प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। आचार्य जी, बेचैनी बढ़ती जाती है, समय कम होता जा रहा है, रह-रहकर लगता है ज़िंदगी के पचास साल व्यर्थ कर दिए, अब क्या करूँ? गृहस्थी बसा भी ली और मन भी नहीं लगता, कैसे जिया जाए?
आचार्य प्रशांत: ऐसे जियें जैसे किसी और की गृहस्थी हो। अब जैसे आपने ये सवाल पूछा, यहाँ पाँच-दस लोग मुस्कुरा दिए। ठीक है! क्योंकि अभी किसी और की गृहस्थी की बात हो रही थी, इसलिए लोग मुस्कुरा दिए। जबकि जो मुस्कुरा रहे हैं उनमें से कइयों की अपनी गृहस्थी की यही हालत है। लेकिन अभी भाव ये था कि किसी और की गृहस्थी है, तो मुस्कुरा दिए। ऐसे ही आप भी अपनी गृहस्थी को मानें कि किसी और की गृहस्थी है और मुस्कुरा दें। और कोई इसमें चारा अब बचा नहीं है।
मैं युवाओं से बात करने में इसीलिए विशेषकर उत्सुक रहता हूँ ताकि मुझे उन्हें ये बोलना न पड़े कि तुम्हारे लिए अब कोई चारा बचा नहीं है। युवावस्था वो व्यय है जब अभी बहुत सारे चारे उपलब्ध हैं, अभी राहें खुली हुई हैं। आप अपने जीवन को एक ऐसे बिंदु पर ले जाएँ जहाँ पर नयी राहें खोलना, नये पत्थर तोड़ना आपके लिए बड़ा कष्टप्रद हो जाए, तो ये तो कोई समझदारी की बात नहीं हुई न। अगर चेत सकते हो तो आरंभ में ही चेत जाओ।
देह धरे का दंड है।
देह धरे का दंड है। देह धरना यही नहीं होता कि अपना जन्म हो गया, देह धरना ये भी होता है कि एक दूसरी देह ले आकर के अपने जीवन में धर ली। एक देह ले आकर के अपने जीवन में धर ली। एक देह या कई देहें। एक देह आती है तो दो-चार देह तो उसके पीछे-पीछे चली ही आती हैं।
“देह धरे का दंड है, देह धरे सो होय।” जिसके पास भी देह है उसको ये दंड होता ही होता है। आपने देह अब धर ली है, तो ये दंड तो अब मिलेगा। लेकिन थोड़ी राहत मिल सकती है। राहत कैसे मिल सकती है? “ज्ञानी भुगते ज्ञान से और मूर्ख भुगते रोए।”
अपनी ज़िंदगी में किसी की देह ले आ ली है, तो दंड तो अब मिलेगा। लेकिन उस दंड को भुगतने का एक बेहतर तरीक़ा हो सकता है कि ज्ञान से भुगतो। मूर्ख आदमी रो-रो के भुगतता है और ज्ञानी ज्ञान से भुगतता है। ज्ञान से भुगतता है माने? समझ जाता है, कहता है, ‘प्रकृति का खेल है, माया है, सबको बनाती है, हमको भी बना गयी।’ और मुस्कुरा दीजिए। “ज्ञानी भुगते ज्ञान से।” ज्ञान की गहराइयों में प्रवेश करते जाइए, कष्ट कम होता जाएगा। यही उत्तर है मेरा।
प्रश्नकर्ता २: आचार्य जी, मुझे अपने आसपास के लोगों से प्रेम नहीं है। कुछ अपने परिवार के लोग हैं। क्या साधक के अंदर हर किसी के लिए प्रेमभाव होना आवश्यक है?
आचार्य: प्रेम उससे किया जाता है जो आपकी चेतना को ऊपर खींच दे। बाक़ियों के प्रति दया रख सकते हैं, मैत्री रख सकते हैं, करुणा रख सकते हैं, प्रेम बिलकुल अलग बात है। “जा मारग साहब मिले प्रेम कहावे सोय”, उसके अलावा कुछ नहीं प्रेम होता।
जिस रास्ते पर चल के साहब मिल जाएँ सिर्फ़ वो प्रेम है, बाक़ी इधर-उधर के रास्ते प्रेम नहीं कहलाते। आपके आसपास के लोग अगर ऐसे हैं कि आपको साहब से मिलवा देते हैं — साहब माने सत्य। अगर आपके आसपास के लोग ऐसे हैं कि आपको साहब से मिलवा देते हैं, तो वो प्रेम के अधिकारी हुए। नहीं तो नहीं।
प्रेम कोई बहुत हल्की-फुल्की चीज़ नहीं है कि ऐसे, ऐसे, ऐसे प्रेम. . .। (इधर-उधर हाथ से इशारा करते हुए) और अभी हम बात कर रहे हैं साधक के प्रेम की, सिद्ध के प्रेम की बात नहीं कर रहे। साधक के प्रेम को तो एकनिष्ठ होना पड़ेगा। “मेरो तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।” दूसरे किसी से कोई मुझे मतलब ही नहीं है, प्रेम कैसा!
साधक का प्रेम एकनिष्ठ होता है। सिद्ध का प्रेम बरसात की तरह होता है, धूप की तरह होता है, वो सबके लिए होता है। जिन्होंने प्रश्न पूछा है वो सिद्ध तो नहीं, वो तो साधक हैं। तो उनके प्रेम को तो एक के लिए ही आरक्षित होना पड़ेगा। छितराया हुआ प्रेम नहीं चलता — इससे भी प्रेम है, उससे भी प्रेम है, फ़लाने से भी प्रेम है, पड़ोस की मौसी से भी प्रेम है, उसकी बछिया से भी प्रेम है।
आ रही है बात समझ में?
हाँ, जब आप ऐसी जगह पहुँच जाइएगा जहाँ साधना. . ., तो आप पाएँगे कि आपका प्रेम अब खिली धूप की तरह सब पर पड़ रहा है। उससे पहले ये मत करिए कि अनकन्डिशनल लव (बेशर्त प्रेम), लव एव्रीबडी (सभी से प्रेम करो), दिस-दैट (ये-वो)।
मैं ये नहीं कह रहा हूँ दूसरों से अभी दुश्मनी निकालिए। मैं कह रहा हूँ अभी आप दूसरों के प्रति मैत्री का भाव रख सकते हैं। अभी आप दूसरों को सहयात्री मान सकते हैं, हमसफ़र मान सकते हैं, लेकिन प्रेमी नहीं मान सकते।
टिप्पणी: पूरे दोहे
देह धरे का दंड है, सब काहू को रोए। ज्ञानी भुगते ज्ञान से, अज्ञानी भुगते रोए।।
~ कबीर साहब
प्रेम-प्रेम सब कोइ कहै, प्रेम न चीन्है कोय । जा मारग साहब मिलै , प्रेम कहावै सोय ।।
~ कबीर साहब
YouTube Link: https://youtu.be/DhayDFg85gY