प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, गुरु का सानिध्य तो हमें बहुत अच्छा लगता है, मीठा लगता है, उनकी बातें सुनना अच्छा लगता है। जब हम दूसरों को बताते हैं तब भी बहुत अच्छा लगता है। लेकिन जब वो हमारे संस्कारों पर, हमारी मान्याताओं पर प्रहार करते हैं तो चिड़चिड़ापन, खीझ उठती है और भाग जाने का भी मन करता है। लेकिन जब भाग कर जाओ, तब फिर मन करता है वापस आ जाएँ आचार्य के पास, गुरु के पास। तो इसको कैसे ठीक करें?
आचार्य प्रशांत: ठीक क्या करोगे, वापस आ जाया करो। भाग कर तो जाओगे ही।
प्र: बार-बार वो नहीं करना चाहते हैं।
आचार्य: ये बात तुम्हारे बस की नहीं है बेटा। आदमी को पता भी चल जाए कि बीमार है तो पता भर लग जाने से बीमारी तत्काल दूर नहीं हो जाती। तुम जान भी जाओ कि तुम्हारा कपड़ा गन्दा है, तो जान जाने से क्या कपड़ा साफ़ हो जाएगा? साबुन लगता है, पानी लगता है और सबसे ज़्यादा मेहनत लगती है, समय लगता है। लगता है न?
जान गये कि कपड़ा गन्दा है तो फिर टिके रहो और मेहनत करते रहो, घिसते रहो। कुछ देर तक इस बात को बर्दाश्त करना पड़ेगा कि मेरी चादर तो गन्दी है, मैली है। मैली तो है ही। सब्र रखना होता है। तपस्या और धैर्य एक ही बात है।
ये सब जानिए। बुरा लगेगा। बुरा लग गया, कोई बात नहीं। बुरा लगने के कारण मन खट्टा हो गया, कोई बात नहीं। मन खट्टा होने के कारण गुरु से दूरी बना ली, उसमें भी कोई बात नहीं। पर लौटकर नहीं आये अगर, तो ग़लती कर दी। ये तो दुनिया का रिवाज़ है, ये तो गुरु-शिष्य की हर कहानी में होता है। कभी गुरु रूठ गया, कभी चेला भाग गया, ये सब चलता रहता है। बात ये है कि लौटकर आओ।
बुल्लेशाह का पता है न? कौन थे उनके गुरु? इनायत शाह। शाह-अल्लाह। तो अब हैं बुल्लेशाह, एक बार गुरु के सामने कुछ उपद्रव कर दिया। बुल्लेशाह भी कर गये ये सब तो सोचो तुम क्या चीज़ हो। रहीम बोल गये हैं न, "छमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।" तो जो छोटा है वो उपद्रव तो करेगा-ही-करेगा, चाहे वो बुल्लेशाह ही क्यों न हों।
तो बुल्लेशाह कर गये कुछ उपद्रव और गुरु रुष्ट हो गये बिलकुल। बोले, ‘निकल जा ठिकाने से, अब सामने मत आना कभी।’ और उनको आश्रम से बेदखल कर दिया। बोले, ‘बाहर निकल जा और आना मत।’ बुल्लेशाह भी तब रहे होंगे थोड़ा ऐसा, जवान आदमी थे, ठसक भी होगी। वो भी बोले, ‘हम जा रहे हैं, हम लौटेंगे नहीं।’
तो ये कोई तुम्हें ही थोड़ी लगता है कि चोट पड़ी है तो भाग जाएँ। बुल्लेशाह को भी लगा था, वो भी भाग गये थे। फिर जानते हो क्या किया? कुछ दिन बाहर रहे, फिर चुपके से सन्देसा भिजवाया गुरु को, 'आ जाएँ क्या?' गुरु ने कहा, ‘कोई ज़रूरत नहीं है। तुम बाहर ही रहो।’ तो फिर एक-दो बार किसी तरीक़े से पहुँचने की कोशिश की। गुरु अनुमति ही न दें। तो उन्होंने कहा कुछ ऐसा करना पड़ेगा कि गुरुदेव को बात हमारी माननी पड़े।
तो लगे गाँव-गाँव स्त्रियों के वस्त्र पहनकर के नाचने। लोग पूछें, ‘क्या कर रहे हो?’, तो बोलें, ‘रूठा यार मना रहा हूँ।‘ बोले, ‘यार रूठ गया, मना रहा हूँ।‘ और बुल्लेशाह, ये लम्बे-चौड़े, बब्बर शेर जैसा चेहरा, दाढ़ी, और ये व्यक्तित्व कर क्या रहा है? ये घागरा-चोली पहनकर, साड़ी पहनकर नाच रहा है गाँव-गाँव। गुरु तक ख़बर पहुँची। तब भी गुरु ने कहा, ‘नहीं, इसको वापस आने की मनाही है। इसको हम वापस नहीं आने देंगे।’
तो कहानी कहती है, कोई ऐतिहासिक तथ्य नहीं है, कहानी कहती है कि एक बार कुछ नाचने-गाने वाली स्त्रियाँ इनायत शाह से मिलने जा रही थीं, तो बुल्लेशाह उन्हीं के बीच में घुस गये। वो सब घुसीं आश्रम में, उनके साथ-साथ वो भी घुस गये।
तो गयी होंगी — क़यास लगा रहा हूँ, अनुमान लगा रहा हूँ — वो गयी होंगी, इनायत शाह के सामने झुकी होंगी। उन्होंने आशीर्वाद दिया होगा, सिर पर हाथ रखा होगा। बुल्लेशाह भी अपना घूँघट डाले, बुर्क़ा डाले, वो भी झुक गये होंगे, गुरु ने उन्हें भी आशीर्वाद दे दिया। जब आशीर्वाद दे दिया तो उन्होंने हटाया और लगे नाचने। बोले, अब तो हो गया, अब तो हो गया। अब तो तुम्हीं ने आशीर्वाद दे दिया, अब नहीं निकाल सकते तुम। ये सब होता रहता है।
गुरु-शिष्य आपस में यारी का सम्बन्ध भी रखते हैं। ये सखाओं के खेल हैं। ये एक तरह का रास ही है समझ लो। ये चलता रहता है। इसमें रूठना-मनाना अभिन्न अंग है।
वो गुरु ही क्या जिसको कभी न लगे कि ये चेले की गर्दन उड़ा दूँ। और वो चेला ही क्या जिसको न लगे कि गुरु की हत्या ही कर दूँ। ये होता ही रहा है।
उपनिषदों के शान्ति पाठ होते हैं, वो आरम्भ में ही जानते हो क्या बोलते हैं? गुरु-शिष्य दोनों प्रार्थना कर रहे हैं। उपनिषद् का आरम्भ हो रहा है और गुरु-शिष्य दोनों प्रार्थना कर रहे हैं। दोनों प्रार्थना क्या कर रहे हैं? कि ओ परमात्मा! हमें एक-दूसरे से नफ़रत न हो। क्योंकि उन्हें पता है कि आगे जो बातचीत होने वाली है, उसमें गुरु शिष्य पर चोट करेगा और शिष्य गुरु का विरोध करेगा। तो दोनों ही पक्षों का रुष्ट होना या दोनों ही पक्षों को क्रोध आना सम्भावित है। आशंका पूरी है कि कोई-न-कोई रूठ सकता है, नाराज़ हो सकता है, कुपित हो सकता है। तो पहले ही परमात्मा से माँग लिया जाता है। ये शान्ति पाठ है। गुरु कह रहा है, ‘हमें इस पर गुस्सा न आये’, और चेला कह रहा है, ‘हम रूठ न जाएँ’।
तभी तो कबीर साहब को गाना पड़ा। कितना सुन्दर भजन है! कौनसा है? (एक श्रोता से पूछते हैं) हाँ, चलो गाओ! गुरुशरण। सुनोगे तो समझ में आएगा कि गुरु के साथ-साथ क्या-क्या हो जाता है। चलो, गाओ! (श्रोतागण गाते हैं) गुरुशरण जाए के तामस त्यागिए गुरुशरण जाए के तामस त्यागिए भला-बुरा कहा जाए तो उठ मत भागिए
अब क्यों कहा जा रहा है कि भला-बुरा कहा जाए तो उठ मत भागिए? क्योंकि ऐसा खूब होता है। गुरुदेव का तो काम ही है कुछ भी बोल देना, भला-बुरा। वो काहे को थमेंगे! वो गुरुदेव हैं। तो कुछ भी बोल देंगे। कई बार ऊटपटाँग भी बोल देंगे। और शिष्य कौन है? "क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।" शिष्य का काम है उपद्रव करना, उत्पात करेगा ही। वो कहेगा, 'हमें बोला!' गुरुदेव अपने चढ़े हुए हैं शिखर-सिंहासन पर, वो वहाँ से कुछ बोल रहे हैं। शिष्य को हक़ है बुरा मानने का, छोटू है! कह रहा है, 'हमें बुरा बोला!' फिर कबीर साहब समझाते हैं, "भला-बुरा कहा जाए तो उठ मत भागिए।"
ये बड़ी प्राकृतिक इच्छा होती है। ग्लानि मत लो, तुम कोई पहले नहीं हो। बल्कि वो चेला ही मैं चेला न मानूँ जिसको उठ भागने की इच्छा न हो। और फिर धमकाते हैं कबीर साहब, क्या बोलते हैं? उठ भागे सो…(आचार्य जी गायन के लहज़े में बोलते हैं) (श्रोतागण गाते हैं) उठ भागे तो रार, रार महा नीच है उठ भागे सो रार, रार महा नीच है जेहि घट उपजे बोध सोही घट नीच है
मैं इतनी कटु बात नहीं बोलूँगा कि “उठ भागे सो रार, रार महा नीच है।” मैं तुम्हें छूट देता हूँ उठ भागने की। कबीर साहब ने तो बड़ी कड़ी बन्दिश लगा दी। कि अगर उठ भागे तो रार हो। रार माने दुष्ट, रार माने द्वंद्व प्रेमी। अगर उठ भागे तो बड़े नीच हो।
मैं तो रियायत देता हूँ। उठ भागे तो नीच नहीं हो। मैं कह रहा हूँ, अगर वापिस नहीं आये तो गड़बड़ करी। उठ भागे, ये तो कई बार होगा। अरे मेरा ही मन करता है तुम्हारे सामने से उठ भागने का, तुम्हारा कैसे नहीं करेगा! कोई सत्र हुआ है आज तक जिससे पहले मैंने ये न सोचा हो कि मैं क्यों बोलने जा रहा हूँ? हाँ, जब बोलने लगता हूँ तो फिर धारा बहती है घंटों-घंटों।
अभी यहाँ अन्दर आ रहा था, इसको (एक स्वयंसेवक को इंगित करते हुए) मैंने क्या बोला? क्या बोला, बताओ। मैंने कहा, मैं क्यों बोलने जा रहा हूँ? तो ये सब तो होता है। मिट्टी के पुतले हैं न हम! दोष-विकार सबमें भरे हैं। प्रकृति अपने में मगन रहती है, उसे परमात्मा की कोई विशेष चाहत नहीं है। ये सब जो आयोजन होता है, तो पुराने जो संस्कार हैं वो पसन्द नहीं करते। वो कहते हैं ,‘क्या है? क्यों है? क्या है फ़ालतू! पहले तो काम फ़ालतू, ऊपर से उसके लिए दुख भोगो।’ ये सब ठीक है।
जैसे पहले दिन हमने वो पुरानी सूक्ति दोहरायी थी न कि "हारोगे तुम कई बार, बस कोई हार आख़िरी न हो।” उसी को थोड़ा सा संशोधित करके अपने ऊपर लागू कर लो। भागोगे तुम कई बार, बस कोई भाग आख़िरी न हो। ठीक है?
प्र: आचार्य जी, इसको थोड़ा लाइसेंस की तरह भी प्रयोग कर सकते हैं?
आचार्य: कि और भाग जाएँगे?
प्र: ये सही लग रहा है। मन में जो है, सही लग रहा है। कल भागने का मन कर रहा है, आज भागने का मन कर रहा है। आगे का क्या?
आचार्य: तभी तो कबीर साहब कबीर साहब हैं, उन्होंने तुम्हें भागने का लाइसेंस ही नहीं दिया है। मैं तो ज़्यादा दरिया-दिली दिखा रहा हूँ, मैं कह रहा हूँ चलो भाग गये, कोई बात नहीं। कबीर साहब जानते हैं कि तुम तो ऐसे ही भागने को तत्पर हो, और अगर कह दिया, ‘भाग गये, कोई बात नहीं’, तो जहाँ तुम्हें नहीं भी भागना होगा, तुम वहाँ भी भागोगे। तो उन्होंने सीधे ही कह दिया, "उठ भागे सो रार, रार महा नीच है।" वो कह रहे हैं भागना मत।
मैं क्या करूँ, मैंने तुम्हें देखा है, भागोगे तो तुम है ही। तो मैं क्या अपने वचन का अनादर कराऊँ ये कहकर कि मत भागना। मैं बोल भी दूँ कि मत भागना, भाग तो तुम जाओगे ही। लौट आना, बस इतनी गुज़ारिश है।
देखो, बात सुनो। आचार्य जी कुछ नहीं हैं, बहुत छोटे आदमी हैं। इनसे भागना भी हो तो भाग जाना, कबीर साहब से मत भागना। जहाँ जाना, साखी ग्रन्थ का गुटका छोटा अपने साथ रखना। कोई बुरा नहीं होगा तुम्हारा। ठीक? ये (शरीर) मरणधर्मा है, वो (ग्रन्थ) अमर है। कोई तुलना नहीं है। तुम्हारे सामने देह है, वो अविनाशी हैं। ठीक है न?
तो मुझसे रूठ भी जाना, जहाँ भी जाना उनको साथ लेकर जाना। सब बढ़िया रहेगा। अब ठीक है? अब मैंने कह दिया कि भाग के भी भागना मत (हँसते हुए)।