न तनाव लो न तनाव दो || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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न तनाव लो न तनाव दो || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। क्या हम परिवार के साथ दुख, मानसिक तनाव और पीड़ा के बिना मुक्ति की ओर बढ़ सकते हैं? मेरे साथ तो ऐसा होता है कि कुछ समय तक तो शांति बनी रहती है, मगर उसके बाद दोबारा से तनाव, नाराज़गी इत्यादि चलने लगते हैं।

क्या कोई ऐसा गुरु-मंत्र हो सकता है जिसे मैं हमेशा याद रखकर हल्का और फ्री (मुक्त) रह सकूँ?

आचार्य प्रशांत: किससे फ्री रहना है?

प्र: तनाव से।

आचार्य: तनाव दे कौन रहा है? मुक्ति माँग रहे हैं, तनाव से मुक्ति माँग रहे हैं तो बंधन क्या है और तनाव कौन दे रहा है, ये तो बताइए?

प्र: घर-परिवार और समाज में दुनियाभर के तनाव हैं।

आचार्य: मुझे तो समझ में ही नहीं आएगा कि दुनियाभर के तनाव हैं। आपको दुनियाभर के तनाव हैं?

प्र: आचार्य जी, घरेलू चीज़ें तो रहती हैं। ज़िम्मेदारियाँ, ड्यूटी (कर्तव्य) पूरे करने पड़ते हैं।

आचार्य: नहीं, ड्यूटी न पूरी करें तो क्या नुक़सान होगा? कौन वो नुक़सान देने आएगा?

प्र: तो हमें तो फिर घर-परिवार छोड़ देना पड़ेगा।

आचार्य: साफ़ बात करनी हैं। घर-परिवार माने क्या, दीवारें?

प्र: नहीं, पत्नी, बच्चे, माँ-बाप।

आचार्य: तो पत्नी तनाव दे रही हैं?

प्र: उनके प्रति जो हमारी ज़िम्मेदारियाँ हैं, उनको निभाने में बहुत, हर रोज़, हमेशा तनाव रहता है।

आचार्य: अरे भाई, ज़िम्मेदारी कहाँ खड़ी है, दिखाइए मुझे, कहाँ हैं? ज़िम्मेदारी कहाँ खड़ी है? मेरे सामने यहाँ साँप बैठा हो तो मैं कह सकता हूँ, 'तनाव दे रहा है, खा लेगा।' पत्नी हैं सामने, पत्नी तनाव दे रही हैं, ये बताइए?

प्र: हाँ, आचार्य जी।

आचार्य: आधा समय तो मेरा लग जाता है उगलवाने में। कैसे तनाव दे रहे हैं पत्नी या बच्चे या परिवार?

प्र: मेरा मूल प्रश्न अगर मैं एक लाइन में कहना चाहूँ तो यही पूछना चाहता हूँ कि जैसे बहुत सी बातें आप बताते हैं, उसको याद या ध्यान में रखे तो बहुत-सी चीज़ें ठीक हो जाती हैं। हम रिलैक्स और हल्के-फुल्के रहते हैं और हमें अच्छा लगता है, शांतिप्रिय रहते हैं। लेकिन फिर कुछ दिनों के बाद वो सब पता नहीं कब, कैसे गायब हो जाता है।

आचार्य: नहीं, अभी जो बात चल रही थी, उसी पर रहिए। उसी पटरी पर रहेंगे, उसको नहीं छोड़ेंगे।

प्र: उसी से सम्बन्धित है ये भी।

आचार्य: हाँ, तो वो जो भी आप कह रहे हैं कि गायब हो जाता है, वो अपनेआप नहीं गायब हो जाता।

प्र: तो कोई एक ऐसी चीज़ हमेशा ध्यान में रखे?

आचार्य: आप तो मुझे ही बता रहे हैं कि मैं आपको क्या नुस्खा बताऊँ कि मैं एक चीज़ बता दूँ, जिसको आप ध्यान में रखे।

प्र: जी, वही चीज़ जानना चाह रहा था।

आचार्य: मैं पहले आपकी बीमारी तो उगलवा लूँ। आप उसको बिलकुल किनारे रख देना चाहते हैं, बात को ही रोक देना चाहते हैं। आप कह रहे हैं, 'नहीं, बस एक नुस्खा बता दीजिए।' किस चीज़ का नुस्खा बता दूँ? अगर आप बीमारी ही छुपाना चाहते हो तो मैं नुस्खा क्या बता दूँगा।

बीमारी पर आते हैं। तो कैसे आपको कोई तनाव दे देता है?

प्र: जैसे पत्नी कोई बात न माने।

आचार्य: क्यों माने बात आपकी कोई?

प्र: भले के लिए ही बोलेंगे। बच्चे को भले के लिए बोलेंगे, माँ-बाप को भले के लिए बोलेंगे।

आचार्य: आपने अपना भला कर लिया?

प्र: नहीं, अपना भला नहीं, जिसमें उनका भला हो।

आचार्य: आपको पता भी है, किसका भला किसमें है?

आचार्य: बच्चों का पढ़ने में भला है तो हम उनको पढ़ने के लिए बोलेंगे।

आचार्य: मैं ये पूछ रहा हूँ, “आप अभी यहाँ बैठे हैं, आप कह रहे हैं कि आप तनाव में रहते हैं, बंधन अनुभव करते हैं। तो आप अपनी भलाई तो कुछ अभी ऐसा लग नहीं रहा है कि विशेष कर पाए हैं। आपके मन में ये पक्का विश्वास क्यों है कि पत्नी या बच्चों को आप जो सलाह देते हैं, उसको मानकर उनका कल्याण ही हो जाएगा?”

और अगर अभी आपकी पत्नी यहाँ मौजूद हों और जो बात आप कह रहे हैं, उधर (बैठक की दूसरी पंक्ति की ओर इंगित करते हुए) दूसरे गद्दे पर बैठकर बिलकुल वही बात वो कहें कि ये मेरे पतिदेव हैं, इनकी वजह से मुझे महा-तनाव रहता है, क्योंकि मेरी ये कोई बात नहीं मानते और मैं उनके भले के लिए ही बोलती हूँ, पर ये कुछ समझते नहीं हैं।

कोई आपकी बात क्यों माने? और आपको क्या वाक़ई पता है कि आप दूसरों से जो बात बोल रहे हैं, वो क्यों बोल रहे हैं?

प्र: क्योंकि संसार में रह रहे हैं तो बोलेंगे ही।

आचार्य: ये सब बहुत खुफ़िया बातें मुझे समझ में नहीं आती — 'संसार में रह रहे हैं, इत्यादि- इत्यादि।' अभी आप हैं, पत्नी हैं, और बच्चे हैं, ये तीन हैं, इनकी बात करिए। संसार क्या चीज़ है, मैं नहीं जानता। ठीक है, ये तीन हैं — आप हैं, पत्नी हैं, बच्चे हैं। इसमें तनाव कहाँ है, ये बताइए?

प्र: आचार्य जी, हमेशा ही तनाव होता है।

आचार्य: कहाँ से आया बताइए तो?

प्र: तो फिर अब कैसे रहा जाए जब उनकी चीज़ हमें पसंद नहीं आती, हमारी चीज़ उनको पसंद नहीं आती। तो वही जानना चाहता हूँ कि फिर हम क्या करें।

आचार्य: किसी दूसरे ने ज़िम्मेदारी ले रखी है आपकी पसंद मुताबिक जीवन जीने की, और क्या आपने ज़िम्मेदारी ले रखी है दूसरे की पसंद अनुसार जीवन जीने की? क्या दूसरे के पसंद अनुसार चलने का नाम प्रेम है?

जहाँ तक पसंद-नापसंद की बात है उनमें कितना दम होता है, यह तो इसी बात से ज़ाहिर है कि कभी आपने भी उन्हें पसंद किया था, उन्होंने भी आपको पसंद किया था और विवाह हुआ था। और अब कह रहे हैं कि तनाव है। ये तो है पसंद की कुल कहानी।

प्र: विवाह तो थोप दिया जाता है हम लोग के ऊपर।

आचार्य: आपको कैसे पता कि अभी भी आपके जो विचार हैं, वो आप पर किसी ने थोप नहीं दिए हैं? आप वही है न जिन्होंने ये बर्दाश्त कर लिया था कि आपके ऊपर विवाह थोप दिया जाए। जब आप विवाह थोपा जाना बर्दाश्त कर सकते हैं तो आपको कैसे भरोसा है कि आप विचार थोपा जाना बर्दाश्त नहीं कर रहे होंगे?

प्र: उस वक्त ग़लती हो गई तो अब हमेशा तो ग़लती नहीं होगी।

आचार्य: आपको कैसे पता अभी नहीं हो रही है? जब ग़लती हुई उस वक्त, उस वक्त पता था कि ग़लती हो रही है?

प्र: उस वक्त भले बुद्धि नहीं थी लेकिन आज हम चाहते हैं मुक्त हो जाना।

आचार्य: तो ठीक है। तो जब ग़लती हो रही होती है, तब यही लग रहा होता है न कि ग़लती नहीं हो रही। बाद में, बीस साल बाद अब आप कह रहे हैं कि तब ग़लती हो गई। जब ग़लती हो रही होती है तब बिलकुल नहीं पता लग रहा होता न कि ग़लती हो रही है?

प्र: जी।

आचार्य: तो आप पक्के भरोसे के साथ कह सकते है कि आप अभी भी ग़लती नहीं कर रहे हैं? और फिर अगले बीस साल बाद आप कहें, 'अरे, तब भी ग़लती हो रही थी।' पच्चीस की अवस्था में भी ग़लती हुई; पैंतालीस की अवस्था में भी ग़लती ही कर रहे थे, ये पैसठ की अवस्था में समझ आया। और फिर पिच्चासी में बोले, “धत तेरे की! वो पैसठ साल वाला भी गड़बड़ ही था मामला।” और वो भैंसे वाला (यमराज) हँस रहा है, बोल रहा है कि ये पिच्चासी साल वाले को सही समझ रहे हैं।

इतने सरोकार क्यों रखने हैं भाई? जब जान ही गए कि जिन लोगों के साथ हैं, उनका साथ ही सिर्फ़ सांयोगिक है। आप ही कह रहे हैं न कि विवाह को थोप दिया गया था। उसी थोपे हुए विवाह से पत्नी आईं, उसी थोपे हुए विवाह से बच्चे आए। तो उनसे फिर कोई आत्मीय रिश्ता तो वैसे भी नहीं है, आत्मा का सम्बन्ध तो वैसे भी नहीं है। अनजाने या अपरिचित हुए, तो फिर उनसे इतनी परवाह क्यों रखनी है कि उनके कारण बिलकुल तनावग्रस्त हैं।

फिर तो पता है कि यूँ ही मेरे जीवन में आ गए हैं, मेरे घर में बैठे हुए हैं, इनसे कोई आत्मिकता तो है भी नहीं। उनको लेकर इतने परेशान क्यों हैं? शायद अगर उनसे आप अपना तादात्म्य, अपने सरोकार कुछ कम कर सकें तो आपका तनाव भी कम होगा, पत्नी का तनाव भी कम होगा और बच्चों के लिए भी अच्छा होगा।

नहीं?

या तो गहरा प्रेम हो। जब गहरा प्रेम हो तो अधिकार मिल जाता है, हर चीज़ में टाँग अड़ाने का; बिलकुल मिल जाता है। कि मुझे तुमसे प्यार बहुत है और मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता कि तुम किसी कुएँ में गिर जाओ जाकर। तो मैं तुम्हें कदम-कदम पर चेतावनी दूँगा, बात-बात में तुमसे उलझूँगा। क्यों? क्योंकि मुझे तुमसे प्रेम है।

जब वो प्रेम है ही नहीं, जब रिश्ता ही बिलकुल आकस्मिक है, एक्सीडेंटल है, तो इतना उलझ क्यों रहे हो भाई आपस में? ज़रूरत क्या है उलझने की? जान गए कि चलते-चलते यूँ ही कोई मिल गया था, घर बस गया, बच्चे आ गए। लेकिन अब ये बात समझ में आती है; तो हम ज़रा अपने एकांत में रहते हैं, तुम अपने एकांत में रहो। वही सबके लिए और शांति के लिए अच्छा है।

और ये जो मैं बोल रहा हूँ, ये मैं अपरिचितों वाली शांति की बात नहीं कर रहा, मैं सन्नाटे वाली शांति की बात नहीं कर रहा; ये एक सम्मानप्रद शांति है, ये एक जीवनप्रद शांति है। अन्यथा क्या होता है न कि हम रिश्ते के नाम पर दुश्मनी निकालते हैं। तो मैं आपसे यह नहीं कह रहा हूँ कि अपने प्रेमपूर्ण रिश्ते को तोड़ दीजिए और ज़रा एकांतवास करिए। नहीं, मैं कह रहा हूँ कि ये जो परस्पर दुश्मनी और कटुता से भरा हुआ रिश्ता है, इसको ज़रा थामिए और थोड़ा अपने-अपने दायरों में रहना सीखिए।

दो लोग प्यार में गले मिले हुए हों और उनको मैं अलग करूँ खींचकर, तो ये निश्चित रूप से हिंसा होगी, नाइंसाफ़ी होगी; होगी न? दो लोग प्यार में गले मिले हुए हैं और मैं उनको बिलकुल चीरकर अलग करे दे रहा हूँ। लेकिन दो लोग गले मिले हुए हैं और एक-दूसरों को घूसों से मार रहे हैं, दनादन, दनादन; नाम है उनका पति और पत्नी। गले मिले हुए हैं क्योंकि अपनेआप को विवाहित कहते हैं, तो गले मिले हुए हैं। लेकिन गले इस तरह मिले हुए हैं कि वो उसको पीट रहा है, वो उसको पीट रही है। और फिर मैं उन दोनों को पकड़ के अलग कर दूँ, तो ये मैंने शांति के खिलाफ़ काम किया है या शांति के पक्ष में?

या तो रिश्ता ऐसा कर लीजिए कि पास-पास रहें तो शांति से रहें, एक-दूसरे के लिए शुभ होकर रहें। या तो रिश्ता ऐसा कर लीजिये और अगर रिश्ता ऐसा है कि एक-दूसरे के प्रति ज़हर से ही भरे हुए हैं तो भाई थोड़ा दूर-दूर रहना सीखिए, अपनी-अपनी सीमाओं में रहना सीखिए। जितना आवश्यक हो, जितना हितकर हो उतनी बातचीत करिए, उतना ही सम्बन्ध रखिए।

ये थोड़े है कि जा भी रहे हैं एक-दूसरे के पास और एक-दूसरे को कंधा मार रहे हैं, एक-दूसरे को रगड़ रहे हैं और एक-दूसरे के पास जाए बिना रहेंगे भी नहीं; जो कि हर घर में होता है कि रहना भी साथ-साथ है और एक-दूसरे का मुँह भी नोचना है। और ये सब करके बच्चों को कौनसी शिक्षा दे रहे हैं आप? कि साथ-साथ भी हैं और साथ रहने का मतलब क्या है? कि तुम्हारा भी मुँह नुचा हुआ है, हमारा भी मुँह नुचा हुआ है। यह हमारे साथ-साथ रहने का प्रतीक है — नुचा हुआ मुँह।

तो इसलिए बोल रहा हूँ, थोड़ा-सी फिर एक गरिमामयी दूरी बनाइए। क्यों अपनी पसंद-नापसंद और अपनी आशाएँ, अपेक्षाएँ दूसरों पर लादना? उसको उसका जीवन जीने दो, आप अपना जीवन जियो।

नहीं?

और जो बातें मैं बोल रहा हूँ, वो सारी बातें मैं वापस लेता हूँ, अगर आप कह दे कि नहीं साहब, मुझे तो हार्दिक प्रेम है। अगर हार्दिक प्रेम है तो फिर मैं कोई होता ही नहीं बोलने वाला। फिर तो आप जाने, पत्नी जाने; यह आपके बीच का मामला हुआ है। प्रेम में किसी अन्य को बोलने का कोई अधिकार नहीं। हार्दिक प्रेम है तो फिर तो जो करना है, करो।

प्र: प्रेम तो अब किसी से होता ही नहीं है, आचार्य जी। ऊपर वाले से प्रेम करना चाहता हूँ, तो वो भी नहीं होता है।

आचार्य: करली न गड़बड़!

प्र: आपका यूट्यूब में एक बार देखा था, वो फार्मूला मुझे बड़ा सार्थक लगता है— ज़िंदगी कमीनी है, इसलिए मुस्कुराओ।

आचार्य: मैंने उसमें वो नहीं कहा था जो आप समझ रहे हैं।

प्र: उसमें आपने महाभारत का उदाहरण दिया था।

आचार्य: आपने तो घुटने टेक दिए। मैंने कहा था, “जी-जान से लड़ो, लेकिन तुम कितने भी जी-जान से लड़ो, जहाँ तक प्रकृति के तल की बात है, तुम्हारी हार ही होनी है — मुस्कुराओ।” वो बात मैंने उनसे कही थी, जो पहले जी-जान से लड़े हैं। आपने तो घुटने टेक दिए हैं। जो कह दे कि मुझे किसी के प्रति प्रेम पता ही नहीं चलता, तो घुटने टेक चुका है। ऐसे थोड़ी करना है।

प्र: तो अपनी मुक्ति के लिए हमें क्या करना चाहिए?

आचार्य: दूसरे को मुक्त करिए। फंदा देखा है? जिससे किसी को भी पकड़ा जाता है। वो जो फंदा होता है वो फंदा उस रस्सी के दोनों तरफ़ होता है। रस्सी होती है, उसको हम बोलते हैं कि मैं फंदा डाल रहा हूँ। तो उसमें फंदा रस्सी के उसी सिरे पर नहीं होता, इस सिरे पर भी होता है। इस सिरे पर उसने आपके हाथ को पकड़ रखा होता है और दूसरे सिरे पर उसने दूसरे व्यक्ति को पकड़ रखा होता है।

अगर आप कहते हैं कि आपके जीवन पर फंदा पड़ा हुआ है, तो इसका निश्चित अर्थ है कि वो जो रस्सी है उसने किसी दूसरे पर फंदा डाला हुआ है। ख़ुद आज़ाद होना है तो दूसरे को आज़ाद करो। हम दूसरे को जकड़ करके रखते हैं उस पर उम्मीदें थोपकर के। ये कहकर के कि भई, हम सब संसारी लोग हैं तो संसार के नियम-क़ायदों का पालन तो करना पड़ेगा न। ये सब बेकार की बातें हैं।

पूरा संसार थोड़ी ही आ रहा है आपको परेशान करने। संसार का हर मुद्दा थोड़ी ही आपको परेशान कर रहा है। आपको कुछ गिने-चुने लोगों को लेकर परेशानी है। बस उनकी बात करिए। उनको आज़ादी दीजिए, आपको भी मुक्ति मिलेगी।

दूसरों को लेकर अगर बंधन अनुभव होता हो तो यह बात साफ़ समझ लीजिएगा कि निश्चित रूप से आपने दूसरों को भी बंधन में डाल रखा है। और जो दूसरे को बंधन में डाल रहा हो, वो इस ग़लतफ़हमी में न रहे कि ख़ुद आज़ाद रह लेगा। जो दूसरे का मालिक बन रहा है, उसे दूसरे को भी अपना मालिक बनाने पर मज़बूर होना पड़ेगा। जो दूसरों से उम्मीदें रख रहा है, उसे स्वयं भी मज़बूर होना पड़ेगा दूसरों की उम्मीदें पूरी करने के लिए। और ये कोई जीने का तरीक़ा नहीं हुआ कि तुम जीओ हमारी उम्मीदें निभाने के लिए और हम जिएँ तुम्हारी उम्मीदें पूरी करने के लिए। ये तो पारस्परिक ग़ुलामी हो गयी। यह कोई तरीक़ा नहीं है, इसको प्रेम नहीं कहते।

दुर्भाग्यवश जब हमें प्रेम नहीं पता होता तो हम इसी तरह की किसी व्यवस्था को झूठ-मूठ ही प्रेम का नाम दे देते हैं। 'तू मेरा घर चला दे, मैं तेरा खर्चा चला दूँगा' — इसका नाम क्या है? प्रेम! यह कोई प्रेम है, यह प्रेम है? 'तू मेरे लिए रोटी ला, मैं तेरे लिए साड़ी लाऊँगा' — यह प्रेम है?

कहने वाले कहेंगे, “नहीं साहब, यही तो प्रेम होता है। और ये कोई रोटी-साड़ी की बात नहीं हैं, प्रेम पहले आता है।” अभी जाँचे लेते हैं — जिस दिन वो तुमको रोटी देना बंद कर दे, तुम कितने दिन साड़ी देने वाले हो, ये बता दो। और दोगे भी तो मन में गाँठ बाँधकर दोगे। दोगे भी तो मन में हिसाब रखकर दोगे कि एक दिन इससे कहूँगा, “देख तूने छह साल से मुझे रोटी नहीं दी है, साड़ी मैं फिर भी देता हूँ तुझे, मैं कितना महान हूँ!” ये दूसरे को अपनी महानता जतलाना प्रेम है क्या?

ये सब व्यापार है; और कर लो व्यापार अगर उस व्यापार में फ़ायदा होता हो तो। ये तो जो व्यापार चल रहा है, इसमें तो दोनों पक्षों का ही नुक़सान दिख रहा है। ऐसा व्यापार, ऐसा लेन-देन क्यों करते हो भाई?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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