प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मेरा क्वेश्चन रोड रेज (सड़क क्रोध) के संदर्भ में था। अभी हाल में मुंबई में एक घटना हुई थी। जिसमें एक परिवार साथ में ट्रैवल कर रहा था, और उस व्यक्ति के साथ एक छोटी सी बहस हो गई ओवरटेक को लेकर के, और उनके परिवार के सामने उनको पीट-पीटकर मार दिया गया। उनकी पत्नी का भी अबॉर्शन हो गया। बहुत ही दुखद घटना थी।
तो मैं थोड़ा जानना चाहता था कि इसके पीछे की मेंटेलिटी (मानसिकता) और साइकोलॉजी (मनोविज्ञान) क्या है? मतलब इतनी छोटी सी बात पर एक छोटे से स्क्रैच या ओवरटेक को लेकर के लोग जान एक-दूसरे की लेने पर क्यों आतुर हो जाते हैं? ये इस तरह की घटना हैं। ये तो एक घटना है, काफ़ी कुछ सुनने को मिलती है इस तरह की घटनाएँ।
और एक जेनरली (सामान्यत:) इसके पीछे क्या मेंटेलिटी है, वो थोड़ा जानना चाहता था। और दूसरा कि अगर हम इस तरह के सिचुएशंस (परिस्थितियों) में कभी लैंड (उतर जाएँ) कर जाएँ, तो हमें कैसे डील करना चाहिए? किस लेवल तक एस्केलेट (आगे बढ़ाना) करना चाहिए? कई बार लोग बोलते हैं कि किसी की भी गलती हो, माफ़ी माँग लो, पैसे देकर निकल जाओ।
हाउ डू वी डील विद दिस सिचुएशन व्हेन पीपल आर सो एंग्री? (जब लोग इतने गुस्से में हों, तो हम इस स्थिति से कैसे निपटें?) छोटी सी बात को लेकर के, और मेंटेलिटी क्या है इसके पीछे?
आचार्य प्रशांत: छोटी सी बात को लेकर के एंग्री नहीं हैं, छोटी सी बात तो टिपिंग पॉइंट है। एक पंद्रह-अठ्ठारह साल पहले 'मैलकम ग्लैडवेल' (लेखक) की किताब आई थी ‘द टिपिंग प्वाइंट।’ उसी से संबंधित उनकी अभी साल-छ: महीने पहले फिर से एक और आई है ‘रिवेंज ऑफ द टिपिंग प्वाइंट’ करके शायद। उसने उन्होंने उदाहरणों के द्वारा, तथ्यों के द्वारा ये बड़े सलीके से दिखाया था कि कैसे जो घटनाएँ आप सोचते हो कि अभी घट रही हैं, वो अभी घट नहीं रही हैं, वो बस प्रेसिपिटेट (तलछट, अप्रत्याशित) हो रही हैं। जैसे एक सुपरसैचुरेटेड सॉल्यूशन (अतिसंतृप्त घोल) होता है। उसको ज़रा सा हिला दो, तो क्रिस्टलाइज हो जाता है। ये थोड़े ही कहोगे कि मेरे हिलाने से उसमें क्रिस्टल बन गए।
जिसको आप बोलते हो न द लास्ट स्ट्रॉ ऑन द कैमल्स बैक (ऊँट की पीठ पर आखिरी तिनका), तुमने उस पर इतना लाद रखा था, इतना लाद रखा था कि वो मरने को तैयार था। फिर तुमने उस पर जाकर के बस एक तिनका और रख दिया, तो वो बिल्कुल धराशायी हो गया। तिनके ने थोड़े ही ऊँट को ध्वस्त कर दिया।
आपने कहा कि इन स्थितियों को कैसे अवॉइड (टालें, अनदेखा) करें? तुम जिन शहरों में रह रहे हो न, कोशिश करो कि उन शहरों को ही अवॉइड कर सको। आपकी जो शहरी ज़िंदगी है, आमतौर पर मेट्रो में ही ये ज़्यादा सब सुनने को आता है रोड रेज। है न? तो आपकी जो अर्बन लाइफ़ है वो इतनी डीह्यूमनाइज्ड (अमानवीय) है कि उसमें आपके लिए कोई डिग्निटी नहीं होती, कोई गरिमा नहीं होती। आपको पता होता है कि लगातार आपके भीतर से आपकी ह्यूमेननस (मानवीयता), आपकी मानवता ही छीनी जा रही है। हम एक तरह से सब अर्बन इंसेक्ट्स (शहरी कीड़े) हैं। इंसेक्ट्स की कोई डिग्निटी (गरिमा) होती है? आपको कितना विचार करना पड़ता है किसी कीड़े को मार देने में? कुछ भी नहीं। है न?
वही हमारी हालत है जिस तरीके की, विशेषकर भारत में, क्योंकि आप अभी मुंबई की बात कर रहे हैं। ये सब दिल्ली में भी होता है बहुत; जैसी हमारी ज़िंदगी है हम लगातार भरे होते हैं क्रोध से, क्षोभ से, इंडिग्नेशन (रोष) से। और वो चीज़ सड़क पर और ज़्यादा हो जाती है उसकी कई वज़ह हैं।
प्रमुख वज़ह ये है कि आमतौर पर आप जिस वज़ह से सड़क पर निकले ही हो न, वो वज़ह ही गलत है। आप सड़क पर होते ही गलत वज़ह से हो। भीतर-ही-भीतर कुछ आपके बड़े कष्ट में होता है और बड़े क्रोध में होता है।
ऐसा नहीं कि किसी ने आपका बंपर छू दिया पीछे से, तो इस वज़ह से आपको बहुत गुस्सा आ गया। आप बहुत पहले से गुस्सा थे। आप गुस्सा थे कि आप सड़क पर हो ही क्यों? आप बहुत क्रोध से भरे हुए थे कि आप क्यों नहीं लात मार सकते हो इस ज़िंदगी को। और आप अपनी बेबसी पर नाराज़ थे कि छोटे से लालच के पीछे आप कैसी ज़िंदगी बिता रहे हो? बिता नहीं रहे हो, रोज़ यही करते हो। सुबह आठ बजे से नौ बजे तक सड़कों को देखो, और शाम को सात से आठ तक।
अगर कोई मुझसे पूछे मेरी ज़िंदगी में कौन-सी बातें हैं आनंद की। तो कहूँगा कि एक बात ये है कि मैं सड़कों पर रात के बारह बजे के बाद निकलता हूँ, अक्सर रात के एक-दो बजे के बाद। और जब किसी वज़ह से मुझे ये दफ़्तर वालों के समय में सड़क पर निकल जाना पड़ जाता है ऐसा दो-चार, छ: महीने में एक बार ही होता है; तो अपने काम के प्रति मेरा अनुग्रह मेरा ग्रेटिट्यूड और बढ़ जाता है। मैं कहता हूँ इससे बड़ी भेंट, उपहार, अनुग्रह, नियामत हो नहीं सकती थी कि मुझे इस तरीके की गुलामी से बचा दिया।
अपने कॉर्पोरेट जीवन में मेरी दो नौकरियाँ गुड़गांव की थी। जो पहली थी सॉफ्टवेयर वाली, उसमें भी मैं कुछ दिन गाज़ियाबाद से गुड़गांव गया हूँ। फिर मैंने कहा, ये नहीं होगा। तो एलुमिनस के लिए आईआईटी ये सुविधा देता है कि आपको अगर उपलब्ध होगा, तो हॉस्टल में मिल जाएगा। तो फिर मैंने वहाँ पर जाकर रहना शुरू किया। वहाँ से गुड़गांव जाता था और उसके बाद फिर एमबीए के बाद एक समय ऐसा आया जब मैं दिल्ली से गुड़गांव, कभी गाज़ियाबाद से गुड़गांव जाया करता था। मैं अच्छे से जानता हूँ रोड रेज क्यों होता है, ज़बरदस्त रेज मुझमें भी होता था।
और अब तो फ़िर भी सड़क चौड़ी हो गई हैं, और गुड़गांव में वो बन गया आपका पूरा डीएनडी वाला, उस समय पर बना भी नहीं था, महरौली-महिपालपुर यही झेलता था हर आदमी।
ये कोई रहने की जगह है? ये कोई ज़िंदगी है? ये कोई काम है? बस हमने अपने ऊपर लायबिलिटीज पाल ली हैं, तो इनको लात नहीं मार सकते। इतनी सी है बात।
एक इंसान के ऊपर से वो सब लायबिलिटीज बोझ हटा दो जो उसने बेहोशी के कुछ पलों में पाल लिए, उसके बाद देखो कि वो अपनी नौकर में बचा रहता है कि रिजाइन करता है? नौकरी हो, चाहे अपना पेशा हो, व्यापार हो, कुछ भी हो। ऐसा थोड़े ही है कि जो लोग अपना व्यापार चला रहे हैं, वो कोई बेहतर स्थिति में है। एक-से-एक गंदे धँधे हैं। गंदा है पर धँधा है।
इसी बात का हमें बहुत ज़बरदस्त गुस्सा है भीतर-ही-भीतर, गुस्सा हमें खाए जा रहा है। क्यों ज़िंदगी में हमने ऐसे फैसले कर रखे हैं, क्यों ऐसे बँधन पाल रखे हैं कि हमें इतनी लानतें बर्दाश्त करनी पड़ती हैं। हर दिन हमारी गरिमा पर, हमारी डिग्निटी पर चोट करता है, हमारे मुँह पर ज़िंदगी रोज़ जूते मारती है, और हम उसको झेले जाते हैं।
क्यों झेले जाते हैं? क्योंकि हम रिस्पांसिबल लोग हैं, हम ज़िम्मेदार लोग हैं। हम ऐसे ज़िम्मेदार लोग हैं जिन्हें ये भी नहीं पता कि ज़िम्मेदारी का अर्थ क्या होता है? रिस्पांसिबिलिटी माने क्या, हमें पता नहीं। हमें समाज ने बता दिया, हमें लोकधर्म ने बता दिया ऐसा करना तो तुम्हारी ज़िम्मेदारी है, तो हम करने लग जाते हैं।
किसी धार्मिक जगह के बारे में मैं किसी यात्री का विवरण पढ़ रहा था आज। वो बोले — मैं तो चला गया था ऐसे ही, और वहाँ ऊपर थोड़ा जाना होता है लगभग हज़ार सीढ़ी, थोड़ा। बोले — वहाँ बोला गया है कि कम-से-कम पाँच-सौ सीढ़ी तक तो फ़लानी चीज़ है, उसको ऐसे उठाकर के ले जाना होगा। मुझे तो पता भी नहीं था कि ये उठा के ले जाना है। मैं तो तीर्थ से ज़्यादा पहाड़ देखने चला गया था। मैंने कहा — इतने लोग जा रहे हैं कुछ होगा। अब ये सिर पर ढ़ो रहे हैं, जानते भी नहीं कि क्यों ढ़ो रहे हैं।
धर्म से सच पूछो, तो कोई लेना-देना ही नहीं। भीड़ के पीछे-पीछे फँस गए। कभी ऐसे ढ़ोते हुए जा रहे हैं बगल में, कोई आए इनको कंधा मार दे, तो रोड रेज होगा कि नहीं होगा सीढ़ियों पर बताओ? क्योंकि दोनों फ्रस्ट्रेटेड (निराशा से भरे हुए) हैं अपनी ज़िंदगी से, अपने फैसलों से, अपनी हस्ती से।
ऐसा नहीं कि वो जिसने कंधा मार दिया आप उसके दुश्मन हो, सच्चाई तो ये है कि वो आपका भाई है। वो भी उसी सड़क पर है जिस सड़क पर आप हो। वो भी वही ज़िंदगी जी रहा है जो आप जी रहे हो। और दोनों बेशाख्ता गुलामी की ज़िंदगी जी रहे हो। दोनों ही उस सड़क पर होना नहीं चाहते थे, पर हैं, और दोनों इसी वज़ह से बहुत-बहुत नाराज हैं।
एक सवाल है मेरा आपसे। अगर आप उस सड़क को एंजॉय कर रहे होते और कोई आकर के आपकी गाड़ी में जरा डेंट मार जाता, तो आप लड़ने जाते क्या? आप कहते — चिल ब्रो। तू भी मौज़ कर, मैं भी मौज़ कर रहा हूँ। दोनों इस सड़क पर मौज़ करने के लिए हैं। पर न तो वो सड़क पर मौज़ कर रहा है न आप कर रहे हो। दोनों ही बहुत ज़्यादा भरे हुए हो रोष से। हैं न? फ्रस्ट्रेशन-फ्रस्ट्रेशन (निराश)।
आप नाच रहे होते हो, मस्त नाच रहे हो; कोई जगह है नाचने की, कोई बात है नाचने की, उत्सव है जिसमें आपको सचमुच दिली खुशी है। और नाचते-नाचते कई बार होता है कि किसी का कंधा आपके कंधे में भिड़ गया, आप उसको मारना शुरू कर देते हो?
अभी कुछ दिन पहले सब लोग तुम यहाँ नाच रहे थे। किसी का हाथ, किसी का पाँव, किसी का कंधा छू ही जाता होगा। तो क्या करा? मॉब लिंचिंग करी उसकी? मारा? कितनों को मार दिया? किया क्या? क्यों नहीं किया? क्योंकि खुश हो। अब ये कोई बड़ी बात नहीं कि किसी का थोड़ा छू गया, तो बोले — ठीक है यार! तू भी मौज़ कर, हम भी मौज़ कर रहे हैं। हम यहाँ पर लड़ने थोड़े ही आए हैं, हमें तो मौज़ करनी है।
यही वज़ह है कि जहाँ एकदम थका हुआ, जमा हुआ, घुटन भरा, धुँआ भरा ट्रैफिक होता है, वहाँ रोड रेज की संभावना और बढ़ जाती है।
आ रही है बात समझ में?
हम ज़िंदगियां ही ठीक नहीं जी रहे, हम बंदे ही ठीक नहीं हैं। आप जहाँ हो, वहाँ आपको होना ही नहीं चाहिए। पर आप कहते हो — रहूँगा तो मैं यहीं पर। करूँगा भी वही जो कर रहा हूँ। जैसे फ़ैसले लिए हैं वैसे ही फ़ैसले और लेता जाऊँगा। रोड रेज कम करो, रोड रेज कम करो। कोई एनजीओ वगैरह बनाकर के पदयात्रा निकाल लो सब सफ़ेद कपड़ों में, नो रोड रेज, मोमबत्ती लेकर के। उससे क्या होगा? ये सतही इलाज है। ये ऊपरी झुनझुनें हैं, इनसे क्या बदलना है? बदलना तब है जब ज़िंदगी की नींव बदले।
वही शहर, वही ज़िंदगी, वही रिश्ते, वही कामनाएँ, वही प्रायोरिटीज़ (प्राथमिकताएँ), वही भविष्य, वही उम्मीदें, वही योजनाएँ। एक जॉब से फ्रस्ट्रेट हो जाते हो, तो बगल की कंपनी में चले जाते हो। तुम्हें क्या मिल जाएगा?
रोड रेज तो दिखाई पड़ जाता है सड़क पर पब्लिक है, कोई फ़ोटो खींच लेता है। ये जो घर पे बच्चे पीटे जाते हैं, और बीवियाँ पीटी जाती हैं, और आजकल मर्द भी पीटे जाते हैं, वो तो पता भी नहीं चलता न। फ्रस्ट्रेटेड बाप लौटकर के आया है रात में सवा नौ बजे काम से। और बेटा है वो भी फ्रस्ट्रेटेड अपने स्कूल से छोटा पाँच-छ: साल का। उसने बोल दिया — अरे! संडे वाले पापा आज जल्दी आ गए क्योंकि रोज़ आया करते हैं वो ग्यारह बजे। सवा नौ बजे जल्दी है। और संडे वाले पापा बोल रहा है क्योंकि वो संडे को ही दिखते हैं उसको। वो ग्यारह बजे आते हैं तब तक ये नुन्नू सो चुका होता है। और सुबह जब तक ये जगता है, तब तक वो जा चुके होते हैं, तो उनका नाम क्या रखा है? संडे वाले पापा।
एक दिन सवा नौ बजे आ गए जल्दी। बोला — अरे! संडे वाले पापा जल्दी आ गए। और जो धो, धो, धो, धोया गया वो। वो भी तो रोड रेज ही है न! ज़िंदगी की रोड, झुन्नू का रेज।
फिर ऑफिस जाते हो वहाँ भी बात-बात में कलह हो जाती है, छोटी-छोटी बातें चुभ जाती हैं। किसी ने कुछ यूँही कह दिया बेखयाली में। बिना इस आशय के भी कि तुम्हें चोट लगे, तब भी चोट लग जाती है। क्यों? क्योंकि तुम पहले से चोटिल हो।
शरीर में किसी जगह पर घाव हो वहाँ कोई थोड़ा सा भी छू दे, तो बहुत दर्द होता है न? वो दर्द इसलिए नहीं है कि उसने छू दिया, वो दर्द इसलिए है क्योंकि पहले से घाव है। हमारा पूरा अस्तित्व ही घावों से भर गया है। कोई जरा सा छू दे, हम क्रोधित हो जाते हैं। बड़ा दर्द होता है घावों में किसी ने थोड़ा सा भी रगड़ दिया तो। ये है रोड रेज।
तुम किसी दिन सचमुच प्रफुल्लित हो, ज्वॉयफुल एकदम। पूछ तो रहा हूँ उस दिन करोगे रोड रेज क्या? बताओ। तो सारी बात इसकी है न कि खुंदक। किसके खिलाफ़? अपनी ही ज़िंदगी के खिलाफ़। पर ज़िंदगी ने तो ठेका ले नहीं रखा तुमको परेशान करने का।
तो ज़िंदगी से अगर तुमको इतनी खुंदक है, तो तुम बताओ ना कि तुमने ज़िंदगी में ऐसे फ़ैसले क्यों कर रखे हैं? और रोज़-रोज़ फ़ैसले क्यों करते जा रहे हो? क्योंकि बँधन तोड़ने का फ़ैसला तो किसी भी दिन किया जा सकता है, बँधन बचाने का फ़ैसला तो तुम रोज़-रोज़ करते हो। लालच, स्वार्थ। कभी खुद से ईमानदारी से अकेले में दो बातें न करना, पूछना नहीं कि ये जो मेरे स्वार्थ हैं ये मेरे लिए ज़रूरी भी है क्या? हम सब बहुत नाराज लोग हैं, हम सब बहुत खतरनाक हो चुके हैं। नाराज हम खुद से हैं, खुद को तो लगातार हम पीटते ही रहते हैं। कभी कोई और मिल गया, तो? उसको ही पीट देते हैं।
बहुत लोग हैं वो अब गाड़ी में हॉकी और सरिया वगैरह रखकर चलते हैं। मौका ही तलाश रहे होते हैं कि कुछ हो जाए और धमका दें। कोई कह रहा था कि जितने लोग कई बड़ी बीमारियों से अस्पतालों में नहीं मरते उससे ज़्यादा लोग सड़कों पर मरते हैं। हालाँकि उसका ज़्यादा बड़ा कारण दुर्घटनाएँ हैं। पर अगर तुम गौर से देखो, तो दुर्घटनाओं में भी क्या वही फ्रस्ट्रेटेड इंसान ज़िम्मेदार नहीं है?
उसको पता है भीतर से ज़िंदगी ठप पड़ी हुई है तो बाहर से गाड़ी एक-सौ-चालीस पर उड़ाना चाहता है। ताकि अपने आप को ये साँत्वना दे सके कि कहीं कुछ तो मूवमेंट हो रहा है। कोई मूवमेंट नहीं हो रहा, यू आर स्टक (तुम अटके हुए हो।) तुम्हारी ज़िंदगी भीतर से बिल्कुल ठप पड़ी हुई है। बाहर से गाड़ी भगाकर के क्या होगा? भीतर कुछ नहीं हिल रहा।
आपने देखा है आप जब ज़िंदगी से खुश होते हो, तो रोड रेज तो छोड़ दो, आप रैश ड्राइविंग भी नहीं करते। आपने देखा है? जब मन भरा होता है, चित्त शांत होता है, तो गाड़ी लगभग क्रूज करती है। आपके पास मौका भी होता है कि एक-सौ-चालीस कर दो, तो भी आप अपना गाड़ी को आराम से अस्सी-नब्बे बहुत हुआ तो सौ पर, जितना सड़क अनुमति दे उतना आप चलाते हो। आप भगाने के फेर में लगते ही नहीं। क्योंकि भीतर कुछ है जो अभी शांत है थमा हुआ है, तो बाहर गाड़ी भगाने का बहुत जोश आता नहीं। वो जोश रोष से आता है। रोष जितना कम होगा, गाड़ी भगाने का जोश भी उतना कम होगा।
अब अगर हम यातायात की बात कर रहे हैं लोकोमोशन की, तो जानते हो लिफ़्ट रेज भी होता है, एलिवेटर रेज। वो घुसना चाह रहा था उसको घुसने नहीं दिया। एक की लिफ़्ट में पिटाई हो गई, इसलिए नहीं कि वो सबसे अंत में घुस रहा है और जगह नहीं है। वो पहले से घुसा हुआ है उसको पीट दिया। बताओ क्यों? क्योंकि मोटा बहुत था। उसकी वज़ह से वैसे लिफ़्ट की कैपेसिटी थी आठ लोगों की उसकी वज़ह से सात या छ: ही घुस पा रहे थे। जब घुसे दरवाज़ा बंद कर दे तो लिफ़्ट ऐसे-ऐसे करे ओवरवेट, ओवरवेट, ओवरवेट। उसको पीट दिया लिफ़्ट के अंदर ही। कुछ हुई होगी थोड़ी-बहुत कहा सुनी।
किसी ने पहले कोई ताना मारा होगा कि ऐसे मोटे लोग हैं, तो ओवरवेट हो रहा है, तो उसने कुछ बोल दिया। चलती लिफ़्ट में पिट रहा है। बताओ ये कैसा रोड रेज है? वर्टिकल रोड, और एक मोटा उसके अंदर पीटा जा रहा है। उसको बीच में ही कहीं रोककर के जहाँ उसको जाना था अठ्ठारहवीं मंज़िल उसको दसवीं मंज़िल में ही रोककर बाहर फेंक दिया लिफ़्ट से। कि मोटे अब तू सीढ़ियों से आएगा। ये सब होता है।
कोई लिफ़्ट में कुत्ता लेकर घुस गया, उसके कुत्ते से लड़ गए। हम भीतर से बहुत बीमार लोग हैं, बहुत दुखी हैं। और जब तक हम अपने वही हठ, वही जिद, वही आग्रह पकड़े ही रहेंगे जो पकड़े हैं, तो हम दुखी ही रहेंगे।
हमें दुख देने वाला कोई बाहर का आदमी नहीं है, आपके बौस ने नहीं दुखी कर रखा है आपको, ट्रैफिक ने नहीं दुखी कर रखा आपको। आपको आपकी उस मजबूरी ने दुखी कर रखा है जो ये जानते-बूझते हुए भी कि अभी पीक ट्रैफिक है, ट्रैफिक में उतरती है। घर से चलते हो, तो पता तो होता ही है न जीपीएस बता देता है पूरा रेड, रेड, रेड, रेड, दिखा रहा है लाल है एकदम। जो रास्ता अधिक से अधिक पंद्रह-बीस मिनट का होना चाहिए था अभी सवा घंटे का है।
बताओ न कौन-सी मजबूरी है? तुम मजबूरी गिना दोगे मुझे मालूम है। फिर पूछो अपने आप से मजबूरी तो है। ज़रूरी है क्या? तब वहाँ पर फिर लड्डू आ जाएगा। कि नहीं, भविष्य के लिए कुछ लड्डू पका रखे हैं, भविष्य की कामनाएँ, प्लांस, डिजायर्स, एंबीशंस।
तुम्हें मिला क्या आज तक अपनी एंबिशन से? आज भी जहाँ तक पहुँचे हो अगर रोड रेज की बात हो रही है। तो गाड़ी होगी अगर गाड़ी होगी तो कुछ उम्र भी होगी अब तक आपकी। आज तक क्या मिल गया है एंबीशन्स पर चलकर? जो आगे की एंबीशन्स की खातिर आज अपनी ज़िंदगी को इतना नर्क कर रखा है।
अभी तो बात सिर्फ़ गाड़ी भिड़ाने की हो रही है। गाड़ी के भीतर का जो माहौल होता है न, वो बहुत टॉक्सिक होता है। जो गाड़ी के भीतर की हवा होती है वो सुपर टॉक्सिक होती है। गाड़ी के भीतर आप खासकर आपने अगर सब बंद कर रखा और एसी चला रखा है, हवा टॉक्सिक होती है।
वो जो प्लास्टिक्स होते हैं, और जो लेदर के ऊपर जो फिनिशिंग करी जाती है और जो वायर्स होते हैं, और वायर्स गर्म है उनके ऊपर जो प्लास्टिक है, वो भी कई तरीके की फ्यूम्स होती हैं, क्योंकि कई तरीके के केमिकल्स है जो गाड़ी के केबिन में हैं। और जो समय बीस मिनट का हो सकता था, वो एक घंटा बीस मिनट का हो रहा है। और खिड़की खोल सकते नहीं, क्योंकि बाहर एक्यूआई सिर्फ़ छ:-सौ-छप्पन है। खुश बहुत हैं, बहुत पैसा जमा कर लिया है।
ये सारा पैसा जाएगा टॉप के ऑन्कोलॉजी स्पेशलिस्ट (कैंसर विशेषज्ञ) को, कैंसर स्पेशलिस्ट को। और जब कैंसर हो जाएगा, तो कहेंगे — देखा हम कितने स्मार्ट थे। इतना पैसा जोड़ा तभी तो अपना कैंसर का ट्रीटमेंट करा पा रहे हैं।
तुम्हें कैंसर हुआ ही क्यों है? पैसा जोड़ने की वज़ह से। ये तुम्हें नहीं बात समझ में आएगी। देखा, इतना पैसा जोड़ा तभी तो अपनी ओपन हार्ट सर्जरी करा पा रहे हैं। हार्ट सर्जरी की नौबत क्यों आई है? उस पैसे के ही कारण। ये तुम्हें दिखाई नहीं देगा।
भारत में जो बड़े शहर हैं, मैं दुनिया भर के बड़े शहरों की बात नहीं कर रहा; पर भारत में जो बड़े शहर हैं वो फिर कह रहा हूँ वो आपको डीह्यूमनाइज़ (वहशी बनाना) करते हैं। वो देखें हैं वो जो छोटे-छोटे चलते हैं ट्रक, मिनी ट्रक्स; जिनमें सुबह-सुबह इतनी-इतनी सेल्स होती है उनमें मुर्गे रखकर ले जा रहे होते हैं। देखें हैं? बहुत सारे ऑफिसेस की कैब्स, ब्लिक बसेस। वो सब क्या है? वो मुर्गे भी क्यों जा रहे हैं?
श्रोतागण: कटने जा रहे हैं।
आचार्य प्रशांत: और ये सब भी जो घुस-घुसकर जा रहे हैं बसों में और कैब्स में; ये काहे के लिए जा रहे हैं? कटने। मुर्गा तो एक मामले में किस्मत वाला है एक ही बार कटेगा। ये तो जाते हैं, रोज़ इनके पंख नोचे जाते हैं। इनको वापस घर भेज दिया जाता है कि घर जाओ, घर में जाकर के बेटे-बीवी को पीटो। अगले दिन फिर आ जाओ अपने पंख नुचवाने ऑफिस।
किस लालच में कि बोल पाओ मैं भी तो मेट्रो में रहता हूँ। मैं भी तो मेट्रो में रहता हूँ। बड़े शहर में रहते हूँ बड़े शहर में। हमारे नीति निर्धारक बोला करते हैं, अर्बनाइजेशन इज़ द सॉल्यूशन टू इंडियाज़ प्रॉब्लम्स। फिर आप पूछ रहे हो रोड रेज।
ज़िंदगी आप जितनी वेल्थ के पीछे बिता रहे हो न; एक दूसरा शब्द है रिचनेस और जीवन में पैसा निस्संदेह चाहिए पर रिचनेस में पैसे का बस एक सीमा तक ही योगदान होता है। ये जो रोज ढ़ाई घंटे ट्रैफिक में फँसे रहते हो इतने में दुनिया की न जाने कितनी अच्छी किताबें पढ़ ली होती, उनसे ज़िंदगी में रिचनेस आती है।
कभी सोचा है, सीटीसी आ जाती है हाथ में; उसमें कभी ये सोचा है कि ये तो कॉस्ट टू कंपनी है। सीटीई क्या है? कॉस्ट टू एंप्लॉई क्या है? तुम्हारी जो ज़िंदगी ही निचोड़ ली, जो तुम्हारा खून ही निचोड़ लिया, उसको कभी तुम कैलकुलेट करते हो?
वज़न बढ़ा जा रहा है। ज़िंदगी में समय नहीं निकाल पाते जिम भी जाने का पर वहाँ भागे जा रहे हो कि आज तो आठ ही बजे मीटिंग है, तो पहुँचना ही ज़रूरी है। अब वहाँ ये दिखाई थोड़े ही देगा कि इसकी वज़ह से तुम्हारी उम्र कितने दिन घट गई। उस ढ़ाई घंटे में तुम कुछ खेल सकते थे। खेल सकते थे कि नहीं?
और ऐसा भी नहीं है कि वेल्दी (धनी) भी हो जाओगे, रिचनेस से तो हाथ धोते ही हो, वेल्दी भी नहीं हो जाते। ये कौन-सी नौकरी है जो करके बताना कि कोई वेल्दी हुआ है आज तक? वेल्दी होना अपने आप में कोई बहुत ऊँचा ऑब्जेक्टिव है नहीं।
पर अगर तुम्हें वल्दी भी होना है तो मुझे बताओ ना ये जिन नौकरियों के पीछे ट्रैफ़िक जाम लगा होता है ये सब लोग जो सुबह-सुबह भाग रहे होते हैं जॉब करने के लिए, ये वेल्दी हो जाएँगे क्या जॉब कर-करके? वेल्दी हो जाएँगे?
इनमें से बहुतों की हालत ये होती है कि महीने के अंत में मूवी देखने के पैसे नहीं बचते। बहुतों की हालत ये होती है कि क्रेडिट कार्ड पर जी रहे होते हैं। ये वेल्दी हो जाएँगे नौकरियाँ करके? कॉस्ट ऑफ एंप्लॉयमेंट भी निकाल लिया करो। यही मत देखा करो कि पैसे कितने मिल रहे हैं। ये भी देखा करो कि तुम उसमें ज़िंदगी कितनी दे रहे हो?
बहुत लोगों को तो गाड़ी खरीदनी इसलिए पड़ती है कि उनको ऑफिस जाना है। बहुतों को गाड़ी अपग्रेड करनी पड़ती है कि ऑफिस जाना है। वो तुम कॉस्ट ऑफ एंप्लॉयमेंट में थोड़ी ही इंक्लूड करते हो कि अगर मैं नौकरी नहीं कर रहा होता, तो ये खर्चे भी तो नहीं होते। और उसमें जो मेंटल लॉस है, वो तो हम क्या ही गिने।
झुँझलाया हुआ एक जवान आदमी। जो हर समय बस झुँझलाया हुआ ऐसे गिरा हुआ है। और मैं कह रहा हूँ ये सब करके वेल्दी भी नहीं हुआ जा रहा है। बहुत सारे ऐसे खोखे होते हैं, ढ़ाबे होते हैं; उन्होंने ऐसे ही बेंच डाल रखी होती हैं। उस पर जवान लोग बैठे होते हैं खासकर फ्रेशर किस्म के। पच्चीस-सत्ताईस साल से कम उम्र के वो बैठे हुए हैं बिल्कुल फॉर्मल शर्ट पहन रखी है, फॉर्मल ट्राउजर्स, चमकदार शूज और वहाँ टाई ढ़ीली करके ये ऊपर का बटन खोलकर कह रहे हैं लगा यार! पराठा लगा बीस रुपये वाला। तुम वेल्दी भी तो नहीं हो पा रहे हो।
हाँ, बस अपने आप को ये साँत्वना दे रखी है कि मैं गुड़गांव में काम करता हूँ। गोरखपुर वाले तुम्हारे ताऊ जी की छाती चौड़ी हो जाती है, लड़का गुड़गांव में काम करता है। तो क्या करता है? लगभग वैसे ही जैसे बहुत सारे कनाडा में टैक्सी चलाते हैं, ट्रक चलाते हैं।
ये जो खुद को बेवकूफ़ बनाना है ये अक्सर उस प्रक्रिया में होता है जिसमें हम दूसरे को बेवकूफ़ बना रहे होते हैं। मैं जिन कैंपसेस से आया हूँ वहाँ पर ये बहुत चलता है दूसरों को बेवकूफ़ बनाना अपना बता-बताकर के। उदाहरण के लिए एक बहुत साधारण सा पैकेज हो डॉलर में। उसको आईएनआर में माने रुपए में बदल दो तो वो करोड़ों का हो जाता है।
आ रही बात समझ में?
बहुत साधारण सा पैकेज हो हंड्रेड-ट्वेंटी-थाउजेंड यूएस डॉलर्स, ये कोई बड़ा पैकेज नहीं होता है। पर ये कितना बन गया रुपये में? मामला करोड़ में चला गया। अब वो तुरंत फ़ोन जाएगा इटावा, बहराइच, मंदसौर, पटना — करोड़ों की लगी है करोड़ों की। करोड़ों की तो पता नहीं पर लगी है।
(श्रोतागण हँसते हैं)
और ये जाकर के किसी अमेरिका वाले से पूछो कि हंड्रेड ट्वेंटी थाउजेंड होते कितने हैं महीने का दस-हज़ार डॉलर, कितना हो जाता है? ये तो मैंने ज़्यादा बोल दिया। ये जो नए-नए वाले जाते हैं। आईआईटी वाले इनको तो पाँच-हज़ार, सात-हज़ार डॉलर मिल जाए, बड़ी बात होती है।
इतना (दोनों हाथों को फैलाकर बताते हुए) तो तुम वहाँ पर टैक्स देते हो सबसे पहले। भारत की तरह नहीं है कि इधर-उधर कुछ छुपा लोगे। बचता क्या है? पब्लिक ट्रांसपोर्ट इतना है नहीं हर आदमी गाड़ी रखता है। गाड़ी खरीदोगे, रेंट दोगे। कुछ नहीं बचना।
पर हम धोखा देने में माहिर होते हैं हम वेल्दी हो रहे हैं, हम वेल्दी हो रहे हैं। तुम वेल्दी भी कहाँ हो रहे हो? रिचनेस भी गई और वेल्थ मिली नहीं। ‘माया मिली ना राम। बोलो भैया गुरुग्राम।’
लगा भाई! बीस वाला पराठा लगा। उसके बाद जाकर दुनिया को ये भी तो बताना है कि मैं एमएनसी में काम करता हूँ। इधर-उधर से जो इनके बेरोजगार दोस्त होते हैं, उनसे उधार माँग रहे होते हैं। बोल रहा, मैं तो बेरोजगार हूँ, कह रहा है — मेरी तुझसे भी खराब हालत है, मैं एमएनसी में काम करता हूँ। मुझे कुछ उधार दे दे।
आधा तो रोड रेज इसलिए भी होता है क्योंकि पता है कि जो डेंट लग गया है ये निकलवाने की इनकी हैसियत है नहीं अब। सर्विस सेंटर वाले भी होशियार होते हैं न। वो बोलते हैं, ‘नहीं! ये तो बंपर ही पूरा चेंज होगा। ये डेंट नहीं निकल सकता, ये बंपर ही जाएगा पूरा, नया लगेगा, ये तो पूरा पार्ट ही जाएगा जी। और पेंटिंग! हाँ जी, वो भी पूरे पार्ट की होगी।’ इतना तो।
काहे के लिए जान दे रहे हो यार! निकलो यहाँ से। जाओ जहाँ ज़िंदगी हो। कम कमाओ, पर जिओ तो सही। जिसको देखो वही भगा चला आ रहा है, ढ़ाई करोड़ कर दी एनसीआर की आबादी। अभी सेंसस हो, तो पता नहीं तीन करोड़ निकले।
अभी मैं मुंबई में था, तो वहाँ पर कोई बोल रहा था कि कौन कहता है कुत्तों की पूँछ सीधी नहीं होती? मुंबई में आकर हो जाती है। क्यों? क्योंकि यहाँ टेढ़ी होने की जगह ही नहीं है। टेढ़ी कैसे करेंगे? वहाँ उतनी देर में कोई और कुत्ता खड़ा हुआ है।
(श्रोतागण हँसते हैं)
जब कुछ नहीं होता ज़िंदगी में तो एक ऑब्जेक्टिव बचता है। क्या? वेल्थ। क्या करोगे? वही बेस्ट कैंसर ट्रीटमेंट। जी लो। जब मस्त होते हो ना उसके बाद कोई गाड़ी ठोक देगा, तो उससे कहोगे, ‘भाई, क्या बात है! कहाँ भगा चला जा रहा है? इधर आ चाय पीते हैं, बैठ जा। क्या बात है? कैसे भाग रहा था? इधर आ, यहाँ बैठ। अरे नहीं! हॉकी नहीं निकाल रहा मैं। चाय पिला रहा हूँ। बैठ जा। हाँ, बता भाई कहाँ जा रहा था? अरे छोड़ो न! बातें करते हैं।
आप अगर फँस गए हो, तो कम-से-कम आप अपने बच्चों को यहाँ से निकालो। ये शहर रहने लायक नहीं है। ठीक है? ये पानी, ये हवा, ये माहौल; बाहर निकलो।
प्रश्नकर्ता: और आचार्य जी कभी एक्चुअली में इस तरह के सिचुएशन में, इस तरह के लोगों के साथ अगर फंस जाए जहाँ पर आपको मतलब डील करना ही पड़े रोड रेज में या कभी ऐसे भी लोग अचानक से नाराज हो जाते हैं बिना किसी बात के। आपने बताया अभी। तो वैसी स्थिति में जो आप एक्चुअल में फंस गए और आप उस तरह की सिचुएशन में हो फिर कैसे डील करना चाहिए? लाइक शुड वी जस्ट...?
आचार्य प्रशांत: आपके सामने पागल साँड है, तो आप क्या करोगे? भग लो। जैसे कहते हैं न, कट ले। यही जवाब है कट ले। और क्या? उससे बहस थोड़े ही करोगे। क्या करोगे? और उसके पास खोने को कुछ नहीं है। वो तो खुद चाहता है कोई उसे गोली मार दे। उसकी ज़िंदगी इतनी बर्बाद है कि आपसे वो भीख माँग रहा है कह रहा है मुझ पर अहसान करो, मुझे मेरी ज़िंदगी से आजाद कर दो।
तो आप कहो कि मैं तुझ पर एफआईआर कर दूँगा। मैं तेरा ऐसा नुकसान कर दूँगा। वो कहेगा, ‘आ! कर मेरा नुकसान, मैं चाहता हूँ मेरा नुकसान हो।’ तो उससे बहसबाजी करने से कोई फ़ायदा नहीं है। जहाँ तक गाड़ियों की बात है सबका इंश्योरेंस रहता है, तो काहे के लिए इतने परेशान हो रहे हो। गाड़ी ठुक गई है, अच्छी बात है। कुछ अपना लगेगा कुछ इंश्योरेंस से लगेगा, और क्या।
नहीं तो वो सूत्र याद रख लो जब मुझे स्कूटर सिखा रहे थे मेरे पापा, तो उन्होंने बोला था। बोले थे — ऐसे चलाओ जैसे सड़क पर तुम्हारे अलावा बाकी सब अंधे हैं। तुम ये उम्मीद ही मत रखो कि सामने वाला सही समय पर ब्रेक लगा देगा। तुम ये मानकर चलो कि वो नहीं लगाएगा। किसी के पीछे-पीछे चल रहे हो, ये क्यों मानकर चल रहे हो कि वो अचानक से ब्रेक नहीं मार देगा। तुम ये मानकर चलो कि तुमने जिसके बंपर-से-बंपर में गाड़ी लगा रखी है वो ब्रेक अचानक मार सकता है, तो दूरी खुद बनाकर रखो न।
ये कहने से कोई फ़ायदा नहीं कि गलती उसकी थी, उसने अचानक से ब्रेक मार दिया। वो वैसा ही है, वो मारेगा। अब तुम देख लो कि तुम्हें ऐसी उलझन की स्थिति में पड़ना है कि नहीं पड़ना। नहीं पड़ना, तो खुद ही बचकर चलो। ऐसी स्थिति क्यों आने देते हो, फिर कहो कि लग के प्रूव कर रहे हैं कि इतनी तेरी गलती थी। नहीं, तेरी गलती थी, तू इस लेन में नहीं था, तू इस लेन में नहीं था।
भाई ये तो अंधेर नगरी है। यहाँ सब फ्रस्ट्रेटेड पागल घूम रहे हैं। तुम्हारा काम है खुद को बचाकर के चलना। और इसमें मर्दानगी की कोई बात नहीं है कि जब मेरी गलती नहीं, तो मैं झुकूँ क्यों? यही साँड से बोलो जाकर के। खड़े रहो, वो कितना भी रेलता रहे सींगों से खड़े रहो। बोलो — मेरी गलती नहीं। तो वो भी यही बोलेगा, ‘मैं तुझे झुकाऊँगा नहीं, मैं तुझे उछालूँगा।’ झुकने की तो बात ही नहीं हो रही है उछलने की बात हो रही है।
गाड़ी का इंश्योरेंस करा के रखो न। किसी ने ठोक-ठाक दी है इंश्योरेंस कंपनी जाने। क्यों परेशान हो रहे हो? तुमने किसी की ठोक दी है, वो कह रहा है कि मेरे इतने लगेंगे। ले ले यार तू, निकल। ठोका-ठुकाई की स्थिति ना आए, इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता। और फ़िल्मी हीरो तो बना ही मत करो कि गाड़ी भिड़ गई है, तो वहाँ से ऐसे करके उतर रहे हैं। कौन है? तुम्हें सचमुच पता है कौन है? और कोई निकल ही आया तो?
मेरे साथ हुआ था। पेट्रोल पंप था रात के दो बजे की बात। वो लगभग लगाने ही वाला था मेरी कार में फ्यूल, बहुत पहले की बात है बीस-इक्कीस साल हो गए; लगाने ही वाला था, तो वहाँ पर आकर के रुकती है एक स्कॉर्पियो, और उसके सारे शीशे जो है एकदम काले और मुझे तो पता नहीं कौन है। तो वहाँ से एक शीशा उतरता है, वो उसको (पेट्रोल वाले को) बोलता है — पहले यहाँ भर। और वो, मैं मेरी गाड़ी पहले से खड़ी है रात का समय और कोई गाड़ी है नहीं वहाँ पर, वो बस लगाने ही वाला है। मैंने उसको बोला, ‘नहीं, पहले यहाँ लगा।’
मैं भी तब जवान था, मैंने कहा — ऐसे, बदसलूकी। उस वक्त पर हट्टा-कट्टा मैं भी था थोड़ा। मैंने कहा, ये वही एक दिख रहा था शीशा उतरा था तो। और वो बोल रहा है, ‘हँ! यहाँ लगा।’ मैं गाड़ी से उतर आया, मैंने कहा, “यहाँ, इधर लगेगा इधर ही।’
वो नीचे उतर आया, और वो जो पेट्रोल पंप वाला था उसका हाथ ही पकड़कर के बोलता, ‘नहीं, पहले इसमें भर।’ मैं भी खड़ा था, मैंने कहा, ‘कुछ नहीं, पहले इसमें ही भरा जाएगा।’
उसने मेरा कॉलर पकड़ लिया। मैंने तड़ाक से झापड़ मार दिया उसको। उसमें से चार और निकल पड़े वैसे। मैंने कहा, ‘ये तो आउट ऑफ सिलेबस हो गया।’ ये तो चलो शरीर थोड़ा ठीक-ठाक था, तो एकाध-दो मिनट जो हो सकता था मुकाबला करा। पाँच-सात खुद खाए, एक-एक उन सबको भी लगाए। इतनी देर में बाकी सब जो सो रहे थे पेट्रोल पंप वाले वो उठकर के आ गए। कुछ भी हो सकता है न। उनमें से किसी ने एक सरिया निकाल लिया होता, तो आज आप ये सवाल नहीं पूछ रहे होते।
(श्रोतागण हँसते हैं)
प्रश्नकर्ता: तू जानता है मेरा बाप कौन है सिंड्रोम। (हँसते हुए)
आचार्य प्रशांत: हाँ, हाँ। ज़िंदगी बहुत अच्छी चीज़ हो सकती है, बहुत ऊँची चीज़ हो सकती है। वो पागल साँड और रेबीज वाले कुत्ते, इनसे लड़ने में थोड़े ही बितानी है।