हम जापान-जर्मनी-फ्रांस सबसे आगे हैं || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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हम जापान-जर्मनी-फ्रांस सबसे आगे हैं || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। हिंदी से ही मेरा प्रश्न है। हिंदी की जो दुर्दशा देश में हो रही है, कहीं-न-कहीं मुझे लगता है कि इसके जो ज़िम्मेवार हैं वो विद्यालय भी हैं, या विद्यालय ही हैं। एक हिंदी के सब्जेक्ट (विषय) को छोड़ कर बाकी सभी सब्जेक्ट के पाठ्यक्रम इंग्लिश भाषा में हैं, और कहीं-न-कहीं बच्चों को प्रेरित किया जा रहा है इंग्लिश में बातें करने के लिए, कि ताकि..।

आचार्य प्रशांत: विद्यालय इस समस्या के मूल में नही हैं; इसके मूल में हैं वो लोग जिन्होंने आज़ादी के बाद से ही हिंदी को हाशिये पर ढकेल दिया।

देखो, धूमिल की पंक्तियाँ हैं, उनसे बात समझ जाओगे — "आज मैं तुम्हें वो सत्य बताता हूँ जिसके आगे हर सच्चाई छोटी है, इस दुनिया में भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क सिर्फ़ रोटी है।"

तुमने हिंदी को रोटी से काट दिया, तुमने छोटे-से-छोटे रोज़गार के लिए अंग्रेज़ी अनिवार्य कर दी, तो लोग कह रहे हैं कि “जब हिंदी से हमें रोटी मिल ही नहीं सकती, तो हिंदी का करें क्या?” आज तुम स्थितियाँ ऐसी बना दो, कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई, मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में हो सकती है, सब किताबें हिंदी में उपलब्ध रहेंगी, और बाकी सब भारतीय भाषाओं में भी, लोग नहीं जाएँगे अंग्रेज़ी की ओर। ये सब तो बेकार के तर्क होते हैं, कि “अंग्रेज़ी इंटरनेशनल भाषा है,” ये सब..। अंग्रेज़ी इंटरनेशनल भाषा है ये बात वो बोल रहे हैं जिनकी सात पुश्तों में कोई इंटरनेशनल नहीं गया, न आने वाली सात पुश्तों में कोई इंटरनेशनल जाएगा; इंटरनेशनल छोड़ दो, वो एयरपोर्ट के आस-पास भी नहीं फटकने वाले। पर वो कहते हैं, “अंग्रेज़ी हम इसलिए सीख रहे हैं क्योंकि ये इंटरनेशनल भाषा है;” तुम करोगे क्या इंटरनेशनल भाषा का, रहना तुम्हें यहाँ देश में है।

समझ में आ रही है बात?

तो ये सब बेकार की बात है। बात सीधी-सी ये है कि आम हिंदुस्तानी अंग्रेज़ी इसलिए सीखता है क्योंकि अंग्रेज़ी के बिना रोज़गार नहीं है; और एक बहुत आर्टिफिशियल तरीक़े से, बहुत कृत्रिम तरीके से, हमने अंग्रेज़ी को रोज़गार की भाषा बना दिया, जिसकी कोई ज़रूरत नहीं थी। आपको रेलवे में लोकोमोटिव का ड्राइवर बनना है, लोको-पायलट, आपको पुलिस में एक साधारण सिपाही बनना है, आपको अंग्रेज़ी क्यों आनी चाहिए, मुझे बताइए। जवाब दीजिए न। वो भी छोड़िए, आपको एक अच्छा मैनेजर बनना है; उसके लिए भी अंग्रेज़ी क्यों आनी चाहिए? पर अच्छा कमाने-खाने के, कॅरियर में तरक्क़ी करने के हर रास्ते पर अगर आप अंग्रेज़ी को खड़ा कर देंगे, तो लोगों को झक मार कर के अंग्रेज़ी को गले लगाना पड़ेगा, हिंदी को अलग करना पड़ेगा। आज आप ये दिखा दीजिए, साबित कर दीजिए कि हिंदी के माध्यम से भी एक मस्त जीवन जिया जा सकता है, कमाया-खाया जा सकता है, लोग आराम से हिंदी को पुनः गले लगा लेंगे—जब मैं ‘हिंदी’ बोलूँ, तो मेरा आशय सभी भारतीय भाषाओं से है।

बात समझ में आ रही है?

अभी कुछ साल पहले तक तो यूपीएससी की परीक्षा ही आप नहीं दे सकते थे अंग्रेज़ी के अलावा किसी और भाषा में। आईआईटी एंट्रेंस एग्जाम आप नहीं दे सकते थे, जो ‘जेईई’ होता है, जॉइंट एंट्रेन्स एग्जाम, वो आप नहीं दे सकते थे अंग्रेज़ी के अलावा किसी भाषा में। मेडिकल की पढ़ाई आज भी अंग्रेज़ी के अलावा किसी भाषा में नहीं होती। काहे भाई! जिस देश ने सुश्रुत दिया है, 'फादर ऑफ सर्जरी’ , वो देश अपनी मिट्टी की भाषा में सर्जरी नहीं पढ़ा पाएगा? या सुश्रुत अच्छे सर्जन इसलिए बने थे क्योंकि उन्हें अंग्रेज़ी आती थी? तो ये एक साज़िश रची गई है; जिन्होंने रची, वो कुछ धूर्त थे, कुछ बेवकूफ़। पर बात उनकी नहीं है, बात हमारी है, कि हम आज भी उस साज़िश को आगे क्यों बढ़ा रहे हैं।

ये जितनी बातें बोलते हो न, कि “हिंदी के साथ हमको इन्फिरिओरटी होती है,” वग़ैरह वग़ैरह, वो सब अपने-आप दूर हो जाएँगी अगर हिंदी के साथ पैसा जुड़ जाए। हिंदी की समस्या बस ये है कि उसके साथ पैसा नहीं जुड़ा हुआ है, पैसा नहीं मिलता हिंदी वालों को। कैंपस-प्लेसमेंट हो रहा है, अंग्रेज़ी में इंटरव्यू हो रहा है; कोई हिंदी बोल दे, वो मारा जाएगा।

तो फिर स्कूल अंग्रेज़ी पढ़ाते हैं, कि “इस लड़के को आगे जा कर तो कैंपस-प्लेसमेंट लेना है न।" वहाँ जीडी (सामूहिक चर्चा) हो रहा है, इंटरव्यू हो रहा है, वहाँ सब अंग्रेज़ी चल रही है दनादन-दनादन। इंजीनियरिंग में ऐसा क्या है जिसके लिए अंग्रेज़ी चाहिए, मुझे बताओ? जो वेल्डिंग की रॉड होती है वो भाषा देख कर के काम करेगी? इलेक्ट्रिकल-सर्किट भाषा देख कर के काम करेगा? जवाब तो दो? ये जो फ्लाईओवर बना रहे हो या पुल बना रहे हो या पोर्ट बना रहे हो, वो भाषा देख कर के काम करते हैं? मॉलिक्यूल्स आपस में भाषा देख कर रिएक्ट करते हैं? तो ये सब-कुछ अंग्रेज़ी में ही क्यों है?

कोई भी भाषा उतनी ही तरक्क़ी कर पाती है जितना उस भाषा को बोलने वालों के पास पैसा होता है; या तो बहुत पैसा हो या बहुत प्रेम हो। बहुत प्रेम हो, ये तो दूर की कौड़ी है, उसके लिए तो बड़ा आध्यात्मिक समाज चाहिए; फिर पैसा हो। तीसरा विकल्प भी है एक — एक ऐसी सरकार हो जो अपनी संस्कृति को, भाषा को और लिपि को बचाने के लिए प्रतिबद्ध हो। जर्मनी, फ्रांस, चीन, जापान, स्पेन, इन्होंने प्रगति अंग्रेज़ी के दम पर नहीं करी है; अंग्रेजी कोई नहीं बोलता वहाँ पर, सब विकसित मुल्क़ हैं। तुम्हें एक बहुत मज़ेदार बात बताता हूँ — दुनिया-भर में जितने लोग अंग्रेज़ी जानते हैं, उसमें से भारतीयों को हटा दो तो हिंदी जानने और बोलने वालों की संख्या अंग्रेज़ी बोलने वालों से ज़्यादा है; और हिंदी में मैं उर्दू को भी शामिल कर रहा हूँ।

(हँसते हुए) बार-बार हम बोलते रहते हैं, “ग्लोबल-लैंग्वेज, ग्लोबल-लैंग्वेज। लिंग्वा फ्रेंका ऑफ द ग्लोबलाइज़्ड वर्ल्ड (अंतरराष्ट्रीय सम्पर्क भाषा)।" (उपहास करते हुए) बेकार! “लिंग्वा फ्रेंका!” एक विदेशी भाषा से मन नहीं भरा, दूसरी उठा लाए, “लिंग्वा फ्रेंका।" ('लिंग्वा फ्रेंका' फ्रेंकिश भाषा का शब्द है)

अभी पूछ लूँ लिंग्वा फ्रेंका किस भाषा का है तो पता नहीं होगा; बोलना बड़ा अच्छा लगता है। मैं अभी भोजपुरी बोल दूँ, फिर क्या करोगे? लिंग्वा फ्रेंका धरा-का-धरा रह जाएगा।

ऐसा कुछ भी नहीं है कि पूरी दुनिया में अंग्रेज़ी ही बोली जा रही है। पूरा-का-पूरा एक महाद्वीप, एक कॉन्टिनेंट, और साउथ-अमेरिका ही-भर नहीं, पूरा जो *लैटिन-अमेरिका है, वहाँ कौन अंग्रेज़ी बोल रहा है? यूरोप में भी आपको क्या लग रहा है, सब अंग्रेज़ी ही बोल रहे हैं? फ्रेंच (लोग) बिल्कुल नहीं पसंद करते आप उनसे अंग्रेज़ी में बात कर दीजिए तो; चाहे जर्मन्स हों, चाहे इटालिएन्स हों, रूसी हों, जापानी हों।

तो अपनी भाषा में बिल्कुल तरक्क़ी की जा सकती है। मैं तो यहाँ तक बोलना चाहूँगा — "सिर्फ़ अपनी ही भाषा में आर्थिक तरक्क़ी हो सकती है; आर्थिक तरक्क़ी भी सिर्फ़ अपनी ही भाषा में हो सकती है।“ आर्थिक तरक्क़ी जापान की हुई है या भारत की हुई है? जापान में जैपनीज़ है, भारत में अंग्रेज़ी है, पर आर्थिक तरक्क़ी तो जापान ने करी। और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बिल्कुल बर्बाद हो गया था, एकदम तबाह, हर तरीक़े से; कहाँ है जापान आज? और अंग्रेज़ी के दम पर नहीं, अपनी मातृभाषा के दम पर जापान आज शिखर पर है; और भारतीय कह रहे हैं, “हमें लिंग्वा फ्रेंका चाहिए।“ कितनी तरक्क़ी कर ली लिंग्वा फ्रेंका से? जोकर जैसे और लगते हैं; अंग्रेज़ी बोलनी नहीं आती, बोलने की कोशिश कर रहे होते हैं।

मेरा हिंदी में वीडियो होगा, वो नीचे आ कर लिखेंगे, “आई एम सपोर्ट यू;” बिजनौर से हैं, रामदयाल श्रीवास्तव, “आई एम सपोर्ट यू।" काहे, क-ख-ग नहीं पढ़े थे का रामदयाल? और *एम( (शब्द) नहीं लिखते; एम (अक्षर) (लिखते हैं)। “आइ एम एसपीआरटी यू;” जोकर! क्या दुर्दशा कर ली हमने अपनी, पूरी दुनिया के हम जोकर बन गए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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