शराब की लत क्यों लगती है? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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शराब की लत क्यों लगती है? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्न: शराब की लत क्यों लगती है?

आचार्य प्रशांत: हम जिनको एल्कोहॉलिक (शराबी) कह देते हैं न, वास्तव में उनमें थोड़ी ज़्यादा अभिव्यक्त एक्सप्रेस्ड प्यास है। आम आदमी की चेतना भी प्यासी होती है लेकिन वो प्यास भी दबी-दबी रह जाती है। एल्कोहॉलिक वो है जिसे पता चल गया है कि उसे कुछ चाहिए जो मिल नहीं रहा। वो प्यासा है उसे पानी चाहिए। उसे साफ़ पानी चाहिए जो उसे मिल नहीं रहा और उसे पता चल गयी ये बात। तो वो कहीं और तलाशता है, कहता है— यहाँ नहीं मिल रहा, प्यास नहीं बुझ रही तो कुछ और क्यों नहीं आज़माकर देखें; तो वो शराब आज़माता है। चाहिए क्या उसे?

श्रोता: पानी।

आचार्य: आज़मा क्या लेता है?

श्रोता: शराब।

आचार्य: क्योंकि उसे पानी चाहिए और अपनेआप में ये शुभ बात है कि उसको पानी चाहिए। आम आदमी को तो पता भी नहीं है कि प्यास क्या होती है और पानी क्या होता है। आम आदमी तो प्यासा है और उसकी प्यास छुपी है, प्रच्छन्न है। उसी प्यास के साथ वो जीता है और मर भी जाता है; प्यासा ही पैदा, प्यासा ही जिया और प्यासा ही मरा भी। अल्कोहॉलिक वो है, जिसको बड़ी साफ़ अनुभूति होती है कि कुछ गड़बड़ है। उसे बेचैनी उठती है। जिसको आप ‘तलब’ कहते हैं, मैं उसे बेचैनी कहना चाहूँगा।

कुछ चाहिए, कुछ ऐसा चाहिए जो चेतना को ज़रा बदल दे; शराब यही तो करती है न? क्या करती है? मन को बदल देती है। चेतना की, कॉन्शियसनेस की जो हालत होती है, शराब उसको बदल देती है। बहुत बातें भूल जाती हैं, बहुत सारे बन्धन, बहुत बोझ हट जाता है, आप थोड़ा ज़्यादा उन्मुक्त अनुभव करते हो। जो बातें आप साधारण तौर पर नहीं बोल पाते थे वो शराब पीकर के आप बोलना शुरू कर देते हो। लोग उसे कहते हैं, ‘बहक गया है, बक रहा ह’ लेकिन ये बातें वो हैं जिनको वो अभिव्यक्त करना चाहता था बोल नहीं पाता था। ये बातें उसके लिए महत्वपूर्ण हैं ये छुपी हुई थीं, वो पी लेता है तो बोल देता है।

तो अल्कोहॉलिज़्म या किसी भी तरह का नशा वास्तव में एक आध्यात्मिक आपूर्ति को ही दर्शाता है, एक स्पिरीचुअल अनफ़ुलफ़िलमेंट को ही दर्शाता है कि भीतर है कुछ, जो पूर्ति माँग रहा था, पूर्ति मिल नहीं रही थी और ये बिलकुल बर्दाश्त हो नहीं रहा था कि मन वैसा ही रहे जैसा रहता है।

एक तरह से जो अल्कोहॉलिक है वो थोड़ा ज़्यादा संवेदनशील, सेंसेटिव है। आम आदमी दुनिया के लफ़डे़-झफ़ड़े बर्दाश्त कर ले जाता है; आम आदमी तनाव बर्दाश्त कर ले जाता है; आम आदमी झूठ का कारोबार, भ्रम का व्यापार बर्दाश्त कर ले जाता है। ये जो एल्कोहॉलिक है या जो अब ड्रग्स (नशीले पदार्थों) में या सब्सटेन्स (माल) में उतर आया है, ये वो है जो अब बर्दाश्त नहीं कर पा रहा। ये कह रहा है, ‘ये अभी मन जैसा है, ये मुझसे नहीं झेला जा रहा है इसको हटाओ, इसको हटाओ।’ और उसको हटाने का तरीका क्या है? एक इन्जेक्शन लगा लो न, या एक गोली खा लो; कोई भी चीज़ हो सकती है, या शराब पी लो।

वो शराब पीने से क्या होता है? मन की हालत हटी, थोड़ी देर के लिए ही सही, निजात मिली। थोड़ी ही देर के लिए सही, मुक्ति तो मिली न। उसे मुक्ति चाहिए, उसे क्या चाहिए? शराबी को मुक्ति चाहिए। तो शराब छोड़ने का तरीका भी हमें पता चल गया। शराबी को जो चाहिए, वास्तव में उसको दे दो, शराब अपनेआप छूट जाएगी। आध्यात्मिक मुक्ति चाहिए उसको, वो उसको मिल गयी तो अब शराब का करेगा क्या? मिल गयी तो करेगा क्या?

उसको अगर पहले ही अध्यात्म मिल गया होता तो उसने कभी ड्रग्स को या अल्कोहल को हाथ लगाया ही नहीं होता। पर ये उसके जीवन की विडम्बना थी कि जब वो जवान था या छोटा था, उस समय उसे कोई मिला नहीं जो उसे सच्चे अध्यात्म में प्रवेश करा दे, इधर-उधर के मिले बहुत लेकिन कोई...। जैसे ही सच्चे अध्यात्म से ताल्लुक बैठता है, वैसे ही नशा छूटने लगता है।

वास्तव में, धर्म नशा छुड़ाने का सबसे कारगर उपाय है।

लेकिन हम तो मानते हैं —जैसा कि मार्क्स ने हमें बता दिया था कि— धर्म ही नशा है। धर्म नशा नहीं है; धर्म नशा छुड़ाने की सबसे उपयुक्त औषधि है। किसी भी तरीके से आपका नशा न छूट रहा हो, आप अध्यात्म में प्रवेश कर जाएँ, नशा छूटेगा-ही-छूटेगा, क्योंकि मन तृप्त हो जाएगा। मन तृप्त हो गया अब शराब का क्या करेगा?

नशा कोई एक ही तरह का थोड़े ही होता है। हम उसको तो कह देते हैं कि नशे में है जिसके सामने बोतल हो, या जिसके सामने कोकेन हो, अफ़ीम हो, हेरोइन हो, कुछ हो— भाँगा, गाँज, धतूरा, कुछ है, तो उसको हम बोल देते हैं— ये नशा करता है। हमने अभी कहा कि इस नशे का इलाज अध्यात्म है। अब मैं बात को थोड़ा व्यापक करके कह रहा हूँ कि हर तरह के नशे का इलाज अध्यात्म है।

‘पैसा कमाना है’,ये क्या है?

श्रोता: नशा।

आचार्य: ये नशा नहीं है? ‘एक’ दुकान है मुझे ‘चालीस’ करनी है, ये नशा नहीं है? चुनाव लड़ना है, सांसद से आगे मिनिस्टर (मंत्री) भी बनना है, ये हवस नहीं है? या बस जिस्म की हवस ही हवस होती है? वो भी नशा है। ये सब नशे-ही-नशे हैं। और जितने भी तरीके के नशे हैं, इन सब की काट एक ही है—

चाहे पैसे का नशा हो, चाहे ताक़त का नशा हो, चाहे शराब का नशा हो, चाहे अज्ञान का नशा हो, माया का नशा हो, देह का नशा हो, अहंकार का नशा हो— इन सब की काट बस अध्यात्म है।

तो हमें अध्यात्म की परिभाषा ही मिल गयी। क्या है? नशा उतारने का तरीका। और सामान्य चेतना क्या है, जिसको हम कहते हैं नॉर्मल कॉन्शियसनेस ? नशे की अवस्था।

हर सामान्य आदमी नशे में है। नशा उतरा है तो बस उनका जो आध्यात्मिक हो गये, बाकी पूरी दुनिया नशे में है। किसी को खुशी का नशा है, किसी को गम का भी नशा है। गम बहुत बड़ा नशा होता है! देखा है न कितनी गमगीन गज़लें सुनते हैं? जब जाम छलकता है साथ में गमगीन गज़ल होनी चाहिए। गम का भी बड़ा नशा है।

प्र२: अध्यात्म का नशा हो सकता है?

आचार्य: हो सकता है अगर नकली हो। जो भी चीज़ नकली है वो नशा बनेगी ही। बल्कि ये कह दो कि नकली ही नशा है, भ्रम ही नशा है। बिलकुल ठीक कहा है, ‘अध्यात्म अपनेआप में बहुत बड़ा नशा बन सकता है।‘ वास्तव में, इसी अध्यात्म के लिए मार्क्स को कहना पड़ा था ”रिलीजन इज़ द ओपियम ऑफ़ मासेज़” (धर्म जनता के लिए अफ़ीम है)।

नकली धर्म जहाँ होगा, वो नशा बन जाएगा। नकली धर्म बहुत बड़ा नशा है।

प्र३: पता कैसे चलेगा ये (धर्म) नकली है, (या) ये असली है?

आचार्य: ‘दुख बढ़ रहा है कि कट रहा है’, बस ये एक ही है। धर्म की कोई आवश्यकता नहीं है अगर दुख ही न हो। भ्रम, संशय, अन्धेरा, अज्ञान, दुख, उलझन न हों, तो क्या करना है धर्म का? तो गलत जी रहे हो जीवन, उसका भी लक्षण एक ही है, क्या? भ्रम, उलझन, दुख। गलत जीवन का और कोई चिह्न होता नहीं, यही है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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