नैश्वर्य में ऐश्वर्य || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

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नैश्वर्य में ऐश्वर्य || आचार्य प्रशांत (2016)

प्रश्नकर्ता: शरीर और संसार की नश्वरता को जानने के बाद भी मन सांसारिक मूल्यों में, सांसारिक सुखों में क्यों लिप्त रहता है? क्या कुछ ऐसा है जिसे आत्मा जान ले? कोई ऐसा अनुभव है जो आत्मा को हो सके जिससे वो सांसारिकता से अलिप्त हो जाए?

आचार्य प्रशांत: जिसे तुम नश्वरता कह रहे हो, जिसे तुम नैश्वर्य कह रहे हो, वही ऐश्वर्य है। ऐश्वर्य मतलब समझते हो? ऐश्वर्य मतलब भरापन। ईश्वर से सम्बन्ध है ऐश्वर्य का। जिसे तुम संसार कह रहे हो, सत्य उसके अलावा कुछ नहीं है।

समझना पड़ेगा इस बात को।

एक तथ्य है कि शरीर को चले जाना है कि जीवन मरणधर्मा है कि शरीर-संसार इनमें कुछ भी शाश्वत नहीं है। ये तथ्य है। इससे निष्कर्ष क्या निकाल लिया तुमने? इससे निष्कर्ष ये निकाल लिया कि संसार का बहिष्कार करो, इससे निष्कर्ष ये निकाल लिया कि शरीर त्याज्य है।

लिप्तता से तकलीफ़ है तुमको। लिप्तता समझते हो न? आसक्ति। अपने ऊपर कुछ लेपित कर लेना। अपने ऊपर लेप का आवरण चढ़ा लेना यही लिप्तता है। क्यों चढ़ा लेता है अपने ऊपर कोई आवरण? क्यों लिप्त हो जाता है? क्यों और की माँग करता है? क्यों कहता है कि जो है वो काफ़ी नहीं? आसक्ति का अर्थ ही यही है कि ‘इतना सा हूँ मैं किसी और चीज़ से जुड़ जाऊँ। एक गठबंधन हो जाये।’ क्यों कहता है मन कि ‘कुछ और मिल जाये, कहीं लिप्त हो जाऊँ, कहीं आसक्त हो जाऊँ, कुछ आवरण चढ़ा लूँ अपने ऊपर?’ क्यों ऐसी इच्छा करता है?

वो ऐसी इच्छा करता ही इसीलिए है क्योंकि डरा हुआ है, सहमा है कि मिट जाएगा। जिसको वो अपने ऊपर लेप की तरह चढ़ा रहा है, ये कपड़े भी लेप हैं न। जो कुछ भी वो अपने ऊपर धारण कर रहा है, वो कर ही इसीलिए रहा है क्योंकि अपना होना उसे नाकाफ़ी लगता है, अपने होने में उसे सुरक्षा भी नहीं दिखती। कहता है जितना हूँ उतना तो मिट जायेगा, कुछ और पकड़ लूँ जो मिटे न। उससे जुड़ जाऊँ जो मिटने से सुरक्षा दे सके मुझे। जो मेरी नश्वरता से मुक्ति दिला सके मुझे।

ये नतीजा होता है बार-बार ये कहने का कि शरीर रुकेगा नहीं, कि मिट जाएगा संसार। सन्तों ने भी यही कहा है और बार-बार हमें याद दिलाया है कि मृत्यु तथ्य है। पर बड़ा अन्तर है। जब सन्त हमें याद दिलाते हैं, जब कोई कबीर बोलते हैं, जब कोई नानक बोलते हैं तो वहाँ बात दूसरी होती है। वो अमृत पर बैठकर के मृत्यु को देखते हैं। वो वहाँ से मृत्यु को देखते हैं, जहाँ समय ही नहीं है तो मौत कैसी? और हम मृत्यु के बिन्दु पर बैठकर के मृत्यु को देखते हैं और कंपित हो जाते हैं। जब वो कहते हैं कि मौत है तो उनके लिये ये चुटकुला है। जब वो कहते हैं कि मौत है तो वो कहते हैं कि जो मर सकता है उसके लिए मौत है। कबीर कहते हैं, पूरी दुनिया मरने-मरने की बात करती रहती है।

“मरण-मरण सब करें, मरण न जाने कोय, मैं कबीरा ऐसा मरा, दूजा जनम न होय।”

अन्यत्र वो कहते हैं कि “मरना था सो मर गया, अब को मरने जाय।” जिसे मरना था वो तो मर गया, अब मरेगा कौन? समझो बात को। वो ये नहीं कह रहे हैं कि ‘मर जाऊँगा।’ तुम कह रहे हो ‘शरीर मरणधर्मा है ये तो मर जाना है।’ कबीर कह रहे हैं ‘जिसे मरना था वो तो कब का मर चुका, हम अमर हैं, हमें कौन मारेगा?’

“बैद मुआ, रोगी मुआ,मुआ सकल संसार। एक कबीरा ना मुआ, जाके राम आधार।”

कबीर नहीं मरने का, मरती होगी ये पूरी दुनिया। कबीर अविनाशी है, कबीर नहीं मरेगा। “एक कबीरा ना मुआ।” वो अमर्त्य बिन्दु पर बैठे हुए हैं। वहाँ से वो मौत की याद दिलाते हैं तुम्हें। कबीर ने कभी नहीं कहा कि कबीर मर जाएगा। और कबीर ने मौत की याद खूब दिलाई है हमको। हम आधी बात पकड़ लेते हैं, हम इतना तो पकड़ लेते हैं कि मरेंगे; ये नहीं देखते कि कबीर कभी मरते नहीं और तुम भी कबीर हो। तुमने बस इतना देख लिया कि शरीर मर जाएगा। शरीर तो मर जाएगा। पर जब कहते हो शरीर मर जाएगा तो साथ में ये भी कह रहे हो न कि तुम शरीर मात्र हो, इसीलिए हम मर जाऍंगे? बिलकुल मरेगा शरीर। पर पूरी बात क्यों नहीं सुनी? तुम नहीं मरने वाले।

इतना ही पकड़ लिया कि शरीर मर जाना है, संसार विलुप्त हो जाना है। बस इतना ही सुन लिया? उसको भूल गये जो समय के पार का है? उसको भूल गये जिसे काल स्पर्श भी नहीं कर सकता? याद है न “नाहम् कालस्य” काल का नहीं हूँ मैं। “अहमेव कालम्” काल ही हूँ मैं। मुझसे बड़ा नहीं है काल। अब ये दो बड़ी अलग-अलग बातें हो जातीं हैं। शब्द एक है, पर उन स्थानों में, उन तलों में, उन आयामों में बड़ा अन्तर है जहाँ से ये शब्द उद्भूत होते हैं।

हर संसारी कहता है कि ‘मर जाऊँगा’ और सन्त भी कहता है कि ‘शरीर मरता है।’ लेकिन जब संसारी कहता है कि ‘मर जाऊँगा’ तो संसारी के लिए इसका अर्थ ये होता है कि मैं मर जाऊँगा। चूँकि मैं मर जाऊँगा तो इसीलिए मुझे अपनी सुरक्षा के बड़े उपाय करने हैं। कालकल्वित हो जाऊँ उससे पहले संसार में कुछ निशान छोड़ जाने हैं। जीवन गति है, जीवन यात्रा है, यात्रा का अन्तिम बिन्दु क़रीब आ रहा है, उससे पहले बड़े काम निपटाने है। सीमित समय है। ये संसारी का निष्कर्ष होता है। शायद यही निष्कर्ष तुमने निकाल लिया है।

‘अरे! जब ये सब ठहरना ही नहीं है। अरे! ये सब जब साथ जाना ही नहीं है तो इसकी ओर ध्यान ही क्यों दूँ?’ ये निष्कर्ष तुमने निकाल लिया है। ये निष्कर्ष तुम तभी निकालते हो, जब भीतर से बड़ी इच्छा होती है कि काश! ये सब साथ जा सकता। जैसे छोटे बच्चे होतें हैं न, उनको सेब चाहिए था तुमने अंगूर दे दिया, वो अंगूर उठाकर ऐसे फेंक देते हैं।(हाथ से इशारा करते हुए) इसका अर्थ ये नहीं है कि उन्हें अंगूरों से कोई अनासक्ति है, इसका अर्थ बस इतना ही है कि उन्हें अंगूर तो चाहिए ही था, अंगूर से ज़्यादा बड़ा भी कुछ चाहिए था। अंगूर को फेंकना सिर्फ़ ये दर्शाता है कि फलों की कितनी चाह है। वैसे ही हम हैं और वैसे ही हमारे वो सारे संन्यासी हैं जो त्याग के मार्ग पर चलते हैं। ‘त्याग दो क्योंकि साथ नहीं जाएगा।’ अच्छा! अगर साथ जाता तो? तो त्यागते? नहीं, तब नहीं त्यागते।

असल में दिल टूटता है बस इसी बात से कि काश साथ जा सकता। और फिर साथ ले जाने के तरीक़े ईजाद किये जाते हैं। साथ ले जाने का तरीक़ा है स्वर्ग। कि अगर तुम पुण्य करोगे तो साथ ले जाओगे। कैसे? ऐसा नहीं कि जब जलोगे तो साथ जाएगा। वो सीधे वहाँ पहुँचेगा कोरियर से। जो-जो कुछ यहाँ छोड़कर जा रहे हो वो और प्रगाढ़ होकर और विशुद्धतम रूप में तुमको स्वर्ग में मिलेगा। जो कुछ यहाँ पाने की अभीप्सा है, पुण्य करो! ताकि वही और कई गुना बढ़कर के आगे मिले मृत्योपरान्त।

तुम्हें संसार से कोई अरुचि थोड़े ही हुई है। तुम्हें संसार की निस्सारता थोड़े ही सताती है। तुम्हें तो बस ये निष्कर्ष खाने दौड़ता है कि पूरा भोग नहीं पाऊँगा। तो जैसे एक अनमना बच्चा होता है वैसे ही कहते हो कि जब पूरा नहीं मिल रहा तो इत्ता भी नहीं लेंगे। अहंकार को चोट लगती है न। या तो पूरा चाहिए नहीं तो– ‘हमारे लिए बस इत्ता सा? बस बीस साल दिए भोगने के लिए? बीस साल में क्या होगा? बस दो-ही-सौ साल दिये?’

जैसे ययाति की कथा थी, जानते हो न? उसको साल दिए जा रहे है उसकी उम्र बढ़ती जा रही है। एक-एक करके यम उसके बेटों को लेता जा रहा है। उसकी उम्र बढ़ती जा रही है, आख़िर तक भोग नहीं पाया। कह रहा है अभी थोड़ा और। ये हमारी कथा है। कि शरीर ख़त्म हो जाना है, संसार में सब कुछ नश्वर है तो जो उत्कट वासना है भीतर, वो पूरी तो कभी हो नहीं पाएगी। पूरी होती नहीं है तो सताती है। तो इससे अच्छा ये है कि इसको छोड़ ही दो। अब इस छोड़ने में कुछ छूटा नहीं। ये छोड़ना सिर्फ़ ये इंगित करता है कि कुछ छोड़ पा ही नहीं रहे और छोड़ने की अभीप्सा बहुत है।

और दूसरी तरफ़, दूसरे सिरे पर बिलकुल हिमालय की उत्तुंग चोटी पर बैठे हैं कबीर। और जब में कबीर कह रहा हूँ तो मेरा आशय किसी विशिष्ट व्यक्ति से नहीं है, न किसी एक सन्त से है। मैं आत्मा की बात कर रहा हूँ, मैं सत्य की बात कर रहा हूँ। वो वहाँ से गाते हैं मौत के गीत, “उड़ जाएगा हंस अकेला।” यहाँ देवेश जी बैठे हैं उन्हें और मौत के कई गीत भाते हैं। किसी का जन्मदिन होता है तो ये जाकर गाया करते हैं। क्या गाते हैं? “जनम लिया तो मरेगा।” कहते हैं, मानना ही नहीं कि तेरा जन्मदिन है, क्योंकि माना कि तू पैदा हुआ है तो मरेगा ज़रूर। ये सब कबीर के शिष्यत्व ने सिखाया है इनको।

तो कबीर भी मौत के गीत गाते हैं पर कबीर जब मौत के गीत गाते हैं तो कबीर अमर हैं। तुम जब मौत के गीत गाते हो तो मरे हुए हो। हम मौत के गीत भी कहाँ गाते हैं। हमारे तो मौत के गीत ऐसे होते है जैसे ख़ौफ़नाक चीखें। ‘अरे बचाओ! मरा रे!’ वहाँ राम-राम है, यहाँ मरा-मरा है। कबीर का राम-राम नहीं छूटता, हमारा मरा-मरा नहीं छूटता। दोनों में दूरी बहुत ज़्यादा नहीं है पर बड़ी दूरी है।

संसार छोड़ना नहीं है। कौन छोड़ेगा संसार को? आत्मा? आत्मा को तो न कुछ पाना है न कुछ छोड़ना है। जहाँ तुमने बात करी कि संसार छोड़ना है, सबसे पहले तुमने ये संकल्प लिया कि तुम शरीर हो। हो गई न चूक। जितनी बड़ी चूक वो कर रहे हैं जो कह रहे हैं संसार हासिल कर लेना है, उतनी ही बड़ी चूक वो कर रहे हैं जो कह रहे हैं संसार छोड़ देना है। संसार पाने में तुमने संसार को प्रमुखता दे दी और सार पीछे रह गया। और संसार छोड़ने में भी तुमने संसार को ही प्रमुखता दे दी और सार पीछे रह गया।

कोई किसी कुत्ते को पकड़ने के लिये उसके पीछे-पीछे भाग रहा है। और कोई किसी कुत्ते से बचने के लिए बहुत ज़ोर से भाग रहा है उसके पीछे कुत्ता भाग रहा है। इन दोनों के ही मन में विचार किसका चल रहा है?

श्रोता: कुत्ते का।

आचार्य: और दोनों घटनाएँ समझ लो तुम्हारे सामने ही हो रहीं हैं। अब ये एक व्यक्ति है जो भाग रहा है पीछे कुत्ते के ‘मेरा कुत्ता। पाकर छोडूॅंगा।’ और एक दूसरा है जो कुत्ते से बचने के लिए भाग रहा है। दोनों में क्या कोई सारभूत अन्तर है? जवाब दो। दोनों का ही मन लिप्त किसमें है?

श्रोता: कुत्ते में।

आचार्य: न पकड़ना है, न छोड़ना है।

अभी पहाड़ पर था कई हफ़्तों से। वहाँ झरने दिखते हैं, नदियाँ दिखतीं हैं, वो बड़ा सिखाते हैं। उनमें पत्थर होते हैं। नदी के पत्थर देखे हैं? पानी जब बढ़ता है तो गीले हो जाते हैं बिलकुल। पानी कई बार उनके ऊपर से बहने लगता है इतना बढ़ जाता है। ऐसा लगता है मानो वो प्रवाह के ही अंग हों। और फिर जैसे अभी है गर्मी, पानी घटता है पत्थर अलग नज़र आते हैं, सूखे बिलकुल। न माँग कर रहे हैं कि मिले खूब जल, न ही उन्हें जल से विरक्ति है। मिल गया तो पी लेंगे इनकार नहीं करेंगे। और नहीं मिला तो शिकायत भी नहीं करेंगे।

न पकड़ रहे हैं, न छोड़ रहे हैं। जीवन के प्रवाह में स्थित हैं, विद्यमान हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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