प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, मैं एक डॉक्टर हूँ। मैं स्त्री-रोगों में विशेषज्ञ हूँ। मेरा प्रश्न यह है कि मानव के गर्भ में जो शिशु होता है, क्या उसमें चेतना होती है? क्या जीवित मानव की तरह ही उसको संस्कारित किया जा सकता है? वैदिक और वेदान्त के प्रकाश में गर्भ-संस्कार का वास्तविक अर्थ क्या है? एक डॉक्टर के रूप में क्या मुझे अपने क्लिनिक पर इस तरह के संस्कारों को प्रोत्साहन देना चाहिए?
यह प्रश्न पूछने के कुछ कारण हैं:
मैं इस गतिविधि को अध्यात्म के क्षेत्र में विज्ञान का संक्रमण समझ रही हूँ, लेकिन अन्य लोग ऐसा नहीं मानते। विज्ञान के प्रकाश में आज हम यह जानते हैं कि सुनने की क्षमता २४ हफ़्ते की गर्भावस्था पर बच्चे में आ जाती है, जो ३६ हफ़्ते में पूर्ण विकसित हो जाती है। परन्तु सुनकर समझने की क्षमता का विकास पाँच वर्ष की उम्र के पश्चात आरंभ होता है जो २५ वर्ष पर पूर्ण होता है। समझने और याद रखने, तथा उसे जीवन में उतारने की समझ का नियंत्रण हमारे मस्तिष्क का प्रीफ्रन्टियर एरिया करता है। मानव मस्तिष्क का यही क्षेत्र हमारे चेतना का भी केंद्र है। सामान्यतः प्रीफ्रन्टियर एरिया आठ वर्ष की उम्र में कार्य करना प्रारंभ कर देता है, जिसका पूरा विकास युवावस्था तक चलता ही रहता है।
अपनी मातृभाषा को सीखने के लिए मस्तिष्क की प्राइमिंग गर्भावस्था के चौबीसवें हफ़्ते में आरंभ होती है – इसलिए बच्चा मातृभाषा आसानी से सीख जाता है। भाषा के विकास के लिए प्रीफ्रन्टियर एरिया की आवश्यकता नहीं पड़ती है, अतः बच्चा अपनी मातृभाषा पाँच वर्ष के पहले ही सीख जाता है।
पानी में जाकर ध्वनि तरंगों की गति तीन गुना तक कम हो जाती है और उनकी स्पष्टता भी लगभग ख़त्म हो जाती है। अतः प्रश्न यह है कि भले ही गर्भस्थ शिशु सुन तो सकता हो, तो भी क्या मंत्रों की ध्वनि और उच्चारण उस तक उसी शुद्ध अवस्था में पहुँच पाते होंगे जिन्हें सुनकर वह ओजस्वी और चेतनावान मनुष्य बनकर पैदा हो? योगवासिष्ठ में बाल्यावस्था की जो निंदा की गई है, वह भी इसी वजह से तो की गई है न कि बाल्यकाल में मानव चेतना-रहित भय-ग्रस्त और पशु के सामान होता है?
क्या मंत्रो में वास्तव में यह शक्ति होती है कि बिना मंत्रों को समझे और आत्मसात किए संसार भर के विभिन्न क्षेत्रों के मानवों का गर्भ-संस्कार करके उन्हें संस्कारित किया जा सकता है? भोपाल में गर्भसंस्कार तपोवन केंद्र का दावा है कि यहाँ पर गर्भवती महिलाओं को हिन्दू संस्कारों और गर्भ संवाद के ज़रिए स्वस्थ और बुद्धिमान शिशु पैदा करने में मदद की जाती है। लखनऊ युनिवर्सिटी में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन गर्भ संस्कार भी किया जा रहा है और जिसमें भर्ती के लिए किसी भी विषय में स्नातक डिग्री होने से हम वह डिग्री कर सकते हैं।
यही प्रश्न है आचार्य जी।
आचार्य प्रशांत: देखिए, मैं नहीं समझता कि गर्भ में जो शिशु है, जो अभी तक छ:-आठ महीने का है, उसको कोई भी सीख किसी भी तरीके से दी जा सकती है। वो जब पैदा हो जाता है, उसके बाद भी कई महीनों तक उसको कुछ भी सिखाना बहुत मुश्किल होता है और जो चीज़ें उसको सिखाई जा सकती हैं, वो भी बड़ी आरंभिक और आदिम चीज़ें ही हैं। जिन्होंने बच्चे पाले हैं वो भलीभाँति समझ रहे होंगे मैं क्या बोल रहा हूँ। पैदा होने के पहले की तो बात ही छोड़िए, पैदा होने के बाद भी कई महीनों तक आप बच्चे को क्या सिखा पाते हो? अधिकांश अभिभावक तो कुछ सिखाने की चेष्टा भी नहीं करते क्योंकि सिखाना लगभग असम्भव है। हाँ, कुछ बातें हैं जो सिखाई जा सकती हैं और हम ये भी जानते हैं कि कुछ बातों का उसपर प्रभाव पड़ना शुरू हो जाता है। उदाहरण के लिए, प्रकाश का, ध्वनि का प्रभाव इत्यादि पड़ना शुरू हो जाता है। लेकिन प्राकृतिक तरीके से किसी प्रकाश या ध्वनि पर प्रतिक्रिया करना एक बात है, और सीखना बिलकुल दूसरी बात है। लर्निंग (सीखना) और रिएक्टिंग (प्रतिक्रिया करना) दो बहुत अलग-अलग चीज़ें होती हैं न?
सीखने का सम्बन्ध बोध से है और किसी ध्वनि आदि से प्रतिक्रिया करने का सम्बन्ध प्राकृतिक संस्कारों से है। कोई बच्चा क्या, कोई पशु भी ध्वनि पर और प्रकाश पर और स्पर्श पर तो प्रतिक्रिया करता ही है न? एक छोटा-सा जानवर भी हो, उसको भी आप स्पर्श दीजिए तो प्रतिक्रिया करेगा। इसका मतलब ये थोड़े ही है कि उसने कुछ सीखा है! उसका मतलब है कि वैसी प्रतिक्रिया करना उसके शारीरिक संस्कारों में निहित है पहले से ही। तो सीखना वगैरह तो मुझे नहीं लगता कि बहुत संभव है। लेकिन गर्भ में शिशु को सीख देने का एक दूसरा कोण बहुत महत्वपूर्ण है। वो ये है कि अगर तुम उसको कुछ श्लोक या दोहे या सद्-वचन सुनाओगे तो उसकी माँ सुन लेगी। उससे ज़रुर शिशु को लाभ हो जाना है।
ये बात ही विचित्र लग रही है कि गर्भ में शिशु है तो आप शिशु को शिक्षा देने का प्रयास कर रहे हैं, जो कि अभी शिक्षा लेने लायक ही नहीं है, और जिसको शिक्षा दी जानी चाहिए, उसकी आप बात ही नहीं कर रहे।
जब गर्भ में बच्चा हो तो उस समय पर माँ को विशेष आध्यात्मिक शिक्षा दी जानी चाहिए क्योंकि अब उसके ऊपर बहुत भारी ज़िम्मेदारी आने वाली है। और अगर वो ज़िम्मेदारी का निर्वाह करने में सक्षम नहीं है तो शिशु का, अपना, पूरे समाज का बड़ा अहित करेगी। तो जो लोग ये भी कर रहे हैं कि ‘चलो, गर्भ का बच्चा है तो उसको हम कुछ श्लोक या दोहे सुना रहे हैं’ मुझे लगता है कि परोक्षरूप से तो वो भला ही कर रहे हैं। क्योंकि बच्चा सुने-ना-सुने, माँ तो सुन रही होगी, बाप तो सुन रहा होगा। और माँ यदि सुन रही है तो उसका बच्चे को वास्तविक लाभ होगा। जन्म के बाद भी होगा, जन्म से पहले भी होगा। क्योंकि माँ और बच्चा तो एक ही देह होते हैं। और मनुष्य सायकोसोमैटिक (मनोदैहिक) होता है, मन जैसा होता है, शरीर भी उसका फिर अनुसरण करने लगता है। तो माँ का मन यदि आपने शुद्ध और शांत किया, तो उससे माँ की देह भी बेहतर होगी। और माँ की देह बेहतर हुई, तो बच्चे की देह बेहतर हो जाएगी।
तो इस प्रक्रिया से ज़रूर बच्चे को लाभ हो जाएगा, लेकिन आप अगर ये सोच रहे हैं कि आप बच्चे को उपनिषदों के मंत्र बता देंगे, उससे वो कुछ सीख लेगा – मुझे नहीं लगता। बाकि इसपर और वैज्ञानिक प्रयोग किए जाने चाहिए। और बहुत आसानी से ये जाना जा सकता है कि आप जो अंदर ध्वनियाँ इत्यादि भेज रहे हैं, बच्चा उसको किस रूप में ग्रहण कर रहा है। फिर बोलूँगा, प्रतिक्रिया करना एक बात होती है और समझना, लर्निंग , बोध बिलकुल दूसरी बात होती है। बोध तो बड़े-बड़ों को उपलब्ध नहीं हो पाता, वो गर्भस्थ शिशु को कहाँ से उपलब्ध हो जाएगा?
तो बोध तो, मेरा अनुमान यही है कि नहीं हो सकता ऐसे। हाँ, माँ को ज़रूर उससे फ़ायदा हो जाएगा। असल में इस पूरी बात के पीछे ये भावना निहित है कि तुम मंत्रों का अर्थ समझो या ना समझो, इनकी ध्वनि लाभ दे देती है। ये जो पूरी चर्चा हो रही है न, इसके मूल में ये मान्यता बैठी हुई है कि मंत्र तुम समझो या नहीं समझो, इनकी ध्वनि कान में पड़ेगी तो तुम्हें कुछ लाभ हो जाएगा। तो यही सोचकर फिर कह देते हैं कि "बच्चे को भी गर्भ में कुछ सुना दो।" भले ही उसको कितना भी आंशिक सुनाई दे रहा हो, उल्टा-पुल्टा सुनाई दे रहा हो, सुनाई दे रहा हो या ना दे रहा हो, कुछ तो उस तक एक प्रतिशत बात पहुँच रही है। तो उससे उसको लाभ हो जाएगा।
ऐसा बिलकुल भी नहीं है। कृपया करके ये अंधविश्वास मन से निकाल दें कि आप मंत्र का अर्थ नहीं समझ रहे हैं फिर भी लाभ हो जाएगा। मैंने इसपर प्रयोग करके देखा हुआ है।
थोड़ी संस्कृत मुझे आती है, तो मैंने दो प्रयोग करे थे। और दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, आपको रोचक लगेंगे। पहला मैंने ये करा था कि एक बहुत ही एकदम व्यर्थ की बात ली थी और उसके नीचे एक बड़े संत का नाम लिख दिया और हमलोग बैठा करते थे रविवार को और चर्चा किया करते थे आध्यात्मिक, आज से दस साल पहले की बात है। तो उसमें मैं सबको प्रिंट-आउट दिया करता था कि आज की रीडिंग (पठन सामग्री) है, इसको पढ़ लो, फिर इस पर चर्चा करेंगे। तो मैंने प्रयोग करा, मैंने बिलकुल ही बेकार की बात उठा ली, बाज़ारू, और उसके नीचे लिख दिया एक संतजन का नाम, और सबको दे दिया। किसी को ज़रा भी संदेह नहीं हुआ, लोगों ने कहा, ‘नहीं, बढ़िया ही बात होगी, अच्छी ही होगी।‘ कई लोग तो उसका अर्थ भी निकालने लग गए।
फिर मैंने आगे का प्रयोग किया। मैंने उससे भी ज़्यादा एक व्यर्थ की बात संस्कृत में लिख दी, और संस्कृत में जिससे बात करता था, उनको आती नहीं। मैंने कहा, ‘ये श्लोक है, अब सब मिलकर के पाठ करेंगे सम्मिलित ध्वनि में।‘ और जो वो बात थी, वो बिलकुल सड़क-छाप, लेकिन संस्कृत में। तो लोग पूरे भक्ति भाव से… (पाठ में लग गए)। मैंने कहा, ‘ये होता है।‘
समझ में आ रही है बात?
अरे भाई! जब तुम अर्थ ही नहीं जानते, तो तुम्हें उससे लाभ क्या हो जाएगा? और जब तुम अर्थ नहीं जानते तो ऐसे मूर्ख बनोगे। तुम अपने-आप को बताए रहोगे कि कुछ लाभ हो रहा है। तो ये जो चीज़ है कि ध्वनियाँ – 'ध्वनि' कुछ नहीं होती, समझिएगा। ध्वनि पशु के लिए होती है। पशु अर्थ नहीं समझता, पशु सिर्फ़ ध्वनि समझता है। तो आप बोलते हो, ‘टॉमी शू।‘ अब 'शू' का कुछ अर्थ है क्या? 'शू' का कोई अर्थ है? पर 'शू' क्या है एक? ध्वनि।
तो जो कह रहे हैं कि मंत्रों की ध्वनि से ही लाभ हो जाता है, वह वास्तव में आपको पशु बना रहे हैं, और पशु समान ही आपके साथ व्यवहार कर रहे हैं, कि बस ध्वनि सुन लो तो कुछ हो जाएगा।
मनुष्य ध्वनि पर नहीं, अर्थ पर चलता है।
जो ध्वनि पर चले वह पशु है। जो अर्थ पर चले वह मनुष्य है, और जो अर्थ का भी अतिक्रमण करके मौन हो जाए, फिर जान लो कि वो मानवातीत हो गया। वो मनुष्यता का भी उल्लंघन कर गया और आगे निकल गया। ये भाव कभी मत आने दीजिएगा अपने भीतर कि मतलब पता है या नहीं पता है, जो भी मन्त्र या श्लोक हैं, इनको बोलते चलो, उच्चारण ही काफ़ी है।
नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है। देखिए, इस तरह की बात फैलाने में पुरोहित वर्ग का बड़ा स्वार्थ रहा है। पुरोहितों में, दुर्भाग्यवश, एक वर्ग ऐसा रहा जिसने कभी नहीं चाहा कि आम जनता श्लोकों का अर्थ समझे। तो उन्होंने ये मान्यता प्रचलित कर दी कि अर्थ जानने की कोई ज़रूरत नहीं है, ध्वनि काफ़ी है। और मैं आप से बिलकुल साफ़-साफ़ बिना लाग-लपेट के कह रहा हूँ, अर्थ नहीं पता तो कुछ नहीं पाओगे। और ये मंत्रों का अनादर है, श्लोकों के साथ अन्याय है अगर तुम बिना अर्थ जाने उनका पाठ कर रहे हो या श्रवण कर रहे हो।
ये बात समझ रहे हो?
इसीलिए तो हमारे सब धार्मिक विधि-विधान अर्थहीन हो गए हैं। आप शादी में बैठ जाते हैं और वहाँ पंडित संस्कृत में कुछ बोल रहा है – और आपका विवाह आपके लिए एक बड़ा महत्वपूर्ण मौका है। आपको पता भी नहीं कि आपके विवाह को क्या बोलकर प्रतिष्ठापित किया गया है। आप जानते ही नहीं। और आपके लिए इतनी महत्वपूर्ण चीज़ है! उसने क्या बोलकर के आपकी शादी करा दी कुछ पता ही नहीं आपको, और आप सोच रहे हो आप विवाहित हो गए हो। ये क्या कर रहे हो? क्या गज़ब है ये!
वैसे ही मंदिरों में होता है। वहाँ कोई बात हो रही है, आपको उसका अर्थ ही नहीं पता और आप बिलकुल ऐसे हो जाते हो, नतमस्तक। क्यों हो गए? क्या बात करी गई वहाँ पर, जानना नहीं चाहोगे?
जिन्होंने वो मन्त्र रचा, उन्होंने आपको ध्वनि दी थी या उन शब्दों के कुछ अर्थ भी होते हैं? अगर सिर्फ़ ध्वनियाँ दी होतीं तो वो कुछ ऐसे ही कुछ बोल देते – "ऊ का, पी, पा, पु।" या वो जो मंत्र में शब्द हैं, उनके कुछ अर्थ भी हैं? तो जिन्होंने आपको मंत्र दिया, उन्होंने आपको अर्थ दिया न? वो अर्थ के बिना बस ध्वनि बोलते रहोगे? ये क्या पागलपन है! फिर आप में और पशु में अन्तर क्या है – 'टॉमी शू? ई आ उ के पी पु?' और बड़े खुश हो जाते हैं, कि 'पी पु' करके आ गए। 'पी पु' से क्या मिलेगा?
(व्यंग करते हुए) चलो भक्तजनों, मेरे पीछे-पीछे दोहराओ – 'ई ऑन की पु पी पु'। १०८ बार दोहराएँगे। इससे तुमको प्रचुर धार्मिक लाभ होगा। और हो भी जाता है बहुतों को। कहते हैं, ‘तर गए!’
'पी पु।' (श्रोतागण हँसते हैं)
मेरी बात मत सुनो, ऋषियों की बात सुनो। ऋषियों ने श्लोक में कुछ अर्थ रखा है या नहीं रखा है? या बस ध्वनि दी है? तो वो अर्थ जानना अत्यधिक महत्व का हुआ या नहीं हुआ? तो बिना अर्थ जाने श्लोक क्यों दोहराते रहते हो? अपने पंडित जी से पूछना, ‘जो बोल रहे हो, उसका कुछ मतलब तो होगा। वो मतलब काहे नहीं बता रहे?’
पंडित जी को भी मतलब पता ही नहीं है। मतलब छोड़ दो, मेरे पिता जी संस्कृत के ज्ञाता रहे हैं, बनारस। उनके लिए एक बड़े ही आनंद का स्रोत था कि जहाँ कहीं भी कोई पंडित हो, उसके बगल में जाकर बैठ जाना है। ख़ास तौर पर जब वो कोई पूजा-पाठ, अनुष्ठान, विवाह, जनेऊ, मुंडन कुछ करा रहा हो। और उसको बीच-बीच में कोचकर बोलते थे, ‘ऐसे नहीं बोलो, ऐसे बोलो।‘ अर्थ छोड़ दो, अधिकांश पंडितों को उच्चारण भी नहीं पता है। पर, चूँकि आपको कुछ नहीं पता, इसीलिए उनका काम चलता रहता है।
धर्म को बड़े पुनर्जागरण की ज़रूरत है। सनातन धर्म को आज एक क्रांति चाहिए अगर उसे बचे रहना है। नहीं तो यही सब बेवकूफियाँ हावी हो जानी हैं उसपर, कि ध्वनि सुन लो, ध्वनि से कुछ हो जाएगा। बोलते हैं, ‘वाइब्रेशन्स होते हैं वाइब्रेशन्स । वाइब्रेशन्स से लाभ हो जाता है।‘
गज़ब ज्ञानी हैं, आकर के तर्क देते हैं, कहते हैं, ‘दवाई आप पीते हो? आपको पता है दवाई में क्या है? लेकिन लाभ तो होता है न?’ भाई, शरीर को हो जाएगा क्योंकि शरीर अर्थ नहीं माँगता। मन की बीमारी क्या है? अज्ञान। तो मन अर्थ माँगता है। शरीर की बीमारी दवाई से दूर हो सकती है भले ही तुम दवाई के जितने भी पदार्थ हैं, नहीं जानते तो भी वो दवाई आप पर काम कर जाएगी, शारीरिक तल पर।
मन की तो बीमारी का ही नाम अज्ञान है। तो जब अज्ञान ही बीमारी है, और तुम मंत्रों का भी अज्ञान रख रहे हो, तो अज्ञान अज्ञान को दूर कर देगा क्या?
अगर आपको अर्थ नहीं पता तो कोई मंत्र आपके किसी काम नहीं आएगा। मैं यहाँ तक कह रहा हूँ कि जितने भी हमारे संस्कार और उत्सव मंत्रों पर आधारित हैं और आपको उन मंत्रों का अर्थ नहीं पता रहा है, तो वो सब संस्कार व्यर्थ ही गए हैं।
ये वैवाहिक जीवन की शुरुआत ही, उदाहरण के लिए, खराब है अगर पति-पत्नी बैठ गए हैं और उन्हें पता ही नहीं कि किसकी आहुति दी गई है, किससे प्रार्थना की गई है, किस देवता को क्या बोला गया है और दोनों को परस्पर किस बन्धन में बांधा गया है। दोनों को पता ही नहीं है। विवाह की शुरुआत ही ख़राब हो गई बिलकुल। और दोनों बड़े खुश हैं, दोनों को लगता है कि कुछ हो गया है।
क्यों हो गया? "संस्कृत!"
संस्कृत में कुछ भी बोल दो। आज भी अगर आपको किसी को प्रभावित करना हो, आप संस्कृत में बोल दीजिए कुछ भी। संस्कृत में इतनी चीज़ें लिखी गई हैं, बहुत फ़िज़ूल की भी चीज़ें भी लिखी गई हैं। आप संस्कृत में कोई नाटक उठा लीजिए जिसमें कोई उदाहरण के लिए प्रेयसी बोल रही है कि "ओ बादलों, जल्दी से बरस जाओ। मेरा प्रियतम आता है।" आप वही बोलना शुरू कर दीजिए, लोग तुरंत ऐसे हो जाएँगे, (हाथ जोड़कर दिखाते हुए) "ज़रूर कोई धार्मिक बात बोली होगी, संस्कृत में बोली है न।"
समझ रहे हो?
बच्चों को आप जो बड़ी-से-बड़ी सहायता दे सकते हैं वो ये नहीं है कि उसे गर्भ में उसको मंत्र सुना दिए। वो ये है कि आप उसको अच्छी परवरिश दें, और अच्छी परवरिश देने के लिए माँ-बाप का सजग होना बहुत ज़रूरी है। वो मंत्र आप बच्चे को मत सुनाइए गर्भ में, वो मंत्र आप स्वयं सुनिए। और माँ-बाप दोनों बैठ कर सुनें। उपनिषद् पढ़ें, वेदान्त पढ़ें, गीता पढ़ें, इसमें बच्चे का लाभ है। बाप हो गए ३० साल के, आजतक उन्हें गीता समझ में आयी नहीं। ३० साल के हट्टे-कट्टे हो गए हैं, इन्हें गीता नहीं समझ में आयी आज तक। बच्चा तीन महीने का है, गर्भ में है, उसको समझ में आ जाएगी?
क्या अंधेर है! पहले बाप को समझनी होगी या पहले बच्चे को?
श्रोतागण: बाप को।
आचार्य: हाँ! तो बाप गीता समझे। अगर बाप बन रहे हो तो पहले गीता समझो। ये है वास्तविक गर्भ संस्कार। संस्कार किसका होना चाहिए? माँ-बाप का होना चाहिए, गर्भस्थ शिशु का नहीं। अगर हम एक सजग समाज होते, तो ये जितने भी भावी अभिवावक होते, वॉन्नाबी पेरेंट्स (जो माता-पिता बनना चाहते हैं), इनके सबके लिए अनिवार्य की जाती छः महीने की आध्यात्मिक शिक्षा। गर्भ के तीसरे महीने से नौवे महीने तक कोर्स पूरा करो। और नहीं पूरा करोगे तो इतना टैक्स लगेगा। “सर्टिफिकेट दिखाओ, पूरा कर लिया? ठीक!”
मज़ाक है क्या अभिवावक बनना? कुछ नहीं, बस ऐसे ही, सेक्स करो और बच्चा पैदा करो, हो गया! बहुत योग्यता चाहिए। वह योग्यता अर्जित करनी पड़ेगी। अंधेर नगरी, चौपट राजा। बच्चे को सुना रहे हो श्लोक, ख़ुद कभी सुने नहीं।
ये बात स्पष्ट है?
ध्वनियों से लाभ नहीं होगा। लाभ किससे होता है? अर्थ से।