घरवालों के साथ मन नहीं लगता || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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घरवालों के साथ मन नहीं लगता || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। दो-हजार ग्यारह से धार्मिक पुस्तकें पढ़ने का मन करने लगा था। अर्थ समझ नहीं आया, तो यूट्यूब पर सर्च किया। विद्वानों द्वारा अर्थ किए गए अर्थ सुनती रही। सिख धर्म से होने के कारण पहले तो दो साल वही सुना। फ़िर जो भी सामने आता, वही सुनने लगती। अब एक साल से आपको सुन रही हूँ। अब परिवार में भी मन नहीं लगता, क्या करूँ?

आचार्य प्रशांत: यह मत कहिए कि परिवार में या संसार में मन नहीं लगता। यह कहिए कि जैसा हमने परिवार बना रखा है, उसमें नहीं लगता मन। और जैसा हमने अपने चारों ओर संसार रच रखा है, उसमें नहीं लगता मन।

परिवार-संसार से हटकर कहाँ जाएँगे? एक परिवार छोड़ भी दिया, तो किसी दूसरे तरह का कोई और परिवार बन ही जाएगा। और अगर हम आंतरिक रूप से वैसे ही हैं जैसे हमेशा से थे, तो पहले परिवार में जो दोष‌ थे वह दूसरे परिवार में भी मौजूद रहेंगे-ही-रहेंगे।

हम थोड़ी देर पहले कह रहे थे न, क्या? सदा अपनी ओर देखना है। जैसा परिवार हमारा बना हुआ है, क्या अचानक बन गया? हाँ, हमारी रुचि अध्यात्म की ओर हो गई पिछले कुछ सालों में, पर उससे पहले हम भी तो बहुत कुछ उन्हीं के जैसे थे न, जो हमें अब भाते नहीं? है न?

किसी वजह से हमारी राह थोड़ी मुड़ गई, हमें कुछ बातें दिखाई देने लग गईं; उनको अभी तक दिखाई नहीं दे रही। बल्कि जिन्हें दिखाई नहीं दे रही हैं, वह चकित रहते होंगे कि यह भी तो अभी दस साल पहले तक हमारे ही जैसी थी। अब यह बहकी-बहकी बातें करती है।

परिवार में यदि आप हैं, तो यह साफ़ समझ लीजिए की पहली कोशिश आपकी, और पुरज़ोर कोशिश आपकी होनी चाहिए परिवार को बदलने की, छोड़ने की नहीं। अध्यात्म प्रेम और करुणा की बात है। यह छोडा-छाड़ी, तत्काल त्याग, यह सब नहीं।

प्र: तत्काल नहीं सर, तीन साल से।

अचार्य प्रशांत: कुछ नहीं होते तीन साल।

प्र: नहीं सर, पोएम (कविता) सी आती है ऐसे ज़बरदस्ती। रात को वीडियो देखती हूँ तो डाँटते हैं। पता नहीं, तूफ़ान सा आता है अंदर और मैं लिखने लग जाती हूँ।

अचार्य: जो डांट रहे हैं—अब आप तो आध्यात्म में हैं, तो बताइए कि—जो डाँट रहे हैं, उनका अंतरजगत कैसा होगा? वह कैसे होंगे भीतर से?

प्रश्नकर्ता: दुखी हैं बहुत।

अचार्य प्रशांत: है न, दुखी होंगे न। तो आध्यात्म क्या सिखाता है, जो दुखी है उसको छोड़-छाड़कर कहीं और निकल जाओ?

प्र: छोड़ा नहीं तभी दो-हजार ग्यारह से ऐसे ही चल रही हूँ।

अचार्य: हाँ, बल्कि अगर अपना अध्यात्म परिपक्व हुआ है, वाकई कोई बात समझ में आई है, तो मैं कह रहा हूँ कि पहली और जोरदार कोशिश, ईमानदार कोशिश यही होनी चाहिए कि जिनके साथ हैं उनको धैर्यपूर्वक समझाएँगे, उनका हाथ पकड़ेंगे, उन्हें आगे बढ़ाएँगे।

यह बहुत सस्ता और आलस से भरा हुआ तरीक़ा है और मुझे इसमें थोड़ी क्रुरता भी दिखाई देती है कि जब तक तो उनके जैसे थे, उनके साथ हँसी-खेल करते रहे। और जब अपनी जिंदगी में कुछ रोशनी आई है, तो वही लोग अब नीचे या बुरे लगने लगे।

प्रश्नकर्ता: नहीं सर, बुरे की बात नहीं है। बस अच्छा नहीं लगता।

अचार्य: थम जाइए। यही तो है न, जो अच्छा नहीं लगता उसको ही तो बुरा बोलते हैं न। अच्छे का ही विपरीत क्या होता है? अच्छे का विपरीत क्या होता है? बुरा। तो आप कह रही हैं, 'अच्छा नहीं लगता।' मैं कह रहा हूँ 'बुरा लगता है।’ कुछ अलग कहा क्या मैंने? तो सुनें।

जब तक तो सब एक जैसे थे, तब तक कोई समस्या नहीं। अब जब आप थोड़े ऊँचे होने लगे हैं, तो वह अच्छे नहीं लगते। 'बुरे' शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा।

यह ठीक नहीं। यह ऐसी-सी बात है कि जब तक अंधेरा था और बेहोशी थी, हाथ थामा रखा। और अब जब रोशनी आ गई है और हमें होश आ गया है तो हमें तुम अच्छे नहीं लगते।

कुछ ऋण होते हैं पुराने, चुका दें तो अच्छा रहता है। और फ़िर जब अध्यात्म बात ही इस चीज़ की है कि पूरी दुनिया को रोशन करो, तो दुनिया को रोशन करने निकलोगे, अपने घर को नहीं करोगे?

मैं नहीं कह रहा हूँ कि घर से विशेष आसक्ति रखो। बिलकुल नहीं। लेकिन एक बात बताओ, जहाँ सशरीर मौजूद हो, शुरूआत तो वहीं से करनी पड़ेगी न! या यह कहोगे कि मैं ज्ञान और करुणा अपनी सब बिखेरूँगा कोलंबिया की किसी नागरिक पर? जिससे तुम्हारा न लेना न देना। जिसको तुम अभी नाम से, चेहरे से जानते भी नहीं। बेशक तुम्हारे मन में कोलंबिया में रहने वाले के लिए भी प्रेम होना चाहिए, करुणा होनी चाहिए पर भाई, शरीर भी कोई चीज़ होती है, यथार्थ भी कोई चीज़ होता है।

शुरुआत कहाँ से करनी पड़ेगी? आप मेरे सामने अभी बैठे हैं, मैं आपके सवालों के उत्तर दूँ या मंगल ग्रह पर कोई है जो वहाँ से कुछ पूछ रहा है, उसके सवालों के उत्तर दूँ? बोलो। शुरुआत तो हमेशा उनसे ही करिए न, जो आस-पास वाले हैं।

जब बिलकुल दिख जाए कि अभी इनका वक्त नहीं आया है, अभी इन्हें बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, तब आगे निकालिए। मैं दोनों बातें कह रहा हूँ। यह भी नहीं करना है कि घर के भीतर ही अटक कर रह गए, और यह भी नहीं करना है कि घर को तत्काल बुरा कह दिया, अच्छा नहीं। वह भी नहीं करना है। न अटक के रह जाना है, और न ही उससे कूदकर भाग जाना है। मैं कह रहा हूँ, 'पहली कोशिश कहाँ होनी चाहिए?'

प्र: अपने घर में।

अचार्य: और वह कोशिश कभी ख़त्म नहीं होती। जब यह भी दिखाई दे कि अभी इन लोगों का समय नहीं आया है, अभी यह मेरी बात नहीं समझ पा रहे, तो भी बस यही कहना है कि अभी इनका समय नहीं आया है। यह नहीं कहना है कि इनका समय कभी नहीं आएगा। कहना है, 'अभी नहीं आया है। जब तक इनका समय नहीं आया है, तब तक मैं प्रतीक्षा करूँ।'

इस प्रतीक्षा का क्या मतलब है? तब तक मैं कहीं और कोशिश कर लूँगी पर एक नज़र इन पर भी रखूँगी। जब दिखाई देगा कि इनका समय आने लगा है, यह भी समझने लगे हैं, तो मैं फ़िर इन पर प्रयास करूँगी। तो दोनों बातें हैं-पूरी दुनिया में रोशनी पहुँचानी है, लेकिन-साथ ही-साथ जो अपने आसपास हैं, पहला प्रयास उन पर करना है। समझ रहे हैं?

हम नहीं जानते ऊपर वाले के तरीक़े। बहुत लोगों का हृदय परिवर्तन इसी बात से हुआ है इतिहास में, कि उन्होंने एक धार्मिक आदमी को अपनी ओर से खूब परेशान करा और वह फ़िर भी अडिग रहा, प्रेमपूर्ण रहा, मुस्कुराता रहा। एक-से-एक क्रूर और अधार्मिक, हिंसक लोग बदल गए हैं यह देखकर के कि वह जिसको दुख पहुँचा रहे थे, वह दुख के बावजूद प्रेम पूर्ण रहा और सच्चे रास्ते से डिगा नहीं, वह इसी बात से फ़िर बदल भी गए।

कौन जाने कि आपके घर वाले अगर आपको परेशान करते प्रतीत होते हैं, तो यही उपाय बना रहा हो ऊपर वाला उनके परिवर्तन का कि तुम उसको खूब परेशान करके देख लो, वह परेशान फ़िर भी नहीं होने वाली।

जब नहीं आप परेशान होएँगी, तो उनको बड़ा अचरज होगा। वह कहेंगे, 'बात क्या है! कुछ तो बात है। यह क्या पढ़ती रहती है! क्योंकि हमें कोई इतना परेशान करता तो हम तो परेशान हो जाते। निश्चितरूप से इस महिला को कुछ विशेष मिल गया है। हम इसे सालों से परेशान कर रहे हैं, इसे पढ़ने नहीं देते, यह करते हैं, वो करते हैं—जो भी बातें आप बताएँगी—हम इसको इतने तरीक़ों से सताते हैं लेकिन यह फ़िर भी अडिग रहती है। यह किन ग्रंथों का पाठ कर रही है, यह क्या देखती रहती है यूट्यूब पर!' उन्हें भी थोड़ी उत्सुकता होगी।

एक सूत्र समझिएगा! जो आपको जिस तरीक़े से डराना चाहता है, वह उसी चीज़ से स्वयं भी बहुत डरता है। तभी तो वह उस चीज़ का प्रयोग कर रहा है आपको डराने के लिए। जो मरने से डराएगा, जान लीजिए कि वह स्वयं भी मरने से डरता है। चूँकि वह मरने को बड़ी बात समझता है, इसीलिए जब वह आपको प्रभावित करना चाहता है तो आपसे कहता है, 'तुझे मार दूँगा।'

तो आपको जो लोग परेशान कर रहे हैं, निश्चितरूप से वह परेशानी को बड़ी बात समझते हैं। वह सोचते हैं कि इसको परेशान करेंगे तो टूट जाएगी, हिल जाएगी। आप दिखा दीजिए कि परेशानी बड़ी चीज़ है ही नहीं। यह आपका तरीक़ा होगा उनको झकझोर देने का। तुमने मुझे परेशान किया, मुझे अंतर ही नहीं पड़ा। यह बहुत करारा जवाब होगा। करारा भी और प्यार से भरा हुआ भी। करारा प्यार।

फ़िर देखिए क्या होता है!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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