प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम! मैं रामानंद संत आश्रम ऋषिकेश से, यहीं से आया हूँI और पिछले आठ-नौ महीने से आपको सुन रहा हूँ। तो मैंने एक चीज़ देखी है कि ओशो जी के बाद इस दुनिया में सत्य के लिए जितनी स्पष्टता आपके पास हमने देखी है, उतनी अभी दुनिया में किसी के पास नहीं है। तो प्रश्न तो वैसे कुछ है नहीं है, बस अनुग्रह का भाव आपके दर्शन के लिए बहुत दिन से वैसे। तो बस आपके दर्शन के लिए और अब मेरे लिए क्या, मुझे क्या करना चाहिए जिससे चेतना को ऊँचाई मिले? और ये किसी ने, संत ने कहा कि “न जग छोड़ो, न हरी भूलो, करम कर ज़िंदगानी में, रहो दुनिया में ऐसे, कमल रहता ज्यों पानी में।”
तो यही है कि बस आप मुझे कुछ ऐसा मार्गदर्शन बता दीजिए कि जिससे चेतना की ऊँचाई बढ़ती रहे। और सबके बीच जाना तो पड़ता ही है। कभी-कभी मन है, जैसे मीरा ने कहा, "यो मन म्हारो बड़ा हरामी, ज्यों मदमातो हाथी।” अंकुश लगाती हूँ फिर भी जो है नीचे उतर आता है। तो बस वो ऐसे ही ऊँचा चढ़ता रहे मन। और ये निवेदन भी करने आया हूँ कि इसी के साथ ही कि आपके पदार्पण आश्रम में कल हो जाए, पास में ही है यहाँ, त्रिवेणी घाट के पास।
आचार्य प्रशांत: धन्यवाद! आप जिस रास्ते पर हैं, वो रास्ता ही अपने आपमें विधि है चेतना को उत्कर्ष देने के लिए। थोड़ी सी आपने बात कही उतनी सी ही बात में आपने दो बार, तीन बार संत वाणी उद्धतृ करी। वो संतवाणी ही विधि बनेगी। दो युक्तियों की सलाह दे सकता हूँ। बस जो आपने कहा उसी के आधार पर। पहली, जितनी व्यापक तौर पर आप ऋषियों, ज्ञानियों, संतों, मनीषियों, दार्शनिकों, विचारकों को पढ़ सकते हैं, पढ़ें।
और इस भाव के साथ पढ़ें कि इनमें परस्पर मतभेद या विरोधाभास हो नहीं सकते। होंगे भी तो सतही होंगे, ऊपर-ऊपर के होंगे। तो पढ़ते वक़्त बार-बार ये प्रयोग करते रहें, अपने आपसे पूछते रहें कि इनमें आपस में भेद कहाँ है? द्वन्द कहाँ है? और देखेंगे तो प्रथम दृष्टया द्वन्द दिखाई ज़रूर देंगेl न दिखाई दें तो इससे अच्छा तो कुछ हो ही नहीं सकता। लेकिन दिखाई देंगे, जब दिखाई दें तो जूझ जाइए। ये द्वन्द कहाँ से आये? ये भेद कहाँ से आये? श्रुति भी कई जगहों पर कहती है कि ऋषियों में तो आपस में ही मतभेद हैं।
और साथ ही साथ श्रुति ये भी कहती है कि सत्य एक ही है, और ज्ञानी उसका वर्णन, विवरण अलग-अलग तरीके से करते हैं। तो आप उन भेदों को, विरोधों को ही अपनी विधि, अपना हथियार बना लीजिए। आप कहिए मुझे खोजना है कि ये आपस में कहाँ पर भिड़े हुए हैं? और जहाँ दिखाई दे कि भिड़े हुए हैं, तहाँ फिर उनका जो साझा आधार है, उस तक़ पहुँचना है। सिर्फ़ समायोजित नहीं कर लेना है उनको।
द्वन्द के नीचे की निरद्वन्दता तक़, अद्वेत तक़ जाना है। ये पहली युक्ति हुई। और ये जब मैं कह रहा हूँ कि आप देखें, तो संतों का आपका दायरा जितना वृहद होगा, जितना विशाल होगा, उनमें भेद पाने की संभावना उतनी ज़्यादा होगी। उदाहरण के लिए अगर आप सिर्फ़ ले लेंगे कबीर साहब को, या आपने मीराबाई का उल्लेख किया, और उनके साथ में आप ले लेंगे, मान लीजिए संत रविदास को।
तो हम भली-भाँति जानते हैं कि ये तीनों तो एक ही परिवार से थे। इन तीनों की गुरुधारा ही एक थी। तो इनमें आपस में आपको भेद मिलेगा इसकी संभावना भी फिर कम हो जाती है। तो इसीलिए आप बहुत दूर-दूर के संत उठाइए। आप एक तरफ ले लीजिए किसी कट्टर नास्तिक को, आप बुद्ध की, महावीर की, परम्परा के ज्ञानियों को ले लीजिए।
फिर दूसरी ओर आप ले लीजिये भक्ति पंथ के किसी साधक को, फिर उनकी वाणियों का ज़रा मिलान करिए। फिर देखिए कि यहाँ अंतर आ रहा है। और अंतर फिर मिलेगा। अब जूझिए उस अंतर से, मज़ा आएगा। इसी तरीके से, ये भी आवश्यक नहीं है कि भारत की धरती से ही, आप ऋषियों को उठा करके उनमें से मिलान करें।
कोई भारतीय है, तो कोई चीनी भी तो हो सकता है? कोई भारतीय है, तो कोई मध्य-पूर्व से भी हो सकता है? कोई वैदिक काल का है, कोई ईशा पूर्व का है, तो कोई समसामयिक भी तो हो सकता है? क्यों न ऐसा किया जाए कि उपनिषदों की वाणी का, जिद्दू कृष्णमूर्ति की शिक्षा से थोड़ा मिलान करके देखा जाए? क्यों न किया जाए? बाइबिल को क्यों न उठाया जाए?
बाइबिल की भी पुरानी किताब को क्यों न उठाया जाए? ये क्यों न देखा जाए कि यहूदी क्या कह रहे थे? और जो बात यहूदी कह रहे थे उसका चुआन्ग्ज़ु की देशना से क्या लेना-देना है? ये सब करिए। जब सब संतो में एकत्व आपको दिखने लगेगा तो समझ लीजिए कि आप एकत्व में स्थापित हो गए। ये पहली विधि। दूसरी विधि संतो में आपस में तो द्वन्द दिखेगा ही। और फिर आपने बात करी कि राम भी न छूटे और जग में भी आचरण तो, चर्या तो करनी ही है।
तो फिर संतों की कही बात का जग के चाल-चलन से और अपने आचरण से मिलान करके देखिए। वहाँ पर देखिए ये अभी भेद कहाँ पर है? और वहाँ आपको जहाँ भेद दिखाई देगा, वहाँ आपके सामने चुनौती खड़ी हो जाएगी। आपको स्वयं को बदलना ही पड़ेगा। तो जो पहला रास्ता है, उसमें आपके ज्ञान की शुद्धि होती है। दूसरा रास्ता है, दूसरी युक्ति है, उसमें तो सीधे-सीधे जीवन की ही शुद्धि हो जाती है। ये दोनों काम आप करते चलेंगे, आनंद (प्रश्नकर्ता को देखकर, मुस्कराते हुए)।