इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।३.१२।।
यज्ञ से उन्नत होकर देवता तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करेंगे, इस प्रकार उन देवताओं से प्राप्त हुई सामग्री को दूसरों की सेवा में लगाए बिना जो मनुष्य स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह चोर ही है।
~ श्रीमद्भगवद्गीता
प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, इस श्लोक में जो बताया गया है कि यज्ञ से उन्नत होकर देवता तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करते रहेंगे लेकिन उनको अर्पण किये बिना जो मनुष्य उनके द्वारा दिये पदार्थों को स्वयं भोगता है, वह चोर ही है। तो ये चोर मुझे समझ नहीं आया। इसपर मैंने आपकी 'कर्मयोग' पुस्तक से पढ़ा भी है काफ़ी लेकिन मुझे अभी स्पष्ट नहीं हो पाया।
आचार्य प्रशांत: यज्ञ से देवता उत्पन्न होते हैं। यज्ञ का अर्थ होता है वो सबकुछ आहुति में डाल देना जो किसी श्रेष्ठतर को अर्पित किया जा सकता है। ये आगे बढ़ने की प्रक्रिया है।
मेरे पास बल है, मेरे पास बुद्धि है, मेरे पास ज्ञान है, मेरे पास धन है; मैं इसको वहाँ समर्पित कर देता हूँ जहाँ कोई ऊँचा उद्देश्य है — ये यज्ञ है।
जब आप ये करते हैं तो श्लोक कहता है — देवता उत्पन्न होते हैं। कहीं बाहर नहीं उत्पन्न होते। वेदान्त में बाहर कहीं कुछ नहीं होता। वो टीवी सीरियल वग़ैरा छोड़िए जहाँ कुछ यज्ञ में आहुति दी गयी तो वहाँ पर देवता खड़े हो गये। वो वेदान्त को जानते नहीं। वेदान्त में बाहर जैसी कोई चीज़ होती नहीं।
देवता कहाँ उत्पन्न होंगे? कहाँ होंगे? देवता भीतर उत्पन्न होंगे, देवत्व उदित होगा। देवत्व क्या होता है? आपके भीतर जो कुछ भी श्रेष्ठतर है उसको देवत्व कहते हैं। और भीतर की श्रेष्ठता जगाने का समझिए कि जैसे श्लोक में उपाय है।
क्या उपाय है? जो कुछ भी आपके पास हो — ये वो चीज़ें हैं जो मेरे पास हैं: समय है, ऊर्जा है, बुद्धि है, ज्ञान है, धन है, सम्बन्ध हैं; जो कुछ भी है मेरे पास, बाहुबल है, ये सब मेरे पास हैं यहाँ पर। और ये वो सब विकल्प हैं जहाँ मैं अपने संसाधनों को अर्पित कर सकता हूँ।
नहीं समझे?
चार दिशाएँ हैं जहाँ मैं अपने संसाधनों को लगा सकता हूँ। मेरे पास छः तरह के संसाधन हैं, एक से लेकर छः तक। एक से लेकर छः तक मेरे पास संसाधन हैं, इसमें जो श्रेष्ठतम संसाधन है, मान लीजिए, वो कौनसा है — नंबर एक। मेरे पास छः तरह के संसाधन हैं उसमें जो सबसे बड़ा संसाधन है वो कौनसा है?
श्रोतागण: नंबर एक।
आचार्य: नंबर एक। फिर नंबर दो, नंबर तीन, ऐसे। और मेरे पास तीन विकल्प हैं, तीन दिशाएँ हैं जहाँ पर उन संसाधनों का प्रयोग हो सकता है: अ, ब, स। उसमें श्रेष्ठतम? 'अ', ठीक? यज्ञ क्या हुआ? अरे भाई! यज्ञ क्या हुआ? नंबर एक को उठाकर 'अ' से मिला देना है, ये यज्ञ कहलाता है।
जो आपके पास ऊँचे-से-ऊँचा हो, उसे ऊँची-से-ऊँची दिशा भेज दीजिए — इसको यज्ञ कहते हैं। ये यज्ञ है। वो जो हम लकड़ी जलाते हैं उसको यज्ञ नहीं कहते। जो आपके पास उच्चतम हो, उसे उच्चतम की ही दिशा प्रेषित कीजिए, ये यज्ञ है। और इससे आप बदल जाएँगे भीतर से; कैसे बदल जाएँगे? ऐसे बदल जाएँगे कि हमारे भीतर बैठा है एक चोर, वो चोर क्या चाहता है? खाना।
अ-ब-स में ये जो 'स' है, ये क्या है? चोर। तीन दिशाएँ हैं न अपने संसाधनों को भेजने की, वो जो तीसरी दिशा है वो एक चोर दरवाज़ा है। वो कहता है एक से लेकर छः तक जो कुछ है मैं क्या करूँ — मैं हड़प जाऊँ, मैं ही खा जाऊँ।
जब आप उस चोर को वो नहीं देते जो वो माँग रहा है तो आपके भीतर देवत्व उठता है। चोर हटा न! चोर हटा। चोर हटा तो चोर जिसको दबाये बैठे था, चोर जिसको घेरे बैठे था, अपने भीतर जिसको रोके बैठे था, वो सामने आ जाता है। देवता सामने आ जाते हैं।
देवता हममें हैं पर ज़रा गहराई में हैं। चोर हममें है, वो देवताओं को रोके हुए, आच्छादित करे हुए, घेरे हुए है। और वो चोर हमारे भीतर इसीलिए है क्योंकि हम उसे मनचाही ख़ुराक देते रहते हैं। चोर को ख़ुराक देना छोड़ दो। जो कुछ तुम्हारे पास है उसको चोर से बिलकुल वापस ले लो। उसे जहाँ देना चाहिए वहाँ दे दो, चोर अपनेआप हटेगा, मिटेगा। जब चोर हटेगा, मिटेगा तो देवता सामने आ जाएँगे।
देवता पहले से ही भीतर थे, चोर हट गया सामने से, वो दिखने लगे हैं सामने देवता। ये अर्थ है। और अगर चोर को ही ख़ुराक देते रहे तो — क्या समझा रहे हैं कृष्ण — तुम ही चोर हो गये। जो यज्ञ न करे, जो उच्चतम को उच्चतम को भेंट न करे, कृष्ण उसको सपाट कह रहे हैं दो टूक मुँह पर, क्या? तुम चोर हो। श्लोक में है ये — वो चोर ही हैं। जो यज्ञ में भेंट करे बिना स्वयं खा जाए, श्रीकृष्ण उसका नाम बता रहे हैं 'चोर'।
तुम्हारे पास तुम्हारी कामनाओं और तुम्हारे पेट के अलावा कुछ नहीं? तुम्हें अपने से आगे कुछ नहीं दिखाई देता जहाँ तुम कुछ अर्पित कर सको? तुम्हारे जीवन में कोई लक्ष्य नहीं? तुम्हारे पास ऊँचाई के लिए कोई प्रेम नहीं? सारे अपने संसाधन बचाये बैठे रहते हो, किसलिए? ‘हम खाएँगे।’ ऐसों के लिए कृष्ण ने नाम बता दिया, चोर हो तुम।
चोर वो नहीं जो दूसरे के घर में जाकर चोरी करे; चोर वो है जो अपने संसाधनों को ख़ुद ही खा जाए। ये मिलता है गीताजी के पास जाकर। वरना हम तो बस उसको ही चोर बोल देते हैं जो किसी और का कुछ माल हड़प गया। जो अपना माल हड़प जाए उससे बड़ा चोर कोई दूसरा नहीं।
तुम्हारे पास इतना माल है, तुम क्यों खाये जा रहे हो उसको? कृष्ण कह रहे हैं, ‘तुमसे बड़ा कोई दूसरा चोर नहीं।’ जो अपना माल ख़ुद ही खा जाए, वो चोर है। तुम्हारा माल इसलिए नहीं है कि तुम उसे खा जाओ, तुम्हारा माल इसलिए है कि तुम उसे यज्ञ में अर्पित करो।
हाँ, यज्ञ में अर्पित करने के बाद कृष्ण स्वयं ही गुंजाइश दे देते हैं, कहते हैं — अब जो बचा हुआ हो, बस उतना खा लेना। या ऐसे कह लो कि बस उतना खाना कि इस लायक़ बने रहो कि यज्ञ कर सको। उतना ही खाना जितना खाना ज़रूरी है यज्ञ करने के लिए।
तुम्हारे जीवन का उद्देश्य व्यक्तिगत भोग नहीं है; तुम्हारे जीवन का उद्देश्य यज्ञशीलता है। तुम भोगने के लिए नहीं पैदा हुए हो, तुम यज्ञ के लिए पैदा हुए हो। इसलिए यज्ञ की इतनी महिमा है। यज्ञ करो और उसके बाद जो बचा-खुचा हो, जो बस इसलिए आवश्यक हो कि अगर इतना भी नहीं खाया तो कल यज्ञ नहीं कर पाएँगे, बस उतना खा लेना।