अपनों के जाने का डर सताता है? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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अपनों के जाने का डर सताता है? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मुझे अपनी मृत्यु से बहुत डर लगता है, इसी कारण गंगा में भी स्नान नहीं कर पाया हूँ। कृपया मार्गदर्शन कीजिए।

आचार्य प्रशांत: शारीरिक मृत्यु का खौफ़ जाता रहता है, जब वो तुम्हारे भीतर मर जाता है जो नाहक ही ज़िन्दा रहने का स्वांग करता है। समझना बात को। शारीरिक मृत्यु का डर नहीं है तुमको। घर के भीतर अगर तुम न हो तो घर में आग लगने से डरोगे क्या? घर है तुम्हारा।

शरीर के मिटने को लेकर इसीलिए चिन्तित रहते हो, क्योंकि तुम शरीर के भीतर घुसे बैठे हो। आवश्यक नहीं है शरीर के भीतर अवस्थित रहना। जब तक तुम शरीर के साथ जुड़े ही बैठे रहोगे, तब तक शरीर की मृत्यु तुम्हें अपनी मृत्यु लगेगी। जब तक तुम शरीर से जुड़े बैठे रहोगे, तब तक शरीर की मौत तुम्हें अपनी मौत लगेगी। शरीर से जुड़ो मत, फिर शरीर की मौत से घबराओगे भी नहीं।

प्र: शरीर में रहकर शरीर के पार का हमको तो कोई अनुभव नहीं है।

आचार्य: नहीं, शरीर में तुम रह नहीं रहे हो। शरीर एक स्वायत्त इकाई है। तुम शरीर के भीतर नहीं हो, तुम शरीर से चिपके हुए हो। मैंने कह दिया कि शरीर घर है तुम्हारा; शरीर तुम्हारा घर भी नहीं है, शरीर किसी का घर नहीं है। शरीर अगर घर है, तो कुछ कीड़े-मकोड़ों का, छोटे-छोटे कीटाणुओं का, जीवाणुओं का जो शरीर के भीतर रहते हैं। शरीर तो अपनी चाल चलना जानता है, तुम व्यर्थ उससे संलग्न हो।

प्र: शरीर के माध्यम से सुख लेने की कोशिश कर रहे हैं। ख़ूब सुख ले रहे हैं।

आचार्य: हाँ। जैसे कि कोई गाड़ी के बोनट से चिपककर लेट गया हो और गाड़ी भगी जा रही है, अब ये तो घबराएगा ही कि कहीं गाड़ी का एक्सीडेंट (दुर्घटना) न हो जाए। इसको गाड़ी से कुछ लेना-देना नहीं ख़ास, दिक़्क़त बस ये है कि ये गाड़ी से चिपक गया है। तो अगर गाड़ी भिड़ेगी तो पहले ये मरेगा। जबकि इसे कोई आवश्यकता नहीं है गाड़ी से चिपकने की।

जब कबीर कहते हैं, "मर जाओ", तो उनका आशय है हट जाओ। किससे हट जाओ? शरीर से हट जाओ। शरीर से हट जाओ; ये वो मृत्यु होगी जो तुम्हें अमर कर देगी। और शरीर से तुम अगर चिपके हुए हो तो शरीर की मृत्यु तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी। और तुम भली-भाँति जानते हो कि शरीर मृत्युधर्मा है, इसीलिए जी भी नहीं पाओगे। तुम्हारे सारे कर्मों के पीछे मौत का खौफ़ रहेगा, वही तुम्हारी प्रेरणा रहेगा।

प्र: शरीर से हटने का विज्ञान क्या है?

आचार्य: शरीर से हटने के लिए कोई कला, कोई विज्ञान, कुछ नहीं चाहिए। तुम पहले मुझे समझाओ शरीर से चिपकते कैसे हो?

प्र: मतलब हमको बताया ही ऐसा जाता है कि भाई अभी तुम सुन्दर लग रहे हो, तुम दुबले हो गये हो, तुम ये हो गये हो, तुम बीमार हो गये हो। मतलब इसी तरीक़े से हमारे साथ व्यवहार किया जाता है कि आज अच्छे लग रहे हो, आज बीमार जैसे लग रहे हो, अभी बिलकुल स्मार्ट हो। तो हमको ऐसा महसूस होने लगा कि भाई, हम यही हैं।

आचार्य: किन लोगों ने कपड़े थोड़े कम पहन रखे हैं अभी? किन्हें पता है कि अब थोड़ी देर में ठंड लगने लगेगी या कि ठंड लगनी शुरू ही हो गयी? प्रयोग कर रहा हूँ, बता दीजिए! कोई हाथ नहीं उठाएगा तो मेरा प्रयोग ख़त्म हो जाएगा। (कुछ श्रोतागण हाथ उठाते हैं) ठीक। शरीर की पूछो तो तुम्हें क्या करना चाहिए?

प्र: और कपड़े पहनने चाहिए।

आचार्य: ठीक अभी क्या करना चाहिए? तुम्हें ठंड लगने लग गयी है, तुम्हें क्या करना चाहिए?

प्र: यहाँ से चले जाना चाहिए।

आचार्य: तुम्हें उठ जाना चाहिए। और तुम क्या करना चाहते हो?

प्र: सुनना चाहते हैं आपको।

आचार्य: तो तुम्हें दिख नहीं रहा कि तुम और शरीर अलग-अलग हो। तुम बैठना चाहते हो, शरीर भागना चाहता है। अगर दोनों एक ही होते तो दोनों के अलग मन्तव्य कैसे हो सकते थे?

तो तुमने बड़ी आसानी से कह दिया कि दूसरे आकर बता जाते हैं कि तुम शरीर हो और ये जो तुम्हें नित-प्रतिदिन अनुभव हो रहा है, बात बिलकुल साफ़ ज़ाहिर है कि तुम और शरीर अलग-अलग हो, ये नहीं दिखायी दे रहा? बोलो, दिखायी दे रहा है कि नहीं?

प्र: मेरा साथ नहीं दे रहा है शरीर।

आचार्य: तुम कहते हो न कि मैं तो जाना चाहता था, पर शरीर ने साथ नहीं दिया। बात सीधी सी है, तुम कुछ और, शरीर कुछ और, दोनों के इरादे और; तो ये एकत्व तुम स्थापित कैसे कर लेते हो? पहले वो विज्ञान मुझे समझाओ। जहाँ साफ़-साफ़ पार्थक्य है, वहाँ तुमने एकत्व कैसे खड़ा कर दिया? ये विज्ञान मुझे समझाओ।

अभी हम खुली जगह पर हैं, दीवारें रहती हैं तो बोलने में सहारा रहता है, अभी गले में मुझे कुछ अनुभव हो रहा है, गले की सुनूँ तो मुझे बोलना नहीं चाहिए। मैं बोलूँ कि न बोलूँ?

प्र: आचार्य जी, अपनों के छिनने से इतना डर क्यों लगता है?

आचार्य: काम पूरा नहीं हुआ न अपनों से! अपनों से अभी काम पूरा नहीं हुआ है, इसीलिए उनके हटने का तो डर लगेगा ही।

छोटे थे बचपन में, तो विडिओ गेम की एक सीडी लेकर आया करते थे — तब किराये पर मिलती थी और उसकी बड़ी माँग रहती थी। थोड़ी देर को मिलती थी किराये पर तो बच्चे आते थे, साइकिल पर लेकर आते थे, जल्दी से उसको लगाते थे, खेलना शुरू कर देते थे। पर वो मिलती थी कभी तीन घंटे, कभी छह घंटे को। अब तुम्हारा खेल अभी चल ही रहा है और सीडी वाले ने घंटी बजा दी कि वापस करो, तो बुरा तो लगेगा न!

खेल ख़त्म कर लिया होता तुमने और खेल में मंज़िल पर पहुँचना होता था — सुपर मारिओ ब्रोस , याद है किसी को? — तो पहुँचना होता था। अगर पहुँच गये होते तो सहर्ष लौटा देते, कहते कि ले जाओ‌। अपनी निष्पत्ति तक पहुँचा नहीं और छीनने वाला आ गया।

हमसे जो छीनने आता था, वो तो साइकिल पर आता था। तुमसे जो छीनने आता है, वो भैंसे पर आता है और वो कह रहा है, 'वापस लौटा दो, इन महाशय को जिनको अपना कहते हो', तो तुम्हें लौटाते हुए दुख तो होगा ही, क्योंकि खेल अभी अधूरा है।

अब खेल का पूरापन किसको कहते हैं, ग़ौर से समझना। अपना वही जो तुम्हें मुक्ति तक ले जाए। जो भी रिश्ता बनाते हो, मुक्ति की ही चाह में बनाते हो। भले तुम्हें उस चाह का चैतन्य रूप से पता हो या न हो। तुमने चाहे बच्चा पैदा किया हो, चाहे पति किया हो, चाहे पत्नी की हो, चाहे मित्र बनाये हों, चाहे तुम्हारे अन्य स्वजन हों; उनको तुम अपना कहते ही इस आस में हो कि इनके माध्यम से मुक्ति मिलेगी। और मुक्ति अभी मिली नहीं और मौत आ गयी स्वजन को उठा ले जाने को, तो बुरा तो लगेगा न!

रिश्ता अपनी परिपक्वता तक नहीं पहुँचता है, इसीलिए रिश्ते का टूटना बुरा लगता है। रिश्ता पहुँच जाए अपनी मंज़िल तक, रिश्ता पहुँच जाए अपनी परिपक्वता पर, उसके बाद मौत आ भी जाए तो तुम्हें कोई रंज नहीं होगा।

मौत तुम्हें सताती ही इसीलिए है, क्योंकि तुमने रिश्ते को ठीक से जिया नहीं। रिश्ता होना चाहिए था ताकि परस्पर मुक्ति में सहायक बने, पर रिश्ते का तुमने इस्तेमाल कर लिया और बन्धन बनाने को, तो रिश्ता अपने शिखर तक तो पहुँचा नहीं, अपने अंजाम तक तो पहुँचा नहीं, अब रिश्ता टूटेगा तो बुरा तो लगेगा न?

वो आ गया तो बुरा तो लगेगा। तुम्हें स्वजन की मौत नहीं डराती, तुम्हें अनजिया जीवन डराता है। तुम्हें पता है कि बाप हो, माँ हो, पति हो, पत्नी हो; तुम इनके साथ अभी तक भी आत्मीयता से मिल नहीं पाये हो। तुम्हें अच्छे से पता है कि जीवन अनजिया है। जीवन अनजिया है, मतलब बहुत कुछ है जो लम्बित है, बाक़ी है, पेन्डिंग है। जब मामला अभी पेन्डिंग है तो तुम समय ख़त्म होना कैसे बर्दाश्त कर पाओगे? तुम्हें बुरा लगेगा, तुम बहुत रोओगे।

वो करने में असफल रह जाते हैं, जिसकी ख़ातिर तुम हर रिश्ते का निर्माण करते हो। चूँकि हमारे रिश्ते अधूरे और असफल होते हैं, इसीलिए उन रिश्तों का टूटना हमें बुरा लगता है। मौत रिश्तों पर छाया की तरह डोलती रहती है। मौत को हराना हो तो अपने रिश्तों को पूर्णता दो। रिश्ता इतना ग़हरा रखो, रिश्ता इतना पूरा रखो कि उसमें कुछ कसर बाक़ी न रह जाए। फिर मौत आएगी भी तो अफ़सोस नहीं होगा।

क्योंकि जो करना था, वो सब तो कर लिया; जहाँ पहुँचना था, वहाँ तो पहुँच गये और अकेले नहीं, साथ पहुँचे — हम भी पहुँच गये, तुम भी पहुँच गये। मौत को तो ठेंगा दिखा दिया। मौत चाहती थी कि तुम्हारा समय पूरा हो जाए और मंज़िल न मिले और तुमने समय पूरा होने से पहले मंज़िल पा ली। मौत से जीत गये न तुम? अमर हो गये। मौत को ठेंगा दिखा दिया।

अब मौत आएगी भी तो तुम कहोगे, ‘अब क्या लेने आयी है? काम तो हमने पूरा कर लिया, अब क्या लेने आयी है?' (ठेंगा दिखाने का अभिनय करते हुए)

जैसे कि परीक्षा भवन में परीक्षक तुम्हारा पर्चा वापस लेने आये और तुम हँसते-हँसते पर्चा वापस कर दो, क्योंकि तुमने पूरा कर दिया, सब कर दिया, दस में से दस सवाल सब कर दिये। 'ले जाओ। तीन घंटे क्या तुम ढाई घंटे में ले जाओ। हमने सब कर दिया।'

और यही तुमने करा नहीं है, मिले थे तीन घंटे, उसमें कॉफ़ी पी रहे थे बैठकर और इधर-उधर की बातें चल रहीं थीं और सवाल किये कुल दो और वो आकर सिर पर खड़ा हो गया है, कह रहा है, ‘वापस करो।' तुम कह रहे हो, 'दो मिनट और।' दो मिनट में तुम कर क्या लोगे?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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