। समय गुज़ारना चाहते हैं। समय गुज़रेगा या हम गुज़र जाएँगे?
श्रोता: जॉब के बूते नहीं आ पाते, आचार्य जी। जिस जॉब में थे अगर उस जॉब में न होते तो उसके बूते काफ़ी मुश्किल हो जाता। और वो बता नहीं रही है लेकिन नहीं आ पाएगी अगर दो महीने बाद वो अगर आना चाहे तो।
आचार्य: किस हालत में नहीं आ पाएगी?
श्रोता: सैलरी, मनी, फाइनेंशियल इशू (वेतन, पैसा, धन सम्बन्धी मुद्दे)।
आचार्य: भाई, फाइनेंसियल इशू है तो ये थोड़े ही कहा कि कहीं काम नहीं करोगे।
श्रोता: नहीं, कहीं वाली भी मैं बात नहीं कर रहा हूँ। जहाँ मैं अभी कर रहा हूँ उसके कारण ही यहाँ पहुँच पाया।
आचार्य: तुम कह रहे हो, 'पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था जहाँ तुम काम कर रहे हो वहाँ से चल रही है।'
श्रोता: नहीं।
आचार्य: तो क्या कह रहे हो फिर? तुम जहाँ काम कर रहे हो उसी कारण यहाँ पहुँच पाये। तीन लाख जगहें और हैं जहाँ के लोग यहाँ पहुँच पाते हैं। वहाँ फँसे हुए हो अगर तो वहाँ क्यों फँसे हो? कह तो ऐसे रहे हो जैसे कि भारतभर के नोट सिर्फ़ तुम्हारे ही कम्पनी में छपते हैं और तुमने वो कम्पनी छोड़ दी तो भिखारी हो जाओगे।
कितने विश्वास के साथ अभी बोला, ‘वो नहीं आ पाएगी!’ पूरे ब्रह्मांड पर तुम्हारे सीईओ का हक़ चलता है क्या कि नहीं आ पाएगी? 'देखिए साहब, डॉन से पंगे लेकर कोई कहीं नहीं जा सकता।’ ख़ौफ़ देखो, ‘नहीं आ पाएगी!’ अच्छा!
श्रोता: सर, जो अल्टरनेटिव जॉब्स (वैकल्पिक नौकरी) की सोच भी रहे हैं उनमें इतने पैसे दिखते नहीं हैं कि वहाँ पर भी मेंटेन कर पाये और शिविर में भी आ जाएँ।
आचार्य: मेनटेन माने क्या होता है? तुम्हें कितने पैसे चाहिए? तुम्हें कितने पैसे चाहिए यहाँ पहुँच पाने के लिए? और यहाँ पहुँच पाने के बाद महीनेभर जीने के लिए, खाने के लिए, रहने के लिए तुम्हें कितना चाहिए? क्यों झूठ बोलते हो?
श्रोता: बीस-पच्चीस हज़ार रुपये।
आचार्य: इतना तुम्हें नहीं मिलेगा, तुम इतने नालायक़ हो? तुम इतने नालायक़ हो कि तुम्हें कोई पच्चीस हज़ार रुपये नहीं देगा?
पर विश्वास देखो, 'नहीं, वो नहीं आ पाएगी!' वो सरकार है! सरकार मूवी में देखा है उसमें कैसे कहता है, ‘अरे, वो सरकार है, बंबई का पत्ता भी नहीं हिलता उसकी अनुमति के बिना।’ वैसे ही ये अपने सीईओ से ख़ौफ़ खाये हुए हैं, ‘उन्हें सरकार है! अगर यहाँ से रिज़ाइन किया तो कहीं बीस हज़ार रुपया भी नहीं पाऊँगा, ब्लैकलिस्ट कर देगा, नरक में भी जगह नहीं मिलेगी मुझे!’
अरे, इलेक्ट्रिक रिक्शा चला लेना, ओला चला लेना, बीस हज़ार तो वो भी कमा रहे हैं। हमारा दुबे चला गया है, तुम आ जाओ, उसकी जगह ले लो, कुछ और काम कर दो। बीस तो तब भी मिल जाएगा तुम्हें। हमारा हेड ड्राइवर था वो सब मिला-जुलाकर अट्ठारह-बीस ले आता था महीने का। तुम्हें उतना भी नहीं मिलेगा?
ये जो ख़ौफ़ है ये तथ्यों पर आधारित नहीं है, ये मानसिक है। तुम ये कल्पना ही नहीं कर पाते कि वो जो बड़ी इमारत है जिसमें घुसने के लिए तुम्हें कार्ड स्वाइप करना पड़ता है और जहाँ गार्ड लगे हुए हैं और जहाँ बड़े-बड़े गेट हैं, जहाँ बायोमेट्रिक वेरिफिकेशन है, उससे मैं बाहर निकल गया तो मैं अदना सा कमलेश (श्रोता) बचूँगा कैसे? तुम उस जगह के ख़ौफ़ में हो, मान जाओ इस बात को। नहीं तो लोग छोटी-छोटी किराने की दुकान चलाकर अच्छा-खासा कमाते हैं, मौज में जीते हैं, तुमसे ज़्यादा कमाते हैं।
ये तुम्हारे साथ काम करती है? तुम जहाँ भी काम करती हो न और जितना काम करती हो, लोग उससे कम काम करके, कम बर्दास्त करके इससे बेहतर शक्ले लेकर मौज में जी रहे हैं।
तुमने बस ये पी लिया है दसों सालों से — ‘कॉर्पोरेट लाइफ! कॉर्पोरेट लाइफ!' तुम्हें डर इस बात का नहीं है कि पैसे छिन जाएँगे, तुम्हें डर इस बात का है कि 'कॉर्पोरेट लाइफ' छिन जाएगी। इन दोनों बातों में अन्तर समझो।
मैं अन्तर समझाता हूँ, तुम्हें बोल दिया जाए न कि तुम घर पर बैठो और ये तुम्हें छोटा-मोटा काम दिया जा रहा है, इतना ही काम करो और तुम्हें क़रीब-क़रीब उतने ही पैसे दे देंगे जितने तुम्हें तुम्हारे कम्पनी में मिलते हैं। तुम्हें तब भी कम्पनी छोड़ते हुए ख़ौफ़ होगा क्योंकि कम्पनी सिर्फ़ कम्पनी नहीं है, कम्पनी प्रतिनिधि है एक पूरी समाजिक व्यवस्था की।
और उदाहरण देता हूँ, तुम्हें उतने ही पैसे दे दिये जाएँ जितने तुम्हें तुम्हारी कम्पनी दे रही है लेकिन काम मेनस्ट्रीम न हो, तुम्हारे घर वाले तुम पर चढ़ जाएँगे। बात अगर पैसों की होती तो क्यों चढ़ते? फिर तो खुश होना चाहिए था उन्हें। वो कहते कि यार, कम काम करके भी उतने ही पैसे मिल रहे हैं ये तो बड़ी अच्छी बात है। पर वो तुम पर चढ़ जाएँगे क्योंकि जब तक तुम कम्पनी में हो तब तक तुम उस समाजिक व्यवस्था के भीतर हो पूरे तरीक़े से।
कम्पनी के भीतर होने का मतलब होता है कि तुम समाज के भीतर हो और वो सबकुछ करोगे जो समाज तुमसे करवाना चाहता है। तुम्हें कम्पनी छोड़ते डर नहीं लग रहा है, तुम्हें उस व्यवस्था से बाहर आते डर लग रहा है।
बात पैसों की है ही नहीं, तुम झूठ बोल रहे हो। तुम्हारी हालत इसलिए ख़राब है क्योंकि तुम मानसिक निर्भरता नहीं छोड़ना चाहते। आर्थिक निर्भरता नहीं है ये, मानसिक है।
तुम्हें डर लगता है तुम जवाब क्या दोगे घर वालों को। हर तरह की दिक्क़त आ जानी है। दोस्तों को क्या बताओगे, मेट्रोमोनियल में क्या लिखोगे? ये है बात।
पैसे की बात है ही नहीं, फैक्ट्स देख लो न! ख़ुद क्या बोला इसने कि इसे कितने चाहिए महीने के?
श्रोता: बीस-पच्चीस।
आचार्य: कितने बोले?
श्रोता: बीस-पच्चीस।
आचार्य: दिल्ली में बीस-पच्चीस हज़ार ये नहीं कमा पाएगा?
श्रोता: यहाँ का तो ड्राइवर भी बीस हज़ार कमाता है।
आचार्य: और ये बात तुम्हें नहीं दिख रही कि तुम मज़ाक कर रहे हो?
तुम कम्पनी छोड़ने से नहीं डर रहे हो, तुम घर वालों से डर रहे हो। तुम अभी भी नुन्नू हो, छोटे से बच्चे हो। और अगर ये दोस्त है तुम्हारी तो तुमने अपना डर इसके ऊपर भी रगड़ दिया है। तुम उसको डिफेंड कर रहे हो कि नहीं, वो नहीं आ पाएगी कैम्प में!
अच्छा, नहीं आ पाएगी, चलो इस वाले में माना कि फीस थोड़ी ज़्यादा है, हमारे और भी कैम्प होते हैं जो हम करते ही उनके लिए हैं जो कि फीस नहीं दे सकते। उनमें तुम तीन हज़ार रुपये देकर भी आ सकते हो। अभी ही चल रहा है, वो बैठे हुए हैं वहाँ पर कैंचीधाम में। ये क्या रोना रो रहे हो?
तुमने क्या करी है, इंजीनियरिंग करी है? इसी के साथ? कहाँ से करी है? कितने साल हो गये?
श्रोता: अभी एक ही साल हुए हैं।
आचार्य: किसी को भी मिल जाते हैं बीस हज़ार, चिन्ता मत करो। अनुराधा दे देगी, कह ही रही थी कि आजकल पैसे बहुत आने लग गये हैं, ज़्यादा अमीर महसूस करती हूँ, बाँटने का मन है। डबल इनकम, नो एक्सपेंडिचर (दोगुना आय, खर्चा कुछ नहीं), करना क्या है?
'जहाँपनाह! अपने इस कनिज़ की भी खिल्ली उड़ा ही दी। एक औरत के दर्द को आप क्या समझेंगे?' (अभिनय के लहज़े में बोलते हैं) (श्रोतागण ज़ोर से हँसते हैं)
वो डार्विन को सच प्रूफ करना चाहती है। वो बता रही है कि हम सब इंसान होने से पहले क्या थे और जो थे वो कभी-कभी बाहर आ जाता है। (सब ज़ोर से हँसते हैं)
बेटा, ये एक इंटीग्रेटेड सिस्टम होता है, तुम एक आदमी कि लाइफ़ देखो। वो इंटीग्रेटेड लाइफ़ है न? इंटीग्रेटेड समझते हो? जहाँ पर सारे खंड बस दिखते अलग-अलग हैं, वास्तव में जुड़े हुए हैं। एक आदमी की ज़िन्दगी देखो, वो सुबह से क्या करता है? वो घर से निकलता है कहाँ जाता है?
श्रोता: ऑफिस।
आचार्य प्रशांत: ऑफिस जाता है। ऑफिस से वापस आता है तो क्या करता है?
श्रोता: खाना खाता है।
आचार्य: खाना खाता है, शॉपिंग मॉल जाता है, टीवी देखता है, रिलेटिव्स (रिश्तेदारों) से बात करता है। दिनभर उसने जो किया वो सब अलग-अलग दिख रहा है न। पर वो एक है, सबकुछ जुड़ा हुआ है। इसीलिए वो इनमें से किसी को भी नहीं छोड़ सकता क्योंकि एक को छोड़ेगा तो बाक़ियों को भी छोड़ना पड़ जाएगा। घर, दफ़्तर, शॉपिंग मॉल, सेटेलाइट टीवी, पार्टीइंग, वैकेशनिंग ये सब एक हैं। घर-दफ़्तर एक हैं, अलग-अलग नहीं हैं।
हम जैसे घरों में रहते हैं, उन घरों का बहुत बड़ा सम्बन्ध है उन दफ़्तरों से जहाँ हम काम करते हैं। सही बात तो ये है कि अगर तुम कोई ऐसे आदमी हो जो घर में नहीं रहता तो तुम्हें दफ़्तर भी नहीं मिलेगा, तुम देख लेना।
तुम्हारा अगला इन्टरव्यू हो रहा हो, उसमें एच आर राउंड में ये बता करके देख लो, 'आइ डोंट लाइक टू स्टे इन होम्स, आइ रियली डोंट हैव एनी एड्रेस, आइ कीप शिफ्टिंग एवरी फोर्टनाइट' (मैं घर में रहना पसन्द नहीं करता, वास्तव में मेरा कोई पता नहीं है। मैं हर पखवाड़े एक जगह से दूसरी जगह चला जाता हूँ)। वो ख़ौफ़ खा जाएगी एचआर वाली और कहेगी, 'आइ कैन नॉट टॉक टू यू' (मैं आपसे बात नहीं कर सकती), एकदम भगा देगी।
घरवाले चाहते हैं कि तुम दफ़्तर में काम करो और दफ़्तर वाले चाहते हैं कि तुम घर में रहो। ये एक हैं। इसीलिए तुम डर रहे हो क्योंकि छूटेगा तो सब एकसाथ छूटेगा।
और तो और, राष्ट्र भी इनके साथ एक है। तुम जाओ एक कार्ड बनवाने, कोई भी, तो वो कहते हैं कि दूसरा कार्ड दिखाओ। तुम्हारे पास अगर अपना कोई पता नहीं है तो तुम्हारा बैंक खाता नहीं खुल सकता। सब जुड़े हुए हैं आपस में, सब मिले हुए हैं और ये सब मिलकर के तुम्हारी ज़िन्दगी पर चढ़े हुए हैं। और ये बात तुम जानते हो इसीलिए इनमें से किसी एक से भी पंगा लेने से डरते हो।
ठीक वैसे जैसे भाई के गुर्गों से पंगा लेने से डरते हो न, जब गुर्गे से पंगा लेते हो तो क्या बोलता है? ‘पता है न मैं किसका आदमी हूँ!' तुम्हें पता है कि तुम एक बन्दे से पंगा नहीं ले रहे, तुम भाई की पूरी व्यवस्था से पंगा ले रहे हो, पूरी गैंग से पंगा ले रहे हो, तो तुम पंगा नहीं लेते। इसीलिए तुम कम्पनी से हटने में डर रहे हो।
कम्पनी प्यादा है, उसके पीछे पूरी व्यवस्था खड़ी हुई है और वो व्यवस्था सिर्फ़ तुम्हारे शोषण के लिए है। वो व्यवस्था तुम्हें कुछ दे नहीं रही है, वो व्यवस्था सिर्फ़ जोंक है।
एक ज़िन्दगी देखो न आदमी की, उसमें सबकुछ एक सा है। एक ही तरह के दफ़्तर होते हैं, एक ही तरह की शर्ट होती है, एक ही तरह के समाचार सुनते हैं, एक ही तरह के फ़िल्में देखते हैं, एक ही तरह की जगहों पर जाते हैं छुट्टी मनाने, एक ही जैसी लड़कियाँ उन्हें पसन्द आती हैं, एक ही जैसी गाड़ियाँ उन्हें पसन्द आती हैं, एक ही तरह का खाना उन्हें पसन्द आता है। सब जुड़ा हुआ है, इसीलिए कोई एक चीज़ भी छोड़ते इतना डरते हो।
बात पैसे की बिलकुल भी नहीं है, बेटा। बात बस इसकी है कि बड़ी पुरानी ग़ुलामी है। ग़ुलाम ग़ुलामी का अभ्यस्त हो जाता है।
किसी अच्छे होटल में चेक इन करो, वो जब तुमसे भरवाएँगे फॉर्म तो उसमें साथ में लिखा होगा नेशनैलिटी और बगल में लिखा होगा कम्पनी, जैसे कि कम्पनी में काम करना ज़रूरी है। पर वो मान रहा है कि इस होटल में आएगा ही वही जो कम्पनी में काम करता है। तुम देख नहीं रहे हो? इन बातों पर ग़ौर किया करो, वो ख़ुद लिखवा रहा है तुमसे, कम्पनी लिखो, क्योंकि ये सब चीज़ें जुड़ी हुई हैं। होटल वाले को बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा अगर तुम कह दो 'नो कम्पनी'। वो थोड़ा-सा ऐसे उठा करके देखेगा, ‘हाँ! गड़बड़ है मामला।’
बड़े होटल में जा रहे हो, वो तुमसे कैश नहीं माँगेंगे। वो पूछेगा, ‘मे आई हैव योर कार्ड डिटेल्स?’ (क्या मैं आपका कार्ड डिटेल्स जान सकता हूँ?) और तुमने अगर धीरे से कह दिया न, 'आई डोंट हैव एनी कार्ड' (मेरे पास कोई कार्ड नहीं है)। अब तो पूरा ही तुम्हें देखेगा। ये सब चीज़ें जुड़ी हुई हैं।
और बता देता हूँ। ये जो सामने घर है, ये तुम्हें नहीं मिलेगा रहने को अगर तुम्हारे पास वो सब नहीं है जो समाज चाहता है कि तुम्हारे पास हो। तुम्हारे पास बीवी नहीं है तो तुम्हें ये घर नहीं मिल सकता। इतनी जुड़ी हुई हैं चीज़ें। और बीवी तुम्हारे पास नहीं होगी अगर तुम्हारे पास वो कॉर्पोरेट नौकरी नहीं है, इसलिए डरते हो तुम।
कॉर्पोरेट नौकरी नहीं है तो क्या नहीं मिलेगी?
श्रोतागण: बीवी।
आचार्य: और बीवी नहीं मिली तो छत नहीं पाओगे। तुम घुसकर दिखा दो, बाहर इतने बड़े-बड़े बोर्ड लगे होते है 'बैचलर्स एँड पीजीज़ आर नॉट अलाउड' (कुँवारों को अनुमति नहीं है)।
फिर एक ही तरीक़ा होता है कि खरीद ही लो वहाँ पर मकान। उसका आगे यही तरीक़ा निकलना है, बैचलर्स अपनी पुलिंग करे और पुलिंग करके खरीद ही लें मकान। बोलो, अब कौन हटाएगा? सीधे बिल्डर से खरीदेंगे। अब जो हटा सकता हो हटा दे।
बैचलर्स सोसायटी बननी ज़रूरी है। पाँच-सात मिलें, दो-दो चार-चार लाख रुपया जोड़ें और तीस-चालीस लाख रुपये का मकान खरीदें और उस पूरी फ्लोर पर लिख दें - 'हाउसहोल्डर्स आर नॉट अलाउड' (घर वालों के लिए अनुमति नहीं है)। और ये होने ही लग जाएगा, क्यों नहीं होगा?
ये 'एडब्ल्यूएचओ' क्या है? ये आर्मी वालों ने मिलकर एक खड़ा ही कर दिया पूरा सोसायटी। कुछ दिनों में ऐसे ही बननी लग जाएँगी 'बैचलर्स सोसायटी'। पर तुम डरे हुए हो, ‘मुझे छत भी नहीं मिलेगी।’
जितनी बातें मैं तुम्हें बता रहा हूँ वो तुम्हें पता है इसलिए डरते हो। कितने विश्वास के साथ और कितनी दयनीयता के साथ बोला था, ‘सर, वो अगर नहीं करेगी तो वो दो महीने भी नहीं आ पाएगी।’ अच्छा? एक घर में काम करने का कामवाली बाई भी दो-तीन हज़ार रुपया लेती है नोएडा में, वो भी चाहे तो कैंप अटेंड कर सकती है। अब तुम देख लो ये तुम्हें समझता क्या है? (प्रश्नकर्ता से एक श्रोता के बारे में कहते हैं)
अगर वास्तव में जागृत समाज होता हमारा तो जैसे ही तुम बोलते न, कि मैं किसी बड़ी कम्पनी में काम करता हूँ, तो कोई लड़की तुमको ऐसे देखती, बिलकुल धिक्कार की दृष्टि से, ‘ऐह, भेड़! ऐसी जगह काम करता है जहाँ दो लाख लोग काम करते हैं; भेड़! यू आर सच ए शीप। ' पर जागृत नहीं है न समाज। पहली बात तो यहाँ लड़की से तुम्हारी बात ही नहीं होती, लड़की के बाप से बात होती है और वो पहले ही पूछता है, ‘एमएनसी में काम करते हो?’ (एक बुजुर्ग का अभिनय करते हुए कहते हैं)
श्रोता: ‘कितना पैकेज है?’
आचार्य: ‘ पैकेज कितना है?’
श्रोता: ‘ख़ुद का घर है?’
आचार्य: ‘पैकेज? खो-खो-खो!’ (खाँसने का अभिनय करते हुए)
और जैसे ही वो ‘खो-खो-खो' करता है तो चाय रखी होती है तुम्हारे पास पीने के लिए, थोड़ा सा खखार उस चाय में भी चला जाता है।
जिस दिन दुनिया थोड़ी जगेगी उस दिन ये सब जो भेड़ हैं उनकी आफ़त हो जाएगी। ये सब कारपोरेट स्लम्स (निगमित झोपड़पट्टी) हैं। दो-दो लाख घुसे हुए हैं एक जगह में इसको क्या बोलते हैं?
श्रोता: स्लम।
आचार्य: स्लम।
ये कारपोरेट स्लम्स है जिनको तुम बोलते हो लार्ज ऑर्गेनाइजेशन और तुम खुश होते हो अपना कारपोरेट एड्रेस बताकर। पर बड़ा अच्छा लगता है इतने सारे लोग आये हैं तो बचा हुआ हूँ।
श्रोता: सर, आपने बताया कि ये जुड़े हुए हैं सब, तो इनको कौन जोड़ता है? हम क्यों नहीं जोड़ पाते हैं? हम उनसे अलग हैं, तो हम क्यों नहीं जोड़ पाते हैं? वो क्यों जोड़ लेते हैं अपनेआप को?
आचार्य: वो आपस में जुड़े ऐसे नहीं हुए हैं कि वो अलग-अलग थे, उन्होंने गठबन्धन कर लिया है। वो एक ही मन के उत्पाद हैं इसलिए उनका जुड़ा होना पक्का है।
श्रोता: हम कुछ ऐसा नहीं कर सकते हैं कि हम उनसे टक्कर लेने के लिए हम भी जुड़ जाएँ कहीं पर?
आचार्य: आपका वो उत्पाद है, हमारा ही तो उत्पाद है। हमारी आफ़त ये है कि हम अपने ही उत्पाद से परेशान हैं, पर उससे ये बात थोड़े ही मिट जाती है कि उन्हें पैदा हमने ही किया है। हम ही सरीक हैं उनमें, आप बदल जाएँगे वो अपनेआप मिट जाएँगे, उन बेचारों की क्या हैसियत है!
कम्पनी ख़ुद काम करती है या उसे आप चलाते हो? कम्पनी की क्या हैसियत है? उसका नाम ज़रूर होता है 'कारपोरेट पर्सन'। कम्पनी को कहते हैं , ‘इट इज़ ए कॉरपोरेट पर्सन।' पर वो काहे का पर्सन है! बिना प्राण का पर्सन है। आप चलाते हो न? आप हट जाओगे, आप अपनी ऊर्जा उसे देना बन्द कर दोगे, वो गिर पड़ेगा तुरन्त।
श्रोता: हमें डर है कि हम हटेंगे, बाक़ी तो हटेंगे नहीं, इसलिए हम हटते नहीं।
आचार्य: अरे भाई, बाक़ी जो नहीं हटेंगे वो भुगत रहे हैं न? आप अपनी जान बचाने के लिए हटो। आप इसलिए नहीं हटो कि आपको विद्रोह करना है, आप इसलिए हटो क्योंकि आपको अपनी जान प्यारी है।
इसको मैं बताये देता हूँ, तुमने इतनी दाढ़ी रखी है न, तुम थोड़ी और बढ़ा लो, तुम्हारी नौकरी छूटने की नौबत आ जाएगी। इस हद तक कनफर्मिटी (अनुरूपता) होती है। तुम अभी बहुत जूनियर आदमी हो, कोई नहीं बर्दाश्त करेगा कि तुम लम्बी दाढ़ी रखो। कर लो कोशिश। इतने पर भी तुम्हें टोका-टाकी शुरू हो जाएगी अभी जितनी तुमने कर ली है।
तुम तो अभी कॉर्पोरेट फच्चे हो, इनको तो सबको चिकना होकर घूमना होता है। कॉलेज में जब रैगिंग होती है तो बाल छोटे करा दिये जाते हैं, दाढ़ी मुंडा दी जाती है। वैसे ही कॉर्पोरेट में भी जब जाते हो तो ये अनरिटेन (अलिखित) नियम है कि ये सब नहीं चलेगा।
मैं आइआइएम में था, जब वहाँ प्लेसमेंट का समय आया तो सबने इन्टरव्यू के लिए अपने सूट खरीदें या सिलवाये और वो सब दो ही रंगों में होते थे, गहरा नीला या काला। हम हम थे! हमने गोल्डेन कलर का सिलवाया। अब सीवी अच्छा था, भारी था तो इन्टरव्यू काल्स सारी आयीं। सत्रह इंटरव्यू दिये एक के बाद एक और रिजेक्शन। और बाद में जब मेरे चाहने वालों ने कारणों की समीक्षा करी तो उसमें एक कारण ये भी बताया कि तुम ये जो रंग पहनकर घुस जाते हो, ये रंग फ़च्चों का है ही नहीं। जो तुम्हारा इंटरव्यू ले रहा है वही डर जाएगा तुम्हारा ये रंग देखकर के। ये तो अपनेआप को फ़च्चा मान ही नहीं रहा है। ये रंग तो बहुत सिनियर लेवल पर पहना जाता है। तुमने ये पहन कैसे लिया! हमने पहन लिया तो पहन लिया।
तुम चला रहे हो अपनी डर से अपने मजबूरी से, अनुगामिता से, वर्ना ये क्या व्यवस्था है! कुछ नहीं दम है इसमें। आदमी का इतिहास देख लो, हर तरह की सल्तनतें रही हैं, मिट गयी हैं। एक जैसी रही है दूसरी उसके विपरीत भी हो सकती है। आज एक तरह का कारोबार चल रहा है, एक तरह का साम्राज्य है, कल दूसरा हो सकता है, बिलकुल हो सकता है। पर बिलकुल नहीं होगा अगर तुम जो चल रहा है उसी में सरीक रहे आओ तो।
सुनने में थोड़ा तुम्हें गन्दा लगेगा लेकिन बताता हूँ। जो चीज़ कॉरपोरेशन है न, वही चीज़ फैमिली है। कॉरपोरेशन का क्या अर्थ है कि भीड़ के पीछे चले जाओ। ऐसा काम करे जाओ जिस काम से तुम्हारा कोई प्रयोजन नहीं है पर तुम उसे कर रहे हो, दिन के अपने आठ-दस घंटे दिये जा रहे हो। और तुम तो वीकेंड्स पर भी काम करने वाले खिलाड़ी हो और दिये जा रहे हो, दिये जा रहे हो। तो फैमिली भी तो वही है। तुम आये कहाँ से हो? तुम्हें क्या लगता है ये जो पूरी मानवता है ये प्रेम की पैदाइश है?
हम सब जैसे दफ़्तरों में काम करते हैं न, आधे मन से, मजबूरन, अन्धेरे में, अज्ञान में, वैसे ही घरों में बच्चे पैदा होते हैं और वैसे ही उनकी परवरिश होती है। और इसीलिए माँ-बाप तुले होते हैं अपने बच्चों को दोबारा उसी चक्की में डालने में। एक तरह से ऐसा कह लो कि उन्होंने पैदा ही उसे कॉरपोरेशन के लिए किया है, उन्होंने पैदा ही उसे समाज के लिए किया है। उनकी आन्तरिकता ने नहीं उसे पैदा किया। उनके भीतर जो समाज बैठा हुआ है उसने उस बच्चे को पैदा किया है।
बच्चे प्रेम में थोड़े ही पैदा हुए हैं, बच्चे तो समाज ने पैदा किये हैं। पुरुष के भीतर एक समाज बैठा है, स्त्री के भीतर एक समाज बैठा है, दोनों का समाज कहता है कि अब हो गया, अब बच्चा आना चाहिए, बच्चा पैदा हो जाता है। तो वो बच्चा पैदा ही समाज से हुआ है तो समाज की ख़ातिर हुआ है। तो इसीलिए ये जो माँ-बाप हैं ये अड़े रहेंगे कि भाई, तू वही सब कर जो तेरे सामाजिक आका तुझसे करवाये।
ऐसा समझ लो कि जैसे तुम्हारे बॉस में, तुम्हारे एचआर मैनेजर में और तुम्हारे घर वालों में साँठ-गाँठ हो। और साँठ-गाँठ है, हो सकता है वो आपस में कभी मिले न हों, पर उनमें पूरी साँठ-गाँठ है। और ये होता है बहुत सारे ऑर्गेनाइजेशंस में, वो एंप्लाइज की फैमिली को शामिल करना चाहते हैं। वो उनको बुलाते हैं, कहते हैं कि इसको पकड़ना है तो इसके परिवार को पकड़ लो!
श्रोता: मैंने सुना है, पता नहीं कितना सही है, कि जैसे पेरेंट्स टीचर मीटिंग स्कूल में होती है वैसे ही कॉर्पोरेट में भी होती है।
आचार्य: हाँ, होती है, वहाँ होती है। बिलकुल होती है क्योंकि वो एक ही हैं।
देखा है न, छोटे बच्चों को कई बार जब माँ-बाप बोर्डिंग में छोड़ते हैं तो बाप बड़े फ़ख्र से और बड़ी बेफ़िक्री से बोलेगा वार्डेन को, ‘हमने अपना बच्चा आपको सौंप दिया, अब आप ही इसके माँ-बाप हैं। आपको जो करना है वो करिए, हमारी ओर से कुछ नहीं है। पूरी छूट है हमारी ओर से, अब ये आपका हुआ।’
क़रीब-क़रीब ऐसे ही तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें तुम्हारे एचआर मैनेजर को सौंपते हैं। और फिर बच्चा अगर हॉस्टल से भागकर आता है तो घर में उसका क्या होता है? डाँट ही पड़ती है न कि तू भागकर कैसे आ गया! ठीक उसी तरीक़े से अगर तुम कम्पनी से भागकर जाओगे तो घर में डाँट पड़ेगी। बीवी ही डाँट देगी। तुम हो जाओ बेरोज़गार, तुम कम्पनी छोड़ दो, उसके बाद बीवी को हाथ लगाकर दिखा दो।
अपवाद होंगे, मेरी बातों को काटने के लिए उदाहरण मत देने लग जाना कि नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, मैं फ़लाने को जानता हूँ, वहाँ तो ऐसा नहीं हुआ। दो-चार अपवाद होते हैं, पर जो मैं बात कह रहा हूँ उसकी धारा को समझो।
तुम देखते नहीं हो तुम्हारे शादी-ब्याह पर संगीत कौनसा बजता है? फ़िल्मों का। तो तुम्हें समझ में नहीं आ रहा कि तुम्हारा मनोरंजन और तुम्हारा विवाह एक है?
तुम्हारे शादी-ब्याह पर कोई उपनिषदों के मंत्र गूँजते हैं? क्या गूँजता है? फ़िल्मी संगीत। तो तुम्हें दिख नहीं रहा है कि जिसको तुम अपना प्रेम कहते हो, अपना विवाह कहते हो और उसी विवाह से बच्चे आने वाले हैं, वह विवाह और तुम्हारा मनोरंजन बिलकुल एक हैं?
सरकार और परिवार भी एक हैं। तुम रात में सड़क पर घूम रहे हो एक स्त्री और दो बच्चों के साथ, पुलिस की गाड़ी तुम्हारे बगल में नहीं रुकेगी। तुम रात को सड़क पर घूम रहे हो अकेले, पुलिस की गाड़ी तुम्हारे बगल में रुक जाएगी। सरकार और परिवार भी एक हैं। सरकार भी परिवार के ही पक्ष में खड़ी है। अमेरिका में तो ये मुद्दा होता है — सपोर्ट ए, सपोर्ट फैमिली।
जब वहाँ पर राष्ट्रपति के चुनाव होते हैं तो फैमिली वहाँ पर बड़ा मुद्दा होता है। अब सरकार का परिवार से क्या लेना-देना होना चाहिए? सरकार बाहर-बाहर की चीज़ है, यार! सड़क बनवाओ, कूड़ा साफ़ करवाओ, सेना चलवाओ। मेरे परिवार से तुम्हारा क्या सम्बन्ध है? लेकिन है। परिवार तो बड़ी आन्तरिक बात है। परिवार दिल की बात है। परिवार मेरे अपने आत्मिक प्रेम की बात है। उसमें सरकार कैसे घुस सकती है? पर है।
ज़्यादातर कॉरपोरेशन्स में कोई दमदार व्यक्तित्व पहुँच जाए जिसकी आँखों में ख़ौफ़ न हो, उसका वो चुनाव ही नहीं करेंगे। और वहाँ जितना दबा-सहमा आदमी पहुँचेगा, उनके लिए उतना अच्छा है। तुम अगर एक बुलन्द व्यक्तित्व हो, चेहरा तुम्हारा प्रखर है, आवाज़ तुम्हारी ऊँची है, तुम्हारी हायरिंग (चयन) होगी ही नहीं। और तुम वहाँ पर जितने चूहे बनकर पहुँचोगे उतना तुम्हारी सम्भावना बढ़ जाएगी। हाँ, उनके काम के चूहे होने चाहिए। अगर तुम्हारे चूहेपन से उनको नुक़सान होता है तब नहीं। काम का चूहा होना चाहिए। लेकिन ये पक्का है कि एक मुक्त मन को वो ऑब्जर्व करेंगे ही नहीं।
ये सब दिखने-दिखने भर को लिबरल जगहें हैं, इनमें कुछ लिबरल नहीं है। तुम तो जाते हो इंटरव्यू देने तो तुमसे तो सब पूछ लेते हैं, ‘अपना आगा बताओ, अपना पीछा बताओ, ये बताओ, वो बताओ।’ अब तुम कहो कि अब ज़रा मुझे अपने सारे शेयरहोल्डर्स के बारे में बताइए, मुझे पूरे बोर्ड का परिचय दीजिए। और बोर्ड में आपके ये फ़लाने सेठ जी हैं, इनपर ये दो मुक़दमे क्यों चल रहे हैं, उसका भी ज़रा बताइएगा।’
भाई, तुम्हारे ऊपर कोई मुक़दमा चल रहा हो तो तुम्हारी हायरिंग नहीं होगी। और उनके ऊपर, जो पूरा बैठा हुआ है मंडली उसमें से कइयों पर मुक़दमे चल रहे होते हैं। और ये बात तुम पूछ लो फिर दिखा दो कि तुम्हारा सेलेक्शन होता है! फिर सीधे वो कहेंगे, ‘भाई, ग़ुलामी करने आया है, ग़ुलामों की औकात में रह! अपनी औकात से, हैसियत से बढ़कर सवाल मत पूछ। ठीक है, हमने तूझे इतनी इज़्ज़त दे दी कि सामने बैठा दिया। तुझे ये हक़ दे दिया कि तू हमें हमारे नाम से बोल दे। बस इतना ही बहुत है, इससे ज़्यादा नहीं!’
वहाँ के लिबरलिज्म (उदारवाद) का मतलब यही होता है कि ‘हाय, आई एम कमल! हाय, आई एम अमल!’ कि जो भी हो उसको उसके नाम से पुकार दो, कि सीईओ भी आया तो उसको तुम बोल रहे हो ‘हाय, जैक!’ वो कहता है, ‘बोल ले नाम से, नाम से बोलने के बाद तू सड़क पर जाएगा, मैं अपने हेलीकॉप्टर में जाऊँगा। मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है, तू नाम से बोल ले।’
बल्कि अच्छा रहता इन बुढ़वों को कोई नाम से बोले, ख़ासतौर पर जवान लड़की, तो इनको ऐसा लगता है अभी हम बहुत बूढ़े नहीं हुए। नाम से न बोलती तो क्या बोलती? ददु या अंकल, तो वो ज़्यादा ही बुरा होता। तो अच्छा है नाम से बोल रही है। उससे भ्रम बना रहता है कि अभी हम भी जवान हैं तो क्या पता कब मौक़ा लह जाए! ‘यू नो, वी आर ऑन फर्स्ट नेम बेसिस। (आप जानते हैं, हम प्रथम नाम के आधार पर हैं)
ये सब आधुनिक कारागार हैं। तुम कहते हो, ‘कम्पनी एग्ज़िस्ट फॉर द सोल परपज ऑफ मैक्सिमाइजिंग शेयरहोल्डर वैल्यू’ (कंपनी शेयरधारकों के मूल्य को अधिकतम करने के एकमात्र उद्देश्य के लिए अस्तित्व में है)। ये पहला सूत्र होता है। व्हाई डज़ द कम्पनी एग्ज़िस्ट? (कम्पनी किस उद्देश्य से अस्तित्वमान है?)
तुम अगर पढ़ाई करोगे तो तुम्हें पहली बात यही बतायी जाएगी कि कम्पनी सिर्फ़ इसलिए एग्ज़िस्ट करती हैं ताकि जो शेयरहोल्डर वैल्यू है वो मैक्सिमाइज कर सके। ठीक है? तो किसी कम्पनी में प्रवेश करने से पहले ये नहीं पूछोगे कि शेयरहोल्डर कौन है और मैं क्यों उसकी वैल्यू मैक्सिमाइज कर रहा हूँ? कोई व्यक्ति ही तो है न, देवता तो नहीं? वो क्या करना चाहता है, मैं क्यों उसका समर्थन कर रहा हूँ, पूछते क्यों नहीं हो?
कम्पनी अपना विज़न, मिशन कुछ भी लिखे, उस विज़न, मिशन से भी आगे कुछ और होता है क्योंकि कम्पनी किसी की है। द कम्पनी इज़ ओन्ड बाय समबडी। कम्पनी के शेयर होते हैं, जो उन्हें ओन (स्वामित्व) करता है, कम्पनी उसकी नौकर है। और तुम कम्पनी के नौकर हो। कम्पनी किसकी नौकर है? शेयरहोल्डर की, और तुम? कम्पनी के नौकर हो। तो तुम पता नहीं करना चाहोगे कि तुम्हारे मालिक के मालिक की नीयत क्या है? तुम जानना नहीं चाहोगे कि ये जो शेयरहोल्डर्स हैं, ये हैं कौन? कौनसे दिव्य पुरुष हैं? क्या इरादे हैं इनके? क्यों इतना पैसा कमाना चाहते हैं? क्या करेंगे उस पैसे का और उन्होंने आज तक किया क्या है?
जानना नहीं चाहोगे उनका ट्रेक रिकोर्ड , उनके मंसूबे? लेकिन ये तो तुम्हारे दिमाग में ही नहीं आता। तुम वहाँ पर जाकर के पूछते हो, ‘अच्छा, एक ज़िले में आपका काम बढ़ गया है, अगले ज़िले में कब पहुँचेंगे?’ तुम ये ज़रा-ज़रा सी बातें पूछ्ते हो।
‘आज तक आप आठ नम्बर के जूते बनाते थे, दस नम्बर के जूतों की भी बड़ी मार्केट है, उस बाज़ार में आप कब प्रवेश करेंगे?’ तुम ये बातें पूछते हो। जो असली बात है पूछने की, वो तुम कभी पूछते ही नहीं कि भाई, मुझे वास्तव में तुम यहाँ जिसकी ग़ुलामी के लिए लाये हो उसकी एक बार शक्ल तो दिखा दो! शक्ल नहीं दिखा सकते तो उसका इतिहास और भविष्य तो बता दो। कौनसे महापुरुष हैं, क्या करते हैं, क्या खाते हैं, क्या पीते हैं? और मेरे माध्यम से वो जो पैसा कमाएँगे उस पैसे का वो करेंगे क्या?
तुम्हें वहाँ पर उन्होंने परमार्थ के लिए तो रखा नहीं है। इसीलिए रखा है न ताकि वो तुम्हारे माध्यम से पैसा कमाये? तुम्हें दो रुपया देते हैं तो तुमसे दस रुपया कमाते हैं। जानना नहीं चाहोगे वो उस दस रुपये का कर क्या रहे हैं? तुम अपनी ज़िन्दगी लगा रहे हो उनकी ख़ातिर, वो दस रुपया कमाने में। उस दस रुपये का वो क्या कर रहा है, तुम्हारा हक़ नहीं है जानने का? तुमने पूछा कभी? तब तो तुम कह देते हो, ‘देखिए, ये तो उनकी कम्पनी है, उनकी चीज़ है, वो जो भी करना चाहें करें।’ तुम इतने आत्माहीन ग़ुलाम हो?
ये जो दुनियाभर की समस्याएँ हैं न, इसके लिए मुश्किल से कुछ सौ या कुछ हज़ार लोग ज़िम्मेदार हैं। और उन सौ या हज़ार लोगों के पास हज़ारों-हज़ारों स्रोतों से पैसा और ताक़त पहुँच रहा है। जैसे किसी समुद्र में हज़ारों नदियों का पानी उलीचा जा रहा हो। तुम उनमें से एक बहुत छोटी सी धारा हो। लेकिन तुम भी यही कर रहे हो कि तुम उनलोगों की ताक़त बढ़ा रहे हो। और उन्हीं लोगों ने आज ये सबकुछ कर दिया है, चाहे वो ग्लोबल वार्मिंग (वैश्विक तापन) हो, चाहे दुनिया पर आये और तमाम संकट, वो उन्हीं चन्द लोगों की लालच और भूख की वजह से है। और तुम उनके हाथ मज़बूत कर रहे हो उनके साथ काम करके। उनके साथ? वो तो तुम्हारे बिसात ही नहीं, उनके नीचे काम करके।
ये जिस शेयरहोल्डर को तुम मोटा किये जा रहे हो अपनी मेहनत से, ये भी तो देखो कि वो शेयरहोल्डर कर क्या रहा है उस पैसे का, उस ताक़त का। और अगर तुम्हें ये लगे कि वो बिलकुल सदुपयोग कर रहा है, दुनिया को स्वर्ग बनाने के लिए वो अपने पैसे का और ताक़त का इस्तेमाल कर रहा है तो मैं कह रहा हूँ, ‘जाओ, करो उसके लिए काम।’ पर तुम्हें ऐसा मिलेगा नहीं।
मैं तो इनसे भी कहता हूँ, आप डाटा सिक्योर कर रहे हो, वो डाटा है क्या ये भी तो देख लो! अच्छा है कि बहुत सारा डाटा अनसिक्योर्ड रह जाए, उड़ जाए, ख़त्म ही हो जाए, भ्रष्ट हो जाए।
जिन महानुभाव के नाम पर तुम्हारी संस्था का नाम ही है उनके दर्शन कभी हुए हैं? कभी जानना चाहा कि उनका हृदय कैसा है? उन देवता स्वरूप श्रीमान के बारे में कितनी जानकारी रखती हो? पर उनकी ख़ातिर काम कर रही हो। और कहती हो, ‘नहीं-नहीं-नहीं, हम उनके लिए थोड़े ही, हम तो ऑर्गेनाइजेशन के लिए काम कर रहे हैं।’
ऑर्गेनाइजेशन क्या है? गाय है? हाथी है? उसके दिल है, हाथ है, पाँव है, पूँछ है? ऑर्गेनाइजेशन क्या है? ऑर्गेनाइजेशन कुछ नहीं होता। इंसान, इंसान के लिए काम करता है। जब इंसान को इंसान से ज़्यादा बड़ा दिखना होता है न, तो फिर वो संस्था बनाता है, संस्थान बनाता है। जज ये थोड़े ही बोलेगा कि ये मेरा व्यक्तिगत मत है। वो बोलेगा, ‘इट इज़ द ऑपिनियन ऑफ़ दिस कोर्ट।’
अरे भाई! कोर्ट माने क्या? दीवारें? हथौड़ा? क्या? सीधे क्यों नहीं बोलते कि तुम्हें ऐसा लग रहा है और इंसान हो तुम। पर तुम ये बोलोगे, ‘मुझे ऐसा लग रहा है’ तो तुम्हारी सत्ता में कमी आ जाएगी। फिर तुम कहते हो, ‘कोर्ट बोल रहा है।’
इसी तरीक़े से तुम बोलोगे, ‘इट इज द पॉलिसी ऑफ द बोर्ड।’ पॉलिसी ऑफ द बोर्ड माने क्या? बोर्ड के मुँह है? बोर्ड के दिमाग है कि पॉलिसी बनाएगा? सीधे बोलो तुमने बनायी है। पर तुम बोलोगे तो चीज़ ज़रा छोटी लगेगी, बोर्ड बोलते हो तो बात बड़ी लगती है। वाह! बड़ी बात!
श्रोता: ऑब्जेक्टिव लगती है।
आचार्य: ऑब्जेक्टिव लगती है। ऐसा लगता है कि तुम्हारे जो दुराग्रह हैं उनसे मुक्त होगी बात। वैसे ही तुम बोलते हो, ‘आई वर्क फॉर द कम्पनी।’ सीधे बोलो न, 'भईया, हम तो बाँके सेठ के लिए काम करते हैं।' अब कितनी लीचड़ बात लगी न?
ऐसे बोलने में अच्छा लगता है, ‘आई एम एन एम्पलाई ऑफ़ द स्टारबक्स।’ और जो ज़मीनी हक़ीक़त है, बोल दो उसको, ‘बाँकेलाल अग्रवाल के नौकर हैं।’ अब कैसा लगा? कैसा लगा?
श्रोता: ठीक नहीं लगा।
आचार्य: हाँ। ‘डू यू वर्क फॉर द स्टारबक्स?’ हम तो ऐसे ही होते हैं, चिरौंजी सेठ की कम्पनी का नाम क्या है?
श्रोता: स्टारबक्स।
आचार्य: स्टारबक्स। भारत में बड़ी अजीब सी बात है, कोई तुम कम्पनी बना दो, उसका नाम हो मान लो, कोई नाम बताना, भारत में जो बड़े प्रचलित नाम होते हैं।
श्रोता१: हल्दीराम।
श्रोता२: गंगाराम।
आचार्य: हाँ। ‘हल्दीराम’ और ‘गंगाराम' तो कहोगे, 'ये कोई जगह है!' लेकिन जैसे ही आता है 'जॉनसन एंड जॉनसन' , तो तुम कितने खुश हो जाते हो? ‘जॉनसन एंड जॉनसन!’
अब फोर्ड क्या है? वो किसी का उपनाम है, सरनेम है। और तुम सोचो गुप्ता ब्रांड की गाड़ी में चल रहे हो तो तुम्हें कैसा लगेगा? (श्रोतागण ज़ोर से हँसते हैं) पच्चीस लाख देकर गुप्ता कार खरीद कर लाये हैं। अब ये कोई कार है! फोर्ड में बड़ा अच्छा लगता है।
और फोर्ड और क्या है?
श्रोता: गुप्ता।
आचार्य: गुप्ता, कि जखमोला। भारत में सब उपनाम हमारे ऐसे ही तो होते हैं, ‘पाड़े’! अब पाड़े कार में चल रहे हैं। फोर्ड में चलना कितना अच्छा लगता है!
श्रोता: जितने अंडर गारमेंट्स के ब्रांड हैं सब लोगों के नाम हैं।
आचार्य: सबके नाम हैं। सारे नाम ही हैं इनके। और पगला जाते हो, जैसे ही घर पर बताओगे, माँ के बिलकुल आँसू निकल आएँगे, ‘फोर्ड में नौकरी करता है।’
और ये बात बड़ी गहरी बैठ गयी है। किसी काॅलेज का नाम अगर हो जाए न, ‘चौधरी छबील दास काॅलेज’ वो नाम के कारण ही काॅलेज बर्बाद हो जाएगा। उसमें लोग एडमिशन लेने नहीं आएँगे कि नाम इसका ऐसा क्यों है।
श्रोता: फिर उसको सीसीडीसी कर देते हैं।
आचार्य: सीसीडीसी करेंगे उसको।
श्रोता१: और लोग पूरा ग्रेजुएट कर जाते हैं उन्हें पता नहीं चलता कि ये था क्या?
श्रोता२: एकेजीसी।
आचार्य: स्विस कॉटेजेज कितना अच्छा लगता है! ‘बिहार भवन' हो तो घुसोगे उसमें?
श्रोता: एक चीज़ बोला जाता है कि जैसे बाक़ी जो आक्रमक आये, मुग़ल, उन्होंने सीधा तलवारों से कब्ज़ा किया और ब्रिटिशर्स आये उन्होंने मन पर कब्ज़ा किया क़रीब दो सौ साल। तो बहुत गहरा प्रभाव मन पर छोड़ गये हैं।
आचार्य बात ब्रिटिशर्स की भी उतनी नहीं है, हम लोभी लोग हैं। जहाँ लालच दिखेगा उधर चल देंगे हम। ये जो पूरी पश्चिमी अर्थव्यवस्था है, आज ये कोलैप्स (गिर जाना) कर जाए तो फिर थोड़े ही इसके पीछे जाओगे आप। फिर जहाँ आपको नया लालच दिखेगा उसके पीछे चल दोगे। लालच का विषय तो हम खोज ही लेंगे, कोई और मिल जाएगा।
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