पाँच बातें: जो हर तरह के दुख का अंत कर देंगी || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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पाँच बातें: जो हर तरह के दुख का अंत कर देंगी || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, शत-शत नमन। मैं अष्टावक्र गीता भाष्य में आपसे जुड़ा हुआ हूँ। श्री अष्टावक्र जी, अध्याय दो के श्लोक नंबर सोलह में कहते हैं कि द्वैत ही दुख का मूल है और अद्वैत ज्ञान के अलावा इसका कोई इलाज नहीं है।

"द्वैत ही दुख का मूल है," ऐसा क्यों कहा गया है? इस पर थोड़ी स्पष्टता दीजिए।

द्वैतमूलमहो दुःखं नान्यत्तस्यास्ति भेषजम् ।। दृश्यमेतन्मृषा सर्वं एकोऽहं चिद्रसोऽमलः ।।२.१६।।

द्वैत ही दुख का मूल है और सिवाय अद्वैत ज्ञान के उसकी कोई दवा नहीं है। पूरा दृश्यमान जगत मिथ्या है, और मैं एक चिदानन्दस्वरूप और निर्मल ही यह हूँ।

~ अष्टावक्र गीता, प्रकरण २, श्लोक १६

आचार्य प्रशांत: द्वैत क्या है! कई तरीक़े से द्वैत की व्याख्या करी गयी है, परिभाषित किया गया है। लेकिन अगर हमारा मन द्वैत में जी रहा है, तो उसका अर्थ क्या है। और मन के लिए द्वैत के अर्थ और अंज़ाम क्या होते हैं, हम उसी पर ज़्यादा ध्यान देंगे अभी।

अगर हम समझना चाहते हैं कि — जैसा आपने कहा कि द्वैत दुख का मूल है, ऋषि अष्टावक्र को उद्धृत करते हुए। तो दुख तो मन के लिए होता है न। मन दुख का अनुभव करता है। तो मन के लिए द्वैत क्या होता है, ये हम समझना चाहेंगे।

मन के लिए द्वैत होता है ये धारणा, ये विश्वास कि मैं हूँ और बाहर एक दुनिया है, और मैं अधूरा हूँ; ये जो बाहर दुनिया बिखरी हुई है इससे मुझे पूरापन मिल जाएगा।

मैं हूँ, बाहर एक दुनिया है। ये दोनों अलग-अलग हैं और दोनों की अपनी पृथक सत्ता है। दोनों एक-दूसरे से अलग हैं और दोनों 'हैं'। मिथ्या दोनों में से कोई नहीं; दोनों 'हैं'।

तो यहाँ से आया द्वैत कि दो हैं — एक मैं हूँ और एक मुझसे बाहर ये अनंत संसार है जो पसरा हुआ है। मैं अधूरा हूँ और इस संसार से मुझे पूर्ति मिल सकती है, क्योंकि हम दोनों अलग-अलग हैं न। हम दोनों अलग-अलग हैं, तो इस संसार के पास कुछ ऐसा हो सकता है, बल्कि है, जो मेरे पास नहीं है।

समझना!

इस संसार के पास ऐसा कुछ हो सकता है जो मेरे पास नहीं है, क्योंकि मैं तो बहुत आधा-अधूरा हूँ। तो फिर संसार आपके लिए क्या हो जाएगा?

'मैं हूँ' — अपूर्ण हूँ, क्षुद्र हूँ, अतृप्त हूँ। और बाहर ये संसार है इतना बड़ा। ठीक? और ये संसार मेरे लिए ख़तरा भी हो सकता है, ये मुझे भय, कष्ट, मृत्यु दे सकता है। और ये संसार मेरी कामनाओं की पूर्ति का साधन और कारण भी बन सकता है। साधन और कारण तो छोड़ दो, ये संसार मेरे लिए साध्य भी बनेगा। क्योंकि मुझे जो चाहिए, वहीं तो है। तो अंततः मुझे संसार ही चाहिए।

तो फिर मेरा और संसार का रिश्ता क्या हो जाएगा? द्वैत में व्यक्ति का और जगत का रिश्ता क्या हो जाएगा? भय और लोभ का। और लोभ इतना बढ़ेगा कि वो जगत को ही पूजना शुरू कर देगा। क्योंकि जगत से ही उसे प्राप्ति होनी है तो जगत की ओर देखेगा, जगत को पूजने लगेगा।

वो सीधे नहीं कहेगा कि 'हे संसार, मैं तेरी पूजा कर रहा हूँ'। वो संसार में किसी तरह की छवियाँ निर्मित करेगा और उनकी पूजा शुरू कर देगा। क्योंकि पूरे संसार की पूजा कैसे करोगे, बड़ा मुश्किल हो जाता है। संसार में भाँति-भाँति की चीज़ें हैं, हर चीज़ सबको नहीं चाहिए न। सबको सब चीज़ें नहीं चाहिए; हालाँकि संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है जो किसी को नहीं चाहिए।

तो पूरे संसार की आप पूजा नहीं करोगे, लेकिन संसार में आपको जो कुछ भी वांछनीय है, जिस भी चीज़ की आपको कामना है, आप उन सबको इकट्ठा करके उनकी पूजा करना शुरू कर दोगे। बात समझ में आ रही है?

और सबके लिए संसार में ऐसा कुछ-न-कुछ, बल्कि बहुत कुछ है ज़रूर जो उनको चाहिए है। ठीक है न? जो चीज़ आप त्याग देते हो, वो किसी और को चाहिए होती है। जो आपके लिए बिलकुल त्याज्य है, वो किसी और की कामना बन जाता है। ऐसा होता है कि नहीं?

और संसार में कुछ भी ऐसा नहीं जो सबकी कामना हो, और कुछ भी ऐसा नहीं जो सबको त्याज्य हो। ले-देकर के जिसको जो कुछ भी चाहिए, संसार से ही चाहिए। तो सब फिर संसार में निर्मित करते हैं अपने लिए एक पूज्य छवि।

वो जो पूज्य छवि होती है, उसके माध्यम से आप कुछ नहीं कर रहे, संसार की ही आराधना कर रहे हो। आप संसार के ही सामने नमित हो गए हो, संसार की ही पूजा करना शुरू कर देते हो। और उसका प्रमाण ये है कि फ़र्क नहीं पड़ता कि आप किसको पूजते हो, पूजते आप कामना के लिए ही हो।

और कामना की जो वस्तु होती है, बताइए वो कहाँ होती है? स्थित कहाँ होती है वो? संसार में। कामना की जो वस्तु है आपकी, वो सदा स्थित कहाँ होती है? पायी कहाँ जाती है? संसार में ही तो पायी जाती है न।

तो द्वैत को ऋषियों ने इसलिए कहा है — ‘दुख का मूल’ क्योंकि द्वैत हमें भ्रम में डालकर हमें भिखारी बना देता है। हमारी सच्चाई ये है कि अनंत हैं हम और पूर्ण हैं हम। और कहीं इधर-उधर हाथ जोड़ने की, भिखारी बनने की कोई आवश्यकता है नहीं।

पर द्वैत हमें ये जतला देता है कि एकदम ख़ाली हैं हम, दरिद्र हैं हम, बेसहारा हैं हम और हमारा मालिक बना देता है संसार को। और फिर इंसान जीवनभर कटोरा लिए-लिए फिरता है। इसलिए अष्टावक्र कह रहे हैं कि द्वैत ही दुख का मूल है। द्वैत ही दुख का मूल है।

अब बात थोड़ी और आगे बढ़ेगी।

एक तो ये है कि मैं भिखारी बन गया और संसार से भीख माँगने लगा। ये मेरी बात थी, मैं भिखारी बन गया और मैं संसार से भीख माँग रहा हूँ। अब ज़रा संसार की बात करते हैं कि संसार भीख देने में सक्षम कितना है। मैंने तो मान लिया है कि दुनिया से ये ले लूँ, वो ले लूँ; संसार भीख दे भी पाएगा क्या?

ये संसार क्या है? समझने वालों ने पाया है और समझाया है कि संसार आप ही की प्रतिछवि है, प्रतिध्वनी है, प्रतिबिम्ब है, अनुगूँज है। आप चल रहे हों, आपकी पदचाप है। संसार की आपसे पृथक कोई सत्ता नहीं है, आप ही का प्रक्षेपण है संसार।

ये बात समझने में थोड़ी सी जटिल हो जाती है कि संसार मेरा ही प्रक्षेपण कैसे है। दो अर्थों में संसार हमारा प्रक्षेपण होता है — अस्तित्व के तल पर और अर्थ के तल पर।

अस्तित्व के तल पर संसार ऐसे हमसे भिन्न नहीं होता, कि क्या आपके लिए संभव है कि आप संसार को द्विआयामी देख पायें या चार आयामों में देख पायें? आप संसार को त्रिआयामी, थ्री डायमेन्शनल ही क्यों देखते हो?

प्र: क्योंकि हम त्रिआयामी हैं।

आचार्य: क्योंकि आपका अपना शरीर त्रिआयामी है, क्योंकि आपकी अपनी आँखें तीन आयामों के अलावा कुछ और देख भी नहीं सकती।

तो संसार को जो हमने त्रिआयामी सत्ता दी है, जो थ्री डायमेंशनल एग्जिस्टेंस संसार का हमें प्रतीत होता है, वो वास्तव में संसार का नहीं है; वो हमारा है।

यूँही कल्पना कर लीजिए, ऐसा हो नहीं सकता पर कल्पना कर लीजिए कि कोई ऐसा जीव है, कोई कीट है, जो दो ही आयामों में होता है, एकदम चपटा है। ठीक है? एकदम चपटी। अब एकदम चपटा कुछ हो नहीं सकता, कुछ-न-कुछ तो उसको ऊँचाई चाहिए, भले ही एकदम न्यून ऊँचाई हो। मान लीजिए कुछ एकदम चपटी चीज़ है, टू डायमेंशनल , वो सिर्फ़ एक्स वाई प्लेन में होती है।‌ उसकी दुनिया भी फिर कैसी होगी?

श्रोतागण: टू डायमेंशनल

आचार्य: समझ मे आ रही है बात? लीजिए, पूरी दुनिया हमारी यहीं धराशायी हो गयी। हम कहते हैं, 'दुनिया ऐसी है, दुनिया वैसी है'। भाई, दुनिया जैसी भी है तुमको वैसी इसलिए प्रतीत हो रही है क्योंकि ये तुम्हारा जो मस्तिष्क है, ये सिर्फ़ थ्री डायमेंशनल प्रोसेसिंग (त्रि-आयामी प्रसंस्करण) कर सकता है, तो इसीलिए तुम्हें ये थ्री डायमेंशनल यूनिवर्स जो है वो एक्सपीरियंस (अनुभव) होता है।

ये तुम्हारी आँखें तीन आयामों के अलावा कुछ देख नहीं सकती, ये तुम्हारे कान एक बहुत सीमित फ्रीक्वेंसी रेंज (आवृति सीमा) से आगे-पीछे सुन नहीं सकते।

समझ में आ रही है बात?

हम अपने शरीर को भी कैसा देखते हैं? थ्री डायमेंशनल देखते हैं। तो जिसका शरीर थ्री डायमेंशनल है उसे इस थ्री डायमेंशनल ऑब्जेक्ट को रखने के लिए एक थ्री डायमेंशनल स्पेस चाहिए न? अगर आपको लगता है कि आपका शरीर त्रिआयामी है (मुस्कुराते हुए), तो कोई थ्री डायमेंशनल चीज़ रखने के लिए आपको क्या चाहिए होगा? टू डाइमेंशन में काम चल जाएगा?

श्रोतागण: नहीं।

आचार्य: तो इसलिए एक थ्री डायमेंशनल हमने स्पेस अपने चारों ओर निर्मित कर रखा है। ठीक है?

शरीर रहता है थ्री डायमेशन्स में और मन रहता है चौथी डायमेंशन टाइम में। तो फिर चौथी डायमेंशन, टाइम भी हमने निर्मित करी है। हमें अपने चारों ओर जो ये एग्जिस्टेंशियल रिएलिटी (अस्तित्वगत वास्तविकता) अनुभव होती है, उसमें यही तो होता है न, एक्स-वाइ-ज़ेड, टी?

एक्स-वाइ-ज़ेड, बॉडी* (शरीर) है। टी? माइंड (मन) है। तो ये जो आप दुनिया देख रहे हो, ये आपसे पृथक नहीं है।

ये तो बात हुई दुनिया के 'अस्तित्व' की। अब दुनिया का 'अर्थ' ले लीजिए। आप सोचते हो कि दुनिया के पास जो अर्थ हैं, वो दुनिया के अपने हैं। नहीं, दुनिया के अपने नहीं हैं। किसी भी विषय में, ऑब्जेक्ट में आप जो अर्थ देखते हो, वो अर्थ उस ऑब्जेक्ट का नहीं है; वो आपका है। आप किसी भी ऑब्जेक्ट में जो अर्थ देखते हो वो अर्थ उस ऑब्जेक्ट में नहीं है, वो अर्थ आपका है।

एक गाय है, वो एक शेर को दिखती है; बताओ, शेर ने अभी-अभी जो देखा उसका अर्थ क्या है शेर के लिए?

प्र: माँस है, शिकार है।

आचार्य: माँस, शिकार, है न? हत्या, मृत्यु। और वही गाय उसके अपने बछड़े को दिखती है; बताओ, अभी-अभी बछड़े ने जो देखा, उसका अर्थ क्या है उसके लिए?

प्र: दूध।

आचार्य: दूध, मातृत्व, ममता।

एक ही अर्थ होता है क्या किसी भी विषय का किन्हीं भी दो लोगों के लिए, बोलिए? मैं अभी जो आपसे बातें यहाँ पर कर रहा हूँ, क्या उन बातों का आप सबके लिए एक ही अर्थ है? साझा अर्थ है? बिलकुल नहीं। ये बहुत साधारण बातें की गयी हैं और अभी बहुत कम बातें की गयी हैं। लेकिन फिर भी आप जितने लोग बैठे हुए हैं, सबने इन बातों का अपने-अपने अनुसार कुछ-कुछ अलग-अलग अर्थ कर लिया होगा। समझ में आ रही है बात कि नहीं?

तो ये जो दुनिया है, ये वास्तव में आपसे बिलकुल जुड़ी हुई चीज़ है। इतना आपको नहीं भी समझ में आ रहा हो कि मैं ही ये दुनिया हूँ, कि मेरी ही छाया ये दुनिया है; तो भी इतना तो स्पष्ट हो रहा है न कि मैं और दुनिया बिलकुल एक सिक्के के दो पहलू हैं? इतना समझ में आ रहा है न?

द्वैत में ये बात समझी ही नहीं जाती। द्वैत कह देता है, ‘मैं अलग हूँ, दुनिया अलग है। मैं अलग हूँ और उधर कोई और है जो अलग है।’

और जब उधर कोई और अलग है तो फिर ये आशा उठ खड़ी होती है कि उधर वाले के पास कुछ मुझसे बहुत भिन्न और बहुत विशेष होगा, जो मेरे पास नहीं है; तो प्राप्ति हो जाएगी। अगर दूसरा बहुत अलग है, तो उससे कोई बहुत अलग चीज़ पाने की आशा भी आ जाएगी न?

अद्वैत में आप समझ जाते हो कि अरे, ये दोनों तो एक ही माया के दो चेहरे हैं। मैं और जगत, जीव और जगत, स्वयं और संसार, ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और दोनों एक-दूसरे के बिना जी नहीं सकते।

जीव कहता है, 'मैं जगत से आया।' और जीव जब आँखें खोलता है तो उसने जगत को पाया। कौन कहेगा जगत है, अगर जीव न हो? और जीव जैसा होता है, जगत उसके अनुसार होता है। तो जगत को रूप-रेखा जीव देता है। और दूसरी ओर जगत अगर न हो तो जीव कहाँ से आएगा?

तो कुछ पता नहीं कि दोनों में पहले कौन आया, मुर्गी कि अंडा? द्वैत का ये हाल है।

समझ में आ रही है बात?

अब अगर आप द्वैतवादी हो गए तो आपको लगेगा कि मुझसे अलग कहीं कुछ है जो बहुत भिन्न है, और वो मुझे मिल सकता है। कामना के माध्यम से मिल जाए, चाहे पूजा के माध्यम से मिल जाए, किसी भी माध्यम से मिल जाए, मिलेगा मुझसे बाहर कहीं कुछ है उससे।

साधन बदल सकते हैं! द्वैतवादी नास्तिक होगा — जिस अर्थ में नास्तिक शब्द का उपयोग होता है — द्वैतवादी नास्तिक होगा, वो कहेगा, 'मैं मेहनत करूँगा, मैं कमाऊँगा और दुनिया से बहुत सारा पैसा अर्जित करके लाऊँगा'। और द्वैतवादी आस्तिक होगा, वो कहेगा, 'मेरे भगवान हैं बाहर मुझसे दूर कहीं, अलग हैं न वो। मैं ख़ूब साधना करूँगा, मैं ख़ूब पूजा करूँगा और वो प्रसन्न होकर के मुझे वरदान दे देंगे, मुझे तृप्ति हो जाएगी।'

द्वैतवादी नास्तिक भी हो सकता है, द्वैतवादी आस्तिक भी हो सकता है। लेकिन दोनों का मानना एक अर्थ में बिलकुल साझा रहेगा; क्या? उधर, आउट देयर (वहाँ बाहर) कुछ है जो मुझे तृप्ति और पूर्णता दे देगा।

समझ में आ रही है बात?

और ऋषि अष्टावक्र क्या समझाते हैं? वो कहते हैं, ‘बेटा, एक बात बताओ। तुम आईने के सामने खड़े हो जाते हो तो जो चीज़ तुम्हारे चेहरे में नहीं है, वो तुम्हें आईना दे देगा क्या'?

क्यों नहीं दे पाएगा? क्योंकि वो जो आईने में है वो तुम्हारा ही तो प्रतिबिम्ब है। अगर वो तुम्हारे पास नहीं है सर्वप्रथम, तो आईने में कहाँ से आएगा?

बात समझ में आ रही है?

जो तुम्हारे पास नहीं है, वो जगत तुम्हें कैसे दे पाएगा? क्योंकि जगत क्या है? तुम्हारा प्रतिबिम्ब ही है। तुम्हारे पास नहीं है तो जगत से कहाँ से पा लोगे?

जगत के पास बहुत कुछ है निस्संदेह। पर जगत के पास जो कुछ है, वो सर्वप्रथम तुम्हारे पास भी है, तुममें ही मौजूद है।

प्रकृति के वही तीन गुणों से तुम निर्मित हो — सत्, रज, तम। और उन्हीं तीन गुणों से संसार भी निर्मित है। और तुम्हारी आकांक्षा है गुणातीत जाने की।

(आचार्य जी मुस्कुराते हैं)

आप जिस अतृप्ति को पाले हुए हो, जो अतृप्ति आपको भीतर-ही-भीतर खाये जा रही है, वो इन तीन गुणों का कुछ पाने की है या इन तीन गुणों के पार जाने की है?

प्र: पार जाने की।

आचार्य: पार जाने की है। अब वो जो तीन गुण हैं, उनका पिंड तो आप स्वयं भी हो न? उन तीन गुणों का पिंड तो आप स्वयं भी हो। तीन गुणों से तृप्ति मिल सकती, तो अपने साथ ही कुछ तरक़ीब करके मिल गयी होती; जब अपने साथ तृप्ति नहीं मिली तो संसार से क्या मिलेगी?

संसार के पास भी ले-देकर वो तीन गुण ही हैं और इससे ज़्यादा तो कुछ है नहीं। और तुम्हें तीन गुणों से संतुष्टि होने वाली नहीं। तुम्हें जाना है तीनों गुणों के पार, माने प्रकृति के पार, माने तुम्हें जाना है त्रिगुणातीत — वही मुक्ति कहलाती है — तो तुम्हें संसार से कैसे मिल जाएगी वो चीज़, संसार तुमसे कुछ भिन्न तो नहीं।

जो बात तुमने कही, वो कहीं से टकराकर लौट रही है गूँज के रूप में। जो तुमने कहा, उससे कुछ अलग सुनाई दे जाएगा क्या? संसार तुम्हारी अनुगूँज है। जो तुमने कहा, वही तुम्हें संसार से सुनाई दे जाता है। तुम बहुत कर्कश आदमी हो, संसार से तुम्हें मधुर गीत कैसे सुनाई दे जाएगा? संसार तुम्हें कुछ कैसे दे देगा जो तुम्हारे पास पहले से ही नहीं है? बोलो न?

संसार तुम्हारी छाया है — और ये उदाहरण सबसे सटीक बैठा है आज तक — संसार तुम्हारी छाया है और सबेरा हो और साँझ हो तो अपनी ही छाया बड़ी लम्बी हो जाती है। आप बहुत छोटे से होते हैं, छाया बड़ी लम्बी प्रतीत होती है। आदमी भ्रमित हो जाता है। हमें लगता है, ‘देखो, हम छोटे से हैं, संसार इतना बड़ा है। हम छोटे से हैं, संसार इतना बड़ा है।’

(आचार्य जी मुस्कुराते हैं)

लेकिन बताइएगा, आपकी छाया में कुछ ऐसा हो सकता है क्या जो आपके पास नहीं है, बोलिए? आपकी छाया तो आपकी ग़ुलाम है। आप जिधर जाते हो, छाया उधर चल देती है। आपकी छाया तो आपके पैरों तले रहती है। है न?

तो जीव का और जगत का वही सम्बन्ध है जो व्यक्ति और उसकी छाया का है। लेकिन अज्ञान में हम अपनी छाया से ही पचास चीज़ें माँगनी शुरू कर देते हैं।

एक व्यक्ति को सोचिए जो अपनी छाया के प्रति बड़ा कामातुर हो गया हो। अपनी छाया को देख रहा है, कह रहा है, ‘वाह, क्या चीज़ है! कितनी लम्बी है, क्या लम्बाई है और काली-काली है। टॉल, डार्क एंड हैंडसम है!’

(श्रोतागण हँसते हैं)

अपनी ही छाया के प्रेम में पड़ गया है। जीवनभर क्या कर रहा है? वो अपनी ही छाया को पकड़ने का, प्राप्त करने का, पूजने का, कभी पटाने का, प्रयत्न कर रहा है। ये आम इंसान की ज़िन्दगी है।

हम अपनी ही छाया के पीछे भाग रहे हैं। और बताइए, अपनी छाया को कोई पकड़ पाया आज तक? इसीलिए द्वैत दुख है। वो जीवनभर आपको दौड़ाता है, आपके हाथ कुछ नहीं आता है।

समझ में बात आ रही है?

अद्वैत क्या कह रहा है?

अद्वैत कह रहा है, 'ठीक है, तुम्हें दुनिया दिखायी दे रही है'। बहुत सीधी बात है, ईमानदारी की। कोई उसमें ऐसा गहन, उसमें कोई दार्शनिक जटिलता नहीं है कि आप कहें कि अरे अद्वैतवाद तो बड़ा भयंकर होता है, समझ में नहीं आता, साधारण लोगों के लिए नहीं है।

अद्वैत आपसे एक बहुत ईमानदारी का सवाल पूछता है। वो कोई 'वाद' भी नहीं है, वो कोई 'मत' नहीं है। जब आप कहते हो, फ़लाना ‘वाद’ या ‘इज़्म’, तो वो एक मत बन जाता है, एक ओपिनियन बन जाता है। अद्वैत कोई मत है ही नहीं; जिज्ञासा है। बताओ, जिज्ञासा में कोई ओपिनियन होता है क्या? जिज्ञासा में कोई मत होता है क्या? मत?

जिज्ञासा में किसी प्रकार की कोई सैद्धांतिक दृढ़ता या आग्रह होता है क्या? कुछ नहीं होता। वहाँ तो लोच होती है। वहाँ तो बस पूछा है।

अद्वैत कहता है, 'ये बता दो — ठीक है, दुनिया सामने दिख रही है, बड़ी प्यारी लग रही है, कि बड़ी भयानक लग रही है, कि बड़ी अबूझ लग रही है, जैसी भी लग रही है — दुनिया को देखने वाला कौन है, ये बता दो बस?'

तुम्हें कैसे पता कि जगत है भी? और अगर है तो वैसा ही है जैसा तुम्हें लगता है? और तुम बदल जाते हो, तुम्हारा अपना अनुभव ये रहा है कि तुम्हारा जगत बदल जाता है। हाँ या न? तुम बदल जाते हो, तुम्हारा अपना अनुभव यही है कि जगत तुम्हारा बदल जाता है।

बहुत सारे बच्चे पैदा होते हैं तो उनमें एक आरंभिक रंग-अंधता होती है। वो जब पैदा होते हैं तो कुछ महीनों तक कुछ रंगों को नहीं देख पाते। बताइए, उनका जगत कैसा होता होगा? उन रंगों से ख़ाली। फिर धीरे-धीरे वो बड़े होते हैं, वो अपनेआप उन रंगों को देखना शुरू कर देते हैं। बहुत सारे बच्चों के साथ होता है।

आप बदले, आपका जगत बदल गया कि नहीं? आपके जगत में आरंभ में दो ही रंग थे बस, मान लीजिए सफ़ेद और काला और उनके बीच का ग्रे (भूरा)। और आप बड़े होते गये, आपका जगत रंगीन होता गया। तो ये जो जगत है, इसका अनुभव करने वाले तो तुम्हीं हो न। तुम्हें कैसे पता कि जगत वैसा ही है जैसा तुम्हें लगता है?

और सब प्राणियों के लिए और जीवन की अलग-अलग अवस्थाओं में जगत बदलता जाता है। अलग-अलग प्राणियों के लिए अलग है। और एक ही प्राणी के लिए भी अलग है जीवन की अलग-अलग अवस्थाओं में। बल्कि दिन के भी अलग-अलग समय, अलग-अलग आपकी मानसिक स्थिति में आपकी दुनिया ही आपके लिए बदल जाती है कि नहीं बदल जाती है? बोलिए, हाँ या न? बदल जाती है न?

(श्रोतागण हाँ में सिर हिलाते हैं)

तो अद्वैत कहता है, ‘अच्छा, ये दुनिया जैसी भी है वो लग तुमको ही रही है न कि वैसी है? तुम्हारे अलावा तो कोई नहीं है न प्रमाणित करने के लिए? तुम्हारे अलावा तो कोई भी नहीं है न, जो प्रमाणित करे कि दुनिया ऐसी है'?

आप कहते हो, ‘नहीं साहब, पाँच और लोग हैं, वो मेरे दोस्त-यार, वो प्रमाणित कर रहे हैं'। वो जो प्रमाणित कर रहे हैं, उनको भी कौन प्रमाणित कर रहा है कि वो हैं? तुम ही तो कर रहे हो। तो ले-देकर के तुम अकेले ही हो जो कहता है कि दुनिया ऐसी है, दुनिया ऐसी है।

और अद्वैत नहीं कहता कि दुनिया ऐसी है कि वैसी है, कि न ऐसी है, न वैसी है, किसी तीसरे तरह की है; वो तो बस प्रश्न करता है। एकदम साधारण बालक की तरह आपके सामने खड़े हो जाता है और बहुत मासूम से आपसे सवाल करता है — ये अद्वैत वेदांत है। कहता है, ‘अच्छा ठीक है। तो आप जानना चाहते हो जगत का सच, हम भी जगत का ही सच जानना चाहते हैं। हम भी आपके साथ हैं।’

ऋषि कहते हैं, 'चलो, तुम जगत का सत्य जानना चाहते हो तो वत्स, मैं तुम्हारे साथ हूँ। लेकिन जगत का सत्य अगर जानना है, तो जानना पड़ेगा कि जगत प्रतीत किसको हो रहा है? जगत मुझे प्रतीत हो रहा है, तो फिर मुझे अपना सत्य जानना पड़ेगा कि मैं कौन हूँ?'

मैं कौन हूँ? मैं कैसा हूँ? मैं कहाँ से आता हूँ? ये सारे सवाल खड़े हो जाते हैं न। तो अद्वैत फिर इन प्रश्नों में जाता है।

अद्वैत कहता है, 'अच्छा ठीक है, मैं अपनी तो जाँच-पड़ताल कर लूँ कि मैं कौन हूँ जिसको ये जगत प्रतीत होता है। क्योंकि जगत तो मेरे लिए बदलता रहता है मेरी चेतना की स्थिति के अनुसार। मेरी चेतना की स्थिति मेरा जगत निर्धारित कर देती है। आज मैं ऐसा था, मुझे एक चीज़ मुझे बहुत पसंद थी; कल मैं वैसा हो गया, मुझे उस चीज़ से नफ़रत हो गयी।'

ये हुआ है कि नहीं हुआ है, बोलो?

आप कुछ खा रहे हो, बड़ा रस ले-लेकर खा रहे हो, तभी कोई पीछे से दौड़कर आता है, बोलता है, ‘अरे-अरे-अरे, मक्खी गिरी हुई थी इसमें!’

क्या हो गया? वही जो इतना पसंद था, तत्काल उससे घृणा हो गयी। है न? उठाकर दूर फेंक देते हो, चीखने-चिल्लाने लगते हो।

क्या स्वाद लेकर खा रहे थे, मन ऐसा खिला हुआ था। और अब पूरे दिन ये खिला हुआ मन खिन्न रहेगा कि मक्खी खा ली आज तो। बदल गया जगत कि नहीं बदल गया? जो इतना प्यारा था, उसी से घृणा हो गयी; जगत बदल गया कि नहीं बदल गया?

कहीं पर घुस गए हो और ऐसा भ्रम हो गया है कि ये मेरा ही घर है। और बड़ी देखभाल कर रहे हो उस जगह की, मान लो। कोई आकर बता देता है, ‘नहीं-नहीं, ये आपका नहीं, आपका पड़ोस वाला है।’ वही जो अपना था, तत्काल बेगाना हो गया कि नहीं हो गया? जिसकी अभी तक परवाह कर रहे थे, झाड़ू-पोछा कर रहे थे, दीवार पर दाग़ लगा था, साफ़ कर रहे थे; उसको छोड़ देते हो, उससे कोई लेना-देना नहीं। जगत बदल गया कि नहीं?

अगर जगत को एक घर मानो — हम जगत में रहते हैं, घर है हमारा — अगर जगत को घर मानो, जगत बदल गया कि नहीं बदल गया? पूरा बदल गया न?

(श्रोतागण सहमति दर्शाते हैं)

प्रसूति गृह होते हैं, माँओं को बच्चे होते हैं, और अगर सरकारी अस्पताल वग़ैरा हो तो इस तरह की घटनाएँ देखने को मिलती हैं बहुत बार कि माँ को उसका बच्चा लाकर दिया, वो बड़े प्यार से उसको दुलार रही है। आधे-एक घंटे उसको चूम लिया, चाट लिया, दुलार लिया, जो, जो माँ-बेटे का रिश्ता होता है वो सब हो गया। और पीछे से एक नर्स आती है, बोलती है, ‘ए मैडम, ये तुम्हारा नहीं है, तुम्हारा वाला उधर है।’

(श्रोतागण हँसते हैं)

यही बच्चा जिसको ममता दे रही थी और पोषण दे रही थी अभी तक, उसको तुरंत ऐसे दे देते हो; जगत बदल गया न? बदल गया कि नहीं बदल गया?

(श्रोतागण सहमति में सिर हिलाते हैं)

तो इसलिए फिर वेदान्त में आपको इस तरह के इतने ही उदाहरण मिलते हैं, कि सीप को चाँदी समझ लिया, रस्सी को साँप समझ लिया, खंभे को भूत समझ लिया। ये सब एकदम बड़े पुराने चले आ रहे उदाहरण हैं कि एक ही चीज़ होती है, देखो, कितनों के लिए कितनी अलग-अलग हो जाती है।

सरोवर के ऊपर चाँद चमक रहा है और हवा चल रही है तो सरोवर में लहरें उठ रही हैं, तो चाँद के कितने प्रतिबिम्ब बन जाते हैं? न जाने कितने बन जाते हैं और सब थोड़े-थोड़े अलग-अलग रहते हैं। लेकिन वस्तु एक ही है, सबको अलग-अलग दिखायी देती है।

तो ये जो अलग-अलग दिखायी देता है, ये वास्तव में कुछ है क्या? ये जो अलग-अलग दिखायी देता है, ये संसार है, प्रकृति है — प्रकृति में बस विविधताएँ होती हैं, अनेकताएँ होती हैं — उसमें वास्तव में कुछ अलग-अलग है क्या?

अलग-अलग जो द्रष्टा होते हैं, उन्हीं के कारण ये संसार सबके लिए अलग-अलग हो जाता है। तो अद्वैत कहता है, ‘हम द्रष्टा की पहले जाँच-पड़ताल करेंगे, दृश्य की बाद में बात करेंगे।’

आप डॉक्टर के पास जाएँ, आँखों के डॉक्टर के पास गये, नेत्र चिकित्सक है। आप कह रहे हैं, ‘डॉक्टर साहब छः उँगलियाँ दिखाई देती हैं'। अब मुझे बताइए, ये चिकित्सक आपके हाथ की चिकित्सा करे या आपकी आँख की?

श्रोता: आँख की।

आचार्य: एकदम सोच-समझकर बताइएगा। क्योंकि दुनिया में कमी है, ये हम सबको दिखाई देता है। ठीक है?

‘यार, लाइफ़ (ज़िंदगी) में ये ठीक नहीं चल रहा है, वो ठीक नहीं चल रहा है। बदलना माँगता है, अपवर्ड मोबिलिटी (ऊपर की ओर गति) माँगता है'। ये सब चलता है न सबका?

ये (आँख) द्रष्टा है, ये (हाथ)?

श्रोतागण: दृश्य।

आचार्य: आँख दृष्टा है, हाथ?

श्रोतागण: दृश्य।

आचार्य: सामने बैठा है चिकित्सक। ‘डॉक्टर साहब, ये (उँगलियाँ) न छ: हो जाती हैं, कभी पौने सात हो जाती हैं। कुछ मज़ा नहीं आता है। कभी तो ये रेनबो पाम बन जाती है, इन्द्रधनुषी पंजा, अलग-अलग रंग आते हैं। पता नहीं क्या-क्या होता रहता है!’

कोई मूढ़ ही चिकित्सक होगा जो हाथ की चिकित्सा शुरू कर देगा। ठीक है न? अगर चिकित्सक थोड़ा भी समझदार है तो किसकी चिकित्सा करेगा? आँख की।

ये (आँख) द्रष्टा है, ये (हथेली) दृश्य है। अद्वैत, आँख (द्रष्टा) की चिकित्सा करता है। वो कहता है, 'जो दिख रहा है वो तो देखने वाले का फंक्शन (कार्य) है।'

तुम्हें सब उलट-पुलट ही दिख रहा है, बाबा! सबको सब उलट-पुलट दिख रहा है। क्यों? क्योंकि सब यहाँ से (आँखों से/द्रष्टा से) उलट-पुलट हो गया। द्रष्टा ही जो है वही गड़बड़ है, तो जो दृश्य है वो तो गड़बड़ ही दिखाई देगा न।

मैं ठीक हो जाऊँ, तो मैं जान जाऊँगा कि जगत क्या है। ये बात समझ में आ रही है?

इंसान जीवनभर तड़पता है, इसी द्वैत के फेरे में। "दुई पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय।"

चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोय । दुई पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय ।।

~ कबीर साहब

तो चाहे ऋषि अष्टावक्र हों, ऋषियों की चाहे पूरी परंपरा हो; चाहे संत कबीर हों, चाहे संतों की पूरी परंपरा हो, सबने एक मत से यही कहा है कि द्वैत ही दुख का मूल है। "दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।"

सबने कहा है कि ‘एक ही सत्य है'। दो सत्य नहीं हो सकते। ये समझ में आ रही है बात?

उस बेचारे आदमी की दुर्दशा, व्यथा देखो — द्वैत समझना चाहते हो तो — जो जीवनभर अपनी छाया के पीछे भागा है; न पकड़ सकता है, न छोड़ सकता है। छाया है तो छूटेगी तो नहीं।

आप कह दो कि आप महाज्ञानी हो गए हो, एकदम मुक्त पुरुष हो रहे हो तो भी छाया तो रहेगी न? माने संसार का अनुभव तो होता रहेगा। होता रहेगा कि नहीं? या ऐसा हुआ है कि आपको जानने में आया है, ‘फ़लाने थे, एकदम उन्हें बोध प्राप्त हो गया, तो उनको संसार का अनुभव होना बंद हो गया?’ ऐसा तो नहीं होता?

अनुभव तो होगा कि पाँव के नीचे ज़मीन है। अनुभव तो होगा कि यहाँ माहौल में हवा है, उसी से साँस ले रहे हो, जी रहे हो। यहाँ मेज़ पर हाथ रखोगे तो त्वचा को लकड़ी का अनुभव तो होगा। होगा कि नहीं होगा? तो ये सब तो रहेगा। छाया से कोई पिंड नहीं छुड़ा सकता।

तो देखो दुर्दशा हमारी, न उसको पकड़ सकते, न छोड़ सकते। आँख खोलोगे, आँख खोलते ही क्या दिखाई देता है?

श्रोतागण: संसार।

आचार्य: आँख बंद भी कर लो तो क्या दिखाई देता है? संसार। छोड़ा जाता नहीं, और पकड़ में भी किसी की आता नहीं। इसलिए द्वैत दुख का मूल है।

तो अद्वैत कहता है, इस झमेले में हमें पड़ना ही नहीं है कि पकड़ना है, कि छोड़ना है, कि क्या करना है। हमें तो ये जानना है कि हमारा और उसका रिश्ता क्या है। जीव और जगत का, पुरुष और प्रकृति का सम्बन्ध क्या है, हमें तो ये जानना है।

और वो जानने के लिए आप प्रश्न किससे करेंगे? जिज्ञासा किससे? जीव से ही तो करोगे न। जगत तो कोई उत्तर देने आएगा नहीं, जड़ है। तो फिर स्वयं से ही प्रश्न करा जाता है कि ‘तुम ये जो बात सोच रहे हो, ये कहाँ से आयी? फ़लाने विषय में तुमने जो अर्थ भर दिए हैं, वो अर्थ कहाँ से आ गये?’

ये सब जिज्ञासाएँ ही अद्वैत की विधियाँ हैं। स्वयं से ही प्रश्न करना और जो एक चीज़ अद्वैत माँगता है, वो है 'ईमानदारी'। क्योंकि ख़ुद से ही सवाल करने हैं और ईमानदारी नहीं है तो कुछ भी उल्टा-पुल्टा जवाब दे लो।

एक दफ़े मुझे बड़ा कटाक्ष करना पड़ा था कि एकदम प्रचलन हो गया है, फैशन बन गया है अपनेआप से पूछना, 'मैं कौन हूँ?' और पहले से ही एक तयशुदा, पका-पकाया, रेडिमेड उत्तर दे देना। क्या? 'मैं तो सच्चिदानंदघन आत्मा हूँ।'

(श्रोतागण हँसते हैं)

और प्रसन्न हो जाना कि ‘देखो, मुझे विधि आती है और मैं विधि के बिलकुल अंत तक पहुँच गया'। ऐसे नहीं चलता।

ये अद्वैत के नाम पर मज़ाक चल रहा है कि जितने ज्ञानी, बुद्ध पुरुष थे वो बता गये हैं कि ‘भाई, तुम अपनेआप को आत्मा कह सकते हो या शुद्धता कह सकते हो या पूर्णता कह सकते हो या शून्यता कह सकते हो या मौन कह सकते हो।'

तो ये सब आपको पहले से ही उत्तर पता है। तो बढ़िया मज़ा है। ख़ुद से ही पूछो, 'मैं कौन हूँ? मैं कौन हूँ?' पूछते वक़्त ऐसे बनो जैसे पता नहीं है। है न?

(श्रोतागण हँसते हैं)

नहीं तो पता चल जाएगा कि मामला रिग्ड (धांधली) है, मैच फिक्स्ड है। तो ऐसे नहीं दिखाना कि मैच फिक्स्ड है। ऐसे पूछो, 'मैं कौन हूँ, मैं कौन हूँ'? और फिर ऐसे दर्शाओ जैसे अभी-अभी कौंधा हो। जैसे मौलिक उत्तर सूझा हो, ओरिजनल आन्सर हो। क्या? 'मैं तो सच्चिदानंदघन आत्मा हूँ!'

बोले, ‘देखा, आई क्रैक्ड इट (मैंने कर दिखाया)।'

नहीं, ये सब नहीं करना होता है। ये एक सतत, जीवंत, निरंतर जिज्ञासा होती है। क्योंकि जैसे आपकी छाया आपके साथ लगातार है न, तो छाया का रूप-रंग, ढंग सब बदलता रहता है। तो ये जिज्ञासा भी लगातार होनी चाहिए — जैसे जीवन लगातार है, जैसे साँस लगातार है, जैसे छाया लगातार है — कि ये सब है क्या? ये अभी-अभी जो हुआ, ये क्या हुआ?

और जब वो लगातार होती है तो उतनी स्थूल नहीं रह जाती जैसे अभी मैं बता रहा हूँ। मैं जैसे बता रहा हूँ, वो बहुत ग्रॉस तरीका है।‌ आप बड़े स्थूल तरीक़े से — ‘मैं कौन हूँ? मैं कौन हूँ?’ ऐसे नहीं। आदमी अपने दिनभर के काम छोड़कर ये थोड़ी करता रहेगा, ‘मैं कौन हूँ? मैं कौन हूँ?’

वो भीतर बहुत सूक्ष्म तरीक़े से, एक संवेदनशीलता, एक एलर्टनेस (सतर्कता), सेंस्टिविटी खड़ी रहती है, जो ये जानने को हमेशा आतुर रहती है कि भीतरी माहौल कैसा है। जैसे भीतर एक क्लाइमेट सेंसर (जलवायु पता करने वाला यंत्र) लगा हुआ हो।

आप कुछ भी कर रहे हैं, वो सेंसर लगातार सक्रिय है, एक्टिव है। आप कुछ भी कर रहे हैं, आप अभी बैठे सुन रहे हैं, लेकिन एक भीतरी सेंसर है जो सुनने के साथ-साथ ये भी देख रहा है कि सुनी बात का सुनने वाले पर प्रभाव क्या हुआ। कि बाहर से जो शब्द आ रहे हैं, उनके उत्तर में भीतरी प्रतिक्रिया क्या हुई।

ये है जिज्ञासा की विधि, कि बाहर जो चल रहा है, वो चल रहा है; भीतर एक कॉन्टीन्यूअस एलर्टनेस (सतत सतर्कता) है।‌ भीतर एक मैकेनिकल डेडनेस नहीं है, यंत्रवत जड़ता सी स्थिति नहीं है भीतर, कि भीतर से क्यों कोई प्रतिक्रिया आ गयी; आपको पता ही नहीं चला। ऐसा नहीं है भीतर।

भीतर से कुछ उठा और आप मुस्कुरा दिए। बोले, 'मुझे पता है तू कहाँ से आया।'

‘कहाँ से आया? कहाँ से आया?’

अरे, कल जहाँ से तू आया था, आज भी वहीं से आया (आचार्य जी हँसते हैं)।

‘कल कहाँ से आया था?’

परसों जहाँ से आया था।

‘बताओ, परसों कहाँ से आया मैं? साफ़-साफ़ जवाब दो।’

परसों तू वहीं से आया था जहाँ से जन्म के पहले दिन आया था।

‘हैं! जन्म के पहले दिन कहाँ से आया था मैं?’

जन्म के पहले दिन तू आया था माँ से और बाप से।

‘अच्छा, माँ और बाप में कहाँ से आया था मैं?’

वहाँ से तू आया था एकदम पहली जो माँ है — महा माँ, उससे आया था।

‘हैं! तो माने महा माँ से उठ रहे हैं मेरे ये सारे?’

हाँ, और उसी को अहम् वृत्ति बोलते हैं।

‘महा माँ में वो सब कहाँ से आया?’

ये जानने के लिए महा माँ के पास जा न!

(श्रोतागण हँसते हैं)

जहाँ तक मेरा मामला था, मैंने बता दिया। अब यही पूछना है कि अहम् वृत्ति कहाँ से आती है, तो जाओ और अहम् वृति में प्रवेश करो। और जो अहम् वृत्ति में प्रवेश करता है, जानने वालों ने कहा है कि फिर वो अहम् वृत्ति को विगलित ही कर देता है। न ख़ुद बचता है, न वृत्ति बचती है; मुक्ति हो जाती है।

लेकिन अभी भी मैंने आपको जिस तरीक़े से बताया, वो बहुत नाटकीय तरीक़ा है। आपके पास इतना समय नहीं होगा। रियल टाइम आप ये सब नहीं कर पाएँगे जो मैंने आपको बोला। ये सब तो फिर ठहरकर करना पड़ेगा और जीवन के प्रवाह में ठहरना संभव नहीं है। ठहरने का मतलब ये नहीं कि चल रहे थे, रुक गए। तो ये जितनी मैंने बात बोली, वो एक क्षणांश में हो जानी चाहिए। ये होती है आंतरिक एलर्टनेस (सतर्कता)।

ये जितनी बात समझायी, ‘मुझमें कहाँ से आया, कल कहाँ से आया, परसों कहाँ से आया’, इसको ऐसे पलक झपकते देख लेना है, चुटकी बजाते देख लेना है।

ये पूरी जो प्रक्रिया रही है, अहम् वृत्ति से लेकर के आज तक के जीवन की, वो एकदम ऐसे कौंध जाए जैसे आकाश में बिजली। एक क्षण को कौंधी और सब दिख गया, सब समझ में आ गया।

उसमें फिर शब्दों से काम नहीं चलता। मैं आपको शब्दों का सहारा ले-लेकर समझा रहा हूँ, ‘अच्छा, तू कहाँ से आया? तेरा बाप कौन है? ये, वो, फ़लाना, कल कहाँ से आता था? घर बता, ठिकाना, पता।’

ऐसे नहीं हो पाता है। आप ऐसे करने बैठोगे तो गाड़ी निकल जाएगी।

समझ में आ रही है बात?

वो पलक झपकते चीज़ हो जाती है। और उसको फिर बोलते हैं, ध्यान। उसका नाम है, ध्यान। कि इतना गहरा ध्यान था, जानने से इतना सच्चा प्रेम था कि एक झलक देखा और पहचान गए, सब जान गए। एक झलक में बात बन गयी। बहुत उसमें फिर सवाल-जवाब, विचार नहीं करना पड़ा।

समझ में आ रही है बात?

कि चाहे लोभ उठा, कि क्रोध उठा, ईर्ष्या उठी; और ऐसे (चुटकी बजाते ही) — 'ये वही है। मैं तुम्हें जानता हूँ। तुम नये नहीं हो, तुम वही हो बीस साल पुराने।'

तो वो ऐसे देखेगा कि ‘सिर्फ़ बीस साल?’

अच्छा चलो, बीस लाख साल पुराने। तुम वही हो बीस लाख साल पुराने।

तो एक भीतरी जागृति लगातार बनी रहे। यही अद्वैत की विधि है। वहाँ और कोई विधि होती नहीं।

वहाँ आप पचास विधियाँ लगायें कि ऐसा करना होता है, वैसा करना होता है, इस दिशा में जाओ, ये पहनो, ये खाओ, ऐसे चलो, ऐसे सोओ, ऐसे मिलो; वहाँ ऐसी विधियाँ होती नहीं हैं, और ऐसी विधियों को ख़ारिज़ भी नहीं किया जाता। यदि स्वयं को जानने में इन सब विधियों से सहायता मिलती हो, तो अद्वैत कहता है, ‘कोई आपत्ति नहीं, उद्देश्य तो आत्मज्ञान है।’

आत्मज्ञान ही अद्वैत में उद्देश्य होता है। आत्मज्ञान ही क्या है फिर? मुक्ति।

तो अगर कोई विधि वग़ैरा लगाकर के तुमको लगता है कि अपेक्षतया अपनेआप को थोड़ा और बेहतर जान पाओगे तो विधियों से कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन मूल विधि तो जिज्ञासा मात्र ही है। और उस जिज्ञासा का कोई बाहरी उत्तर नहीं मिलना है।

कुछ समझ में आ रहा है, कुछ स्पष्ट हो रहा है?

प्र: आचार्य जी, जैसे आपने अभी समझाया, अपनेआप से ये पूछना या उसमें रहना कि मैं कौन हूँ, ये तो नहीं समझ आता अहंकार को। परन्तु कुछ बात समझ आती है कि चीज़ों को अर्थ न देना। मतलब जैसे समझ आता है क्रोध आ रहा है, भोजन का स्वाद लग रहा है, उत्तेजना उठ रही है; तो वो कुछ नहीं है, मैं सिर्फ़ एक अर्थ दे रहा हूँ अपनी वृत्तियों को।

वैसे ही मनुष्यों के साथ हो जाता है कि मैं एक छवि बना लेता हूँ दूसरों की और फिर मुझे किसी से चिढ़ उठ रही है, किसी के प्रति आकर्षण हो रहा है। तो क्या जब तक हम वहाँ नहीं पहुँचते कि मैं ख़ुद से ही पूछ पाऊँ ‘मैं कौन हूँ', तब तक जब भी कोई वृत्ति उठे — चाहे चीज़ों के प्रति, चाहे मनुष्य के प्रति — उसमें छवि और अर्थ को देखना, क्या वो भी एक सही तरीक़ा है?

आचार्य: नहीं, छवि और अर्थ तो होते ही हैं। ये देखना कि वो छवि और अर्थ मैंने कैसे दे दिए उस ऑब्जेक्ट को, विषय को या व्यक्ति को? ये देखना होता है।

कोई मुझे अच्छा लगता है, कोई मुझे बुरा लगता है, कोई अपना लगता है, कोई पराया लगता है। ठीक है? वो तो लगते ही हैं। देखना ये है कि वो कैसे अच्छे-बुरे और अपने-पराये लगने लग गए? कैसे मैंने किसी को कह दिया कि ये पराया है, बात क्या थी?

और ये बहुत आरंभिक और आवश्यक सवाल होने चाहिए जीवन के। पर हम इनको कभी करते नहीं हैं। हम बहुत मज़े में कह देते हैं, ‘अपने तो अपने होते हैं।’ (श्रोतागण हँसते हैं)

अब अपने, अपने कैसे हुए? ये प्रश्न आप करते हैं तो आम आदमी झुँझला जाएगा। वो कहेगा, ‘अपना माने अपना, भई।’

या कोई जोड़ा है। कोई महिला है और कोई पुरुष है, वो कह रहे हैं, ‘नहीं, देखिए, गोद लेने से लाभ नहीं, अपना होना चाहिए बच्चा।'

तो आप उनसे पूछिए, 'अपना माने क्या? अपना माने क्या?'

तो वो फिर झुँझला जाएँगे। वो कहेंगे, 'जो एकदम सीधी-सादी बात है उसमें बाल की खाल मत निकालो'।

ये आप बाल की खाल नहीं निकाल रहे, आप एक बिलकुल साधारण, नादान सा सवाल पूछ रहे हैं; उत्तर दे दो, भाई! अपना माने क्या? कैसे कुछ अपना हो जाता है? कैसे कुछ पराया हो जाता है? कैसे कुछ बुरा लगने लग जाता है?

और कुछ भी आपको यूँही अच्छा-बुरा, अपना-पराया नहीं लगता, उसके पीछे वृत्ति बैठी है और वही वृत्ति दुख है।

एक तरह से इसमें भी दुख बाद में है कि आपको अच्छा-बुरा, अपना-पराया लगा, वो नहीं वर्जित करा जा रहा कि नहीं, न कुछ अच्छा मानो, न कुछ बुरा मानो, न अपना मानो, न पराया मानो; नहीं, नहीं, नहीं। उस तरीक़े की कोई नैतिक वर्जना नहीं दे रहा है वेदान्त। वो आपसे कह रहा है, ‘अच्छा तो लगता ही है, बुरा तो लगता ही है; तुम ये देखो कि क्यों लगता है अच्छा-बुरा? अंधेरे में मत रहो।’

अच्छे और बुरे के अनुभव को नहीं वर्जित करा जा रहा। आत्म-अज्ञान को वर्जित करा जा रहा है।

‘मुझे ये (लौकी का रस) उतना अच्छा नहीं लग रहा है जितना अच्छा आमतौर पर परिणय (स्वयंसेवक) का बाक़ी मामला लगता है।’

वो ठीक है, ये जीभ है, मैं जीव हूँ। और जीव माने क्या होता है? जीव माने वृत्तियों का पिंड। और ये ज़बान है और स्वाद-लोलुप। अब तुम लौकी घिस के पिलाओगे, आदमी जिएगा कैसे?

(श्रोतागण और आचार्य जी भी हँसते हैं)

वो ठीक है, अच्छी बात है कि मुझे ये अच्छा लग रहा है कि नहीं लग रहा है। एक तीर से दो शिकार करने पड़ते हैं। मैं सत्र रोककर तो उसको बताने जाऊँगा नहीं कि भाई, ये मामला….।

तो वो मेरा अधिकार है कि मुझे अच्छा लगे कि बुरा लगे; अधिकार बोल दो, चाहे विवशता बोल दो। जब तक ये ज़बान है, इसके जो स्वाद तंतु हैं, वो तो सक्रिय रहेंगे ही। गड़बड़ तब हो जाती है जब मुझे पता ही नहीं है कि मुझे कुछ अच्छा क्यों लगता है, कुछ बुरा क्यों लगता है; वो ग़लत बात है।

वो बहुत-बहुत ग़लत बात है क्योंकि आप किसी दिशा को खिंचे चले जाएँगे, किसी तरफ़ को फिसलते जाएँगे और आपको बिलकुल पता नहीं होगा कि उस दिशा में आप क्यों जा रहे हैं। जीवन सीमित है, समय सीमित है, धन सीमित है, श्रम सीमित है। इनमें से कुछ भी ऐसा नहीं है जो आपके पास एक सीमा से अधिक का हो।

कितनी मेहनत कर सकता है एक इंसान ज़िन्दगी में? कितना उसके पास पैसा हो सकता है? सबसे जो क्रिटिकल रिसोर्स (महत्वपूर्ण संसाधन) है — वो तो समय है, भाई। बाक़ी सब चीज़ें हटा भी दो। आप और बाक़ी चीज़ें सौ इकट्ठी कर लो; मरोगे तो? (छूट ही जाएँगी) और कितना समय बचा है?

और आप किसी दिशा में फिसलते गए, बहकते गए, और जिधर को जाते हो उधर ही को क्या कर देते हो? अपना सबकुछ अर्पित कर देते हो। था इतना सा, इतना सा ही था बस अपने पास समय, धन, संसाधन, सबकुछ, और वो न जाने कहाँ झोंक आये; अब क्या करोगे? अब क्या करोगे?

आ रही है बात समझ में?

ये पता होना ज़रूरी है कि कोई मेरे लिए प्यारा क्यों हो गया। या किसी से मुझे घृणा क्यों हो गयी, क्योंकि घृणा भी पूरा जीवन खाती है। सब संसाधनों की आहुति माँग लेती है घृणा। माँग लेती है कि नहीं?

फ़लाना देश है, मुझे उसको नष्ट करना है, मैं नॉर्थ कोरिया हूँ। तो जीडीपी का दस प्रतिशत, कभी बीस प्रतिशत, जाने पच्चीस प्रतिशत काहे में लग रहा है? काहे में लग रहा है?

श्रोतागण: डिफेंस (सुरक्षा) में।

आचार्य: हाँ, डिफेंस में। और डिफेंस नहीं, उनका तो ऑफेन्स (अपराध) है (श्रोतागण हँसते हैं)। डिफेंस बज़ट नहीं है उनका। ग़रीब देश बिलकुल, खाने को नहीं है उनके पास।

जो शेष विश्व है, वो अपने जीडीपी का दो प्रतिशत से लेकर चार प्रतिशत तक लगाता है। किसमें? डिफेंस में। ठीक है?

और ये इस तरह के बहुत सारे मुल्क़ होते हैं जो नफ़रत में ही अपने सारे संसाधन झोंक देते हैं। उनके पास विश्वविद्यालय नहीं हैं, उनके पास विज्ञान नहीं है, प्रौद्योगिकी नहीं है। सचमुच पूछो तो खाने को भी नहीं है, पहनने को भी नहीं है। लेकिन उनको बहुत बड़ी वाली मिसाइल बनानी है कि अमेरिका को तोड़ देंगे। नफ़रत भी सबकुछ ले जाती है।

और वो जो वहाँ पर मिसाइल बनाई जा रही है, वो वहाँ का तानाशाह ख़ुद नहीं बना रहा है, न अपने हाथों से बना रहा है, न अपने पैसों से बना रहा है। वो बना रहा है जनता के पैसों से। और आपको क्या लगता है, वहाँ की जनता विद्रोह करने को उतारू है? नहीं, ऐसा कुछ नहीं।

इने-गिने लोग बीच-बाच में कभी-कभार विद्रोह कर देते हैं, उनको वो तोप में डाल कर मार देता है। पर बहुत ज़्यादा लोग ऐसे हैं भी नहीं जो विद्रोह करना चाहते हैं। बताओ क्यों? क्योंकि उनको वहाँ पर ज़बरदस्त तरीक़े से नफ़रत और राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ा दिया गया है। तो वो ख़ुद ही अपनी सारी पूँजी जाकर के तानाशाह को सौंप आते हैं। कहते हैं, ‘तू मिसाइल बना, अमेरिका को मारना है।’

खाने को नहीं है, पर अमेरिका को मारना है। नफ़रत आपकी पूरी ज़िन्दगी सोख लेती है। और आपको पता भी नहीं है कि आपको वो नफ़रत कहाँ से आयी।

वहाँ के लोग सोच रहे हैं कि ये तो हमारी अपनी निजी नफ़रत है। वो तुम्हारी निजी नफ़रत नहीं है। वहाँ की पाठ्य पुस्तकों में घृणा भर दी गयी है। छोटे बच्चे होते हैं, उनको बचपन से ही घृणा का पाठ पढ़ा दिया जाता है। वो बच्चे सोचते हैं कि घृणा के विचार उनके अपने हैं, निजी हैं; न अपने हैं, न निजी हैं। वो विचार उनमें डाले गए हैं।

तो इसलिए अद्वैत कहता है, ‘पूछ तो लो कि जो तुमको विचार आ रहा है वो विचार कहाँ से आ रहा है? वो तुम्हारा अपना है या वो विचार तुम्हारे भीतर आरोपित किया गया है, इम्प्लांट किया गया है?’

और ये जो तानाशाह हैं, इनके पिताजी भी वही थे। तो ये जो पूरी कंडीशनिंग (संस्कार) की प्रक्रिया है, ये बहुत पुरानी है। तो अब कई पीढ़ियाँ खड़ी हो गयी हैं जो पूरे तरीक़े से कंडीशंड (संस्कारित) हैं।

उनको साउथ कोरिया को मारना है, उनको जापान को मारना है और सबसे ज़्यादा उनको अमेरिका को मारना है। और रोटी नहीं है खाने को, उसके लिए‌ वो चीन वग़ैरा से मदद मिल जाती है, उस पर आश्रित रहते हैं। और पूछो कि अपने ओपिनियंस (राय) बताइए, तो वो एकदम ऐसे नारा लगाना शुरू कर देंगे। ख़ाली पेट, नारे लगाने में सबसे आगे हैं। और उनको लग रहा है कि उनके नारे उनके अपने हैं।

वेदान्त कहता है, ‘तुम्हारा अपना क्या है, पता तो करो।’ इसीलिए वेदान्त इस भेद को सर्वोपरि रखता है — पुरुष और प्रकृति। जो प्रकृति का है, वो पराया है बेटा! तुमने कैसे उसे अपना मान लिया?

जो कुछ भी तुम अपना मान रहे हो, देखो, वो तुम्हारे पास कहीं-न-कहीं बाहर से आया है। तुम कैसे नाहक उसको अपना माने बैठे हो?

और अपना जब मानते हो तो नुक़सान क्या है, वो हमने बता दिया। तुम अपनी पूरी ज़िन्दगी, अपने पूरे संसाधन उसमें झोंक डालते हो। और तुम्हारे पास और है क्या? तुम तो जीव हो न! जीव के पास जीवन के अतिरिक्त और क्या है? तुमने जीवन ही किसी व्यर्थ दिशा में डाल दिया, तो बताओ, तुमको क्या मिला?

इसमें फिर वेदान्त में जो दृष्टांत दिया जाता है, वो कौए और कोयल का है। ये भी आपने सुन रखा होगा। बहुत दफ़े मैंने इसकी बात करी है। क्या है उसमें? हाँ, कि ये जो मादा कौआ है, इसको कुछ पता नहीं है कि अपना क्या है, पराया क्या है। तो ऐसा कहा जाता है कि ये कोयल के अंडे सेंती रहती है जीवनभर। और एक बार नहीं, बार-बार धोखा खाती है। इसे क्योंकि ये ज्ञान नहीं है कि अपना क्या है, पराया क्या है।

अपने और पराये के भेद को ही कहा जाता है — दृग-दृश्य विवेक। अपने-पराये का अंतर करना जानो। और जो पराया है उससे नफ़रत नहीं करनी है, उससे बस अनासक्त हो जाना है। पराया कहकर ऐसा नहीं कहना है कि ‘दूर हट, तू पराया है, तू ऐसा है, वैसा है।’ कुछ नहीं।

जो पराया है, उसका क्या हो जाना है? उसका साक्षी हो जाना है। पराये से नफ़रत का भी रिश्ता नहीं रखना है। भाई, अगर पराया है तो नफ़रत कैसे करें? नफ़रत भी तो अपने से करी जाती है। परायों से तो, माने कुछ रिश्ता नहीं। माने बस साक्षित्व।

क्या कर रही है ये कौवी? कहते हैं, कोयल लाकर के अपने अंडे रख गयी, कोयल कहती है, ‘मुझे तो मज़े मारने हैं। कौन बैठा रहे मेटरनिटी में। मैं तो जा रही हूँ करियर बनाने।’ वो सिंगर है। वो अपना इधर-उधर जाकर के अपना करियर बना रही है, ‘कुहू-कुहू कुहू-कुहू’! (श्रोतागण हँसते हैं)

और कौवी क्या कर रही है? वो वहाँ उसको मेटरनल सर्विसेज़ प्रोवाइड (मातृत्व सेवाएँ प्रदान) कर रही है फ्री ऑफ कॉस्ट (निशुल्क)। वो अंडे सें रही है।

वो अंडे सेंती है, उसमें से निकल पड़ते हैं बच्चे। बच्चे इतने छोटे होते हैं — छोटे बच्चे सब एक से ही लगते हैं न, छोटे बच्चों में कहाँ कोई भेद है — तो बहुत दिनों तक उसको ये भी नहीं पता चलता कि मेरे नहीं कोयल के हैं। तो बेचारी मेहनत कर-करके इधर-उधर से दाना लाती है, कुछ लाती है, उनको चोंच में खिलाती है। और फिर जब वो और बड़े होते हैं तो कहते हैं, ‘ये कर्कश मम्मी! इसको ठीक से बोलना नहीं आता। आई डिसओन यू (मैं तुम्हें अस्वीकार करता हूँ)!’ और वो भग जाते हैं।

और कौवी क्या कर रही है? हाथ मल रही है। हाथ मल रही है। हाथ क्यों मल रही है? क्योंकि तुझे पता ही नहीं था कि तू जिनके पीछे अपनी पूरी ज़िन्दगी क़ुर्बान कर रही है, वो तेरे नहीं हैं। और तू रोएगी, तू पछताएगी।

लेकिन वो कुछ सीखती नहीं। क्योंकि प्रकृति में सीखने जैसा कुछ नहीं होता। सीखने का काम बस चेतना कर सकती है। प्रकृति में बस एक चक्रवत व्यवस्था होती है, तो वो कुछ नहीं सीखती। दोबारा फिर यही होता है कि कोयल आ गयी और अपने अंडे रख गयी पीछे चुपके से। और ये फिर उनकी देखभाल कर रही है।

हम ऐसे ही हैं। हमें नहीं पता कि हम कौन हैं, अतः हमारे लिए क्या उचित है। हम कुछ ऐसा करते रहते हैं जिसमें हमें कोई लाभ नहीं है, जीवनभर करते हैं।

आम आदमी को देखो, कितनी मेहनत करता है, पाता कुछ नहीं है। क्यों? क्योंकि उसे यही नहीं पता कि मेहनत किसके लिए करनी है। वो अपने उद्देश्य ही ठीक से निर्धारित नहीं कर पाता। श्रम भर से क्या हो जाएगा?

छोटे थे तो हमें बोल दिया गया था, ‘हार्ड वर्क इज़ द की टू सक्सेस’ (परिश्रम ही सफलता की कुंजी है)। मैं अपनी सब कॉपियों के ऊपर लिखकर रखता था सिर्फ़ एक यही बात — *‘हार्ड वर्क इज़ द की टू सक्सेस’*।

थोड़ा आगे बढ़ा तो पता चला ये बात बहुत अधूरी है। हार्ड वर्क (परिश्रम) से पहले आना चाहिए, क्लियर रियलाइजेशन (बोध)। नहीं तो, हार्ड वर्क तो गधा भी करता है।

अगर आपकी सक्सेस की परिभाषा ही सही नहीं है तो बहुत-बहुत मेहनत करके वो सक्सेस आपको मिल भी गयी, तो उससे आपको कुछ नहीं मिलेगा। लक्ष्य की तरफ़ आपकी यात्रा पूरी हो जाएगी; आप पूरे नहीं हो पाएँगे। आपकी कामना पूरी हो जाएगी, फुलफिल (तृप्त) हो जाएगी; आप पूरे नहीं हो पाएँगे, आप फुलफिल नहीं हो पाएँगे।

ये अनुभव रहा है कि नहीं, कि कामना पूरी हो गयी, हम अधूरे रह गये? सब कामनाएँ अधूरी थोड़ी रहती हैं, पूरी भी तो हो जाती हैं। ये हुआ है कि नहीं, कि जो चाहते थे वो तो मिल गया, पर उससे जो चाहते थे वो नहीं मिला? हाँ या न?

तो सारी शायरी इसी पर आश्रित है कि कभी रंज इस बात का रहता है कि जिसको चाहते थे वो नहीं मिला, और कभी इस बात का रहता है कि वो तो मिल गया, पर उससे जो चाहते थे वो नहीं मिला। ले-देकर के हमें तो कभी कुछ भी नहीं मिला।

इसलिए अद्वैत है। अद्वैत कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो धार्मिकों या दार्शनिकों मात्र के लिए है। वो आम-आदमी के लिए है। अद्वैत नहीं होगा तो बस तड़प होगी।

प्र: धन्यवाद, आचार्य जी।

(एक स्वयंसेवक आचार्य जी को लौकी के जूस की जगह दूसरी जूस लेने का आग्रह करते हैं)

आचार्य: ठीक है, ठीक है। यही ठीक है, मैं तो हँसा रहा था सबको ऐसे ही।

(स्वयंसेवक ने पुनः आग्रह किया)

अरे, ठीक है, ठीक है!

(श्रोतागण हँसते हैं)

भाई, हमने क्या कहा? ये तो होगा ही होगा कि कुछ अच्छा, कुछ बुरा लगेगा; पर बात वहाँ रुक नहीं जानी चाहिए न।

ये भी तो पता चलना चाहिए कि ये एक जो पुरानी स्वाद की आदत है, वहाँ से मेरी पसंद-नापसंद आ रही है; मैं उस आदत का ग़ुलाम क्यों रहूँ? उससे लड़ना भी तो ज़रूरी है न।

प्र२: नमस्ते सर। सर, आप जब द्वैत का एक्सप्लेनेशन (व्याख्या) दे रहे थे, उसमें एक कनफ्यूज़न (संदेह) है और एक तर्क सा उठता है। आपने बताया था कि जगत हमारा प्रोजेक्शन (प्रक्षेपण) है दो लेवल पर। एक तो एक्सिसटेंस लेवल (अस्तित्व के तल) पर और एक मीनिंग (अर्थ) हम जो देते हैं।

मीनिंग वाली बात समझ आती है। अब एगज़िस्टेंशियल वाली आपने बताया कि जैसे क्योंकि हम सिर्फ़ थ्री डामेंशन में परसीव (संज्ञान) कर सकते हैं, तो हमें जगत भी थ्री डामेंशन लगता है। ठीक है। अगर कोई टू डेमेंशन वाला है उसको टू डामेंशन लगेगा, वो भी ठीक। लेकिन कुछ तो है कि सबको लग रहा है?

आचार्य: कुछ इसलिए है क्योंकि आपको कहीं होना है। आप बोलते हो – ‘अहम् देहास्मि’। अब ये देह कहीं चाहिए न रखने के लिए? तो इसलिए कहना मजबूरी हो जाता है, ‘कुछ तो है’।

अगर आप कह दें, ख़तरा समझिए, आप कह दें कि कुछ भी नहीं है, तो साथ-ही-साथ आपको क्या कहना पड़ेगा? ये देह भी नहीं है।

क्योंकि कुछ भी नहीं है तो फिर यह सोफ़ा भी नहीं है, ज़मीन भी नहीं है, ये (देह) कहाँ टँगेगी। तो इसको टाँगने की विवशता है ये कहना कि कुछ तो है।

‘कुछ तो है’, अगर इससे (शरीर से) कुछ नाता है। और ये जितना प्यारा होगा, उतना 'कुछ', 'बहुत-कुछ' बनता जाएगा।

देहाभिमान जितना गहन होगा, जगत आपके लिए उतना अर्थपूर्ण, उतना बड़ा अस्तित्व लेता जाएगा।

समझ में आ रही है?

तो ये भी कहना कोई बहुत तयशुदा बात नहीं है कि कुछ तो है। ये जो हम मिस्टिकल (रहस्यमय) तरीक़े से कहते हैं न, वो भी कुछ पक्का नहीं है कि कुछ है भी कि एकदम कुछ नहीं है। कुछ नहीं कहा जा सकता।

प्र: मतलब ऑब्जेक्ट रियलिटी (वस्तुगत सच्चाई) कुछ है ऐसा? वी कैन नेवर एश्योर् (हम कभी सुनिश्चित नहीं हो सकते)।

आचार्य: वी (हम) आ गया न! वी आ गया। वो जो रियलिटी है, वो किसी की मज़बूरी है।

और देखिए रियलिटी वही खोज सकता है जो मजबूर न हो। किसी चीज़ की आप इन्वेस्टिगेशन , तहक़ीकात करने जा रहे हैं, और उसमें आपका ही अपना स्टेक (दांव) है, तो आपकी इन्वेस्टिगेशन कभी भी सच्ची हो पाएगी क्या?

आपको कहा गया है आप इन्वेस्टिगेट करिए कि आपके बेटे ने बोर्ड में नकल करी है कि नहीं करी है। वो इन्वेस्टिगेशन कभी भी निष्पक्ष हो पाती है क्या?

तो जगत को लेकर आपकी जो भी जिज्ञासा होती है, वो हमेशा बायस्ड होती है, पूर्वाग्रह ग्रस्त होती है। क्योंकि अगर जगत की पोल खुल गयी तो आपके लिए ऐसे (शरीर बनकर) जीना मुश्किल हो जाएगा। पता चल गया ये भी नहीं है, ये भी नहीं है, सोफ़ा नहीं है, कुछ नहीं है, बस मैं हूँ और मैं अंतरिक्ष में टँगा हुआ हूँ। ऐसा हो सकता है क्या?

(श्रोतागण नहीं में सिर हिलाते हैं)

तो फिर हमारे लिए ज़रूरी हो जाता है कि इसको, इसको, इसको (आसपास की चीज़ों की तरफ़ इशारा करते हैं) पचास चीज़ों को, इनको अर्थ देना, महत्व देना।

और ये जो पूरी बातचीत होती है कि कुछ है कि कुछ नहीं है, अद्वैत ये बातचीत करना ही नहीं चाहता। क्यों नहीं करना चाहता?

‘डॉक्टर साहब, मुझसे बहस करिए। छः उँगलियाँ हैं कि पौने सात!’

डॉक्टर साहब बहस करें? करें क्या?

(श्रोतागण नहीं में सिर हिलाते हैं)

उनका पूरा ध्यान किस पर है? हथेली (दृश्य) पर या आँख (द्रष्टा) पर? तो अद्वैत का ध्यान दृश्य पर है नहीं।

आप पूछें, ‘जगत होगा तो ज़रूर, बस वैसा नहीं होगा जैसा हमें लगता है।’ अद्वैत मौन रहेगा।

और ये जो गया है, इसका पूरा ध्यान किस पर है? ये जो रोगी है, इसका पूरा ध्यान किस पर है? इसका पूरा ध्यान उँगलियों पर है। 'उँगलियाँ होंगी तो ज़रूर न, पौने सात नहीं हैं तो सवा छ: होंगी। उँगलियाँ होंगी तो ज़रूर।‌'

कभी कोई वहाँ पर तत्वदर्शी आता है, बोलता है, ‘नहीं, देखो, उँगलियाँ पाँच हैं।’ चिकित्सक तब भी मौन रहता है। कहता है, ‘ठीक वैसे, जैसे पौने सात के बारे में मुझे कुछ नहीं बोलना, मुझे तो पाँच के बारे में भी कुछ नहीं बोलना। तुम्हें लग रहा होगा चार उँगलियाँ हैं कि अँगूठा है। मैं उस बारे में भी कुछ नहीं बोलता।' चुप!

सारी बातचीत किसके बारे में होगी? सारी बातचीत द्रष्टा के बारे में होगी। और दृश्य बारे में बात करने की ज़रूरत क्या है?

द्रष्टा अगर ठीक हो गया, तो दृश्य जो कुछ भी है वो वैसे ही स्पष्ट हो जाएगा।

या आँखों (द्रष्टा) को ख़राब और धुँधला ही रखें, यहाँ मोतियाबिंद और पता नहीं क्या-क्या सत्तर चीज़ें हैं। आँखों को वैसे ही छोड़ दें, और हथेली (दृश्य) के बारे में ख़ूब बहस करें, लंबी-चौड़ी विवेचना करें! करें?

कितने ही लोगों को लगता है ये (उँगलियाँ) दो हैं — वो एक मत खड़ा हो गया।

कितने को लगता है ये (उँगलियाँ) एक है — वो एक अलग मत खड़ा हो गया।

कितने को लगता है ये पौने आठ हैं — वो एक अलग मत खड़ा हो गया।

कितने को लगता है कि कुछ नहीं है — वो एक अलग खड़ा हो गया।

सब तरह की बातें हो रही हैं, सारी बातें किसके बारे में हो रही हैं? दृश्य के बारे में; द्रष्टा बेचारे की बात कोई करना नहीं चाहता।‌

तो अद्वैत कहता है, 'हम दृश्य की बात नहीं करते, हम द्रष्टा की बात करते हैं। तुम कौन हो, जो ये सब बातें कर रहे हो, तुमने कहाँ से ये सब रचा, क्या हम इस पर थोड़ी जिज्ञासा करें?' ये अद्वैत पूछता है।

तो अद्वैत, इसीलिए बोला मैंने, कोई मत नहीं है, कोई वाद नहीं है; वो वास्तव में एकदम निर्मल जिज्ञासा मात्र है। और उससे किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? पर लोगों को फिर भी बहुत आपत्ति रही है।

अद्वैतवाद को आज भी लोग न जाने कितनी गालियाँ दे रहे हैं। क्यों दे रहे हैं गालियाँ? कारण आप समझ ही गए होंगे। सारी रुचि क्योंकि वृत्ति-भोग की है। जब भोगने में ही सारी रुचि हो तो दृश्य की ही सारी बात होती है न फिर। दृश्य की होती है न?

आप समझ रहे हो?

जो भोगने में गहरी आसक्ति रखेगा, वो स्वयं के प्रति अनिवार्य रूप से गहरा अज्ञान रखना पसंद करेगा। गहरा अज्ञान तब आपके लिए विवशता नहीं, आवश्यकता बन जाती है। ये दो अलग-अलग चीज़ें हैं, विवशता और आवश्यकता।

अगर नीयत ही सारी यही है कि ये भोग लूँ, वो भोग लूँ, तो नज़र लगातार किस पर रखनी पड़ेगी? वो भोगने वाली चीज़ पर रखनी पड़ेगी न! ये मिल जाए, वो मिल जाए।

फिर आत्मज्ञान बहुत बड़ा झंझट लगता है। लगता है ये आत्मज्ञान, ये क्यों आ गया, इसकी बात मत करना। कोई भी बात करो, ये मत पूछो कि मैं कौन हूँ, मेरा क्या चल रहा है, विचार कहाँ से आ रहे हैं, वृत्ति क्या है, भावना कहाँ से आती है। ये सब सवाल मत करना।

क्योंकि ये सब सवाल करेंगे तो आँख को किधर मोड़ना पड़ेगा? अंदर को। और आँख रसिक हो गयी है किसकी? आँख तो बस देखने में — आँख माने सारी इंद्रियाँ मान लो। सारी इंद्रियों की प्रतिनिधि हो गयी आँख — आँख लगी हुई है ये, ये, ये (बाहरी दृश्य देखने में)।

प्र३: आचार्य जी, आपने अभी बोला कि संसार एक परछाई है और आप इसमें कुछ भी करोगे तो परछाई को पकड़ा नहीं जा सकता, न छोड़ा जा सकता है।

तो हमने ये भी समझ लिया कि संसार कुछ नहीं है, हम भी कुछ नहीं हैं। तो फिर हमें करना क्या है?

आचार्य: नहीं, आपने नहीं समझ लिया अभी ये, कि संसार कुछ नहीं, हम कुछ नहीं। हम तो हैं ही हैं। अगर हम कुछ न होते और आपने समझ लिया होता कि हम कुछ नहीं हैं, तो काहे को पूछतीं कि हमें करना क्या है? आप तो कुछ नहीं हैं, जब आप कुछ नहीं हैं, तो आप करेंगी क्या?

हम एक ही साँस में कैसी दो एकदम (परस्पर विरोधी) बातें बोल जाते हैं! अभी आपने कहा, 'हम समझ गए कि हम कुछ नहीं हैं'। तो आप समझ गईं आप कुछ नहीं हैं और छूटते ही कह रही हैं, 'हमें करना क्या है'?

आप तो कुछ नहीं हैं, जो कुछ नहीं है वो क्या करे? वो कुछ नहीं करे। कुछ नहीं करना।

(श्रोतागण हँसते हैं)

प्र: तो हम करें क्या, मतलब?

(सभी हँसते हैं)

आचार्य: आप समझिए। आप समझिए।

कृष्ण बार-बार इसीलिए कहते हैं न कि सही कर्म संभव नहीं है, आत्मज्ञान के बिना। समस्या सारी आ जाती है कि लोग जानना चाहते हैं 'करें क्या'?

मैं करूँ क्या? व्हाट डू आई डू ? विदाउट नोइंग हू आई एम (बिना जाने कि मैं हूँ कौन)।

और कर्म के प्रश्न का, अस्मिता के प्रश्न के बिना कोई उत्तर पा नहीं सकता। अस्मिता माने होना, *एग्ज़िस्टेंस*।

‘मैं कौन हूँ’ ये जाने बिना इसका कोई उत्तर नहीं हो सकता कि मैं करूँ क्या।

लेकिन कोई नहीं आकर पूछता कि ‘मैं हूँ कौन'? सबका सवाल यही रहता है, ‘मेरी ऐसी-ऐसी हालत चल रही है, मेरे घर में ऐसा है, ऐसा है। अब बताइए मैं करूँ क्या? मैं करूँ क्या?’

और लगातार तो वेदान्त यही बता रहा है, गीता और क्या समझा रही है कि ये पूछते हो, ‘करूँ क्या'; उसके लिए जानना पड़ेगा — तुम हो कौन।'

अर्जुन की यही तो किंकर्तव्यविमूढ़ता थी न, कि ‘करूँ क्या? लड़ूँ कि न लड़ूँ? कर्म का ही प्रश्न था न, अर्जुन के सामने? बोलिए? अर्जुन के सामने क्या प्रश्न था? यही तो था कि करूँ क्या। तो कृष्ण क्या सीधे उसको इतना सा कहकर छोड़ देते हैं कि ‘लड़ो’?

इतना लम्बा-चौड़ा आत्मज्ञान देते हैं अर्जुन को। क्योंकि भलीभाँति जानते हैं वो कि इस सवाल का कोई जवाब हो ही नहीं सकता कि 'करूँ क्या'; अगर ये सवाल बाक़ी है कि ‘हूँ कौन?’

‘हूँ कौन’ अगर बाक़ी है, तो ‘करूँ क्या’ निर्धारित नहीं करा जा सकता। तो इसीलिए सात सौ श्लोक फिर गीता में हैं। नहीं तो एक काफ़ी होता, ‘अर्जुन, पता है न, मैं कौन हूँ? मैं कृष्ण हूँ। तो मैं जो कह रहा हूँ, चुपचाप करो। और बहुत ज़्यादा बातें मैं बोलूँगा नहीं, एक बार बोल देता हूँ, लड़ो।’

भई, उनकी तो एक बात ही काफ़ी होती। अर्जुन कहाँ से इंकार कर पाते! पूरा ज़ोर लगाकर के, पूरे स्वामित्व के साथ अगर आदेश कर देते कृष्ण कि ‘अर्जुन, कोई बातचीत, बहस का अभी मौका नहीं है ये। बस, चलो उठो। उठो, खड़े हो जाओ और लड़ जाओ'। तो अर्जुन को शायद लड़ ही जाना पड़ता।

पर कृष्ण को पता था कि ऐसे कर्म नहीं हो सकता।‌ अर्जुन अगर ऐसे लड़ भी गये तो बात बनेगी नहीं। और ऐसे काम करवाना, संसार को ऐसे चलाना, किसी ज्ञानी का उद्देश्य होता भी नहीं है कि उसको समझाया कुछ नहीं, बस आदेश दे दिया। उसको समझाया नहीं कि वो जो कर्म है, वो क्यों हो, कहाँ से हो, बस आदेश दे दिया कि कर्म करो; ऐसे कोई ज्ञानी नहीं चलता।

तो अर्जुन को बिलकुल शून्य से शुरू करके अंत तक समझाते हैं कि ये बात है, तुम ये हो, प्रकृति ऐसी होती है। दुनियाभर की आंतरिक बातें सब बता देते हैं अर्जुन को, ताकि ये स्पष्ट हो पाये कि अब करना क्या है।

तो जिनके भी जीवन में ये प्रश्न हो कि ‘करूँ क्या?’ उनको उस सवाल से पहले किसी दूसरे सवाल का जवाब देना पड़ेगा। क्या? ‘हूँ कौन?’

‘हूँ कौन’ जान गए, तो ‘करूँ क्या’, इसका उत्तर मिल जाएगा। नहीं तो कभी नहीं मिलेगा।

और अभी ये मत कहिए कि हम आपकी आधे-पौन घंटे की बात सुनकर समझ गए हैं कि हम भी कुछ नहीं है, दुनिया भी कुछ नहीं है। नहीं, ऐसे कोई नहीं समझता। मैं ही नहीं समझा आज तक, तो और कोई क्या समझेगा! तो ऐसे नहीं होता है।

कुछ समझना तभी अर्थपूर्ण होता है जब वो जीवन ही बन जाए।

समझना तभी अर्थपूर्ण होता है जब वो जीवन ही बन जाए। कल रात हम बात कर रहे थे न? कौन-कौन लोग कल रात जुड़े हुए थे साथ?

(कुछ श्रोतागण हाथ उठाते हैं)

क्या बात कर रहे थे? कि ज्ञान तभी जानिएगा जब वो जीवन बन जाए।

तो मैंने तो अभी आधे-पौन घंटे कुछ बोल दिया है। जो मैंने बोला दिया, वो आपका जीवन थोड़ी बन गया है।

जीवन नहीं बन गया है, तो अभी ज्ञान भी नहीं हुआ है।

ज्ञान की कसौटी जीवन है। जीवन में उतरा, तो ज्ञान है। नहीं तो, नहीं समझ में आया है।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=anCj50X2hiw

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