निरहंकारिता नहीं, निर्ममता || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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निरहंकारिता नहीं, निर्ममता || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

आचार्य प्रशांत: कल (पिछला सत्र) क्या कह रहे थे कृष्ण?

‘प्रकृति के तीन गुण हैं और उन्हीं से सारा संसार चल रहा है; मेरे भी विचार, कामनाएँ, भावनाएँ – सब वहीं से आती हैं। लेकिन व्यक्ति झूठ-मूठ का कर्तृत्व धारण करे रहता है, ये कहकर कि मैं कर्ता हूँ। यही कर्तृत्व सारे दुख का कारण है।‘ आप अंतर ही नहीं कर पाते हैं आत्मा में और प्रकृति में, आप प्रकृति को ही आत्मा समझ लेते हैं। जो काम प्रकृति कर रही है, आप उसके साथ 'मैं' जोड़ देते हैं; जहाँ 'मैं' जोड़ दिया, वहाँ आत्मा आ गई।

ग़लत 'मैं' को जोड़ देना ही अहंकार है, अन्यथा 'मैं' में कोई बुराई नहीं। 'मैं' यदि आत्मासूचक हो तो 'मैं' बिलकुल ठीक है; दिक्क़त तब हो जाती है जब आप 'मैं' जोड़ देते हो प्रकृति के साथ।

फिर,

प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ा: सज्जन्ते गुणकर्मसु । तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ।।३.२९।।

प्रकृति के गुणों से मोहित लोग त्रिगुण के अर्थात् देहेन्द्रियादि के कर्मों में आसक्त होकर के पड़े रहते हैं, और ऐसे अज्ञानियों में बुद्धिभेद मत पैदा करो।

~ श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ३, श्लोक २९)

'प्रकृति के गुणों से मोहित लोग, त्रिगुण के अर्थात् देह-इंद्रिय आदि के कर्मों में आसक्त होकर के पड़े रहते हैं, और ऐसे अज्ञानियों में,' कृष्ण कह रहे हैं, 'अर्जुन, बुद्धि-भेद मत पैदा करो।'

‘क्योंकि उनको तो सही कर्म से बचने का कोई बहाना चाहिए। अहंकारी हैं, सही कर्म करेंगे (तो) अहंकार टूटेगा; उससे बचने के लिए वो बहुत जल्दी तुम्हारा उदाहरण ले लेंगे। वो कहेंगे – इन्होंने युद्ध नहीं किया, अपना कर्म नहीं कर रहे, हम भी कर्म क्यों करें? तो अर्जुन, जो तुम सोच रहे हो वो करने से अपना तो व्यक्तिगत नुकसान करोगे ही, ये जो समस्त जनता है, इनके समक्ष भी ग़लत उदाहरण प्रस्तुत करके सबका ही नाश करोगे।‘

अब आगे की बात, तीसवाँ श्लोक:

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा । निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ।।३.३०।।

विवेक बुद्धि द्वारा समस्त कर्म तथा कर्मफल मुझ परमेश्वर में अर्पित करके निष्काम, ममता-रहित और शोक-शून्य होकर तुम युद्ध करो।

~ श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ३, श्लोक ३०)

इसमें तीन-चार शब्द ऐसे हैं जो जब मैंने पहले-पहल गीता पढ़ी थी तो मुझ पर छप गए थे, इसी तीसवें श्लोक में। और बस वो शब्द ही जैसे अपनेआप में पर्याप्त हैं – ‘निराशी’, ‘निर्मम’, ‘विगतज्वर’, ‘युध्यस्व'।

आशा छोड़ दो कि क्या मिलेगा, क्या नहीं मिलेगा। निराश हो जाओ, निर्मम हो जाओ, विगतज्वर हो जाओ, बस लड़ो। युध्यस्व! युध्यस्व! युध्यस्व! बस लड़ो!

‘विगतज्वर’ माने जो कामनाओं का ताप है, ज्वर है, उसको पीछे छोड़ो। ये जो भीतर भविष्य को लेकर के और अपनी सुरक्षा को लेकर के पुलक उठती रहती है, उसको छोड़ो; ज्वर से आगे निकल जाओ।

‘निर्मम’ माने? कुछ सोचोगे तुम्हारा है तो डर जाओगे, लड़ोगे कैसे? कुछ अगर तुम्हारा है (तो) युद्ध में छिन जाएगा ऐसी कल्पना उठेगी। जो अपना कुछ मानता है वो जीवन के सही युद्ध में बहुत आगे तक लड़ नहीं पाएगा। जो तुम्हारे सामने है प्रतिद्वंद्वी, वो भी तुम्हारी कमज़ोरियों को बख़ूबी समझता है; वो भी इसी टोह में है कि तुम किससे तार बाँधे हुए हो, कौनसी चीज़ को अपना मानते हो। जो कुछ भी तुम अपना मानते हो, वही तुम्हारी कमज़ोरी है, क्योंकि वहीं पर चोट करके तुमको नियंत्रित किया जाएगा, दास बनाया जाएगा।

होगा जादूगर बड़ा बलवान, पर जान तो उसकी एक छोटी-सी मैना में है न? जादूगर से नहीं लड़ा जा सकता, पर अगर उसने मैना से मोह जोड़ लिया है तो मैना को मरोड़कर पूरे जादूगर को ख़त्म कर दिया जाएगा।

जहाँ कहीं भी तुमने ममता का सम्बन्ध बना लिया, ठीक वहीं पर मार खाने वाले हो। माया भलीभाँति जानती है किसको कैसे काबू में करना है। तुमको काबू करने के लिए बिलकुल उसी का इस्तेमाल किया जाएगा जिसके साथ कहते हो 'मम्'।

आप ग़ौर करिएगा कि कृष्ण अर्जुन को निरहंकार होने के लिए शायद कहीं पर भी नहीं कहते, निर्मम होने के लिए बार-बार कहते हैं। क्योंकि अहंकार तो वैसे ही बड़ी बेबस-सी चीज़ है! अहंकार एक तरह से बस एक धुँधली छाया है, एक शब्द है, एक सिद्धांत है, एक परिभाषा है, कॉन्सेप्ट (अवधारणा) भर है, वरना अहंकार कुछ नहीं है। असली चीज़ वो विषय है जिस पर जाकर के अहंकार टिकता है; वो जो विषय है, ऐसे कह दीजिए जैसे वही जन्म देता हो अहंकार को। ये बात शास्त्रीय तौर पर सही नहीं है, पर इससे आपको समझने में मदद मिल जाएगी।

आप अहंकार से सीधे नहीं लड़ सकते क्योंकि वो एक सिद्धांत-भर है, अहंकार के विषय को अगर छोड़ दो तो अहंकार अपनेआप गिर जाता है। अहंकार से लड़ना वैसा ही है जैसे छाया से लड़ना। एक खंभा खड़ा है, आप उसकी छाया को पीट रहे हैं, क्या होगा? आप पीटते-पीटते गिर जाएँगे, छाया अपनी जगह पड़ी रहेगी; अहंकार ऐसा है। हाँ, खंभा हटा दो। अब, खंभा स्थूल विषय है, खंभे को हटाया जा सकता है। खंभे पर ध्यान नहीं दे रहे, छाया से लड़ रहे हैं, कुछ पाएँगे नहीं। खंभे को हटा दीजिए, छाया अपनेआप हट जाएगी।

यही विज्ञान कृष्ण भलीभाँति समझते हैं, इसीलिए निरहंकार होने को नहीं कह रहे हैं, निर्मम होने को कह रहे हैं – ‘खंभा हटा दो।‘ जिससे जुड़े हो उसको हटा दो, निरहंकार अपनेआप हो जाओगे। जुड़ने की अपनी वृत्ति पर अंकुश लगाओ, अहंकार अपनेआप हटेगा। अहंकार जब नहीं पाता कुछ जुड़ने को, समझ जाता है साफ़-साफ़ कि खाने-पीने के लिए कोई भोज्य पदार्थ मिलेगा ही नहीं, तो अपने में वो फिर सिकुड़ने लग जाता है, बेबस हो जाता है; और तब लाचारी में आत्मा ही बन जाना उसके लिए आसान हो जाता है।

और बहुत भूल करते हैं वो लोग जो अहंकार के विषयों के मध्य रहते हुए बस अहंकार को हटाने की कोशिश करते रहते हैं; वो हो नहीं पाएगा। और विशेषतया पिछले सौ साल में इस तरह की सीख बहुत दी गई है कि अहंकार के जितने विषय हैं उनमें कोई ख़राबी नहीं है। ‘रुपया-पैसा, प्रतिष्ठा, लोग – जिनसे तुम जुड़े हुए हो, जिन भी चीज़ों का शौक या चस्का लगा हुआ है, वो सब अपनी जगह रहने दो, बस भीतर से निरहंकारी हो जाओ।‘ – कृष्ण ऐसा नहीं कह रहे, कृष्ण को पता है ऐसी चीज़ काम करेगी ही नहीं।

ये तो ख़ुद को धोखा देने का तरीका है कि अगर दुकान में जाकर बैठते हो तो दुकान पहले की तरह चलती रहे, हाँ, तुम भीतर से निरहंकारी हो जाओ। कृष्ण जानते हैं ऐसा हो नहीं सकता। जब तक कुछ मौजूद है ऐसा जिसको 'मम्' कहने में तुम सुख का अनुभव करते हो तब तक अहम् भी बना ही रहेगा। तो विषय-त्याग के बिना काम चलेगा नहीं।

लेकिन आज का युग विषयों की अधिकता का है, विषय-ही-विषय हैं चारों ओर। औद्योगिक-क्रांति का और मतलब क्या है? कि एक-के-बाद-एक ऑब्जेक्ट्स (वस्तु) तैयार किए जाएँगे, और इतने ज़्यादा जितने इतिहास में कभी नहीं किए गए। फैक्ट्रियाँ और क्या करतीं हैं? विषयों का ही तो उत्पादन करतीं हैं। अब विषय हैं, विषय हैं और एक-से-बढ़कर-एक सनसनीखेज़, आकर्षक विषय हैं, बिलकुल वो आपको लुभा लेते हैं, खींच लेते हैं अपनी ओर। तो फिर इसलिए आजकल इस तरह के दर्शन की बड़ी ज़रूरत आ गई कि विषयों से घिरे रहो पर भीतर, बीच में ही बैठकर विषयों के निरहंकारी हो जाओ; पर ऐसा हो नहीं सकता।

दूसरी बात, अगर ऐसी बात बोलो तो ग्रहण भी ज़्यादा आसानी से कर लेते हैं लोग; सरल है न, करने में आसान है। आप से कहा जाए कि आपकी जितनी व्यवस्था चल रही है वैसी ही चलने दीजिए, बस भीतर से आप ठीक हो जाइए। तो आप कहेंगे, ‘ये ठीक है, कोई ख़तरा नहीं लग रहा है इससे’, क्योंकि भीतर से आप ठीक हुए या नहीं हुए इसका प्रमाणपत्र तो आपको ही देना है स्वयं को, दे दीजिए!

भाई, मैं इस माइक के साथ ममत्व रखता हूँ, ठीक? अहंकार का विषय हटाने के लिए जो प्रमाण है वो बड़ा स्थूल है। ये (माइक) हटा या नहीं हटा, बात बिलकुल ज़ाहिर हो जानी है, मैं धोखा नहीं दे सकता; आँखें गवाही दे देंगी कि ये (माइक) जस-का-तस रखा हुआ है और मैंने इसको ऐसे पकड़ रखा है। हाँ, भीतरी बात करने लग जाइए तो धोखा देना आसान हो जाता है। आप कह दीजिए, ‘नहीं, इसका (माइक) क्या है! ये तो जैसा है पड़ा रहे, हम भीतर से निरहंकारी हो गए।’ अब ठीक है, अब आसानी है, सुविधा हो गई न? अहंकार को सुविधा हो गई। तो आजकल इस तरह की बातें खूब चलतीं हैं।

कृष्ण कह रहे हैं, ‘नहीं, ऐसे नहीं। ममत्व को हटाए बिना बात बनेगी नहीं।‘

निरहंकारी तो अर्जुन पहले ही अध्याय में हुए जा रहे हैं, वो कह रहे हैं, ‘मैं निरहंकारी हूँ, मुझे अपने लिए कुछ चाहिए ही नहीं। ये सिंहासन और ये सब रुपया-पैसा-संपत्ति, ये इन्हीं लोगों को मुबारक हो, कौरवों को; मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं निरहंकारी हूँ। मैं तो जंगल में कहीं कुटिया डालकर पड़ा रहूँगा, मुझे कुछ चाहिए ही नहीं कृष्ण।’ और कृष्ण मुस्कुरा रहे हैं और कह रहे हैं, ‘इतना ममत्व और साथ में निरहंकारिता का दावा! वाह अर्जुन वाह! ममता इतनी है कि सामने जो खड़े हुए हैं तुम्हारे, जिनको बोलते हो मम् भ्राता, मम् पितामह, इनसे युद्ध नहीं कर सकते तुम, ऐसा ममत्व है, लेकिन दावा निरहंकार होने का है।‘

एक-एक बात जो अर्जुन की है, वो वैसी ही है जैसी आजकल सिखाई जाती है, समकालीन अध्यात्म में, कि जहाँ जो है रहने दो, उसके मध्य रहते हुए भी बस तुम उससे अछूते रहे आओ। ये बात कविता में अच्छी लगती है, लेकिन ये बात व्यवहार में स्वयं को धोखा देने के बराबर है।

मैं इसीलिए इतनी बार बोलता हूँ कि जो लोग भीतर बदलाव लाना चाहते हैं और बाहर के बदलाव से डरते हैं वो कुछ नहीं पाएँगे। आप अगर कहें कि आपकी बाहर की व्यवस्था वैसी ही चलती रहे जैसी थी – घर-द्वार, दुकान, दफ़्तर, मोहल्ला, माहौल, संगति, वो सब वैसी ही रहे जैसी पहले थी, लेकिन भीतर-ही-भीतर आपमें बड़ी आध्यात्मिक क्रांति आ जाए; तो ऐसा संभव नहीं है भाई। आप यहाँ से वापस जाकर अपने पुराने ही ढर्रों में समायोजित हो जाते हो, और सोचते हो, ‘भीतर-ही-भीतर तो मैं लड्डू चख ही रहा हूँ न, किसी को बताऊँगा ही नहीं! बाहर-ही-बाहर मैं वैसा ही व्यवहार आदि करूँगा जैसा पहले किया करता था, पर भीतर-ही-भीतर मुझे गीता मिल गई है, कृष्ण हैं, तो मेरा तो काम हो गया।‘

ये फिर कह रहा हूँ, ये ख़ुद को धोखा दिया जा रहा है। भीतरी बदलाव बाहरी बदलाव के बिना कोई अर्थ नहीं रखता, बिलकुल कोई अर्थ नहीं।

आपको कोई व्यक्ति मिलता है जो कहता है कि ‘मैं अब मोक्ष पद पा चुका हूँ।‘ आप पूछें, ‘तो उससे तुम्हारे जीवन में क्या बदलाव आया?’ और वो बोले, ‘कुछ भी नहीं, बस भीतर-भीतर मोक्ष आ गया।’ तो मैं कहूँगा किसको बुद्धू बना रहे हो? या ख़ुद ही बुद्धू हो?

एक कहानी चलती है खूब, तो मुझे भी वो कहानी सुनाई किसी ने, पहले भी पढ़ ही रखी थी। वो बोले कि एक कोई ज़ेन साधक था, उसको बोध प्राप्त हुआ। तो किसी ने उससे पूछा, ‘बोध पाने से पहले तुम क्या करते थे?’ तो बोला, ‘मैं जंगल जाता था, लकड़ियाँ काटता था, उसके बाद बीनता था, गट्ठर बनाता था और घर ले आता था। ये मेरा जीवन था निर्वाण पाने से पहले।‘

बोले, ‘अच्छा! अब निर्वाण मिल गया है, अब आपका जीवन कैसा है?’

बोला, ‘अब मैं जंगल जाता हूँ, लकड़ी-टहनी काटता हूँ, फिर बीनता हूँ, गट्ठर बनाता हूँ, सिर पर रखता हूँ और घर ले आता हूँ।‘ और ये कहानी यहीं समाप्त हो जाती है।

तो जो ये कहानी सुना रहे थे, उनके कहने का अर्थ ये था कि जीवन में परिवर्तन लाना थोड़े ही ज़रूरी है, मोक्ष तो एक छुपी-छुपी, चुपचाप भीतर घटने वाली अदृश्य घटना है, वो हो जाती है; बाहर-बाहर जीवन यथावत चल सकता है, पूर्ववत्, जैसा चलता था।

मैंने कहा, ‘अच्छा! और अगर मोक्ष से पहले वो व्यक्ति कहता है कि मैं जंगल जाता हूँ, वहाँ आते-जातों को लूटता हूँ, दो-चार का क़त्ल करता हूँ और सब लूटा हुआ माल घर ले आता हूँ, तो क्या वो मोक्ष के बाद भी यही करता रहता?’ तो वो थोड़ा निरुत्तर हो गए।

मैंने कहा, ‘ऐसे नहीं होता भाई कि जो पहले चल रहा था वही बाद में भी चलता रहेगा।‘ या वो व्यक्ति कहता कि पहले मैं बूचड़खाना चलाता था, फिर निर्वाण प्राप्त हो गया। अब निर्वाण प्राप्त होने के बाद भी क्या बूचड़खाना ही चलाओगे! तो ऐसा नहीं हो सकता। लेकिन ये सुनने में कहानी बड़ी आकर्षक लगती है, और समकालीन गुरुओं ने इस कहानी को बेचा भी खूब है – ‘पहले भी मैं लकड़ी बीनता था, अब भी मैं लकड़ी बीनता हूँ, बस भीतर-भीतर कुछ हो गया है।‘

ये नहीं होता कि भीतर-भीतर हो गया है। और किसको पता है कि भीतर-भीतर हो गया है? कोई एक्स-रे, एमआरआई. या सीटी स्कैन कुछ होता है कि भीतर-भीतर? या तुम ही गवाही दे दोगे ख़ुद ही, निर्णय भी कर लोगे, कि हो गया भीतर-भीतर? हम भी तो देखें भीतर-भीतर, क्या है भीतर? उसका कोई प्रमाण तो दिख नहीं रहा, और तुम्हारे जीवन को देखकर भी कुछ प्रतीत तो हो नहीं रहा भीतर-भीतर; बाहर से सब मामला वैसे ही चल रहा है।

समझ में आ रही है बात?

निर्मम होने का अकाट्य प्रमाण मिल जाता है, जिसके सामने आपको बेबस होना पड़ता है, वहाँ झूठ बोलना थोड़ा मुश्किल है। निरहंकार होने का कोई प्रमाण तो होता नहीं स्थूल, तो वहाँ आदमी ख़ुद को ही धोखा दे देता है। बोलता है, ‘कोई मेरा अहंकार नहीं है, कुछ नहीं। मेरा तो हो गया, ब्राह्मी स्थिति में बैठे हैं।‘

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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