प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी! आचार्य जी, आपकी जो भौतिक और आध्यात्मिक उपलब्धियाँ हैं उनमें से कोई एक भी अगर किसी इंसान में हो तो वो एक बहुत ही एक्सक्लूसिव कैटेगरी (विशिष्ट श्रेणी) में चला जाता है और आपके पास तो वैसी उपलब्धियों की तो पूरी लिस्ट (सूची) है जो मूलत: आपको दुर्लभ से भी दुर्लभतम बनाता है इसलिए सबसे पहले, आप जो कर रहे हैं इसके लिए बहुत-बहुत आभार प्रकट करता हूँ।
आप एक ऐसे वर्ग से आते हैं जिसमें कि आप बस अपना हाथ बढ़ाकर दुनिया से कुछ भी प्राप्त कर सकते थे। लेकिन फिर भी आप ये एक ऐसी भाषा में कर रहे हैं जिसे हम आसानी और विस्तार से समझ सकें। इसीलिए मैं आपके इस कार्य की तहे दिल से प्रशंसा करता हूँ। आपके इस कार्य के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद!
मेरे दो प्रश्न हैं। बचपन से मेरी एक बहुत मूल्य केन्द्रित दृष्टिकोण रहा है, वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण रहा है किसी चीज़ को देखने का। अगर उसमें मुझे कोई मूल्य संवर्धन नहीं दिखता है तो इस तरह की किसी भी बातचीत के लिए मेरे पास बहुत कम धैर्य है। इसलिए मैं ये जानना चाहता हूँ कि क्या ये नज़रिया सही है? क्योंकि कई बार ये मुझे बहुत कुंद और असभ्य बना देता है जो मुझे समझ नहीं आ रहा है मैं इसे लिखता हूँ और आगे बढ़ जाता हूँ—एक तो ये प्रश्न है।
दूसरा प्रश्न है कि मैं करियर पर जहाँ पर अभी हूँ मुझे काफ़ी सारे अवसर दिखते हैं सामने। मैं उन सभी अवसरों का लाभ उठाना चाहता हूँ। फिर मैं अपनेआप से पूछता हूँ कि मैं आगे क्यों बढ़ना चाहता हूँ। मुझे जो उत्तर मिलता है वो है— पैसा। फिर मैं पूछता हूँ— मैं पैसे का क्या कर रहा हूँ? मुझे कोई जवाब नहीं मिलता है। क्योंकि उपभोग कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो मैं चाहता हूँ। इसलिए ये सिर्फ़ एक प्रक्रिया है क्योंकि मुझे और कुछ आता नहीं।
मैं सिर्फ़ काम करना जानता हूँ। मैं अपने काम का आनंद लेता हूँ। औसतन मैं एक दिन में पंद्रह-सोलह घंटे काम करता हूँ। और इस पूरे प्रक्रिया में मुझे बहुत मज़ा आता है। लेकिन एक तरफ़ हमेशा दिमाग में रहता है कि ये सब अंततः एक खेल ही है। मैं इसमें बस भाग रहा हूँ। इसमें मिलना-जाना कुछ है नहीं। चाहे कितनी भी पूँजी प्राप्त कर लूँ।
असली चीज़ तो कुछ और है और मैं इसे किसी वास्तविक चीज़ की क़ीमत पर कर रहा हूँ। तो मैं ये जानना चाहता था कि क्या कोई ऐसा तरीक़ा है जिससे मैं अपनी आध्यात्मिक गतिविधियों को अपने काम के साथ जोड़ सकूँ। क्योंकि जो चीज़ मैं पा रहा हूँ उससे मैं चीज़ें खरीदना और जारी रखना नहीं चाहता। अपनी सुख-सुविधा के लिए मैं वृद्धि नहीं करना चाहता हूँ। ये सिर्फ़ एक आदत है। मैं बस चलता रहता हूँ और चलता रहता हूँ।
किसी चीज़ को अगर मैं देखता हूँ कि इधर एक अवसर है तो वो मुझे बहुत ख़ुशी देता है कि उस दिशा को अपनाओ और आगे बढ़ो, उसे हासिल करो। वो मेरा ईनाम है, न कि वो संख्याएँ।
तो क्या कोई ऐसा तरीक़ा है जिससे मैं ख़ुद को जोड़कर रख सकूँ कि जो असली चीज़ है मैं उसको भी हासिल करता जाऊँ और जो मेरा सुख है वो भी साथ में चलता रहे?
आचार्य प्रशांत: देखिए, जो आपने पहली चीज़ कही कि आप कोई भी काम तभी कर पाते हैं जब उसमें कुछ मूल्य दिख रहा हो, कोई वैल्यू एडीसन (मूल्य संवर्धन) दिख रहा हो। तो बहुत मूलभूत बात है, बहुत शुभ बात है। ये होना ही चाहिए। कर्म का सिद्धांत ही यही है— ‘कर्ता हो तुम, होश में रहो। व्यर्थ ही एक कदम भी नहीं बढ़ाना है किसी दिशा में।
साफ़ पता होना चाहिए कि छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा जो भी तुम्हारा कर्म है, जो भी तुम्हारी गतिविधि है, समय ले रही है उससे तुम पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। और तुम पर कुछ असर पड़ना बहुत आवश्यक है क्योंकि तुम अभी अपनी सहज, मूल, नैसर्गिक, अंतिम आरामदेह अवस्था में नहीं हो। जैसे समझिए कि जब कोई मरीज होता है और चिकित्सक उस पर दवाई आजमाते हैं तो वो ऐसे कहा करते हैं कि— हम देख रहे हैं कि पेशेंट (मरीज) इस दवाई को, इस ट्रीटमेंट (उपचार) को रेस्पोंड (असर) करेगा या नहीं —वे एक गोली देते हैं और फिर जाँचते हैं, नापते हैं कि इस गोली के फलस्वरूप आपको कुछ फ़ायदा हुआ कि नहीं हुआ।
तो कर्म भी ऐसे ही है। यूँ ही नहीं किया जाता है। लगातार भीतर नापने की प्रक्रिया, एक कैलकुलेटर चलता रहना चाहिए। इससे कुछ मिला कि नहीं मिला या बेहोशी में बस समय गँवाया। तो ये बहुत अच्छी बात है कि कोई नापे कि क्या वैल्यू एडीसन (मूल्य संवर्धन) मिला। मूल्य क्या अर्जित किया इससे?
लेकिन यहाँ पर एक चूक हो सकती है। चूक ये है कि दो प्रकार के मूल्य होते हैं। कुछ भी करके दो प्रकार के लाभ या दो प्रकार की हानियाँ हो सकती हैं— एक वो जो आसानी से गिनी जा सकती हैं, जिन्हें संख्याबद्ध किया जा सकता है—क्वांटीफाई; और दूसरे वो जिनको गिनना ज़रा मुश्किल है। और सारी गणना, पूरी कैलकुलेशन (गणना) एकदम उलट-पुलट हो सकती है, अगर इन दोनों को ही आपने एक साथ नहीं गिना।
स्थूल लाभ-हानि आसान है गिनना। सूक्ष्म लाभ-हानि गिनना थोड़ा कठिन है। उसके लिए सूक्ष्म दृष्टि चाहिए। तो गिनिए ज़रूर, पर दोनों को गिनिए; स्थूल को भी, सूक्ष्म को भी। स्थूल को गिनने में विशेष मेहनत नहीं करनी पड़ती। वहाँ काम आसान है और मन होता है-आलसी।
स्थूल का अर्थ है—वो सबकुछ जो भौतिक है, पदार्थगत है, मटेरियल है। वहाँ गिनना आसान है क्योंकि चीज़ें तो होती ही हैं— क्वांटीफिएबल (गिनने योग्य)। आप गिन सकते हो न? आप रुपया गिन सकते हो। आप ये भी गिन सकते हो कि कितने पायदान ऊपर चढ़ गये। वो सब चीज़ें बाहर रखी हुई हैं। आप आसानी से उनकी गणना कर सकते हैं।
आप कह सकते हो कि साहब, ये करा उसमें ये उपलब्धि हुई या ये अर्जन हुआ। ये सब हुआ, बिलकुल हुआ; कोई इनकार नहीं। उसके साथ लेकिन कुछ और भी हुआ। उसकी भी गिनती कर लीजिएगा। वो जो दूसरी चीज़ हुई वो भीतर हुई। गिनती वाले ज़्यादातर काम सब बाहर होते हैं। दो मकान और खड़े कर लिए। दो की गिनती और मकान दोनों बाहर। आसान है बाहर की चीज़ों की गिनती करना और बाहर की चीज़ें भी मूल्य तो रखती ही हैं। कौन मना करे?
अहम् और संसार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भीतर अभी लेकिन कुछ हुआ और भीतर वाली चीज़ थोड़ी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। वो आसानी से गिनती के लिए उपलब्ध नहीं है। आपकी दृष्टि में कितनी स्पष्टता आई—आप कैसे नापेंगे? आँखों वाली दृष्टि तो नापी जा सकती है। आप जाते हैं आप्टीशियन (चश्मासाज) के पास, वो तुरंत नाप कर बता देता है आपको—‘भाई! इतना चल रहा है’। और उसी हिसाब से आपका चश्मा भी बना देता है।
लेकिन भीतर देखने वाली दृष्टि कुछ साफ़ हुई या नहीं, ये कैसे नापा जाए? और बाहर की आँख स्वस्थ रहे, ज़रूरी है; भीतर की आँख स्वस्थ रहे, उससे ज़्यादा ज़रूरी है। स्वास्थ्य दोनों तरफ़ चाहिए।
संसार में भी हमें स्वस्थ रहना है, भीतर भी हमें स्वस्थ रहना है। लेकिन भीतर वाली चीज़ बाहर वाली चीज़ से थोड़ी ज़्यादा ही ज़रूरी है, कम नहीं। उसको नापना मत भूलिएगा। नहीं तो बिलकुल ऐसा हो सकता है कि सारी उपलब्धियों के बावज़ूद आप पाएँ कि झोली खाली है।
और ये आवश्यक नहीं है। दोनों साथ-साथ भी चल सकते हैं। इस तरह का कोई नियम, कोई शर्त नहीं है कि अगर आंतरिक रूप से समृद्ध होना है, मूल्यवान होना है तो बाहर जगत में भिखारी होना पड़ेगा। नहीं, बिलकुल भी नहीं।
दोनों साथ-साथ चल सकते हैं। लेकिन दोनों को साथ-साथ चलाना, साध के रखना, ये टेढ़ी खीर है। ये जो ग़ज़ब का संतुलन है, ये जो दोनों आयामों में सफलता है; ये आसानी से नहीं मिलती।
और एक बात और जोड़ देते हैं। जब मिलती है सफलता, तो दोनों आयामों में एक साथ ही मिलती है। अगर कोई कहे कि एक जगह सफल है, दूसरी जगह नहीं। तो मैं विश्वास नहीं करूँगा। कोई कहे, 'मैं आंतरिक रूप से बहुत सफल हूँ और जगत में मैंने मार-ही-मार खायी है' तो ये बात मानने लायक़ नहीं है।
हम नहीं कह रहे हैं कि जो आंतरिक रूप से सफल होगा वो जगत में सबसे बड़ा धनपति बन जायेगा, ताजमहल बनवा देगा या दुनिया खड़ी कर लेगा अपने लिए या प्रधानमंत्री बन जाएगा। इस तरह की बात नहीं कह रहे हैं। लेकिन इतना तो है कि वो बाहर के जगत में भिखारी नहीं होगा, मार नहीं खा रहा होगा, दुर्गति नहीं करा रहा होगा अपनी।
तो दोनों साथ चलते हैं और इनको जो साथ चला ले गया, वो अमृत पा ले गया—यही उपनिषद् बार-बार समझाते हैं। इस जगत को और उस जगत को—चुनौती रखते हैं सामने—'क्या एक साथ लेकर चल सकते हो?' जो ऐसा कर ले जायें उनका जन्म सफल हो गया। आनंद-ही-आनंद है फिर उनके लिए।
ये अंदर और बाहर को एकसाथ लेकर चलने के आनंद को ही जीवन-मुक्ति कहते हैं। क्योंकि आमतौर पर जो जीवन होता है एक साधारण व्यक्ति का, आम संसारी का या गृहस्थ का उसमें बाहर की सफलता का बड़ा मूल्य होता है लेकिन बाहर की सफलता आती है आंतरिक दरिद्रता की शर्त पर। ये जीवन होता है।
प्रकृति जैसे ये शर्त देकर भेजती है कि बाहर-बाहर तो सब ठीक तो रखना ही पड़ेगा, देह की ख़ातिर। लेकिन जितना तुम बाहर ठीक रखोगे, अंदर उतनी ही हालत ख़राब होती जाएगी। जो इस शर्त को तोड़ दे वो जीवन-मुक्त हो गया।
जो कह दे कि जिएँगे, यही देह लेकर जिएँगे, लेकिन देह लेकर जीते हुए भी आंतरिक रूप से समृद्ध जिएँगे। बाहर से संसार के रहेंगे, भीतर से आत्मा के रहेंगे। और इन दोनों में वरीयता पहली आत्मा की होगी क्योंकि अंदर का संसार ज़्यादा महत्त्व का है। वो जीवन-मुक्त हो गया क्योंकि जीते हुए भी उसने आंतरिक बंधन स्वीकार नहीं करी। जी तो रहा है इसी दुनिया में, पर बिना किसी आंतरिक बंधन के। जो ऐसा कर ले जाये, वो खिलाड़ी है, वो जीत गया।
इसी बात से आपका जो दूसरा प्रश्न था उसका भी उत्तर निकलता है कि भीतर कुछ है जो उपलब्धियाँ हासिल करना चाहता है। करियर की दिशा में या किसी और भी दिशा में। हालाँकि उन उपलब्धियों को भोगने में उसकी कोई ख़ास रुचि नहीं है, जैसा कि आपने कहा। कि जो कुछ भी अर्जित करना है, ऐसा नहीं कि उसके कंजम्प्शन (भोग) का ही लालच है लेकिन फिर भी भीतर एक लालसा-सी बनी रहती है, एक आग्रह बना रहता है कि अभी कुछ करना बाक़ी है। कुछ करके दिखाना बाक़ी है।
यही बात तो वेदान्त आपको बार-बार समझाता है कि अभी कुछ करके दिखाना बाक़ी है। लेकिन क्या करके दिखाना बाक़ी है? बिलकुल करके दिखाइए। ये जगत आपकी कर्मभूमि ही तो है। यहाँ हम आराम करने, सोने थोड़े ही आये हैं।
कबीर साहब कहते हैं न, कि एक दिन ऐसा आएगा जब लम्बे पाँव पसारकर सोओगे। अभी ज़रा कम सोया करो। सोने का बहुत लम्बा मौका मिलने वाला है। कोई उठाने नहीं आएगा फिर। जब इतना सोना ही है तो ये जो अवसर मिला है चंद वर्षों का, इसका सदुपयोग कर लो। फिर पड़े रहना।
तो हम काम करने के लिए ही आये हैं। अध्यात्म जगत से भगोड़ों के लिए नहीं है। अध्यात्म वास्तव में उन्हीं लोगों के लिए है जिन्हें काम करना है। जिन्हें लम्बी दूरी जाना हो वो अंधे तरीक़े से आगे नहीं बढ़ सकते हैं न?
तो अध्यात्म उन्हीं लोगों के लिए है जिन्हें संसार में बहुत दूर तक जाना है संसार में। एक तरह से आप ये भी कह सकते हैं—सुनने में अज़ीब लगेगा—कि अध्यात्म सांसारिक सफलता के लिए ही है। अध्यात्म भगोड़ों और पलायनवादियों के लिए नहीं है।
अध्यात्म का ये अर्थ नहीं होता है कि काम-धंधा, घर-द्वार सब छोड़ रखा है और कमरे में कहीं अकेले बैठकर बस माला जपते हैं, भजन करते हैं, ध्यान लगाते हैं; या घर भी छोड़कर भाग गये कहीं ऋषिकेश, हिमालय में बैठे हैं बस। पता नहीं कहाँ से छवि आ रही है। अध्यात्म का वो सब अर्थ बिलकुल भी नहीं है।
आपने कहा पंद्रह-सोलह घंटे काम करते हैं, बिलकुल ठीक है। ऐसे ही लोगों को अध्यात्म चाहिए। जो कुछ करता ही नहीं वो अध्यात्म का क्या करेगा। अध्यात्म तो उसके लिए एक आफ़त जैसा हो जायेगा। क्योंकि वहाँ तो पहली चीज़ ही यही है—'करो, खाली क्या बैठे हो? करो। तुम्हें ख़ाली बैठना शोभा नहीं देता। तुम कोई मंज़िल पर पहुँच गये? तुम कोई आत्मस्थ हो गये,? तुमने अपने सब बंधन गला दिये? तुमने अपने सब विकार मिटा दिये? जब तुमने ये सब नहीं कर दिया तो बेटा, ख़ाली कैसे बैठे हो तुम? चलो उठो, करो।'
और विकार मिटाये नहीं जाते कि विकार खोजने आये हैं कि दीवार के उस पार विकार है। डंडा लेकर विकार खोजने निकले हैं कि मिटा दूँगा उसको। विकार कैसे मिटते हैं? वो तो कर्मशील रहकर ही पता चलते हैं न? जब कुछ करोगे तभी तो अपने गुण-दोष पता चलेंगे। जितनी बड़ी चुनौती उठाओगे उतना ज़्यादा अपनी कमज़ोरियों को रू-ब-रू पाओगे।
कोई उपकरण होता है, कोई मशीन, कोई गैज़ेट (यन्त्र); वो साधारण रूप से लग भी रहा हो कि बिलकुल ठीक काम कर रहा है लेकिन अगर उससे कुछ महत्त्वपूर्ण, संवेदनशील कार्य कराना है तो उसकी एक्सट्रीम टेस्टिंग (अत्यधिक परीक्षण) की जाती है। और जब की जाती है तो अक्सर पता चलता है कि अभी खोट बाक़ी है इसमें।
वो साधारण तौर पर पता नहीं चल रही थी, साधारण काम-काज में बिलकुल पता नहीं चल रही थी। पर जैसे ही उसको कर्म में डाला, जिसको कहते हैं— व्हेन द टायर मीट्स द रोड (जब पहिया सड़क से मिला) तब पता चला न, कि अभी इसमें कमज़ोरियाँ बाक़ी थीं, छुपी हुई थीं। तो आपको अगर अपने विकार निकालने हैं तो टायर को ज़मीन से घर्षण करना ही पड़ेगा। तभी तो पता चलेगा, दम कितना है उसमें। नहीं तो विकार छुपे रह जाएँगे।
विकार माने क्या होता है? विकार-विकार कर रहे हैं। दोष, कमज़ोरी, दुर्गुण जो भी कह लीजिए। तो अध्यात्म में काम इसलिए नहीं किया जाता है कि कोई सांसारिक उपलब्धि हो जाये। सांसारिक उपलब्धि हो जाये, यह कर्म का सह-उत्पाद जैसा होता है। ठीक है? कि कर कुछ और रहे थे, उसमें कुछ और मिल गया। अच्छी बात है।
लेकिन आप मेहनत करते हो अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए, उस मेहनत करने के कारण आपका शरीर बन जाता है, मान लीजिए। वो अच्छी बात है, बाई प्रोडक्ट (सह-उत्पाद) है। आध्यात्मिक आदमी को आप बहुधा पाएँगे कि वो काफ़ी आगे निकल गया है, सांसारिक क्षेत्र में भी, आध्यात्मिक आदमी। वो उसकी पहली वरीयता नहीं थी। वो बस हो गया।
पहली वरीयता ये होती है कि बड़ी चुनौती उठानी है ताकि मुझे पता चले कि मेरे भीतर वो कौन बैठा है जो मुझे बड़प्पन से रोकता है। उसको जीतना है। आत्मज्ञान, आत्मजय—यही जीवन का लक्ष्य है।
जीवन जैसे मिला ही इसीलिए है कि अपने सब गुण-दोषों के पार निकल जाओ और पार निकलना किसी नियम की बात नहीं, आनंद की बात है। जब जी ही रहे हो तो दुःख, कमज़ोरी और दुर्बलता—क्यों जीना इनमें? बल में क्यों न जियें?
और बल के साथ जो तृप्ति आती है, जो आनंद आता है, जो अपने में ही निहित परिपूर्णता आती है; भीतर आनंद है, किसी पर निर्भर नहीं हैं, उसमें क्यों न जियें।
समझ में आ रही है बात?
तो चुनौती उठाइए, निश्चित रूप से उठाइए। पर चुनौती उठाते वक़्त ये भी देख लीजिए कि क्या कुछ ऐसा है जो मुझे भीतर से बदल डालेगा। साधारण आदमी उस दिशा में चलता है जिस दिशा में उसकी मज़बूतियाँ होती हैं और जो असाधारण मनुष्य होता है, वो जानते-बूझते किसी ऐसे काम को चुनता है जिधर उसकी कमज़ोरियाँ होती हैं। वो कहता है—मुझे अपने भीतर से कमज़ोरियाँ निकालनी हैं एक-एक करके। अब आगे की बात सुनिए।
तो हमने कहा कि कर्म का प्रयोजन है—अपने विकारों को, अपनी दुर्बलताओं को बाहर निकालना। इसीलिए हमें जीवन में बड़ी चुनौती स्वीकार करनी है। ठीक? अब कमज़ोरियों में बड़ी कमज़ोरी होती है—अहंकार। क्योंकि वो मूल कमज़ोरी है और अहंकार का क्या मतलब होता है? स्वार्थ।
तो मुझे बड़ा काम करना है, अपनी कमज़ोरी निकालनी है और मुझे बड़ा काम वो करना है जिसमें मेरा अपना कोई स्वार्थ न हो। ये हुई बड़ी-से-बड़ी चुनौती। क्योंकि हम बड़ा काम करने को भी तैयार हो जाते हैं अगर हमें उससे कुछ मिल रहा हो।
आप किसी से कहें कि जान की बाज़ी लगा दो, दस करोड़ मिलेगा। वो तुरंत तैयार हो सकता है। आप किसी से कहिए ज़बरदस्त साधना करनी है पाँच साल, खाना-पीना बंद, ये वो। लेकिन अगर ये सब कर लोगे तो फ़लाने तरह का लाभ हो जाएगा, एनलाइटेन्ड (प्रबुद्ध) हो जाओगे। वो भी कूद के लग जाएगा—‘हाँ, बताओ! साधना कौन-सी है?’
असली बात तो तब है जब आप एक बड़ी चुनौती उठाएँ। एक ऐसी चुनौती जो आपको चूर-चूर जैसा कर दे। ये भलीभाँति जानते हुए भी कि ये सबकुछ करने में आपको व्यक्तिगत रूप से कुछ नहीं मिलने वाला। आपके स्वार्थ की कोई इसमें पूर्ति नहीं है। क्या आप ऐसा कर सकते हैं? यही प्रश्न है।
और ये दोनों ही चीज़ें हमें भारी पड़ती हैं। पहली बात, हम बड़ी चुनौती उठाना नहीं चाहते। बड़ी चुनौती हम उठा भी सकते हैं, यदि हमें लालच हो जाये बड़े लाभ का। पहले तो बड़ी चुनौती उठाना ही हमारे लिए दुष्कर है। बड़ी चुनौती हम उठाते भी तब हैं जब उसमें हमें किसी तरह का मुनाफा दिखता है।
मैं आपसे कह रहा हूँ—बड़ी चुनौती उठानी भी है (पहला मुश्किल काम) और दूसरी बात ऐसी बड़ी चुनौती उठानी है जिसमें अपने लिए व्यक्तिगत रूप से कुछ न हो। हो भी तो सह-उत्पाद की तरह हो कि माँगा नहीं था, आ गया। चलो, कोई बात नहीं।
क्या ये कर सकते हैं आप? जो ये कर ले गया वो तर गया।
'बहुत बड़ा काम है।'
'बहुत बड़ा काम है, अच्छा!'
'इसमें तुम्हारे लिए क्या है?'
'नहीं, इसमें हमारे लिए कुछ नहीं है। बस काम बहुत बड़ा है।'
'तू लड़, अर्जुन! इसलिए नहीं कि राज्य मिलेगा, इसलिए नहीं कि सिंहासन मिलेगा, इसलिए नहीं कि द्रौपदी का बदला लेना है, इसलिए नहीं कि बहुत कष्ट सहे। तू लड़ इसलिए क्योंकि यही धर्म है। इसलिए भी नहीं लड़ना है कि दुर्योधन आदि कौरवों से घृणा है। इसलिए भी मत लड़'—आगे चल कर कह देते हैं—'कि तेरे वर्ण आदि की बात है। किसी भी वजह से मत लड़। लेकिन जो दुनिया का बड़े-से-बड़ा युद्ध हो सकता है, तू उसमें लड़। और लड़ने की जब मैं तुझे सीख दे रहा हूँ तो बिलकुल आश्वस्ति नहीं दे रहा साथ में कि जीत होगी। मृत्यु भी हो सकती है, पर लड़।'
'ये कैसी विचित्र लड़ाई है, भाई! कि मुझे भाई के लिए नहीं लड़ना, मुझे पत्नी के लिए नहीं लड़ना, मुझे माता के लिए नहीं लड़ना, मुझे राज्य के लिए नहीं लड़ना, मुझे कीर्ति के लिए नहीं लड़ना, मुझे घृणा के लिए नहीं लड़ना, मुझे विजय तक के लिए नहीं लड़ना है। विजय की भी कोई निश्चितता, कोई गारंटी नहीं है। मुझे किसी चीज़ के लिए नहीं लड़ना और इतनी बड़ी लड़ाई करवा रहे हो, कृष्ण! इतनी बड़ी लड़ाई करवा रहे हो!'
जो दुनिया की सबसे बड़ी लड़ाई हो सकती थी वो हुई है। महाभारत नाम था।
उस समय के जितने राजा, योद्धा हो सकते थे सब आकर के वहाँ जुट गये थे, या तो उस तरफ़ या इस तरफ़। दो जैसे समझ लीजिए महागठबंधन बने हों, कोलिसन बने हों पूरे भारतवर्ष के लिए।
भारतवर्ष तब उतना ही नहीं था जितना आज आप देखते हैं। गांधारी गांधार से थीं तो उधर अफ़ग़ानिस्तान से लेकर नीचे तक के जितने राजा थे, सब या तो उधर या तो इधर आकर, इतना बड़ा युद्ध, इतनी बड़ी चुनौती पकड़ ली है। तुम लड़ो।
'इसमें मेरे लिए क्या है, कृष्ण?'
'तुम्हारे लिए कुछ नहीं है। राज्य अगर मिल गया तो वो संयोगवश होगा। प्रसाद की तरह ग्रहण कर लेना।'
'और अगर मैं मारा गया, कृष्ण तो?'
'मर जाना। जो असली है वो तो कभी मरता नहीं। तुम्हारे जीवन का क्या? इसे आहुति होना है। अभी हो जाये। क्या बुरा?'
'इतना बड़ा काम करवा रहे हो, कृष्ण! इसमें मेरे लिए?'
'कुछ नहीं, तुम्हारे लिए कुछ नहीं है।'
वो असली काम है। मैं पूछ रहा हूँ—ऐसा कोई काम उठा सकते हैं आप जो बहुत बड़ा हो, लेकिन जिसमें आपका कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं है?
जब कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं होता तब उच्चतम लाभ होता है। जब व्यक्तिगत लाभ नहीं होता तब समष्टिगत लाभ होता है। छोटे बनकर नहीं जीना है। ख़ासतौर पर धार्मिक लोगों को तो छोटे रहने की आज़ादी ही नहीं है। वेदान्त आपको कतई अनुमति नहीं देता कि आप अपनी छोटी-छोटी ज़िंदगियों में, अपने छोटे-छोटे सरोकारों के साथ, अपने छोटे तरीक़ों से छोटा-सा जीवन जियें और मर जायें। ऐसी अनुमति है ही नहीं।
जितने तो अधर्मी हैं, वो सब बड़े-बड़े, बड़े-बड़े हुए जा रहे हैं। अपने लालच की ख़ातिर बड़े हुए जा रहे हैं। जिस भी वज़ह से बड़े हुए जा रहे हैं पर वो बड़े हुए जा रहे हैं। और धार्मिक आदमी में आगे बढ़ने का, ऊँचे उठने का, चुनौतियाँ उठाने का कोई आग्रह ही नहीं!
न जाने ये कौन-से अध्यात्म की घुट्टी हमको पिला दी गयी है जो कहता है—'कुछ नहीं! दुनिया से कुछ नहीं! कोई लेना-देना नहीं दुनिया से। "रूखी-सूखी खाय के, ठंडा पानी पी।" वो रूखी-सूखी भी नहीं मिलेगी और जो तुम रूखी-सूखी माँग रहे हो उसमें भी वो सब जो बढ़ते जा रहे हैं वे पेस्टीसाइड (कीटनाशक) मिला देंगे।
और कहाँ से पाओगे ठंडा पानी? वाटर लेवल (जल-स्तर) ही घुस गया, एकदम नीचे। वो तब की बात रही होगी जब ठंडा पानी भी सुविधा से उपलब्ध हो जाता था। आज अगर कुछ करोगे नहीं तो जितने विधर्मी हैं, ये पानी भी सारा पी जाएँगे। ये कहेंगे कि तुम्हें पानी भी पीना है तो मार्स (मंगल ग्रह) पर जाओ और मार्स (मंगल ग्रह) का इन्होंने टिकट बेचना शुरू ही कर दिया है। कहाँ से पाओगे रूखी-सूखी भी?
आज तो युद्ध ही है और बड़ा युद्ध करना पड़ेगा। जितने बड़े वो हो गये हैं, उनसे उतना ही बड़ा युद्ध करना पड़ेगा और वो युद्ध आप जीतेंगे या नहीं जीतेंगे। इस बात से तो कोई अंतर नहीं पड़ता, लेकिन आप हार ज़रूर जाएँगे अगर आप स्वार्थ में लड़ेंगे वो युद्ध।
जीतने की तो कोई गारंटी है ही नहीं। लेकिन बुरी तरह से हारने की पूरी निश्चितता है, अगर स्वार्थवश लड़ी वो लड़ाई। वो तो इंतज़ार ही यही कर रहे हैं कि उन्हें आपकी चुनौती में बस कहीं कोई स्वार्थ दिखाई दे जाये। वो उसी स्वार्थ का फ़ायदा उठाएँगे और आपको ख़रीद लेंगे। लड़ ही नहीं पाओगे।
सब तरह के दाँव-पेंच आजमाये थे दुर्योधन ने। साम-दाम-दंड-भेद जब सब चलता है, तब ये बताइए कि सत्ता किसके पास थी एक दशक से ज़्यादा समय से? और सबसे प्रबल राज्य कौन-सा था उस समय का? हस्तिनापुर । तो खजाना पूरा किसके हाथ में था?
तो इतनी बड़ी लड़ाई लड़ने से पहले, जान का जोख़िम उठाने से पहले दुर्योधन ने—और शकुनि जैसे धुरंधर बैठे हुए थे उधर—उन्होंने ये नहीं सोचा होगा कि क्यों न खरीद ही लें सामने वालों को?
लड़ाई तो आप तब करेंगे जब आप पहले खरीदे न जायें। और अगर स्वार्थ होगा आपका तो आप खरीद लिए जाएँगे। ये सबकुछ आपको महाभारत में किसी श्लोक में पढ़ने को नहीं मिलता। लेकिन मैं आपको बताए देता हूँ। ऐसा बिलकुल हुआ था।
उधर से आया था दूत और भीम को अलग लेकर गया, बोला, 'बताओ! क़ीमत लगाओ। कुछ नहीं करना है। गदा ज़रा कम घुमानी है। (श्रोतागण हँसते हैं) या एकाध बार गदा कुछ इस तरह से हाथ से फिसल जाये हाथ से घूमते-घामते कि ये जो युधिष्ठिर खड़े हैं इन्हीं को जाकर लगे। (श्रोतागण हँसते हैं) क़ीमत बताओ! कीमत!'
ये सब हुआ होगा। हो ही नहीं सकता कि न हुआ हो। जब सारा छल-प्रपंच किया गया तो ये तो फिर छोटी बात है। स्वार्थ नहीं होना चाहिए, नहीं तो बड़ी लड़ाई नहीं लड़ पाओगे।
दो बातें हमने कौन-सी करी? पहली— आराम करने नहीं आये हो, बड़ा काम करने आये हो। और दूसरी— उस बड़े काम में अगर स्वार्थ हुआ तो बहुत बुरी हार हारोगे।
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