कई वृद्ध जीने की इच्छा छोड़ मृत्यु की प्रतीक्षा क्यों करते हैं? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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कई वृद्ध जीने की इच्छा छोड़ मृत्यु की प्रतीक्षा क्यों करते हैं? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है मैंने देखा है कि बहुत से बूढ़े लोग कहते हैं कि बस, अब जीने की तमन्ना नहीं रह गयी। सेहत ठीक होती हो कि न होती हो, बस एक डिप्रेशन (अवसाद) में चले जाते हैं, कहते हैं कि जल्दी से मौत आ जाए।

मुझे ये नहीं समझ में आता कि वो जीना क्यों छोड़ देते हैं? हम स्वस्थ होते हैं फिर भी मृत्यु आने तक क्यों नहीं जीना चाहते? हर रोज़ हम यही बात बार-बार सुनते हैं कि मरना है, मरना है, मरना है, मौत क्यों नहीं आ रही।

आचार्य प्रशांत: रन बनाने थे तीन सौ। पैंतालीस ओवर बीत चुके हैं, रन बने हैं अस्सी। तो बाकी पाँच ओवर क्या दिल लगाकर खेलोगे? फिर कैसे खेलते हो?

‘कौनसा जीत जाना है, पाँच ओवर काहे को दुर्गत कराएँ। कहीं गेंद लग-वग गयी, फालतू वैसे ही परेशान हैं। जब पैंतालीस ओवर में ही अस्सी बने हैं तो पाँच ओवर में कौनसा कमाल हो जाएगा, इससे अच्छा छोड़ो’ — ये बूढ़ों की हालत है।

अभी तक की चूँकि ज़िन्दगी बर्बाद की थी, इसीलिए शेष जीवन में भी अब कोई रुचि नहीं बची — ये निकृष्टतम अवस्था है। ऊँची-से-ऊँची अवस्था ये होती है कि तीन सौ बनाने थे, छत्तीस ओवर में बनाकर ख़त्म किये। बाक़ी चौदह ओवरों की तो हमें ज़रूरत भी नहीं। बाक़ी चौदह ओवर दान कर दिये।

पचास ओवर मिले थे तीन सौ बनाने के लिए, छत्तीस में बनाकर ख़त्म — ये उच्चतम हालत है। मध्यम हालत ये है कि तीन सौ बनाने हैं, पैंतालीस ओवर बीत चुके हैं और रन बने हैं ढाई-सौ।

तो भाई, दम लगाओ जीत सकते हैं। (दोहराते हुए) दम लगाओ जीत सकते हैं। ये मध्यम हालत है कि अवसर बीता जा रहा है; अवसर बार-बार नहीं आता — दम लगाओ जीत सकते हैं। और निकृष्टतम हालत ये है कि पैंतालीस ओवर में रन बनायें हैं अस्सी। अब क्या खेलेंगे, हटाओ न! जगत मिथ्या। (श्रोतागण हँसते हैं)

प्र: एक और धारणा है, लोग कहते हैं जितनी जल्दी, जितना ज़्यादा पैसा कमा लिया जाए, बाक़ी इससे मुक्त होकर आगे का जीवन सुख से बिताया जाएगा। पचास के बाद, पचपन के बाद आख़िरी पन्द्रह साल बस मज़े कर रहे हैं। ये धारणा दिखी कि आर्थिक मुक्ति पाओ जितनी जल्दी हो सके बहुत सारे पैसे कमाकर।

आचार्य: अगर हो सके तो अच्छा है। सवाल ये नहीं कि इरादा क्या है, सवाल ये है कि सफल होते हो क्या? (दोहराते हुए) सफल होते हो क्या?

अभी जो चौथा टेस्ट मैच हुआ है उसमें मोईन अली ने ख़ूब विकेट लिये और ये अजीब बात है। भारतीय बल्लेबाज़ स्पिन के अच्छे खिलाड़ी माने जाते हैं और उन्हें आउट कौन कर रहा है, इंग्लैंड का स्पिनर , वो भी इंग्लैंड में जहाँ की पिचें भी टर्नर नहीं होती। ये तो बड़ी अजीब बात है। भारत के बल्लेबाज़ों को इंग्लैंड का स्पिनर आउट कर रहा है, वो भी भारत की पिचों पर नहीं कि भई, पिच घटिया थी, उसमें दरार पड़ी हुई थी, गेंद मुड़ गयी, कुछ हो गया। इंग्लैंड की पिच फ़ास्ट नहीं स्विंग करती है। इंग्लैंड की पिच और मोईन अली कोई बहुत तगड़ा स्पिनर नहीं, और चार-चार पाँच-पाँच विकेट उखाड़ रहा है।

तो एक विश्लेषक ने कहा कि ये सब कुछ नहीं है। ये इतने डरे हुए थे ब्रॉड और एंडर्सन से कि जब मोईन अली सामने आता था तो कोशिश करते थे कि जल्दी से…।

श्रोता: छक्के-चौके मारें, रन बनाने की जल्दी।

आचार्य: तो जल्दी से पैसा इकट्ठा कर लो, क्योंकि आगे आफ़त आने वाली है। आफ़त तो बाद में आएगी, तुम अभी आउट हो गये। ब्रॉड, एंडर्सन तो बाद में आएँगे, लो तुम मोईन अली के ही शिकार हो गये। और तेज़ गेंदबाज़ों के साथ ये ख़ूब होता है। जो बहुत अच्छा गेंदबाज़ होता है वो दबाव बनाता है और आप उसके सामने बहुत सतर्क रहते हैं। आप रन बनाते नहीं।

दूसरे छोर से जो गेंदबाज़ी कर रहा होता है, आपको लगता है कि अब यहाँ तो बना लें, क्योंकि अब अगला ओवर उसका आएगा। उसके ओवर में तो बनने हैं नहीं, यहीं कुछ कर लें और यहाँ आप बल्ला खोलते हो और बल्ला खुला नहीं कि आप निकले। तो यही है वो कि चलो रे अभी जल्दी से कुछ कर लें। ऐसा हो सकता है, मैं इनकार नहीं कर रहा पर सदा ऐसा हो ये आवश्यक नहीं है।

प्र: नेटवर्क मार्केटिंग (विपणन) जो करते हैं वो कहते हैं, 'जल्दी से चार साल में बहुत पैसा आ जाए उसके बाद आप मुक्त हैं।'

आचार्य: अगर ऐसा होता हो तो। तुम पूछो कि ऐसे उदाहरण कितने हैं। क्या ऐसा होता है? दूसरी बात, पैसा कितना चाहिए ये कोई एब्सल्यूट (पूर्ण) बात नहीं होती है। आज तुम्हारे पास नहीं है तो तुम कहते हो दस लाख आ जाएँ तो मैं सेवानिवृत हो जाऊँगा, अवकाश ले लूँगा। आज तुम दस लाख का आँकड़ा क्यों बोल रहे हो?

श्रोता: क्योंकि कुछ नहीं है तुम्हारे पास।

आचार्य: क्योंकि तुम्हारे पास कुछ नहीं है। जब कुछ नहीं है तुम्हारे पास तुम्हें दस लाख बड़ी बात लगती है। तुम्हें लगता है दस लाख हो जाएँ बस, मैं मुक्ति पा लूँगा। जिस दिन तुम्हारे पास पाँच लाख हो गया उस दिन तुम्हें दस लाख छोटी बात लगती है। तब तुम कहते हो पचास हो जाएँ फिर उस दिन छोड़ देंगें।

जिस दिन तुम्हारे पास तीस हो गया, उस दिन पचास छोटी बात लगती है। तुम कहते हो, 'करोड़ तो होना चाहिए, करोड़ के बिना कैसे रिटायर हो जाएँगे भाई।' अस्सी लाख हो गया तुम कहते हो, 'पाँच करोड़ से नीचे पर नहीं हम छोड़ने वाले।' व्यावहारिक समस्याएँ हैं। व्यावहारिक समस्याएँ।

कॉलेज के लड़के होते हैं उनसे पूछो, ‘बेटा, कितने की नौकरी चाहिए?' बहुत कोई बोलता है उसमें तो तीस-चालीस-पचास बोल देता है। अभी भी न जाने कितने होते हैं, वो आठ-दस पर ही खुश हो जाते हैं। बोलते हैं, ‘मेरा खर्चा ही महीने का चार है तो एक काम करो तुम आठ दे दो।' (श्रोतागण हँसते हैं)

अपनी बुद्धि से उन्होंने लालच ही दिखाया है। बोलते हैं, ‘मुझे पता है मेरा महीने का आजकल चार हज़ार ख़र्च होता है, तो एक काम करना, आठ दोगे क्या?’

और आठ में भी उनको शक है। उन्होंने रेखा खींच रखी है चार पर, तो इसीलिए आठ की बात करते हैं। और यही जब आगे बढ़ जाएगा तो उसको फिर लाख-दो लाख-पाँच लाख की बात करनी है।

तुम्हारी माँगेंं अगर किसी भी बिन्दु पर जाकर रुक जाएँ तो कोई दिक़्क़त नहीं है। तुम एक बड़ी राशि बता दो और तुम उससे भी सन्तुष्ट हो जाओ तो कोई बात नहीं है। बात ये है कि तुम जिस भी राशि के निकट पहुँचने लगोगे वो राशि तुम्हें छोटी लगने लगेगी। तुम पचास करोड़ भी बोल दो और किसी तरह तुम पहुँच जाओ पचास करोड़ के पास, तुम्हें वो छोटा लगने लगेगा — ये तो सुरसा का मुँह है वो!

प्र: खुलता ही जाता है।

आचार्य: खुलता ही जाता है।

प्र: कई बार तो ऐसा होता है कि मैंने सोचा कि मेरे पास एक करोड़ हों, कई बार ख़यालों में मुझे लगता है कि मैंने कम सोचा है, थोड़ा सा और ज़्यादा बढ़ा लेते हैं।

आचार्य: थोड़ा बढ़ा लेते हैं। दूरदर्शन पर आता था मुंगेरीलाल के हसीन सपने। इन सारी बातों का समाधान एक है। बोलो कि जन्म हुआ है मुक्ति के लिए और उस मुक्ति के लिए कुछ धन भी चाहिए। धन चाहिए सिर्फ़ मुक्ति के लिए और किसी उद्देश्य के लिए नहीं चाहिए।

तो अब बताओ, मुक्ति के लिए कितना धन चाहिए? जितना चाहिए उतना ज़रूर तुम कमाओ और उससे ज़्यादा बिल्कुल भी नहीं। धन कितना होना चाहिए इसका पैमाना ये ही है। कितना होगा? जिसमें मैं दुनिया से, समाज से आज़ाद जी सकता हूँ, कहीं हाथ नहीं जोड़ने पड़ेंगे, कहीं भीख नहीं माँगनी पड़ेगी, किसी पर निर्भर नहीं होना पड़ेगा, उतना पैसा तो कमाना होगा। लेकिन उससे ज़्यादा बिलकुल नहीं कमाऊँगा।

बैंक बैलेंस नहीं बनाना है। मरकर किसी और के लिए पैसा छोड़कर नहीं जाना है। क़सम खालो कि जिस दिन मरोगे, उस दिन अकाउंट में एक रुपया नहीं होना चाहिए। किसके लिए छोड़ कर जा रहे हो? उतना ही कमाओ जितना खा सको। उससे ज़्यादा मत कमाना।

प्र: बच्चों को कैसे देखेंगे?

आचार्य: बच्चों को गुण दीजिए, ज्ञान दीजिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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