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पहली चीज़ मज़े मारना, बाकी बातें बाद में || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव आइ.आइ.एस.सी (IISc) (2022)

Acharya Prashant

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पहली चीज़ मज़े मारना, बाकी बातें बाद में || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव आइ.आइ.एस.सी (IISc) (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी! मेरी कुछ लोगों से बात हो रही थी। मेरे मित्र हैं, मेरे साथ काम करते हैं, तो मैंने आपके वीडियोज़ दिखाये उनको और बताया आपके बारे में। उन्होंने देखे भी वीडियोज़ आपके, बहुत अच्छा लगा उनको। कहा कि आप बहुत साफ़, ख़री बातें बोलते हैं।

लेकिन एक चीज़ जो उन्होंने बोली वो ये थी कि आपका एक तरह का बैकग्राउंड (पृष्ठभूमि) रहा है। मतलब आपकी जो एजुकेशन (शिक्षा) है, आप आइआइटी (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान) से हैं, आइआइएम (भारतीय प्रबंधन संस्थान) किया और फिर आपने सिविल सर्विसेस (सिविल सेवा) भी पास किया और एक तरह के माहौल में आप थे। तो आपके लिए आसान था, वो बोल्ड डिसिज़न्स (कड़े निर्णय) ले पाना, जिस तरह के निर्णय आपने लिये, जो आप अभी काम कर रहे हैं।

लेकिन अगर एक आम-आदमी की दृष्टि से देखें, तो जिसने अभी जीवन में बहुत कुछ नहीं देखा है, जिसके पास बहुत रुपया-पैसा नहीं है उसको दिखता है कि भाई, मैं और ज़्यादा पैसे कमा लूँ। एक मटीरियलिस्टिक (भौतिकतावादी) मेरा ड्रीम (सपना) है कि मैं इतने पैसे और कमा लूँ और मैं इतनी कम-से-कम एक बेसिक लग्ज़री लाइफ़ (मूलभूत विलासितापूर्ण जीवन) जिऊँ। जिसके बाद मैं निर्णय कर सकता हूँ कि देखो, मुझे जीना है वैसा या नहीं जीना है।

पर अभी तो मैंने कुछ किया ही नहीं, मतलब आप जिस स्थान पर बैठकर बोलते हैं, आपके लिए आसान है बोलना।

तो ये बात कहाँ तक ठीक है? मतलब मैं उसके बाद बहुत ज़्यादा कुछ बोल नहीं पाया उनको। तो मैं चाहता था कि आप ही ख़ुद जवाब दें इसका।

आचार्य प्रशांत: नहीं, तुम क्या नहीं बोल पाये? तुमने मुझे भी देखा है, मेरी ज़िन्दगी भी देखी है। मैंने कौन सी लग्ज़रीज़ (विलासिता) एन्जॉय (भोग) करके छोड़ दी है, भाई? (श्रोतागण हँसते हैं) इसमें न बोल पाने की क्या बात है?

कुल मिलाकर तर्क ये है कि 'आचार्य जी, आप तो ख़ूब भोग-वोग लिये (श्रोतागण हँसते हैं)। मज़े मारने के बाद अब मंच पर बैठकर प्रवचन दे रहे हो। हमने तो अभी ज़िन्दगी के कोई मज़े मारे नहीं, तो हम कैसे छोड़ दें?'

मैंने कौन-सी चीज़ें भोग ली हैं? ये सवाल ही अपने आधार में ही ग़लत है। क्या भोगा है? बल्कि उल्टा हुआ है। लोग आइआइएम जाते हैं, ताकि आइआइएम के बाद ख़ूब कमाएँगे। मैंने आइआइएम जाकर आइआइएम के बाद अपना एजुकेशन लोन (शिक्षा ऋण) चुकाया। कमाने को तो मिला नहीं, चुकाया ज़रूर है। तो यही लग्ज़री थी कि लोन चुकाओ!

भाई, वसूली तो शुरू होती है जब आप वहाँ नौकरियाँ करते हो और पाँच-दस साल जब रहते हो तब वसूल करते हो न? कि हाँ, भाई! जो कुछ डिग्री से मिलना था, अब निकालेंगे। डिग्री कर ली, उससे वसूला तो कुछ था नहीं मैंने। तो लग्ज़री की बात कहाँ से आ गयी? कौन-सी लग्ज़री मैंने कमा ली? ये क्या बेकार का तर्क है!

और ऐसे तर्क गुरुओं ने भी बहुत दिये। कहते हैं — राम, कृष्ण और बुद्ध और महावीर; ये सब राजसी ख़ानदानों से थे। तभी तो ये आध्यात्मिक हो पाये। तो चलो, बेटा! तुम पहले पैसा कमाओ ख़ूब। तुम भी महल बनाओ। तभी तो महल को छोड़ोगे। अरे! जब महल है ही नहीं, तो छोड़ कहाँ से दोगे?

ये गुरुओं ने भी तर्क दिया है और ये लोगों को बड़ा अच्छा लगता है। इससे ये हो जाता है कि जो अभी फ़िलहाल तत्काल अनिवार्यता है कि तुम जीवन को सही से देखो और सही निर्णय लो, आप उस अनिवार्यता को आगे के लिए लंबित कर सकते हैं, पोस्टपोन कर सकते हैं। आप कहते हैं — अभी तो पहले पैसा कमा लें, लग्ज़री , विलासिता भोग लें। उसके बाद देखेंगे। जैसे, भाई! गौतम बुद्ध ने भी सब मज़े कर लिये, उसके बाद अपना छोड़कर निकले थे न जंगल! तो ऐसे हम पहले मजे कर लें सारे।

ये ख़ूब तर्क चलता है। (प्रश्नकर्ता से पूछते हुए) मैं अपने बारे में पूछ रहा हूँ। मुझे बता दो, मैंने कौन-सी लग्ज़री कर ली है? सबसे पहले तुम कब आये थे मेरे पास? दीदी छोड़कर गयी थीं। छोटे से थे। दो हज़ार ग्यारह-बारह कब की बात है? ग्यारह? तो ग्यारह साल से तुम देख रहे हो। उसमें तुमने मुझे कौन-सी लग्ज़रीज़ में देखा है भाई? और ज़िन्दगी मेरी खुली किताब है। कमरा भी मेरा खुला रहता है। आज तक ताला लगा नहीं। कहाँ जी रहा हूँ, क्या खा रहा हूँ, क्या पी रहा हूँ, वो सबके सामने प्रत्यक्ष है। तुमने क्या लग्ज़रीज़ देख ली? ये तर्क ही क्या है कि आचार्य जी तो मज़े मार चुके हैं इसलिए अब ज्ञान बाँचते रहते हैं? मज़े बताओ न! कौन-से मज़े?

प्र: मतलब आपका एक तरह का बैकग्राउंड (पृष्ठभूमि) रहा है।

आचार्य: उस बैकग्राउंड से तो मैंने बस लोन चुकाया है। उस बैकग्राउंड से मैंने पाया क्या है? ताने पाये हैं ज़रूर; यूपीएससी की सीट ख़राब कर दी, आइआइटी की सीट ख़राब कर दी। उससे मैंने पाया क्या है? पाया माने, सांसारिक लहेजे में क्या पाया है?

शिक्षा पायी है, वो अलग बात है। पर जो लग्ज़रीज़ बोल रहे हो, वो लग्ज़रीज़ तो मुझे मेरी शिक्षा से मिली नहीं।

प्र: तो क्या आचार्य जी, ये कहना ठीक होगा कि मतलब, इतना समय लगने की ज़रूरत नहीं है? फिर यह, जो ये तर्क रहता है कि कम-से-कम बेसिक लग्ज़रीज़ ऑफ़ लाइफ (जीवन की मूलभूत विलासिताएँ) या बेसिक (मूलभूत) जो हमारे जो सपने हैं..

आचार्य: बेसिक क्या है? परिभाषा क्या है बेसिक की? बेसिक माने क्या होता है? बेसिक तो फिर आप कहीं भी कह सकते हो कि ये मेरे लिए बेसिक है। कितना भी बेसिक हो सकता है।

मेरे लिहाज़ से बेसिक इस समय वो है, जो कि अगर मेरे पास न हो, तो मैं आपसे बात नहीं कर सकता। ये बेसिक है (माइक पर हाथ रखते हुए)। ये बेसिक है (पहने हुए कपड़ों पर हाथ रखते हुए)। ये बाल मेरे मुँह पर आ रहे होंगे, बात नहीं कर पाऊँगा, तो मुझे एक कंघी चाहिए। वो बेसिक है। मुझे मॉइस्चराइज़र (नमी करने वाला) लगाना पड़ता है। वो बेसिक है मेरे लिए। और इतना बोलता हूँ, गला सूखता है; तो मुझे यहाँ पर यह चाय भी चाहिए और नारियल पानी चाहिए, ये बेसिक है। ये तौलिया बेसिक है। इसके आगे क्या बेसिक होता है, वो बताओ।

बेसिक वो है, जो आपको आपकी ज़िन्दगी के बेसिक पर्पज़ (मूलभूत उद्देश्य) को पूरा करने में अनिवार्य हो। उसको ही बेसिक बोल सकते हैं। ये परिभाषा है। अच्छे से पकड़ लो।

जीवन का मूल उद्देश्य क्या है? ये पता होना चाहिए और उस मूल उद्देश्य को पूरा करने में जो सहायक हो, मात्र वही बेसिक है। और किसको तुम बेसिक बोल रहे हो?

नहीं तो तुम — अभी तीन कमरे का घर है, पाँच कमरे का घर चाहिए। कुछ भी बेसिक हो सकता है फिर तो।

आज से बीस साल पहले बेसिक की जो परिभाषा थी, उससे हम बहुत आगे निकल आये। और एक आदमी की ज़िन्दगी में भी उसकी बेसिक की परिभाषा लगातार बदलती रहती है। लगातार। ये क्या है, समझ में ही नहीं आता।

अभी वो वाली बातचीत का वीडियो प्रकाशित हो गया जिसमें हमने सरकारी नौकरी की बात करी थी और ये कोचिंग वालों के दंद-फंद की बात करी थी। कितने लोगों ने देखा है वो? तो उसमें बहुतों का आ रहा है कि आचार्य जी, आपने तो बोल दिया कि प्राइवेट (निजी) में बीस-पच्चीस हज़ार की मिल जाती है लेकिन हम मेकैनिकल इंजीनियर (यांत्रिक अभियंता) हैं, हमें तो दस-पंद्रह हज़ार की ही मिल रही है बस। तो इतने में हमारा काम नहीं चल रहा। अब मैं ऐसे लोगों से संवेदना रखता हूँ। लेकिन उनसे मेरे कुछ सवाल हैं, बेसिक की जहाँ तक बात है।

जब तक तुम पढ़ाई कर रहे थे और हॉस्टल (छात्रावास) में थे, तुम्हारा महीने का कितने का खर्चा था? मान लो, तुम अभी अपने फोर्थ ईयर (चौथे साल) में हो। ठीक है? और अप्रैल तक तुम्हारा आख़िरी सेमेस्टर (अर्धवर्ष) चल रहा है तो मुझे बताओ, मार्च और अप्रैल के महीनों में तुमने कितना ख़र्चा किया? क्या है तुम्हारा ख़र्चा? कितने लोग हॉस्टल में रहे हैं? इंजीनियर्स (अभियंता) कितने हैं, यहाँ पर? (श्रोताओं से पूछते हुए)

अरे! इतने इंजीनियर । मैं सब इंजीनियर्स को ही खींच रहा हूँ। यह तो ग़ज़ब हो गया। सब इंजीनियर ही इंजीनियर हैं यहाँ? हाँ, तो एक तो बैंगलौर है (श्रोतागण हँसते हैं)। ठीक-ठीक। बैंगलौर है।

सेमेस्टर , आख़िरी सेमेस्टर में भी प्रतिमाह कितने का ख़र्चा कर लेते हो? अब उड़ाने को तो उड़ा दोगे, कहो कि मैं आठ हज़ार के जूते खरीद लाया। वो अलग बात है। वरना कितने का ख़र्चा होता है? महीना कितने में निकल जाता है? पाँच हज़ार में।

तो अप्रैल के महीने में पाँच हज़ार में ख़र्चा चल गया। और मई में आपकी जोइनिंग (सेवा में प्रवेश) थी और उन्होंने कहा पन्द्रह हज़ार देंगे और पंद्रह हज़ार एकदम कम पड़ गया। ऐसा कैसे हुआ चमत्कार? कैसे हुआ? बताओ, कैसे हुआ?

मैं समझ सकता हूँ, कुछ बातें। तुम कहोगे — किराया देना पड़ रहा है रहने का। तुम ये भी कहोगे कि इसकी क़िश्त देनी पड़ रही है, एजुकेशन लोन (शिक्षा ऋण) की। वो भी समझ गया। लेकिन उसके बाद भी बताओ, कैसे हो गया यह? क्योंकि हॉस्टल का भी वहाँ पर तुम देते ही थे। अगर आगे मकान का दोगे, उससे पहले हॉस्टल का देते थे और जब आप पहली-पहली नौकरी में जाते हो तो ऐसा तो करते नहीं हो कि एक मकान पूरा अपने लिए ले लेते हो। दो-चार लोग मिलकर शेयरिंग पर (साझा करके) रहते हो, जैसे हॉस्टल में रहा करते थे। तो ख़र्चा कितना बढ़ गया?

बढ़ेगा। मैं मान रहा हूँ, बढ़ेगा। पर कितना बढ़ जाएगा? पाँच-दस गुना बढ़ जाएगा? और पिछले चार साल से आपका महीने का काम चार हज़ार, पाँच हज़ार, छः हज़ार में चल रहा था। पिछले चार साल से चल रहा था। नौकरी अगर पंद्रह की लग रही है तो कहते हो — इसमें तो मेरी बेसिक ज़रूरतें भी पूरी नहीं हो रही हैं।

ये बेसिक क्या होता है?

प्र२: समाज को दिखाने के लिए।

आचार्य: हाँ, बस यही है। बेसिक माने जो इतना दुनिया के मुँह पर फेंककर मारो और बेसिक वह, जो घर में बताओ ताकि पापाजी की छाती चौड़ी हो जाए। तभी तो आधे लोग जितनी अपनी तनख़्वाह होती है, उससे दोगुनी सीटीसी (कम्पनी द्वारा कर्मचारी पर किया गया व्यय) घर में बताकर रखते हैं। घर वालों को संतोष रहना चाहिए। यही बेसिक है।

जो लोग लग्ज़रीज़ की बात करते हैं, मैं उनके लिए बता दूँ — हमारे बाद अब तेईस बैच (वार्षिक छात्र दल) निकल आये आइआइटी के और बीस बैच निकल आये आइआइएम के। मुझसे पंद्रह-बीस बैच जूनियर लोग भी जितना कमाते हैं और कन्ज़्यूम (भोग) करते हैं, मैं उतना भी नहीं करता हूँ।

आज आइआइएम अहमदाबाद का जो फ्रेशर (नया-नया) निकलता है, उसकी जो एवरेज सीटीसी होती है, मेरी अपनी तनख़्वाह उतनी भी नहीं है। और जो मेरी तनख़्वाह है भी, उसमें मैं संस्था से आपकी एक पैसा नहीं लेता। पुरानी 'अद्वैत लाइफ़ एजुकेशन' है, उसका जो पड़ा था, वही चल रहा था। और पिछले महीने मुझे बताया गया कि अब वो ख़त्म हो गया। तो अभी मुझे फ़ुर्सत ही नहीं मिली है, मुझे ये देखना है कि मेरा अपना खाना-पीना कैसे चलेगा, इस महीने में। लग्ज़रीज़ क्या हैं?

और जो लोग लग्ज़रीज़ की बात करते हैं कि राम और कृष्ण थे, इनके पास तो सबकुछ थी, तभी तो ये कर पाये। वो कभी कबीर साहब, रैदास साहब, नानकदेव — इनकी बात क्यों नहीं करते? इनके पास कौनसी लग्ज़रीज़ थीं? गरीबदास, मलूकदास — इनकी बातें क्यों नहीं होतीं? पलटूदास। ये सब बहुत साधारण वर्गों से आते थे।

गुरुओं को भी तो अपनी बेसिक्स देखनी पड़ती हैं न? (श्रोतागण हँसते हैं) तो फिर वो कहते हैं कि अगर इनको ये बोल दिया कि फालतू लग्ज़रीज़ के पीछे दौड़ लगाना ही तुम्हारा बोझ है, तो ये भाग जाएँगे यहाँ से सब। तो फिर गुरु लोग अपने बेसिक्स का ख़्याल रखने के लिए कहते हैं — ‘नहीं, नहीं बेटा! तुम चलो। अभी तो तुम दौड़ लगाओ। ख़ूब कमाओ। दो नये घर खरीदो। चार नयी गाड़ियाँ खरीदो।'

जब गुरुजी ऐसा बोल देते हैं तो जितने पैसे वाले लोग होते हैं, गुरुजी के पास आ जाते हैं। और गुरुजी भी यही चाहते हैं। गुरुजी को क्या मिलेगा अपने सामने भिखारियों की फौज खड़ी करके? वो भी तो यही चाहते हैं न कि जितने पैसे वाले लोग हैं वो आयें हमारे पास? और पैसे वाले लोग कैसे आपके पास आएँगे अगर आपने कह दिया कि पैसा सीमा के अंदर ही ठीक है?

तो पैसे वाले लोगों को आकर्षित करने के लिए गुरुओं के लिए बहुत ज़रूरी रहा है कि कहें कि पैसा बढ़िया है। जब बोलोगे, पैसा बढ़िया है, तभी तो गुरुजी के पास बेसिक पैसा आयेगा। बेसिक !

मैं अपने खाने-पीने तक का ठीक से ख़याल नहीं रख पाया। और वो मैंने ग़लत करा अपने साथ। उसका नतीजा ये हुआ कि शरीर को कई तरीक़े की समस्याएँ हो गयीं। तुम कौन-सी लग्ज़रीज़ की बात कर रहे हो?

नोएडा के तिरसठ सेक्टर, वो इंडस्ट्रियल एरिया (औद्योगिक क्षेत्र), उसमें दस साल तक मैंने धुआँ पिया है। वहीं पर ऐसे मेज़ थी, उसके बगल में ऐसे सो जाता था। वहाँ नहीं सोया, तो उसके पीछे वो छः बाई आठ का खोखा था। उसमें घुस जाता था। उसमें ऊपर से मेरे सीमेन्ट के इतने बड़े-बड़े टुकड़े गिर रहे होते थे। और मैं अपना उस वक़्त काम कर रहा होता था। इन चीज़ों का होश ही नहीं था।

संवाद लेने आता था तो लम्बे कुर्ते होते थे। वही लम्बे कुर्ते जब घिस जाते थे, तो उनको कटवाकर, छोटा करवाकर उनको डेली यूज़ (दैनिक उपयोग) में ले आ लेता था।

देखा नहीं है, ये सब? कौन-सी लग्ज़रीज़ ?

ये तुम्हारे जो भी मित्र लोग हैं, उन्हीं का नहीं होगा; यहाँ बहुत लोग बैठे होंगे, सबका यही होगा — ‘अरे! ये तो सब इन्होंने पहले हासिल कर लिया।'

उल्टा नहीं सोचना चाहिए, कि अगर हासिल कर लिया तो हासिल करने के बाद छोड़ना कितना मुश्किल है? जिसने हासिल नहीं किया और वो कहना शुरू कर दे — ‘अरे! सब बेकार है।’ तब तो फिर भी ठीक है। 'अंगूर खट्टे हैं।' उसने हासिल ही नहीं किया, वो कह सकता है कि सब बेकार है। पर कर लिया हो और जब वसूली का समय आया हो तब त्याग दिया हो, वो नहीं ज़्यादा कठिन है?

पर मैं उसको कठिन भी नहीं कह रहा हूँ। वो ज़रूरी था। और जो चीज़ ज़रूरी होती है, वो तो करनी पड़ेगी। भले ही कठिन हो। नहीं करनी पड़ेगी?

और चूँकि वो ज़रूरी है इसलिए उसमें फिर कठिनाई का गाना गाने की भी आवश्यकता नहीं होती है। तुम पूछ रहे इसलिए बोल दिया। नहीं तो इतने सालों से मुझे ये बोलने की कभी ज़रूरत लगी ही नहीं कि बताऊँ कि मैं पिछले पंद्रह साल से कैसा रहा हूँ, कैसे जिया हूँ, क्योंकि मुझे उसमें कोई ऐसा नहीं है कि बहुत दुख हो रहा था। मज़े में ही था। मौज मैंने पूरी मारी है। मज़े में नहीं होता, तो कुछ और कर लेता न? या अपनी दिशा बदल देता। उसमें मुझे तृप्ति मिल रही थी इसीलिए उसमें लगा था। तो मैं क्यों बोलूँ कि वो कठिन है या दुखभरा है!

अब सुनो सही बात — जिन चीज़ों को तुम लग्ज़रीज़ बोलते हो, उन लग्ज़री से बड़ी-से-बड़ी लग्ज़री है, एक सही और सच्चा जीवन।

जो लोग आज सबसे लग्ज़ूरियस (विलासितापूर्ण) जीवन जी रहे हैं — विलासिता और वैभवपूर्ण — क्या उनको भी सही और सच्चे जीवन की लग्ज़री मिली?

तो बताओ न फिर! बड़ी-से-बड़ी लग्ज़री के बाद भी ये वाली लग्ज़री तो नहीं मिली न? तो ज़्यादा बड़ी लग्ज़री कौन सी है, प्राइवेट जेट (निजी तीव्रगामी वायुयान) और प्राइवेट आइलैंड (निजी द्वीप) और प्राइवेट यार्ड (निजी क्षेत्र) होना या ज़िन्दगी के सामने बिलकुल छाती चौड़ी करके खड़े हो कि हाँ, सही जिये हैं, सच्चा जिये हैं; न घुटने टेकते हैं, न बंधन माने हैं, न बिक गए हैं? ज़्यादा बड़ी लग्ज़री क्या है?

तो हम भी कह रहे हैं कि ज़िन्दगी में लग्ज़रीज़ होनी चाहिए। गो फ़ॉर द हाइयेस्ट लग्ज़री (सबसे ऊँची विलासिता के लिए जाओ)। इस जीवन में इससे बड़ी और क्या लग्ज़री हो सकती है कि तुम जीवन के गुलाम बनकर न जियो? आज़ादी से जीने से बड़ी कोई लग्ज़री है? सोने के पिंजरे में कैद चिड़िया और मोतियों का उसको आहार दिया जाता है। क्या लग्ज़री है! क्या लग्ज़री है! चाहिए?

हम भैया, छोटी-सी गौरैया ही सही लेकिन आज़ाद उड़ लेंगे। क्या होगा? शिकार हो जाएगा; चील, बाज घूम रहे हैं। मेहनत करनी पड़ती है — ख़ुद देखो, ख़ुद समझो, दाना चुनो, कम जिएँगे, कोई बात नहीं! पंख कटवाने के लिए नहीं पैदा हुए थे।

बताता हूँ, लग्ज़री क्या होती है। लग्ज़री ये होती है कि बिना बात के डरना नहीं पड़ता। लग्ज़री ये होती है, कोई दूसरा इंसान तुम्हारी ज़िन्दगी पर हावी नहीं होता। ये होती हैं *लग्ज़रीज़*। ये पैसे देकर नहीं खरीदी जातीं। इन्हें हासिल करके दिखाओ न! ये नहीं करनी हासिल? या लग्ज़रीज़ बस यही है कि न्यूयॉर्क में बंगला खरीदा है? धोखा नहीं करना पड़ रहा है, ये लग्ज़री नहीं है? बोलने से पहले पाँच बार सोचना नहीं पड़ रहा, ये बहुत बड़ी लग्ज़री है।

मैं आपके सामने पाँच-पाँच, छः-छः घंटे बैठा रहता हूँ। मैं कैसे बोल पाता अगर हर बात विचारनी पड़ती तो, बोलिए।

महान लग्ज़री मिली हुई है मुझे। बात जैसी है, वैसी कह देनी है। न सोचना, न विचारना; बस मुँह खोल दो (श्रोतागण हँसते हैं)। सोच-सोच कर तो आदमी आधे घंटे में थक जाए। दिमाग से परेशान हो जाए। 'अरे अभी, अब ये बोल दिया! अब क्या करें? कहीं वो (श्रोता) न नाराज़ हो जाए। उसको (दूसरे श्रोता को) कैसा लगेगा?'

किसी से कुछ पूछना नहीं पड़ता, ये कम बड़ी राहत है? इससे बड़ी विलासिता क्या होगी, बताओ। ज़िन्दगी में जो करना चाहो, कर सकते हो, कोई जवाबदेही नहीं है, कोई सिर पर मालिक नहीं बैठा हुआ; न दफ़्तर में, न घर में। जवाब देना भी है किसी को तो उसका नाम एक है, उसको आत्मा बोल लो, परमात्मा बोल लो, जो भी है। उसके सामने पेशी होती है। और हम किसी को जवाब देंगे ही नहीं।

प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों को भी ये लग्ज़री उपलब्ध है? उन्हें भी नहीं है। उन्हें भी जवाब देना पड़ता है। तुम ऊँचे-से-ऊँचे हो जाओ, कहीं न कहीं तो तुम्हारी अकाउंटेबिलिटी (जवाबदेही) होती है। और उतनी दूर जाने की तो ज़रूरत ही नहीं होती। हमने अपनी निजी ज़िन्दगी में ही ऐसे काम कर रखे होते हैं कि हमारे घर में ही हमारी बड़ी जवाबदेही हो जाती है।

कल यहाँ पर बोलकर तो गये हैं लोग, आज आये हैं, अब कल नहीं आ पाएँगे। मैं मस्त हूँ। मुझे आपको कभी नहीं बोलना पड़ेगा कि आज आया हूँ, कल नहीं आ पाऊँगा। मौत हो जाए, वो अलग बात है। वरना, अगर आना है तो आना है। कोई नहीं रोक सकता। ये है *लग्ज़री*। अभी और भी पानी बाकी हैं। ठीक है और लग्ज़रीज़ हैं, जीवन कहीं ख़त्म नहीं हो जाता। एक के बाद एक ऊँचाईयाँ होती हैं।

दिक़्क़त ये है न कि आप ऊँचाइयों को सिर्फ़ भौतिक रूप से समझते हो। आपके लिए लग्ज़री सिर्फ़ मटेरियल (पदार्थ) होती है, टेन्जिबल (दृष्टिगत)। और इसीलिए फिर आप पैसे के पीछे भागते हो कि पैसा तो टेन्जिबल चीज़ें ही खरीद सकता है।

वास्तविक लग्ज़री इन्टेन्जिबल (अदृष्टिगत) होती है। तभी फ़क़ीरों को बादशाह बोला गया है। उनके पास बताओ, पदार्थ क्या थे? उनके पास वस्तुएँ क्या थीं? चीज़ों की लग्ज़री तो नहीं थी उनके पास। पर फिर भी इस देश ने सब फ़क़ीरों को बोला बादशाह। जो संन्यस्थ हो गया, उसको बोला स्वामी। स्वामी माने मालिक। अब ये मालिक हो गया। बादशाह है यह, बादशाह! क्योंकि अब उसके पास वो वैभव आ गया है, वो संपदा आ गयी है, जो बड़े-से-बड़े सेठ, राजा, अमीर, किसी के पास नहीं होती।

बैठे होगे तुम फोर्ब्स फाइव हंड्रेड (अमीरों की सूची) में। तुम्हारे पास वो चीज़ नहीं है। ये उनके पास होती है। तो इसीलिए यहाँ पर सम्राटों ने आकर के साधुओं के सामने सिर झुकाया है। ये तुम कहीं नहीं सुनते होगे कि साधु गया और सम्राट के पाँव छू रहा है। ऐसा सुना कहीं? तो कोई वजह है न, कि जो राज्य का सबसे अमीर बंदा है — कौन? राजा — वही आकर के कहाँ चरण स्पर्श कर रहा है? वो जिसके पास कानी-कौड़ी नहीं है। वो साधु है, नंगा है, ऐसे ही फिर रहा है‌ और राजा आकर उसके पाँव छू रहा है।

अब बताओ, लग्ज़री किसके पास है? और मज़े की बात ये कि साधु ध्यान भी नहीं दे रहा, छू रहा है कि नहीं छू रहा है। वो कहे, ‘हट। दूर हट। परेशान करने चला आता है।’ (श्रोतागण हँसते हैं) अब बताओ लग्ज़री किसके पास है? और राजा को बड़ी तक़लीफ़ हो जाएगी, अगर उसके नीचे वाले उसको नमस्कार न करें।

साधु को तब भी तक़लीफ़ नहीं होगी, कोई आकर उसके मुँह पर थूक जाए। राजा उसके पाँव छू ले तो भी एक बात और कोई आकर उसके मुँह पर थूक जाए, तो भी वही बात। ये हुई लग्ज़री कि नहीं? ये हुई जगत से आज़ादी कि नहीं? कि जगत हमें कितना भी सम्मान दे दे, स्तुति कर दे या निन्दा कर दे, अपमान कर दे, हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता। ये होती है *लग्ज़री*।

और हम ऐसे हैं कि फ़ेसबुक पर सेल्फ़ी डाली थी। चौदह ही लाइक (लोगों की तरफ़ से पसंद की प्रतिक्रिया) आये (श्रोतागण हँसते हैं)। साइक्रेटिस्ट (मनोचिकित्सक) को फ़ोन मिला रहे हैं, डिप्रेशन हो गया है, चौदह ही लाइक आये हैं आज कुल।

रखे रहो तुम अपना नया वाला आइफ़ोन और उसमें देखते रहो कि चौदह ही लाइक आये हैं। लग्ज़रियस फ़ोन है न, तुम्हारे पास। रखो। देखो उसमें कि कुल चौदह लाइक आये हैं और डिप्रेशन आ रहा है।

बेसिक की परिभाषा समझ गये हो? ज़िन्दगी में सही काम करने के लिए जितने संसाधन चाहिए, उतने ज़रूर जुटाओ और उससे ज़्यादा बिलकुल नहीं। एक सही और साफ़ और ऊँचा लक्ष्य बनाओ और उसको पाने के लिए रुपया-पैसा, रिसोर्सेस (स्रोत), जो भी चाहिए, उतने ज़रूर इकट्ठा करो। कमाओ।

लेकिन अपने भोगने के लिए कमाना, इसमें कोई मज़ा नहीं आने वाला। आप चाहो तो प्रयोग करके देख लो।

और कोई बेसिक सवाल?

प्र२: ये जो इसपर बात हुई थी, अभी प्लेसमेन्ट (नौकरी मिलने) वाली; तो इसमें बेसिक तो पूरा हो जाता है। तो अगर व्यक्ति संतुष्ट भी है, जॉब (नौकरी) करके कि मेरा बेसिक हो जा रहा है और बाकी काम। तो इसमें परिवार से ये फिर आता है कि हमने जो तुम पर इतने सारे पैसे इन्वेस्ट (निवेश) किये, उसका क्या मतलब? अब वो तुम इन्ट्रेस्ट (ब्याज) के साथ इतने महीने में वापस करो। सीधे ऐसे ही बोल दिया जाता है, इस चीज़ को कि मतलब अगर…

आचार्य: नहीं, जब इस तरह व्यापार की भाषा में बात हो रही है, तो व्यापार तो कॉन्ट्रैक्ट्स (अनुबंधों) पर चलता है। आप कहिए — कॉन्ट्रैक्ट (अनुबंध) दिखाओ।

भाई, प्रेम में किसी तरह का कोई कॉन्ट्रैक्ट नहीं होता न? प्रेम में तो आपने कहीं कोई लिखित करार करा नहीं होता है और फिर प्रेम में वसूली की भाषा में बात भी नहीं की जाती कि हमने तुम पर इतना लगाया है, लौटाओ। जैसे ही कोई वसूली की भाषा में बात करने लगे, तो अब प्यार नहीं व्यापार है। और अगर व्यापार है तो साहब, एग्रीमेंट (सहमति पत्र) दिखाइए और दिखाइए उसमें हमारे साइन (हस्ताक्षर) कहाँ हैं। हमने कब सहमति दी थी कि तुम हममें इतना लगाओगे और फिर इतना माँगोगे?

और अगर प्यार के नाते लगाया था, तो वापस माँगो मत। क्योंकि प्यार में इस तरह की माँगें तो करी नहीं जातीं। हमें भी आपसे प्यार है, पिताजी। जब हमारे पास होगा और जितना होगा और जब हमें आवश्यकता समझ में आएगी, हम आपकी जितनी सेवा हो सकेगी करेंगे। लेकिन प्यार के नाते करेंगे। अभी आप वसूली की भाषा में बात कर रहे हो। वसूली की भाषा में तो दिखाइए, लीगल कान्ट्रैक्ट (वैध अनुबंध) दिखाइए।

हमने कब अपनी सहमति दी थी कि आप हमारे ऊपर इतना लगाओगे, बचपन से आज तक और हम उसको इतने ब्याज के साथ ऐसे लौटाएँगे? दिखाइए, कहाँ है?

प्र२: कुछ फिर ऐसा बोलते रहते हैं कि ऐसी बीमारी है, उसके लिए मुझे इतने पैसे चाहिए। तो तुम लोन (ऋण) लेकर के मुझे दो, कैसे भी। मतलब, वो कुछ ऐसा बोलते रहते हैं कि…

आचार्य: देखो, बीमारी अगर उन्हें सचमुच है, तब तो उनकी मदद करनी चाहिए।

प्र२: ऐसा असल में है नहीं। (श्रोतागण हँसते हैं) मतलब, वो सिर्फ़ पैसे के लिए ऐसा बोलते रहते हैं। तो मैं सोचता हूँ, ऐसा अभी इतना ज़रूरत है नहीं, तो इतना क्यों माँगते हैं?

आचार्य: क्यों माँगते हैं, तुम्हे समझ में नहीं आया है?

प्र२: वो बोलते हैं कि बगल वाले लड़के को देखो। वो कितना अच्छा है। वो अभी लोन लेकर के घर भी, ज़मीन भी ले लिया। तुमने कुछ नहीं किया अभी तक मेरे लिए।

आचार्य: कुछ नहीं। बोल दो कि हमारी सहानुभूति आपके साथ है। (श्रोतागण हँसते हैं) आपका इन्वेस्टमेन्ट (निवेश) ख़राब हो गया। क्या कर सकते हैं! आपको डायवर्सिफ़ाइड पोर्टफोलियो (विविध विभाग) रखना चाहिए। थोड़ा हममें लगाया, थोड़ा बगल वाले लड़के में लगा देते। (श्रोतागण हँसते हैं)

ये देखो, सब शारीरिक घटनाएँ होती हैं। बच्चा पैदा हो गया।‌ इससे प्रेम थोड़े ही आ जाता है। हम बहुत बड़ी-बड़ी मिथ्स (झूठों) में जीते हैं, भ्रांतियाँ। जिसमें से एक ये भी है कि बच्चा है तो उसके माँ-बाप से प्रेम का ही तो रिश्ता होगा। क्यों होगा भाई? ऐसा भी नहीं कि कभी-कभी नहीं होता है। कभी भी नहीं होता है। जो व्यक्ति जागृत ही नहीं है वो किसी को भी कैसे प्रेम कर सकता है? वो बच्चे को भी कैसे प्रेम कर लेगा अपने? प्रेम कोई अंधी चीज़ है क्या?

प्रेम कोई अंधी चीज़ है क्या? सिर्फ़ इसलिए कि तुम्हारे पास शरीर है — और शरीर पशुओं का और मनुष्य का समान होता है — सिर्फ़ इसलिए कि तुम्हारे पास शरीर है, तुम प्रेम करना जान जाओगे? प्रेम तो बड़ी मेहनत से सीखना पड़ता है। किसी अंधेरे क्षण में आपने संतान को जन्म दे दिया, इससे आपमें प्रेम आ जायेगा? प्रेम थोड़े ही आ जायेगा।

कोई किसी से प्रेम नहीं करता, प्रेम सिर्फ़ ज्ञानियों ने, मनीषियों ने, संतों ने जाना है। प्रेम ऐसी सस्ती चीज़ नहीं है कि प्रेम हो गया। कोई लड़की दिखी, प्रेम हो गया। बच्चा पैदा हुआ, प्रेम हो गया। उसके लिए दूसरे नाम होते हैं।

कोई लड़की दिख गयी, आकर्षण हो गया। बच्चा पैदा हुआ, ममता हो गयी। प्रेम नहीं हो जाता। प्रेम बहुत ऊँची बात है। और बिलकुल डंके की चोट पर कह रहा हूँ, कोई बिरले माँ-बाप होंगे जिन्हें अपने बच्चों से ज़रा भी प्रेम होता है। माँ-बाप को आपस में ही नहीं प्रेम होता। उन्हें बच्चों से क्या प्रेम होगा! उन्हें आपस में प्रेम होता तो बच्चा पैदा किया होता? बच्चे तो सब पैदा हमारे प्रेम से नहीं होते, हमारी पाशविकता से होते हैं।

लेकिन साथ ही साथ अब उन्होंने पैसा तो तुम पर लगाया ही है। ठीक है? अपनी आज़ादी गिरवी रखे बिना जितना उनको लौटा सकते हो, लौटा दो। लेकिन उनको लौटाने के लिए तुम ख़ुद कहीं बंधक मत बन जाना। अपने ख़र्चे कम-से-कम रखो। जो भी बचे, थोड़ा बहुत, उतना घर भेज दिया करो, 'लो ये तुम्हारा है।'

क्योंकि ऋण तो था ही। प्रेम में ऋण नहीं होते। पर आपसे प्रेम का तो सम्बन्ध था नहीं तो हम उसको कर्ज़ ही मानेंगे और जितना होता रहेगा धीरे-धीरे लौटते रहेंगे। आपमें से जो भी लोग माँ-बाप हैं या होने वाले हैं, अपने बच्चों से कभी इस भाषा में बात मत करना भाई, कि तुम पर इतना ख़र्च करा है।

मेरे सामने लोग आ चुके हैं, जिन्होंने दिखाया है कि बाप ने पूरा हिसाब रखा हुआ था कि इतना लगा। इसमें ये तक था कि जब तुम पैदा हुए तो तुम्हारे अस्पताल में कितने पैसे दिये थे, तुम्हें पैदा कराने के। वो तक है। पूरा हिसाब रखे हुए हैं पिताजी। अब कह रहे हैं कि 'इसका क्या करना है?'

ये मत करना।

तुमने किसी को पैदा कर दिया, यही उसके साथ अपराध है। ऊपर से तुम उसको ये पूरी वसूली दिखा रहे हो! ये तो क्रूरता है।

पर सब ऐसे ही होते हैं। ये सब पूरा क्या है? जिसको आप बोलते हो फ़ैमिली लॉज़ (पारिवारिक कानून) अनडिवाइडेड फैमिली लॉ (अविभाजित पारिवारिक कानून)। उन सबके केंद्र में जानते हो न, क्या बैठा हुआ है? पैसा।

लड़की को कितना पैसा देना है, जायदाद लड़कों में कैसे बँटेगी। सिविल केसेस (नागरिक मुक़दमें) जो हैं अदालतों में, वो अस्सी-नब्बे प्रतिशत सब परिवार के अंदर के होते हैं। और किस चीज़ पर होते हैं? भाई-भाई के बीच में, बाप-बेटे के बीच में? पैसा।

प्रेम थोड़े ही है कहीं। प्रेम होता, तो इतने मुकदमे होते? लोग लड़े हुए हैं। अब जब से नियम बन गया कि लड़की को भी बराबर का हिस्सा मिलेगा तो क्या करते हैं कि अब उसको तो दहेज दे रखा है पहले तो उससे पहले से ही लिखवा लेते हैं कि तुझे जो मिलेगा वो तू पाते ही तुरंत भाई के नाम कर देगी स्वेच्छा से। क्योंकि तुझे तो दहेज पहले ही दे दिया न? तेरे हिस्से का तुझे मिल तो गया। ये सब चल रहा होता है।

जिसको आप ऑनर किलिंग (सम्मान हेतु हत्या) भी कहते हो बहुत हद तक वो भी ऑनर किलिंग नहीं है, वो वसूली किलिंग (पैसा वसूलने हेतु हत्या) है। तुम हमारे हिसाब से नहीं चल रहे हो। हमने तुम पर पैसा लगाया है। हम जान ले लेंगे तुम्हारी। जान से मार देंगे तुम्हें। लड़की की हत्या कर देंगे। अपने बेटे की हत्या कर देंगे।

माँ-बाप बनना बहुत ज़िम्मेदारी का काम है। पहले प्रेम सीखिए, फिर माँ-बाप बनिएगा। प्रेम सीखे बिना बच्चे को जन्म देना घोर अपराध है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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