प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। पिछले तीन वर्षों से आपको सुन रहा हूँ, और श्रीमद्भगवद्गीता के विषय पर भी काफ़ी सुना है। काफ़ी स्पष्टता मिली है। भगवान! अब जैसे आपकी सीखों में एक बात मैंने एकदम लगातार देखी है तीन वर्षों से। आप ये कहते हैं कि जो चल रहा है तुम्हारे जीवन में, तुम जो कर रहे हो उसको देखो। तुम्हारा ज्ञान कुछ काम नहीं आना। ज्ञान तभी काम आएगा जब तुम अपने जीवन में उसे उतार लोगे। भगवान ने गीता में एक जगह पर कहा है:
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन। ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ।।३.३७।।
जैसे प्रज्जवलित अग्नि ईन्धन को भस्मसात् कर देती है, वैसे ही, हे अर्जुन! ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्मसात् कर देती है।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४, श्लोक ३७
तो मैं ये जानना चाहता हूँ कि ज्ञान कैसे काम नहीं आएगा? क्योंकि ज्ञान तो हर जगह काम आ ही रहा है, मैं ये भी देखता हुआ चल रहा हूँ।
दूसरी एक और बात मैं क्षमा के साथ पूछना चाहूँगा आपसे, कि जैसे वेदान्त अपना इष्ट ग्रंथ भी है और उपनिषदों का जो मूल सिद्धांत है, वो तो ब्रह्मवाद ही है। शंकराचार्य जी में और भगवान बुद्ध में जो मतभेद था – भगवान बुद्ध ने किसी अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया, लेकिन शंकराचार्य जी ने कहा कि बौद्ध जिस शून्यता में चले जाते हैं, उस शून्य को जानने वाला मौजूद है कोई।
तो आपके सभी वीडियोज़ में मैं जितना भी समझ पा रहा हूँ, उसमें मुझे ये स्पष्टता मिल नहीं पा रही है। अब जैसे गीता में ही भगवान ने कहा है कि ज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ है, कर्म तो एक दुराचारी का और एक सदाचारी का एक जैसा ही दिखेगा। लेकिन उसमें अंतर तो यही होगा कि ज्ञान जिसके पास है वो ज्ञान से उसे देखकर उस कर्म से भी मुक्त है।
आचार्य प्रशांत: आप गीता श्रृंखला में साथ हैं?
प्र: जी नहीं।
आचार्य: तो इसीलिए सारी समस्या हो रही है न। कर्म और ज्ञान एक हैं, इसपर हमने कम-से-कम दस से पन्द्रह घंटे चर्चा करी है। कर्म और ज्ञान अलग-अलग नहीं हो सकते, और इसीलिए श्रीकृष्ण निष्कामकर्मयोग को सर्वश्रेष्ठ बताते हैं। क्योंकि निष्कामकर्म बिना आत्मज्ञान के संभव ही नहीं है।
आत्मज्ञान आपको बताता है कि आप वृत्तियों के, गुण-दोषों के, अहंकार के पुतले मात्र हो। तो फिर अपने लिए कोई कामना करना व्यर्थ हो जाता है, तब आप निष्काम हो पाते हो। तो ज्ञान और निष्कामकर्म एक ही चीज़ है।
फिर आप कह रहे हो कि 'ज्ञान की अग्नि ही सब तरह के बंधनों को भस्म कर देती है।' आप एक बात बार-बार भूल जाते हो, प्रश्न के उत्तरार्ध-पूर्वार्ध दोनों में भूले हो – 'किसके लिए?'
ज्ञान क्या है? हमारे लिए जो ज्ञान आता है, वो शब्दज्ञान होता है। शब्दज्ञान अपने-आपमें तो चेतना नहीं है न? तो वो शब्दज्ञान किसके लिए है? चेतना के लिए है। क्या दवाई की गोली एक मृत व्यक्ति को फ़ायदा दे सकती है? तो शरीर को तैयार होना चाहिए न उस गोली को पचाने के लिए? इसी तरह से चेतना की सहमति होनी चाहिए। उसको मैं कहता हूँ – इच्छा। अन्यथा ज्ञान कैसे काम आएगा?
छोटे बच्चे होते हैं, उन्हें दवाई कई बार दो तो देखा है क्या शरारत करते हैं? दवाई को यहाँ (मसूड़े में) छुपा लेते हैं। काम आएगी? दे तो दी, अंदर भी चली गई। शरीर के तो अंदर चली ही गई है, काम आएगी क्या? इसी तरीके से हो सकता है आप उसे पेट में भी डाल लें, लेकिन कहा गया है कि दवाई तब ही काम आएगी जब फ़लाना परहेज़ करोगे; दवाई काम आएगी? नहीं आएगी न।
तो ज्ञान से भी ऊपर होती है आपकी इच्छा। उस इच्छा के बिना ज्ञान काम नहीं आता। ये तो छोड़ दो काम नहीं आता, आप ज्ञान का भी दुरुपयोग कर लेते हो। क्योंकि चेतना ही है जो या तो ज्ञान का सदुपयोग करेगी या उसका दुरुपयोग भी कर लेगी।
ज्ञान आपके काम आया है इसका एक ही प्रमाण होता है, ज्ञान को आपने स्वयं से ऊपर रख दिया। माने ज्ञान को आपने जीवन बना दिया, भले ही उसमें कष्ट कितना भी हुआ हो।
आपने कहा, 'मैं जैसा हूँ, मेरे ढर्रे जैसे हैं, उससे ऊपर ज्ञान है, अब उसको जीना है।’ सिर्फ़ कोई मौखिक आदर नहीं व्यक्त कर देना है, उसको जीना है। अगर ज्ञान व्यर्थ की चीज़ होता, तो मैं उपनिषद्-उपनिषद् क्यों करता भाई? अगर ज्ञान व्यर्थ की चीज़ होता तो मेरे सामने श्रीमद्भगवद्गीता अभी क्यों उपस्थित होती?
ज्ञान व्यर्थ नहीं है, लेकिन ज्ञान एक स्तर पर विवश हो जाता है। अहंकार को एक बड़ी विचित्र, बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण शक्ति मिली हुई है, क्या? चुनाव की। ज्ञान को भी प्रतीक्षा करनी पड़ती है कि अहंकार उसका चुनाव करे। और अगर अहंकार उसका चुनाव नहीं कर रहा है तो ज्ञान बेबस रहेगा।
पहली बात तो अहंकार उसका चुनाव करे और दूसरी बात सही चुनाव करे, माने सही नीयत से। सही नीयत से अगर ज्ञान नहीं पकड़ा तो वो रावण का ज्ञान बन जाएगा। रावण को महाज्ञानी क्यों बोलते हो? अगर ज्ञान अपने-आपमें सबकुछ कर देता, तो रावण रावण क्यों होता? तो ज्ञान बहुत ऊँची चीज़ है, लेकिन उससे भी ऊँची चीज़ है नीयत। उसको मैं बोलता हूँ –सत्यनिष्ठा, इरादा। इरादा क्या है? चाहते क्या हो? इच्छा क्या है? सत्य के प्रति निष्ठा है भी कि नहीं? नहीं तो काम नहीं चलेगा।
ठीक है?
और दूसरी बात क्या बोली थी? हाँ! ये जो शंकराचार्य और महात्मा बुद्ध का भी पूरा विवाद है, इस विवाद में वेदान्त की ही मूल बात का विस्मरण हो जाता है। ये सारी बात किसके लिए है? एक पक्ष बोल रहा है, ‘ब्रह्म है’। एक पक्ष बोल रहा है, ‘शून्य है’। मैं दोनों से पूछ रहा हूँ, किसके लिए? जो जैसा है, उसके लिए सत्य वैसा ही है।
जब बुद्ध कह रहे हैं शून्य, तो उससे उनका आशय है कि सच्चाई, संसार जैसा तुम समझते हो वैसा नहीं है, शून्य है। बस, ये है। वो निषेध का, नकार का मार्ग है। तो जब शून्य कह रहे हैं, तो बिलकुल ठीक कह रहे हैं। जिन्होंने दिमाग में बहुत कुछ भर रखा हो, उनको तो यही कहना होगा न, ‘शून्य करो’? और ज़्यादातर लोग ऐसे ही होते हैं जो भरे बैठे होते हैं, उनको ये कहना ही ज़्यादा उपयोगी है कि शून्य करो।
जो भरे बैठा है, उसको तुम बोल दोगे 'ब्रह्म करो’, तो वो क्या करेगा? वो जो भरे बैठा है, उसको ही 'ब्रह्म' का नाम दे देगा या फिर जो भरे बैठा है, उसके ऊपर एक सिद्धांत और डाल देगा, कह देगा, 'ब्रह्म'। यही वजह थी कि महात्मा बुद्ध की बात को इतनी सफलता मिली।
सफ़ाई करना ज़्यादातर लोगों के लिए ज़्यादा उपयोगी हो जाता है। जितनी भी आध्यात्मिक दवाएँ हैं, वो वास्तव में शून्य करने का ही काम करती हैं। और शून्यता वेदान्त के मूल सिद्धांतों में से है, कोई नयी बात नहीं हो गई वो।
नेति-नेति माने क्या? शून्य करो। और क्या! हटाओ! यही तो है शून्य करना। जिसको तुम कोई सत्यता दिए बैठे हो, जिसको तुम कोई भौतिक उपस्तिथि, कोई प्रामाणिकता दिए बैठे हो, उस सब से अपने विश्वास को वापस खींच लो – ये शून्यता है। जिसको तुम 'मैं' समझे बैठे हो, उसको जान लो वो 'मैं' नहीं है। जिसको आत्म कहते हो, उसको जान लो कि अनात्मा है। जिसको संसार कहते हो, जान लो कि मिथ्या है – ये है शून्यता।
तो आचार्य शंकर जो कह रहे हैं, महात्मा बुद्ध जो कह रहे हैं, उसमें कोई मूल भेद नहीं है। ग़लती ये होती है कि हम समझते ही नहीं कि जो विवाद चल रहा है या जो चर्चा चल रही है, वो वस्तुगत नहीं है बाबा; वो अहंकार के लिए है। जैसे ही इस बात को याद करोगे वैसे ही तुम कहोगे, 'अरे! ये तो कोई विवाद है ही नहीं।' याद नहीं करोगे तो बहुत भारी विवाद दिखाई देगा, कि एक कह रहे हैं 'पूर्ण ब्रह्म' और एक कह रहे हैं 'शून्य', ये तो बिलकुल दो विपरीत ध्रुवों की बात हो गई। कोई विपरीत ध्रुवों की बात है ही नहीं।