महाभारत, और भारत का अभाग || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी. रुड़की में (2022)

Acharya Prashant

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महाभारत, और भारत का अभाग || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी. रुड़की में (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मेरा प्रश्न महाभारत से सम्बन्धितहै। महाभारत हमारे भारत का सबसे बड़ा महाकाव्य है, इसका एक उपभाग भगवद्गीता जैसा ग्रंथ है, इतने अच्छे सबक हम सीखते हैं। पर हमने हमेशा से देखा है, बचपन से ही, कि घरों में महाभारत का पाठ नहीं होता है। रामायण का पाठ होता है।

महाभारत के लेसन्ज़ या सबक क्या हमारे डोमेस्टिक वैल्यू एन्हैन्स्मन्ट (घरेलू मूल्यवर्धन) के लिए ज़रूरी नहीं है? या हम सूपर्स्टिशस (अंधविश्वास) वाले डर या उसके दुष्प्रभाव से इतने डरे हुए हैं कि उससे हम लेसन्ज़ लर्न (सबक सीखना) करना ही नहीं चाहते?

अचार्य प्रशांत: देखिए, भारत जितना विलक्षण और सौभाग्यशाली देश रहा है, भारत का अभाग भी उतना ही बड़ा है। जो ऊँची- से- ऊँची बातें हो सकती थीं, वो भारत को बहुत जल्दी मिल गयीं। मिली पूरे विश्व को, पर बाद में मिली। कई बार भारत से ही मिली बाद में, उनको। भारत को बहुत जल्दी मिल गयीं।

दिक्क़त बस ये है कि जो ऊँची बात होती हैं, पहली बात वो आसानी से समझ में नहीं आती। दूसरी बात, जब समझ में आती है, तो बहुत ज़ोर का झटका दे देती है। और वो ऊँची चीज़ आपके पास आ गयी है और जल्दी आ गयी है और आसानी से आ गयी है। तो ज़्यादातर लोग फिर क्या करेंगे? उस ऊँची चीज़ से वो क्या करेंगे? वो घबरा जाते हैं। वो घबरा जाते हैं। तो भारत में ही जो उच्चतम ग्रंथ हैं उनके विरुद्ध साज़िशें भी रची गयीं। जहाँ उच्चतम ग्रंथ हैं ही नहीं, वहाँ साज़िश की भी ज़रूरत नहीं है।

आप सोचिए न कि वेदांत भारत में है, पर दुनिया भर की उल्टी-पुल्टी प्रथाएँ भी भारत में ही हैं; ;ये दोनों एक साथ कैसे हो गया? वेदांत भारत में है और सती प्रथा भी भारत में रही; ये कैसे हो पाया? वेदांत भी है और जाति प्रथा भी है; ये हो कैसे पाया? कहाँ वेदांत, कहाँ जाति प्रथा; ये साथ-साथ कैसे चल गये? ये पूछिए तो अपनेआप से।

गीता कह रही है कि "तुम मर भी गये तो क्या फ़र्क पड़ता है और दूसरे भी मर गये तो क्या फ़र्क पड़ता है, 'ना हन्यते हन्यमाने शरीरे', "और भारत युद्धों में एक के बाद एक हारता रहा, एक हज़ार साल तक ग़ुलाम बना रहा; ये हो कैसे गया?

और भारत की सेनाएँ ऐसी-ऐसी सेनाओं से हारीं जो बहुत छोटी थीं। बहुत छोटी-छोटी सेनाओं से भी भारतीय सेनाएँ हारती गयीं; ये हो कैसे गया? गीता के रहते हुए भारतीय सेनाएँ कैसे हारती गयीं?

जिस वेदांत में मूल सबक बोध का और जिज्ञासा का है, वो देश पाखंडी कैसे हो गया, अंधविश्वासी कैसे हो गया? लोग पूछते हैं, मैंने भी इस पर बहुत विचार किया और जो बात मुझे समझ में आयी है वो ये है कि भारत नीचे-से-नीचे गिरा ही ऊँचे-से-ऊँचे के विरोध में है। ऊँची बात ने हमें इतना डरा दिया कि उसके विरोध में हमने सौ तरह के नीची बातें पैदा कर ली।

महाभारत घर आएगी तो महाभारत के ही बीच में बैठी हुई है भगवद्गीता। गीता घर आ गयी, और गीता घर आ गयी तो तुम कैसे अपने घर में मोह कर लोगे? और घर तो हमारे चलते ही मोह पर हैं। मोह और ममता और भय और ईर्ष्या, ये न हों तो हमारे घरों की बुनियादें हिल जाएँगी, इतने खोखले तो घर हैं हमारे। तो या तो अब तुम अपने खोखले घर को बचा लो या इस घर में गीता ले आ लो। लोगों ने तय किया, घर ज़्यादा ठीक है, गीता अलग रखो।

अब गीता को अलग रखने के लिए कोई कारण तो बताना पड़ेगा, तो बोलें, "देखो, महाभारत में लड़ाई है न, तो महाभारत घर में लाओगे तो भाई-भाई में लड़ाई हो जाएगी घर में!" ये कुछ भी नहीं है, ये गीता के विरुद्ध हमारा ही षडयंत्र है।

और गीता के विरुद्ध इसलिए षड़यंत्र करना है, क्योंकि गीता में श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि ‘सामने भाई खड़ा हो, बाप खड़ा हो, तुम्हारा पितामह खड़ा हो, तुम्हारा आचार्य खड़ा हो, उन सब से ऊपर हैं कृष्ण, उन सब से ऊपर है धर्म और सत्य। उठाओ अर्जुन गांडीव और मारो, फ़र्क नहीं पड़ता सामने कौन खड़ा है। तुम्हारा पुराना रिश्ता हो, तुम्हारा मोह हो, स्मृतियाँ हों, कुछ हो, किसी की परवाह नहीं करनी है; जो ग़लत है, मारो।‘

और हमारे घर में तो सब ग़लत हैं। अब महाभारत ख़तरनाक हो गयी। तो हमने कहा, हम कोई कहानी बना देते हैं महाभारत के बारे में, और आप उस तरह की कहानी बना दोगे। और आप यही नहीं करोगे, वेदांत के बहुत बाद, लगभग हज़ार साल बाद लिखे गये पुराण, इस तरह की कहानियाँ उन पुराणों में भी डाल दी गयीं।

तो लोग ये भी नहीं कहेंगे कि साहब महाभारत को घर नहीं लाना है, और महाभारत के विरुद्ध तर्क हमारा है। वो कहेंगे, ‘हमारा तर्क नहीं है, देखो, फ़लाने पुराण में एक कहानी लिखी हुई है कि किसी शहर में एक ग़रीब ब्राह्मण रहा करता था, उसके चार भाई थे। और एक बार वो महाभारत अपने घर ले लाया और उन चारों भाईयों में कलह हो गयी आपस में। तो जब कलह हो गयी तो दो का सर फूट गया, एक की टाँग टूट गयी। वो सब किसी ऋषि के पास गये। तो ऋषि ने उपदेश में कहा, देखो, आज से कोई महाभारत को अपने घर में न रखे।‘ इस तरह की कोई कहानी गढ़ दी जाएगी। पूरी कहानी कुछ नहीं है, बस कृष्ण, माने गीता, माने वेदांत के विरुद्ध एक सस्ता षडयंत्र है।

असली धर्म हमें बहुत आसानी से मिल गया न। जो चीज़ बहुत आसानी से मिल जाती है, इंसान उसकी कद्र नहीं करता। तो वेदों में जो असली चीज़ है, वो है वेदांत – वेदों का ज्ञानकाण्ड। हमने उसकी पूरी उपेक्षा कर दी; पूरी उपेक्षा, एकदम अलग रख दिया। पकड़ क्या लिया उसमें से? कर्मकाण्ड। कर्मकाण्ड पकड़ कर हमें ये कहने का अधिकार मिल गया कि हम वैदिक हैं। कितने चालाक लोग हैं! वेदों का कर्मकाण्ड पकड़ लिया जिससे ये कहने का अधिकार मिल गया कि हम वैदिक हैं।

कर्मकाण्ड कैसा है? थोड़ा समझिएगा, कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड का अंतर। कर्मकाण्ड ऐसा है कि यहाँ पर मैं आया, उससे पहले आप सब यहाँ पर एकत्रित हो गये। यह आपने एक कर्म करा कि आप यहाँ आ करके बैठ गये। ठीक, अच्छी बात है, कोई दिक्क़त नहीं। बैठना तो पड़ेगा ही अगर बात करनी है।

दूसरा क्या कर्मकाण्ड है, मैं आया तो आपने मुझे वहाँ पर बैठाया, ये भी बहुत अच्छी बात है। मैं आऊँ और खड़े रखो, कहूँगा क्या कर रहे हो। तीसरी बात ये है कि आपने मेरा स्वागत किया, मैं अनुग्रहित हूँ, बहुत अच्छी बात है। चौथी बात ये है कि फिर शांतिपाठ हुआ यहाँ पर, फिर दीप प्रज्वलित किया गया। ये सब कर्मकाण्ड है। ये अच्छी बात है, आवश्यक होता है। और जब ये सब हो गया, उसके बाद आप सब यहाँ से भाग गये।

आप बैठ गये, मुझको बुला लिया, मुझे आसन दे दिया, मेरा स्वागत कर लिया, शांतिपाठ बोल दिया, देवी वन्दना कर ली और उसके बाद भाग गये। और तुर्रा ये है कि दावा भी कर दिया कि आचार्य प्रशांत को सुनकर आ रहे हैं। ये एक आम हिंदू का जीवन रहा है। वो अपनेआप को धार्मिक बोलता है। मैं पूछता हूँ, किस बिना पर? तुम कैसे धार्मिक हो? जब ज्ञानकाण्ड शुरू होना था तो सब खाली है, एक आदमी नहीं बैठा हुआ है। ये रहा है भारत का धार्मिक जीवन न जाने कितनी शताब्दियों से। कर्मकाण्ड सारा कर लो, जैसे ही ज्ञान शुरू हो, ग़ायब हो जाओ।

जो शादीशुदा लोग हैं उनसे मैं पूछता हूँ अक्सर कि आपकी शादी के वक़्त भी जो मंत्रोचारण हुआ, कुछ मतलब पता है? बोलें, "नहीं।" मैं पूछता हूँ, तुम शादीशुदा हो कैसे फिर? जब तुम्हें पता ही नहीं है वो पंडित क्या बोल गया, तुम्हें कैसे पता तुम्हारी शादी हुई है?

दो-चार तो नाराज़ हो गये, बोले, “क्या बात कर रहे हैं आप! ये बच्चे!”

मैंने कहा, बच्चे तो ठीक है, उसका शादी से क्या लेना-देना। मुझे ये बताओ, तुम्हें कुछ नहीं पता कि तुम दो को खड़ा कर दिया और वो क्या बोल रहा था, तुम्हें यकीन कैसे आया कि तुम्हारा विवाह हो गया है?

ये भारत का धार्मिक जीवन रहा है, हमें कुछ ज्ञान नहीं। हम जानने पर ही विश्वास नहीं रखतें। हमारे लिए रस्म अदायगी, परंपराओं का निर्वाह ही बहुत है। रस्म अदायगी कर दो, यहाँ बुला लो और ये सब कर लो।

एक बार मेरे साथ भी ऐसा हुआ था – एक जगह बुलाया गया और उन्होंने बड़ा लंबा-चौड़ा आयोजन करा। वहाँ पर बताया गया कि एक घंटे का होगा, यहाँ पर ऐसे है, पाँच सौ, हज़ार लोग हैं। मैं पहुँच गया। उन्होंने पहले बीस मिनट तक फ़लानी वन्दना करी, फिर ये किया। इतना बड़ा था उनके यहाँ कि अठारह-बीस जगह तो पहले वहाँ दीप प्रज्वलित करना था, फिर ये होगा, फिर वो होगा। यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर आए, फिर ये आए, फिर ये आए, ऊपर से लेकर नीचे तक, एचओडी तक। सब कुछ हो गया, उसमें लगे बीस-पच्चीस मिनट।

मैंने बोलना शुरू किया, मैंने दस ही मिनट बोला था, पीछे से कोई यहाँ पर (बगल में) एक चिट रखकर चला गया। अब रख जाओ, मैं देखता ही नहीं हूँ, जब बोलने में तल्लीन हूँ। तो वहाँ से आकर मेरे कान में फुसफुसा रहे हैं, बोलें, ‘समय हो गया।‘ मैंने कहा, अभी तो शुरू ही नहीं हुआ। बोलें, नहीं, अब बीस मिनट की क्लोजिंग सेरेमनी (समापन समारोह) होगी। मैंने कहा, अभी दस मिनट पहले तो तुम्हारी ओपनिंग सेरेमनी (उद्घाटन समारोह) ख़त्म हुई है।

ये रहा है भारत का धार्मिक जीवन – जस्ट सेरेमोनियल (बस औपचारिक), दोहराते हैं, जस्ट सेरेमोनियल । बाहर-बाहर बहुत कुछ, भीतर प्राण कुछ नहीं। लेकिन गुमान पूरा रहा है धार्मिकता का। दावा पूरा रहा है, हमसे ज़्यादा धार्मिक कोई नहीं। क्यों? ‘ये तिलक देखो, ये शिखा देखो, ये जनेऊ देखो। तुम बताओ जितनी भी चीज़ें धार्मिकता की होती हैं, जितने उनके बाह्य प्रतीक होते हैं, आउटर सिम्पटम्स, वो सारे हमने धारण कर रखे हैं।‘

भीतर क्या है? ‘भीतर छोड़ो न। भीतर हमारा परिवार है। दिल में प्रियतमा विराजती है। बड़ा बेटा नालायक है, उसको देंगे नहीं ज़्यादा पैसा।‘भीतर ये सब चलता रहता है। ‘अभी वसीयत लिखनी है, छोटे को देंगे साठ प्रतिशत।‘ और ये लड़की भी तो है, उसको नहीं देना है? ‘हाँ, दहेज़ देंगे न उसको। दहेज़ दे दिया, निकाल दिया, पराया धन होती है।‘ भीतर ये चल रहा है!

भीतर ये सब जो चल रहा है, गीता उस पर करती है चोट, तो हमें गीता से लगता है डर। तो इसीलिए कृष्ण का भी जो रूप प्रचलित है, वो गीता के कृष्ण नहीं हैं, वो राधा के कृष्ण हैं।

गीत हमारे लिए डरावनी है और कान्हा का मक्खन हमारे लिए लुभावना है। और मैं सही बता रहा हूँ, ये जो मक्खन वाले लोग हैं, इनके सामने आप गीता रख दीजिए, सिर पर पाँव रखकर भागते हैं। इनको बस यही चाहिए कि नाच लें कृष्ण के नाम पर, नाचने को मिल जाए।

अर्जुन को नचा रहे थे वो या बोल रहे थे कि उठा और मार? या बोल रहे थे कि तू भी बीच में जा, दुर्योधन को भी बुला और नाचना शुरू कर दे? भाई, महाभारत पढ़ी हो तो अर्जुन युद्ध से कुछ ही साल पहले नृत्य के शिक्षक थे। तो अर्जुन को तो आता भी था नाचना। अगर नाचने में ही सबकुछ होता—जो ये नाचने का कार्यक्रम आजकल चल रहा है कृष्ण के नाम पर—तो अर्जुन को बोल देतें न कि अर्जुन नाच! वो ‘युध्यस्व’ क्यों बोलते, कि लड़? नाचने से ही सब जो जाएगा भाई। पर नाचने का कल्ट चल गया है।

अगर गीता को वाक़ई हम सम्मान देते होते, तो मैं पूछता हूँ, कुरुक्षेत्र हिंदुओं का सबसे बड़ा तीर्थ क्यों नहीं होना चाहिए था, जहाँ पर गीता उतरी थी? बोलो। किसी को कुछ स्मरण भी है गीता का? कोई सम्मान है गीता का? नहीं हो पाएगा, क्योंकि वहाँ वो क्या बोलते हैं? “निराशी निर्ममो भव युद्धस्व विगतज्वर।" अपना सारा एक्साइटमेंट (उत्तेजना) ज़रा नियंत्रण में रखो; विगतज्वर – ज्वर से आगे निकल जाओ। ज्वर माने भीतर की गर्मी होती है; अरे, ठंडी करो। निर्मम हो जाओ, यहाँ कुछ अपना नहीं है; तुम किस मोह में फँसे हुए हो? निराशी हो जाओ; तुम विश्व को लेकर क्या आशाएँ बनाकर बैठे हुए हो? ठीक अभी जो सही कर्म है उसको करो, और लड़ो—युद्धस्व, युद्धस्व, युद्धस्व।

यहाँ कौन लड़ना चाहता है? कायर आदमी को बोलो लड़ो, तो वो गीता को अलग रख देगा, दूर। भारत इसीलिए लड़ नहीं पाया। और भारत लड़ नहीं पाया, इसमें भी हमने स्वीकार नहीं किया कि हम कृष्ण से इतने दूर हो गये, इसीलिए हम लड़ नहीं पाए। हमने कह दिया, ये तो हमारी सहिष्णुता है कि हम लड़ नहीं पाए। बाहर से जितने अक्रांता आते रहे, हमें पीटते रहे, बर्बाद करते रहे, लेकिन हम तो इतने प्यारे लोग हैं न कि हम किसी को भी मना नहीं करते थे। हम कहते थे, ‘आओ, पीटो, पीटो।‘

सहिष्णु होना बिलकुल एक बात होती है, लतखोर होना दूसरी, हाँ या ना? जिसका मन करा, आ करके पीट गया और आपके पास विरोध की कोई शक्ति नहीं थी। और उसको कहते हो यही तो भारत की विलक्षणता है। अनूठा है भारत। दुनिया में कोई और देश इतना पिटा? हमने बुला बुलाकर कहा कि पीटो।

गिनो ज़रा, यूरोप में कोई ऐसा देश है—बड़े देशों में—जिसने नहीं पीटा भारत को, अंग्रेज़, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, डच? हिटलर जीत जाता तो जर्मन भी आते। जापानी आने को तैयार ही खड़े हुए थे। एशिया में आ जाओ—अरब, तुर्क, मंगोल, अफ़गानी—कोई था जो नहीं पीटा?

वजह यही है – महाभारत नहीं होनी चाहिए न घर में! महाभारत अगर घर में नहीं होगी तो फिर ज़िंदगी गुलामों सी ही बीतेगी। जो लोग अपने सर्वोच्च ग्रंथ का भी सम्मान नहीं कर सकते, उनके लिए क्या आशा! जिन लोगों ने ये मान्यता बना रखी हो। दुनिया में कोई ऐसे लोग हैं जिन्होंने कह रखा हो कि अपना ग्रंथ घर में रखना अशुभ होता है? कितनी ख़तरनाक बात है, विचार करिए। ये करा है सनातनियों ने। और यही काम गीता के साथ करा है, यही काम उपनिषदों के साथ करा है।

जो हमारे ऊँचे-से-ऊँचे ग्रंथ हैं वो प्रचलित हो नहीं होने पाए हैं। चलती क्या हैं? कोई अपनेआप को हिंदू बोलता है, तो क्या चलता है? किस्से-कहानियाँ। वही पौराणिक कथाएँ, बस। एक के बाद एक कहानियाँ, कहानियाँ, अंधविश्वास। कई बार तो जो कहानियाँ होती हैं वो पुराणों में भी नहीं पाई जातीं; वो बस उसी क्षेत्र की जनश्रुति होती है, किंवदन्ति। और वो चल रही हैं।

मैं पूछता हूँ, ऋभु का नाम कितनों को पता है? किसी को नहीं पता। मैं पूछता हूँ, अष्टावक्र गीता कितनों ने पढ़ा? नहीं पढ़ा। और कुछ मायनों में अष्टावक्र की गीता, कृष्ण की गीता के समतुल्य ही नहीं है, ज़्यादा शुद्ध है।

और आप हिंदुस्तान का दुर्भाग्य देखिए। इंसान को ताक़त देने वाली एक ही चीज़ होती है – सच्चाई के प्रति उसकी निष्ठा। गाँठ बांध लीजिए इस बात को। कौन-सा आदमी कितना ताक़तवर है वास्तव में—बाहर की ताक़त नहीं कह रहा, न इसकी (भुजाओं तरफ़ इशारा करते हैं) की ताक़त बोल रहा हूँ, न जेब की ताक़त बोल रहा हूँ, भीतरी ताक़त बोल रहा हूँ—किस आदमी में भीतरी ताक़त कितनी होगी, बस ये इसी से नाप लीजिएगा कि सच को लेकर उसकी निष्ठा, उसका डिवोशन कितना गहरा है।

भारत को वो सबकुछ मिला था जो उसे सच की ओर ले जाए, लेकिन माया ने ऐसी भांजी मारी, माया ने कहा, ‘अरे! सच की ओर जा रहे हो, गड़बड़ हो जाएगी, चलो पलटो, झूठ की ओर जाओ।‘ और भारत झूठ की ओर इतना ज़्यादा पलटा जितना दूसरे देश भी नहीं पलटें। समझ रहे हो बात को? ये हुआ है हिंदुस्तान के साथ।

अगर कभी गिना जाता है कि उच्चतम दर्शन कहाँ से आया तो उसमें भी भारत का नाम आता है,; और जब पूछा जाता है कि निम्नतम कोटि के अंधविश्वास और प्रथाएँ कहाँ रहें, उसमें भी भारत का ही नाम आता है। अजूबा! उच्चतम और निम्नतम, दोनों एक ही साथ। अब आप युवा लोग हैं, ये फ़ैसला आपको करना है कि उच्चतम या निम्नतम। इतना मैं निवेदित कर देता हूँ,, दोनों एक साथ नहीं चलतें। निम्नतम चाहिए तो निम्नतम ही ले लेना, फिर झूठ मत बोलना कि मैं दोनों ले रहा हूँ। दोनों एक साथ नहीं होते। समझ में आ रही है बात?

आज भी दुनिया भर में—ह्यूमन राइट्स इंडेक्स (मानवाधिकार सूची) हो, ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स (मानव विकास सूची) हो, जेंडर एंपावरमेंट मेजर (लिंग सशक्तिकरण माप) हो—ये सब सब रिपोर्ट्स (विवरण) होती हैं; कुछ यूनाइटेड नेशंस (संयुक्त राष्ट्र) की हैं, कुछ इंडिपेंडेंट एजेंसीज़ (स्वतंत्र संस्थाएँ) होती हैं, उनकी आती हैं। भारत का स्थान सबसे नीचे रहता है। मैं बार-बार पूछता हूँ, जहाँ पर उपनिषदों जैसा बोध हो, विज़्डम हो, वहाँ पर ऐसा कैसे हो गया कि उसने अपनी महिलाओं के साथ इतना अत्याचार कर दिया? कैसे कर दिया?

जिस भारत ने बार-बार समझाया कि आत्मा हो तुम, शरीर तुम हो ही नहीं, ;उस भारत ने शरीर को इतना महत्व कैसे दे दिया? यह तो दुनिया में कहीं भी नहीं हुआ और भारत में कम-से-कम दो तीन सौ सालों तक चला है, और ज़्यादा शायद पाँच छः सौ साल, कि पति मर गया हो तो उसके पीछे पत्नी भी जाकर जल मरे चिता में। यह भारत में कैसे हो गया? भारत में कैसे हो सकता है? जहाँ गीता है, जहाँ अष्टावक्र हैं, जहाँ इतने संतों की वाणी है, जहाँ इतने गुरुओं का प्रकाश रहा है, भारत में कैसे हो गया?

फिर मुझे समझ आया कि ये भारत में ही हो सकता था। क्योंकि अहंकार के लिए बोध बहुत बड़ा ख़तरा होता है। माया के लिए बोध बहुत बड़ा ख़तरा होता है, माया के लिए ग्रंथ बहुत बड़ा ख़तरा है। और जब ग्रंथ बहुत ताक़तवर होंगे तो माया क्या करेगी फिर? माया भी उतनी ही ताक़त से पलट कर कोई साज़िश करेगी। इतनी साज़िश माया को कोई दूसरी जगहों पर करने की ज़रूरत पड़ी ही नहीं, क्योंकि वहाँ ग्रंथ इतने ताक़तवर थे ही नहीं।

जानते हो ज़्यादातर जो कोविड में मौतें हुई हैं वो किस कारण हुई थीं? वायरस से नहीं हुई थीं। वायरस जो आता था वो तो अपना काम करके एक हफ़्ते में चला जाता था। आपकी तबियत बिगड़नी शुरू होती थी नौवें-दसवें रोज़ से। मृत्यु वायरस से नहीं हुई थी। अरे! जानते होगे भाई। क्यों हुई थी? तुम्हारी जो अपनी इम्युनिटी (रोग प्रतिरोधकता) है न, वो ओवररिएक्ट करती थी। वायरस तो चला गया,; तो वो किसको मरना शुरू कर देती थी? वो आपके फेफड़ों को मारना शुरू कर देती थी। और जो और कोमल तंतु होते थे शरीर के उनको मारना शुरू कर देती थी। साइटोकीन स्टॉर्म , वो वायरस नहीं है, आपकी अपनी ही इम्युनिटी ओवररिएक्ट कर रही है और आपको मार दे रही है।

उस इम्युनिटी को समझ लो माया है जैसे। जब कोई ख़तरा आया, और वो ख़तरा किस रूप में आया? ग्रंथों के रूप में आया। इतने ऊँचे, इतने शुद्ध ग्रंथ थे कि माया घबरा गयी। उसने ज़बरदस्त रिएक्शन (प्रतिक्रिया) दिया। देह को ही मार दिया। उसने कहा कि तुम ग्रंथ पढ़ो इससे पहले तुम्हारे देह को ही ख़त्म कर दूँ।

हाँ, कहिए।

प्र१: प्रणाम, आचार्य। मेरा प्रश्न यह है कि हमारे कर्म हमारे विचारों से नहीं मिलते बिलकुल, चाहे किसी भी क्षेत्र में ले लें जीवन के। जैसे आज हम महिलाओं के सम्मान की बात करते हैं, उनकी उत्थान की बात करते हैं, लेकिन हमारे विचार कुछ है और कर्म कुछ और हैं।

हम आज कास्टिज्म (जातिवाद) की या जो रिलिजस डिस्प्यूट (धार्मिक विवाद) हैं उनको रिसॉल्व (समाधान) करने की बात करते हैं। अभी हम विचार कर रहे हैं, हमारे विचार काफ़ी प्रज्वलित हैं, लेकिन कुछ समय बाद भूल जाएँगे उन सबको। ऐसा क्यों होता है कि हमें पता होता है कि हम ग़लत कर रहे हैं या सही कर रहे हैं, लेकिन फिर भी उसको अप्लाई (अमल) नहीं कर पाते? हम उन चीज़ों से बिलकुल मेल ही नहीं खाते।

आचार्य: क्योंकि आप जिसको अपना विचार कह रहे हैं, उस विचार में दम होता नहीं है। वो विचार इतना ताक़वर, इतना सच्चा होता ही नहीं है कि आपकी ज़िंदगी बन पाए। ये हमारा भ्रम है जो हम सोचते हैं बहुत बार कि हम अपने विचारों पर चलते हैं।

ग़ौर से समझिएगा, आप अपने विचारों पर नहीं, अपने वृत्तियों पर चलते हो। विचार तो वृत्ति और कर्म के बीच की एक बहुत हल्की सी चीज़ है।

वृत्ति माने क्या?

जो भीतर मूल टेंडेंसीज़ (प्रवृत्ति) बैठी हैं। आपकी टेंडेंसी है आलस की, और आपका विचार है चुस्ती का। विचार है कि जीवन चुस्त-फुर्त रहना चाहिए; और टेंडेंसी किसकी है? आलस की। वृत्ति आलस की है। आपको क्या लग रहा है, आपका कर्म आलस का रहेगा या स्फूर्ति का? कर्म नब्बे प्रतिशत संभावना है कि आलस का ही रहेगा।

हमें धोखा है अगर हम सोचते हैं कि हम सोचकर कर लेंगे। आप सोच कर नहीं करते हो। सोच के नीचे सोच की माँ बैठी हुई है, उसको वृत्ति कहते हैं। हमसे वो करवाती है।

अच्छा, एक बात बताइए, अगर सोच इतनी ही महत्वपूर्ण चीज़ होती तो आपके विचार आपके कहने पर आतें न? आपके विचार क्या आपके कहने पर आते हैं, या स्वयं आ जाते हैं? बैठे हो, कोई आ गया न ख़्याल,; वो किसने भेजा? आपने तो बुलाया नहीं, तो भेजा किसने? वो वृत्ति ने भेजा। वृत्ति का हमें कुछ पता नहीं चलता, वो भीतर छुपी हुई है। वो हमारा जीवन संचालित करती है। और जब वृत्ति के विरुद्ध आप कोई विचार कर लेते हो, तो उसमें कोई दम होता नहीं, वो आपकी ज़िंदगी नहीं बन पाएगा फिर।

तो जीवन अगर बदलना हो, तो कैसे बदलता है? वो बदलता है जब आप अपनी टेंडेंसीज़ को नोट करना (समझना) शुरू करते हो।

मेरी टेंडेंसी क्या है? मेरी टेंडेंसी आलस की है, मेरी टेंडेंसी सो जाने की है, मेरी टेंडेंसी झूठ बोल देने की या डर जाने की है। जब मैं पकड़ा जाता हूँ तो मेरी टेंडेंसी ये नहीं है कि मैं सीधे स्वीकार करूँ कि ग़लती करी है, जब मैं पकड़ा जाता हूँ तो मेरी टेंडेंसी बहाने बनाने की है। जो इस बात को पकड़ लेता है, उसकी ज़िंदगी बदलती है।

टेंडेंसी को पकड़ने से राइट एक्शन (सही कर्म) का जन्म होता है। विचार से सही कर्म कर पाना मुश्किल बात है। सोच कर नहीं कर पाओगे, ऑब्जर्वेशन (अवलोकन) से होगा। थॉट से नहीं होगा, ऑब्जर्वेशन से होगा। विचार से ज़िंदगी नहीं बदलती, आत्मज्ञान से बदलती है। उसी आत्मज्ञान के लिए बोल रहा हूँ आत्मावलोकन, माने *ऑब्जर्वेशन*। जो जानेगा कि मेरा जो इंटरनल सिस्टम (आंतरिक व्यवस्था) है वो कैसे काम करता है, वो पाएगा कि उसका इंटरनल सिस्टम बदलने लग गया है। जिसको नहीं पता है कि उसकी भीतरी व्यवस्था कैसे काम करती है, वो अपनी व्यवस्था का ग़ुलाम बना रह जाएगा।

विचार आप कुछ भी करते रहो। विचार, हम कह रहे हैं, बहुत हल्की चीज़ है, सोचने को कुछ भी सोच लो। बैठ जाओ, सोचो। और जो आप सोचते भी हो, जानबूझ करके, वो आप थोड़ी देर सोच पाओगे। वृत्ति इतनी ताक़तवर होती है कि थोड़ी देर बाद वो आपके विचार भी बदल देगी।

आप ही विचार करते हो न रात में ग्यारह बजे कि सुबह पाँच बजे उठना है? रात में ग्यारह बजे किसने विचार करा था कि सुबह पाँच बजे उठना है? बोलो जल्दी। और सुबह पाँच बजे जब अलार्म बजा, तो किसको विचार आया कि ‘ऐ..! अभी सोते हैं’? विचार ही आया न? तो ग्यारह बजे वाला विचार पाँच बजे बदल कैसे गया? क्योंकि ग्यारह बजे वाला विचार हल्का था और पाँच बजे वाला जो विचार है वो सीधे विचार की ‘अम्मा’ से आ रहा था, वृत्ति से आ रहा था। उसमें जान होती है, वो ज़िंदगी बन जाता है।

जगने का विचार हल्का और सोने का विचार गहरा; नतीजा? हम सोए, मस्त सोए।

आ रही है बात समझ में?

सीधे वृत्ति पर आक्रमण करो। एक बार, दो बार देख लो कि हम ऐसे हैं कि पाँच बजे अलार्म बजता है और सोते रह जाते हैं; तीसरी बार अपनेआप को मौका मत दो। अगल-बगल में किसी को बोल दो, ‘दरवाज़ा भड़भड़ा देना।‘ या दरवाज़ा खोल के सोओ, डंडा देकर सोओ, ‘दरवाज़ा खुला है, डंडा मेरी तरफ़ से, नहीं उठूँ तो पट से।’ और मैं कहा करता हूँ, बहुत ज़रूरी है और जान गये हो कि भीतर आलस की वृत्ति है तो सोओ ही मत। नहीं सोएँगे, क्योंकि पता है कि नहीं उठेंगे। ज़रूरी है भाई, नहीं सोएँगे। मर थोड़े ही जाएँगे एक दिन नहीं सोएँगे तो।

समझ रहे हो बात को?

स्पिरिचूऐलिटी (अध्यात्म) में जो पूरा प्रोसेस है विज़्डम का, उसमें अपनी टेंडेंसी को पहचानना एक अहम बात होती है। पहचानना कि भीतर क्या है, जो अलग-अलग तरीक़ो से काम करता है पर उसकी टेंडेंसी यही है। उस टेंडेंसी को अलग-अलग लोग अलग तरह के नाम देते हैं। कोई बोल देता है द टेंडेंसी टू सेल्फ प्रिजर्व (ख़ुद को बचाने की इच्छा), कभी शरीर के रूप में ख़ुद को बचाओ, कभी अपने आइडियाज़ को, ओपिनियंस को बचाओ, कभी अपनी बात कह दी है, ये बचाओ कि ग़लत न साबित होनी पाए। कभी अपनी प्रतिष्ठा को बचाओ, कभी अपने संबंधों को बचाओ, कभी अपने रुपये-पैसे को बचाओ। उसको तुम ऐसे भी देख सकते हो।

उसको तुम्हें जैसे भी देखना है, लेकिन यह याद रखो कि भीतर एक बैठी हुई है टेंडेंसी जिसने तुम्हारी अनुमति, तुम्हारी परमिशन नहीं ली है लेकिन भीतर बैठी हुई है। और वो वहाँ से बैठ कर तुमको नचा रही है। वो तुम्हारी मालकिन बनी हुई है भीतर से और तुम्हें ग़ुलाम का जीवन नहीं जीना है। अगर नहीं जीना है तो ये जो भीतर मालिक बैठा हुआ है, इससे आज़ाद हो जाओ। आज़ाद कैसे होगे अगर इसको जानते ही नहीं? दुश्मन को जाने बिना कोई दुश्मन को मार सकता है? तो पहले इसको जानो, जानो, जानो – वॉच, वॉच।

हाँ, बोलिए?

प्र२: सादरम प्रणमामि आचार्यः। मम नामः शालिनी, अह्म संस्कृत विश्वविद्यालयतः, आइआईटी मध्ये संस्कृत पाठ्यतुम आगतस्पी:। मम एक: प्रश्न: अस्ति।

जैसा कि हम देख रहे हैं यहाँ पर बहुत सारे लोग बैठे हुए हैं और आपने अभी जो कुछ बातें बताईं, जैसा कि हमारे जो धार्मिक ग्रंथ हैं या जो मोटिवेशनल साहित्य है, हमारे देश में उससे हमें षडयंत्र करके दूर किया गया। और जो हम मंत्र सुनते हैं, जितने भी कार्यक्रम होते हैं...

आचार्य: नहीं, थोड़ा -सा आप आगे बढ़ गयीं। मैंने धर्मग्रंथों की बात करी है, मोटिवेशनल साहित्य से नहीं कह रहा हूँ। मोटिवेशनल साहित्य भारत में है ही नहीं। यह बहुत ताज़ी बीमारी है। यह अमेरिका से चली है और भारत में आयी है। अमेरिका में भी इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन (औद्योगिक क्रांति) के बाद इस तरह की लाखों जॉब्स आ गयीं जिसमें आप भीतर से उत्साहित अनुभव कर ही नहीं सकते हैं।

आपको एक असेंबली लाइन पर खड़ा कर दिया गया है कि वो प्रोडक्ट आ रहा है, उसको पैकेट में डालो। यहाँ सामने से चीज़ें आ रही हैं, जूते आ रहे हैं, जूतों को कार्डबोर्ड में डालो। और ये एक आदमी की दिन भर की नौकरी है, असेंबली लाइन जॉब है। तो वो मरने लग जाता है दस ही दिन में, तो फिर एक पूरी मोटिवेशन इंडस्ट्री खड़ी करनी पड़ी कैपिटलिस्ट्स (पूंजीपतियों) को ताकि लोगों से वो काम करवाए जा सकें जो काम करे जाने ही नहीं चाहिए। मोटिवेशन का कुल उद्देश्य ये है कि तुम वो काम भी बस करते रह जाओ किसी तरीक़े से जो तुम्हें करना ही नहीं चाहिए।

अगर वो काम करने लायक होता वास्तव में, तुम्हें क्या मोटिवेशन की ज़रूरत पड़ती? तो मोटिवेशन बहुत नयी चीज़ है और इसका जन्म अमेरिका में हुआ है। भारत में ये अभी बीस-चालीस साल में आयी है।

प्र३: जी। आचार्य जी, संस्कृत क्यों पढ़नी चाहिए?

आचार्य: भई, मुझे तो पढ़ने की ज़रूरत इसलिए थी कि जो मुझे साहित्य पढ़ना है वो मूल रूप से संस्कृत में था। तो मुझे उसका अर्थ जानना है तो मुझे संस्कृत जाननी पड़ेगी। लेकिन जिन लोगों को थोड़ा भी अपनेआप से प्रेम हो, जो थोड़ा भी आगे निकलना चाहते हों भीतरी तौर पर, उनके लिए अच्छा रहेगा कि उन्हें संस्कृत में कम-से-कम आरंभिक स्तर की प्रवीणता हो। और उतना मुश्किल नहीं है, क्योंकि यहाँ आप रुड़की में हैं तो आप में से अस्सी-नब्बे प्रतिशत लोगों ने स्कूल में थोड़ी तो संस्कृत पढ़ी होगी। पढ़ी होगी न?

तो उसके बाद अगर आप एक साल बस संस्कृत को दे दें, अभी आप अपनी अवस्था में, तो इतनी आ जाती है—उसको सरला भाषा बोलते हैं—इतनी आ जाती है आरंभिक स्तर की, कि आप अर्थ करना शुरू कर देंगे। और उसका जो आनंद होता है वो दूसरा होता है।

एक अन्य लाभ भी होता है उसका बहुत महत्वपूर्ण।, गीता जैसे ग्रंथों का भ्रष्ट और विकृत अनुवाद बाज़ार में ख़ूब फैला हुआ है। अगर आपको थोड़ी भी संस्कृत आती है तो आपको दिख जाएगा कि ये जो ग़लत अनुवाद है, आपको फँसाने के लिए बताया जा रहा है। आप बच जाओगे।

कई संस्थाएँ हैं जो बहुत बड़ी हो गयी हैं, इंटरनेशनल बिलकुल, वो चल ही गीता के एकदम विकृत अर्थों पर रही हैं। और वो इसलिए चल पा रही है, क्योंकि आम आदमी को संस्कृत बिलकुल नहीं आती। तो अगर आप थोड़ी भी संस्कृत सीख लेंगे तो कम-से-कम उस तरह के षडयंत्र से बच जाएँगे जहाँ आपको आपके ही ग्रंथ का ग़लत अर्थ बताया जा रहा हो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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