आलूका-पाका-टोको: यो तो गयो || आचार्य प्रशांत, वेदान्त महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

Acharya Prashant

23 min
72 reads
आलूका-पाका-टोको: यो तो गयो || आचार्य प्रशांत, वेदान्त महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

प्रश्नकर्ता : प्रणाम,आचार्य जी। मेरा सवाल माता-पिता के साथ जो सम्बन्ध है, उसके विषय में है। मैं आपको डेढ़-दो साल से सुन रहा हूँ और काफ़ी बदलाव भी आया है जीवन में। जैसे आप बंधनों काटने की बात करते हैं तो उस तरह से थोड़ा साहस आ गया था। जैसे जिन स्वार्थों की वजह से मैं माता-पिता के ज़्यादा समीप रहता था, उन स्वार्थों को छोड़ने की कोशिश करी। जो जॉब (नौकरी) वगैरह में था, वो सब भी मैंने छोड़ने की कोशिश करी।

लेकिन जैसे आप अभी कह रहे थे कि कटोरे में कचरा चिपक गया है, तो बहुत छोटी उम्र से यह शिक्षा दी गई थी कि दूसरों की मदद मत करो नहीं तो वो तुमसे आगे निकल जाएँगे।

जो प्रतियोगी परीक्षाएँ वगैरह हैं उसमें मुझे सफलता मिली, और जो-जो उपलब्धियाँ हुईं, वैसे-वैसे घमंड भी बढ़ता गया। यह सारी चीज़ें, जो मेरे जीवन की कहानी है वैसे हुई। बट (लेकिन) जो फाउंडेशन (आधार) था इसका, जो आधार था इन सब चीज़ों का, वो जो वैल्यूज (मूल्यों) थीं, वो वहाँ से आयी थीं, माता-पिता से आयी थीं।

अब कॉरपोरेट जॉब छोड़ करके अभी एक कोचिंग में पढ़ाता हूँ, फिजिक्स (भौतिकी), मैथ्स (गणित), मैं उस तरफ़ चला गया हूँ। पर माता-पिता की जो एक्सपेक्टेशन्स (अपेक्षा) हैं वह अब क्लियर (स्पष्ट) हो गयी हैं। मैंने स्पष्ट कर दिया है कि इस तरह से मैं जीवन नहीं जीना चाहता। मतलब मेरी तरफ़ से तो मुझे यह बात ठीक लगती है लेकिन हो क्या गया कि फिर मेरे पिताजी अवसाद का शिकार बन गए।

मैं उनकी मदद करना चाहता हूँ क्योंकि जैसे भी हो, जो भी उन्होंने मूल्य दिए हों, जो पढ़ाई की सारी, जो सारा खर्चा वगैरह था, सारा उन्होंने उठाया। और जो भी सुख-सुविधाएँ आज मेरे पास हैं या मेरे पास रही हैं, जैसे आपकी भी बातें मैं सुन पाता हूँ, समझ पाता हूँ, ये जो चीज़ें हैं, एक तरह से तो उनका भी उसमें योगदान तो है न।

आपकी शिक्षाएँ मेरे लिए बहुत उपयोगी रही हैं तो मैंने उन्हें भी इंट्रोड्यूस (परिचय) कराने की कोशिश करी आपके शिक्षओं से, लेकिन वो नहीं समझ पा रहे इन बातों को और विरोध बहुत ज़्यादा आता है। उन्हें लगता है कि मैं कुछ ग़लत कर रहा हूँ। और फिर मुझे सही रास्ते पर लाने की कोशिश…, फिर उस तरह की चीजें क्योंकि उनके आसपास भी लोग बिलकुल उन्हीं की तरह हैं, जैसे आप कह रहे थे अभी।

मैं अपना कटोरा साफ़ करने की कोशिश कर रहा हूँ आपकी मदद से लेकिन उनका कटोरा या उनकी कढ़ाई या जो भी है, उसके लिए क्या किया जाए? क्योंकि प्रेम तो है, तो ऐसे तो नहीं छोड़ देना है कि कुछ नहीं करना, तो कैसे मदद की जाए? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: यह समस्या लगभग सभी के साथ आती है। देखिए, हमारे रिश्तों का एक पुराना ढर्रा होता है। उस ढर्रे में आप होते हैं, दूसरा व्यक्ति होता है और बीच का रिश्ता होता है। ठीक है?

अब आपको कुछ नया पता चला। जो आपको नया पता चला है, वह साधारण सूचना या साधारण ज्ञान नहीं है। साधारण सूचनाएँ, साधारण ज्ञान, हमने कहा, वैसे ही होते हैं जैसे आपको अतीत में भी मिलते रहे हैं। ठीक है न? कि पहले दूध मिलता रहा है, अब आपको दे दी गयी लस्सी। लेकिन मूल में चीज़ वही होती है। अभी आपको जो मिल रहा है वह पुरानी चीज़ को आगे नहीं बढ़ा रहा, पुरानी चीज़ को काट रहा है, साफ़ कर रहा है।

तो क्या होता है कि जो आपके और दूसरे व्यक्ति के रिश्ते का आधार है, वही बदलने लगता है, बदल कर बेहतर होने लगता है। बदल कर बेहतर होने लगता है। लेकिन जो दूसरा व्यक्ति है उसने तो पुराना ही सम्बन्ध जाना है। उसको बिलकुल नहीं पता है कि आप कौनसी शिक्षओं की बात कर रहे हैं। उसको बस यह पता है कि आपको जो कुछ भी मिल है, उसकी वजह से जो पुरानी तरह का रिश्ता था, वह खंडित हो रहा है या उसमें खिंचाव-तनाव आ रहा है। कुछ गड़बड़ हो रही है उसकी दृष्टि में। आप कह रहे हैं कि अभिभावकों को शिक्षाओं से विरोध है, शिक्षाओं से बिलकुल भी विरोध नहीं है। ये शिक्षाएँ तो उनको समझ में ही नहीं आती। समझ में आएँगी तब न विरोध होगा?

आलूका-पाका-टोको। समर्थन करो। विरोध ही करके दिखा दो। आलूका-पाका-टोको। समर्थन करिए, समर्थन करिए (हाथ जोड़कर)। समर्थन नहीं कर रहे? चलिए, विरोध ही कर दीजिए। विरोध भी नहीं कर पाएँगे, क्यों? क्योंकि समझ में ही नहीं आ रहा।

अगर हमारे बंधु उठ कर आएँ आपके पास और बोलें, ‘अलूका-पाका-टोको’ और पेट में एक मुक्का मारें। और फिर थोड़ी देर बाद आएँ और बोलें, ‘आलूका-पाका-टोको’, और एक चाँटा मारें। तो अलूका-पाका-टोको के प्रति आप की क्या धारणा हो जाएगी? कि आलूका-पाका-टोको कोई बहुत ही ख़तरनाक चीज़ है, इसका विरोध ज़रूरी है।

आप लोगों ने मेरे पचास हज़ार दुश्मन खड़े कर दिए हैं अलूका-पाका-टोको कर-कर के। और यह सब घरों में होता है। घर का कोई एक व्यक्ति होता है जिसको मेरी कुछ बातें समझ में आने लग जाती हैं। और जिस घर में एक व्यक्ति को मेरी बात समझ में आने लगी, उस घर के पाँच लोग मेरे ख़िलाफ़ हो जाते हैं, यह पक्की बात है। अलूका-पाका-टोको! मेरा नाम लेकर न जाने क्या करते हो कि ऐसे लोग मेरे खिलाफ हैं जिन्हें मुझसे कोई लेना ही देना नहीं। उन्हें मेरी एक बात आज तक समझ में नहीं आयी, पर ख़िलाफ़त पूरी है। क्यों है ख़िलाफ़त? राम जाने।

राम क्या, मैं ही बता देता हूँ। बात बस यही है, उन्हें मैं क्या कह रहा हूँ इससे वाक़ई कोई लेना-देना नहीं है। उन्हें तो इस बात से लेना-देना है कि हमारा बेटा हमसे छिना जा रहा है। हमारा बेटा हमसे छिना जा रहा है। अब मज़े की बात यह है कि आमतौर पर जो लोग हमको लगता है कि हमसे छिन रहे हैं, वह कभी भी हमारे थे ही नहीं। मज़े की बात ये है कि बेटा कोई मोटी नौकरी करने अमेरिका चला जाए,और चार साल तक घर ना आए तो भी माँ-बाप को नहीं लगता कि बेटा छिन गया। लेकिन बेटा भले घर पर हो लेकिन दो-चार सच्ची बातें बोलने लग जाए तो माँ-बाप को तुरंत लगता है कि ये तो गयो। खूब होता है।

आप कह दीजिए कि मैं मटरगश्ती करने जा रहा हूँ, कहीं भी जा रहा हूँ मटरगश्ती करने, मैं मॉरीशस जा रहा हूँ मस्ती करने, घरवाले बीस दिन तक आपकी सुध नहीं लेंगे। और घर से ही कैश (नकदी) उठा करके वह मॉरीशस चला गया, घरवाले बिलकुल नहीं पूछेंगे। आप कह दीजिए कि तीन दिन के शिविर में आया हूँ। घर वालों को आपकी इतनी याद आएगी, इतनी याद आएगी, हर पंद्रह मिनट में कॉल करके पूछेंगे, ‘कहाँ है?, कहाँ है?’

पिछले शिविर में मैंने बताया था न, महोत्सव में, बाहर निकल के गया, वहीं पर लोगों के मोबाइल फ़ोन रखे थे। मैं बैठा हूँ और एक का बजने लगा। मैं उसमें देखता हूँ, बयालीस मिस्ड कॉल्स । मैंने कहा, या तो वाक़ई कोई बड़ी दुर्घटना हो गई हो, तब तो बयालीस कॉल जायज़ है। नहीं तो यह कॉल्स नहीं हैं, यह धमकियाँ हैं। न ये कॉल्स हैं , न यह प्रेम है, यह सिर्फ़ धमकियाँ है।

आपको सावधानी से काम लेना होगा। सत्य इतनी हल्की चीज़ नहीं होती। यह दवाई कोई सुप्रशिक्षित शिक्षक ही पिला सकता है किसी रोगी को। एक साधारण सी आपको वैक्सीन (टीका) भी लगवानी होती है तो भी आप हॉस्पिटल (चिकित्सालय) जाते हो। जबकि कुछ नहीं है वो, लगवायी है, सभी ने लगवा रखी है यहाँ पर। कितना समय लगता है लगाने में? कुछ सेकंड लगते हैं। ऐसे लेकर (हाथ में सूई का इशारा), खत्म। लेकिन उसके लिए भी आपको किसी प्रशिक्षित व्यक्ति के पास जाना पड़ता है।

अब होता क्या है कई बार कि मैंने तो आपको एक जटिल चीज़ बहुत सरल करके दे दी, आपको मिल गयी। चूँकि मैंने उसे बहुत सरल करके आपको दे दिया तो आपको लगता है कि यह चीज़ ही सरल है, आसान है। आपको लगता है, इतनी आसान है कि मैं ख़ुद इसको दूसरों को पिला दूँगा। और फ़िर जो होता है वो होता है, माका-लाका-टूको, जो भी है वो।

घर आख़िरी जगह होनी चाहिए जहाँ आप आध्यात्मिक सक्रियता का खुला प्रदर्शन करें, निवेदन कर रहा हूँ। अपना स्प्रिचुअल एक्टिविज्म (आध्यात्मिक सक्रियता) कहीं और दिखाइए। वजह है, वजह यह नहीं है कि मैं घर वालों को मूर्ख समझता हूँ या मैं नहीं चाहता कि आपके घर वालों का भला हो। वजह यह है कि घर वालों से हमारा एक विशेष रिश्ता होता है और वो रिश्ता ज्ञान पर कभी आधारित था ही नहीं। आप में से किसने अपना पति या पत्नी या माता या पिता उनके ज्ञान को देखकर चुना? जल्दी बताइए। और रिश्ते बीसों साल पुराने हैं। चालीस साल पुराना रिश्ता है, उस रिश्ते में कभी ज्ञान की कोई गुंजाइश कभी भी नहीं थी। थी?

बड़ा हो सकता है निकटता का रिश्ता रहा हो पर वह देह की निकटता रही है हमेशा से। माँ को बेटे के देह की देखभाल करनी है, वह बचपन से यही करती आयी है, ‘मेरा बेटा कितना सोना लग रहा है, कितना लाड़ला है, लाओ कंघी कर दूँ, लाओ तेल लगा दूँ, गोरा-गोरा दिख रहा है। खाना खा लिया न? हाँ, बिलकुल सही है। हाँ, (पेट पर) बढ़िया, अच्छा लग रहा है।‘

रिश्ता पूरा-पूरा शरीर का था हमेशा से। यही पति-पत्नी का रिश्ता होता है। माँ-बेटे का भी यही रिश्ता है, पति-पत्नी का भी यही रिश्ता है। आप अपनी पत्नियाँ ज्ञान देखकर के चुनकर लाए थे? उससे जब भी बात करी तो यह बोला कि योर इंटेलिजेंस इज़ सो सेक्सी (तुम्हारी बुद्धिमत्ता बहुत कामुक है), ऐसे बोलते थे?

और अचानक वह सारी बातें जो रिश्ते की बुनियाद थीं, आप अलग रखकर कहेंगे, ‘ज्ञान!’, तो सामने वाला तो बिलकुल सहम जाएगा न। उसकी दुनिया छितर-बितर, यह क्या चीज़ नयी आ गयी, ‘ज्ञान?’ वह आपसे कह रहा है, ‘मेरी आँखें देखो, मेरी जुल्फ़ें देखो, मेरे अंग-प्रत्यंग्यों को देखो’, आप कह रहे हैं, ‘हम ज्ञान देखते हैं।‘ उन्होंने जल्दी से गूगल करा कि ज्ञान कैसे शरीर में फिट किया जाता है, क्योंकि यह आदमी आज तक तो शरीर देखता था मेरा, ज्ञान को भी कहीं शरीर में ही लगा लूँ तो क्या पता देखे। पता चला ज्ञान शरीर में तो कहीं लगता नहीं। अब आपातकाल की स्थिति है, क्या करा जाए?

यही माँ-बाप का हाल है, यही दोस्तों का हाल है। आप अपना यार ज्ञान देखकर चुनते आये हैं? कॉलेज में आपके जो मित्र और सब हैं, जो सबसे बेहूदे लफ़ंगे होते हैं, उनको आप सबसे पहले चुनते हैं न यारी के लिए? 'वी विल हैव ए गुड टाइम टुगेदर!’ (हम साथ में अच्छा समय बिताएँगे) ठीक? उन्हीं के साथ हम कहते हैं कि इनके साथ रहते हैं तो तनाव पूरा दूर हो जाता है। क्यों ? कतई जानवर हैं! जानवर के साथ क्या तनाव आएगा? एकदम जानवर है। कुछ भी चल रहा हो दुनिया में, बड़ी से बड़ी बात, बस एक बात बोलता है, ‘बोतल खोल।‘ तो कोई हमें तनाव होता है, हम इसके पास आकर बैठ जाते हैं।

अब बोतल खोलने की जगह ज्ञान खोल दिया, उसको काटो तो खून नहीं! वो इधर-उधर देख रहा है, कहाँ जाएँ, कहाँ छुपें। और साथ में ये और बता दो कि ये न वो, आचार्य प्रशांत, वहाँ से आ रहा है। कोई न कोई आएगा पक्का मुझे गोली मारने और वह आपकी कृपा होगी। (सभी श्रोता हँसते हैं) मज़ाक नहीं है ये, आप जानते हैं कि यह गंभीर बात है। और यही लोग, इन्हीं में से कोई न कोई जो आपके ज्ञान का शिकार है, वही मेरा शिकार करेगा।

स्थिति को समझिए, भई। जो बड़े से बड़ा देह केंद्रित, बॉडी सेंटर्ड रीलेशन (देह केंद्रित रिश्ता) हो सकता है, वह होता है परिवार मेंI परिवार की बुनियाद ज्ञान नहीं होती, परिवार की बुनियाद देह होती है, देह। और देह और ज्ञान एक दूसरे के धुर विरोधी होते हैं। किसी और से ज्ञान की बात कर लो, चल जाएगा। माँ-बाप से कर ली, भाई-बहन से कर ली, दोस्त-यार से कर ली, एकदम नहीं। और अगर पति-पत्नी से कर ली तो तलाक़नामा तैयार रखना पहले। बहुत किस्मत वाले होंगे आप अगर आप इस तरह की बातें करते हैं और लोग आपको झेल रहे हैं। अभी झेल रहे होंगे, बहुत देर तक नहीं झेलेंगे।

यह चीज़ें होती भी हैं तो इनमें प्रगति बहुत धीरे-धीरे होती है। प्रगति कैसे होती है वो भी बता देता हूँ। प्रगति तब होती है जब आपके जो साथ है व्यक्ति, चाहे वो माँ हो, भाई हो, पत्नी हो, वो आकर आपसे पूछें कि बंदा तो तू बेहतर होता जा रहा है, वजह क्या है। और आप मुस्कुरा कर कुछ न बोलें। और फिर जब वह पाँच बार पूछे तो उनको एक वीडियो दिखा दें। वह भी शॉर्ट (एक मिनट तक के वीडियो), लंबा वाला नहीं, ख़तरनाक होता है! वो भी एक झलक दिखाएँ, उससे आगे कुछ नहीं। जब दस बार पूछें तो एक बार कुछ बता दो। उनको पूछने दो।

अगर आप वाक़ई बेहतर हो रहे हैं तो वो बेहतरी दूसरों को प्रतीत होनी चाहिए न? बेहतर होने का मतलब ये थोड़े ही है कि दूसरे के लिए आप ज़्यादा खीझे हुए हो गए, लड़न्के हो गए। खीझने से आपको मुक्ति मिल रही है क्या, इतना बताइएगा। मान लीजिए आप पहले से ज़्यादा ज्ञानी हो गए, लेकिन आप साथ-ही-साथ खीझे हुए, चिड़चिड़ाए हुए रहते हैं घर में, ये चिड़चिड़ाहट क्या आपको मुक्ति की ओर लेकर जा रही है? तो ज्ञान क्या काम आया?

अगर आप एक बेहतर व्यक्ति बन रहे हैं तो आपकी वो बेहतरी घर में भी साफ़ प्रदर्शित होनी चाहिए न। मैं नाटक या प्रदर्शन की बात नहीं कर रहा हूँ कि झूठ-मूठ दिखा रहे हैं कुछ कि लाओ, आज हम बर्तन धुलवा देते हैं और ये सब। नहीं। लेकिन सूरज उगता है तो रोशनी सब तरफ़ पहुँचती है, हवा बहती है तो सबको पता चलती है। आपमें अगर बेहतरी आयी है, तो देर-सबेर घर वालों को अपनेआप पता चलेगी, तब तक प्रतीक्षा करिए। ये कड़वे नीम के लड्डू उनके हलक़ में ज़बरदस्ती मत ठूँसिए।

हमें खूब प्रचार करना है, बात को बहुत दूर तक लेकर जाना है। मैंने क्या कहा है, कहाँ तक लेकर जाना है? दूर तक लेकर जाना है, मैंने ये थोड़े ही कहा है कि अपने शयनकक्ष में ही गड्ढा खोद देना है, कि शुरुआत ही कहाँ से कर दी, घर से कर दी। लोग आए, बोले, ' चैरिटी बिगिन्स एट होम (सेवा की शुरुआत घर से होती है, अंग्रेज़ी कहावत)।‘ मैंने कहा, अपनी चैरिटी खोल लो, उसको अपने घर में शुरू कर लो।

बात को दूर तक लेकर जाइए। ये थोड़ी कि बाहर वालों से बात करने में झिझक लगती है तो सारा पांडित्य पिता के सामने या पत्नी के सामने ही पूरा उड़ेल दिया, ‘देखो हम इतने बड़े पंडित हैं, बैठ जा, सुन।‘ अब और किसी पर हमारा बस वैसे ही नहीं चलता, सामने बेचारा एक निरीह मिल गया है रिश्तेदार, उसको बैठा लिया है और तीन घंटे से उसको ज्ञान दिए जा रहे हैं, दिए जा रहे हैं।

आप जानते हैं, आपके घर वालों पर भी प्रभाव कब पड़ेगा? जब उन तक मेरी बात आपसे नहीं, किसी और से पहुँचेगी। आप उन्हें मेरी बात पहुँचाएंगे, वह कहेंगे, ‘दो कौड़ी की बात है।‘ घर की मुर्गी। अगर आप वाक़ई चाहते हैं कि यह बात आपके घर वालों तक पहुँचे तो इस बात को दूर-दूर तक पहुँचाइए ताकि उनका कोई अनाम-अनजान परिचित एक दिन ये बात उन तक लेकर आए। और फिर आप कह पाएँ कि यह तुम अभी जिनको देख रहे हो, सुन रहे हो, इनको मैं तीन साल से जानता हूँ। आपके लिए (वहाँ बैठे लोगों को इंगित करते हुए) बहुत मुश्किल होगा।

मैं उन आपवादों की बात नहीं कर रहा हूँ जहाँ घर में भी सम्बन्ध मित्रता के होते हैं और जहाँ पर बातचीत करके एक दूसरे को सहारा दिया जाता है, बढ़ाया जाता है। देखिए, आमतौर पर वैसे हमारे परिवार होते नहीं। हमारे परिवार आमतौर पर ऐसे नहीं हैं, जहाँ माँ-बाप में, और बेटे-बेटी में मित्रता का रिश्ता है, नहीं होता है। हमारे जोड़े भी ऐसे नहीं होते हैं कि वो मित्रता के तल पर बनें, वो देह के तल पर बनते हैं। और यह बात आप जानते हैं।

देखिए, हम यहाँ पर एक दूसरे को सहलाने-पुचलाने के लिए तो आए नहीं है। खरी-खरी बात करनी है। हम भली-भाँति जानते हैं कि रिश्ते कैसे बनते हैं, निर्धारित होते हैं, चलते हैं आगे। आप बात को दूसरों तक पहुँचाइए और प्रतीक्षा करिए। एक दिन वो दूसरे इसी बात को आपके घर तक पहुँचा देंगे। घर में शांतिपूर्वक एक-दो बार प्रयास कर लीजिए। और पाएँ कि बात बन नहीं रही है, बल्कि जिनसे आप बात कर रहे हैं उन्हें शक हो रहा है और डर लग रहा है तो चुपचाप रुक जाइए। कोई ज़रूरी नहीं है कि आप घर में क्रांति लाएँ। आपके लिए झंझट खड़ा हो जाएगा, बस यह है।

हम और भी कई हरकतें करते हैं। हम अध्यात्म का सहारा लेकर के अपने बदले भी निकाल लेते हैं – ‘आओ हिसाब बराबर करते हैं, वैसे तो तुम मेरी बात सुनते नहीं, अब श्लोक के साथ सुनाऊँगा, बच्चू! अब तो माननी पड़ेगी ना।‘ और श्लोक भी ऐसा हो जिसमें मान लीजिए आचार्य शंकर ने सीधे ही बोल दिया हो कि जो व्यक्ति बहुत मोह में पड़ता है वह मूढ़ होता है। अब मज़ा आ गया! मूढ़ बोला, मूढ़ माने बेवकूफ़।

‘क्या कर रही हो, ज़रा इधर आना (कोई पति अपने पत्नी से), देखो यह श्लोक क्या बोल रहा है, जो व्यक्ति मोह में पड़ता है वह बड़ा बेवकूफ होता है, हा हा हा।‘ अब वह भी धार्मिक नारी हैं, वह शंकराचार्य को तो कह नहीं सकती उलट-सीधा तो खून का घूँट पीकर रह जाएँगी। वो रह नहीं जाएँगी, हिसाब उधर से भी बराबर होगा। फिर आप महोत्सव में आएँगे, ‘आचार्य जी, एक प्रश्न है….?’

आपने न्यूक्लियर फिजिक्स (परमाणु भौतिकी) पढ़ी, आप अपने पिताजी को पढ़ाने गए थे? गये थे? तो यही काहे को ले करके पहुँच जाते हो? आपने जो कुछ भी ज़िंदगी में पढ़ा, वह आप सब यार दोस्तों को पढ़ाने लग जाते हो अपने? एक बार अपना मन भी तो टटोल लिया करो न, चाहते क्या हैं हम। हम सब के घरों में जो हो रहा है, वह घर तक सीमित नहीं है न। हमारे मन पर हो, घर वालों के मन पर हो, सबके मन पर बहुत बड़ी ताकतों का प्रभाव है। मैं बार-बार कहता हूँ, उन बड़ी ताकतों से लड़ो न।

एक बात बताओ, अगर दिल्ली की हवा ही कुल प्रदूषित है पूरी की पूरी, तो आप अपने घर के अंदर की हवा कितनी साफ़ रख सकते हो, बताओ? आप एयर प्यूरीफायर लगा लोगे, आप पौधे रख लोगे, इस तरह के काम हम करते हैं। पर बाहर एक्यूआई है बारह सौ का — एयर क्वालिटी इंडेक्स (वायु गुणवत्ता सूचकांक) जो हवा की अशुद्धता का पैमाना होता है — बारह सौ है, होना चाहिए पचास के नीचे, आपके घर की हवा कितनी साफ़ रह सकती है।

तो उन ताकतों से संघर्ष करो जो हवा को ख़राब कर रही हैं, अपने घर वालों से संघर्ष करके क्या मिलेगा। बार-बार जाकर के बोलोगे, ‘पिताजी, आपने घर का माहौल माने घर की हवा बहुत ख़राब कर रखी है। क्यों? आप बड़ा एयर प्यूरीफायर नहीं ला रहे, यह नहीं कर रहे, वह नहीं कर रहे। तुमने जो बोला उसमें आंशिक सत्य हो सकता है, लेकिन ज़मीनी बात तो ये है न कि वो जो घर में भी माहौल ख़राब है, वह माहौल ख़राब कहीं और से हो रहा है।

वो जो मूल समस्या है उससे संघर्ष करने में साथ दो, घर वालों के ही विरुद्ध संघर्ष करने लग गए तो अपनी सारी ऊर्जा घर में ही ख़राब कर दोगे। और घर ऊर्जा ख़राब करने में बहुत सक्षम होता है। अगर जीवन में आगे बढ़ना हो तो एक काम कभी मत करना, घर में अपनी ऊर्जा और समय ख़राब मत करना। घर में सहज, शांत रिश्ते रखो। अगर घर में कलह-क्लेश है तो आप ज़िंदगी में बाहर कुछ भी नहीं कर सकते। बात से सहमत हो रहे हैं या नहीं?

जिनसे आपके पुराने रिश्ते होते हैं न, वो आपको इतनी गहराई से चोट दे सकते हैं कि उस चोट से उबरने में ही आपकी सारी ऊर्जा बह जाएगी। तो घर को रणभूमि मत बनाओ। लड़ने के लिए हमारे पास हज़ारों अन्य ज़्यादा महत्वपूर्ण मोर्चे हैं, हम लड़ेंगे वहाँ पर। अपनी पत्नी और माँ से लड़कर हमें कुछ नहीं मिलना है।

मैं कोई जवाब दे पाया हूँ या नहीं स्पष्ट हो रही है बात?

प्र: घर वालों से ही शुरुआत नहीं करना चाहिए। मैंने जो आपके और वीडियोज़ देखे हैं, उसमें भी आपने ये बात कही है। तो कहाँ से शुरुआत करी जाए? क्योंकि कुछ हफ़्तों पहले आपका एक वीडियो आया था तो उसमें आप एक तरह से डाँट रहे थे हमें, हम जो आपको फॉलो (कहे अनुसार चल रहे हैं) कर रहे हैं कि हम संस्था का जो काम है, या जो मेसेज (संदेश) है, वो आगे तक नहीं ले जाते हैं उतना ज़्यादा।

जैसे मैं अभी कोचिंग में पढ़ता हूँ, तो मैं बच्चो तक वो मेसेज ले जाने की कोशिश करता हूँ, पर बहुत छोटे परिमाण में। जैस उदाहरण दूँगा तो कल भी आप कह रहे थे कि वेदान्त कुंजी है जिससे कई ताले खुल जाते हैं। पर ये सब चीजें हैं, तो ये मेसेज मैं पहुँचाने की कोशिश करता हूँ। मुझे पता है कि जैसे मैंने अभी कहा कि जो आधार होता है बचपन मे, जो ले डाउन (निर्धारित) हो जाता है, वो ज़रूरी है कि एक सही तरह से हो जाए तो बच्चों के लिए एक अच्छा अवसर है। पर तब भी जैसे वो सम्मान तो देते हैं उस बात को पर उतना वो उसको अपना नहीं पाते। वो आगे चले जाते हैं, कि सर आप बताइए कॉलेज में कैसा था, गर्ल फ्रेंड्स (महिला-मित्र) कितनी थीं वगैरह...

आचार्य प्रशांत: बीज बिखेरते चलो। हमें नहीं मालूम कौनसा बीज जड़ पकड़ लेगा। बीज डालते चलो। ये जो नए विचार होते हैं न, इनमें बड़ी जान होती है। एक बार किसी के दिमाग में आ गया, फिर हो सकता है कि बहुत भारी वृक्ष बने। उसके दिमाग में विचार डालो तो सही।

फ्रेम ऑफ़ रेफरेन्स (निर्देश तंत्र), तुम जहाँ हो वहाँ से तुम्हें लग रहा है सूरज चल रहा है। जो सूरज पर बैठ गया, उसको लगेगा पृथ्वी चल रही है। जड़ पदार्थों के सारे नियम, एव्हरी एक्शन हैज एन इक्वल एंड अपोज़िट रिएक्शन (हर क्रिया की बराबर और उल्टी प्रतिक्रिया होती है), ये काम जड़ पदार्थ करते हैं। ठीक वैसे जैसे अगर तुम किसी को घूसा मारोगे, वो भी पलट के तुमको घूसा मार देगा। हम इसमें उदाहरण सिर्फ़ गेंद और दीवार का ही क्यों लेते हैं?

हम सिर्फ़ यही उदाहरण क्यों लेते हैं कि आप अगर गेंद मारोगे दीवार पर तो दीवार से गेंद वापस आएगी, रिएक्शन (प्रतिक्रिया)बराबर का होगा। इसमें उदाहरण दो जड़ व्यक्तियों का क्यों नहीं लेते? क्योंकि न्यूटन्स लॉज़ , मटीरियल लॉज़ (पदार्थ के नियम) हैं, और हममें से ज़्यादातर मटीरियल (पदार्थ) लोग हैं। और अगर हम लोग मटीरियल लोग हैं तो वो नियम हम पर भी लागू होते हैं। मैं किसी को घूसा मारूँगा, वो मुझे घूसा मार देगा।

तो ये बातें उनके दिमाग में डालते चलो, सोलह-सत्रह साल के होंगे, बड़ी महत्वपूर्ण उम्र है। ये बात दिमाग में आयी नहीं कि अगर कोई आपको मार रहा है और आपने पलट कर मार दिया, तो आप गेंद और दीवार से अलग कुछ नहीं। फिर पता चलेगा कि चेतना क्या चीज़ होती है।

चेतना वो चीज़ होती है जो प्रतिक्रिया करने के लिए विवश नहीं होती।

उस पर गेंद और दीवार का किस्सा नहीं लगता। वहाँ कुछ और भी हो सकता है। किसी ने आपको घूसा मारा, आप कुछ और भी कर सकते हैं, कुछ भी कर सकते हैं, मालूम नहीं क्या करेंगे, आप जानें। चेतना के बारे में कोई पूर्वानुमान लगाया नहीं जा सकता, गेंद के बारे में लगा सकते हैं, दीवार के बारे में लगा सकते हैं।

प्रोजेक्टाइल मोशन (प्रक्षेप्य गति)। मैंने यहॉं से फेंक के मारा, मुझे पहले से पता है वो कहाँ जाकर गिरेगा। ये बात आप साधु के बारे में नहीं बोल सकते हैं, यहाँ से चला है तो कहाँ जा कर गिरेगा। कहीं भी जा सकता है, "रमता जोगी बहता पानी", उस पर प्रोजेक्टाइल मोशन के नियम मत लगा देना। लेकिन एक कॉरपोरेट एम्पलॉई पर यह नियम बिलकुल लगा सकते हो। इतने बजे घर से निकला है, इतना एंगल (कोण), ये रास्ता पकड़ेगा और ठीक जाकर दफ़्तर में ही गिरेगा। तो प्रोजेक्टाइल मोशन कॉरपोरेट एम्पलॉई पर लगता है, साधु पर नहीं लगेगा। वहाँ तो, बहता पानी। कुछ पता नहीं कहाँ जा सकता है। तो फिज़िक्स तो बहुत-बहुत मज़ेदार चीज़ है लोगों तक अध्यात्म लाने के लिए, वहाँ पर करो काम। घर वालों को छोड़ो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories