अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:| यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव: ।।१४।।
अन्न से समस्त भूत (जीव-प्राणि) उत्पन्न होते हैं और मेघों से अन्न उत्पन्न होता है, यज्ञ से मेघ होता है और यज्ञ कर्म से होता है।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, तीसरा अध्याय, कर्मयोग, श्लोक १४
आचार्य प्रशांत: बहुत श्लोक ऐसे हैं वेदान्त साहित्य में – सब उपनिषदों में, और भगवद्गीता में भी – जिनमें अगर गहरे गोता न मारा जाए, जिनको अगर बहुत ही ध्यान और वेदान्तयुक्त दृष्टि से न पढ़ा जाए तो उनके अर्थ का अनर्थ हो जाएगा।
श्लोक सतह पर सरल लगेगा, उसका भाव और अर्थ बिलकुल सहज लगेगा और पाठक, साधक आसानी से इस भ्रम में आ जाएगा कि उसने अर्थ को ग्रहण कर लिया है, कि उसने श्लोक के मर्म को पकड़ लिया है। क्योंकि बात ऊपरी तौर पर प्रकटतयः लगेगी ही इतनी आसान; कोई कारण नहीं दिखेगा, कोई संदेह नहीं उठेगा कि श्लोक में और गहरे प्रवेश करने की आवश्यकता है।
प्रस्तुत श्लोक उन्हीं श्लोकों में से एक है।
क्या बात हो रही है? हम निष्कामकर्म योग की बात कर रहे हैं। और निष्कामकर्मयोग के लिए ही दूसरे अध्याय में और फिर वर्तमान अध्याय में श्रीकृष्ण एक प्रतीक देते हैं, एक उपमा खड़ी करते हैं। किसकी? यज्ञ की। निष्कामकर्मयोग को ही जैसे वो एक दूसरे नाम से पुकारने लग जाते हैं। ये बात हमने पिछले श्लोकों में देख ली है। निष्कामकर्मयोग को ही कहने लग जाते हैं ‘यज्ञ’।
हमने देखा था कि पूरी गीता वास्तव में सत्य का मन को संदेश है, एक प्रेमपूर्ण आह्वाहन है। तो बात सूक्ष्म तल पर है, मन सूक्ष्म होता है न, और सत्य अतिशय सूक्ष्म। बात पूरी सूक्ष्म तल पर है और वहाँ यदि कुछ स्थूल मिलता है तो जानना चाहिए कि जो कुछ भी स्थूल है वो सूक्ष्म की ओर इंगित भर कर रहा है, संकेतक है, इशारा दे रहा है बस।
तो यज्ञ में देवताओं को आहुति दी जाती है – इसमें यज्ञ का कोई स्थूल अर्थ नहीं है, यज्ञ से आशय निष्कामकर्म है। यज्ञ से आशय मन की एक अवस्था से है। इसी तरीके से देवताओं से आशय किन्हीं व्यक्तित्वों, भूतों, आस्तित्वधारी पारलौकिक प्राणियों आदि से नहीं है। देवताओं से आशय है अपने भीतर के देवत्व से। जब आप निष्कामकर्म करते हैं तब आप अपने भीतर के देवत्व को पोषण देते हैं। और कृष्ण देवताओं के साथ-साथ, पीछे के श्लोकों में दानवों की भी बात करते हैं।
दानव कौन है? जो सकामकर्म करे। आपके ही मन का वो हिस्सा जो बस अपनी ही व्यक्तिगत, अहंकार जनित कामनाओं की पूर्ति के लिए काम करना चाहता है, अपने ही स्वार्थ के लिए जीना चाहता है, वो दानव है। यज्ञ का क्या अर्थ हुआ? निष्कामकर्म करके अपने आंतरिक देवत्व को वृद्धि देना।
आपके भीतर देवता बल पाएगा या दानव छा जाएगा, ये निर्भर आपके चुनाव पर करता है। यज्ञ का अर्थ है सही चुनाव, निष्कामकर्म ही वो सही चुनाव है। जब भी आपके पास कुछ करने का अवसर होता है – और कुछ करने का अवसर तो प्रतिपल होता है, क्योंकि जीवन प्रवाह में कर्म निरंतर है। कृष्ण कहते हैं, कोई भी प्राणी कर्म करे बिना एक पल भी नहीं रह सकता। कर्म तो हो ही रहा है, आपको पता हो चाहे न पता हो, आपके ज्ञान में हो चाहे आपके अज्ञान से हो, होश में हो बेहोशी में हो; कर्म तो हो ही रहा है। आपका कर्म ही आपकी एकमात्र शक्ति और एकमात्र अशक्ति भी है। बल भी कर्म का चुनाव है, दुर्बलता भी कर्म का चुनाव है – तो आप क्या करने की चुनते हो उसी से आपके जीवन का निर्णय हो जाता है। कृष्ण अभी समझा रहे थे न कि जो यज्ञ नहीं करता, जो अपने कर्मो को सत्य की तरफ़ प्रेषित नहीं करता, जो जीवन को बस भोग की दृष्टि से देखता है – व्यक्तिगत लाभ हो जाए, व्यक्तिगत सुख मिल जाए – वैसा व्यक्ति चोर ही है। स्मरण आ रहा है?
तो उसी श्रृंखला में अब हमारे सामने जो श्लोक है, उसमें प्रवेश करें। तो यज्ञ माने क्या है? यज्ञ माने कोई स्थूल कर्म नहीं है। यज्ञ माने कोई लंबा-चौड़ा विधि-विधान नहीं है। यज्ञ माने संहिताओं का उच्चारण नहीं है। यज्ञ का अर्थ ये नहीं है कि बाहर स्वर्गलोक इत्यादि में कोई देवता बैठे हैं, उनको प्रसन्न करना है और उनसे कामना पूर्ति करनी है।
जो यज्ञ कामना पूर्ति के लिए किया जाए वो कृष्ण की देशना के सर्वथा विरुद्ध चला गया। क्योंकि कृष्ण क्या सिखा रहे हैं? निष्कामकर्म। और यदि आप यज्ञ भी इसीलिए कर रहे हैं कि आपकी कामनाओं की पूर्ति हो जाए, तो ऐसा यज्ञ कृष्ण-सम्मत हुआ या कृष्ण-विरुद्ध?
और अधिकतर लोग जो कहते हैं कि यज्ञ कर रहे हैं, हवन कर रहे हैं, होम कर रहे हैं, आप देखिएगा वो किसलिए कर रहे हैं। आप ये भी देखिएगा कि वो जिन मंत्रों का उच्चारण कर रहे हैं, उन मंत्रों में कामना छिपी है या नहीं। और यदि आपके मंत्रों में कामना छिपी हुई है, आप कुछ माँग ही रहे हो तो कृष्ण कह रहे हैं कि जो तुमने किया वो सब व्यर्थ ही गया। क्योंकि किसके लिए किया? अपने लिए किया न, ये काम तो पशुओं का हो गया। अपने से आगे का जिसे कुछ सूझता ही नहीं, वही तो पशु है, दानव है और वही तो चोर है – ‘मुझे बस अपना देखना है।‘
क्यों स्वयं से आगे निकलने के लिए बार-बार सब आध्यात्मिक ग्रंथ बताते हैं? ये एक बात है जो आपको सब जगह साझी मिलेगी – अपने से आगे निकलो न, अपने लिए जीने में क्या रखा है? कुछ भी नहीं। क्योंकि सब धर्मग्रंथों का उद्देश्य है दुख से मुक्ति। हाँ, दुख से मुक्ति को संबोधित तमाम धर्मग्रंथ अलग-अलग तलों पर करते हैं। कोई एक तल पर दुख की विवेचना करता है, कोई दूसरे तल पर। और जिस तल पर आप दुख की विवेचना करेंगे उसी तल पर आप मुक्ति का प्रयास भी करेंगे और उसी तल से सम्बन्धित फिर आप विधियाँ भी निकालेंगे। है न?
आपने दुख की परिभाषा क्या करी है, इसी से तय हो जाता है फिर कि आप मुक्ति के लिए विधान क्या करेंगे। तो उस बात में अंतर हो सकता है क्योंकि एक ग्रंथ है, दूसरा ग्रंथ है, एक यहाँ का है, एक वहाँ का है। कोई दुख को ऐसे देख रहा है, कोई वैसे देख रहा है लेकिन फिर भी इतना हमें मानना पड़ेगा कि दुख से मुक्ति लगातार धर्म की धारा का एक केंद्रीय उद्देश्य रहा है। क्योंकि दुख से मुक्ति उद्देश्य है, इसीलिए सकामकर्म की निंदा है।
अब आप कहेंगे कि ये कैसी बात है? क्योंकि सकामकर्म तो सुख देता है न, व्यक्ति सुख के लिए ही तो सकामकर्म करता है, और अगर दुख से मुक्ति उद्देश्य है अध्यात्म का तो फिर तो सकामकर्म बहुत अच्छी बात होनी चाहिए। भई! कृष्ण चाहते हैं कि आपको दुख से मुक्ति मिले, ठीक? और जो सकामकर्मी है, वो भी क्या कर रहा है? या कम-से-कम क्या चाह रहा है या विचार कर रहा है? कि ‘मैं अपनी कामनाओं के लिए कुछ करूँगा तो उससे मुझे सुख मिलेगा, माने दुख से मुक्ति मिलेगी’। तो फिर तो कृष्ण को सकामकर्म का अनुमोदन करना चाहिए न?
कृष्ण को सबसे कहना चाहिए कि, 'देखो भई! जीवन में बहुत आवश्यक है कि व्यक्ति दुख से मुक्त जिए। और दुख से मुक्ति मिलती है कामनाओं की पूर्ति से, तो एक काम करो तुम सब लोग जाकर के सकामकर्म करो क्योंकि उसी से तो सुख मिलेगा।' और सुख माने दुख से मुक्ति। ज़रूर कहीं कुछ भूल हो रही है क्योंकि ये दोनों बातें मेल खा नहीं रहीं। क्या भूल हो रही है?
कृष्ण कह रहे हैं कि निष्कामकर्म दुख से मुक्ति देता है और जो कामनाओं की पूर्ति के लिए जूझा जा रहा है, वो भी यही कह रहा है कि कामनाएँ पूरी होंगी तो दुख से मुक्ति मिल जाएगी। दोनों का उद्देश्य तो एक-सा दिख रहा है, तो फिर विरोध क्यों है आपस में?
विरोध इसलिए क्योंकि सकामकर्म में ऐसा लगता है कि दुख हट जाएगा, दुख हटता नहीं। ऐसी आशा जगती है कि जो चाह रहा हूँ वो मिल जाएगा तो दुख मिट जाएगा; दुख मिटता नहीं। ये आशा ही मूल माया है, यही आशा मूल बंधन है। जहाँ आप सोचते हैं कि चैन मिलेगा, वहीं उपद्रव खड़ा है। जहाँ आपको लग रहा है सुख है, वहीं दुख के काँटें हैं। काँटें ही नहीं काँटों का जाल है, जिसमें आप एक बार फँस गए तो फँसे ही रह जाओगे।
एक तो होता है कि राह चलते पाँव में काँटा लग गया, फिर भी गनीमत है। क्योंकि काँटा लग गया, आगे जाओगे पाँव से काँटा शायद निकाल भी लोगे। और एक चीज़ होती है जैसे खेतों पर कंटीली बाड़ लगी हुई हो और उस बाड़ में आकर के कोई पक्षी या कोई पशु फँस गया हो। देखा है कभी? काँटों वाली बाड़ें लगा देते हैं किसान और कोई उसमें आकर फँस ही गया है। अब जो फँस जाता है तो उसको तकलीफ़ होती है, तो उसको क्या करता है वो? वो तड़पता है, वो छूटने की चेष्टा करता है। पक्षी है तो पंख फड़फड़ाता है। और फिर वो जितना छूटने की चेष्टा करता है, माने दुख से मुक्ति का जितना प्रयास करता है, उतना ही वो न सिर्फ़ फँसता जाता है बल्कि घायल होता जाता है।
जो काँटों के जाल में फँस गया, वो जितना हाथ-पाँव चलाएगा या पंख फड़फड़ाएगा, वो उतना ही फँसता भी जाएगा और यदि वो पक्षी है तो उसके पंख उतने ही ज़्यादा कटते जाएँगे। यही हालत सकामकर्म के कांटेदार जाल में फँसे व्यक्ति की होती है। वो सुख की ख़ातिर उस बाड़ की ओर गया होता है।
आप मुझे बताइए, कोई जानवर जाकर बाड़ में क्यों फँस जाता है? क्योंकि बाड़ के उस ओर कुछ हरियाली है। अन्न वगैरह उसको कुछ दिख रहा है। तो वो कहता है कि चलो इसी ओर चलो। ‘यही मार्ग तो मेरी कामनाओं की पूर्ति का है’, वो उस ओर बढ़ जाता है। बढ़ जाता है, फँस जाता है। जो चाहा था वो तो मिला नहीं, या जो चाहा था वो हो सकता है थोड़ा बहुत मिल भी जाए। क्योंकि कोई पशु है और बाड़ लगी है, और बाड़ से बिलकुल मान लीजिए सटी हुई फसल खड़ी है, तो वो बाड़ में मुँह डालकर के हो सकता है कुछ फसल को चर ले; तो थोड़ा-बहुत तो सुख मिल ही गया। और ये जो सुख लेने गया था, इसका अनुमान क्या था? इसका अनुमान ये था कि चर लेंगे, फँसेंगे नहीं। ये होशियारी भी माया है।
हर व्यक्ति को लगता है कि मैं चर लूँगा, फँसूँगा नहीं। वो चरने जाता है, चरा या नहीं चरा पता नहीं, थोड़ा-बहुत हो सकता है चर भी लिया हो, लेकिन फँसता ज़रूर है। और फँसने के बाद, फँसता ही जाता है। क्योंकि मुक्त होने की कोशिश वही मन कर रहा है न जो पहले जाकर के फँसा था? तो उसमें होशियारी है ही कितनी? ज़्यादा होशियार होता अगर तो जाकर के सर्वप्रथम फँसता ही क्यों?
जिस बुद्धि से वो जाकर के फँसा था, उसी बुद्धि से वो फिर छूटने के प्रयास करता है। इधर-उधर बेतरतीब हाथ-पाँव चलाता है और घायल होता जाता है; उसकी हस्ती ही फटती जाती है। स्थूल तल पर देखेंगे तो दिखाई देगा कि उसकी खाल फटती जा रही है; सूक्ष्म बात ये है कि उसकी हस्ती फटती जा रही है। और फिर एक क्षण ऐसा आता है जब वो मुक्त होने का प्रयत्न ही त्याग देता है। पक्षी है अगर और उसके पंख एकदम ही फट गए तो फिर वो पंख चलाना ही छोड़ देता है। वो कहता है, 'अब इसी में पड़े रहो।'
ज़्यादातर लोग ऐसा ही जीवन जीते हैं, मृत्यु की प्रतीक्षा में; क्योंकि इतनी बुरी तरह फँस चुके होते हैं कि अब मुक्ति का प्रयत्न भी असंभव हो जाता है। निराशा उनको नियति की तरह जकड़ लेती है, उनको साफ़ दिखाई देने लगता है कि अब हमारा कुछ हो नहीं सकता। फिर वो, बहुत हुआ तो, कल्पनाएँ करते हैं कि अगला जन्म मिलेगा, उसमें बेहतर ज़िंदगी जी लेंगे, ये जन्म तो बर्बाद। और अक्सर रस्सी जल जाती है पर बल नहीं जाते। तो मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे ऐसे जीवों को, माने मनुष्यों को, यदि कोई जाकर बताता भी है कि तुमने ग़लत जीवन जिया इसलिए फँसे हुए हो तो स्वीकारते नहीं।
और भीतर कुटिलता इतनी होती है कि अन्य जो आसपास पशु-पक्षी होते हैं, उनको भी सावधान नहीं करते कि हम फँस गए थे, तुम मत फँसना; उनको और आमंत्रित करते हैं। कहते हैं, ‘देखो! ये हमको यहाँ पर बढ़िया आसन मिला है, हम इसमें बैठे हुए हैं।‘ जो काँटों का जाल है, उसको बताते हैं, 'देखो, हमको ये बढ़िया यहाँ आसन मिला है, बिस्तर मिला है, गद्दी मिली है, हम इसमें विराजे हुए हैं, आओ-आओ तुम भी आओ’। जैसे कि उनको अब एकमात्र सुख यही संभव रह गया हो कि दूसरे भी दुखी हो जाएँ। अब उनको तो जीवन में कोई गहरा सुख, कोई आनंद मिल नहीं सकता न, वो तो फँस चुके हैं पर बुद्धि अभी भी शुद्ध नहीं हुई तो कहते हैं, 'हमें तो और कोई सुख मिल नहीं सकता तो हम इसी बात का सुख ले लेते हैं कि दूसरों को भी दुख मिले।' क्योंकि बुद्धि अभी भी वही है जिसने सर्वप्रथम उन्हें काँटों में फँसने की ओर प्रेरित करा था।
यही बड़ा अद्भुत आश्चर्य है मनुष्य के जीवन और उसकी बुद्धि को लेकर के, कि इतना दुख झेलकर भी वो सुधरता क्यों नहीं! इतने कर्मदण्ड पाकर भी वो बदलता क्यों नहीं! और ये सारी बातें, याद रखिएगा, सूक्ष्म तल पर हैं। आप जो स्थूल दुख भी पाते हैं, वो आपके मानसिक निर्णयों के परिणाम होते हैं न।
आपने नशा कर लिया, आप गड्ढे में गिर गए। चोट लगी घुटने पर, घुटना गया सूज और बहा खून। वो सूजन स्थूल है तो दिखाई पड़ रही है कि घुटना सूजा हुआ है, खून भी दिख रहा है। देखो! धार बह रही है लाल-लाल। घुटने को देख सकते हो, खून को छू सकते हो – ये स्थूल बात है। पर ये घटना वास्तव में क्या थी? ये नशे की घटना थी। नशा स्थूल होता है? नहीं। नशे ने किसको पकड़ा है? घुटने को? घुटने को नशा था क्या? नशा किसको था? जिसको नशा था वो सूक्ष्म होता है, वो दिखाई नहीं देता, उसे मन कहते हैं। तो ये सारी बातें उसको संबोधित करके कही जा रहीं हैं जो नशे में चला जाता है। उसी नशे को महारात्रि भी बोलते हैं, उसी नशे को अविद्या बोलते हैं, अज्ञान। समझ में आ रही है बात?
तो जहाँ कहीं भी स्थूल बात हो, मान लो कोई तुम्हें आध्यात्मिक ग्रंथ मिल जाए जिसमें घुटना, सूजन और खून की बात हो रही हो तो ये मत सोच लेना कि अध्यात्म का सम्बन्ध घुटने से है या सूजन से है या खून से है। अध्यात्म का सम्बन्ध किससे है? उससे है जिसके कारण घुटना सूज गया; और वो सूक्ष्म है। फँस मत जाना, ये मत करने लग जाना कि अध्यात्म में बिलकुल केंद्रीय बात है घुटना। और बहुतों की बुद्धि वहीं होती है तो वो उसी की बात करना शुरू कर देते हैं, घुटने की, उनको लगता है कि यही तो है। कोई बड़ी बात नहीं वो घुटना ही पूजना शुरू कर दें। कहें, 'धर्मग्रंथ में घुटने का उल्लेख आया था तो पूजा करो।' घुटने का उल्लेख दिया गया था तुम्हें ये बताने के लिए कि होश, माने बोध पूजनीय है और नशा दुख का कारण है। पर वो बात भूल गए हो, वो बात पकड़े रहना खतरनाक हो जाता है न। क्योंकि जहाँ मद है, मद माने नशा, वहाँ व्यक्ति को थोड़ी देर का सुख मिल जाता है। समझ में आ रही है बात?
अब श्लोक को देखो: अन्न से सब प्राणी हैं, मेघों से अन्न है और यज्ञ से मेघ है। और यज्ञ निष्कामकर्म से है। क्या कह रहे हैं कृष्ण? पहली बात तो इतना विज्ञान तब भी था और कृष्ण प्रकृति के बारे में इतनी मूलभूत बातें निःसन्देह समझते थे कि स्थूल यज्ञ से मेघ नहीं होते। बहुत सारे टीकाकारों ने इसमें लिखा है कि कृष्ण कह रहे हैं कि, 'देखो, जब अन्न होता है तो उससे प्राणियों को जीवन मिलता है, तो अन्न से प्राणी हैं।‘ मेघ से अन्न है, ये बात भी स्पष्ट है – वर्षा होती है तो उससे अन्न पैदा होता है। और फिर आगे वर्णित है कि यज्ञ से मेघ है तो इसमें उन्होंने अपनी कल्पना दौड़ाते हुए लिखा है कि यज्ञ से मेघ इस तरह है कि जब यज्ञ करते हो तो धुँआ उठता है तो वो धुँआ जाकर के मेघ बन जाता है तो उससे वर्षा होती है; कृष्ण ऐसे तो नहीं हैं। यज्ञ के धुँए से मेघ नहीं बनते।
ये बात अगर आपके-हमारे जैसे सामान्य बुद्धि वाले लोगों को भी पता है तो कृष्ण को तो निश्चित ही पता रही होगी न? हमारी आज जितनी भी बुद्धि है, जितनी भी समझ है, कृष्ण की उससे थोड़ी ज़्यादा ही रही होगी, कुछ कम तो नहीं रही होगी? तो इस तरह की व्याख्या करना, गीता के साथ अन्याय ही है, कि यज्ञ-धूम से मेघ उत्पन्न होते हैं। और ऐसी व्याख्या मैंने कई जगह पढ़ी।
जिन्होंने ऐसी व्याख्या करी है, मैं उनके इरादों पर, नीयत पर, उनके भाव पर कोई शंका नहीं कर रहा। पर मनुष्य तो ग़लतियों का पुतला है ही, ग़लतियाँ हो जाती हैं। और मैं समझता हूँ इस तरह की व्याख्या निश्चित रूप से एक तरह की ग़लती है, इसको स्वीकारना चाहिए। यज्ञ-धूम से मेघ उत्पन्न होते हैं, कृष्ण ऐसा नहीं कहने वाले। तो फिर कह क्या रहे हैं कृष्ण? कृष्ण जो बात यहाँ कह रहे हैं, वो अति सूक्ष्म है। इसको ध्यान से समझिए!
ये प्रकृति के चक्र की बात करी है कृष्ण ने। ये जो तीन चीज़ें आरंभ में बोली हैं ये प्रकृति के अंतर्गत आती हैं। कौनसी तीन चीज़ें? अन्न से प्राणियों का निर्वाह होना, मेघ से अन्न का उत्पन्न होना। ठीक? और फिर कह रहे हैं, यज्ञ से ये दोनों सम्बद्ध हैं। और यज्ञ को तो वो निष्कामकर्म के तुल्य रख ही रहे हैं, और वो बात जानी हुई है। जो आख़िरी बात वो कह रहे हैं कि यज्ञ का उदभव कर्म से होता है। और कर्म जब कृष्ण कहें, तो उसका क्या अर्थ है? भूलना नहीं है कभी भी – निष्कामकर्म।
एक तो हम ये ग़लती भी कर देते हैं कि गीता का एक श्लोक लेते हैं और उसको बिलकुल एकाकी रखकर उसकी विवेचना करने लग जाते हैं। जबकि यदि गीता के समस्त सात-सौ श्लोकों का उच्चारण करने वाले एक ही हैं, तो क्या उनमें विविध दिशाएँ, विविध भाव, विविध अर्थ हो सकते हैं? क्या एक श्लोक दूसरे श्लोक के विरुद्ध-विपरीत जा सकता है? नहीं जा सकता न? पर हम कभी भी गीता को एकीकृत तरीके से देखने का बहुत प्रयास नहीं करते। हम ऐसे नहीं देख पाते कि यहाँ ये बात कही गई है, पिछले अध्याय के अमुक श्लोक से निश्चितरूप से उसका ऐसा सम्बन्ध है। या इस बात का यदि अर्थ समझना है तो फ़लाने अध्याय चले जाओ और वहाँ का कोई श्लोक ले लो और उससे उसका अर्थ करके देख लो। और जब हम ऐसा नहीं करते हैं तो फिर कई तरह के भ्रम, ग़लतफ़हमियाँ पैदा होती हैं, और खूब हुई भी हैं।
और फिर वही भ्रम जब आगे बढ़ जाते हैं, परम्पराएँ बन जाते हैं, सार्वजनिक मान्यताएँ बन जाते हैं तो फिर वो संस्कृति बन जाते हैं। क्योंकि आम-आदमी नहीं जानता श्लोक को, पर वो मान्यता को जानता है। संस्कृति आती है मान्यता से, और मान्यता आती है उस अर्थ से जो आपने आध्यात्मिक ग्रंथ का करा है। ठीक है न? तो मूल में ही भूल नहीं कर देनी चाहिए। श्लोक क्या कह रहा है उसका अर्थ बहुत सावधानी से करना चाहिए, नहीं तो जो आम संस्कृति है वही भ्रष्ट हो जाती है, बड़ी विक्षिप्त हो जाती है।
आम आदमी को तो पता भी नहीं कि वो किसी बात का यदि परम्परा की तरह पालन कर रहा है, तो क्यों कर रहा है। और जहाँ तक है, बहुत सारी परम्पराओं का स्रोत आध्यात्मिक ग्रंथ ही होते हैं लेकिन परम्पराएँ तो हम देखते हैं कि बड़ी विकृत रहती हैं। एकदम उनमें मूर्खतापूर्ण तत्व मिश्रित हो चुके होते हैं, वो सब कैसे हुआ? वो ऐसे ही हुआ कि कई बार श्लोक का जो अर्थ ही किया गया वो ठीक नहीं किया गया। और ठीक न करने के पीछे जो उसकी वजह है वो वही जिसकी हमने चर्चा की, कि आपने उस श्लोक को पूरे ग्रंथ के प्रकाश में रखकर नहीं देखा। आपने उस श्लोक को एकाकी तौर पर उठा लिया।
अभी भी लोग जब किसी बहस में होते हैं या अपने किसी मत को सिद्ध करने के लिए धर्मग्रंथों से श्लोक आदि उद्धृत करते हैं, तो आप पाएँगे वो ऐसे ही करते हैं। वो किसी भी ग्रंथ से कोई एक श्लोक उठा लेंगे और कहेंगे, ‘देखो इससे सिद्ध होता है कि मैं जो बात कह रहा हूँ वो सही है’। कई बार तो पूरा श्लोक भी नहीं उठाया जाता, श्लोक से भी बस दो-तीन शब्द उठा लिए जाते हैं। और उनका उपयोग करके ये प्रमाणित करने का प्रयास रहता है कि, 'देखो हमारा मत ठीक है।' अरे भाई! वो जो बात कही गई थी उससे आगे क्या कहा गया है? उससे पीछे क्या कहा गया है? वो पूरा अध्याय क्या कह रहा है? वो बात किसको सम्बोधित करके कही गई है? सामने कौन बैठा है?
अर्जुन से श्रीकृष्ण ऊपरी तल पर अठारह तरह की अलग-अलग बातें कर रहे हैं। एक बात जो अर्जुन से कही गई है और एक बात जो जनक से कहते हैं अष्टावक्र, ये दो बहुत अलग व्यक्तियों को सम्बोधित करके कही गई बातें हैं। हालाँकि इन दोनों बातों का मर्म एक ही होगा। श्रीमद्भगवद्गीता और अष्टावक्र गीता, दोनों वेदान्त के अमूल्य ग्रंथ हैं तो दोनों परस्पर भिन्न बातें तो नहीं बोलने वाले; लेकिन दोनों की पृष्ठभूमि बहुत अलग है। दोनों को ग्रहण करने वाले कान, मन, बहुत अलग हैं, तो इसीलिए बात को कहने का तरीका निसन्देह अलग होगा। कहाँ कही गई है बात उसका सन्दर्भ, उसका कॉन्टेक्स्ट क्या है, उसके आगे-पीछे क्या है, ये जानना, देखना बहुत ज़रूरी होता है।
वही बात हमें इस प्रस्तुत श्लोक पर लागू करनी है। तो जहाँ कृष्ण कहें ‘कर्म’, उसका क्या अर्थ है? निष्कामकर्म। कृष्ण की भाषा में कर्म और कुछ नहीं है, निष्कामकर्म। ठीक है?
तो कृष्ण कह रहे हैं, 'यज्ञ कर्म से उद्भूत होता है।' माने जो निष्कामकर्म कर रहा है, वही यज्ञ करता है। और कुछ नहीं है यज्ञ, यज्ञ किसी बंधी-बंधाई पद्धति का नाम नहीं है। देखिए, वेदों का जो संहिता वाला भाग है – और वही भाग वेदों में प्रमुखतया है, ज़्यादातर श्लोक उसी तरफ़ से हैं – उसमें बहुत प्रकार के यज्ञों के बड़े विस्तृत विधि-विधान दिए गए हैं; कृष्ण उन यज्ञों की बात नहीं कर रहे हैं, ये बात साफ़ समझ लीजिए। क्योंकि वेदांत में कर्मकाण्ड के लिए कोई स्थान नहीं है। यही वजह है कि गीता में कृष्ण कई बार वैदिक कर्मकाण्ड को बिलकुल खुलकर नकारते हैं।
एक तरफ़ यदि देखें तो वेदान्त वेदों के संहिता भाग से, मंत्र भाग से उठा है, जन्मित है। तो इसलिए वेदान्त उन मंत्रों का, उस कर्मकाण्ड का आभारी है। और दूसरी दृष्टि से यदि देखें तो वेदान्त उन सब बातों का जिसमें आप सकाम पूजा करते हो, आराधना करते हो, यज्ञ करते हो, इस देवी को तृप्त करते हो, उस देवता को तुष्ट करते हो – उन सब बातों का उल्लंघन कर जाता है, उन सब बातों के आगे निकल जाता है, उन सब बातों के लिए वेदान्त में कोई स्थान बचता नहीं है। एकदम कोई जगह बचती नहीं है।
जैसे कोई अंतरिक्षयान हो, जो उठा तो पृथ्वी से ही है, बना भी वो पृथ्वी के पदार्थों से ही है, लेकिन अब वो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का उल्लंघन कर गया है, वो बाहरी अंतरिक्ष में निकल गया है जहाँ उसे अब पृथ्वी से कोई लेना-देना बचा नहीं – ऐसा है वेदान्त। वैदिक कर्मकाण्ड वो धरातल है, वो ज़मीन है, वो पृथ्वी है, वो लॉन्च पैड है जिससे वेदान्त नाम का अंतरिक्षयान लॉन्च हुआ है। पर एक बार वो बन गया, एक बार वो पृथ्वी से प्रक्षेपित हो गया, उसके बाद वो पृथ्वी से भी आगे निकल जाता है। उसके बाद उसका पृथ्वी से कोई लेना-देना बचता नहीं न। पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण, आप जानते ही होंगे, एक सीमा के आगे निष्क्रिय हो जाता है, लगभग शून्य हो जाता है। ऐसा है वेदान्त – वो जिस धरा से उठता है, उससे बहुत आगे निकल जाता है। उसके बाद उसपर धरातल के नियम नहीं लागू होते। आपकी पृथ्वी पर फिर जो कुछ भी हो रहा हो, क्या वो किसी अंतरिक्षयान पर लागू होता है? बोलो?
आपका जो अंतरिक्षयान है, जो स्पेस व्हीकल है आपका, वो पृथ्वी से उठकर अब पहुँच रहा है शनिग्रह के पास और आपकी पृथ्वी पर बड़ी बाढ़ आ गई है, भूकम्प आ गए हैं या नाभकीय युद्ध हो गया है, घोर तबाही हो गई है, उस अंतरिक्षयान पर कोई असर पड़ेगा? नहीं। ऐसा है वेदान्त – उस पर अंतर पड़ना ही समाप्त हो जाता है कि जो आपका स्थूल धरातल है उस पर क्या चल रहा है, स्थूल से वो अपना सम्बन्ध ही तोड़ देता है। अब वो बात करता है बस चित्त शुद्धि की, ब्रह्मविद्या की।
वेदान्त का सम्बन्ध किससे बचता है बस? – चित्तशुद्धि, ब्रह्मविद्या। बाकी सब जो बातें हैं जो धर्म की परिधि पर आती हैं – मान्यताएँ, परम्पराएँ, रस्में, कल्पनाएँ, मिथक, पूजा, आराधना इत्यादि और इनके विधि-विधान – इनका वेदान्त से बहुत प्रयोजन बचता नहीं। और अंतरिक्षयान तो फिर भी आपका ऐसा जो सकता है, जो हो सकता है आपने इस तरह से निर्मित किया हो कि वो पृथ्वी पर कभी लौटकर आए, वेदान्त वो यान है जो अब सदा के लिए मुक्त हो गया। वो महायान है, वो मुक्तियान है। उसे अब कभी लौटकर आना नहीं, वो नहीं वापस आएगा।
क्या गाया है सन्तों ने? कि अब वो लौटकर वापस नहीं आएगा, इसके लिए क्या गाते हैं? कभी कहते हैं, 'जहाँ कोई आवे न जावे', और कभी कुछ और भी कहते हैं, याद करो। ‘जहाँ फिर वापस आना नहीं’, जो मुक्त हो गया उसे फिर वापस नहीं आना है। वेदान्त वैसा ही है। वो मुक्त हो गया, उसे अब वापस आना ही नहीं है। वो इन सब बातों में पड़ता ही नहीं। उसके लिए ये बातें प्रपंच जैसी हैं; कहाँ फँस रहे हो इन सब चीज़ों में? समझ में आ रही है बात?
तो आप गीता को वैसे ही नहीं पढ़ सकते जैसे आप वैदिक कर्मकाण्ड को पढ़ते हो। बहुत अलग दृष्टि से पढ़ना होगा। सामवेद में या ऋग्वेद में यज्ञ शब्द उल्लिखित हो, और गीता में यज्ञ शब्द आए, इनको बहुत अलग-अलग तरीके से पढ़ना होगा, ये एक ही शब्द नहीं हैं। वहाँ पर यज्ञ का क्या अर्थ होगा? कि वेदी का निर्माण किया जाए, यज्ञ की सामग्री का प्रबंध किया जाए। तमाम तरह के उसमें फल-फूल लगते हैं, वस्त्र लगते हैं, मूर्तियाँ लगती हैं, अन्न लगते हैं, लकड़ी लगती है – काष्ट, और अग्नि कैसे भूल सकते हैं; उन सबका प्रबंध करा जाए।
जब वेद में यज्ञ का उल्लेख हो तो ये आशय होगा और फिर देवताओं की दिशा में सकाम मंत्र प्रेषित किए जाएँ कि, 'हे इंद्र! ये तुमको दिया, अपनी कृपा बनाए रखना।‘ ‘हे अग्नि! ये तुमको दिया। हे वरुण! ये तुमको दिया, हमको धन-धान्य से परिपूर्ण रखना। हमारे खेतों में अन्न की कमी नहीं होनी चाहिए, हमारी गायों में दूध की कमी नहीं होनी चाहिए और हमारे शत्रुओं का नाश होना चाहिए।' ये वैदिक यज्ञ हुआ।
और जब कृष्ण कह रहे हैं यज्ञ तो उसका अर्थ बिलकुल एक अलग आयाम में है। उसका क्या अर्थ है? – निष्कामकर्म। वहाँ न काष्ट है, न अग्नि है, न धूम है; वहाँ तो जीवन मात्र है। वो अर्जुन को कह रहे हैं, 'अभी यज्ञ करो।' अर्जुन का यज्ञ अभी कैसा होगा? उसमें कहाँ है वेदी? है क्या? उसमें कहाँ है काष्ठ और उसमें कहाँ है अग्नि? कहो? और उसमें कहाँ हैं मंत्र? पर कुरुक्षेत्र में अर्जुन से यज्ञ ही तो करवा रहे हैं न कृष्ण? तो फिर यज्ञ माने क्या हुआ? जो तुम्हारे लिए उचित है, जो एक तुम्हारा केंद्रीय कर्तव्य है उसको डूबकर के करो। और बिलकुल भूल जाओ, निश्चिंत हो जाओ, बेफ़िक्र हो जाओ कि आगे होगा क्या। कोई कामना मत रखो कि आगे ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए। भविष्य को मन से बिलकुल निष्कासित कर दो। क्योंकि भविष्य यदि बचा हुआ है अभी, भविष्य यदि घूम रहा है मन में, तो जो कर रहे हो वो कर पाओगे नहीं। जो कर रहे हो, वो करते समय मन बँट जाएगा, शक्ति क्षीण हो जाएगी। आधा ध्यान, आधी ऊर्जा इस पर चली जाएगी कि ‘हाय मेरा क्या होगा! अभी तो ये कर रहा हूँ, कहीं ऐसा न हो कि कल समुचित परिणाम न मिले या कोई आफ़त ही आ जाए’ – मन इस दिशा में भटकने लगेगा। और मन भटकने लग गया तो तुम्हारा कर्म अधूरा रह जाएगा। तुम्हारे कर्म में तुम्हारी शक्ति बँट जाएगी।
कृष्ण जब यज्ञ कहें, तो ऐसे यज्ञ का अर्थ करना है। जो सही है, जिससे तुम्हारे आंतरिक देवत्व का सम्बन्ध है, उसको अपना सबकुछ आहुति दे दो; कुछ बचाकर मत रखो। कुछ रोकना नहीं, सब दे देना। 'हमारा क्या होगा?' देखो, ये प्रश्न भविष्य का है न? भविष्य की चिंता भी तुम उसको ही सौंप दो जिसको तुमने अपना कर्म और जीवन सौंप दिया है। जीवन में कुछ बहुत बड़ा रखो। जैसे उस बड़े को तुम अपनी शक्ति, अपना समय, अपनी ऊर्जा दे रहे हो, वैसे ही अपने भविष्य की चिंता भी उसको ही दे दो न। जब सारा काम तेरे ही लिए कर रहा हूँ, जब एक-एक साँस तेरे लिए है तो ये सारी जो मेरी चिंताएँ हैं, ये भी तू ही सम्भाल। जब मेरा कुछ भी मेरा नहीं है तो मेरी चिंताएँ भी मेरी क्यों रह जाएँ बाबा! लो बाबा! जब तुम मेरा सबकुछ ले ही गए हो, लूट ही लिया है तो मेरी चिंताएँ भी लूट ले जाओ। इनको भी मैं कहीं छुपाकर नहीं रखूँगा।
और ये तो मेरी ओर से मूर्खता होगी न – जो कुछ एक साधारण आदमी को लगता है सुखदायी है, वो तो मैंने तुमको दे दिया, कोई भी सुखदायी चीज़ तो अपने पास रखी नहीं। और मूर्ख ही होऊँगा अगर अब चिंताएँ अपने पास रख लूँ कि भविष्य में क्या होगा। जब सबकुछ तुम्हारा है तो भविष्य भी तुम्हारा है, जब सबकुछ तुम्हारा है तो चिंताएँ भी तुम्हारी हैं; तुम देखना, हम नहीं जानते।
इसी बात को भक्तों ने कई दफ़े उलाहना के तौर पर भी कहा है। अपने ईश से जैसे व्यंग्य-सा करा है, चुटकी ली है। तो ये भक्ति में होता है कि भक्त भगवान से कहता है, 'देख लो! हम तो तुम्हारे ही रहे जीवनभर, अब अगर हमारे साथ कुछ बुरा होता है तो नाम तो तुम्हारा ख़राब होगा। देख लो!’ कोई भगवान नहीं है जो सुनेगा इस बात को और उत्तर देगा, लेकिन इसमें भाव जितना मीठा है उतना ही शुद्ध भी है, उस भाव को समझिए। उसमें भाव निष्कामता का है। समझ में आ रही है बात?
हम तुमसे भिन्न तो हैं नहीं, तो यदि हमारी दुर्दशा हो रही है तो वास्तव में...? जब हम तुमसे भिन्न नहीं हैं, हम और तुम जब अभिन्न हो गए, तो मेरी दुर्दशा माने तुम्हारी दुर्दशा। हम एक हैं न, तो तुम ही देखना। हमारी नाँव नहीं डूबेगी, हमने अपनी नाव पर तुम्हारा नाम लिख दिया है बड़ा-बड़ा, ‘राम’। देखो, अगर हमारी नाँव डूबी तो दिखाई ये देगा कि राम डूब गए। तो तुम देख लो भई! हमारा तो कुछ है नहीं, तुम जानो।
ये एक विधि है। ये एक विधि है अपनेआप को चिंतामुक्त करने की। लेकिन ये विधि तभी काम करेगी जब सबसे पहले आप निष्कामकर्मयोगी हों। जो निष्कामकर्मयोगी नहीं है, माने वो किसके लिए काम कर रहा है? फिर वो राम के लिए तो काम कर नहीं रहा, फिर तो वो 'काम' के लिए काम कर रहा है; 'काम' माने कामना। तो जब उसने काम राम के लिए करा ही नहीं है तो वो अब राम को उलाहना क्या देगा कि देखो हमने सबकुछ तुम्हारे लिए करा?
राम क्या कहेंगे? ‘झूठ नहीं, झूठ नहीं! मेरे लिए नहीं करा, तेरे दस मालिक हैं, तेरी पचास कामनाएँ हैं, तूने उनके लिए करा। अब अगर तू डूब रहा है तो जाकर उन्हीं से बात कर, मुझसे नहीं। तेरा एक मैं ही होता तो फिर तेरा सारा उत्तरदायित्व भी एक मुझ पर होता। पर तेरे पचास हैं, तू मुझसे नहीं कर बात, उन्हीं से जाकर कर।‘
समझ में आ रही है बात?
तो देखो ये सारी बातें एक होती हैं। इतनी बार कहता हूँ, ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग अलग-अलग नहीं हैं। दृष्टि अलग है, देखने की बात अलग है। कुलमिलाकर के एक सत्य है और एक भ्रम है, तो सौ मार्गों की बात क्या करनी। एक सत्य है, एक भ्रम है। सत्य के अलावा जो एक है – बमुश्किल एक निकला, पचास नहीं; हालाँकि दिखते हमें चारों तरफ़ पचास-हज़ार हैं न, इतनी सारी चीज़ें होती हैं अलग-अलग। पर वो जो इतनी सारी अलग-अलग चीज़ें होती हैं, उनको कुल मिला-जुलाकर एक संयुक्त नाम दे दिया जाता है। क्या? – भ्रम, माया।
तो सत्य एक है, भ्रम भी एक ही है। और सत्य के अतिरिक्त जो एक चीज़ निकली, उस बेचारे नाम भी क्या मिल गया? – भ्रम। तो कुछ भी बचा क्या सत्य के अलावा? कुछ नहीं बचा न। तो हम पचास तरह की बातें क्यों करते हैं? ये योग, वो योग, ऐसा-वैसा। एक मन है जो परेशान है, उसी की परेशानी हटानी है। एक मन है जो डरा हुआ है, जो इतने कष्ट में रहता है कि मरे-सी उसकी हालत है। समझ में आ रही है बात?
अध्यात्म में आप कितने निष्णात होते जा रहे हो उसका एक सूचक ये भी रहता है कि आपको कितना एकत्व दिखाई देने लग गया है। अध्यात्म सम्बन्धी ही अलग-अलग बातें अगर आपको अभी अलग-अलग ही दिखती हैं, तो अभी आपमें बहुत आध्यात्मिक गहराई नहीं आयी है। तो एक प्रगति का सूचक होता है कि आपको भिन्न-भिन्न मार्ग सब एक दिखने लगें। और फिर जब आप और आगे बढ़ते हो तो आपको ऐसी चीज़ों में भी एकत्व दिखने लगता है जो आध्यात्मिक भी नहीं है। आपको ज्ञान और भक्ति एक दिखने लगें तो समझ लीजिए कि ये अध्यात्म का आरंभिक चरण है। अभी आपको वो भी एक नहीं दिख रहे तो आपके अध्यात्म का अभी आरंभ भी नहीं हुआ।
और अध्यात्म में जब आप और आगे बढ़ते हो तो जो चीज़ें ऊपरी तौर पर आध्यात्मिक नहीं भी हैं – उदाहरण के लिए किसी दफ़्तर में कामकाज चल रहा है, कोई नहीं कहेगा कि ये एक आध्यात्मिक जगह है, जहाँ कोई धार्मिक घटना चल रही है। ठीक? या बाज़ार है, दुकानें सजी हुई हैं। या घर-परिवार में कुछ आयोजन चल रहा है, या आप बाहर देखते हैं, वहाँ सड़क है, सड़क के बगल में पेड़ है, वहाँ बिजली का खंभा है और बिजली के खंभे पर उल्लू बैठा है – ये सब है। अगर आपको इन सबमें भी धर्मग्रंथों के श्लोक सुनाई देने लग जाएँ तो जानिए कि अब आप अध्यात्म के दूसरे चरण पर आ गए हो।
पहला क्या है? कि जहाँ आपको अलग-अलग आध्यात्मिक मार्ग एक दिखने लगे जाएँ, वो पहला। दूसरा, जहाँ आपको अध्यात्म और संसार भी एक दिखने लगे जाएँ, कि आप कोई साधारण-सा फ़िल्मी गीत सुनें और आपको समझ में आ जाए कि भले ही इसके गीतकार को भी न पता हो पर इसमें एक गहरा आध्यात्मिक अर्थ छुपा हुआ है – ये अध्यात्म का दूसरा चरण है। कि यहाँ एक छोटे बच्चे के रुदन में, या जंगल के किसी पशु की हुंकार में या किसी पक्षी के क्रंदन में आपको एक श्लोक सुनाई पड़ जाए – ये अध्यात्म का दूसरा चरण है।
और फिर तीसरा चरण क्या होता है? उसमें सब श्लोक भूलने लगते हैं, मौन रहता है बस। भूलने लगते हैं माने ऐसा नहीं कि स्मृति से किसी ने झाड़-पोंछ दिए। बस मन को स्मृति की आवश्यकता नहीं रह जाती। क्योंकि स्मृति भी है तो माया ही। माया के लिए एक नाम ये भी होता है – महास्मृति। उसको महासुंदरी भी बोलते हैं, महास्मृति भी बोलते हैं। महाविद्या भी बोलते हैं (हँसते हुए), उसपर कभी और बात करेंगे। फिर उसके बाद कुछ याद नहीं रहता। हाँ, कभी आवश्यकता पड़े तो स्मृति से अपने-आप कुछ उठकर सामने आ जाए तो अलग बात है, अन्यथा बस मौन। मौन, और कुछ नहीं एक अविछिन्न शांति। समझ में आ रही है बात?
तो फिर क्या कह रहे हैं कृष्ण यहाँ पर? निष्कामकर्म का, माने यज्ञ का, वो इन प्रकृतिक घटनाओं से कैसे सम्बन्ध जोड़ रहे हैं? एक ही श्लोक में ये दोनों बातें क्यों करी गईं हैं? एक ही श्लोक में कह रहे हैं कि निष्कामकर्म माने यज्ञ और फिर आगे कह रहे हैं कि यज्ञ माने मेघ, मेघ माने अन्न और अन्न माने प्राणियों का जीवन, ये क्या है? जल्दी से आगे नहीं भाग जाना चाहिए। हम कह रहे हैं कि ये नहीं सोच लेना चाहिए कि ‘अरे! यहाँ पर तो प्रकृति की किसी सामान्य घटना का वर्णन कर रहे हैं’, कृष्ण यहाँ पर अपना ही वर्णन कर रहे हैं।
क्या कह रहे हैं कृष्ण ये समझने के लिए हमें कृष्ण के ही उस वक्तव्य पर जाना होगा जहाँ कहते हैं वो कि ‘देखो, मुझे देखो अर्जुन! तुम अपना कर्म करने से पीछे हट रहे हो। मुझे देखो, अर्जुन! मुझे तो इस पूरे जगत में कुछ भी प्राप्य नहीं है लेकिन मैं एक पल के लिए भी अपना कर्म रोकता नहीं हूँ।‘ कृष्ण का कर्म क्या है? कृष्ण के कर्म को कहते हैं... कौन बताएगा?
श्रोता १: लीला।
आचार्य: पर उसके लिए एक स्थूल नाम क्या होगा? और ज़्यादा प्रकट नाम। लीला तो एक सिद्धांत है। कृष्ण का कर्म जिस रूप में आपके सामने बिलकुल प्रकट है, अनुभव्य है, उसे क्या नाम दोगे?
श्रोता २: जीवन।
आचार्य: हाँ, आगे बढ़ो।
श्रोता ३: प्रकृति।
आचार्य: हाँ, प्रकृति। प्रकृति कृष्ण का कर्म है। और उसको वो कहते हैं, 'मैं करे ही जा रहा हूँ। मुझे चाहिए कुछ नहीं, मुझे मिलना कुछ नहीं है पर देखो न मैं इस माया को नचाए जा रहा हूँ। मेरी माया है, मेरी प्रकृति है और वो प्रतिपल कर्मरत है। क्यों चला रहा हूँ मैं ये सबकुछ? मुझे क्या पड़ी है? मेरा उदाहरण लो अर्जुन! कुछ न चाहते हुए भी मैं निरंतर कर्मशील हूँ। तुम अपने कर्म से पीछे क्यों हट रहे हो, तुम भी लगातार लगे रहो।‘
यहाँ कृष्ण वही बात दोहरा रहे हैं। कह रहे हैं, 'देखो! निष्कामकर्म का सबसे ऊँचा उदाहरण तो मैं स्वयं हूँ। ये निष्कामकर्म ही है, ये यज्ञ ही है मेरा कि समुद्रों से मेघ उठ आते हैं, मेघों से पेड़-पौधे, पत्र-पुष्प उठ आते हैं और फिर उसी जैविक सामग्री का उपभोग करके जितने जीव हैं, वो सब जीवन पाते हैं; मुझे उसमें क्या मिल रहा है?'
तो यज्ञ का सबसे ऊँचा उदाहरण क्या हो गया? तुम्हारे चारों ओर ये रहा (चारों ओर हाथ घुमाते हुए)। ये देखो, ये सब क्या है? ये कृष्ण का यज्ञ है, वो यज्ञ कर रहे हैं। कौनसा यज्ञ? निष्काम यज्ञ। उनके मौन मंत्र हैं, कृष्ण थोड़े ही किसी देवता की उपासना करेंगे। कृष्ण स्वयं अपनेआप में महामंत्र हैं; वो क्या किसी देवी-देवता या इष्ट भगवान को लक्ष्य करके कोई मंत्र उच्चारित करेंगे। उनका कुछ इष्ट नहीं। इष्ट माने काम्य, चाहा हुआ, उसको इष्ट कहते हैं। उन्हें क्या चाहिए? उन्हें कुछ नहीं चाहिए। पर ये देखो उनका विशाल यज्ञ। पूरा ब्रह्मांड ही क्या है? कृष्ण का यज्ञ है। देखो! चल रहा है। हुए ही जा रहा है यहाँ, हर समय कुछ-न-कुछ हो रहा है। कर कौन रहा है? उससे मिल क्या रहा है उनको? कुछ नहीं मिल रहा। कुछ नहीं मिल रहा, यही तो निष्काम यज्ञ है।
अब देखो चारों ओर (श्रोताओं को संबोधित करते हुए), विराट रूप दिखा?
यही है विराट रूप।
सूक्ष्म बात ज़्यादा सूक्ष्म हुए जा रही है। अब देखो चारों ओर, विराट रूप दिखा? यही है विराट रूप। यज्ञ कर्ता ब्रह्माण्ड जितना विशाल है, पूरा ब्रह्माण्ड ही उसका यज्ञ है। विराट रूप दिखा? ये देखो, चारों ओर।
ये पेड़ क्या है? वो पेड़ किसके लिए है? क्यों है? बस है। यही तो निष्कामता है न! क्यों की कोई बात नहीं। क्यों का तो अर्थ ही होता है लाभ की इच्छा। तुमसे कोई पूछे बाज़ार क्यों जा रहे हो, तो वो यही सुनना चाहता है कि बाज़ार जाकर लाभ क्या होगा। पेड़ क्यों है? बस है। तुम भी क्यों हो? अगर किसी वजह से हो तो ग़लत हो। अब अपने होने का भी प्रयोजन समझ में आया? तुम्हें होना है निष्काम होने के लिए। जो निष्काम ही है, वही ठीक है। जिसके पास कोई भी और प्रयोजन है होने के लिए – 'मैं इसलिए हूँ ताकि मैं एक दिन ये बन जाऊँ, वो बन जाऊँ, ये पा लूँ, वो पा लूँ', वो कृष्ण जैसा नहीं है फिर।
क्योंकि कृष्ण किसी कारण से नहीं हैं; सत्य अकारण होता है। सत्य के पीछे कोई कारण नहीं होता। झूठ के होते हैं सौ कारण। सत्य का कोई कारण बताओ? सत्य इसीलिए अजात होता है, उसके पीछे कुछ नहीं होता। उसको जन्म देने वाला कोई नहीं होता। इसीलिए सच्चाई के कोई माँ-बाप नहीं होते। झूठ के माँ-बाप भी होते हैं, भाई-बहन होते हैं, भतीजे, सब होते हैं झूठ के। फिर इसीलिए हम कहते हैं न कि एक झूठ से सौ झूठ पैदा होते हैं। कभी ये सुना है ‘एक सच से सौ सच पैदा होते हैं’? ऐसा नहीं होता।
सच किसी से पैदा नहीं होता, न सच से कुछ पैदा होता है। सच अकेला है, वो ‘है’। झूठ का पूरा खानदान होता है, झूठ बिलकुल बता देगा कि, ‘देखो! हमारे बब्बा थे छः पीढ़ी पहले के, क्या रुतबा, क्या रसूख! दस गाँव थर्राते थे उनसे।‘ सच ये सब बातें नहीं करेगा, सच के कोई बब्बा नहीं होते। सच अपना बब्बा ख़ुद होता है। हम वो हैं जो ख़ुद अपने बाप हैं। अगर हम ख़ुद अपने बाप हैं तो हमारा बाप कोई और नहीं हो सकता। तो हमपर चढ़ने की कोशिश मत करना। हम तो वो हैं जिसका बाप भी उसपर नहीं चढ़ सकता तो हम पर चढ़ना मत। झूठ पर तो कोई भी चढ़ लेगा। झूठ तो इतना असुरक्षित होता है, उसको कतार लगानी पड़ती है, पूरी लंबी-चौड़ी, ये-वो।
समझ में आ रही है बात?
देखो खेल उसका, देखो जादू कुछ न चाहने का, इतनी बड़ी सृष्टि खड़ी हो गई। ये मेघ क्यों बरस रहे हैं? कवियों की कल्पना को छोड़ो, वो तो कह देंगे कि, 'मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है।' वो सब कुछ नहीं, वो कृष्ण वाली बात नहीं है। कवि-कवि होता है, ऋषि-ऋषि होता है। एक निष्कामता है, मेघ को कुछ नहीं चाहिए पर बरस रहा है, बरस रहा है, बरसे ही जा रहा है। उसे नहीं पृथ्वी की प्यास बुझानी है। वैसे अन्यत्र भी कहा गया है कि ‘पृथ्वी जब आकाश की ओर बाहें फैलाती है तो वृक्ष खड़े हो जाते हैं। ये वृक्ष कुछ नहीं हैं, ये पृथ्वी का प्रेम निमंत्रण है आकाश की ओर‘ – कोई ऐसी बात नहीं है।
ये यज्ञ है। ये बस ‘है’। और यदि तुम इस बात को समझ लो तो तुम भी बस ‘हो’ जाओगे। शुद्ध आस्तित्व, निष्प्रयोजन, बस ‘होओगे’। किसी कारण से नहीं होओगे, कुछ पाने के लिए नहीं होओगे, कुछ खोने के लिए नहीं होओगे। जो बस हो गया, वो आत्मा। जिसके होने के साथ अभी सौ अलंकार जुड़े हुए हैं, सौ उपाधियाँ हैं, सौ कारण हैं, इच्छाएँ हैं, वो अभी है ही नहीं। जो बस ‘है’, बस ‘है’। दुनिया को ये अस्तित्वगत सहजता इतनी अखरती है, इतनी आतंकित करती है कि वो इसको फिर मृत्यु का नाम दे देती है।
तो जो कृष्णवत हो गया, उसको जगत मृतवत भी मान लेता है। उसके लिए तीन उपाधियाँ होती हैं अध्यात्म में – शिशुवत, पशुवत, मृतवत। जो कृष्णवत हो गया है वो जगत की दृष्टि में, जगत उसे कभी कह देता है वो शिशुवत हो गया है। अब ये छोटे बच्चे की तरह निर्दोष हो गया है, निष्कपट हो गया है, मासूम हो गया है। तो कभी अगर जगत ज़रा अच्छे मूड (मनोदशा) में हुआ तो कह देगा, 'अभी ये शिशुवत है।' कभी यदि क्रुद्ध, कुपित हुआ तो जो कृष्णवत व्यक्ति है उसको कह देगा ‘ये पशुवत है, ये जानवर जैसा है’। जानवर जैसा क्यों है? क्योंकि हमारे सामाजिक नियम-क़ायदों पर चलता नहीं। हमारे बाज़ारों की बहुत परवाह करता नहीं तो उसे पशुवत कह देते हैं।
और जो सामान्य दुनियादारी के भाव होते हैं और इच्छाएँ होती हैं, वो जब एक कृष्णवत व्यक्ति में जगत नहीं पाता तो कह देता है, 'ये मृतवत है, ये मुर्दा है।' क्यों? क्योंकि जिन बातों पर हम रोने लगते हैं, उनपर ये तो रोता नहीं। हम किन बातों पर रोने लग जाते हैं? हमारा कुछ नुक्सान हो गया, हमारा कुछ अपमान हो गया, हम रोना शुरू कर देते हैं और ये बैठा हुआ है, इसका नुक्सान कर दो, इसका अपमान कर दो, ये रोता ही नहीं तो ये मुर्दा है। उसे कभी कह देते हैं, मृतवत।
हमारी आँखों में जब भी देखो तो कुछ तनाव-सा रहता है, हमारी आँखें हमेशा रोने को तैयार बैठी हैं। हमारी आँखों में एक बोझ है, अतीत की लंबी छाया है, भविष्य के प्रति आग्रह है और इसकी आँखों में देखो तो क्या है? जैसे कुछ नहीं है, खाली आकाश है। वो खाली आकाश बहुत सुंदर है, पर सांसारिक आदमी को डरा देता है, सांसारिक आदमी के लिए भयावह है। क्योंकि वो जब आपकी आँखों को देखे तो कुछ देखना चाहते हैं, कोई भाव तो हो। कभी उनको चाहिए कि आपकी आँखों में आसक्ति दिखाई दे, कभी मोह दिखाई दे, कभी भय दिखाई दे।
आपके सामने दुकानदार खड़ा है, वो आपकी आँखों में झाँककर देखेगा। वो देखना चाहता है लोभ। आपका तथाकथित प्रेमी आपके सामने है, वो आपकी आँखों में झाँककर देखेगा, वो देखना चाहता है मोह या वासना। कोई आपको डरा रहा है, वो भी आपकी आँखों में देखेगा। वो क्या देखना चाहता है? – भय। लेकिन जो कृष्णवत है उसकी आँखों में कुछ दिखाई ही नहीं देता। आप उसकी आँखों में झाँकोगे तो मैंने कहा क्या दिखाई देगा सिर्फ़? निरभ्र आकाश। कुछ भी नहीं है। तो जगत थर्रा जाता है फिर। जगत कहता है, 'ये मर चुका है, इसकी आँखों में कभी कुछ होता ही नहीं। खाली, रिक्त आँखें।‘
अब रिक्तता अध्यात्म में बड़ी सुंदर बात है। रिक्तता का अर्थ होता है शुद्ध होना। रिक्त होने का अर्थ होता है कि जो कुछ भी गंदगी थी उससे रिक्त हो गए, खाली हो गए। पर संसार की दृष्टि में रिक्तता भयावह होती है। एक संसारी को तुम एक रिक्त स्थान दे दो, जैसे एक खाली कमरा, तो वो तुरंत उसको भरेगा। कहेगा, ‘अभी तो इसको भरना है’। उसको नाम देते हैं 'फर्निशिंग' । संसारी के लिए खालीपन माने कोरापन, अधूरापन। वो कहते हैं रिक्तता माने इसमें अभी कुछ भरना शेष है। और अध्यात्म में रिक्तता माने अशेष। अशेष माने कुछ बचा नहीं। क्या नहीं बचा? कचरा नहीं बचा। जहाँ कचरा अब शेष नहीं है, अशेष, वो रिक्तता है। बात समझ में आ रही है?
देखो, एक-एक श्लोक बहुत दूर तक जाता है। एक-एक श्लोक ऐसा है जिस पर एक पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है। एक सम्पूर्ण भाष्य का अधिकारी है एक-एक श्लोक। उतनी हम साधारण लोगों में क्षमता नहीं। लेकिन फिर भी हम अपने ऊपर इतना तो उपकार करें ही कि किसी भी श्लोक को साधारण या हल्का समझकर के जल्दी से आगे न बढ़ जाएँ। हर श्लोक बहुत दूर तक जाता है, बहुत आगे की बात करता है। हर श्लोक उसी की तो छाया है न जिससे आ रहा है। जब कृष्ण से आ रहा है हर श्लोक तो उसमें कृष्ण-सी ही गहराई होगी, उसको समझो, उसके साथ समय बिताओ, उसपर ध्यान दो।
ये समझ में आया कि कृष्ण यहाँ पर क्या कह रहे हैं? कृष्ण यज्ञ का जो सबसे बड़ा उदाहरण हो सकता है वो बता रहे हैं अर्जुन को। क्या? ये सब यज्ञ है। ये बस कोई बैठकर के करे जा रहा है। क्यों करे जा रहा है, वो हमारी बुद्धि में नहीं आता। हम कहते हैं कि हम तो इधर को भी हाथ बढ़ाते हैं तो कोई वजह होती है। वजह नहीं होती तो हम हाथ न बढ़ाएँ किधर को, इतना-सा कुछ न करें।
और कोई पूरे ब्रह्माण्ड का संचालन कर रहा है, बिना किसी इच्छा के? उसे मिलना क्या है? उसे कुछ नहीं मिलना है, उसकी मौज है। क्या तुम इसी तरह जी सकते हो, बस मौज के लिए? और वो भी मौज पाने के लिए नहीं, ऐसा नहीं कि करने के बाद मौज मिलेगी; मौज पहले से है। वो अप्रायोरी है, बेशर्त है, सतत है, करके नहीं मिल रही है। आप कुछ करके मौज पाते हो। कृष्ण मौज में हैं इसलिए कर रहे हैं।
अंतर नहीं समझ में आ रहा? आप कुछ भी करते हो तो इसलिए कि उससे सुख मिलेगा। और कृष्ण कुछ कर रहे हैं इसलिए क्योंकि उनका स्वरूप आनंद है। सुख और आनंद में यही अंतर है। सुख हमेशा किसी शर्त के साथ आता है। सुख के साथ हमेशा कोई उपाधि जुड़ी होती है। स्थिति-सापेक्ष होता है, अर्हता दर्शानी होती है। और आनंद? वो किसी कार्य का प्रतिफल नहीं होता। वो किसी स्थिति विशेष तक सीमित नहीं होता। वो आपकी स्थिति-निरपेक्ष आंतरिक दशा होती है। सुख आपके सकामकर्मों का अपेक्षित फल होता है। ठीक? सकामकर्मों का अपेक्षित फल सुख होता है और आनंद से सारे निष्कामकर्म उठते हैं। आनंद पहले है फिर उसके बाद निष्कामकर्म आएगा। सुख में पहले सकामकर्म आएगा और उससे आशा रहेगी कि सुख आएगा।
दोनों की प्रक्रिया बिलकुल उलट है। सुख में पहले क्या आती है? – आशा। कहते हो, 'आशा है।' उस आशा से क्या उठता है? – कर्म। और उस कर्म से उम्मीद रहती है कि? आशा से भी पहले क्या है? अज्ञान। क्या अज्ञान? कि ‘मैं आनंदित नहीं हूँ, मुझे आनंदित होना है’। पहले आप ये मानोगे न कि आप दुख में हो, तभी तो आप सुख की चाह करोगे? तो सर्वप्रथम आत्मज्ञान का अभाव, सर्वप्रथम अपने ही प्रति अज्ञान।
व्यक्ति कहता है, 'मैं वो हूँ, जो दुखी है।' अब आप स्वयं को जानते नहीं इसीलिए आपने अपना नाम ही क्या रख दिया है? – ‘मैं दुखीमल हूँ’। अब दुखीमल कहते हैं कि, 'मैं दुखीमल हूँ तो इसलिए मुझे सुखी होना है।' तो सुखी होने के लिए कुछ हाथ-पाँव चलाएँगे और क्या करेंगे वो? जो उनके बस में होगा वो करेंगे। तो क्या करते हैं वो? वो कुछ कर्म करते हैं, और उस कर्म से आशा करते हैं कि सुख आएगा – ये सुख की पूरी प्रक्रिया है।
आनंद की प्रक्रिया इसके बिलकुल विपरीत है। निःसृत प्रक्रिया है वो। उसमें आनंद है, बस है। क्यों है? अकारण है, अजन्मा है, स्वरूप है, सच्चिदानंदघन, है! ‘अरे! कोई वजह तो होगी न, इतने आनंदित क्यों हो?’ वजह बता पा रहे हो तो फँस जाओगे क्योंकि वजहों का भरोसा नहीं। वजह आज है, कल नहीं। तुम बेवजह आनंदित रहना, वही आनंद है, नहीं तो नहीं है। लेकिन हम सर खुजाने लग जाते हैं। तो वो कहते हैं, 'पगला गए हो क्या? कोई वजह नहीं है तो इतने उड़े-उड़े काहे फिर रहे हो?’ वजह नहीं है इसीलिए तो उड़े-उड़े फिर रहे हैं, जिस दिन वजह आ गई उस दिन तुम्हारी ही तरह भारी हो जाएँगे। कोई वजह नहीं है। ये जो बेवजह होना है, यही कृष्णत्व का मर्म है। बेवजह हस्ती, अकारण अस्तित्व, अस्तित्व-मात्र, बेशर्त, अविशिष्ट, साधारण।
जैसे कोई अजनबी मिल गया हो सड़क पर और मुस्कुरा दिए। न नाम जानते, न पता, न कोई उम्मीद कि अगले पल भी उससे कोई सम्बन्ध रहेगा। वो अपनी दिशा जा रहा है, तुम अपनी दिशा जा रहे हो और दोनों एक-दूसरे को देखे और मुस्कुरा दिए। झलकियाँ तो मिलती ही रहती हैं न? हम पूरी बात नहीं देख पाते, हम झलक पर से पूरा पर्दा उठा नहीं पाते। जिसकी झलक मिलती है उसके प्रति इतना प्यार नहीं दर्शा पाते कि उसका पूरा ही दर्शन कर लें।
बेवजह मौज, जैसे सागर का लहराना। क्या मिल रहा है उसको? पानी ही तो है। कुछ बदल जाता है लहर टूटती है तो? कुछ नहीं बदलता। कोई लाभ? मौज है। उसका तो नाम ही मौज होता है। लहर को मौज बोलते हैं, वो मौज है। और मौज के बिना कैसा होगा सागर? जैसे हमारा मुँह है (हँसते हुए)। सागर है पूरा, मौज कहीं नहीं। देखो, मौज होगी न अगर तो बिना बात की ही होगी। वजह ढूँढोगे कि मौज के लिए कोई वजह मिल जाए, कि कुर्ता नया खरीदेंगे तब आएगी मौज, तो फिर तो तुम भूल जाओ कि कभी मौज आने वाली है। कुर्ता माने पूरा संसार। कुर्ते में सबकुछ आ जाता है। तुम्हारी सारी आकांक्षाओं का प्रतीक कुर्ता।
किसी भी चीज़ से तुमने जोड़ दिया अपनी मौज को तो मौज को तुमने जीवन से निष्कासित कर दिया। अब नहीं आने की। कृष्ण करे ही जा रहे हैं। इस क्षण भी हवा बह रही है, क्यों बह रही है? प्रकृति है ही क्यों? और प्रकृति माने निरंतर गतिशीलता। ये सब क्यों चले जा रहा है? किसको क्या मिल रहा है?
जितनी देर हमने बात की उतनी देर में घास के तिनके से लेकर के जितने वृक्ष हैं, वो सब थोड़े-थोड़े और बढ़ गए। बहुत कुछ था जिसने आकार पा लिया और कुछ ऐसा भी है जो था और मिट गया – ये सब हो रहा है।
हममें और उसमें अंतर देखो। हम इतना-सा भी करते हैं तो उसमें लाभ देखते हैं। और वो अनंतकाल से अनंतब्रह्माण्ड को संचालित करे जा रहा है, लाभ कुछ नहीं देख रहा। 'ये यज्ञ है', कृष्ण कह रहे हैं। ये माया भी है। ‘आचार्य जी, आप ही तो कहते थे ये सब जो है चारों तरफ़, ये माया है; अभी आप उसको यज्ञ बोल रहे हैं। कुछ आपको ठीक-ठाक पता है या बस ऐसे ही?’
जब ये सब जो दिख रहा है, ये यज्ञ दिखे तो यज्ञ है। जब ये सब जो दिख रहा है, इसमें लोभ या भय दिखे तो ये माया है।
ये सब जो तुम्हारे चारों ओर है, इसको जब देखो और तत्काल ये कौंध जाए कि ये यज्ञ है, तो ठीक। लेकिन ये सबकुछ देखो और लगे कि नहीं बाज़ार है, सामान है, स्त्री है, पुरुष है, रुपया है, घर है, और चीज़ें हैं, पचास बातें हैं, ऐसे विचार आएँ मन में तब फिर ये यज्ञ नहीं है। तब तुम्हारे लिए ये सब माया है। तो ये यज्ञ भी है और ये माया भी है, निर्भर इसपर करता है कि तुम कहाँ बैठे हो। तुम पर निर्भर करता है। आमतौर पर हम जहाँ बैठे होते हैं वहाँ ये यज्ञ नहीं होता, वहाँ ये माया होता है। इसलिए वेदान्त इसको माया कहता है।
पर अभी बात करने वाले कौन हैं? मायापति। अभी जो बात कर रहे हैं वो योगेश्वर हैं। तो उनको ये अधिकार है कहने का कि, 'अर्जुन बेटा! माया ये तुम्हारे लिए है। मैं जहाँ से देख रहा हूँ वहाँ से ये सब यज्ञ है।' अब विकल्प है तुम्हारे पास भी इसको अपने लिए क्या बना लेना है। उपनिषद् कहते हैं इससे ऊँचा कोई स्वर्ग दूसरा नहीं, यही ब्रह्माण्ड, इसी में तुम्हारा जीवन। इससे बड़ा स्वर्ग दूसरा नहीं और इससे ज़्यादा पीड़ादायक और गर्हित नर्क भी दूसरा नहीं।
तो ये क्या है, स्वर्ग है या नर्क है? निर्भर करता है तुम कौन हो। इसीलिए वेदान्त का यही केंद्रीय प्रश्न है – 'मैं कौन हूँ।' क्योंकि 'मैं कौन हूँ' उसी से सब तय हो जाता है, सब। आ रही है बात समझ में कुछ?