आचार्य प्रशांत: (प्रश्नकर्ता का प्रश्न पढ़ते हुए) ‘आप इतना जो़र देते हैं गीता पर, उपनिषद् पर और ग्रंथों पर, ख़ासकर वेदान्त पर तो उपनिषद् भी। तो इंसानों ने ही लिखे है न, तो हम किसी और इंसान कि लिखी हुई चीज़ को क्यों पढ़ें? और जिन्होंने उपनिषद् लिखे हैं उन्होंने पहले तो कोई उपनिषद् पढ़ा नहीं था, तो माने, बिना उपनिषद् पढ़े भी अपने अनुभवों से ज्ञान पाया जा सकता है। जब उन सब लोगों ने पा लिया तो हम क्यों नहीं पा सकते?’
बिलकुल पाया जा सकता है और इंसानों से ही आये हैं उपनिषद् और वेदों को कहा जाता है ‘अपौरुषेय’। लेकिन चेतना कितनी भी ऊँची हो, उसकी अभिव्यक्ति तो किसी इंसान के ही माध्यम से होती है। तो बिलकुल ठीक है कि इंसानों के ही माध्यम से अभिव्यक्त हुई है, चाहे गीता हों, चाहे उपनिषद् हों। और जो आपने भाव व्यक्त करा है कि जब वो इंसान थे उपनिषद् लिख सकते थे बिना अन्य उपनिषदों को पढ़े तो हम क्यों नहीं कर सकते?
कुछ बातें हैं, इसमें समझनी होगी। पहली बात तो मैंने तुरन्त ही मान लिया कि वेद हों, उपनिषद् हों, किसी दैवीय चमत्कार का नतीज़ा नहीं हैं। बिलकुल ठीक कह रहे हो प्रवीण कि वो इंसान से ही आये हैं। तो यहाँ तक आपकी बात ठीक है। फिर आगे कह रहे हो कि जब एक इंसान उन्हें लिख सकता है तो दूसरा इंसान भी लिख सकता है।
अब यहाँ पर बात थोड़ी सूक्ष्म हो जाती है, समझना होगा। देखो, इंसान और इंसान बराबर नहीं होते। यह बात मुझे पता है कि सुनने में थोड़ी विचित्र लगेगी पर बोले देता हूँ। यह तो छोड़ दो कि दो इंसान आपस में बराबर होते हैं, एक ही इंसान एक पल में जिस स्तर पर होता है, दूसरे पल उस स्तर पर नहीं होता।
तुम एक इंसान की हाथ की लंबाई नापो आज और दो साल बाद तो कोई अंतर न मिले शायद और मिले भी तो बहुत न्यून। लेकिन तुम एक इंसान कि चेतना नापो आज और दो साल बाद तो बहुत अंतर मिलेगा। अब मैं तुमसे पूछ रहा हूँ, 'इंसान क्या है, उसका दायाँ हाथ या उसकी चेतना? इंसान क्या है?'
तुम जब किसी इंसान की बात करते हो तो तुम किसकी बात कर रहे हो? तुम उसके हाथ की बात कर रहे हो या तुम उसकी चेतना की बात कर रहे हो, बताओ? इंसान क्या है?
देखो लोग होते हैं जो माँस खाते हैं। जब जानवर का मांस खरीदने जाते हैं तो वो कैसे होता है? कहते हैं कि यह मुर्गा रखा है। तुरन्त बोलते हैं कि कितने किलो का है?
ठीक है न?
कोई यह तो नहीं बताता कि मुर्गे के विचार क्या हैं। कोई यह तो नहीं बताता कि मुर्गे की चेतना कितनी गहरी है। पशु का लक्षण यह है कि उसे उसके शरीर से और मात्र उसके शरीर से ही नापा जा सकता है। उसके अलावा उसकी कोई पहचान नहीं होती। अब बताओ, इंसान को भी तुम ऐसे ही याद रखते हो?
तुम यहाँ बैठे हुए हो, मैं तुमको संबोधित करूँ, 'ए पैंसठ किलो', तुम्हें कैसा लगेगा? क्या एक इंसान उसका शरीर है? अगर शरीर है तो शरीर और शरीर में बहुत अंतर नहीं होता। आप तुरन्त कह सकते हो, सब इंसान बराबर हैं। क्यों? क्योंकि सबके दो-दो हाथ हैं, सबकी दो-दो आँखें हैं। सब एक ही प्रक्रिया से जन्म लेते हैं और मृत्यु के बाद सब राख हो जाते हैं। सब इंसान बराबर हैं। कोई इंसान उड़ नहीं सकता और कोई इंसान गोता मारकर समुद्र के बिलकुल तल पर नहीं पहुँच सकता। सब इंसान बराबर हैं। कह सकते हो न?
जब तुम उन्हें बराबर कह रहे हो तो तुम उन्हें किस तल पर, किस आयाम पर बराबर घोषित कर रहे हो? शरीर के आयाम पर। तुम अगर शरीर हो तो तुम्हारा नाम नहीं होना चाहिए। आमतौर पर पशुओं के नाम नहीं होते क्योंकि शरीर और शरीर बराबर होते हैं, तो अलग-अलग नाम देकर क्या फ़ायदा? कोई ऐसे बोलता है, मेरे पास चार भैंस हैं। कोई यह थोड़े ही बताता है कि मेरी भैंसों के यह-यह नाम हैं। कई बार तो नाम होते भी नहीं है लेकिन अगर किसी के चार बच्चे हैं, तो उनके नाम ज़रूर होंगे। है न?
इंसान और इंसान में बहुत फ़र्क होता है। यह दलील मत दो कि एक इंसान ने उपनिषद् लिख दिया था तो मैं यहाँ बैठा हूँ, मैं भी लिख डालूँगा। संभावना निश्चित रूप से हर व्यक्ति में है कि उसकी चेतना असीम ऊँचाई पाये, पर वो संभावना साकार बिरलों में ही होती है। ऐसा है! तथ्य कि उपेक्षा मत करो! "हर घट मेरा साइयाँ सूनी सेज न कोए "
हर घट में — घट माने हर शरीर में साईं, साईं माने चेतना की उच्चतम स्थिति। हर घट में चेतना की उच्चतम स्थिति की संभावना निश्चित रूप से है, बिलकुल है लेकिन वो अभिव्यक्त मेनिफेस्ट कितनों में होती है? दिल पर हाथ रख कर ईमानदारी से बताना, कितने लोगों को तुम देखते हो कि जो भी उनकी उच्चतम संभावना है, वो उसको साकार करते हुए जी रहे हैं? कितने लोगों में ऐसा देखते हो?
तो फिर इसीलिए "बलिहारी वा घट की, जिस घट परगट होय"
संभावना तो सब में है। वो संभावना प्रकट नहीं सब में होने पाती। बीज सब में है, पर वो बीज सबका जीवन नहीं बनने पाता। सोचो, तुम्हारे भीतर एक बीज मौजूद है, पदार्थ रूप में ही; कल्पना कर लो, कोई बीज मौजूद है और जीवन भर तुम उस बीज को अपनी छाती में लिए रहो। क्या फ़र्क पड़ा? बीज, तो बीज।
जब तक बीज, बीज जैसा है, वो लगभग जड़ है। अनुपयोगी है, नगण्य है। उसकी कोई गिनती नहीं, बीज है। वही बीज जब लहराता वृक्ष बन जाता है तो बात दूसरी होती। वो बीज सब में वृक्ष नहीं बनता।
तो यह जो समाजवादी नारेबाज़ी है, यह अध्यात्म में शुरू मत कर दिया करो कि हर इंसान बराबर है। हर इंसान बराबर है और हम मान रहे हैं बराबर है पर किस तल पर बराबर है — यह याद रखना अच्छे से। किस तल पर बराबर है? शरीर के तल पर बराबर है। एक वैक्सीन (टीका) जो तुम पर काम करती है, दूसरे पर भी काम करेगी। एक वायरस (कीटाणु) जो तुम्हें लगता है, वो दूसरे पर भी लगेगा। दाल-चावल तुम भी खा लेते हो, दाल-चावल दूसरा व्यक्ति भी खा लेगा, उसको भी पच जाएगा। तो उस तल पर सब बराबर हैं।
चेतना के तल पर सब बराबर बिलकुल भी नहीं हैं, एकदम नहीं हैं। तो मैं क्या कह रहा हूँ? क्या मैं भेदभाव का समर्थन कर रहा हूँ? क्या मैं कह रहा हूँ, कुछ लोग ऊँचे और कुछ लोग नीचे होते हैं। नहीं, एकदम नहीं, मैं बिलकुल ऐसा नहीं कह रहा हूँ कि ऋषियों का कोई समूह, कोई समुदाय या कोई जाति होती है, जो विशेषकर योग्य होती है, उपनिषदों कि रचना करने के लिए। नहीं, मैं ऐसा बिलकुल नहीं कह रहा हूँ।
एक ओर मैं यह नहीं मान रहा हूँ कि चेतना के तल पर इंसान और इंसान बराबर हैं। नहीं! मैं कह रहा हूँ, फ़र्क है; एक ऊँचा, एक नीचा है, बिलकुल खुला कह रहा हूँ। और दूसरी ओर मैं यह भी नहीं कह रहा हूँ कि एक ऊँचा इसलिए है क्योंकि वह किसी ख़ास समुदाय, या वर्ग, या जाति से आता है। नहीं! तुम ऊँचे होगे या नीचे होगे, तुम्हारी चेतना का क्या स्तर रहेगा, यह तुम्हारे जीवन के चुनावों पर निर्भर करता है!
तो मैंने पहली बात कही, एक इंसान दूसरे इंसान से अलग होता है, ऊपर होता है, नीचे होता है — साफ़ समझ लो। और दूसरी बात मैं यह कह रहा हूँ कि कोई इंसान ऊपर होगा या नीचे होगा, यह बात न तो संयोग कि है, न पैदाइश कि है। न तो यह बात जन्मगत रूप से निर्धारित होनी है कि तुम कितने ऊँचे हो, कितने नीचे हो। और न ही यह बात संयोग से निर्धारित होनी है। यह बात निर्धारित होनी है तुम्हारे चुनावों से। तुम चुनोगे, तो तुम ऊपर हो; तुम चुनोगे, तो तुम नीचे हो।
तो ऋषियों ने चुनाव करा था एक बहुत अलग तरह के जीवन का। उस अलग तरह के जीवन का उत्पाद हैं — उपनिषद्। उपनिषद् जादू से नहीं पैदा हुए, उपनिषद् आकाश से भी नहीं टपक पड़े। और आरंभ में ही मैंने कह दिया था, मैं बिलकुल मान रहा हूँ कि कोई दैवीय चमत्कार से उपनिषद् नहीं आ गये। ऐसा नहीं हो गया है कि ऋषि एक दिन सो रहे थे और जगे तो पाया कि बगल में उपनिषदों कि पांडुलिपि रखी हुई है।
न! ऐसा कुछ भी नहीं!
एक इंसान ने झूठ को नकारते हुए बड़ी दृढ़ता से, बड़े कलेजे के साथ, बड़े संकल्प के साथ चुनाव करा कि मैं एक सच्ची ज़िंदगी जिऊँगा। और जब एक आदमी ऐसा चुनाव करता है तब उसकी ज़िंदगी से पैदा होते हैं उपनिषद्।
ऋषियों को ऐसे ही बैठे-ठाले सपना नहीं आ गया था श्लोकों का। न भाँग, गांजा, धतूरा मारकर के उन्होंने कुछ बोल दिया और लोगों ने कह दिया, 'देखो आ गये, आ गये! वेदों की ऋचाएँ आ गयीं।' एक बड़े गहरे आंतरिक श्रम का नतीजा है वेदान्त; पूरी ज़िंदगी लगती है। पूरी ज़िंदगी एक ऊँचे तरीक़े से जी जाती है। तब वेदों कि एक ऋचा सामने आती है, विशेषकर वेदान्त की।
अब मैं पूछ रहा हूँ, (प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हुए) तुम वैसे ज़िंदगी जी रहे हो क्या? (व्यंग में मुस्कुराते हैं) ऋषियों की बराबरी करना चाहते हो। कह रहे हो, ‘वो इंसान थे, वो ऋचाएँ बोल सकते हैं तो साहब हम भी बोल सकते हैं’। बिलकुल ठीक है, बोल सकते हो, पर जो चुनाव उन ऋषियों ने करें, जो त्याग उन ऋषियों ने करे — त्याग समझते हो? सैक्रिफ़ाइस , क़ुर्बानी — वो तुमने करा है क्या?
अपने ऊपर जो आत्मिक अनुशासन ऋषियों ने रखा, तुमने अपनी ज़िंदगी में रखा है क्या? और अगर रखा है, तो बधाई हो! तुम महर्षि हो! यदि रखा है तो….? तुम्हारे सवाल से लग नहीं रहा कि तुम ऋषि, महर्षि इत्यादि किसी दर्जे के हो। लेकिन फिर भी बता देता हूँ।
यहाँ कोई फ़्यूडल सामंती व्यवस्था नहीं चल रही है। जहाँ यह कहा जा रहा हो कि देखो वो ऋषि लोग थे, उन्होंने तो रिलीजियस स्क्रिप्चर्स (धार्मिक ग्रंथ) को मोनोपोलाइज़ (एकाधिकार) कर दिया है और अब एक लिबरल ऐज (उदार युग) आया है, जिसमें हम कहेंगे, 'देखिए साहब, यह मोनोपोली (एकाधिकार) नहीं चलेगी रिलीजन (धर्म) पर। तो अब हर कोई बैठ करके लिखेगा स्क्रिप्चर्स (धर्म ग्रंथ)।'
आप बिलकुल लिख सकते हो लेकिन उनमें वो बात नहीं होगी, उनमें वो जान नहीं होगी, उनमें वो कालातीत अमृत नहीं होगा, टाइमलेसनेस (कालातीत) नहीं होगी। पाँच हज़ार सालों से….। पहले उपनिषद् इतने ही पहले लिखे गये थे और जो सबसे निकट के, नवीन उपनिषद् हैं, वो क़रीब-क़रीब हज़ार साल पहले लिखे गये।
तो हज़ारों सालों से उपनिषदों की हस्ती बनी हुई है, बरक़रार है। कुछ बात है उनमें। कुछ है उनमें जो समय के हाथों मिट नहीं रहा, कालातीत है। आप भी बैठकर के कुछ लिख सकते हो। इतनी किताबें रोज़ छपती हैं। गूगल सर्च (गूगल पर खोजना) कर लो कि रोज़ दुनिया भर में कुल मिलाकर के कितनी किताबें छप रही हैं। उनका हश्र क्या होता है? उनमें जान कितनी है? उनमें औकात कितनी है?
क्यों नहीं है? वज़ह बताए देता हूँ। इसलिए नहीं कि लिखने वाले के पास कला और कौशल का अभाव था। इसलिए कि लिखने वाला वो ज़िंदगी नहीं जी रहा, जिस ज़िंदगी से उपनिषद् पैदा होते हैं। लेखन तो कृति है न? लेखन तो लेखक पर, कृतिकार पर आश्रित होगा।
जब लेखक ही उतना ऊँचा जीवन नहीं जी रहा तो लेखनी आसमान कैसे लिख डालेगी। बताओ? लेखक ऐसा भी नहीं है कि डोर बाँध करके, पतंग बन करके थोड़ा ऊपर तक उड़ जाए। लेखक ऐसा है कि जो दिन-रात दुनिया की कीचड़ में ही लोट रहा है, कभी ज़रा भी ऊपर नहीं उठा। मुझे बताओ उसका लेखन आसमानों जैसा कैसे हो जाएगा? बताओ, कैसे हो जाएगा?
ऋषियों के जीवन में एक सात्विकता थी, एक शुचिता थी। जानते हो न क्या करते हैं उपनिषद्? हर चीज़ की जाँच-पड़ताल, अन्वेषण करते हैं और जहाँ-जहाँ झूठ पाते जाते हैं, एकदम निर्मम होकर के नकारते जाते हैं। आपने ऐसा करा है कि जो चीज़ आपने पायी हो कि असली नहीं है, उसको नकार दिया हो जीवन में? अगर नकार दिया है तो आप महर्षि हैं।
वो ऋषि उस समय पर चले जाते थे शहर से दूर। क्यों चले आते थे शहर से दूर? क्योंकि शहर, समुदाय, जहाँ-जहाँ भी बसावट होती है, वो सब जगहें अक्सर झूठे रिश्तों पर आधारित होती हैं। ऋषियों ने कहा ऐसी जगहों पर दम घुटता है हमारा। तो वो वनों की ओर प्रस्थान कर जाते थे। ऐसा नहीं है कि उन्हें जंगल में रहकर के कोई विशेष आनंद मिलता था।
ज़्यादा बड़ी बात यह थी कि कैसे रहे उन मोहल्लों में, समुदायों में, नगरों में जहाँ झूठ का राज है। उन्हें झूठ नहीं पसंद; वो नकार की ज़िंदगी जीते थे; वो दूर हो जाते थे। कहते थे, 'जहाँ झूठ है, वहाँ हम साँस नहीं लेते, दूर हो जाएँगे।' आपकी ज़िंदगी में आपने जहाँ-जहाँ झूठ पाया है, आप उससे तुरन्त दूर हो गये हैं क्या? आपने छोड़ दिया है? अगर छोड़ दिया है तो आप महर्षि हैं।
तो क़ीमत अदा करनी पड़ती है। क़ीमत अदा करते हो तब जाकर के तुम्हारे एक-एक कर्म में ऋचा की सुगंध होती है। कर्ता की शुद्धि होनी आवश्यक है न? कर्ता की शुद्धि हो जाती है। फिर उसके एक-एक कर्म में ऋचा फूटती है। और जब कर्ता की ही शुद्धि नहीं हुई है और कर्ता बिलकुल अहंकार में भर के बोले, 'अजी साहब, हम ही ऋषि हैं। हम ही जो बोल दें, वही उपनिषद् हैं।' तो यह मात्र दम्भोक्ति है; अहंकार की खोखली उद्घोषणा; दम नहीं कुछ इसमें।
वह सब लोग जिनको बहुत शौक रहता है कि हम गीता क्यों पढ़ें, हम तो ख़ुद ही अपने अनुभवों से गीता बता देंगे। मैं उनसे कह रहा हूँ, 'आप बिलकुल ऐसा कर सकते हैं। लेकिन उसके लिए फिर आपको जीवन भी वैसा जीना पड़ेगा, जैसा कृष्ण ने जिया था। ऐसा नहीं हो सकता कि आप जीवन तो जी रहे हैं नुन्नुलाल का और रचना करनी चाहते हैं आप कृष्ण जैसी। नहीं, ऐसे नहीं हो पाएगा’।
ऐसा नहीं हो पाएगा कि तुम अपनी ज़िंदगी वही बँधे-बँधाए ढ़र्रों में जी रहे हो। सुबह जाकर दुकान पर बैठ जाते हो, गल्ला गिनते हो, इसको झाँसा देते हो, उससे धोखा खाते हों, इस पड़ोसी को दबाते हो, उस पड़ोसी से जल जाते हो, फिर रात में घर आते हो, बीवी से झूठ़ बोलते हो, टीवी पर घटिया सामग्री देखते हो और रात में फिर अपने बिस्तरे पर ऐसी-वेसी लगाकर बोलते हो, अब थोड़ा उपनिषद् लिख दिया जाए और एक मस्त उपनिषद् तैयार कर देते हो। कहते हो, 'देखा! वो ऋषि भी इंसान थे। हम भी इंसान हैं। हमने उपनिषद् लिख दिया न।'
यह घटिया ज़िंदगी — मैं फिर पूछ रहा हूँ — उपनिषद् को जन्म देगी क्या? तो अपनी ज़िंदगी की ओर ग़ौर से देखो। जो क़ुर्बानियाँ देनी ज़रूरी हैं, जो क़ीमत देनी ज़रूरी है, वो दो, और उसके बाद कुछ संभावना है कि तुम जो भी कर्म करो — चाहे वो लेखन हो या कुछ और — तुम जो भी कर्म करो वो गीता के समतुल्य हो। उससे पहले बेकार की बातें मत करो।