आचार्य प्रशांत: जीवात्मा, जिन चीज़ों से सम्बद्ध हो जाता है, उन्हीं के अनुसार और अनुरूप रूप धारण करता रहता है। आंतरिक तो बस आत्मा ही होती है। गुण सारे प्रकृति में होते हैं और प्रकृति चीज़ बाहर की है। तो जीवात्मा गुणों के अनुसार—कौन से गुण? जिन गुणों का उसने चयन किया है। अनायास नहीं मिल गए गुण। जिन गुणों का उसने चयन किया है। चयन कैसे करा है? अपने कर्मों के माध्यम से।
अब समझ में आ रहा है क्यों कहते हैं कि फलाना काम कर रहे हो तो अगले जन्म में फलानी चीज़ बन जाओगे? समझ रहे हो बात को? ऐसा कुछ है नहीं कि अभी कुछ कर रहे हो तो कुछ और बन जाओगे, पर जो बात बोली जा रही है, वो कुछ सिखा रही है। 'शक्कर बहुत खाते हो, चींटी बनोगे।' बिल्कुल ऐसा नहीं है कि आप ही चींटी बन जाएँगे, पर जो बात है उसमें दम है।
आपकी जो वर्तमान स्थिति है, उसके पीछे आपकी ही करतूत है। आपका ही कोई चयन है जो आपको आपकी स्थिति में रखे हुए है। ये बात जितना आप पर दोष डालती है—मैं बार-बार याद दिलाता हूँ—ये आपको उतनी ही ताक़त भी देती है। जितना ज़्यादा ये साबित होता जाता है कि आपका चुनाव ही आपको गिरा रहा था, उतना ज़्यादा ये भी सिद्ध होता जाता है कि आपका चुनाव ही आपको उठा भी सकता है। आपको किसी और पर आश्रित रहने की ज़रूरत नहीं है — न संयोग पर, न भाग्य पर, न किसी और बाहरी परिस्थिति पर।
'मेरे चुनाव ने मुझे गिराया, अगर गिर सकता था तो उठ भी सकता हूँ। अपने ही करे गिरा था, अपने ही करे उठूँगा।' तो कर्म बहुत बड़ी बात हो गई। और कर्म के पीछे आपका संकल्प है।
जो कुछ आपको मिल रहा है, वो आपके ही कर्म से मिल रहा है।
बार-बार समझा रहे हैं ऋषि। और कुछ लोग कहते हैं कि धर्म और भाग्यवाद साथ-साथ चलते हैं। धर्म के नाम पर कोई अपना भाग्य पूछ रहा है, कोई पूछ रहा है मेरे साथ दस साल बाद क्या होगा, कोई ज्योतिषी के चक्कर लगा रहा है। यहाँ साफ़ बताया जा रहा है कि बेटा जो कुछ है, वो तुम्हारा संकल्प है, चयन है। और वहाँ पर तुम्हें छूट है पूरी, जो करना चाहो कर सकते हो। जो करना चाहो कर सकते हो। बेवकूफ़ी करना चाहो, कर सकते हो।
आज़ाद होने की छूट है, तो तुम आज़ाद हो जेल चुनने के लिए भी। यही गड़बड़ हो जाती है। हम आज़ाद हैं बंधन चुनने के लिए भी। और मूर्ख इतने हैं कि जब आज़ादी मिलती है कुछ चुनने की तो हम क्या चुन लेते हैं? जेल चुन लेते हैं। लेकिन जेल भी चुनी तुमने अपनी आज़ादी में ही थी। किसी ने ज़बरदस्ती पकड़ के जेल में नहीं डाल दिया। आज़ादी में अगर जेल चुनी है तो इसका मतलब जेल के अंदर भी तुम्हारे पास क्या है? आज़ादी। क्या चुनने की? जेल से बाहर आने की आज़ादी तुम्हें जेल के अंदर भी है। क्योंकि जेल बाद में आयी, पहले क्या आया? आज़ादी।
वो आज़ादी जिसने तुम्हें जेल में पहुँचा दिया, वो आज़ादी तुम्हारे पास जेल के भीतर भी है भाई। ऐसा नहीं है कि जेल के भीतर आए तो वो आज़ादी किसी ने छीन ली। वो तुम्हारे भीतर अभी भी है, वो स्वभाव है। उसी के दुरुपयोग ने तुम्हें जेल में पहुँचा दिया, उसी का सदुपयोग तुम्हें जेल से बाहर लाएगा। समझ में आ रही है बात?
"स्थूल रूप धारण करता है, सूक्ष्म रूप धारण करता है, अहंकार।"
सूक्ष्म रूप धारण करने का क्या मतलब हुआ? विचार करता है। स्थूल रूप धारण करने का क्या मतलब हुआ? कर्म करता है। अहंकार दो तरीक़े से गति करता है। सूक्ष्म गति का क्या नाम?
श्रोता: विचार।
आचार्य: स्थूल गति का क्या नाम?
श्रोता: कर्म।
आचार्य: दोनों को एक ही माना करो; भेद मत किया करो। ये मत कहा करो, 'मैंने तो सोचा था, करा नहीं।' सोचना भी सूक्ष्म कर्म है। और करना स्थूल विचार है। अंतर दोनों में आयाम का नहीं है, बस दृष्टि का है। हैं एक ही तल के। एक दिखाई देता है, एक नहीं। परिमाण का, आकार का अंतर है, चीज़ एक ही है।
कुछ लोगों को पैसे मिलते हैं हाथ से कुछ करने के, कुछ लोगों को पैसे मिलते हैं सोचने के। तो बात समझ में आ रही है न कि चीज़ तो मतलब है एक ही तल की। क्या? सोचना और करना। जब सोचना और करना एक ही तल की चीज़ें हैं तो जितने सतर्क रहते हो कि फलाने काम मैं करूँ नहीं, उतने ही सतर्क रहा करो कि फलानी बातें मैं सोचूँ नहीं।
'हम क्या करें साहब, हम सोचना नहीं चाहते, विचार अपनेआप आ जाता हैं।' अपनेआप जैसे वो आ जाता है वैसे ही उसे अपनेआप भग भी जाने दो। आया तो अपनेआप था, तुम चिपक काहे को गए? जैसे मिठाईवाला तुम्हारे घर के सामने आया तो अपनेआप था। मिठाईवाला है, वो तुम्हारे घर के सामने क्या लेके आ गया?
श्रोता: मिठाई।
आचार्य: मिठाइयाँ लेकर आ गया अपना। उसकी गाड़ी है मिठाईयों की, वो लेकर आ गया। अब तुम बोलो, 'मैं क्या करूँ, आ जाता है।' अरे जैसे आया था वो तो आगे बढ़ जाता। आया था, आगे भी तो बढ़ जाता अपनेआप। तुम्हीं कूद के गए और क्या करा? एकदम चिपक गए हो उससे। और बेईमान इतने कि बोल रहे हो, 'मैं करूँ क्या?' क्या वो ठूँस रहा है तुम्हारे मुँह में मिठाई?
वैसे ही विचार का काम है। वो शारीरिक गतिविधि की तरह ही है क़रीब-क़रीब। शरीर में बहुत कुछ चलता रहता है न, कभी स्थिर नहीं बैठता? मन भी वैसा ही है। उसमें चीज़ें चलती रहती हैं। बहुत कुछ तो विचार का संबंध मस्तिष्क की बिलकुल जैविक गतिविधियों से है। आप खाना-पीना कैसा खा रहे हैं, इससे भी विचार बदल जाते हैं। आप देख क्या रहे हैं, अभी तापमान कितना है, इन सब चीज़ों से भी विचार बदल जाते हैं।
तो विचार तो ऐसी चीज़ है — उड़ता बादल, भटकता मिठाईवाला। कहीं भी, किसी भी गली में घुस गया वो। तुम छेड़ो नहीं। आया था, चला जाएगा। पर मिठाई बहुत मीठी, 'निको लागे रे।' समझ में आ रही है बात?
ठीक वैसे, जैसे शक्कर छोड़ने का मतलब ये नहीं होता कि 'दुनियाभर से शक्कर का नामों-निशान मिटा दूँगा, आग लगा दूँगा गन्ने में।' वैसे ही निर्विचार होने का मतलब ये नहीं होता कि विचार को आग लगा दूँगा। शक्कर छोड़ने का मतलब होता है शक्कर सामने भी रखी रहेगी तो मुँह में नहीं लूँगा। और निर्विचार होने का मतलब होता है विचार आता-जाता रहेगा, मैं छेड़ूंगा नहीं। और विचार के पास बहुत ताक़त नहीं होती है अगर आप उसे छेड़ें नहीं।
मिठाईवाले की मिठाई बिके नहीं बहुत दिन तक तो वो आपकी गली में आना भी बंद कर देगा। आप ही तो ग्राहक बनकर खड़े हो जाते हो विचार के। तो फिर वो बार-बार आता है। जितना ख़रीदोगे उतना आएगा और, और बड़ी गाड़ी लेकर के आएगा। कहेगा, 'ये तो क़द्रदान है। इनके पास जो ही ले जाओ, ये ख़रीद लेते हैं।' यही बात विचार की है। आने दो उसको, कुछ पुराने कर्म करे होंगे जिसकी वज़ह से ये विचार आ रहा है। नया नहीं करेंगे, पुराना ही बहुत है। पुराने का झेल रहे हैं, काफ़ी नहीं है? कि और खड़ा करें?
मज़े कम लो। और मज़े तभी कम लोगे जब थोड़ा डरे हुए रहोगे। थोड़ी देर पहले बोल रहा था 'सावधान रहो', अब आगे बढ़ के बोल रहा हूँ, 'डरे हुए रहो'। ये भीतर के मज़े बहुत ख़ौफ़नाक हैं। इतने मज़े मारोगे, खून के आँसू रोओगे। अभी तो लगता है 'आ-हा-हा-हा, मार लिया मैदान! हम ही बादशाह हैं!'
समझ में आ रही है बात?
सब शरीर धारण करते हैं सज़ा के तौर पर। सब शरीर धारण करते हैं इसलिए क्योंकि उन्हें भुगतान करना है। ऋषि कह रहे हैं—और ऐसे सूत्र कम ही हैं उपनिषदों में—कि कोई देखा गया है ऐसा भी, दूसरा भी, जो किन्हीं अन्य कारणों से शरीर धारण करता है। ऋषि कह रहे हैं कि ये संभव है कि कोई जेल में इसलिए हो क्योंकि जेल को अंदर से ही तोड़ा जा सकता है। कोई जेल में इसलिए नहीं हो कि वो गुनहगार है, बल्कि जेल में इसलिए हो क्योंकि जेल उनके अंदर ही है जो जेल के अंदर हैं। तो इस जेल को अंदर से ही तोड़ा जा सकता है; बाहर से तोड़ोगे कैसे, जेल बाहरी है ही नहीं।
लगता ऐसा है जैसे लोग जेल के अंदर हैं, हक़ीक़त ये है कि जेल लोगों के अंदर है। पहले जेल हमारे भीतर आती है फिर जेल बाहर नज़र आती है; अंदरूनी चीज़ है।
तो एक दूसरा स्रोत भी है जो जीव को क्रियात्मक, चेतनात्मक, माने गुणों से लैस करके संसार में भेजता है। माने हमारे लिए क्या अर्थ हुआ, सीख क्या हुई? जीने का एक दूसरा तरीक़ा भी हो सकता है। एक तो तरीक़ा ये है कि जेल के भीतर हैं, सज़ा काट रहे हैं। और दूसरा तरीक़ा ये है कि जी रहे हैं तो हैं तो जेल ही के भीतर। क्योंकि जो जी रहा है, जेल में ही है। जेल माने क्या? बंधन।
जो भी जी रहा है उसको ये बंधन तो है ही न। हाथ इससे आगे तो नहीं जाएगा (हाथ को पूरा फैलाते हुए), ये क्या हो गया? आपको जब बेड़ियाँ बँधी होती हैं तो क्या होता है? हाथ इससे आगे नहीं जाता है, इत्ती बेड़ियाँ हैं, हथकड़ी लगी है, तो क्या होता है? (दोनों हाथों को पास लाते हुए) इससे ज़्यादा नहीं जाएगा न हाथ? चलो हथकड़ी खोल दी, अब क्या होगा? हाथ इससे आगे नहीं जाएगा (हाथ को पूरा फैलाते हुए)। हथकड़ी तो अभी भी लगी है, हथकड़ी तो अभी भी लगी है न। शरीर ही हथकड़ी है। लो उसने रोक दिया। हम कहते हैं, 'अरे-अरे हथकड़ी लग गई, इतने में फँस गए।' अब लो इतने में फँस गए।
जेल में रहते हो, 'अरे-अरे जेल की सीमा से आगे नहीं जा सकते, दीवार है, आगे नहीं जा सकते।' चलो ठीक है, बाहर निकल जाओ, देखते हैं कितना आगे जा सकते हो। कोई घर में क़ैद है, कोई दफ़्तर में क़ैद है, कोई बाज़ार में क़ैद है, कोई मोहल्ले में क़ैद है, कोई जिले में क़ैद है, कोई देश में क़ैद है। जो कहीं नहीं क़ैद है वो पृथ्वी पर क़ैद है। जो पृथ्वी पर भी क़ैद नहीं है वो संसार में तो क़ैद है न, और संसार तुम्हारे ही भीतर है; तो हर कोई अपने ही भीतर क़ैद है। तो क़ैद तो तुम हो ही लगातार।
तो इस क़ैद में रहने के दो तरीक़े हैं: एक तो ये कि बंधक हैं और काम ऐसे करे जा रहे हैं कि बंधन और गहराता जा रहा है। और दूसरा ये कि बंधक हैं लेकिन बंधन काटते चले जा रहे हैं, काटते चले जा रहे हैं।
उपनिषद सिखाते हैं जीना। 'जी तो बंधनों में ही रहे हो, पर जियो ऐसे कि बंधन शिथिल पड़ते जाएँ।' समझ में आ रही है बात?
जैसे ये कमरा जेल हो और यही संसार है, इसमें हम सब गति करते हैं गुणों के अनुसार। ठीक? सब इसमें चल रहे हैं फिर रहे हैं। दो तरीक़ा है चलने-फिरने का, गति करने का, माने जीवन जीने का। एक तो ये कि चढ़ा रखी है, बेहोश हैं, तमाम तरह की बेवकूफ़ियाँ, इससे जा के भिड़ गए, वहाँ लड़खड़ा गए, दीवार पर सिर दे मारा। जीवन यहीं बिता दिया, ऊटपटाँग।
और दूसरा तरीक़ा ये है कि धीरे-धीरे गति करते हुए दरवाज़े की ओर जा रहे हैं। ख़ुद भी जा रहे हैं और यथासंभव जिसको ले जा सकते हैं उसको भी ले जा रहे हैं। आप देख लीजिए आपको कैसे जीना है। है तो यही जो कुछ है, और यही जीवन है। आगे-पीछे की कोई बात नहीं। कैसे जीना है?
जितने भी साल के हो गए आप, आपको ऐसा लगता है कि अरे बहुत लंबी ज़िंदगी जी ली? ऐसा लगता है क्या? ऐसा लगता है कि याद भी नहीं कब हम कॉलेज में थे, औरंगज़ेब के समय की बात है, ऐसा लगता है? तो जब पलक झपकते ही चालीस-पचास के हो गए हो, अस्सी का होते कितनी देर है?
वहाँ बाहर कभी रात में टहलने जाइएगा तो देखिएगा, जल रहे हैं जिस्मों के अलाव, और कुछ अघोरी जैसे बैठ के हाथ भी सेक रहे होते हैं। इतना ही समय है बस हमारे पास बचा। अभी बस कुछ ही समय पहले आप बच्चे-से थे। बहुतों को तो बचपन की स्मृति भी होगी अभी, है कि नहीं है? बस खट्ट से ऐसे हो गए हैं जैसे अभी बैठे हैं, तो चिता तक पहुँचने में देर कितनी है?
और देर अगर नहीं है तो क्यों दीवारों पर सिर दे रहे हैं? क्यों नहीं जेल से बाहर निकलने की कोशिश करते कम-से-कम? किस गुमान में हैं? अमर पैदा हुए हैं?
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