कई बुद्ध पुरुषों ने समाज क्यों छोड़ा? || (2017)

Acharya Prashant

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कई बुद्ध पुरुषों ने समाज क्यों छोड़ा? || (2017)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बुद्ध पुरुषों ने जो बताया है समाज को, वह बहुत सरल है, लेकिन फिर भी इतना झूठ, इतना ड्रामा क्यों?

आचार्य प्रशांत: आप बताओ क्यों? कहीं बाहर से थोड़े ही टपक रहा है, रोज़ हम ही करते हैं। आप बताओ क्यों?

आप जिस वजह से करते हो, उसी वजह से है। आप अपनी वजह बता दो, जो आपकी व्यक्तिगत वजह है, वही संसार की सार्वजनिक वजह है। जिस वजह से एक घर में ड्रामा होता है, ठीक उसी वजह से दूसरे घर में भी होता है। जिस वजह से एक दुकान चल रही है, ठीक उसी वजह से दूसरी दुकान भी चल रही है।

आप अपने जीवन मे झाँक लो। जो वजह आपको चलाए जा रही है, जो वजह आपको धक्का दिए जा रही है, आपकी ऊर्जा बन रही है, आपकी प्रेरणा बन रही है, वही वजह हर किसी की प्रेरणा बन रही है। आप और संसार मूलतः कोई भिन्न थोड़े ही हैं।

कहानी घर-घर की!

प्र: आचार्य जी, जो बुद्धजन सत्य को प्राप्त हुए, वो समाज से क्यों दूर चले गए?

आचार्य: आप को कुछ नहीं पता कि वो समाज से दूर चले गए या नहीं चले गए। उनके बारे में कोई कयास, अनुमान वगैरह लगाइए ही मत।

मुझे तो लग रहा है कि समाज से दूर हम सब हैं। बुद्ध तो मुझे लगता है समाज के बहुत पास थे, उन्होंने तो हज़ारों लोगों को गले लगा लिया था। आपने कितनों को लगाया है? कितनों को लगाया आजतक? कितनों को कहोगे कि – “ये मेरे मित्र हैं, मेरे घनिष्ठ हैं, मेरा परिवार हैं?” कितनों को कहोगे? पाँच, दस, चालीस, पचास? बुद्ध के लिए तो पचास-हज़ार थे। अब आप बताओ, आप असामाजिक हो या बुद्ध असामाजिक थे?

असामाजिक आप हो, क्योंकि आपका समाज इतना-सा है। चार लोगों से ज़्यादा बड़ा आपका परिवार नहीं हो पाता। बुद्ध का परिवार? चालिस-हज़ार लोगों का!

ओशो ने कम्यून स्थापित कर दिया था, उन्होंने तो पूरा समाज बना ही डाला था, और आप कह रहे हो कि वो समाज से दूर चले गए,असामाजिक हो गए। देख नहीं रहे हो कि ये सब कहानियाँ हम गढ़ते ही इसलिए हैं ताकि बुद्धत्व से किसी तरीके से भाग सकें, “असामाजिक हो जाएँगे, ये हो जाएगा, वो हो जाएगा।” वो असामाजिक हो गए होते, तो उनके किस्से आप तक कैसे पहुँचते?

यहाँ पर कौन ऐसा है जो समाज से भागा था? कृष्ण समाज से भागे थे? जीसस समाज से बाहर भागे? कबीर समाज से बाहर भाग गए थे? नानक भागे थे? कृष्णमुर्ति भागे थे? कौन भागा था समाज से बताओ?

एक इनमें से बता दो जो कि समाज से बाहर भाग गया था। हाँ, इतना ज़रूर हुआ था कि उन्होंने समाज का परिष्कार कर दिया था। चूँकि वो स्वयं साफ़ हो गए थे, तो उनके इर्द-गिर्द का समाज भी साफ़ होने लग गया था। इसी से हम डरते हैं, क्योंकि हमने अपनी पहचान ही किससे बैठा ली है? मैल से, गंदगी से।

जब मैल से पहचान बैठा लो, तो सफ़ाई बड़ी भयानक लगती है।

ये जानते थे लोगों से गले मिलना, क्योंकि इनके लिए विभाजन नहीं थे। ये नहीं कहते थे कि – “तू अगर इस जात का है तो मैं तुझसे नहीं मिलूँगा।” आप मिल पाते हो हर जात के, हर धर्म के लोगों से समभाव से? बुद्ध मिल लेते थे। आप तो बगल के घर में जो रहता हो उससे समभाव से न मिल पाओ! आप तो कहोगे, “ये मेरा घर है, ये मेरे बच्चे हैं।”

“ये मेरे बच्चे” – पड़ोस के बच्चे किसी और के हो गए? अब बताओ असामाजिक कौन हुआ? आप कहते हो, “ये मेरा घर है, इसमें जितने लोग रह रहे हैं, ये मेरे अपने हैं। ये स्त्री मेरी है, ये कुत्ता मेरा है।”

पहली छवि यहाँ कृष्ण की, कि उनकी सोलह-हज़ार रानियाँ थीं, आपसे एक नहीं संभाली जाती। असामाजिक कौन हुआ? और सोलह-हज़ार रानियों का मतलब यह नहीं कि उन्होंने सोलह-हज़ार ब्याह कर लिए थे, इसका मतलब ये कि उनमें इतनी अनंत क्षमता थी कि वह सोलह-हज़ार व्यक्तियों से, स्त्रियों से सम्बन्ध बना पाए। आवश्यक नहीं कि दैहिक सम्बन्ध जुड़ पाए। हम तो दो से नहीं जुड़ पाते! हम दो से जुड़ते हैं, तो वहाँ दो से जुड़ने में लड़ाईयाँ हो जाती हैं।

वास्तव में एक बुद्ध ही सामाजिक हो सकता है, हम नहीं हैं सामाजिक। हमारा तो जैसा समाज है ,वहाँ क्या होता है? वहाँ लड़ाईयाँ होती हैं।

ये समाज भी अगर किसी तरीके से घिसपिट कर, चरमरा कर चल रहा है, तो इसलिए चल रहा है क्योंकि इसे बुद्धों का थोड़ा बहुत स्पर्श मिला। उसी कारण से किसी प्रकार घिसट-घिसट कर चल रहा है।

(सामने लगे बुद्धपुरुषों और संतों के चित्रों की ओर इंगित करते हुए) यहाँ सब ऐसे हैं जो गाँव-गाँव घूमे थे। इन्होंने बड़ी यात्राएँ की थीं। अपने आपको एक शहर, एक प्रान्त, एक जगह तक सीमित नहीं रखा। नानक हैं, पूरा भारत घूम लिया, बिहार घूम आए और उधर जाकर अरब में मक्का-मदीना हो आए। उनके लिए तो पूरा संसार ही समाज था। ये कबीर हैं, जंगल में गए थे बैठने? गुफा में घुस गए थे? हिमालय से सिग्नल भेजते थे? और फिर वो नीचे आते थे तो दोहे बन जाते थे?

पर देखो छवि ऐसी रहती है!

(आचार्य जी संस्था द्वारा आयोजित अद्वैत शिविर का उल्लेख करते हुए) हमारे शिविर आयोजित होते हैं, तो माएँ बच्चों से कहती हैं, “बेटा शिविर में मत जाना, नहीं तो सन्यासी बन जाएगा!” और ‘सन्यासी’ से उनका आशय क्या है? सन्यासी से उनका आशय है कि – “उसके बाद तू मेरी दुधारू गाय नहीं रहेगा”, और ये उनके लिए त्रासदी है कि – “कहीं ऐसी जगह चला गया जहाँ आँख खुल गई, सच्चाई दिख गई, कहीं आदमी बन गया तो! उसके बाद मेरी ग़ुलामी नहीं करेगा।”

बस यही उनका सबसे बड़ा डर है – “कहीं एक बार आदमी बन गया, तो फिर इसका शोषण कैसे कर पाएँगे। फिर थोड़े ही हमारे कहे पर चलेगा!”

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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