अनंत है उनकी कृपा, अनंत है हमारी मूढ़ता || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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अनंत है उनकी कृपा, अनंत है हमारी मूढ़ता || आचार्य प्रशांत (2018)

आचार्य प्रशांत: कहानी है 'श्रद्धा से दर्शन मिले'। तो कथा में बताया गया है कि कैसे एक जगह गीता का पाठ हो रहा था, और जो सुनने वाला था, श्रोता, वह सुने और रोए। तब उससे पूछा गया कि भाई ये जो कुछ कहा जा रहा है तुझे समझ में आ रहा है? तू इतना भाव विभोर हो गया है, गीता सुन-सुनकर, ये जितने श्लोक, जितनी बातें तुझसे कही जा रही हैं, तुझे समझ में आ रही हैं?

उस आदमी ने कहा, "एक बात समझ नहीं आ रही, मुझे तो पता ही नहीं, क्या कहा जा रहा है।" पूछने वाले ने पूछा, "फिर तू रोता काहे है?"

तो श्रोता ने बड़ा कीमती ज़वाब दिया, उसने कहा, मैं तो बस इतना देख रहा हूँ कि अर्जुन रथ पर बैठा है और कृष्ण उसे समझा रहे हैं। और इतना ही देखने में, मेरे आँसू झरते जा रहे हैं, मुझे नहीं पता कृष्ण क्या कह रहे हैं। मैं बस इतना देख रहा हूँ कि अर्जुन रथ पर है और नारायण उसे समझाए जा रहे हैं। तो मोनिका (प्रश्नकर्ता) का प्रश्न है कि "वो आदमी रो क्यों रहा है?"

वो आदमी रो रहा है क्योंकि दृश्य बहुत करुण है, वो आदमी रो रहा है मानवता की नासमझी पर।

अर्जुन का व्यक्तिगत मामला है, राज्य की लड़ाई है, भाईयों की आपसी गुटबंदी है और अर्जुन उलझा हुआ है। वो जान भी नहीं रहा है कि उचित कर्म क्या है। एक साधारण मानव है अर्जुन। ऐसे ही उलझा है वो धन-संपत्ति और रिश्तों के जाल में जैसे हर कोई उलझा हुआ है। लाखों-करोड़ों हैं अर्जुन जैसे।

और इतना छोटा है अर्जुन कि अपनेआप को ही कुछ नहीं दे सकता, तो कृष्ण को क्या देगा। कृष्ण को अर्जुन से कुछ नहीं मिल सकता। और कृष्ण अर्जुन को समझाए जा रहे हैं, समझाए जा रहे हैं, समझाए जा रहे हैं; उनके धैर्य की कोई सीमा नहीं। और अर्जुन समझने से इनकार कर रहा है, इनकार कर रहा है, इनकार कर रहा है; उसके हठ और मूढ़ता की कोई सीमा नहीं।

ये दृश्य ही इतना करुण है कि देखो, भगवान का प्रेम देखो, कृष्ण का स्नेह देखो कि वो ऐसे नादान को समझाने में समय, उर्जा, सब व्यय किए दे रहे हैं जो स्वयं भगवान से समझते हुए भी नासमझ बना हुआ है। स्वयं भगवान खड़े होकर के उसे समझा रहे हैं और वो नासमझ बना हुआ है। देने वाला कितना उदार है!

और देने वाला कितना झुककर दे रहा है, वो तुम्हारे ही तल पर आकर दे रहा है, कोई आकाशवाणी नहीं कर रहा है, कोई गुप्त संदेश नही भेज रहा है—तुम्हारे सामने मानव रूप लेकर के आ गया है। तुम्हारा सारथी बनकर आ गया है, तुम्हारा मित्र बनकर आ गया है, तुम्हारा रिश्तेदार बन कर आ गया है और तुमको समझा रहा है कि 'अर्जुन सुनो, तुम ग़लती कर रहे हो; अर्जुन ऐसे नहीं, अर्जुन ऐसे।'

और अर्जुन कह रहा है, 'हमें नहीं समझ में आता।' तो कह रहे हैं, अच्छा, ऐसे समझ नहीं आया, चलो ठीक है, सांख्ययोग नहीं तो कर्मयोग; कर्मयोग नहीं तो भक्तियोग, अठारह तरह के योग। और अर्जुन? 'नहीं, हमें नहीं समझ में आता।'

जो विराट है, विशाल है, वो झुककर के दिए जा रहा है, समझाए जा रहा है, समझाए जा रहा है। और जो मूर्ख है, विपदा में है, वो कह रहा है — नहीं, हमें नहीं समझ में आ रहा है। बीच-बीच में तो आरोप भी लगाता है, कहता है, तुम्हारे समझाने में कमी है। एक दफ़े तो ये भी कह देता है कि तुम जान-बूझकर उलझा रहे हो मुझे।

और वो (कृष्ण) कहते हैं, अच्छा, कोई बात नहीं, तुम्हें ऐसे नहीं समझना तो तुम ऐसे समझो। घूम-फिरकर तरह-तरह की विधियों से, शब्द बदल-बदलकर, उदाहरण बदल-बदलकर एक ही बात उसको समझा रहे हैं।

पचास प्रकार के योग थोड़े ही होते हैं, ये तो कृष्ण ने अपनी करुणा में अठारह तरह से समझाया। अभी न समझता वो, तो अठारह और तरीक़ों से समझातें क्योंकि उनकी कृपा अनंत है; और यही बात संसारियों की मूढ़ता के बारे में कही जा सकती है—अनंत है! एक अनंत का दूसरे अनंत से टकराव होता है, इसीलिए पता ही नहीं चलता कि कौन जीत रहा है। दुनिया में लगता है कि कभी भगवत्ता जीत रही है और कभी लगता है कि कलियुग आ गया।

जितना देने वाले की महिमा अपरंपार, उतनी ही लेने वाले की मूर्खता अपरंपार, बताओ कौन जीतेगा?

तेज़ बारिश हो रही है मूसलाधार, ऐसी बारिश कभी देखी नहीं गई, और एक घड़ा रखा है जिसमें छेद-ही-छेद — बताओ भरेगा कि नहीं भरेगा?

श्रोता: नहीं भरेगा।

आचार्य: अरे! बारिश बहुत तेज़ है।

श्रोता: छेद भी तो है।

आचार्य: अब यही तो द्वंद्व है संसार का, कि देने वाला भी रुक नहीं रहा, वो हार नहीं मान रहा, कह रह है, मैं दिए जाऊँगा, दिए जाऊँगा; और लेने वाला कह रहा है, मैं लूँगा नहीं, तुम कितना भी दो, मैं बाहर निकाल दूँगा। और ऐसे दुनिया आगे बढ़ रही है। न तुम हार मानोगे, न हम हार मानेंगे; देखते हैं जीतता कौन है।

किसी तरीक़े से, थक-हारकर, रो-पीटकर अर्जुन ने कहा, 'हाँ भईया, मैं हार गया।' समझा-वमझा वह कुछ नहीं था, अंत तक नहीं समझा। वो तो उसने कृष्ण का अकाट्य धीरज देखा, तो उसने कहा — ये तो मानेंगे नहीं, इनको झेलने से अच्छा है कि बाण ही मार दो।

तुम्हें क्या लगता है अर्जुन को सद्बुद्धि आ गई थी अंत में? कुछ नहीं आयी। सद्बुद्धि आ गई होती तो महाभारत के उपरांत, दोबारा थोड़े न बोलता कि सब कुछ भूल गया। महाभारत का युद्ध हो गया, उसके बाद बोलता है, मैं सब भूल गया। तो फिर कृष्ण को उसे दोबारा उपदेशित करना पड़ा, और तब भी वो क्या ही समझा होगा!

अब जहाँ ऐसा कारोबार चल रहा हो, वहाँ पर देखने वाला रोएगा नहीं तो क्या करेगा? वो कहेगा — वाह प्रभु! अनंत है तुम्हारी कृपा, असीम है तुम्हारा प्रेम, तुम एक कुपात्र को भी दिए जाते हो। जिसमें कोई योग्यता नहीं तुम्हारी बातें समझने की उसे भी देखो तुम कितने धीरज के साथ, समझाए ही जाते हो, समझाए ही जाते हो।

राज छिनेगा तो किसका छिनेगा? अर्जुन का छिनेगा, कृष्ण का कोई लेना-देना नहीं। बर्बाद होगा तो कोन होगा?

श्रोता: अर्जुन।

आर्चाय: कृष्ण का कोई लेना-देना नहीं। पर कृष्ण उसके सामने खड़े हैं, "बेटा, बाण उठा, मार दे।" जैसे कृष्ण का कोई व्यक्तिगत मसला हो। वह तो कह सकते थे कि लड़ो चाहे न लड़ो भाई, राज्य तुम्हारा, संपति तुम्हारी, मुझे क्या मिल रहा, मैं जा रहा हूँ।

पर उन्होंने कहा — नहीं, जहाँ धर्म है, धर्म का साथ तो देना ही पड़ेगा, जब-जब धर्म की हानि होती है, मुझे आना ही पड़ता है; "यदा यदा ही धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत।" धर्म की यहाँ हानि हो रही है, तो मुझे आना पड़ा है, तो अपना काम तो निपटा के ही जाऊँगा।

और अर्जुन क्या सोच रहा है? अर्जुन कह रहा है — इनके भाई मरेंगे कोई? इनके होते तो देखता कि चलाते बाण! पराये घर में तो कोई भी आग लगा दे। या इनका छिपा हुआ कोई स्वार्थ होगा, क्या पता मुझे राजा बनाकर पीछे से ये राज करें।

अर्जुन का क्या भरोसा, कौन-सा वह बड़ा होशियार है? होशियार होता तो इतनी बड़ी गीता कहनी पड़ती?

चुपचाप एक बात सुनकर के श्रद्धा में सिर झुका देता, कह देता कि "नारायण आपने जो कहा, आपका इशारा ही काफ़ी है, आपने कहा 'अर्जुन युद्ध कर', मैं करूँगा।" इतनी बातें वो थोड़ी कहलवाता कृष्ण से? तो जब वह मूढ़ है, तो न जाने क्या-क्या सोचता हो पीछे, वो बातें तो गीता में अंकित भी नहीं हुईं कि अर्जुन के मन में क्या-क्या विचार चल रहे थे।

"इनका (कृष्ण का) कुछ ज़रूर छिपा हुआ स्वार्थ है, कौन जाने ये उधर कर्ण से क्या बात करके आए हैं। सेना वैसे भी कौरवों की बड़ी है, और वह बड़ी करवाने में इनका बड़ा हाथ है, आधी तो इनकी सेना उधर खड़ी है, और मुझसे कह रहे हैं लड़!"

कृष्ण की नारायणी सेना, शक्तिशाली, वो खड़ी किधर है? दुर्योधन के साथ। और अर्जुन सोच रहा है, इतनी बड़ी सेना मेरे ही ख़िलाफ़ खड़ी कर दी और मुझसे कह रहे हो कि लड़ो!

यह अलग बात है कि अर्जुन ने स्वयं ही चुना था कि सेना नहीं चाहिए, कृष्ण चाहिए। पर ख़ुराफ़ाती दिमाग़, न जाने क्या-क्या सोच गया हो, और पक्का है कि ऐसा सोच रहा होगा। नहीं तो इतनी मेहनत नहीं करवाता वह कृष्ण से, कुछ-न-कुछ तो उसके दिमाग़ में आ रहा होगा कि कोई साज़िश है, कोई गुप्त षड्यंत्र है, या कम-से-कम ये सोच रहा होगा कि ये तो क्रूर पाषाण आदमी हैं, हिंसा करवाते हैं, भाई-भाई की लड़ाई करवाते हैं।

"अहिंसा बड़ी बात है, अपरिग्रह बड़ी बात है। अरे! संपत्ति के लिए कोई वध करता है किसी का? मुझे तो लगता है झूठे ही भगवान बोला है इनको बहुत लोगों ने। ये तो भौतिकता के पुजारी लगते हैं, ये कह रहे हैं, राज्य की ख़ातिर तू खून बहा, यह कोई बात हुई?" ऐसे-ऐसे न जाने कितने तर्क अर्जुन के मन में चल रहे हैं।

और कृष्ण को तो पता ही है कि अर्जुन के मन में क्या चल रहा है, उसके बाद भी, वह प्रेम से, स्नेह से, धैर्य के साथ, उसको समझाए जा रहे हैं, समझाए जा रहे हैं, समझाए जा रहे हैं, समझाए जा रहे हैं। जो ही देखेगा इस नज़ारे को, रो देगा। इसलिए वो रो रहा है। क्या फ़र्क पड़ता है कि क्या कहकर समझा रहे हैं। वह यही तो नहीं समझ पा रहा था न, श्रोता, सुनने वाला, कि कृष्ण अर्जुन से क्या कह रहे हैं। फ़र्क क्या पड़ता क्या कह रहे हैं, देखो कि कौन किससे कह रहा है — नारायण समझा रहे हैं एक अदने-से आदमी को। उन्हें क्या पड़ी है? कैसे समझा रहे हैं यह बात छोड़ो, जैसे भी समझा रहे होंगे, वह तरीक़ा नारायण का ही होगा, नारायण का तरीक़ा है तो नारायण से नीचे का तो नहीं होगा। तो क्या कह कर, क्या बोल-बोल कर अर्जुन को दीक्षित कर रहे हैं, यह बात ज़रा हल्की है, छोटी है, अप्रासंगिक है। महत्वपूर्ण बात यह है कि कितना प्रेम है उनके हृदय में कि अर्जुन की प्रगाढ़ मूढ़ता के आगे भी वो टिके हुए हैं।

बहेलिये ने तीर से निशाना साध रखा होता है चिड़िया पर, और उसके पीछे से एक शोर करती हुई बारात जा रही है—बहेलिये के पीछे से—और बहेलिये को कोई अंतर नहीं पड़ रहा, बहेलिये का निशाना सिर्फ़ चिड़िया है। उसे जैसे पता ही न चल रहा हो कि मेरे पीछे इतना शोर, धूम-धड़ाका इत्यादि है। तो अवधूत ने वहीं पर सिर झुका दिया और कहा कि आप मेरे गुरु हुए। जैसे आपमें अपने लक्ष्य के प्रति निष्ठा है और बाक़ी संसार के प्रति उदासीनता, वैसी ही मुझ में भी आए।

प्र२: प्रेम पूर्वक कर्म करने का क्या मतलब होता है?

"अवधूत बहेलिये से कहते हैं — महाराज, आप मेरे गुरु हैं, जब मैं ध्यान में बैठूँ तो मेरा मन भी इसी तरह, ध्येय वस्तु पर एकाग्र रहे।"

मेरा मन भी कर्म में एकाग्र रहता है, परंतु केवल तब जब मैं उसे प्रेमपूर्वक करती हूँ। तो प्रेम और ध्यान में संबंध क्या है?

आचार्य: सम्बन्ध सीधा है। ध्यान करना माने निशाना लगाना, ध्येय वस्तु पर निशाना लगाना। तुम हर चीज़ का ध्यान नहीं कर सकते, तुम ध्यान उसी चीज़ का करोगे जो चीज़ पाने लायक़ है, उसे ही ध्येय बनाओगे, लक्ष्य बनाओगे। या सब कुछ उठा लाओगे अपने पास, अपने घर? सब कुछ हासिल करने लायक़ होता है क्या? तो जो ध्येय वस्तु होती है, वही प्रिय होती है, उसी से प्रेम होता है। ध्यान और प्रेम एक ही बात है। जिससे तुम्हें प्रेम है, वह तुम्हारा ध्येय हो जाता है, तुम्हारा ध्यान उसी पर लगा रहता है। जिससे तुम्हें प्रेम है, वही तुम्हारा ध्येय हो जाता है और जो तुम्हारा ध्येय है, उसकी ओर तुम खिंचे चले जाते हो—इस खिंचाव को प्रेम कहते हैं। तो प्रेम बिना ध्यान नहीं, और ध्यान बिना प्रेम नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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