आचार्य प्रशान्त ज़्यादातर लोग, सभी लोग बहुत सारे लोग होते हैं। एक व्यक्ति बहुत सारे चेहरे रखता है। इसी बात का प्रतिनिधि दशानन है, अपने दस सिरों के साथ।
तो हर इंसान के भीतर बहुत-बहुत सारे हिस्से होते हैं। ये बात तुम्हें उसके चेहरे से पता नहीं चलेगी, क्योंकि चेहरा तो एक ही होता है। तुम्हें लगता है तुम एक इंसान से बात कर रहे हो; सुबह तुमने बात करी उससे और शाम को बात करी, तुम्हें लगता है तुम उसी व्यक्ति से बात कर रहे हो। क्यों? क्योंकि उसका चेहरा तो वही था न, उसकी फ़ोटो खींचोगे कैमरे से तो वही फ़ोटो आएगी, तो तुम्हें लगता है उसी इंसान से बात कर रहे हो। जबकि हक़ीक़त ये है कि भीतर-ही-भीतर उसका चेहरा बदल चुका है, वो भीतर से बिलकुल दूसरा इंसान हो चुका है।
पर हमारे पास वो आँखें नहीं हैं जो उसके भीतर के बदले हुए चेहरे को देख लें, तो हम इस भ्रम में रह जाते हैं कि हमने सुबह जिससे बात करी थी, शाम को भी उसी से बात कर रहे हैं। शाम को इंसान दूसरा है। फिर हमें धोखा हो जाता है; वहाँ दुख है, वहाँ पीड़ा है, वहाँ फिर जैसे जीना बेस्वाद हो गया, मज़ा एकदम किरकिरा हो गया। और तुम सोच में पड़े हो, तुम चौंक गये हो, तुम्हें किसी ने उठाकर पटक दिया है - 'ये क्या हो गया मेरे साथ!’
ये न हो तुम्हारे साथ, इसलिए ऐसे पर टिकना मत, ऐसे का भरोसा करना मत जिसके एक नहीं, बहुत सारे केंद्र हों। जिसको संचालित करने वाले, जिस पर मालिकाना हक़ रखने वाले, जिस पर प्रभाव रखने वाले कई स्रोत हों, ऐसे का भरोसा मत कर लेना, क्योंकि उसका चेहरा बदल जाएगा तुरंत; उसके एक चेहरे का मालिक एक है, उसके दूसरे चेहरे का मालिक दूसरा है। और जब भी दो मालिक होंगे, दो चेहरे होंगे।
समझ में आ रही है बात?
और हममें से ज़्यादातर लोगों के बहुत सारे मालिक होते हैं, बहुत सारे चेहरे होते हैं। इसीलिए हम दूसरों को शरण तो क्या देंगे, हम स्वयं को शरण देने लायक भी नहीं होते; हम दूसरों को सलाह तो क्या देंगे, हम स्वयं को सलाह देने लायक नहीं होते; हम दूसरों को रोशनी क्या देंगे, हम ख़ुद को रोशनी देने लायक नहीं होते।
समझ में आ रही है बात?
देखो, ये मन है न हमारा, ये बनता ही कैसे है। ये ऐसे बनता है कि जैसे एक संतरा ले लो, संतरे की फाँकें हैं। अब बाहर से संतरा कैसा लग रहा है? एक है। छिलका उतारो तो अन्दर असलियत क्या है? फाँकें हैं। संतरे की तो फिर भी सारी फाँकें एक ही तरह का रस रखती हैं, एक ही जैसी दिखायी देती हैं, एक-दूसरे की समतुल्य होती हैं, हमारी फाँकें सब बिलकुल अलग-अलग होती हैं। हमारी एक नीली फाँक होगी, एक पीली फाँक होगी, एक छोटी होगी, एक बड़ी होगी, एक गोल होगी, एक तिकोनी होगी।
और वो सब अलग-अलग कैसे हैं? तुम्हारे घर में एक तरह का माहौल था, तुम्हारे भीतर एक फाँक बन गयी। फाँक का मतलब ही होता है हिस्सा, खंड। तुम्हारे घर में एक तरह का माहौल है, और तुम वहाँ से निकलकर के अपने स्कूल पहुँचते हो, या अपने कॉलेज, वहाँ बिलकुल अलग तरह का माहौल है; दो फाँक तुम्हारी बननी निश्चित है। तुम्हारी दादी बड़ा पूजा-पाठ करती हैं, धार्मिक-वृत्ति की हैं, और तुम्हारे पिताजी कट्टर नास्तिक हैं; तुम्हारी दो फाँक बननी पक्की है।
तुम्हारी अपनी आत्मा तो सब प्रभावों को हटाकर, उभरकर सामने कभी आने नहीं पायी, उसकी जगह हुआ क्या? उसकी जगह हुआ ये कि तुम्हें अहंकार के कई केंद्र दे दिये गये, जिसमें से एक केंद्र वो था जो तुम्हें पिताजी से मिल गया, एक स्कूल से मिल गया, एक दादी से मिल गया; एक तुम्हारे पसंदीदा नेता से या अभिनेता से मिल गया, एक किसी उपन्यास से मिल गया, तुमने पढ़ लिया।
जिस मोहल्ले में तुम रहते थे, वहाँ खेलने जाते थे, वहाँ तुम्हारी दोस्तों की टोली थी, उसमें भी एक तरह का माहौल था। क्या माहौल था? कुछ था; तुम्हारे भीतर एक फाँक और बन गयी।
अब ये जितनी अलग-अलग फाँकें हैं, ये सब एक-दूसरे से असहमत रहती हैं, क्योंकि इन सबके मालिक अलग-अलग हैं। लेकिन फिर भी रहना इनको एक संतरे के भीतर ही है, तो ये किसी तरीक़े से, मन मारकर, मजबूरी में एक-दूसरे के साथ एक बड़ा मजबूर सहअस्तित्व रखती हैं और इनमें लगातार आपस में अंतर्विरोध बना रहता है।
इसीलिए इंसान कभी चैन से जीने नहीं पाता। उसके एक हिस्से का मालिक एक है, दूसरे हिस्से का मालिक दूसरा है, और दोनों हिस्सों को दो मालिक अलग-अलग दिशाओं में खींच रहे हैं। कई बार दो हिस्सों में सहमति बन भी जाती है तो कोई तीसरा हिस्सा आ जाता है जिसकी इन दोनों से रज़ामंदी नहीं है।
ये आम आदमी का जीवन है। छोड़ो मुक्ति, मोक्ष और इस तरह की पार की बातें, कि उपनिषदों का तो लक्ष्य है तुम्हें समाधि इत्यादि दिला देना। उपनिषदों का लक्ष्य है — ये जो रोज़ तुम भीतर-ही-भीतर सौ लड़ाइयाँ लड़ते हो, जिसमें जीते कोई भी, अंदर-ही-अंदर ख़ून तुम्हारा बहता है, उन लड़ाइयों को समाप्त करना। उन लड़ाइयों में भीतर का कोई भी हिस्सा जीते, भीतर की कोई भी फाँक जीते, हारते तुम हो।
जीत तुम सिर्फ़ तब सकते हो जब वो भीतर जितनी कलह है, अंतर्क्लेश है, वो समाप्त ही हो जाए। वो तभी हो सकता है जब ये जो भीतरी सौ मालिक बने बैठे हैं, ये सौ-के-सौ मालिक समाप्त हो जाएँ। ऐसा नहीं होगा कि भीतर का कोई एक मालिक जीत गया, निन्यानबे हार गये तो बात बन गयी; नहीं-नहीं, सबको हारना पड़ेगा। इस लड़ाई में जितने पक्ष हैं, सबको हारना पड़ेगा, सिर्फ़ तब तुम जीत सकते हो।
तो कभी किसी ऐसे का भरोसा नहीं कर लेना है जो कभी इसके प्रभाव में है और आधे घंटे बाद दूसरे के प्रभाव में आ गया; ये व्यक्ति ख़तरनाक है। इसके बाद भी तुम ऐसे का भरोसा करो, तो उसके बाद जो नुक़सान हो, जो चोट लगे, उसके ज़िम्मेदार तुम ख़ुद हो।
समझ में आ रही है बात?
जो व्यक्ति तमाम तरह के प्रभावों के अधीन होकर जीता हो, वो व्यक्ति भरोसेमंद नहीं है। जिस व्यक्ति के मन में सौ तरह की बातें चलती हों, वो सौ दिशा में भागेगा, और किसी भी एक दिशा में एकनिष्ठ होकर के, एकाग्र होकर के कभी आगे नहीं बढ़ पाएगा; ऐसे व्यक्ति का साथ, संगत कभी लाभकारी नहीं हो सकती।
ये सब हमें क्यों बताया जा रहा है? हमें इसलिए बताया जा रहा है क्योंकि हम जिनके साथ होते हैं और हम जिनका भरोसा करते हैं और हम जिन आधारों पर ज़िंदगी जीते हैं, वो सब ऐसे ही हैं; और फिर हम कहते हैं, 'अरे चोट लग गयी!’
एक शायर का वक्तव्य कुछ इस तरीक़े से है, "हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी, जिसको भी देखना हो कई बार देखना।"
ये एक चोट खाए आदमी का वक्तव्य है। और ‘दस-बीस’ बड़ा कम बोल दिया, और दस-बीस भी स्थायी नहीं होते। आज जो दस-बीस हैं, और कल भी अगर दस-बीस थे, तो ये वो दस-बीस नहीं हैं जो कल थे, वो दस-बीस भी निरंतर बदलते रहते हैं। आदमी जैसे अस्तित्वमान ही नहीं है, तुम भरोसा किसका कर रहे हो! तुम जिसका भरोसा कर रहे हो उसकी कोई इकाई ही नहीं है; वो बहता पानी है, वो बरसता पानी है।
बरसता पानी समझते हो? कोई बूँद एक जगह दो पल रहती नहीं, अभी यहाँ है, फिर कहीं और पहुँच जाएगी। और दूसरी बात, जो वो बूँद अभी है, अगले पल वो बूँद रहेगी नहीं, वो किन्हीं और बूँदों से मिल जाएगी। तुम भरोसा किसका कर रहे हो! और पता नहीं उसे क्या बन जाना है। वही जो बूँद है, मिट्टी पर पड़ गयी तो क्या बन जाएगी? हम ऐसे ही हैं, बूँद की तरह, मिट्टी पर पड़ गये तो मिट्टी बन जाते हैं; कहीं घड़ा रखा हुआ है बाहर बाग में, उसमें पड़ गये तो जल बन जाते हैं, उसको लोग पी सकते हैं; कीचड़ में पड़ गये तो कीचड़ बन जाते हैं।
और ये भी हो सकता है कि ऊपर से नीचे आते-आते हम इतने हिस्सों में टूट जाएँ कि हम नीचे कभी पहुँचे ही नहीं, हवा में ही बहने लग जाएँ; लो हम हवा बन गये। हम भरोसा कर किसका रहे हैं! और हम स्वयं भी ऐसे ही हैं। हम जिनका भरोसा करने जाते हैं वो ऐसे हैं, और हम, जो भरोसा करने निकलते हैं, हम भी ऐसे ही हैं।
जिसे 'मैं' कहते हो, 'अहम्', वो है ही नहीं; वो है ही नहीं। यहाँ पर मैं अभी एक दर्पण लगा दूँ, दीवार पर, उसके सामने अनमोल (स्वयंसेवी) है, तो वो दर्पण क्या हो गया? दर्पण अनमोल हो गया। तो मैं दर्पण को अनमोल कहूँ क्या? दर्पण के पास कोई 'मैं' है? वो तो बस वही है जिसकी छवि है उसमें। हम भी ऐसे ही हैं, जिसकी छवि हम पर पड़ गयी, हम वही हो जाते हैं। तुम पर मार्क्स की छवि पड़ गयी, तुम मार्क्सवादी हो गये, तुम पर कल किसी और की छवि पड़ जाएगी, तुम वो हो जाओगे।
दर्पण के पास अपनी कोई अस्मिता है? 'मैं ये हूँ' — है कुछ ऐसा? हम वैसे ही हैं। और दर्पण हमसे लाख गुना बेहतर है, क्योंकि कभी वो 'मैं' नहीं बोलता। तुम ऐसे हो जाओ कि जिसकी तुम पर छवि पड़ती है तुम वैसे ही हो जाओ, लेकिन 'मैं' नहीं बोलो, तो फिर तो बहुत बढ़िया बात थी। लेकिन हमारा खेल ऐसा है कि उसमें अनमोल आ गया तो वो बोलेगा, 'मैं अनमोल,' थोड़ी देर में उसमें कुणाल (स्वयंसेवी) आ गया तो बोलेगा, 'मैं कुणाल,' और उसका तुम भरोसा करने लग गये।
भरोसा कैसे करने लग गये? जब वो बोला, 'मैं अनमोल,' तुमने कहा, ‘बढ़िया, ये अनमोल है।‘ तुमने कहा, ‘अभी अनमोल मिल गया है, अनमोल मिल गया।‘ और दर्पण ने जब 'मैं अनमोल' बोला, तो बड़ा मुस्करा कर बोला था, 'मैं अनमोल'। और तुम बोले, ‘वाह! अनमोल मिल गया।‘ थोड़ी देर में तुम लौटकर आये; उसके सामने कौन खड़ा है, क्या बोल रहा है दर्पण? बोल रहा है, 'मैं कुणाल।‘ अब तुमको लग गया झटका, कि ये क्या हो गया हमारे साथ, ये तो धोखा हो गया।
धोखा नहीं हो गया, वो था ही नहीं, वो धोखा देने के लिए भी नहीं था। वो धोखा दे ही नहीं सकता, वो है ही नहीं, तुम उसको क्यों जीवंत मान रहे हो, तुम क्यों उसको चैतन्य मान रहे? हममें से अधिकांश लोग चैतन्य हैं ही नहीं। क्यों किसी को कहते हो, 'तूने ग़लत किया,' उस बेचारे के पास तो ग़लत करने का अधिकार ही नहीं है; वो कभी कुछ करता ही नहीं, उससे हो जाता है।
किसी ने कुछ ग़लत कर दिया, ये उलाहना भी तभी दी जा सकती है जब उसके पास इतनी तो चेतना हो कि उसने ग़लत करने का चुनाव किया हो अपनी चेतना से। हममें से ज़्यादातर लोग इतनी गिरी हुई हालत में हैं कि हम कुछ ग़लत करने का चुनाव भी नहीं कर पाते, हमसे तो ग़लत हो जाता है। और जो तुमसे हो जाए, तुम्हारी चेतना के बिना, वही तो ग़लत कहलाता है, और ग़लत होता क्या है!
और ये सारे भ्रम उत्पन्न होते हैं किसी व्यक्ति को एक स्थिर इकाई मान लेने से। और वो हम क्यों मान लेते हैं? क्योंकि समयदोष के कारण, कालभ्रम के कारण जब एक इंसान का शरीर देखते हो, तो वो शरीर तुम्हें वैसा ही दिखायी देता है जैसा कि कल था और परसों था। शरीर नहीं बदलता न, या बदलता है? जैसा ये अभी दिख रहा है, वैसा ही कल था और परसों था। तो ऐसा धोखा हो जाता है, ऐसा लगने लग जाता है जैसे कि ये अपनेआप में कोई स्वतंत्र इकाई, अस्तित्व, आइडेंटिटी रखता है बंदा; जबकि ये कुछ नहीं है, ये बहता पानी है।
जैसे आईने को ले लो, आईने का भी अपना एक आकार हो सकता है न? मान लो गोल है, चौकोर है, जैसा भी है, आकार तो है न? तो आईना जैसा परसों दिखता था, वैसा आज भी दिखता है, आईना जैसा कल दिखता था, वैसा आज भी दिखता है; लेकिन आईने 'में' जो परसों दिखता था वो आज नहीं दिखेगा, आईने 'में' जो कल दिखता था वो आज नहीं दिखेगा। हम वैसे ही हैं।
तो हमारी देह तो नहीं बदलती, और देह का न बदलना दूसरों को और हमको, दोनों को धोखे में रख जाता है। हमें लगता है ये बंदा, ये इंसान, ये व्यक्ति वही तो है; वो वही नहीं है। ये तो छोड़ दो कि दो दिन, वो दो पल में बदल गया।
समझ में आ रही है बात?
जो प्रभावित होने को तैयार है, उसका भरोसा मत करना, क्योंकि वो है ही नहीं, वो छाया-भर है। दर्पण तुम्हारी छाया दिखाता है तुमको। क्या ऐसे का भरोसा करो जिसकी कमान उसके हाथ में ही नहीं है! वो तो लाचार है, मजबूर है, बेचारा है, उसको तो दोष भी नहीं दे पाओगे अगर धोखा दे गया तुमको। क्योंकि धोखा देने के लिए भी तो अपनी कुछ संप्रभुता होनी चाहिए न, धोखा देने के लिए भी भीतर कुछ स्वतंत्रता होनी चाहिए न, जो फ़ैसला करे कि मुझे धोखा देना है। वो तो धोखा भी नहीं दिया, उससे हो गया।
ग़लती तुम्हारी है कि तुमने ऐसे का भरोसा किया या उसकी शरण गये या उसके निकट गये या उसको संगति दी; उससे हो जाता है। हम ऐसे ही हैं; हम कुछ नहीं करते, हमसे हो जाता है।
काल एक और धोखा देता है, क्या धोखा देता है? एक क्षण में आमतौर पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे एक व्यक्ति की एक ही पहचान हो। निष्ठा का क्षण है, उस क्षण में तुम्हारे सामने जो बैठा है वो तुम्हें सिर्फ़ अपना निष्ठावान चेहरा ही दिखाएगा। इससे तुम्हें क्या भ्रम हो जाएगा, और स्वयं उसे भी जो दिखा रहा है? उसे ये भ्रम हो जाएगा कि मैं तो मात्र एक निष्ठावान व्यक्ति हूँ, मेरा और कोई चेहरा है ही नहीं।
और वास्तव में उस क्षण में उसे बिलकुल भी नहीं पता कि उसके सौ और चेहरे हैं जो उस क्षण बस छुप गये हैं, वो प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कब उपयुक्त माहौल आये और वो उभरकर सामने आएँ। ऐसा नहीं कि वो व्यक्ति जान-बूझकर धोखा दे रहा है; हो सकता है धोखा भी दे रहा हो, लेकिन आवश्यक नहीं है, स्वयं उसको भी यही लग रहा है कि मैं तो बिलकुल अभी एकचित्त हूँ।
प्रेम का कोई क्षण है, दो व्यक्ति आमने-सामने हैं। दोनों को यही लग रहा है कि अभी जिसके सामने हूँ, उसके अलावा तो मेरा कोई दूसरा है नहीं, है भी नहीं और हो सकता भी नहीं है। दोनों को ही पता नहीं कि दोनों के ही सौ-सौ स्वामी और हैं, जो बस उचित पल की तलाश में हैं।
समझ में आ रही है बात?
इसलिए अहंकार त्यागने योग्य है; क्योंकि उसे त्यागने की भी ज़रूरत नहीं है, वो है ही नहीं। बहुत ख़तरनाक है न, जहाँ कोई न हो, वहाँ तुमको ये भरोसा हो जाए कि कोई है। क्या होता है फिर, क्या होता है? कोई था नहीं, पर तुम्हें लगा बहुत सारे हैं। फिर क्या होता है? पूरी ज़िंदगी हमने ऐसे ही बितायी है, है न? और फिर बीच-बीच में चिल्ला उठते हैं, 'धोखा हो गया, धोखा हो गया।' अरे! तुम्हें धोखा देने के लिए भी कोई था नहीं।
तुम इस कमरे में बैठे हो। तुम्हें पूरा भरोसा है बगल के कमरे में पाँच लोग हैं, तुम जब बुलाओगे तो तुम्हारी मदद के लिए आ जाएँगे, वो बड़े प्रेमी लोग हैं। जब तक दरवाज़ा बंद है और तुम्हें ज़रूरत नहीं है किसी के सहारे की, तब तक तुम अपनी मधुर कल्पना में मग्न रह सकते हो — 'मैं यहाँ बैठा हूँ, वहाँ पाँच मेरे हैं, मेरा परिवार है, मेरे दोस्त-यार हैं, मेरा संसार है।' लेकिन जिस पल बुलाओगे, कोई आएगा नहीं। क्यों? क्योंकि वहाँ कोई था ही नहीं; इसलिए नहीं कि उन्होंने धोखा दिया है, इसलिए कि वहाँ कोई था नहीं।
इसी तरह से जो बुलाने वाला है, ये भी कोई एक नहीं है। ये अभी बुला रहा है, थोड़ी देर में कहेगा, ‘मुझे इन पाँच से मतलब क्या है, क्योंकि दूसरे कमरे में पाँच दूसरे दिख गये हैं मुझे, और वो इन पाँच से बेहतर हैं, तो मैं उनकी ओर जा रहा हूँ।‘ तुम ख़ुद कौनसे बड़े ऐतबार के क़ाबिल हो!
अब बताओ उस व्यक्ति का क्या होगा जो अपने विचारों पर चलता है, जो सोचता बहुत है? उसके साथ मूल समस्या क्या है? उसके साथ मूल समस्या ये है कि सोच एक रहा है, जो सोच रहा है हो सकता है कि उसके लिए उसकी सोच उपयुक्त भी हो, प्रासंगिक भी हो, लेकिन इस वक़्त जो सोच रहा है वो दूसरे पल कुछ और हो जाना है, कोई और हो जाना है। तो तुमने जो कुछ सोचा, वो तो ख़ारिज हो गया न, क्योंकि जिसने सोचा था उसने स्वयं को केंद्र बनाकर सोचा था न।
अगर हम बहुत सारे हैं, तो भीतर विचारक भी कितने हैं? जितने हम हैं, उतने विचारक हैं। पहले विचारक ने जो कुछ सोचा, वो लागू किस पर होता था? अधिक-से-अधिक पहले विचारक पर ही लागू होता था जो पहले विचारक ने सोचा। तुमने तो ख़ूब विचार कर लिया, ख़ूब विचार कर लिया, और चालीस मिनट बाद तुम गये बदल। तो जितना तुमने चालीस मिनट में विचार किया था उसका होगा क्या? वो तो दो कौड़ी का नहीं बचा। ये समस्या है।
समझ में आ रही है बात?
अब समझ में आ रहा है कि फ़्री थिंकिंग (स्वतंत्र विचार) क्या है? फ़्री थिंकिंग ऐसी है जैसे जेल में सौ कैदियों को हुल्लड़ मचाने के लिए फ़्री छोड़ देना, और वो सब-के-सब सोच रहे हैं कि हम फ़्री (स्वतंत्र) हैं। सौ अलग-अलग हैं, और हैं सौ-के-सौ जेल के भीतर ही। पहली बात तो सौ अलग-अलग हैं, वो भिन्न-भिन्न हैं, खंडित हैं, और दूसरी बात, ये सौ-के-सौ जेल में हैं लेकिन इन सौ-के-सौ को ग़ुमान ये हो गया है कि हम तो फ़्री हैं। और उनकी फ़्रीडम का अर्थ क्या है? ‘जेल के भीतर हुल्लड़ मचाओ।‘ ये फ़्री थिंकर्स हैं।
जंगली, माँसाहारी पशुओं की एक गुफ़ा है, एक बड़ी और काली और गहरी गुफ़ा है। और उसमें बहुत तरह के जंगली, भूखे, हिंसक पशु बैठे हुए हैं अलग-अलग जातियों के, और सब भूखे हैं। बीच-बीच में वो एक-दूसरे पर भी आक्रमण कर देते हैं, जो ज़्यादा ताकतवर हुआ वो दूसरे को चबा जाता है, वो इस तरीक़े के हैं। और तुम घुस जाओ उस गुफ़ा में, तुम्हारा क्या होगा? तुम्हारा क्या होगा?
वो जो गुफ़ा है, उसको बाहर से देखो तो दिखायी पड़ती है एक अखंड इकाई है, है न? उस गुफ़ा को एक व्यक्ति मानना, उस गुफ़ा को मानना एक व्यक्ति। वो बाहर से लग रहा है एक इंसान है, लेकिन उस इंसान के भीतर सौ तरह के हिंसक हिस्से हैं, वो हिस्से एक-दूसरे पर भी आक्रमण करते रहते हैं।
अब तुमने तो एक इंसान के भीतर प्रवेश किया, पर उस इंसान के भीतर सौ हिस्से हैं, और सौ-के-सौ हिंसक, कुछ पता नहीं चलेगा कि तुम्हारा कौनसा अंश किसके मुँह में गया। ये पक्का है लेकिन, कि एक व्यक्ति जिसकी आंतरिक भूख शान्त नहीं हुई है उसकी संगति करोगे तो वो सौ तरीक़े से तुम्हें खा जाएगा।
उस गुफ़ा की भूख कभी शान्त हुई है? नहीं, बहुत भूख है वहाँ पर, सौ तरह की भूख है। और गुफ़ा का दरवाज़ा बड़ा है, वो तुम्हें बुलाती है, आमंत्रण देती है, 'आओ, आओ, आओ, आओ।' बुलाती है, 'आओ, आ जाओ, आ जाओ।' और तुम्हें कुछ दिखायी नहीं पड़ेगा। बाहर गुफ़ा पर सूरज की रोशनी है, सुन्दर दिखती है गुफ़ा दूर से देखो तो। भीतर गुफ़ा के क्या है? बस अंधकार; तो तुम्हें पता नहीं चलेगा बाहर से कि गुफ़ा के भीतर क्या है। और गुफ़ा का मुँह बड़ा है, ऐसा लगता है कि न्योता दे रहा हो, 'आ जाओ न, आ जाओ न।' और तुम भीतर घुस जाते हो।
गुफ़ा भूखी है, वो गुफ़ा हम हैं। भूखे की संगत करोगे तो वो तुम्हें निवाला ही बनाएगा, और क्या करेगा! और निवाला बनाकर भी उसकी भूख मिट नहीं जानी है। उसे तुम्हारे गोश्त का स्वाद मिल गया, वो तुम्हारे जैसे अगले को आमंत्रित करेगा, गुफ़ा के बाहर आमंत्रण-पत्र ही छपवाकर लगवा देंगे — 'आइए-आइए।‘ पहले तो फिर भी एक-दूसरे को खाते थे, एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा।
इसलिए बहुत बार मैंने कहा है कि दो तरह के लोगों की संगति में विशेष सावधानी रखना। पहला, जिनके भीतर कमज़ोरी बहुत हो, दूसरा, जिनमें महत्वाकांक्षा बहुत हो; ये द्वैत के दो सिरे हैं। जिसमें कमज़ोरी बहुत हो, वो तुमको खा जाएगा, क्योंकि उसको यही भाव है लगातार कि वो कमज़ोर है। जो कमज़ोर हो, अपनी कमज़ोरी मिटाने के लिए किसी को भी खा सकता है, और जो महत्वाकांक्षी बहुत है, वो खा जाएगा तुमको क्योंकि उसमें महत्वाकांक्षा बहुत है।
जिस किसी में भी बड़ी होड़ देखना, एक आंतरिक रिक्तता देखना, जिस किसी के भी अस्तित्व में एक अंदरूनी अव्यवस्था या असंतुलन देखना, समझ जाना कि तुम उसके लिए सिर्फ़ एक शिकार हो, निवाला हो। और अगर ऐसा कुछ स्वयं में देखना, तो समझ जाना कि तुम अपना ही ग्रास बनने जा रहे हो, तुम ख़ुद को ही खा जाओगे।
साँप करता है ऐसा कई बार, देखना, मिल जाएगा तुमको। साँप जब थोड़ा विक्षिप्त हो जाता है या ज़्यादा भूखा हो जाता है तो अपनी पूँछ अपने मुँह में डालकर खाना शुरू कर देता है और खाता जाता है। ख़ुद को खाने से उसको जो वेदना हो रही होती है, वो उस सुख से कम होती है जो उसको मिल रहा होता है भोजन करने से, तो खाता जाता है। ऐसा कई और भी जीव हैं जो करते हैं।
तो दूसरे को तो छोड़ दो, हम स्वयं को भी खा सकते हैं अगर भीतर बड़ा भाव है खालीपन का। अकेलापन, रिक्तता बिलकुल डरा देते हों जिसको, वो व्यक्ति ग़लत केंद्र से चल रहा है, ग़लत केंद्रों से चल रहा है।
प्रश्नकर्ता आचार्य जी, अभी आपने कहा कि उस पर भरोसा कभी मत करना जिसके कई चेहरे हैं या मन कई खंडों में बँटा हुआ है। तो अधिकतर तो मन अशान्त ही रहता है, परंतु जब मन शान्त हो, जो कभी-कभी होता है, तो क्या अपने मन पर उस समय भी भरोसा नहीं करना है?
आचार्य जो शान्ति क्षणिक हो, वो अशान्ति है जिसने शान्ति का नक़ाब पहन रखा है।
समझ रहे हो बात को?
थोड़ी देर के लिए तो हमें अक्सर ऐसा लगता है कि हमें शान्ति के भी दर्शन हो गये, निर्द्वंदता का अनुभव हो गया, आनंद का अनुभव हो गया। थोड़ी देर के लिए तो बहुत लोगों को अपने पूरे विलोप का अनुभव भी हो जाता है, कि हमें समाधि लग गया; बहुत लोगों से सुनना।
जो भी अनुभव समय के एक क्षण में शुरू हुआ हो और समय के दूसरे क्षण में समाप्त हो जाता हो, वो अनुभव एक धोखा-मात्र है, इसलिए सारे अनुभव धोखा-मात्र हैं। इसलिए वास्तविक शान्ति वो होती है जिसका कोई अनुभव नहीं होता, जो सब अनुभवों से परे होती है।
माने जब तुम सब अनुभवों से परे होते हो, चाहे वो शान्ति के अनुभव हों, चाहे अशान्ति के अनुभव हों, जब तुम सबसे परे होते हो, उसको कहते हैं अद्वैत शान्ति। क्योंकि वो शान्ति न शुरू हुई है, न ख़त्म होगी, और ख़त्म होने के बाद उस शान्ति के किसी विपरीत का भी तुमको अनुभव नहीं हो जाएगा।
समय में तुमको जो शान्ति अनुभव होती है वो द्वैतात्मक शान्ति है। द्वैतात्मक कैसे है? कि शान्ति से पहले क्या थी — अशान्ति, और शान्ति के बाद भी क्या होगी? अशान्ति। एक क्षण में शान्ति अनुभव होना शुरू हुई थी, एक क्षण में शान्ति अनुभव होना ख़त्म हो जाएगी। ये शान्ति है ही नहीं, ये अशान्ति का ही एक रूप है।
अधिकांशतः हमको अपने पूरे जीवनकाल में वास्तव में शान्ति का एक भी क्षण नहीं मिलता, क्यों? क्योंकि हम क्षणों में शान्ति तलाश रहे होते हैं। शान्ति क्षणों में नहीं है। शान्ति तब है जब क्षणों के प्रवाह में चाहे शान्ति हो, चाहे अशान्ति हो — बहुत कुछ होता रहता है, वो बाहरी-भीतरी प्रकृति पर निर्भर करता है, वो सब चलता रहता है — वो सबसे परे आपका वास्तविक अस्तित्व रहे। जहाँ वो सब हो रहा है, आप ही के साथ हो रहा है एक छोर पर, और दूसरे छोर पर आप भलीभाँति जानते हैं कि आपके साथ नहीं हो रहा है।
आप उस छोर को काट नहीं सकते जहाँ आपके साथ हो रहा है, जब तक शरीर है वो रहेगा। महत्वपूर्ण ये बिलकुल भी नहीं है कि उस छोर को आप बिलकुल काट दें जहाँ आप अनुभव में भागीदार हैं, साझीदार हैं; वो होने नहीं वाला। एक छोर पर तो जो हो रहा है वो बिलकुल आपके साथ हो रहा है, वो होता रहेगा, और वो आपको प्रकृति-प्रदत्त है, वो आपको जन्म से मिला हुआ है, कि जो हो रहा है वो आपको लगेगा कि मेरे साथ हो रहा है। तो वो तो मिला हुआ है, वो रहेगा, जब तक साँस चल रही है वो चीज़ रहेगी।
जीवन इसलिए है कि आप उस दूसरे छोर पर पहुँच सकें जहाँ आपको ये भी पता रहे कि जो हो रहा है वो आपके साथ नहीं हो रहा है।
समझ में आ रही है बात?
तो अध्यात्म के नाम पर उल्टी कोशिश मत कर लेना, ये मत कह देना कि अध्यात्म का मतलब है कि जो प्रकृति वाला छोर है वहाँ से स्वयं को काटना और ये कहने लग जाना कि देखो मुझे तो भूख लगती ही नहीं, या मुझे तो सुख-दुख का अनुभव होता ही नहीं।
बेटा, जब तक जियोगे भूख भी लगेगी, सुख-दुख का अनुभव भी होगा। रात को सोओगे, सुबह उठोगे, चोट लगेगी तो गिर पड़ोगे, और नीचे देखोगे तो अँगूठा सूजा हुआ होगा और ख़ून बह रहा होगा; ये सब होगा। वायरस लगेगा तो बीमार भी पड़ोगे। जब तक जियोगे, ये सब होगा। तो ये पाखंड तो करने मत लग जाना, कि मैं अब अध्यात्म के उस स्तर पर पहुँच गया हूँ जहाँ मुझे न भूख लगती है, न नींद आती है, न सपने आते हैं, न कोई भाव उठते हैं, न विचार उठते हैं। बेकार की बात!
अध्यात्म का मतलब है ये सब चलता रहे अपनी जगह। और ये चलता रहेगा, इसको रोकने का कोई उपाय नहीं है; हाँ, तुम इससे दूर हो जाओ। तुम इससे दूर हो जाओ, तुम्हारी पीड़ा भी फिर जैसे परिशोधित हो जाएगी, तुम्हारे दर्द में भी जैसे एक परिमार्जन आ जाएगा, तुम्हारी आह भी शुभता के एक केंद्र से निकलेगी।
हमने ये नहीं कहा कि आह नहीं निकलेगी, हमने कहा, ‘आह भी तुम्हारी शुभता के एक केंद्र से निकलेगी। तुम्हारा जीवन भी शुभ होगा और तुम्हारी मृत्यु भी शुभ होगी। हमने ये नहीं कहा कि तुम मरोगे नहीं, हमने कहा, ‘अब मरोगे भी तो ऐसे कि शुभ ही होगा।‘