आचार्य प्रशांत: मीडिया हो, राजनीतिक व्यवस्था हो, न्यायिक व्यवस्था हो, शैक्षणिक व्यवस्था हो, पारिवारिक व्यवस्था हो, सामाजिक व्यवस्था हो, हमारे जितनी संस्थाएँ हैं, ये जितने इंस्टीट्यूशन्स (संस्था) हैं हमारे, इनके कोई बहुत ऊँचे उद्देश्य नहीं हैं। आप ये नहीं कह पाएँगे कि हमारी शैक्षणिक व्यवस्था इसलिए है कि मनुष्य में करुणा का विकास हो और मनुष्य या जो बच्चे, छात्र वहाँ से निकल रहे हैं वो अंततः मुक्ति को प्राप्त हों, ऐसा नहीं है।
उसी तरीक़े से जो आपकी आर्थिक व्यवस्था चल रही है, इसका उद्देश्य आपको बोध इत्यादि की गहराई देना नहीं है। इसका भी उद्देश्य यही है कि भई ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग खायें-पियें, मौज करें।
राजनीति भी हमारी इसलिए नहीं है कि राजनीति के फलस्वरूप देश में उच्चतर मूल्यों की स्थापना हो। राजनीति भी इसलिए है कि कुछ लोगों के हाथ में सत्ता, ताक़त आ जाए और वो राज करें। या कि एक वर्ग होता है वो चाहता है कि उसका प्रतिनिधि दिल्ली में बैठ जाए। तो वही सामुदायिक, सांप्रदायिक, कबिलाई बात; कोई ऊँची बात नहीं।
तो ऐसे करके हमारी सारी व्यवस्थाएँ चल रही हैं। और आदमी के भीतर जो निचले केंद्र हैं, जो निचली वृत्तियाँ हैं, उन्होंने ही तमाम संस्थाओं की, माने जो इंस्टीट्यूशन्स हैं, और व्यवस्थाओं की शक्ल ले ली हैं।
जैसे जानवर भोग करना चाहता है, वैसे ही सब व्यवस्थाएँ चल रही हैं भोग कराने के लिए। अब जानवर में और मनुष्य में एक अंतर यह है कि जानवर की भोग की इच्छा प्रकृति द्वारा निर्धारित होती है और इसलिए सीमित होती है। कोई भी जानवर असीमित भोग नहीं करना चाहता। उसको भोगना है पर प्रकृति ने उसको जो सीमाएँ दे दी हैं उसके भीतर।
मनुष्य की भोग की इच्छा असीमित होती है। और तुमको अगर असीमित भोगना है तो फिर तुम्हारे भोगने में बाक़ी मनुष्य भी शामिल हो जाते हैं। ऐसे नहीं कि तुम भोग रहे हो तो वो भी भोगेंगे। ऐसे कि तुम दूसरे इंसानों का शोषण करना शुरू कर देते हो, वो तुम्हारे लिए आवश्यक हो जाता है। क्योंकि पृथ्वी तो और बड़ी हो नहीं रही, न पृथ्वी के संसाधन और बढ़ जाएँगे। पृथ्वी सीमित है, उसके संसाधन भी सीमित हैं। और तुमने अपना आदर्श बना रखा है कंजम्पशन (भोग) को, 'और चाहिए, और चाहिए।' तो और ज़्यादा तो तभी चाह सकते हो जब तुम पृथ्वी पर जो दूसरे लोग हैं उनका शोषण करना शुरू कर दो। ऐसी स्थिति ला दो जिसमें कुछ लोगों को कुछ भी न मिले और कुछ लोगों को हद से ज़्यादा मिले।
समझ रहे हो?
और सारी व्यवस्थाएँ हैं हाथ में उन्हीं लोगों के जिन्हें हद से ज़्यादा चाहिए। जो लोग सत्ता की ऊँची कुर्सियों पर बैठ जाते हैं उन्हें इससे संतोष नहीं होता कि उन्हें मिल गई ऊँची कुर्सी। वो फिर कहते हैं कि चार साल नहीं आठ साल चाहिए, आठ साल नहीं बारह साल चाहिए। कुर्सी द्वारा सम्मत जितनी शक्तियाँ और बल मिलता है वो भी काफ़ी नहीं है, मुझे और ज़्यादा बल चाहिए।
इसी तरह जिनके पास पैसा आ जाता है वो इतने भर से संतुष्ट नहीं होते कि पैसा आ गया। वो कहते हैं और चाहिए, और चाहिए। दुनिया की नब्बे प्रतिशत दौलत—तुम जानते ही हो कि—दुनिया के एक या दो प्रतिशत लोगों के हाथ में है। यह कैसे हो जाता है? क्योंकि भोग की इच्छा कहीं पर रुकती नहीं है; और चाहिए, और चाहिए।
इसी तरीक़े से दुनिया की सारी राजनीतिक ताक़त बस कुछ चंद लोगों के हाथ में है। मीडिया पर भी कुछ मुट्ठी भर लोगों का कब्ज़ा है, धर्म को चलाने वाले भी कुछ ही लोग हैं। तो इस तरीक़े से ये हमारी पूरी पाशविक व्यवस्था चल रही है जिसमें हर व्यक्ति कहता है 'मुझे और भोगना है।' और ये जो करोड़ो लोग हैं, जो कह रहे हैं कि मुझे और भोगना है, इनमें आपस में प्रतिस्पर्धा होती है। और कुछ मुट्ठी भर लोग शीर्ष पर पहुँच जाते हैं। जो शीर्ष पर पहुँच जाते हैं वो असीमित भोग करते हैं। उनके पास सब कुछ ही ऐसी मात्रा में आ जाता है जिसकी आप कल्पना नहीं कर सकते।
तो जो आदर्श है आठ सौ करोड़ लोगों का पृथ्वी के, वो आदर्श साकार होता है बमुश्किल आठ सौ लोगों के लिए या आठ हज़ार लोगों के लिए जो बिलकुल ऊपर चोटी पर जाकर के बैठ गए हैं।
तो प्रश्न है कि फिर बाक़ी लोग क्या करते हैं? जो पृथ्वी के बाक़ी लोग हैं उनका क्या जीवन है और उनके जीवन की सार्थकता क्या है? उनका इस्तेमाल होता है फिर मज़दूरों की तरह ताकि जो लोग शीर्ष पर बैठे हैं उनकी ताक़त और दौलत बढ़ती रहे।
जो ऊपर शून्य दशमलव एक प्रतिशत लोग बैठे हैं इस ग्रह पर, उनके अलावा जितने लोग हैं इस पृथ्वी पर, वो सिर्फ़ इस्तेमाल किये जाने के लिए हैं। उनका उपयोग हो रहा है मज़दूरों की तरह ताकि जो ऊपर वाले लोग हैं वो उपभोग करते रहें।
बात समझ में आ रही है?
तो ऐसे समझ लो कि एक बहुत बड़ी भीड़ है। और उस बहुत बड़ी भीड़ से लगातार काम करवाना है, मज़दूरी करवानी है ताकि ऊपर जो दो-चार लोग बैठे हैं वो दो-चार लोग ताक़त पाते रहें, अय्याशी करते रहें। जितने भी उनको सुख भोगने हैं, अपनी दृष्टि में जो भी उनकी छोटी समझ बताती है कि हमें इतना और भोगना है तो बड़ा आनंद आ जाएगा, वो सब उनको मिलता रहे; अय्याशी का पूरा साजो-सामान।
इसके लिए ज़रूरी है नीचे जो बहुत बड़ी भीड़ है ये लगातार मेहनत करते रहे। और व्यवस्था ऐसी बनी हो जिसमें इस नीचे वाली भीड़ की मेहनत का सारा फल, अधिकांश मुनाफा जाए ऊपर वाले की जेब में। नीचे वालों को बस इतना दे दो कि वो ज़िंदा बने रहे अगले दिन फिर मेहनत करने के लिए। क्योंकि अगर तुमने कुछ नहीं दिया तो वो मर जाएँगे। अगर तुमने उन्हें बहुत कम दिया तो वो विद्रोह कर देंगे, क्रांति कर देंगे। तो उनको थोड़ा-बहुत देते रहो, थोड़ा बहुत देते रहो ताकि उनका पेट भी भरा रहे और उनको ये संतोष भी बना रहे कि वो जीवन में प्रगति कर रहे हैं।
क्या तुम देख पा रहे हो कि यह दुनिया भर के निम्न वर्ग, मध्यम वर्ग, उच्च मध्यम वर्ग की दशा है?
उनको थोड़ा बहुत मिलता रहता है, और उनको ये मुगालता बना रहता है कि हम ज़िंदगी में तरक़्क़ी कर रहे हैं। ठीक है न? जबकि वो जो भी कुछ कर रहे होते हैं वो वास्तव में जा रहा होता है ऊपर वाले के हाथों में। ऊपर वाला माने कोई ईश्वर, भगवान नहीं, ऊपर जो तुम्हारे शोषक बैठे हैं उनके उपयोग के लिए जा रहा होता है ऊपर। आ रही है बात समझ में?
अब ये बात तो बड़ी सीधी-सादी है। हमने अभी पाँच मिनट में ही बात बता दी कि भाई दुनिया में यह व्यवस्था चल रही है। दुनिया में जितने भी तरीक़े की व्यवस्थाएँ हैं, उनका कुल मिला करके हश्र, अंज़ाम, उपयोग यही हो रहा है।
उदाहरण के लिए, आपकी शैक्षणिक व्यवस्था है जो आपको उपयोगी बना देती है कि आप जाकर के कहीं पर नौकरी करनी शुरू कर दो। वो आप में आत्मनिर्भरता नहीं लाती, साहस नहीं लाती, बोध और विवेक की दृष्टि नहीं लाती। वो आपमें क्या लाती है बस? वो आप में एक प्रकार के आदर्श की स्थापना कर देती है कि अगर आप अच्छा कमा-खा रहे हो तो ज़िंदगी ठीक निकल रही है। ऐसे-ऐसे कर लो, कहीं नौकरी कर लो, शादी कर लो, कहीं पर जाकर के बस जाओ, तुम सफ़ल कहलाओगे।
इसी तरह आपकी जो पारिवारिक व्यवस्था है वो पारिवारिक व्यवस्था बाज़ार के बहुत काम आती है। जिस दिन आप शादी करते हो उस दिन आप बहुत बड़ा जो लाभ होता है वो सबसे पहले वेडिंग इंडस्ट्री (शादी वाली संस्था) को देते हो। उसके बाद बच्चा आता है घर में। वो जो बच्चा है अपनेआप में वो मार्केट फोर्सेस (बाज़ारी ताक़त) के बहुत काम की चीज़ होता है। जिस दिन बच्चा घर में आया उस दिन गिनिएगा की कितने ख़र्चे शुरू हो जाते हैं। तो आपकी जो पारिवारिक व्यवस्था है वो भी बाज़ार के बहुत काम की है। बच्चा घर में आया, आप ख़र्चा करोगे। वास्तव में मुनाफा किसकी जेब में जा रहा है? वो वो हैं जो ऊपर दो-चार लोग बैठे हुए हैं।
जो आपकी आर्थिक व्यवस्था है, आप कहीं जाकर के काम करते हो, आप उसको यदि बीस रुपए का मुनाफा देते हो तो आपकी जेब में एक या दो रुपया आता है। आपको जो भी तनख्वाह मिल रही होती है, आप उससे कई-कई गुना लाभ दे रहे होते हो अपने संस्थान को। आपको कुछ मिल गया, आप उसमें ख़ुश हो जाते हो, संतुष्ट हो जाते हो। लेकिन आपको जो मिल गया उससे कई गुना ज़्यादा ऊपर वाले को मिल गया।
देश में वास्तव में क्या हो रहा है अगर आपको पता चल जाए तो सारे सिंहासन पलट जाएँगे। ज़रूरी है कि आपको पता ही न लगने दिया जाए कि असली मुद्दे क्या हैं, असली बातें क्या हैं।
आपको मनोरंजन की अफिम लगातार चटायी जाती है – कॉमेडी शो देखो एक के बाद एक। आप क्या सोचते हो कॉमेडी शो आपको सुख देने के लिए है? नहीं, वो आपको नशा देने के लिए है। ये इतने कॉमेडियन कभी हुआ करते थे पहले? इंसान को इतना मनोरंजन देने की या इतना हँसाने की कभी ज़रूरत हुआ करती थी?
आज क्यों है? क्योंकि आज शोषण बहुत ज़्यादा है। और शोषण किसका हो रहा है? ठीक उन्हीं का जिन्हें हँसाया जा रहा है। जिसे हँसा रहे हो इतना अगर वो हँसना बंद करके अपनी स्थिति के प्रति गंभीर हो जाए तो क्रांति हो जाएगी न, लोग विद्रोह में खड़े हो जाएँगे।
तुम जिसका ख़ून चूस रहे हो वो विद्रोह न करने पाए, वो अपना ख़ून चुसवाता ही जाए, शोषित बना ही रहे, इसके लिए ज़रूरी है कि उसे हँसाओ, खूब हँसाओ।
गंभीरता में शक्ति एक जगह केंद्रित होती है, एक बिंदु पर एकीकृत होती है। और फिर संभावना बनती है कि वो कुछ कर पाएगी। और मनोरंजन के नशे में शक्ति चूर-चूर होकर के बिखर जाती है। रहती है भीतर, पर चूरे की तरह रहती है बिखरी हुई।
पत्थर में जान होती है, होती है न? पत्थर को तोड़-तोड़ कर रेत बना दो। रेत में क्या जान होती है? हमारी शक्ति रेत जैसी है। वो दस जगह बिखरी हुई है। जब आप अपनी स्थिति से वाक़ई परिचित होते हो और अपनी दुखद स्थिति का सामना करते हो तो आपकी ऊर्जा पत्थर बन जाती है। फिर वो बड़े महलों के शीशे फोड़ सकती है।
और आपकी ऊर्जा को पत्थर बनने नहीं दिया जाता उसको हँसा-हँसा कर, चूर-चूर कर रेत बना दिया गया है। और हँसाना ही एक तरीक़ा नहीं है, और जितने नशे हैं सब समझ लो। मीडिया की बात कर रहे हो, सारे नशे और ऐसे सारे मुद्दे जो किसी काम के नहीं हैं लेकिन मनोरंजक लगते हैं, उनको मीडिया ख़ूब उछालेगा।
आम आदमी का सामान्य ज्ञान लगभग शून्य है। और आम आदमी का कचरा ज्ञान अनंत है।
आते हैं मेरे पास, कहते हैं 'वो फ़लाना है उसका तो आपने नाम सुना ही होगा? अरे! वो बहुत बड़ा यूट्यूबर है उसकी बड़ी फॉलोइंग (पसंद करने वाले) है।' इस चीज़ में अनंत ज्ञान हो गया है लोगों का। कोई कचरा फैला रहा हो, उसका आप सबको नाम पता होता है। वो एक पब्लिक फिगर (लोकप्रिय इंसान) बन जाता है, हर ज़ुबान पर उसका नाम है।
और जिन मुद्दों की बात इन्होंने करी, अभी आम आदमी को बुलाकर कहा जाए कि इस मुद्दे पर तुम ज़रा दो-तीन मिनट बोल दो, वो बोल नहीं पाएगा। उसे कुछ पता ही नहीं होगा। असली मुद्दे अगर पता चलने लग गए, चाहे देश के, चाहे दुनिया के, चाहे अपने निजी जीवन के, तो हमसे जिया नहीं जाएगा। क्योंकि हालत बहुत ख़राब है देश की, दुनिया की भी और हमारी ज़िंदगी की भी।
आप डिजिटल न्यूज़ (समाचार) को देखिए, ये सब जो न्यूज़ वेबसाइट्स होते हैं, उनमें ऊपर की तीन ख़बरें होंगी ख़बर कहलाने लायक़। ऊपर के जो तीन लिंक होंगे उनको आप कह सकते हैं समाचार है। और उसके नीचे लाइन से यही होगा – पुराने अभिनेता की पत्नी क्या कर रही है; बॉलीवुड, बॉलीवुड, बॉलीवुड; थोड़ा सा क्रिकेट, थोड़ा सा हॉलीवुड। उसके बाद एकाध किसी अपराध की या बलात्कार की सनसनीखेज ख़बर; बस यही।
आप बंधुआ मज़दूरी करते रहो, आप बेहोश ग़ुलामी करते रहो, इसके लिए ज़रूरी है कि आप को मनोरंजन की आपूर्ति होती रहे।
मनोरंजन कभी आपको हँसाएगा, कभी आपकी आँखों में आँसू भर देगा, आप भावुक हो जाएँगे। कभी आप में कामवासना का संचार करेगा और कभी ये सब कुछ एक साथ होता है। एक ही टीवी सीरियल में या शो में या वेब सीरीज में या मूवी में ये सब चीजें एक साथ होती है – सेक्स, इमोशन, वायलेंस, लाफ्टर (वासना, भावना, हिंसा, हँसी-मज़ाक)। और हम पूरी तरह उसमें गुम हो जाते हैं। आप गुम हो नहीं जा रहे हैं, आपको गुम किया जा रहा है, भोले लोगों।
आपको लगता है आज बड़ा मज़ा आया, वो नयी-नयी एक वेब सीरीज आई है 'लुच्चा पार्ट फोर', वो देखी, क्या तो आनंद बरसा है! आनंद बरसा नहीं है, जिन्होंने आपको उस षड्यंत्र में लपेटा है वो मुस्करा रहे हैं कि बढ़िया इसने चार घंटे और नशे में निकाल दिए। अब चार घंटे नशे में निकाल दिए, मनोरंजन कर लिया। अब कल ये फिर अपनी दुकान पर जाएगा या दफ़्तर में जाएगा और वहाँ जाकर के खटेगा क्योंकि अब ये तरोताज़ा हो गया न।
मनोरंजन का यही तो काम है – ग़ुलामों को रिफ्रेश (तरोताजा) कर देना ताकि अगले दिन वो और डटकर गुलामी करें। मनोरंजन और किसलिए होता है? व्यापारी है तो जीएसटी भरेगा, कर्मचारी है तो इनकम टैक्स भरेगा। उसे इतना हँसा दो, इतना उसको मस्त कर दो मनोरंजन में या भावुक कर दो या कामुक कर दो कि वो पूछ ही न पाये कि वो जो टैक्स दे रहा है उसका हो क्या रहा है। और भारत दुनिया के उन देशों में है जहाँ पर आप जो टैक्स देते हैं, उसका आधा क्या, एक तिहाई भी किसी सार्थक काम में नहीं लगता।
आपको क्या लग रहा है, राजनीतिक पार्टियों को जो हज़ारों-करोड़ों रुपए चंदा मिलता है वो क्यों मिलता है? कोई व्यापारी उन्हें इतना चन्दा क्यों दे रहा है? बड़े-बड़े उद्योगपति देते हैं, क्यों देगा वो? अपनी जेब से नहीं दे रहा है, वो आपकी जेब से दे रहा है। पर ये मुद्दे मीडिया क्यों उठाएगी? ये मुद्दे उठ गए तो मीडिया के जो मालिक बैठे हैं उनके स्वार्थों पर चोट पड़ेगी न।
तो मीडिया आपको ये मुद्दा दिखाती है — घुघू कम्हार है और उसकी काली गाय का बछड़ा कुएँ में गिर गया है। वो कुएँ में गिरा हुआ है और चार दिन तक उस पर पूरा तमाशा चल रहा है, टीआरपी बटोरी जा रही है। और आप भी ऐसे चिपक कर देख रहे हैं कि कितना बड़ा मुद्दा है, बछड़ा कुएँ में गिर गया है। बछड़ा कुएँ में गिर गया है यह बड़ी बात है और हज़ारों गायें लम्पी वायरस से मर रही हैं ये बड़ी बात नहीं है?
लेकिन अच्छा लगता है न बहुत, प्यारा बछड़ा! तालियाँ बज जाती हैं बिलकुल जब बछड़े को निकाला जाता है एक साहसिक अभियान के बाद। और यही मीडिया जो आपको दिखाएगी कि एक बछड़े को निकाला गया, देखो कैसे हमने गौवंश को बचा लिया, वो कभी नहीं बताएगी कि भारत बीफ का भी सबसे बड़ा निर्यातक देश है। गौवंश जितना भारत में कटता है उतना कहीं नहीं कटता। और वही गाय जिनका आप दूध पीते हो, वही जब दूध देने की हालत में नहीं रहती तो किसानों द्वारा कसाइयों को बेच दी जाती है।
कसाई से पूछो, 'तूने क्यों काटी?'
वो कहेगा, 'क्योंकि किसान ने मुझे बेच दी।'
किसान से पूछो, 'तूने बेच क्यों दी?'
वो बोलेगा, 'तो ये पूछो न मैंने पैदा क्यों करी थी गाय?'
क्योंकि स्वयं तो पैदा होती नहीं हैं, उनको तो ज़बरदस्ती पैदा किया जाता है कृत्रिम गर्भाधान से। और बड़ी ही वो बद्तमीज़ प्रक्रिया होती है जिससे गायों को गर्भ कराया जाता है। थोड़ा देख लीजिएगा कभी, मिल जाएगा, इन्टरनेट पर ये भी मौजूद है।
माँ बोलते हैं हम गाय को। वो बोलते हैं, 'लोग इतना दूध पीते हैं तो इसलिए हम ज़बरदस्ती फिर गाय, भैंस पैदा करते हैं।'
लेकिन पूरी बात आपको मीडिया कभी बताएगा नहीं। हाँ, यह ज़रूर बता दिया जाएगा कि वो दो लोग जा रहे थे। उनको पकड़ कर भीड़ ने अच्छे से धुन दिया क्योंकि वो ट्रक पर मवेशी लादकर लिए जा रहे थे। वो आपको बता दिया जाएगा। इतने में आप कहोगे 'बिलकुल, बहुत सही हो रहा है। अब भारत में राम राज्य आ रहा है।'
जो मनोरंजन करने वाले हैं फिर वही आदर्श भी बन जाते हैं। और जो मनोरंजन करने वाला है, जब वो आदर्श बन जाएगा तो आपको मूल मुद्दों से और दूर लेकर चला जाएगा।
हालत हम सबकी बहुत ख़राब है। और हमें अगर दो पल ठहरकर देखने का मौका मिल जाए कि कितनी ख़राब है हमारी हालत, तो हम इतने भी नालायक नहीं हैं कि कुछ नहीं करेंगे अपनी हालत बदलने को। हमें शांति के, स्थिरता के, सैनिटी (स्थिर बुद्धि) के अगर कुछ पल भी रोज़ नसीब हो जाए तो निश्चित ही हम कुछ करेंगे अपनी हालत को बदलने के लिए। अपनी हालत को, देश की हालत को, दुनिया की हालत को बदलने के लिए हम करेंगे।
लेकिन अगर दुनिया की हालत बदल गई तो वो जो ऊपर बैठे हुए हैं, उनकी भी हालत बदल जाएगी। और उनकी हालत अभी बड़े मौज की चल रही है; सत्ता उनकी, ताक़त उनकी, ऐश उनकी। उनकी हालत उतनी मौज की तभी तक चल सकती है जब तक आपकी हालत ख़राब रहे। क्योंकि शोषक और शोषित का रिश्ता यही होता है न कि एक मौज मारता है और दूसरा ख़ून और पसीना बहाता है। अगर नीचे वाले ने अपनी हालत बदल ली तो फिर ऊपर वाले की भी जो मौज की हालत है वो बदल जाएगी। उसके स्वार्थों पर आँच ही नहीं आ जाएगी, सब जल कर ख़ाक हो जाएगा।
तो इसलिए ज़रूरी है कि आप अपनी हालत न बदलने पाएँ। और फिर इसलिए ज़रूरी हो जाता है कि आपको दो पल भी मौन के, चैन के, शांति और स्थिरता के न मिलने पाएँ। इसलिए ज़रूरी है कि डेढ़ सौ चैनल पर एक-से-एक ये जो बद्तमीज़ एंकर हैं, ये गला फाड़कर चिल्लाते रहें। एक के बाद एक विज्ञापन आते रहें, एक के बाद एक मूवीज रिलीज होती रहें। टीवी सीरियल्स काफ़ी नहीं थे, अब वेब सीरीज हैं। ये सब इसलिए हैं ताकि आप कभी भी ठहरकर के अपने यथार्थ से परिचित न होने पाओ। थोड़ा सा भी रुक गए अगर, तो ख़तरा यह है कि रुक ही जाओगे। वो आपको इसलिए थोडा सा भी रुकने नहीं देते।
बड़ी-से-बड़ी फ्लॉप मूवी आएगी, उसको प्रचार कर-करके, कर-करके दर्शाया जाएगा ये हिट हो गई है। ये प्रचार करके किसको बेवकूफ़ बनाया जा रहा है जानते हो? किसको? आपको। आपको बताया जा रहा है मूवी हिट हो गई है, आपको लगे 'अरे! फिर सबने देख ली, हम ही रह गए। चलो हम भी देखते हैं। हिट हो गई है माने सबने देखी है।'
आप देख नहीं रहे हो, कोई मूवी आती है उसमें ये भी नहीं बात कर रहे कि पटकथा कैसी है, अभिनय कैसा है, निर्देशन कैसा है। वो अब कुल समाचार में ये आता है कि इस मूवी ने कितने करोड़ बटोरे। इन सब बातों का निशाना किसको बनाया जा रहा है? शिकार किसका हो रहा है? आपको दिख नहीं रहा है आपका ही शिकार हो रहा है।
मीडिया वो ज़रिया है जिसके माध्यम से आम आदमी का प्रति पल शिकार किया जाता है। लेकिन ठीक वैसे जैसे मीडिया का इस्तेमाल किया जाता है शोषक वर्ग के हित में, उसी तरह आपकी जो पूरी मूल्य व्यवस्था, शैक्षणिक व्यवस्था, पारिवारिक व्यवस्था और सांस्कृतिक व्यवस्था है उसका भी इस्तेमाल किया जाता है आपको शोषित बनाये रखने के लिए।
मैं इतनी बातें बोल रहा हूँ, किसी का ख़ून थोड़े ही उबल गया! क्यों? क्योंकि हमारी शिक्षा, हमारे परिवार, हमारी संस्कृति ने हमें बता दिया है अच्छा बच्चा बनकर रहना। और अच्छे बच्चे क्या नहीं करते? बवाल नहीं करते। कोई बद्तमीज़ हो, गाली दे रहा हो, नालायकी कर रहा हो, हत्या कर रहा हो, बलात्कार कर रहा हो उससे बस मुँह फेर लेना, अपने रास्ते चल देना। अरे ये पुलिस का काम है। पुलिस आगे देखेगी न, तुम क्यों झंझट में पड़ते हो? तुम सज्जन पुरुष बनकर रहो, तुम भद्र लोग हो। और अगर तुम महिला हो तो फिर तो बहुत ज़रूरी है कि तुम एकदम गंभीरता से और अपनी गरिमा और मर्यादा का ख़्याल रखते हुए नपे-तुले कदम बढ़ाओ।
आप सोच नहीं रहे हैं कि ये सारी बातें जो आपको बोली गई हैं, उनसे वास्तव में स्वार्थ किसका सिद्ध हो रहा है? आप जितना सज्जन पुरुष बने हुए हो, आप जितना गरिमा और मर्यादा में रह रहे हो, उतना ज़्यादा वो शोषक लोग आपको और बर्बाद करते जा रहे हैं।
ये जो सब आकर्षक चेहरे लेकर आपके सामने आ जाते हैं, चाहे टीवी शोज में, चाहे मूवीज में, चाहे पोर्न में, आपको लगता है ये तो हमारा भला करने आए हैं, हमें हँसाने आए हैं, हमें बहलाने आए हैं, हमारा जी हल्का करने आए हैं। नहीं, आपको उनकी असली शक्ल नहीं दिख रही है। आपको तबाह करने आए हैं।
एक अपने लिए नियम बना लीजिए – असली मुद्दों के अलावा जो भी व्यक्ति या माध्यम आपसे कोई भी और बात कर रहा हो, उसको जान लीजिएगा ये साज़िश में शरीक है। ये षड्यंत्र का हिस्सा है। क्योंकि पृथ्वी विनाश के जितने करीब आज खड़ी है उतनी कभी नहीं थी। अगर कोई व्यक्ति ज़रा भी ढंग का होगा, उसके भीतर ज़रा भी रोशनी होगी, तो वो आज आपसे सिर्फ़ और सिर्फ़ उन मुद्दों पर बात करेगा जो महत्त्व के हैं।
भई, घर में कोई मरने को तैयार पड़ा है और चर्चा हो रही है कि इसको किस तरीक़े से बचाया जाए, यही इस वक़्त एकमात्र मुद्दा हो सकता है न। नहीं बचाया तो अगले कुछ घंटों में ही हो सकता है वो प्राण छोड़ दे। और ऐसे में कोई आकर आपसे शेयर मार्केट की बात करे और क्रिकेट मैच की बात करे और मूवी और मनोरंजन की बात करे तो ये व्यक्ति कैसा होगा? कैसा होगा? वो आपसे कोई भी बात करे, हो सकता है बात करे कि 'अरे बारिश ज़्यादा हो रही है, सड़क पर देखा था उधर मेढक था, साँप था' तो भी यह व्यक्ति कैसा होगा? यह व्यक्ति अपराधी है न। और शातिर, कुटिल अपराधी है, है न?
इस वक़्त पर तो सिर्फ़ एक ही बात की जा सकती है, कौनसी बात? ये मर रहा है इसको बचाना कैसे है। हाँ, बचाने से सम्बन्धित विविध बातें हो सकती हैं। कोई बचाने के लिए एक बात बोल सकता है, कोई दूसरी बात बोल सकता है। बचाने के लिए कोई एक लहज़े में बोल सकता है, कोई दूसरे लहज़े में बोल सकता है, वो ठीक है। लेकिन अगर कोई बीमार और उसकी दवाई की बात की जगह दुनिया भर की इधर-उधर की फ़िज़ूल बातें करे तो वो व्यक्ति कैसा है? वो बहुत-बहुत धूर्त, काइयाँ अपराधी है।
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