आचार्य जी, दुनिया आपको कैसे याद रखे? || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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आचार्य जी, दुनिया आपको कैसे याद रखे? || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, आप विश्व में वेदान्त मर्मज्ञ के रूप में प्रसिद्ध हैं। आपकी पुस्तकें लाखों-करोड़ों लोगों को जीवन-ज्ञान, धर्म-ज्ञान पहुँचा रहीं हैं, और उसमें एक-आध नहीं, बल्कि आठ से दस पुस्तकें राष्ट्रीय-बेस्टसेलर भी बन चुकी हैं।

आप नारी सशक्तिकरण के क्षेत्र में एक जाना-माना नाम हैं, वीगनिज़्म में भी आपका काम – और आप अकेले ऐसे हैं जो स्पिरिचुअल वीगनिज़्म की बात करते हैं। अब, इतने सारे रूप हैं जिसमें से आपका एक रूप और है जो पब्लिक डोमेन में उतना सामने नहीं आता, कि आप एक हाइली सक्सेसफुल मैनेजमेंट कंसल्टेंट (बहुत सफल प्रबंधन सलाहकार) भी हैं।

अब हम आपको आपके जीवन में इतने रूपों में देखते हैं, तो अब उससे मेरा एक प्रश्न उठ रहा है, कि आपको अपने इन सारे रूपों में कौनसा रूप है जो प्रिय है, और आप दुनिया को अपने योगदान को किस रूप में देखना चाहेंगे?

आचार्य प्रशांत: मुझे अपना कौनसा रूप प्रिय है? जो उपयोगी होता है जिस वक़्त, वही प्रिय होता है; उसमें मुझे क्या प्रिय है, इसका बहुत महत्व रहता नहीं है, महत्व इस बात का रहता है कि कौनसा रूप आवश्यक है। जिस जगह पर, जिस समय पर जिस रूप की ज़रूरत होती है, उस समय वो रूप होता है।

तो जहाँ कहीं ऐसे लोग हों जो पशुओं के प्रति आत्मीयता नहीं रख सकते, उनसे मैं बात वीगनिज़्म की करूँगा, वहाँ वो रूप होगा। जहाँ महिलाएँ हों जो अपनेआप को दुर्बल ही मानतीं हों, उनसे मैं सशक्तिकरण की बात करूँगा। संस्था के अंदर के मामले होते हैं, वहाँ बहुत सारी चीज़ों का प्रबन्ध रखना होता है, देखना पड़ता है, तो फिर वहाँ मैं एक प्रबन्धक बन जाता हूँ। तो इसमें व्यक्तिगत रूप से कौनसा रूप? कोई नहीं; जिसकी आवश्यकता होती है वो काम करते हैं।

कोई दिन अगर ऐसा आया – आएगा नहीं – पर कोई दिन ऐसा आया कि काम पूरा हो गया, तो मैं सबसे अलग, चुपचाप कहीं एकांत में रहना चाहूँगा, शायद वो मुझे प्रिय होगा। पर वैसा कभी सोचा नहीं है, अब आपने कहा है तो सोच रहा हूँ, क्योंकि वैसा दिन कभी आएगा भी नहीं कि काम पूरा हो गया। तो ऐसी व्यर्थ कल्पना मैं करता नहीं, क्या फ़ायदा? पर अगर कभी ऐसा हो सका तो अपने लिए, सिर्फ़ अपने लिए थोड़ा-सा एकांत चाहूँगा; एकांत, और बहुत सारी किताबें हैं और बहुत समय से रखीं हैं, पढ़ना है, पढ़ना उनको बाकी है अभी। संस्कृत सीखी थी, वो अधूरी रह गई, तो उसको पूरा करना अभी बाकी है।

(हँसते हुए) कामना जगा रहे हैं आप ये विचार करवा के, कि अपने लिए क्या चाहिए। अपने लिए तो जो ज़रूरी है वही चाहिए, अभी तो जो ज़रूरी है वो ठीक है।

प्र: अपने योगदान को किस रूप में चाहेंगे दुनिया याद रखे?

आचार्य: ये दुनिया जाने वो कैसे याद रखेगी, मैं चाहता नहीं कि मुझे दुनिया ज़रा भी याद रखे। मैं उकताया हुआ हूँ इस दुनिया से, मुझे कोई बहुत पसंद नहीं है दुनिया में होना ही, तो ऐसा कुछ नहीं है कि…

शरीर लेकर के दुनिया में हो, इसमें ही कौनसी बहुत बड़ी बात है कि जब शरीर नहीं रहे, उसके बाद भी लोगों की यादों में रहो? वो भी एक तरह का जीवन ही है। वो भूत-प्रेत जैसी बात हो गई न बिलकुल, कि मर तो गए हैं लेकिन लोगों के खोपड़ों में घुसे हुए हैं? अगर मेरा बस चले तो मैं पूरी तरह मिटना चाहूँगा, बिना कोई निशान छोड़े, एकदम विलुप्त हो जाओ, एकदम गायब हो जाओ; एक भी यहाँ पर चिह्न, निशान, अवशेष, कुछ भी न बचे। लेकिन ऐसा कुछ होगा नहीं, ठीक है? तो ये सब बेकार की कल्पनाएँ हैं।

कुछ लोग तो याद रखेंगे ही। (हँसते हुए) कोई आपका नुकसान करके भागा होता है तो उसे भूल थोड़े ही जाते हो इतनी जल्दी! तो लोग तो याद रखेंगे ही; अब वो किस रूप में याद रखेंगे, ये लोग जानें।

देखिए, अध्यात्म का काम होता है आपको स्मृतियों से भी मुक्ति दे देना। आपको अगर यादों में ही गुज़र करना पड़ रहा है, तो अभी मुक्ति मिली नहीं। मेरे बाद अगर आपको मेरी याद रखनी पड़ रही है, तो अभी आप भी फँसे ही हुए हैं। मैं भी मिट जाऊँ, यादें भी मिट जाएँ, आप भी मिट जाओ; आपके लिए भी यही अच्छा है, सबके लिए यही अच्छा है।

मुझे ये समझ में नहीं आता है, जो लोग अपने पीछे अपने बड़े स्मृति-चिह्न और अपनी स्मारिकाएँ छोड़कर जाते हैं, इनका खोपड़ा कैसे चल रहा होता है! बड़े-बड़े मकबरे बनवा दिए। अरे मर कर तो मिट जाओ, अभी भी चढ़े ही रहना चाहते हो! हम इतना डरे हुए हैं न मिटने से कि हम कुछ भी करके, कुछ भी करके बस बने रहना चाहते हैं। आत्मा से दूर रहने का यही तो नुकसान होता है न, आपको हमेशा यही डर लगा रहता है, ‘कहीं मैं मिट न जाऊँ, कहीं मैं मिट न जाऊँ!’ तो आप हज़ार तरीके के फिर आयोजन करते हो – ‘यहाँ मेरी पदचाप बनी रह जाए', ‘ये मेरा मकबरा है और ये मेरी मूर्ति है, और ये सब बचे रह जाएँ।‘

जो असली है वो वैसे भी कहाँ मिटना है; जो नकली है उसके निशान छोड़ने की ज़रूरत क्या है?

(हँसते हुए) अब मैं ये सब कह रहा हूँ लेकिन ये सब भी मैं रिकॉर्ड करवा रहा हूँ, तो मैं कैसे कह दूँ कि सब मिट जाएगा? बचा तो रहेगा ही, ये रिकॉर्डिंग भी बची रहेगी। जब नहीं रहेंगे तब ये चलाकर देख रहे होंगे, कि ये देखो, ये कह रहे थे पूरी तरह मिट जाएँगे, और जब ये कह रहे थे तब भी रिकॉर्ड करवा रहे थे, वो भी रिकॉर्ड हो रहा था। तो ये सब तो रहेगा ही, कहाँ चला जाएगा? फँस गए हम! वो किताबें हैं, बाहर लगी हुईं हैं पाँच सौ, वो भी रहेंगी।

इसलिए जानने वालों का एक वर्ग ऐसा भी हुआ है जिसने फिर ये कोशिश भी नहीं करी है कि समाज को मुक्ति मिले, उन्होंने कहा कि इस कोशिश को करने में भी बंधन है। वो सीधे बाहर ही निकल गए हैं; कभी जंगल निकल गए, कभी पहाड़ निकल गए, कभी समाज के बीचों-बीच ही रहे, पर अनाम, गुमनाम बनकर रहे। उन्होंने कहा, ‘हम अगर ये प्रयास भी करें कि दूसरों का भला हो जाए, तो इस प्रयास में भी बंधन है हमारे लिए।‘ तो उन्होंने कहा, ‘हम ये भी नहीं करेंगे।‘

बाकी कुछ बोलना ही हो मेरे बारे में, तो यही कह दीजिएगा – ‘बंदा मस्त था।‘ क्योंकि मेरा विवरण, मेरा डिस्क्रिप्शन तो यही सही है – ‘बंदा मस्त था।‘ इसके आगे और कोई बात नहीं।

ध्रुवीकरण-सा रहेगा, पोलराइज़्ड रहेगा लोगों का मत। कुछ हैं जिन्हें लाभ हुआ है, वो बड़े प्रेम से शायद याद रखेंगे; और बहुत सारे ऐसे भी हैं जिन्होंने लाभ पाने की जगह चोट-भर खायी, वो बड़ी कटुता से भरे रहेंगे। मैं क्षमा-प्रार्थी हूँ उनसे, उन्हें चोट देने का मेरा कोई इरादा नहीं है। अक्सर तो उन्हें चोट बस संयोग से लग जाती है; वो ऐसा कोई वीडियो देख लेते हैं मेरा जो उन तक कभी पहुँचना ही नहीं चाहिए था।

अब हम करते हैं प्रचार, और वो भी धुआँधार। तो मेरी बात हर जगह पहुँच जाती है, वो ऐसे लोगों तक भी पहुँच जाती है जिनके लिए वो बात है ही नहीं। पर क्या करें, अभी ऐसी टेक्नोलॉजी नहीं है कि हम साफ़-साफ़ जान पाएँ कि जो सिर्फ़ सुपात्र लोग हैं उन तक ही ये बात पहुँचे।

तो बहुत स्तरों के और बहुत वर्गों के जो लोग हैं उन तक भी बात पहुँच गई, जिनका अभी समय नहीं आया है, उन तक भी वो बात चली जाती है। जब चली जाती है तो उनको चोट लग जाती है बहुत, क्योंकि अभी वो उस स्तर पर हैं ही नहीं कि उस बात को समझ पाएँ या उसका लाभ उठा पाएँ। फिर वो उसी चोट को याद रखते हैं, क्योंकि एक बार चोट लग गई तो उसके बाद वो मुझे और तो कहीं देखेंगे-सुनेंगे हैं नहीं, उन्हें मेरे नाम से ही कोफ़्त हो जाएगी। उस चोट को वो याद रखते हैं, कि इसने ये बात बोल दी थी और ये हमें चुभ गई है। तो वो ऐसे ही याद रखेंगे फिर, कि ये बंदा गड़बड़ था और इसने हमें परेशान कर दिया।

उनसे मैं यही कहूँगा कि ये एक टेक्निकल एरर हो गया है, तुमने जो वीडियो देख लिया वो तुम्हारे लिए था नहीं। और ये मेरी भी नहीं, टेक्नोलॉजी की विवशता है कि वो वीडियो तुम तक पहुँच गया। तुम्हें नहीं देखना चाहिए था उसको, तुम्हारा अभी समय नहीं आया है। हो सकता है तुम बीस साल बाद देखो तो तुम्हें कुछ बात समझ में आए; अभी तुम्हें समझ में ही नहीं आनी थी, न जाने क्यों तुमने देख ली! पर चोट तो लग ही गई है, तो वो वैसे ही याद रखेंगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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