आचार्य प्रशांत: ऐसे समझो कि कोई बच्चा हो वो बोकैयाँ चलता हो। बोकैयाँ समझते हो, बोकैयाँ क्या होता है? चार पाँव पर, घुटनों के बल। अब बाप है उसका साढ़े छ: फुट का, पर उसे बच्चे के साथ खेलना है, तो वो भी बच्चे के साथ ज़मीन पर क्या करने लग गया? बोकैयाँ चलने लग गया। अब वो बच्चे के लिए उपयोगी है क्योंकि बच्चा तो ये भी न कर पाता कि साढ़े छ: फुट तक गर्दन उठा कर देख पाता।
बच्चे के लिए तो बाप उपयोग का हो गया लेकिन सम्भव है कि बच्चा दुर्बुद्धि हो, अधिकांश मानवता की तरह, तो बोले, ‘ये कोई परमात्मा है! ये तो हमारे ही जैसा है। जैसे हम घुटनों के बल चलते हैं, वैसे ये घुटनों के बल चलता है।’
गोविंद को, गुरु को तुम्हारी सहायता करने के लिए बिलकुल तुम्हारे ही तल पर तुम्हारे समीप आना होगा। पर जैसे ही वो तुम्हारे तल पर आएगा, वैसे ही तुम्हारी नज़रों में वो सम्मान खो देगा। अब ये अजीब बात है! या तो तुम्हारी मदद न करे वो और सम्माननीय कहलाये या फिर वो तुम्हारी मदद करे और अपमान करवाए।
अगर वो अहंकारी होता तो वो क्या चुनता? दो विकल्प हैं: पहला विकल्प है कि तुम्हारी मदद न करे और सम्मानीय कहलाता चले और दूसरा है कि मदद करे तुम्हारी और अपमान का भागी हो। अगर वो अहंकारी हो, अगर उसमें भी मानवीय क्षुद्रता हो तो कौनसा विकल्प चुनेगा?
श्रोतागण: पहला वाला।
आचार्य: पर अगर उसमें पूर्णता है और करुणा है — जो कि साथ ही होते हैं हमेशा — तो वो कौनसा विकल्प चुनेगा? तो वो दूसरा विकल्प चुनता है। वो जानता है कि तुम तो इतना कभी उठ नहीं पाओगे कि उस तक पहुँच जाओ। तो वही नीचे आ जाता है तुम्हारे तल तक।
और जब वो तुम्हारे तल तक आएगा तो याद रखना कि तुम्हारी जितनी अपूर्णताएँ हैं और तुममें जैसे विकार हैं और तुम्हारी जो सीमाएँ हैं, वो सब उसमें भी दिखाई देंगे।
अवतारों को रोते नहीं देखा? अवतारों को भूल करते नहीं देखा? स्वर्णमृग आता है और राम को खींच ले जाता है। अब अगर राम विष्णु का अवतार हैं तो उन्हें इतनी सी बात न पता चली कि ये तो धोखे का हिरण है, वो खिंचे चले गये! हाँ, क्योंकि वो अब ज़मीन पर उतरे हैं। और जो ज़मीन पर उतरा है उसे ज़मीनी हरक़त भी करनी पड़ेगी।
या तो वो रहे आते सातवें आसमान पर, अदृश्य, अपरम्पार परमात्मा होकर। पर यदि राम हैं तो फिर पत्नी भी करनी पड़ेगी और पत्नी की माँगों की भी किसी साधारण पति की तरह पूर्ति करनी पड़ेगी; धोखा खाना पड़ेगा और धोखा खा के दर-दर की ठोकर भी खानी पड़ेगी। जाकर पूछ रहे हैं, "तुम देखी सीता मृगनैनी?"
ये परमात्मा हैं, जिन्हें पता नहीं कुछ! "हे खग मृग हे मधुकर श्रेणी, तुम देखी सीता मृगनैनी?" वो पलट के कहें, 'क्यों भाई, तुम तो कण-कण में व्याप्त हो, तुम ख़ुद नहीं देख पाते? तुम तो राम हो!'
नहीं, राम को भी काल, देश, स्थिति के अनुसार ही व्यवहार करना होगा, यदि जन्म ले लिया तो। जन्म न लिया तो ठीक है, फिर तो रहो क्षीरसागर में शेषनाग की छाया तले। धरती पर काहे उतरे!
बात समझ में आ रही है?
अब कबीर हैं, अब ये अंतर है कबीर में और आम मन में। आम मन ठीक इसीलिए गुरु का अपमान करता है क्योंकि गुरु में बहुत सारे तुम्हें वो गुण नज़र आते हैं जो तुम में हैं। तुम कहते हो, 'ये गुरु हैं? इन्हें तो हमारी ही तरह राग-द्वेष होता है, सुख-दुख होता है, इनका क्या स्थान है?' तुम चूँकि अपनेआप को लेकर हीनता से ग्रस्त हो तो इसलिए जब गुरु को अपने तल पर पाते हो तो गुरु को भी हीन ही जान लेते हो।
कबीर का मन तुम से बिलकुल उल्टा चल रहा है। वो कह रहे हैं कि ये बड़ी करुणा है ऊपरवाले की कि वो हमारी ख़ातिर हम-सा ही विकार युक्त होकर हमारे सामने आ गया। ये बड़ी अनुकंपा है असीम की कि हम जैसे सीमितों की ख़ातिर वो भी सीमित होकर आ गया। देखो परमात्मा की करुणा, देखो प्राणी मात्र के प्रति उसका प्रेम कि वो धरती पर आ गया है और हमारी तरह सुख-दुख सह रहा है, हमारी ही भाँति व्यवहार कर रहा है।
ईसाई कहते हैं न कि परमात्मा तुमसे इतना प्यार करता है कि उसने तुम्हारी ख़ातिर अपना एकमात्र पुत्र धरती पर भेज दिया। और धरती पर जब उसने तुम्हारी ख़ातिर, तुम्हारे प्यार में अपना एकमात्र पुत्र भेज दिया तो तुमने उसके पुत्र के साथ क्या व्यवहार किया?