पूर्णता मुखर मौन है; तुम्हारी सारी कहानियाँ अपूर्णता की हैं || आचार्य प्रशांत, ज़ेन पर (2014)

Acharya Prashant

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पूर्णता मुखर मौन है; तुम्हारी सारी कहानियाँ अपूर्णता की हैं || आचार्य प्रशांत, ज़ेन पर (2014)

एंटरिंग द फ़ॉरेस्ट ही मूव्स नॉट ऑन द ग्रास

एंटरिंग द वाटर ही मेक्स नॉट अ रिप्पल

~ जेनरिन कुशु

वक्ता: यही जीवन जीने का तरीका है। एक कविता है, बड़ी खूबसूरत है, जो बिलकुल ऐसे ही है कि किसी के कमरे में प्रवेश करना हो और चाहे किसी के दिल में, घुसो ऐसे कि कदमों से आवाज़ न हो। ये अनुवाद है, अंग्रेजी की कविता है और यही जीवन जीने का मूल अदब भी है। जियो यूँ कि जो जैसा था, वो वैसा ही रहा आए।

जस की तस , धर दीन्हीं चदरिया।

कुछ ख़राब नहीं कर रहे हैं, कुछ छेड़ नहीं रहे हैं। घुस गए पानी में, जो करना था कर भी लिया, पानी को छेड़ा नहीं। जीवन जैसा चल रहा था, उसे वैसे चलने ही दिया। अपने होने के कोई चिन्ह, कोई निशान नहीं छोड़े।

समझ रहे हैं ना? समझिए। जैसे कुछ उड़ रहा हो आसमान से, तो उड़ भी गया, निशान भी नहीं छोड़ें, गंदा भी नहीं किया। खुद उसको भी नहीं पता कि कहाँ से उड़ गया था। अगली बार उड़ना चाहे, तो खुद भी नहीं जान सकता, दूसरों की तो बात ही छोड़िये। “*एंटरिंगद फारेस्ट, मूव नॉट अ ब्लेड ऑफ़ ग्रास*। अब ये बात, जो हमारी साधारण जीवन दृष्टि है, उसके बड़े विपरीत जाएगी क्योंकि हमको तो कुछ इस तरह बताया गया है कि समय की रेत पर अपने कदमों के निशान छोड़ जाओ, और हम इस बात को बड़ा महत्वपूर्ण समझते हैं। इसी में हम अपना गौरव पाते हैं ना कि जाने से पहले दुनिया पर अपने निशान छोड़ जाऊँगा? जिन्होंनें जाना है, संतो ने, साधकों ने, उन्होंने कहा है, ‘’ऐसे मिटो, ऐसे मिटो कि तुम्हारा कोई निशान बाकी न रहे। पूरे ही मिट जाओ।’’

श्रोता: निशान बाकी न रहे से मतलब क्या है सर? कबीर को सब लोग जानते हैं, तो उनका निशान तो एक तरह से बाकी है।

वक्ता: दूसरों के मन में चाहे जो बैठा रहे, कबीर अपना कुछ नहीं छोड़ना चाहते। बुद्ध के लिए कहा गया: गते गते पारगते स्वाह:। गया, गया ऐसा गया कि उसका कुछ भी नहीं बचा, सब स्वाह: हो गया।

श्रोता: कुछ भी नहीं बचा? ऐसे तो किसी का भी कुछ भी नहीं बचता?

वक्ता: हम सब का बहुत कुछ बचता है। किस अर्थ में बचता है कि हम लगातार इस कोशिश में हैं कि कुछ बचा रहे। लगातार इस कोशिश मे हैं! और इसी कारण हम अपने बहुत सारे कर्मफल पैदा भी कर के जाते हैं। एक कबीर हैं, एक बुद्ध हैं, वो नए कर्मफल पैदा नहीं करते। उनके कर्म ऐसे होते हैं कि उनके तो धुलें ही, दूसरों के भी धुल जाएँ। वो कोई नई रेखा नहीं खींचेंगे, वो पुरानी रेखाओं को भी साफ़ ही करेंगे। तो कबीर ने कहा, बहुत कुछ कहा, और कबीर ने जो कहा वो जन मानस के स्मृति में भी बैठा हुआ है। पर जो कबीर ने कहा, खुद आप कबीर से भी पूछिए तो उनकी स्मृति से न निकला और उनकी स्मृति में न बैठा होगा, पहली बात। दूसरी बात, जिसकी स्मृति में कबीर की बातें जाएँगी, वो उसको स्मृति से मुक्त ही करेंगी। तो दूसरे का भी कर्मफल कबीर काट ही रहे हैं।

श्रोता: तो सर, निशान छोड़ने का मतलब है, कर्म नहीं छोड़ना?

वक्ता: निशान छोड़ने का अर्थ यह है कि आपने एक ऐसी श्रंखला शुरू करने की कोशिश की जो चलती ही रहे, चलती ही रहे। चलती सिर्फ़ अपूर्णता रहती है, उसे पूर्ण होना है तो वो समय में आगे बढ़ती रहती है। उसे अभी कुछ चाहिए, तो अपूर्णता आगे बढ़ेगी। कबीर कोई अपूर्णताएं नहीं छोड़ के गए हैं। कबीर से जो छूटा भी है, वो दूसरों में भी जो अपूर्णता है, उससे उन्हें मुक्त कर रहा है। वो दूसरों के भी कर्मफल काट रहा है, नए नहीं पैदा कर रहा। समझ रहे हो?

श्रोता: बाकी लोग जो छोड़ जाते हैं, उससे दूसरों के कर्मफ़ल बढ़ते ही हैं?

वक्ता: और बढ़ते ही हैं। और कोशिश भी यही है, जैसे हमने कहा था कि हम उसी में अपनी बढ़ाई मानते हैं। कुछ ऐसा किया कि उसके निशान छूट गए, बैठ ही गया, घुलने का नाम नहीं ले रहा है। फिर इसीलिए हम बड़े-बड़े स्मारक बनाते हैं, अपना नाम कायम रहे। वंश वृक्ष बनाते हैं। बादशाह मर भी जाते हैं, तो कहते हैं बड़े मकबरे होने चाहिए, हम मिटें नहीं। ख़त्म भी हो गए तो, ये जो पूरी परिवार की श्रंखला है…

श्रोता: सर! बात स्पष्ट नहीं हो पा रही। विपरीत सी लग रही है।

वक्ता: ऐसे समझिए। आप हमेशा एक कहानी के मध्य में होते हो ना? अभी, इस समय यहाँ बैठे हो तो कोई कहानी चल रही होगी और आप उस कहानी के मध्य में हो। अभी यहाँ से उठोगे तो आपको कहीं जाना है, कुछ करना है, तमाम कहानियाँ हैं। जिस दिन आपकी मौत होगी, उस दिन भी आप किसी कहानी के बीच में होंगे। ठीक है? शरीर की यात्रा रुक गई, अभी बचा क्या है? कहानी तो पूरी नहीं हुई थी ना? हम सब अपनी कहानियों के बीच में, शारीरिक रूप से विलुप्त होते हैं। समझ रहे हो? एक कबीर या एक बुद्ध की कहानियाँ ही विलुप्त हो गईं। अब आप चले गए हो पर आपकी कहानी नहीं गई।

श्रोता: मतलब उन्होंने कहानी को कहानी की तरह देखना शुरू कर दिया?

वक्ता: कहानी ही ख़त्म हो गई। कहानियाँ ख़त्म ही हो गई। वो अभी जब मर रहे हैं, तो उस वक़्त वो भिखारी नहीं हैं कि उन्हें और कुछ भी चाहिए। वो उस वक़्त पूरे हैं। वो ऐसे नहीं हैं कि, ‘’अभी एक-दो दिन और जी लेता तो थोड़ा और कुछ भी कर लेता।’’ वो कहते हैं कि, ‘’काम पूरा हो गया है। आगे के लिए अब कुछ बचा नहीं है कि एजेंडा पर अभी दो-चार बातें बाकी हैं।’’

आया है सो जाएगा राजा रंक फ़कीर,

एक सिंहासन चढ़ी चले, दूजे बाँध ज़ंजीर।

तो हम जंजीर बाँध के नहीं जा रहे हैं। मृत्यु हो रही है, जो भी आया है, उसे जाना पड़ेगा। मौत हमारी भी हो रही है, पर इस मौत में, मौत जैसा कुछ है नहीं क्योंकि हमारी मौत बहुत पहले हो चुकी है। हमने अपनी सारी कहानियों को बहुत पहले रोक दिया। कुछ है ही नहीं, जिसको कहा जा सके कि उसकी मौत हो रही है। इसी कारण फिर आपकी कहावतें कहती हैं कि, ‘’ये लोग अमर हो गए।’’ अमर इसी अर्थ में हो गए कि अब मरने के लिए कुछ बचा नहीं। अमर ऐसे नहीं हो गए कि अब वो कभी मरेंगे नहीं, अमर ऐसे हो गए कि जो मर सकता था उसको उन्होंने अपने सामने ही मार दिया। जब मरने के लिए कुछ बचा ही नहीं है, तो तुम अमर ही हो। जो भी कुछ नष्ट हो सकता था, जो भी कुछ समय के दायरे में था, जिसके चले जाने की कोई सम्भावना थी, एक कबीर ने उसको पहले ही विदा कर दिया है। तो अब क्या मरेगा? मर ही गया।

मैं कबिरा ऐसा मरा, दूजा जन्म न होये।

पहले ही मर गया; जीवित मृतक है।

श्रोता: सर! एक व्यक्ति को मैंने देखा है जिन्होंने कहा था कि, ‘’अब बस! कुछ भी नहीं चाहिए। अब मैं इंतज़ार करुँगी मरने के लिये।’’ उसके बाद उनकी मृत्यु भी शान्तिप्रद थी। तो ये समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसे कैसे इंसान सोच भी सकता है? अक्सर हमें डर लगता है।

वक्ता: अभी ज़रा इस पर ध्यान केन्द्रित करिए कि उसका जीवन कैसा होता है? मौत के समय क्या होगा, क्या नहीं ये तो बहुत दूर भविष्य में है, उसको पीछे छोड़िये अभी। जीवन कैसा होगा?

ये जो जीवन होगा, यह गहरे प्रेम का जीवन होगा। इसमें ज़रा हिंसा नहीं होगी। इसमें ज़रा भी हिंसा नहीं होगी। इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे तोड़ना है। कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे अपने मन मुताबिक कोई रूप देना है। ये वो व्यक्ति है, जिसमें इतनी गहरी संवेदनशीलता है कि वो सांस भी यूँ लेगा कि अस्तित्व में कोई खलल न पहुँचे। समझ रहे हैं ना? छीना-झपटी का, ज़ोर आजमाइश का, धूम-धड़ाके का इस व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता। ये तो होगा भी, तो यूँ होगा कि पता ही ना चले कि है। हमसे बहुत हद तक विपरीत क्योंकि हमारी तो सारी शिक्षा अपनी उद्घोषणा करने की है। हमें तो जताना होता है कि हम हैं। और ये ऐसे जीएगा कि किसी को पता ही न लगे कि, ‘’हम हैं।’’ कोई विशिष्टता नहीं होगी इसमें। अब जब ये नदी के पास होगा तो कुछ अलग सा नहीं होगा कि अपनी उपस्थिति दर्ज कराए। फिर ये नदी के पास वैसा ही हो जाएगा, जैसे नदी के पास तमाम चीजें होती हैं। नदी के पास रेत होती है, नदी के पास घांस हो सकती है, नदी के पास मिट्टी होती है, नदी के पास पक्षी होते हैं, कुछ जानवर होते हैं। ये वैसा ही हो जाएगा। बिलकुल वैसा ही हो जाएगा। अपनी सारी खासियतों को पीछे छोड़ देगा। समझ रहे हैं इस बात को? और तमाम हैं इस तरह की ज़ेन कहानियाँ।

कहा गया था एक ज़ेन पेंटर से कि बांस का चित्र बनाओ। कोई बड़ी बात नहीं थी, बांस! साधारण बांस का चित्र बनाने को कहा। वो बोलता है, ‘’ठीक है, थोड़ी तैयारी कर के आता हूँ।’’ वो गया और लौटा ही नहीँ। खोज हुई उसकी, तो पता चला कि वो जंगल चला गया और वहाँ बांसों के बीच में खड़ा है। जैसे हवा चल रही है और बांस कर रहे हैं — इधर हिल रहे हैं, उधर हिल रहे हैं — वैसे ही वो भी कर रहा है। तो लोगों ने पूछा कि ये क्या पागलपन है? तो बोलता है कि जानना है, तो इनसे एक होना पड़ेगा ना? इनसे बिना एक हुए जाना नहीं जा सकता।

इसी तरीके से अभी हम कबीर की बात कर रहे थे तो कबीर का उदाहरण है कि कबीर का एक शिष्य था, तो कबीर ने उसको भेजा कि, ‘’जाओ ज़रा पास से कुछ घांस ले आओ।’’ वो घांस लाने गया, दिन भर नहीं लौटा। तो फिर उसकी खोज ली गई तो पता चला कि वहीँ खड़ा था। वापस आया, लोगों ने कहा क्या है? घांस कहाँ है? तो बोल रहा है, ‘’मैं तो घांस ‘हो’ गया था, वही बैठ रहा था, लोट रहा था। बिल्कुल करीब आ गया था घांस से।’’

ये जीवन से एक ख़ास तरह की नज़दीकी है। इसमें आपकी विशिष्टता को पीछे हटना पड़ता है। आपको दीवारों को गिराना पड़ता है। इसमें आप ये भाव कायम नहीं रख पाओगे कि, ‘’मैं कुछ हूँ।’’ ये भाव कायम रख कर तो आप जब भी जंगल में जाओगे तो जंगल का नाश ही करोगे। ये भाव कायम रख कर तो आप जब भी नदी में जाओगे तो नदी को अपने अनुरूप ही बाँधोगे और दिशा दोगे। ‘’मैं कुछ हूँ।’’ इस सब के केंद्र में तो भविष्य का मिट जाना ही है। मृत्यु के मिट जाने में भी भाव यही है कि भविष्य नहीं बचा। ये सब, सारी साधना ही यही है कि भविष्य न बचे। हमारे लिए जीवन का अर्थ है भविष्य।

जब एक कबीर कहता है कि, ‘’जीते जी गया,’’ उसका अर्थ यही होता है कि भविष्य नहीं बचा उसके लिए। हमारे लिए भविष्य रहता है, हमेशा रहता है। वही जो मैं आपसे कह रहा था कि कहानियाँ रहती हैं न हमेशा? हर कहानी अभी आगे जाएगी। कहानी भविष्य है।

जब तक भविष्य रहेगा, तब तक हिंसा रहेगी

और आप तब तक अपने केंद्र से ही दुनिया को देखोगे। आप अपने केंद्र से ही अस्तित्व में जो कुछ है उसको देखोगे और उसका दोहन करना चाहोगे, शोषण करना चाहोगे। आप कहोगे, ‘’जो कुछ भी है, वो इसलिए है कि मेरे काम आ सके।’’ जंगल क्यों है? ‘’ताकि इसका पैदावार मुझे सुख दे सके।’’ जानवर क्यों हैं? ‘’ताकि मैं उन्हें खा सकूँ और उनसे श्रम ले सकूँ।’’ दूसरे क्यों हैं? ‘’ताकि मैं उनका किसी तरीके से इस्तेमाल कर सकूँ।’’ ये अहंकार का केंद्र रहेगा। आपको इस पर बैठना ही पड़ेगा। जब तक भविष्य है, तब तक अहंकार है। जब तक भविष्य है, तब तक हिंसा है।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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