जहाँ गोवर्धन है, वहीं कृष्ण हैं

Acharya Prashant

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जहाँ गोवर्धन है, वहीं कृष्ण हैं

भगवान गोपियों और ग्वालों के साथ गायें चराते हुए, गोवर्धन पर्वत पर पहुँचे। तो देखा कि गोपियाँ छप्पन प्रकार के भोजन रखकर, बड़े उत्साह से नाच-गाकर उत्सव मना रही हैं। श्रीकृष्ण ने पूछा, तो उन्होंने कहा— आज वृत्रासुर को मारने वाले तथा मेघों व देवों के स्वामी इंद्र का पूजन होता है, इसे इन्द्रोज यज्ञ कहते हैं। इससे ब्रज में वर्षा होती है, अन्न होता है।

कृष्ण ने कहा कि इंद्र में क्या शक्ति है, उससे अधिक शक्तिशाली तो हमारा गोवर्धन पर्वत है। समझाते हैं आगे कृष्ण कि गोवर्धन से वर्षा होती है, हमें इंद्र की जगह गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए। बात ब्रजवासियों ने मानी और गोवर्धन पूजा की तैयारियाँ शुरू हो गईं।

सभी गोप-ग्वाल अपने-अपने घरों से पकवान लाकर, गोवर्धन की तराई में, कृष्ण की द्वारा बताई विधि से पूजा करने लगे। नारद मुनि भी वहाँ पहुँचे थे, इन्द्रोज यज्ञ देखने। इन्द्रोज यज्ञ बंद करके गोवर्धन की पूजा कर रहे हैं ब्रजवासी, यह बात नारद द्वारा इंद्र तक पहुँच गई। इंद्र गुस्सा गए, मेघों को आज्ञा दी, कि गोकुल में जाएँ, और प्रलय कर दें। तो ब्रज भूमि में मूसलाधार बारिश होने लगी। सभी भयभीत हो उठे। सभी ग्वाले श्रीकृष्ण की शरण में पहुँचे। कृष्ण ने कहा कि गोवर्धन की शरण में चलो वही सबकी रक्षा करेंगे। जब सब गोवर्धन की तराई में पहुँचे तो कृष्ण ने गोवर्धन को अपनी कनिष्का अंगुली पर उठाकर छाता-सा तान दिया, और सबको मूसलाधार बारिश से बचा लिया।

~ भागवत पुराण

आचार्य प्रशांत: कथा सारगर्भित है। ध्यान से, भक्ति से समझेंगे।

सत्य, तथ्य, कल्पना। जब केन्द्र होता है सत्य का, तब सामने जो दिखाई दे, इंद्रियों से जो दिखाई दे, उसे कहते हैं तथ्य। और जब केन्द्र होता है छोटे से सीमित अहंकार का, तब आँखों को जो दिखाई दे, तब मन जिसमें रमा रहे, उसे कहते हैं कल्पना।

तथ्य सदा पूरा होता है; कल्पना सदा अधूरी होती है। तथ्य में पूर्णता होती है; कल्पना में सदा प्यास होती है। कारण सीधा है कि तथ्य के केन्द्र पर कौन बैठा है? सत्य। और कल्पना के केन्द्र पर कौन बैठा है? अहंकार। अहंकार ही अपूर्ण है तो अहंकार जनित जितनी कल्पनाएँ होंगी, ज़ाहिर-सी बात है कि वो अपूर्ण ही होंगी। और सत्य पूर्ण है तो इसीलिए तथ्य सदा पूर्ण होता है।

जब आप तथ्य की पूजा करते हो, जब आप तथ्य के सामने सिर झुकाते हो, तब वास्तव में, आप साकार सत्य के सामने ही सिर झुका रहे हो। सत्य यदि निराकार है तो तथ्य उस निराकार का साकार रूप है। केन्द्र पर कौन बैठा है? निराकार सत्य। और परिधि पूरी किसकी हुई? साकार तथ्य की।

तथ्य के सामने सिर झुकाने का क्या अर्थ होता है? तथ्य के सामने सिर झुकाने का अर्थ होता है कि 'तथ्य में मैं कल्पना की मिलावट नहीं करूँगा। मैं बिना पूर्वाग्रह के, मैं बिना अपने व्यक्तिगत अभिमत के, मैं बिना डर, लज्जा और संकोच के तथ्य को देखूँगा।' यह है तथ्य के सामने सिर झुकाना। 'मैं तथ्य के साथ छेड़खानी नहीं करूँगा।' यह हुआ तथ्य के सामने सिर झुकाना।

'जो जैसा है उसको वैसा ही देखूँगा, बीच में ख़ुद को नहीं लाऊँगा, बीच में अहंकार को नहीं लाऊँगा। मेरी व्यक्तिगत सत्ता का, मेरी पसंद-नापसंद का कोई महत्व नहीं। जो चीज़ जैसी है बस वैसी है। मैं उसमें कोई बदलाव नहीं लाना चाहता। मैं उसमें किसी विजातीय वस्तु का मिश्रण नहीं कर देना चाहता।' - यह है तथ्य के सामने सिर झुकाना। तथ्य के सामने सिर झुकाया और आप सत्य के सामने खड़े हो गए। वास्तव में, सत्य में स्थापित हुए बिना, आप तथ्य के सामने सिर झुका ही नहीं सकते। हम तथ्यों को क्यों तोड़ना-मरोड़ना चाहते हैं? क्योंकि वो वैसे नहीं होते जैसे हमें चाहिए, जैसे हमें पसंद होते हैं। हम अपूर्ण होते हैं तो हम तथ्यों को स्वीकार ही नहीं कर पाते। तो हम तथ्यों को फिर क्या करते हैं? तोड़-मरोड़ देते हैं। सच को झूठ बना देते हैं। करते हैं न?

अध्यात्म है सत्य के सामने नमन। अध्यात्म है सत्य के साथ योग। सत्य के साथ यदि योग है अध्यात्म, तो ज़ाहिर-सी बात है अध्यात्म में तथ्य का विशेष महत्व रहेगा, क्योंकि जैसा हमने कहा कि निराकार सत्य ही साकार तथ्य हो जाता है; अध्यात्म में तथ्य का विशेष महत्व रहेगा। और फिर अध्यात्म में किसके लिए स्थान नहीं हो सकता? कल्पना के लिए। क्योंकि अध्यात्म अहंकार का निषेध है, अपूर्णता का निषेध है, हीन भावना का निषेध है। ठीक है?

अब आप देखिए ब्रज में चल क्या रहा था। ब्रज में क्या चल रहा था? इंद्र की पूजा की जा रही थी। कृष्ण कहते हैं — "यह बात ठीक नहीं है। तुम ग़ौर से देखो कि तुम्हें वास्तव में किससे मिल रहा है। इंद्र तुम्हारी कल्पना है। तुम इंद्र से कभी मिले नहीं। इंद्र तो तुम्हारे मन से उठा हुआ एक चित्र है, एक छवि है। यह जो इतना बड़ा पहाड़ खड़ा है, यह क्या है? यह तथ्य है। देखो कि इसी पहाड़ से मेघ टकराते हैं तो बारिश होती है। देखो कि इसी पहाड़ की छाया में रहते हो तुम। देखो कि तमाम तरह की तुम्हें सुरक्षाएँ भी देता होगा।"

कृषि आधारित अर्थव्यवस्था थी। प्राकृतिक संसाधनों का बड़ा महत्व था ब्रज की रोज़ की चर्या में, पशुओं के लालन-पालन में, खाद्यान्न उत्पादन में। वन, वन्य संसाधनों का बड़ा महत्व रहता है। बहुत कुछ है जो जंगल देते हैं। जहाँ पहाड़ है वहाँ जंगल है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था बहुत लाभ पाती है वन्य उपज से।

कृष्ण ने जो कहा उसको समझो। कृष्ण कह रहे हैं, "ग़ौर से देखो न कि वास्तव में तुम्हें फ़ायदा कौन दे रहा है। सामने खड़ा हुआ है और तुम कल्पनाओं में खोए हुए हो।" कृष्ण वास्तव में कह रहे हैं कि 'कल्पना को छोड़ो और तथ्य में आओ।' और उसी बात को गहराई से देखो तो कृष्ण कह रहे हैं, 'कल्पना के केन्द्र अहंकार को छोड़ो और तथ्य के केन्द्र सत्य में आओ।' तो हटाओ तुम इंद्र को। जो चीज़ सामने है उस पर आओ।

देखो बात कितनी वैज्ञानिक है। हम अकसर आध्यात्मिकता को अंधविश्वास से जोड़ देते हैं। आध्यात्मिकता वास्तव में तमाम तरीके के अंधविश्वासों की काट है। कुछ हद तक तो विज्ञान भी अंधविश्वास को प्रश्रय दे सकता है। आध्यात्मिकता कभी नहीं दे सकती अंधविश्वास को प्रश्रय।

तो कृष्ण कह रहे हैं कि 'ब्रजवासियों, इंद्र तुम्हारा अंधविश्वास है। तुम ग़ौर से देखो, तुम अपने पर भरोसा करो। अपनी इंद्रियों की स्वच्छता पर भरोसा करो। अपनी बुद्धि की निर्मलता पर भरोसा करो। और देखो कि तुम्हें वास्तविक लाभ मिल रहा है इस गोवर्धन पर्वत से। इसकी पूजा करो।' गोवर्धन की पूजा माने किसकी पूजा? तथ्य की पूजा।

अब कहानी कहती है कि जब तथ्य की पूजा होने लगी तो तमाम तरीके के उपद्रव पैदा हो गए, बारिश हो गई और ये सब हो गया। और जब बारिश इत्यादि हो गई तो कहानी आगे कहती है कि उस सब से बचाया भी किसने? पर्वत ने। कृष्ण ने और पर्वत ने। पर्वत माने तथ्य, कृष्ण माने सत्य।

जो ये बारिश वगैरह हो रही है ये क्या है, ये क्या उपद्रव पैदा हो गए?

जब भी तुम कल्पना के केन्द्र से छिटकोगे, तो जो कल्पना का राजा है, जो कल्पना का केन्द्र है, जो कल्पनाओं का मालिक है, जो तुम्हारे भीतर एक मायावी बादशाह बैठा हुआ है, वह कुपित तो होगा। वह कुछ-न-कुछ तुम्हें सज़ा देगा। क्यों सज़ा देगा? क्योंकि आज तक तुम उसका हुक्म बजाते थे। और आज अचानक तुम बेअदबी पर उतर आए। आज तक तुम किस केन्द्र पर चल रहे थे? कल्पनाओं के। और आज तुमने अचानक कह दिया, "ना साहब ना! हम आपकी अवज्ञा करते हैं।"

तो भीतर कोई बैठा है जो तुम्हारा इम्तिहान लेगा, जो कहेगा, "देखें ज़रा, कि वास्तव में तुम्हारी सत्य के प्रति खरी निष्ठा है या सिर्फ़ बयानबाज़ी कर रहे हो।" तो ये इम्तिहान है। इंद्र कल्पनाओं के राजा। तो विपत्ति आती है, बारिश हो गई, ये हो गया। बारिश से ये मत समझ लेना कि वास्तव में इंद्र ने कुछ भेज दिया और बारिश हो गई। बस ये समझ लेना कि मन में कुछ उथल-पुथल पैदा हो गई। या बारिशें अगर हुईं भी, तो मन ने उन बारिशों का नाता इंद्र से जोड़ लिया और अपने-आपको परेशान कर लिया।

कल्पनाओं ने आघात किया। बचाया किसने? तथ्य ने बचा लिया। जब भी कल्पनाएँ आघात करें, तथ्य की शरण में चले जाना। और तथ्य तक तुम्हें ले सत्य ही जाएगा। कोई कृष्ण होना चाहिए, जो बार-बार तुम्हारा ध्यान तथ्य की ओर आकृष्ट करे, जो बार-बार तुमसे कहे कि 'अपनी परी कथाओं को छोड़ो, अपनी कल्पनाओं को छोड़ो, देखो कि हकीक़त क्या है।' हकीक़त को वो तुम्हें दिखाएगा और वही हकीक़त फिर तुम्हें बचाएगी। गोवर्धन की पूजा करोगे, गोवर्धन तुम्हें बचा लेगा; क्योंकि गोवर्धन तुम्हें सदा से बचाता आया है, वही तो पहले भी काम आ रहा था।

बात समझ में आ रही है? तुम्हें क्या ज़रूरत है कल्पनाओं के आगे सिर झुकाने की, जब तुम्हें तथ्यों के रूप में, सत्य का, परमात्मा का आशीर्वाद मिला हुआ है? उपनिषद् कहते हैं — अन्नं ब्रह्म। अन्न ही ब्रह्म है। बात की गहराई को समझो। ब्रह्म तो निराकार है, अरूप। उसको तुम सीधे-सीधे जान नहीं सकते, सीधे-सीधे उससे तुम कोई रिश्ता बैठा नहीं सकते, तो तुम अन्न का अभिवादन कर लो। अन्न ब्रह्म है। अन्न की पूजा करो न। कल्पना की क्यों पूजा कर रहे हो? अन्न है, पेट भरता है तुम्हारा, वही ब्रह्म है। ब्रह्म ना होता तो अन्न कहाँ से आता? जड़ ना होती तो बीज कहाँ से लगते? बात समझ में आ रही है?

यह जो पर्वत है, यह प्रतीक है, प्रतिनिधि है — प्रकृति का, संसार का। परमात्मा को सीधे कभी नहीं पूज पाओगे। प्रकृतिस्थ हो जाओ। पहाड़ों को पूज लो, नदियों को पूज लो, रेगिस्तानों को पूज लो, पक्षियों को पूज लो, कीड़ों और मछलियों को पूज लो, और उनको देखने वाली अपनी आँखों को पूज लो। सुनने वाले कानों को पूज लो, समझने वाले मन को पूज लो। जो प्रकृतिस्थ हो गया, समझ लो, वह आत्मस्थ हो गया। आत्मस्थ होने का और कोई तरीका नहीं है। संसार के साथ एक हो जाओ, तुम परमात्मा के साथ एक हो जाओगे। तुम्हें परमात्मा किसी और रूप में उपलब्ध नहीं होगा। जो गोवर्धन के साथ एक हो गया, वो कृष्ण के साथ एक हो जाएगा। जिसे कृष्ण की मुरली भा गई, वो कृष्ण के पास आ जाएगा। कृष्ण के पास आने का और कोई तरीका नहीं है। परमात्मा के पास आने का एक ही तरीका है - संसार के पास आ जाओ।

और जो मूर्ख सोचते हों कि संसार से कट करके परमात्मा को पा जाएँगे, वो संसार को तो खोएँगे ही, परमात्मा को भी खो ही देंगे। जो कुछ वास्तव में तुम्हारे काम आता हो, जान लो कि उसको भगवान ने ही भेजा है। उसी को भगवान मानकर उसकी पूजा कर लो। और किसको भगवान बनाना चाहते हो? जो तुम्हारे काम आ रहा है, उसको तुम नहीं मानोगे यदि भगवत सत्ता से प्रेरित, तो और किसको मानना चाहते हो?

ये हवा काम आती है तुम्हारे, क्यों नहीं तुम इसको पूजते? दुनिया की तमाम महत्वाकांक्षाएँ रखते हो, 'ये पा लूँ, वो पा लूँ' और बताओ ज़रा-सी देर को यदि हवा छिन जाए तो क्या पाने काबिल बचोगे? आँखों की ज्योति की पूजा क्यों नहीं करते? आती-जाती श्वास की पूजा क्यों नहीं करते? कण-कण नारायणयुक्त है। कण-कण की पूजा क्यों नहीं करते?

कल्पना तुम्हें संसार से काटती है। कल्पना तुम्हें तुम्हारे ही किसी व्यक्तिगत, मिथ्या लोक में ले जाती है। तथ्य तुम्हें संसार में स्थापित कर देते हैं। जो संसार में स्थापित हो गया, वह सत्य में स्थापित हो गया। जिसको अभी संसार से शिकायतें हैं, समस्याएँ हैं, उसको वास्तव में अभी परमात्मा से ही शिकायतें हैं। जो कहे कि 'दुनिया तो बड़ी बेगानी जगह है, दुनिया में तो हमारा कुछ सामंजस्य बैठता नहीं, हमें तो अब मृत्यु लोक को पार करके परम लोक में जाना है', वो ये समझ ही नहीं रहे कि परमलोक के सारे दरवाज़े मृत्युलोक से ही खुलते हैं। जो मृत्युलोक में गहरा पैठ जाएगा, वो अपने-आपको तत्काल परमलोक में पाएगा। और जो मृत्युलोक की अवहेलना करेगा वह दोनों तरफ़ से हाथ धो बैठेगा।

गोवर्धन की छाया में यदि जी रहे हो तो गोवर्धन की ही पूजा करो। वो छोटी-छोटी बात जो तुम्हारे काम आती है, जान लो कि वही परमात्मा का आशीर्वाद है। सूरज उगता है, क्या इतने कृतघ्न हो कि सूरज का अहसान नहीं मानना चाहते? जल मिल जाता है, तुम्हारे भीतर ज़रा भी अनुग्रह नहीं उठता कि 'पानी मिला है, क्या क़िस्मत है मेरी!' ना मिले पानी तो? किसी का क्षणभर को साथ मिल जाता है, अहोभाग्य मानो अपना। सुबह आँख खुल जाती है, हाथ जोड़ लो, विनीत हो जाओ। ना खुलती आँख तो? तुम्हारा कोई हक़ तो नहीं था न कि एक सुबह और मिले।

जो कुछ भी तुम्हें मिल रहा है भौतिक रूप से, पार्थिव रूप से, सांसारिक रूप से, उसी को परमात्मा का आशीर्वाद मान लो; और कहीं मत तलाशने लग जाना। जहाँ गोवर्धन है, कृष्ण वहीं हैं। कृष्ण को खोजना हो, तो उस गोवर्धन के पास चले जाना जो तुम्हारे काम आता है। वह गोवर्धन कृष्ण की ही बुनियाद पर खड़ा है। बड़ा सांकेतिक है वह चित्र जिसमें कृष्ण की कनिष्ठा पर गोवर्धन विराजमान है। गोवर्धन की बुनियाद हुए कृष्ण। गोवर्धन का आधार हुए कृष्ण। तुम गोवर्धन पर जाओ, और डूब जाओ गोवर्धन में, वहाँ कृष्ण को पाओगे तुम गहराइयों में।

भारत में इसीलिए सब पूजनीय रहा है। पत्थर, पहाड़, कमरे, चरण, फूल, पत्तियाँ, जड़ें, कीड़े-मकोड़े, तिनके, गोबर, हड्डियाँ, झोपड़े, सूरज, चाँद, तारे — सब पूजनीय हैं। जिस किसी से भी तुम्हें कुछ भी मिला हो, जान लो कि देने वाला एक है। जो दे रहा है वह उस देने वाले का ही रूप है। झट से पकड़ लो कि जान गए, तुम ही तो हो, तुम ही हो।

प्रश्नकर्ता: मुझे लगता है बहुत बार मुझे थैंकफ़ुल फ़ीलिंग (कृतग्यता का भाव) जो हमेशा आती थी वो अब कम हो गयी है, नहीं फ़ील होता। कभी-कभी मैं इसको स्टडी करती रहती हूँ, ढूँढ़ती हूँ कि ऐसा क्यों हुआ। कभी मुझे लगता है नार्सिसिस्म (आत्ममोह) है, कुछ-कुछ ऐसा कैरेक्टरिस्टिक अपने अंदर देख पा रही हूँ, ईगो बहुत दिख रहा है। तो ये क्यों हो रहा है? कोई कुछ भी करता है, आई डोंट फ़ील दैट वे (मुझमें कृतज्ञता नहीं आती)।

आचार्य: आप देख रहे हैं अभी आप सवाल क्यों पूछ रहे हैं? क्योंकि आपके भीतर कृतज्ञ अनुभव करने की अभी इच्छा शेष है। तभी तो आपको बुरा लगा रहा है न। पहले जितना कृतज्ञ अनुभव करती थीं, अब नहीं कर पातीं, तभी तो आप इस बात को समस्या के रूप में रख रही हैं। वरना यह समस्या क्यों होती, आप कहतीं, 'ठीक है।' तो अभी यह इच्छा शेष है कि 'मैं कृतज्ञ अनुभव करती रहूँ।'

अब देखिए यहाँ क्या हो रहा है। कोई कृतज्ञ कब अनुभव करेगा? जब पहले उसकी हालत खराब हो और कोई बचाए। आपके भीतर अभी यह इच्छा शेष है कि आप कृतज्ञ अनुभव करती रहें। और कृतज्ञता अनुभव करने के लिए ज़रूरी है कि कुछ गड़बड़ हो और फिर उस गड़बड़ से आप उबार ली जाएँ। फिर आप कृतज्ञ अनुभव करेंगी कि "अरे! मेरा सौभाग्य, मुझे किसी ने बचा लिया"।

और सौभाग्य का अनुभव हो, इसके लिए आवश्यक है कि पहले कुछ गड़बड़ हो। और आप चाहती हैं कि आप कृतज्ञ अनुभव करें तो कृतज्ञ अनुभव करने के लिए कुछ गड़बड़ होनी आवश्यक है न? तो गड़बड़ हो रही है। आपके भीतर से कृतज्ञता जाएगी नहीं तो आपके साथ गड़बड़ कैसे होगी? और गड़बड़ होनी ज़रूरी है, तभी तो फिर आप और कृतज्ञ अनुभव कर पाएँगी। तो अब आपके साथ गड़बड़ होने के दिन आ रहे हैं। फिर कोई बचाएगा, फिर आप पुनः कृतज्ञ अनुभव करेंगी।

भई! अगर कोई निरंतर, निर्विरोध कृतज्ञ अनुभव करता ही रहे, तो कभी उसके साथ कुछ अनहोनी होगी ही क्यों, कुछ ऊँच-नीच होगी ही क्यों। कि होगी? मन में यदि अनुग्रह बना ही हुआ है, मन यदि कृतज्ञता में डूबा ही हुआ है, तो धन्यता की बारिश होती ही रहेगी। होती ही रहेगी न? और मन यदि कृतज्ञता में डूबा ही हुआ है, तो फिर उसे कृतज्ञता का अनुभव नहीं होता। वो कृतज्ञता के प्रति नमित हो गया होता है, वो कृतज्ञता में विगलित हो गया होता है, मिट ही गया होता है। इतना भी वह नहीं बचा होता है कि वह कहे कि, "मैं आभारी हूँ"।

वो झूला देखा है न आपने, क्या बोलते हैं उसे जो ऊपर जाता है और उसमें जितने लोग बैठे होते हैं वो उल्टे हो जाते हैं और फिर वह नीचे आता है? *रोलर कोस्टर*। देखा है रोलर कोस्टर में सबसे उत्तेजक क्षण कौन-सा होता है, जिसकी खातिर लोग उस पर चढ़ते हैं? लोग पैसे क्यों देते हैं उस पर चढ़ने के? क्या इस बात के पैसे देते हैं कि सब ठीक रहे? आप रोलर कोस्टर पर क्या इसलिए चढ़ते हो कि सब ठीक रहे? कुछ बीच में ऐसा हो जाना चाहिए कि प्राण हलक में अटक जाएँ, और फिर जब ठीक होता है मामला तो लगता है, "अरे वाह! क्या बात है।"

हमारे लिए मात्र ठीक होना काफ़ी नहीं है। मन को समझिएगा। मन के लिए आवश्यक है, बीमार होकर ठीक होना। अगर सब निरंतर ठीक रहे तो मन को मज़ा नहीं आता। रोलर कोस्टर में यदि सब लगातार ही ठीक रहे, कि वह रेल की भाँति ऐसे चलता हुआ आपको आपकी मंज़िल तक ले आया, तो आप कभी बैठेंगे उसपर? आप नहीं बैठेंगे। रोलर कोस्टर में मज़ा ही तब है जब बीच में आपको लगे कि — गए, पलट गए, बुद्धि क्या भ्रष्ट हुई थी जो इस पर चढ़े, एक बार बस नीचे उतर जाएँ तो परमात्मा कसम दोबारा नहीं चढ़ेंगे। और फिर जब आपको नीचे उतरने को मिलता है तो आप कहते हैं, "पैसा वसूल हुआ भाई!"

तो वही हो रहा है। कुछ उपद्रव होना आवश्यक है। कुछ उपद्रव होगा, उसके बाद जब फिर कोई आएगा जो ठीक करा देगा, तो आपको लगेगा बड़ा अच्छा हुआ। अब बहुत दिनों से उपद्रव हुआ नहीं है। उपद्रव क्यों नहीं हुआ है, क्योंकि कृतज्ञता थी। कृतज्ञता थी तो उपद्रव हुए नहीं। अब उपद्रव हुए नहीं हैं तो मन मसाले के लिए अब ज़रा छटपटा रहा है, "कुछ उपद्रव हो न"।

देखा है जब रोलर कोस्टर में सब उल्टे हो जाते हैं तो कितनी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हैं? ख़ासतौर पर स्त्रियाँ। क्या आवाज़ें आती हैं! आत्मिक अनुभूतियाँ। तन-मन सब गीला हो जाता है। और फिर वह सीधा हो जाता है, आकर थम जाता है, तब जो राहत की साँस आती है, कि क्या कहने।

कालचक्र इसी को कहते हैं। उल्टे दिन आने ज़रूरी होते हैं ताकि सीधे दिनों का महत्व समझ में आए। और उल्टे दिन आएँगे कैसे यदि कृतज्ञता बची रह गई? तो जो भी कुछ हो रहा है आप परेशान मत होइए। रोलर कोस्टर है। अब बस बुरा कुछ आने वाला है, आने दीजिए। जैसे अच्छा आया था, वैसे ही बुरा आ जाएगा। जब बुरा आएगा उसके बाद पुनः कुछ अच्छा आ जाएगा। इसी को तो भवसागर कहते हैं। आदमी इसी में डूबता-उतरता रहता है।

चक्र का क्या मतलब होता है? वृत्त का क्या मतलब होता है? जो गोल हो, जिसमें कभी ऊपर गए, कभी नीचे आए, कभी दाएँ, कभी बाएँ, परंतु जिससे मुक्ति नहीं है। गोल-गोल घूमते रहो, फँसे रहो। यह है कहानी। आप अकेली नहीं हैं।

पुराण कहानियाँ सुनाते हैं — देवता भी भूल जाते हैं, फिर जब दानवों से पाला पड़ता है तो भागकर कभी विष्णु की शरण में जाएँगे, कभी शिव की शरण में जाएँगे। देवता कब जाते थे शिव की शरण में? जब पीट दिए जाते थे। जब तक पीटे नहीं जाते थे तब तक तो देवता भी नहीं याद करते थे शिव को, आप कैसे याद करेंगी? तो शिव याद आएँ, इसके लिए ज़रूरी है पहले कुछ दानवी घटे। फिर शिव याद आते हैं।

इसीलिए शिव होते हैं अद्वैत और नीचे पूरा द्वैत का खेल होता है। यदि देवता हैं तो दानव भी होंगे-ही-होंगे। दानव ही तो फिर देवताओं को याद दिलाएँगे न शिव की। दानव ना हों तो फिर शिव के पास कहाँ जाएँ देवता, जाएँगे ही नहीं। ये खेल बहुत पुराना है, चलता ही आ रहा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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