प्रश्नकर्ता: सर, नमस्कार! पिछली चर्चा को सुनने के बाद मेरे पास दो प्रश्न हैं। एक प्रश्न जो मैं पहले से सोचकर आयी हूँ, मेरा प्रश्न मेरे निजी जीवन से सम्बन्धित है। पाँच साल पहले मेरी शादी हुई थी एक तलाक़शुदा व्यक्ति के साथ जो कि एक इंजीनियर।
मैंने सोचा था कि वो अनुभवी और बुद्धिमान होगा क्योंकि उसके पास पहले से एक वैवाहिक रिश्ते का अनुभव था। लेकिन इन पाँच सालों में मुझे महसुस हुआ कि वह बहुत ही संस्कारित व्यक्ति है। समाज द्वारा काफ़ी ज़्यादा प्रभावित और अपने पारिवारिक जीवन और भाई-बहनों से, और ख़ास तौर पर जातिवाद से अपना पहचान रखने वाला है। यह एक अंतर्जातिक विवाह था।
मैं आठ सालों से मेडिटेशन कर रही हूँ और मुझे उससे काफ़ी फ़ायदा भी हुआ है। यद्यपि मेरी योजना शादी नहीं करने की थी लेकिन इकत्तीस वर्ष की उम्र में मेरी शादी हो गयी। और अब बात ये है कि उनके पारम्परिक मूल्यों और ग्रामीण पृष्ठभूमि की वजह से मैं उसके परिवार के साथ ठीक से ताल-मेल नहीं बना पा रही हूँ।
मैं पिछले दो सालों से लगभग अकेले रह रही हूँ क्योंकि उसका झुकाव उसके परिवार की तरफ़ ज़्यादा है और वो मानता है कि मुझे सारे रिवाज़ों का पालन करना चाहिए। और उसकी वजह से मुझे काफ़ी बुरा-भला अनुभव करना पड़ता है। कुछ मौखिक बहस की घटनाएँ भी घटीं जिसके बाद पश्चात्ताप हुआ।
अब बात ये है कि मैं अलग रह रही हूँ और अपना ख़ुद का घर ख़रीद लिया है। और वह अपनी तैनाती की जगह पर मुझसे लगभग चालीस किलोमीटर दूर रह रहा है। और वह वापस आना चाहता है और तथाकथित रूढ़िगत विवाह करना चाहता है और परिवार की शुरुआत करना और वही सबकुछ। तो मैं चीज़ों को स्पष्ट नहीं कर पा रही हूँ। इन सबके साथ शांति कैसे बनाए रखूँ? और और वह अपनी आध्यात्मिक प्रगति के लिए कुछ नहीं कर रहा।
आचार्य प्रशांत: आप जानते भी सब हैं। और आपके भीतर जो बैठा है जो सब कुछ जानता है, वो ये भी जनता है कि ऐसी स्थिति में आगे क्या करना चाहिए। मेरे मुँह से आप क्या कहलवाना चाहती हैं?
कहते हैं समझदार को इशारा काफ़ी है। इशारा छोड़ दीजिए, मैं तो नगाड़ा, बीस मिनट से, आधे घण्टे से बजा रहा था अभी। क्या बचा बोलने को? और ये शोभन भी नहीं लगता कि एकदम इतने ज़्यादा निजी मसले पर मैं बहुत घुस करके बड़ी बारीक सलाह दूँ। बोल तो दिया जो सब बोलना था। कैसा मेडिटेशन कर रही हैं आप? जिन्होंने आपको ये मेडिटेशन बताया, वो होते तो पहले यही पूछते कि —"बाक़ी तो सब ठीक है, मेरा नाम क्यों बीच में ला रहे हो?”
प्र: मैं इस सबके साथ शांति से नहीं जी पा रही हूँ। हालाँकि मैं उससे कोई आशा नहीं रख रही हूँ। मैं अकेले ही रहती हूँ।
आचार्य: तो जैसे रह रही हैं, उसमें समस्या कुछ?
प्र: ही इज़ कॉन्स्टेंट्ली सेइंग (वह लगातार कह रहा है) …
आचार्य: वो तो चालीस किलोमीटर दूर है हाउ इज़ ही सेइंग (वह कैसे कह रहा है)?
प्र: ऑन फ़ोन (फ़ोन पर)।
आचार्य: (हाथ हिलाकर “कैसे?” पूछने का इशारा करते हुए)
प्र: वह लगातार कह रहा है कि — "ऐसे ही रहना है या क्या करना है?” शायद, क्योंकि ये उसके साथ दूसरी बार हो रहा है।
आचार्य: जो एक काम करना सब महिलाएँ बड़ी निपुणता से जानती हैं, एकदम तुरंत कर देती हैं—मैं स्वयं भुक्तभोगी हूँ—वो है ब्लॉक (रोक देना)। तो वो नहीं किया गया आप से आज तक?
प्र: नहीं, मेरे को ब्लॉक करने की ज़रूरत नहीं है। मैं अवॉइड (नजरंदाज़) कर लेती हूँ।
आचार्य: कैसे? आप कह रही हैं कि फ़ोन पर आप परेशान होती हैं, फिर कह रही हैं अवॉइड कर लेती हैं! कैसे? आपका जैसा अभी चल रहा है जीवन उसमें कोई समस्या आ रही है? आप कमा रही हैं। आपका अपना घर है। मेडिटेशन , ध्यान, अध्यात्म इसकी ओर आपका रुझान है। कुछ पढ़ती भी होंगी। काफ़ी सारा समय तो आपका आपकी प्रैक्टिस (अभ्यास) में ही निकल जाता होगा। आप वर्किंग प्रोफ़ेशनल हैं। अभी क्या समस्या आ गयी जीवन में जो एकदम इससे हटकर के कुछ और करना चाहती हैं? और क्या मैंने सही सुना, आपने शुरुआत में फ़ैमिली भी बोला था?
प्र: हाँ। वहाँ से, उस तरफ़ से बात होती है। आई एम् नॉट इंटरेस्टेड इन देट (मेरी उसमें रुचि नहीं है)।
आचार्य: बात ही क्यों हो रही है फिर उसकी? ये सब बातें हो ही क्यों रही हैं? और ऊँची बातें करिए। ज़िंदगी ज़रा सी है, हाथ से रेत की तरह, कल फिसल जाएगी। ये सब लफड़ों-झपड़ों में गँवाने के लिए थोड़ी पैदा हुए हैं हम? या दिल का कोई कोना आज भी प्रेम में धड़क रहा है? यही है न असली बात?
न रिश्ते को अपने सिर पर चढ़ने देना चाहिए, न उसको औपचारिक रूप से तोड़ने वग़ैरह की मेरी दृष्टि में कोई ज़रूरत होती है। एकदम सुरक्षित फ़ासला है ये – चालीस किलोमीटर। न बहुत पास का, कि चार ही किलोमीटर दूर था, भाग के आ जाएगा अभी। न चार सौ किलोमीटर, कि पूरी रात लगेगी आने में। एकदम ठीक है चालीस। बीस इधर से जाइए, बीस उधर से आ जाए। हफ़्ते में, महीने में, एक बार जब मिलने का मन करे, बैठिए कहीं पर, कॉफ़ी पीजिए— वीगन कॉफ़ी । पिक्चर देख लीजिए, घूम-फिर लीजिए। इससे ज़्यादा मिलना भी नहीं चाहिए।
आपके जो जिगरी यार हैं—जिन्हें हम चड्डी-बदल दोस्त कहते थे—उनसे भी आप कितना मिलते हो? मैं विपरीत लिंग की नहीं बात कर रहा। यारी-दोस्ती लड़कों में ज़्यादा होती है। जो लोग कॉलेज से अब निकल चुके और निकले हुए कम-से-कम पाँच साल बीत चुके हैं, अपने पुराने यारों से कितना मिलते हो? और यारी बहुत गहरी हो, आज भी बहुत गहरी हो, तो भी कितना मिलते हो? साल में एक बार, दो बार। ऐसे ही स्त्री और पुरुष को मिलना चाहिए। वही एक आदर्श स्थिति है। मत देखो रोज़ एक-दूसरे का चेहरा; दोनों में से कोई इतना ख़ूबसूरत नहीं है। साल में एक बार मिलो—थोड़ा ज़्यादा हो गया—चलो, पखवाड़े में, पंद्रह दिन में एक बार मिलो लो। इससे ज़्यादा मत मिला करो।
रिश्ते में गरिमा रखना चाहते हो अगर, रिश्ते का स्वास्थ्य ठीक रखना है, तो कम मिलो एक-दूसरे से। और ये जो ख़ास तौर पर डबल-बेड की व्यवस्था है, ये ज़हर है। अपना बिस्तर अपना रखो। चढ़ कर मत सोओ किसी पर। आर्थिक तंगी हो तो अलग बात है कि अब एक ही घर में रहना पड़ेगा, दो घर कहाँ से लाएँ। पर जहाँ इस तरीक़े के मामले हों, वहाँ अलग-अलग रहना ही बेहतर है; हर मामले में बेहतर है। आप अपने घर में रहिए, हम अपने घर में रहेंगे। ठीक है, विवाह हो भी गया है तो भी आप अपने घर में रहिए, हम अपने घर में रहेंगे। ये जो रिश्ते इतना ज़हर बनते हैं उसकी बहुत बड़ी वजह को-हैबिटेशन है—साथ-साथ रहना।
फिर पूछता हूँ, आपका जो सबसे जिगरी यार हो, उसके साथ रहना पड़ जाए तो क्या होगा? कितने दिन रह पाओगे? कितने दिन रह पाओगे? दूसरा दिन बीतते-बीतते एक-दूसरे के सिर पर बियर की बोतलें फोड़ दोगे। ठीक? ये तब जब वो तुम्हारा सबसे जिगरी यार है। उसमें कोई सेक्शुअल (लैंगिक) कोण था ही नहीं कभी।
और स्त्री-पुरुष का रिश्ता तो वैसे ही तलवार की धार जैसा होता है, यारी तो उनमें होती नहीं। जो ज़्यादा बड़ा उसमें मुद्दा होता है, वो सेक्शुअल होता है। मित्रता तो या तो कम होती है या एकदम ही नहीं होती। तो कैसे एक-दूसरे के साथ रह लोगे? फिर झेलते हो बस एक-दूसरे को। और वो झेलना-झिलाना चलता रहे इसीलिए पूरी संस्कृति है, इसीलिए पूरी मर्यादा है।
पुरुष का अहम् घायल ना हो इसीलिए ये बनाया गया कि स्त्री उसको बोलेगी 'जी’ और ‘आप’ करके बात करेगी। और पहले तो ‘परमात्मा-परमेश्वर’ भी बोलती थीं और सुबह-सुबह जाकर चरण स्पर्श करती थीं। ये सारी व्यवस्था क्यों बनायी?
यारों में ऐसी व्यवस्था होती है? तुम्हारा दोस्त आकर तुमको ‘जी’ बोल दे तो ऐसे करोगे जैसे बिजली का नंगा तार छू गया हो। कहोगे, “गाली दे ले, जो गाली देनी हो, दे ले, ‘जी’ नहीं बोलेगा।” अगर ‘आप’ बोल दे। सोचो, ‘आप’ बोल रहा है। वो बोलेगा, “इतना गिर गया तू? अब ‘आप’ कर के बात करेगा?”
और यहाँ स्त्री-पुरुष में ये नियम ही बना दिया गया था कि वो ‘आप’ करके बात करेगी। ‘नट्टू के पापा’, ‘नुन्नू की अम्मा’। ये क्या तरीक़ा है? इससे क्या पता चल रहा है? मित्रता का अभाव। मित्रता होती तो इसकी ज़रूरत ही नहीं पड़ती — 'नट्टू के पापा’, ‘नुन्नू की मातारी’। देखो (एक महिला की तरफ़ इशारा करते हुए), कितना खुश हो रही हैं!
जहाँ मित्रता नहीं है, वहाँ सहवास क्यों? और सहवास से मेरा मतलब है साथ-साथ रहना, को-हैबिटेशन । जिससे दोस्ती नहीं है, उसके साथ रहोगे तो सिर ही तो फोड़ोगे एक-दूसरे का, और क्या करोगे? ये एक नियम की तरह पकड़ लीजिए – तुम अपना रहो, हम अपना रहेंगे। जब मौसम अच्छा होगा तो मिल लेंगे। कभी तुम्हारे घर मिल लेंगे, कभी हमारे घर मिल लेंगे; नहीं तो ‘ओयो’।
कैसे रह सकते हो, बताओ?
रहीमदास जी का है,
“कह रहीम कैसे निभे, बेर केर को संग। वे डोलत तन आपने, फाटत उनके अंग।।”
स्त्री और पुरुष — बेर और केर। केला और बेर, इनकी तरह हैं। केले के पत्ते कैसे होते हैं? उसमें ऊँगली भी ऐसे फिरा दो तो फट जाए। इतना नाज़ुक पत्ता केले का! और बेर का कैसा होता है पेड़?
स्त्री केले के पत्ते की तरह होती है। वो बात-बात में उसकी भावनाएँ हर्ट (आहत)। और पुरुष को पता भी नहीं चलता वो बेर है। उसका काम ही है सबको रगड़ते हुए चलना। उसके काँटें निकले हुए हैं हर जगह। अब ये दोनों साथ रहेंगे तो क्या होगा?
मर्दों की भी बेचारों की बड़ी आफ़त रहती है। वो ऐसे आधे-आधे घण्टे बैठकर सोचते हैं, ‘अभी मैंने क्या किया ऐसा जो ये ऐसा मुँह बनाये हुए है? मैंने कुछ तो करा है पर मैंने क्या करा है?’ और उसको समझ में ही नहीं आता कि उसने ऐसा किया क्या है। उसने कुछ नहीं करा, बेर की अपनी प्रकृति है – काँटेदार, और केले की अपनी प्रकृति है। और केले का काम है जब हवा चलती है तो झूमना। और बगल में क्या है? बेर। वो जब झूमता है तो बेर उसको फाड़ देता है। और फिर वो अपना सा मुँह लेकर घूम रहा है। गूगल कर रहा है, व्हॉट डिड आई डु लास्ट (मैंने पिछली बार क्या किया)? सीसीटीवी में देख रहा है, कुछ तो किया होगा।
मत रहो साथ। तुम्हारा साथ में नहीं गुज़ारा हो सकता। और बहुत ये विरल बात है कि स्त्री और पुरुष में मित्रता होने पाए। मित्रता हो गयी तो फिर तो कोई बात नहीं। मित्रता साधारणतया होगी नहीं। प्राकृतिक तल पर तो बिलकुल नहीं होगी। मित्रता होगी भी आदमी-औरत में तो आध्यात्मिक तल पर होगी। आध्यात्मिक हम होते नहीं, तो मित्रता हो सकती नहीं।
हमारे जो रिश्ते बनते हैं, जब आप लड़की देखने जाते हो तो पूछते हो क्या, "मीरा बाई का सुनाना कुछ पद?" ऐसे बोलते हो? तब तो देखते हो सेक्सी (कामुक) कितनी है, हॉट (उत्तेजित) कितनी है। और तुम (लड़कियों की तरफ़ इशारा करते हुए) भी जब लड़कों को देखने जाते हो तो ऐसे बोलते हो, "सूरदास का कुछ प्रस्तुत करें।" ऐसे बोलते हो? देखा था क्या? नहीं देखा था न? तब तो यही देखते हो, “अच्छा, बढ़िया है! कंधे चौड़े, छाती चौड़ी। कमाता कितना है?”
रिश्ते हमारे आध्यात्मिक तल के नहीं हैं और मित्रता आध्यात्मिक तल पर ही हो सकती है। हमारे रिश्ते हैं शारीरिक तल के और शारीरिक तल पर आप हो बेर और वो है केर। तो दोनों साथ-साथ रहोगे तो फाड़ोगे एक-दूसरे को, और फटती उसमें ज़्यादा स्त्री ही है। बेर को तो अधिक-से-अधिक बस ग्लानि ही होती है। उसका हुक्का-पानी बंद होता है। उसे घर से निकाल दिया जाता है, ‘आज खाना नहीं मिलेगा, जा।‘ उसको कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता, वो कहीं और जाकर खा आता है, मस्त!
प्र: सर, एक चीज़ और जो मैंने अनुभव की है और ऑब्ज़र्व (अवलोकन) भी किया है कि वी ऑल्वेज़ से दैट वूमेन शुड वर्क एंड शुड अर्न, नॉट इक्वल टु मैन बट अटलीस्ट टु सम एक्सटेंट (हम हमेशा ये कहते हैं कि औरतों को काम करना चाहिए और भले ही मर्दों के बराबर नहीं लेकिन कुछ हद तक तो कमाना चाहिए)। लेकिन जब मैंने किसी के साथ रहना शुरू किया तो पैसे कॉमन (साझा) ख़र्चा करना उसकी जब बात आयी, तो मैं हमेशा साझेदारी से योगदान देती थी।
लेकिन ये एक असमंजस की बात थी, क्योंकि मेरी कई सारी महिला मित्र जैसे फ़ेलो डॉक्टर्स (साथी चिकित्सक) और बाक़ी जो कमाने वाले रहें हैं, वे सब बिना देखें अपने पतियों को अपने क्रेडिट कार्ड और एटीएम कार्ड दे रहे हैं। यही वो आधार है इसका कि उनकी शादीशुदा जीवन जो है, वो चल रही है।
मतलब मैं ये कहूँगी कि मेरी सौ प्रतिशत जो फ्रेंड्स हैं, उन सब ने ही अपना एटीएम कार्ड अपने हस्बैंड्स को दे रखा है। और कोई उसका खर्चा पूछना भी नहीं है और उनका कोई अधिकार भी नहीं है ब्यूटी पार्लर जाने के सिवाय। इन छोटे खर्चों के लिए तो वो नकद ले लेती हैं, वरना वो एटीएम कार्ड उनको ही देकर रखती हैं। दिस इज़ द बेसिस ऑफ़ द फाइनेंशियल मैनेजमेन्ट (ये आर्थिक प्रबंधन का आधार है)।
आचार्य: मैं तो उन पुरुषों को लेकर हैरान हूँ जो ऐसा पराया पैसा ले भी लेते हैं। ये मर्द कैसे हैं? आप लोग शादी करते हैं, क्या करते हैं, पता नहीं। शादी का तो मुझे ख़ैर कोई अनुभव है नहीं, लेकिन सम्बन्धों को जानता हूँ। स्वावलम्बन बहुत आवश्यक है किसी भी स्वस्थ सम्बन्ध में। आपका बैंक अकाउंट (बैंक का खाता) आपका है, किसी को पासवर्ड (गुप्त शब्द) दे मत दीजिएगा। और दूसरे का बैंक अकाउंट उसका है, उसका पासवर्ड कभी माँग मत लीजिएगा। आपके फ़ोन में भी लॉक लगा रहे, पिन लगा रहे। और उसके फ़ोन में भी झाँकने की कभी कोशिश आप करिएगा मत। समझ में आ रही है बात?
दोस्ती होती है, दूसरे का दुख-दर्द अपना हो जाता है। उसको पैसे की ज़रूरत है, दे दीजिए न। अपने हाथ से दे दीजिए, अकाउंट से निकाल कर दे दीजिए, पर अकाउंट ही मत दे दीजिए। बिना वापस पाने की आकांक्षा के दे दीजिए। कहिए, "तू अच्छा आदमी है, प्यार है तुमसे। तुझे दिया है और देकर भूल रही हूँ, वापस भी नहीं माँगूँगी।"
अब ये उसका मन है, उसका ईमान है कि वो लौटाता है कि नहीं लौटाता है। आपका काम है देना और उसका काम है लौटाना। आप दे कर भूल जाइए, लौटाने की फ़िक्र वो करे। लेकिन जो भी हो, आपके हाथ से हो। ये ना हो कि आपका अकाउंट किसी और के पास है और उस अकाउंट में क्या चला रहा है, आपको वो भी नहीं पता है। बल्कि आप अपना ही पैसा माँगने के लिए हाथ फैलाते फिरते हो कि मुझे ब्यूटी पार्लर जाना है, पच्चीस सौ रुपये दे दो। ये तो कहीं से ठीक नहीं है।
और ये मेरे लिए अविश्वसनीय है कि ऐसा हो कैसे सकता है कि आप एक पुरुष हैं और आप अपनी पत्नी, अपने पिता, अपनी गर्लफ्रेंड का कार्ड लेकर घूम रहे हैं, उसको स्वाइप कर रहे हैं; कैसे कर सकते हो आप?
स्त्रियों के लिए भी यही बात है। आपमें कुछ ज़रा भी स्वाभिमान है या नहीं है? आप पति का कार्ड लेकर घूम रही हैं और उसको बेखटके इस्तेमाल भी कर रहीं हैं; लाज नहीं आती आपको ज़रा भी? बच्चे हो क्या? दस-बारह साल का बच्चा हो उसको थोड़ा सा माना भी जा सकता है कि हो गया—ख़ैर उसको भी कार्ड नहीं दिया जाता—उसको भी पॉकेट मनी (जेब ख़र्च) दे दी जाती है कि इतना दिया गया है, इसका कर लो ख़र्च। अकाउंट ही थमा दिया! ये क्या बात है?
देखिए, जितनी नजदीकी है नहीं, उतनी नजदीकी का ढ़ोंग नहीं करना चाहिए न? उतने ही क़रीब आओ जितना चल सके। जितनी आत्मिक निकटता है नहीं, उतनी आत्मिक निकटता का व्यवहार प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। अपना कमरा अपना रखो, अपना बैंक अकाउंट अपना रखो।
प्रेम का मतलब ये नहीं होता कि हम दोनों तो एक ही साझा पजामा पहनते हैं। एक टाँग में वो घुस जाता है, दूसरे में हम घुस जाते हैं, सासु माँ नाड़ा खींच देती हैं। आप अपना पजामा पहनिए, वो अपना पजामा पहने। हाँ, बहुत प्यार झलक रहा हो तो दोनों एक ही ब्राण्ड का पहन लो। घूमते हैं निब्बा-निब्बी, वो दोनों एक सी टी-शर्ट पहने होते हैं। एकदम एक जैसी टी-शर्ट में; भाई-बहन लगते हैं बिलकुल; जुड़वाँ। “आई लव माय गर्ल (मैं अपनी स्त्री से प्यार करता हूँ)”, “आई लव माय बॉय (मैं अपने मर्द से प्यार करती हूँ)।” एक साथ घूम रहे हैं। ये भी चल जाएगा।
क्यों घुस रहे हो किसी की ज़िंदगी में? ये बात गरिमा विरुद्ध होती है और ये भारत में ही ज़्यादा चलती है। आपका अपना कुछ प्राइवेट स्पेस (निजी जीवन) जैसा होता है या नहीं होता है? और देखिए, वो जो था न कि—’मेन आर फ्रॉम मार्स एंड वीमेन आर फ्रॉम विनस’ (पुरुष मंगल ग्रह से हैं और स्त्रियाँ शुक्र ग्रह से हैं—उस बात में थोड़ी सी है सच्चाई। ये दोनों सिर्फ़ दो अलग-अलग लिंग नहीं होते। इनमें शारीरिक तौर पर, प्राकृतिक तौर पर, मानसिक तौर पर भी बड़ी भिन्नताएँ होती हैं। आत्मा अकेली है जहाँ पर स्त्री और पुरुष एक हो सकते हैं। बाक़ी तो बहुत भिन्न हैं।
आप रह रहे हो, एक ही कमरा है। अब एक कमोड (शौचासन) है, पुरुष के लिए उसका बहुत दूसरा मतलब होता है और स्त्री के लिए बहुत अलग। पुरुष को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता वो खड़े होकर के वहाँ छलछला देगा और गन्दा करके चल देगा; उसे कोई अंतर नहीं पड़ता। इन्फ़ेक्शन स्त्री को होता है। उसकी जो पूरी व्यवस्था है वो खुली हुई होती है, उसको बैठना है। वो वहाँ पर चला गया है मूत्रदान करके। वो जाकर उस पर बैठ रही है। वो साफ़ करके नहीं गया है। स्त्री की कितनी ही चीज़ें होती हैं जो भिन्न हैं। दोनों में काफ़ी भिन्नताएँ हैं।
अपनी चीज़ अपनी रखिए। और ये कोई मीननेस (क्षुद्रता) की बात नहीं है। इसमें ऐसा कुछ नहीं है कि, ‘अरे! ये तो संकीर्णता दिखा रहे हैं हम। क्या हम अपने पति के साथ भी इस तरह की भेद की बातें करेंगे? क्या ऐसी दूरियाँ रखेंगे?’ हाँ साहब, आप दूरियाँ रखिए अगर साथ निभाना है तो। साथ नहीं निभाना हो या रिश्ते में घुटन रखनी हो, तो चढ़ बैठो एक-दूसरे के ऊपर फिर। कोई स्वेच्छा से आपसे पूछ ले कि मैं कौनसी शर्ट ख़रीद लूँ, बता दीजिए। नहीं तो, चढ़ मत बैठिए कि तू तो मैजेंटा (लालिमायुक्त बैंगनी रंग) ही पहन, क्योंकि मुझे मैजेंटा पसंद है। ये सब नहीं करना चाहिए।
मेरा प्रश्न लेकिन अनुत्तरित है अभी भी — जैसा आपका जीवन अभी चल रहा है उसमें आपको क्या समस्या है? उसमें क्यों आप कोई बदलाव करना चाहती हैं?
प्र: सर, मुझे कोई समस्या नहीं है अपने …
आचार्य: जो चल रहा है, चलने दीजिए।
प्र: लेकिन लगातार जब कोई एक ही सवाल को बार-बार पूछे – "फिर क्या करना है? ऐसे क्यों रह रही है तू?” मतलब हर तरफ़ से दबाव।
आचार्य: ‘बी’ फॉर?
श्रोतागण: ब्लॉक।
आचार्य: मित्रता, मित्रता! वो शायद प्रेम शब्द से भी थोड़ा आगे की बात है क्योंकि प्रेम को लेकर धोखा हो जाता है। वासनागत आकर्षण को हम प्रेम समझ लेते हैं। तो प्रेम शब्द में धोखा होने की सम्भावना रहती है, कि आपको कोई अच्छा लगने लग गया तो आपको लगेगा प्रेम हो गया। मित्रता! सवाल ये पूछा करिए — मैं कैसे इस व्यक्ति के साथ एक नये जीव को संसार में ला सकती हूँ अगर ये मेरा मित्र ही नहीं है तो?”
मित्रता! और मित्रता के कई लक्षण होते हैं जिसमें से एक लक्षण ये होता है कि आप दूसरे को चोट पहुँचा सकते हैं; आपको ये अधिकार मिल जाता है। और आप जितनी चोट पहुँचाते हो, उतना ज़्यादा मज़ा आता है। चोट कौनसी वाली? टाँग खींचने वाली। चोट ये नहीं कि गंडासा उठा कर काट ही दिया।
मित्रता है क्या? – ये पूछा करिए। ख़ासतौर पर बच्चे तो बिलकुल ही नहीं पैदा करिए अगर मित्रता नहीं है तो। बंदा अगर अच्छा है तो अच्छी बात है, मिलिए-जुलिए, डेटिंग (मिलन) करिए। और ज़्यादा सिर चढ़े तो ब्लॉक कर दीजिए।