जोशीमठ नहीं धँस रहा, हम धँस रहे हैं || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2023)

Acharya Prashant

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जोशीमठ नहीं धँस रहा, हम धँस रहे हैं || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2023)

प्रश्नकर्ता: सर, साल की शुरुआत से ही जोशीमठ से कुछ ख़बरें आ रही हैं, ज़मीन धँसने की और इसरो ने सेटेलाइट डेटा से ये बात भी बतायी है कि पिछले साल के अप्रैल से लेकर नवंबर के बीच में ज़मीन वहाँ धँस रही थी पर तब वो सात सेंटीमीटर धँस रही थी पर इस साल दो-हज़ार-तेईस के शुरुआती बारह दिनों में ही पाँच-दशमलव-चार सेंटीमीटर धँस चुकी है और वो आशंका लगा रहे हैं कि जिस तरह ये बात गम्भीर हो रही है तो शायद पूरा शहर ही धँस सकता है। कई परिवार है जिनको उनके घरों से शहर के होटलों में स्थानान्तरित करना पड़ा है। सरकारी कार्यालय हैं और बहुत जगह हैं जहाँ स्थायी नुक़सान हो चुके हैं। तो इस पर सवाल ये उठता है कि हमारे तीर्थस्थलों की दुर्दशा के पीछे क्या कारण हैं?

आचार्य प्रशांत: काफ़ी कुछ तो सिर्फ़ प्राकृतिक ही है। जोशीमठ जितना मैंने पढ़ा है जिस जगह पर बसा हुआ है, वो जग ही जूलॉजिकल (भौगोलिक) दृष्टि से बहुत पक्की, स्थायी टिकाऊ है नहीं और वहाँ पर ज़मीन धँसने वगैरह की प्रक्रिया कोई नयी-ताज़ी नहीं है, पचासों साल से वहाँ ये चल रहा है तो काफ़ी वजह तो प्राकृतिक ही है। लेकिन जैसा कि आपने अभी कहा कि जितना बुरा था पिछले बीस-तीस साल में, उससे ज़्यादा दो-हज़ार-तेईस में हो गया है।

आपने कुछ सेंटीमीटर गिनाए थे—बारह दिनों में पाँच सेंटीमीटर काफ़ी होता है और ये आँकड़ा भी मुझे लग रहा है कि थोड़ा-सा पुराना है अभी और बढ़ गया होगा। इतना जो भूमि धँसाव है बहुत होता है। अब हम क्या पढ़ रहे हैं? हमें क्या सुनाई दे रहा है? जितनी भी रिपोर्ट आ रही हैं जो थोड़े से विश्वसनीय अख़बार हैं उनमें पढ़ें तो? प्राकृतिक कारण तो अपनी जगह है ही। कहते हैं, ‘पहले बहुत पुरानी लैंडस्लाइड (भूस्खलन) है और उसी लैंडस्लाइड का जो मलवा है जब वो बिलकुल जम गया था तो उस पर बसाया है जोशीमठ।’ वो तो प्राकृतिक कारण हो गया।

उसके अलावा ये चल रहा है कि जो चार धाम अभियान है, उसके लिए कई लेन की विस्तृत सड़क बनानी है। उसके लिए ज़बरदस्त तरीक़े से डायनामाइटिंग (विस्फ़ोट) चल रही है और अभी दो-तीन साल से उधर के लोग उन सब गतिविधियों की वीडियो बना-बनाकर डालते रहते हैं कि कैसे डायनामाइट से पत्थर को उड़ाया जा रहा है और फिर जो मलबा इकट्ठा हो रहा है वो कैसे सीधे ही नीचे फेंक दिया जा रहा है।

दूसरों को छोड़ दो, मैं ही जब ऋषिकेश में था पिछले से पिछले साल तो मैंने ख़ुद ही वीडियो बनाया था कि एक जगह थी गंगा तट पर वहाँ रेत थी छोटी बीच (तट) जैसी बन गयी थी और वहाँ आमतौर पर लोग पहुँच नहीं पाते रास्ता ठीक नहीं है, वहाँ पहुँचने का। मैं वहाँ एकाध बार वहाँ जाया करता था, लोग नहीं होते थे इसलिए वो जगह मुझे पसंद थी। फिर कुछ महीनों के बाद जब मैं वहाँ लौटकर जाता हूँ , देखता हूँ कि वहाँ मलबा ही मलबा पड़ा हुआ है। ऊपर पत्थर उड़ाया गया था वो सारा जो पत्थर था वो नीचे वहाँ उसके बीच पर, वहाँ बीच (तट) कहीं नहीं थी। उस पर पड़ा था पत्थर और सीधे पानी में पड़ा हुआ था। काफ़ी बुरा लगा था सोचा भी था कि इसको कहीं सोशल-मिडिया पर डाला जाएगा। फिर नहीं डाला।

हिमालय पर्वत दुनिया के नये पर्वतों में से हैं और नये मतलब ये नहीं कि बीस-चालीस या सौ-दो-सौ साल पुराने आमतौर पर पर्वत श्रृंखलाओं की जितनी उम्र होती है उसकी तुलना में ये नये पहाड़ हैं; जैसे— आप विन्ध्य पर्वत श्रृंखला को ले लें या अरावली को ले लें तो उनकी अपेक्षा हिमालय बिलकुल बच्चे हैं और बच्चे हैं तो मतलब कि उनका विकास अभी भी चल रहा है जैसे बच्चों का चलता है न। छोटे बच्चे होते हैं तो बड़े होते रहते हैं, हिमालय भी बड़े हो रहे हैं।

मोटे-मोटे तौर पर ये समझ लीजिए कि अफ्रीका से टूटकर के जो भूखंड आया था और एशिया से टकराया था जिसके टकराने के कारण हिमालय का निर्माण हुआ वो अभी भी टकरा ही रहा है, वो अभी भी गतिशील है। देखो, ऐसे समझो, जैसे ये है (टेबल पर पड़े कागज़ को एक तरफ़ से धक्का देते हुए ताकि बीच का हिस्सा ऊपर उठ जाए)। ये इधर से आगे को बढ़ता रहता है और बीच में क्या होता रहेगा? ये हिमालय है और ये जो तुम्हारा पूरा भूखंड है यही जम्बूद्वीप कहलाता है। जिसको वो कहते हैं न, तो ये वो है जो बहते-बहते आया है और एशिया से टकरा गया।

जो भारतीय उपमहाद्वीप हैं ये एशिया का एक नया, ताज़ा हिस्सा है और ये एशिया से जुड़ा हुआ है। यहाँ (कागज़ की ओर संकेत) हिमालय की सीमा के माध्यम से। तो इसीलिए हिमालय के दक्षिण में जो मामला है और जो हिमालय के उत्तर में जो मामला है वो इतना अलग है, हर तरीक़े से। जलवायु की दृष्टि से, मिट्टी की दृष्टि से, सब मौसम सब बिलकुल अलग-अलग हैं, ये दो बिलकुल अलग हैं। तो लगभग चार इंच प्रतिवर्ष की दर से अभी भी हिमालय उठ ही रहे हैं। तो वो बड़े अनस्टेबल (अस्थिर) हैं अभी, इसीलिए इतना भूस्खलन पाते हो आप ख़ास तौर पर बरसातों में। है न? जा रहे हो, जा रहे हो और इतना बड़ा पत्थर गिर पड़ेगा, गाड़ी पर पहाड़ से चूरा, रेत गिर पड़ता है। ये इसीलिए होता है।

ऊपर से क्या हुआ है? क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन)। तो उसके कारण जो नियमित क़िस्म का मौसम हुआ करता था वो बिलकुल बदल गया है। सिर्फ़ पिछले-पिछले साल में हज़ारों — हज़ारों कह रहा हूँ — ऐसी घटनाएँ हुई हैं जो असामान्य हैं मौसम की दृष्टि से। अब जो मिट्टी है, पत्थर है जो आपस में गुँथे हुए हैं वो इस तरह से निर्मित हैं कि सामान्य मौसम को ही झेल सकते हैं और थोड़ा-बहुत ऊपर-नीचे हो जाए तो चलो वो बर्दाश्त कर लेंगे। पर जब हज़ारों एबनॉर्मल इवेंट्स (असहज गतिविधियाँ) होते हैं तो नहीं झेल पाते। एबनॉर्मल इवेंट्स कैसे होते हैं? हिमालय पर ज़्यादातर यही होता है कि बारिश ज़्यादा हो गयी, बारिश ज़्यादा हो गयी। जहाँ नहीं होनी चाहिए थी, उतनी बारिश हो रही है।

उत्तरकाशी याद है न, लगभग दस साल पहले क्लाउड बस्ट (बादल फटना) जिसको बोलते हैं। बादल फटना क्या होता है? यही कि ज़्यादा बारिश हो गयी, बहुत-ज़्यादा बारिश बहुत कम समय में और वो जो क्षेत्र है वो तैयार नहीं है, वो इक्विप्ड नहीं है कि इतनी बारिश को झेल पाएगा तो पत्थर मिट्टी हो सब टूट-टाटकर अलग हो जाते हैं और कुछ और ही वहाँ पर बन जाता है।

हिमालय, जैसा मैंने कहा अभी बहुत गुथा हुआ पर्वत नहीं है। अभी वो एक ढीला पर्वत है जो अभी आकार ले ही रहा है। ऊपर से इंसान ने वहाँ डायनामाईटिंग शुरू कर दी। इंसान की ही करतूत है क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन)। इस वक्त उत्तराखंड में दो-सौ से ज़्यादा बाँधों का, डेम्स का निर्माण चल ही रहा है और इसके अलावा सैकड़ों अन्य क़िस्म की तथाकथित विकास परियोजनाएँ और ये सब-की-सब तोड़-फोड़ पर आधारित है।

उसके अलावा हम रेल लेकर जा रहे हैं। एकदम पहाड़ की छाती तक हमें रेल पहुँचा देनी है और वो जा रही है सुरंगों के माध्यम से, टनल्स। ठीक-ठीक आँकड़ा मुझे याद नहीं है लेकिन लगभग तीस या पाचास किलोमीटर की सुरंग खोदी जा रही है, कुल मिलाकर, कुछ ऐसा ही है। अब आप देखिए क्या-क्या है — सड़क का चौड़ीकरण राजमार्ग का, रेलमार्ग का निर्माण जिसके लिए सुरंगें तोड़ी जा रही हैं, बाँध, अन्य क़िस्म की विकास योजनाएँ और प्राइवेट सेक्टर द्वारा हाउसिंग और हॉस्पिटैलिटी (ठहरने की व्यवस्था) । इसके लिए तोड़-फोड़ और निर्माण। होटल बन रहे हैं, अपार्टमेंट्स बन रहे हैं और घर वगैरह तो बनते ही रहते हैं।

इसके अलावा इन सबके सिर पर क्लाइमेट चेंज। जिसके कारण अतिशय वृष्टि। तो ये कुल मिलाकर के हमने कितने कारक गिना दिये? पाँच या छः। इन सबने मिलकर के ये करा है कि जोशीमठ ही नहीं, जोशीमठ के आसपास जो लगभग एक दर्जन छोटे कस्बे हैं और गाँव हैं और कर्णप्रयाग जैसी जगहें हैं, ये सब अब धँस रही हैं। जोशीमठ भी सुर्खियों में इसलिए आया क्योंकि वहाँ एकदम अति हो गयी, लोगों को छोड़-छाड़कर भागना पड़ा और वो जो दो होटल हैं, जो एक-दूसरे पर टिक गये हैं उनके चित्र वायरल होने लग गये कि ये देखिए क्या हो रहा है। वो तो गिरा भी दिए होंगे शायद आज दोनों होटल। आज ही गिराए जाने थे। इस कारण वो ख़बरों में आ गया लेकिन जो लोग पहाड़ों से सम्बन्धित हैं उनको पता है कि वहाँ पर ये हलचल कई सालों से चल रही थी।

एक संघर्ष समिति ही बनी हुई है शायद ‘जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति’ ऐसे कुछ करके, वो कई सालों से कोशिश कर रही है। उनकी किसी ने सुनी नहीं, फिर उन्होंने अन्तत: चक्का जाम करा, तब जाकर के सरकार ने, मीडिया ने उनकी थोड़ी सुध ली। अब यही काम वहाँ तमाम अन्य जो शहर हैं, वहाँ भी हो रहा है। मैं प्रामाणिक रूप से नहीं कह सकता लेकिन जितना मैं अभी तक पढ़ पाया हूँ उसमें ये है कि कुमाऊँ और गढ़वाल, दोनों ही जगहों पर ये ज़मीन धँसने की प्रक्रिया चल रही है। यहाँ तक कि नैनीताल जैसे शहर में भी ये हो रहा है। तो बात सिर्फ़ गढ़वाल भर की नहीं है।

ये हम क्या कर रहे हैं? अभी हम रेल को चला देंगे और जब रेल चलती है तो उसमें से कम्पन कितना होता है, आप समझ रहे हैं? ये जो तोड़फोड़ है उसमें तो आप ये भी कह सकते हैं कि भई, एक बार सड़क बन गयी तो बन गयी अब चलो, बन गयी अब इसके अलावा अतिरिक्त आगे और टूट-फूट नहीं होगी लेकिन रेल तो रोज़ चलेगी न और जब रेल चलती है तो वाइब्रेशन (कम्पन) होता है और जब वाइब्रेशन होते हैं तो चट्टानें ढीली पड़ती हैं। दो चीज़ें एकदम ऐसे (दोनों हाथों की अंगुलियों को आपस में फँसाते हुए) जुड़ी हुई हों उनको आप हिलाएँ रोज़-रोज़, वाइब्रेशन दें तो क्या होगा? वो दोनों ढीली पड़ेंगी और जब ढीली पड़ेंगी तो टूट-टाटकर नीचे भी गिरेंगी और उनके ऊपर जो कुछ बसा हुआ होगा वो भी सब नीचे ध्वस्त हो जाएगा बिलकुल। तो अब ये सब होने जा रहा है।

इसी से जुड़ी बहुत सारी बातें हैं — एक एनटीपीसी का प्रोजेक्ट है उसको लेकर भी अनुमान लगाये जा रहे हैं, उन्नीस-सौ-छिहत्तर में भी एक कमिटी गठित की गयी थी। ‘मिश्रा कमिटी’ मेरे ख़्याल से उसका नाम था उसने उन्नीस-सौ-छिहत्तर में बोल दिया था कि ये सब यहाँ जो तुम विकास के नाम पर कर रहे हो, रोक दो बिलकुल। इन पहाड़ों में ये सामर्थ्य नहीं है कि तुम्हारे विकास को बर्दाश्त कर पाएँगे। उन्नीस-सौ-छिहत्तर में, माने चौबीस और बाइस छियालीस साल पहले। आधी शताब्दी पहले से ये बाकायदा एक कमिटी ने अनुशंसा कर रखी है कि मत करो पहाड़ों के साथ ये सबकुछ इनमें नहीं सामर्थ्य है।

फिर अभी पाँच-सात साल पहले भी एक कमिटी बैठी थी उसने भी कहा था, और वो कोर्ट के आदेश पर बैठी थी उसने भी कहा था, कि रुक जाओ, मत करो ये सब। लेकिन हमको विकास चाहिए। और उत्तराखंड अभागा इसलिए है क्योंकि वो देवभूमि है। और जो हमारी अन्धी धार्मिकता है वो कहती है, ‘हमारी देवभूमि है न, तो यहाँ पर तो चकाचक विकास होना चाहिए। हमारे गौरव का, हमारे गर्व का मामला है, भाई। हिन्दुओं के यहाँ पर इतने तीर्थस्थल हैं तो यहाँ पर तो ज़बरदस्त विकास होना चाहिए। ये बात हमारे गौरव की है, हमारे अहंकार की है। मेरा देवस्थल है न, तो चकाचक होगा ही होगा। तो मुझे वहाँ पर सबकुछ कर देना है।

मुझे वहाँ जितने तरीक़े के हो सके होटल, रिजॉर्ट बना देने हैं। आठ-लेन , दस-लेन , सोलह-लेन की सड़क बना देनी है, पचासों परियोजनाएँ बना देनी हैं। ये-वो। जो-जो करना है, सब कर डालना है और मुझे ये देखना भी नहीं है कि वो जगह इन सब चीज़ों को बर्दाश्त कर भी सकती है कि नहीं बर्दाश्त कर सकती है।’

अभी ताज़ा ख़बर शायद ये है कि भारतीय सेना ने भी जोशीमठ को त्याग दिया है। सैनिक भी वहाँ से अपनी गाड़ियाँ, अपना पूरा सब दस्ता लेकर के शायद औली की तरफ़ निकल गये हैं। कि सेना के रहने लायक़ भी वो जगह नहीं बची। ये स्थितियाँ बदल भी सकती हैं।

ये तो हम आज की बात कर रहे हैं, कुछ और भी हो सकता है लेकिन स्थितियाँ ऊपरी तौर पर थोड़ी बदल भी जाएँ तो भी जो मूल बात है वो अपनी जगह है। और मूल बात ये है कि इंसान धर्म को किस रूप में देख रहा है। धार्मिकता का अर्थ होता है मुक्ति की ओर बढ़ना। ठीक? कोई भी भारतीय धर्म हो उसका एक ही परम उद्देश्य होता है, उसकी एक ही मंज़िल है मुक्ति। और किससे मुक्ति चाहिए होती है? भौतिकता से, पदार्थ से। कि यही सब चीज़ें हैं जो हमको जकड़े रहती हैं, मुझे इनसे मुक्ति मिल जाए और इनसे मुक्ति मिले तो मैं आनन्द में जी पाऊँ।

लेकिन हमने धर्म को भी पूरा भौतिक बना डाला है। तो ये तो छोड़ दो कि धर्म भौतिकता से मुक्ति दिलाएगा। ये जो हमारी नयी क़िस्म की धार्मिकता है, ये स्वयं अपनेआप में बड़ी भौतिक है। ये पदार्थ को बन्धन नहीं मानती, ये तो पदार्थ को और इकट्ठा करती है और खड़ा करती है। ये कहती है, ‘और सड़कें चाहिए, और बड़े-बड़े मन्दिर चाहिए, पत्थर ही पत्थर लगाओ और ऊँचा शिखर उठाओ।’

मैं जानना चाहता हूँ , मैंने पहले भी आपसे पूछा था कि ये आप जो सड़क इतनी चौड़ी कर रहे हो, आप ये पूछो तो कि किसके लिए कर रहे हो। इसका परिणाम वही होना है। दिल्ली, चंडीगढ़, गुड़गाँव। गाड़ियाँ ही गाड़ियाँ हैं जो सरपट भागी जा रही है केदारनाथ तक और वहाँ चल रही है मौज-मस्ती। चार धाम बनेंगे मौज के, विलासिता के अड्डे। क्या धार्मिकता बढ़ने जा रही है आप ये सब जो विकास कर रहे हो इससे? क्या होने जा रहा है?

एनटीपीसी कोई सुरंग खोद रहा था। उस सुरंग ने जाकर किसी एक एक्यूप्रेशर में छेद कर दिया। नीचे जो अंडरग्राउंड (भूमिगत) जलाशय होते हैं, उसमें जितना पानी था वो सब निकल गया और बड़ी भयानक तरह से निकलता है, लाखों लीटर पानी।

मैं पढ़ता हूँ कि वो पानी अब भी उसमें से रिस ही रहा है। अब वो इतना पानी इकट्ठा था वो निकल जाएगा तो उस जगह पर क्या बचेगा? खाली स्थान। और खाली स्थान क्या करेगा फिर? धँसेगा। तो वही चल रहा है। इन विषयों पर मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ। मैं जियोलॉजिस्ट (भू-वैज्ञानिक) नहीं हूँ। मैं वैज्ञानिक नहीं हूँ, जो मैं बिलकुल प्रामाणिक तौर पर इस पर कह पाऊँ कि ऐसा ही हुआ है। मैं भी आपसे वही कह पा रहा हूँ जितना मैंने रिपोर्ट्स में पढ़ा है। लेकिन कुछ बातें हैं जिनको मैं प्रामाणिकता से कह सकता हूँ। और वो यही है कि हमारी रुचि पत्थर, पानी में बढ़ती ही जा रही है, बढ़ती ही जा रही है। एक बहुत मैटेरियलिस्ट (भौतिक) क़िस्म की धार्मिकता जड़ पकड़ती जा रही है और उसी का प्रचार हो रहा है और उसी को धर्म समझा जा रहा है। मैं ऋषिकेश में काफ़ी समय गुज़ारता रहा हूँ और वहाँ की हालत को लेकर के भी मैंने बहुत बार बोला है। आप पर्यटन बढ़ा रहे हो, आप बोलते हो विकास करना है और उस शहर में पिछले दस साल में ही कितनी तब्दीलियाँ आ गयी हैं।

ये जो किताब है हमारी आख़िरी जो आयी है अंग्रेज़ी में— ‘माया’। तो ‘माया’ की मेनुस्क्रिप्ट (हस्तलिपि) वहीं ऋषिकेश से थोड़ा आगे बढ़कर शिवपुरी की ओर एक जगह पर बैठकर मैंने फाइनल करी थी, गंगा किनारे बैठकर के। लगभग डेढ़ महीना लगाकर के वहीं जाता था और उसको वहीं पर एडिट करा था।

और उसमें मुझे बीच-बीच में बड़ी तकलीफ़ आती थी क्योंकि मैं वहाँ बैठा हुआ हूँ और मैं एक-एक अक्षर पढ़ना चाहता हूँ। जहाँ कुछ बदलना है उसको देखना चाहता हूँ। और वहाँ से वो सब ये राफ्टिंग वाले निकलते थे। और “नीले-नीले अम्बर पे चाँद जब छाए, प्यास भड़काए, हमको तरसाए, ऐसा कोई साथी हो।” और वो आप यहाँ बैठे हुए हो (संकेत करते हुए) वो ठीक सामने से निकल रहे हैं और नारेबाज़ी कर रहे हैं और चिल्ला रहे हैं। नारबाज़ी उनकी कई बार ये भी होती थी— “जय गंगा मैया, जय गंगा मैया” पर ये क्या कर रहे हो? ये युद्ध घोष है? या यलगार है या किसी को मारने की तैयारी कर रहे हो? चिल्ला क्यों रहे हो इतना? तो या तो वो फूहड़ गाने गा रहे होते थे या फूहड़ नारेबाज़ी कर रहे होते थे। बीच-बीच में ऐसा लगता था कोई धार्मिक बात भी वो बोल रहे हैं पर जो धार्मिक बात भी बोल रहे होते थे वो बड़ी विकृत लगती थी जिस तरह से वो बोल रहे होते थे।

ये काम पहाड़ों के साथ लगातार होता ही जा रहा है। पेड़ों का कटना। एक-के-बाद-एक वहाँ पर और रिज़ार्ट्स का बनना, ये करना, वो करना। कुल मिलाकर के ये है कि जीवन का उद्देश्य मुक्ति नहीं है। जीवन का उद्देश्य है पैसा कमाना और पैसा कमाने के लिए अगर धर्म को भी बेच दो तो छोटी बात है। जो मूल बात ये थी कि धर्म के लिए भौतिकता को पीछे रख दो। या भौतिकता का अधिक-से-अधिक प्रयोग कर लो धर्म को आगे बढ़ाने के लिए। ठीक?

अभी जो नयी बात चल रही है वो ये है कि भौतिकता के लिए धर्म का प्रयोग कर लो। समझिएगा। भौतिकता के लिए धर्म का इस्तेमाल कर लो। तो तीर्थ यात्रा के लिए हेलीकॉप्टर हैं और पूरे रोपवे (उड़नखटोला) बना दिये गए हैं।

(प्रश्नकर्ता से पूछते हुए) हमलोग जो अभी केदारनाथ गये थे तब वो नहीं था न रोपवे ? अब बन गया है? तब बनने की शुरुआत थी? कहाँ से कहाँ तक का बना है वो?

प्र: अभी बनने की शुरुआत हुई है।

आचार्य: अच्छा, अभी बनने की शुरुआत हुई है। तो कहाँ से कहाँ तक जाएगा?

प्र: गौरीकुंड से पूरा ऊपर तक।

आचार्य: गौरीकुंड से पूरा ऊपर तक? तो जा ही क्यों रहे हो वहाँ? उड़नखटोले पर बैठकर के वहाँ जाओगे, महादेव के पास! उनके सिर के ऊपर उड़कर आओगे? तीर्थ वहाँ किसी वजह से स्थापित किया गया था, किसी वजह से स्थापित किया गया था न? कि जा सकते हो अगर तो पैरों पर चलकर जाओ। तो पहली हमने बेईमानी ये की कि घोड़े और खच्चर लगा दिये। उसके बारे में भी मैंने बोला है कि भाई घोड़ों को क्यों तीर्थ-यात्रा करा रहे हो, उनकी जान क्यों ले रहे हो? उन्होंने कब कहा है? वो तो पशुपति के वैसे ही प्रिय हैं सारे पशु। उन्हें ये करना ही नहीं है कि दिन में तीन-बार ऊपर, तीन-बार नीचे। और तुम उनको मारे डाल रहे हो। वहाँ लाशें पड़ी रहती हैं।

फिर ये हो गया कि हेलीकॉप्टर-हेलीकॉप्टर आएगा वहाँ पर। तो हेलीकॉप्टर से चल रहा है कार्यक्रम और अब ये उड़नखटोला जाया करेगा वहाँ पर। हम कह रहे हैं कि विकास हो रहा है, देखिए साहब। हम कोई छोटे लोग नहीं हैं। हमारे तीर्थ भी किसी से कम नहीं हैं। ख़ासतौर पर विदेशियों के जैसे तीर्थ होते हैं हम उनसे कम नहीं हैं, तो भीतर एक अजब हीन भावना बैठी हुई है, एक प्रतिस्पर्धा की भावना बैठी हुई है। और वो भी पूरी तरह भौतिक। उस भावना में श्रद्धा कहीं नहीं है। उस भावना में जो पूज्य है, जो आराध्य है उसके प्रति प्रेम कहीं नहीं है। बस एक ठोस गंधाता-सा अहंकार है।

‘मुझे किसी से पीछे नहीं रहना है और तुम अगर ये सब बातें हमें बता रहे हो तो औरों को क्यों नहीं बताते? मुसलमानों को बताओ, ईसाइयों को बताओ। उनको भी ये सब बातें बताओ। दूसरे अगर कुछ ग़लत कर रहे हैं तो हम भी बराबरी का ग़लत करेंगे। दूसरे अगर गिरे हुए हैं तो हम उनसे ज़्यादा गिरकर दिखाएँगे। दूसरे अगर हिंसा करते हैं तो हम और ज़्यादा हिंसक पशु ही बन जाएँगे। जो कहीं लिखा भी नहीं हुआ है, हम उस की अफ़वाह उड़ाएँगे। “धर्म हिंसा तथैव च”।’जो कि कहीं नहीं लिखा हुआ।

ये चल रहा है। तो ये है जो ऊपरी बात है, मूल बात है, और उसी मूल बात की अभिव्यक्ति होती है फिर जोशीमठ के धँसने जैसे लक्षणों में, जो अन्दरूनी बीमारी है, जो मूल बीमारी है, वो ये है— एक स्थूल भौतिक धार्मिकता। एक ऐसी अन्धी धार्मिकता जो वास्तव में अहंकार के अलावा कुछ नहीं है, अज्ञान के अलावा कुछ नहीं है। और उसकी अभिव्यक्ति फिर होती है कि आप अपने ही तीर्थ स्थलों को खाये जा रहे हो?

जोशीमठ का सम्बन्ध आप जानते हो न किनसे है?

श्रोतागण: शिवजी से।

आचार्य: हाँ, शिवजी से तो है ही पर और ज़्यादा आदिशंकराचार्य से। और अब नहीं रहेगा जोशीमठ! कर लो विकास। और ये अहंकार का बरसों पुराना क़िस्सा है। वो जिस चीज़ को लेकर बहुत उछलता है, वो उसी चीज़ को खा जाता है। अहंकार अगर धर्म को लेकर बहुत उछलेगा न तो धर्म को भी खा ही जाएगा। और वही हो रहा है। ‘धर्म-धर्म-धर्म’ जितना नारा भारत में पिछले बीस-तीस साल में लगा है, इतना पहले नहीं लगता था। और पिछले बीस-तीस साल में भारत में सनातन धर्म का जितना नाश हुआ है उतना भी कभी नहीं हुआ।

हमको कौनसा धर्म चाहिए, मैं बताता हूँ! हमको एनआरआइज़ वाला धर्म चाहिए। हमको सूरज बड़जात्या की फ़िल्मों वाला धर्म चाहिए, राजश्री प्रोडक्शन वाला धर्म। जहाँ बहुत-सारा पैसा है सबसे पहले, जैसे एनआरआइ के पास होता है। बहुत-सारा पैसा है, बहुत-सारा। और साथ में घर में एक पूजा-स्थल है। जहाँ पर सांस्कृतिक पिताजी अपनी दो सांस्कृतिक बेटियों और दो सांस्कृतिक पुत्रों और एक अतिसांस्कृतिक पत्नी के साथ खड़े होकर रोज़ सुबह कोई कर्मकांडी प्रार्थना किया करते हैं।

उसके बाद पूरा परिवार लड्डू-गुजिया खाता है और सब एक-साथ नाचते हैं। ज़बरदस्त क़िस्म की शादियाँ होती हैं। आधी पिक्चर सिर्फ़ शादी पर आधारित होती है और उसमें पूरा सांस्कृतिक परिवार नाचता है। ये हमारा आज का आदर्श बन चुका है। द आइडियल हिंदू ड्रीम (आदर्श हिंदू स्वप्न) ये है। वहाँ किसी से पूछ दो, ‘गीता के दो शब्द पता है?’ नहीं किसी को पता होंगे। लेकिन कोई उथले क़िस्म का भजन सबने रट रखा होगा। वही “राजा इन्द्र ने बाल्टी मँगाई”। वो सबने रट रखा होगा।

वहाँ किसी से पूछ दो कि अद्वैत, सांख्य या बौद्ध; किसी दर्शन के बारे में तुलनात्मक कुछ टिप्पणी कर दो, वो तुम्हारा मुँह ताकेंगे। लेकिन उन लोगों से पूछ दो कि तुम लोग तो धार्मिक हो न? तो बोलेंगे, ‘हाँ, हम हैं धार्मिक। लो, लड्डू खाओ। शुद्ध देसी गाय के घी से बने हैं।’ हमारा धर्म क्या है? देसी गाय का घी। वही एनआरआइ स्वर्ग हमको उत्तराखंड में बनाना है। और वहाँ तो और अच्छा है। जलवायु स्विट्ज़रलैंड जैसी है वहाँ पर, तो लगता है कि मामला एनआरआइ है बिलकुल! है न? बढ़िया मलय पवन बह रही है, मन्द-मन्द शीतल-शीतल। वहाँ बढ़िया आलीशान कुछ खड़ा कर दो। उसके सामने यूँ देखो (देखने का अभिनय करते हुए), ‘ये देखो! हिंदू हृदय सम्राट।’

ऋषिकेश के आम रेस्ट्रॉ (भोजनालयों) में भी माँस बिकना शुरू हो गया है, जो नहीं होता था। और मैंने इस मामले पर पहल भी करी है। जवाब ये मिलता है, ‘जो आ रहे हैं वहाँ वो यही माँग रहे हैं, माँस चाहिए।’ दो-हज़ार-सोलह में पहला वहाँ पर मिथ डीमोलुशन टूर (मिथक विध्वंस यात्रा) करा था। वहाँ बहुत आसान होता था वीगन (शाकाहारी) खाना मिलना। क्यों आसान होता था? क्योंकि तब वहाँ विदेशी बहुत आते थे। और वहाँ जो विदेशी आते थे वो कहते थे टोफू (सोया पनीर) दो! वो कहते थे, ‘चाय बादाम के दूध की दे दो, नारियल के दूध की दे दो, सोया की दे दो। लेकिन जानवर पर क्रूरता करके जो तुम दूध वगैरह निकालते हो, ये नहीं चाहिए।’ दो-हज़ार-सोलह में वहाँ अच्छा-ख़ासा वीगन माहौल था। फिर बीच में आ गया कोविड, विदेशियों ने आना कर दिया बन्द। विदेशियों ने आना बन्द कर दिया और भारत में धार्मिकता और चढ़ गयी। इतना गन्दा कर डाला इन्होंने ऋषिकेश को।

भीतरी तौर पर भी और बाहरी तौर पर भी। वहाँ जो सफ़ाई का स्तर है, इन्होंने वो भी बहुत गिरा दिया है। पर बहुत उम्मीद कर रहा हूँ कि अब बेहतर हो जाएगा कुछ। क्योंकि अब फिर से विदेशियों ने आना शुरू कर दिया है। वो जब आते हैं तो भारतीय भी कहते हैं, ‘साफ़ करो, साफ़ करो, फोरेनर्स (विदेशी) आ रहे हैं।’ तो वहाँ पर लोग जानते हैं मुझको, उनसे बात करता हूँ तो जो सच्चाई है, बोल ही देते हैं। बोलते हैं, ‘विदेशी अभी भी यहाँ जितने हैं, वो माँस बिलकुल नहीं माँगते। ये जो देसी आते हैं न, इन्हें माँस चाहिए। ये कहते हैं, और हम ठंडी जगह पर आये किसलिए हैं? बीयर और चिकन के बिना हिल्स (पहाड़ों) का मज़ा ही नहीं आता। बियर , चिकन , सेक्स!

आचार्य: वो कौन-सी बीच है जिस पर बहुत जाता हूँ मैं और वहाँ वीडियो भी बनाया था एक, रिकॉर्डिंग की थी, जिसमें दो लड़कियाँ आ गयीं थीं। जहाँ पर श्मशान घाट भी है? फूल चट्टी! फूल चट्टी पर हमने अपने आरम्भिक शिविर करे थे दो-हज़ार-ग्यारह, दो-हज़ार-बारह के। और बहुत-सारे लोगों की ज़िन्दगियाँ बदली हैं फूल चट्टी पर। वो इतनी शान्त जगह होती थी। वहाँ पर कहीं पर रोशनी भी न्हीं दिखाई देती थी। रातभर बैठे रहे, पढ़े जा रहे हैं। ‘अपरोक्ष अनुभूति’ (ग्रन्थ) खुली हुई है। लालटेन की रोशनी में पढ़ रहे हैं, पढ़ रहे हैं, वहीं पर सो गये हैं। सुबह उठ रहे हैं तो देख रहे हैं बिलकुल पाँव तक पानी बढ़ आया है और रेत पर ही सो रहे थे और बड़े वहाँ पर अद्भुत अनुभव रहे हैं। बहुत जाना है, बहुत सीखा है। अभी हालत ये है कि आप फूल चट्टी पर नंगे पाँव चलेंगे तो लहूलुहान हो जाएँगे। बताइए क्यों? बीयर की टूटी हुई बोतलें!

ये हमारा विकास चल रहा है और हम बहुत प्रसन्न हैं। हाँ, इस पूरी चीज़ में ऋषिकेश की इकोनोमी (अर्थव्यवस्था) ज़रूर आगे बढ़ी होगी क्योंकि होटलों की संख्या बढ़ गयी है। राफ्टिंग ज़बरदस्त रूप से हो रही है। एडवेंचरस स्पोर्ट्स चल रहे हैं। और मटन वगैरह साधारण आलू-मेथी से तो महँगा ही आता है तो उससे जीडीपी बढ़ता है। रेजिडेंशियल (आवास) भी बढ़ा होगा महँगा हो गया होगा। किसी, दिसंबर में ऋषिकेश में प्रस्तावित था कि जाएँगे, करेंगे। वो नहीं करा। कुछ तो बात ये थी कि सुरक्षा की दृष्टि से इधर-उधर से कुछ इनपुट आये थे कि ठीक नहीं है, अभी मत जाइए वहाँ पर सिक्योरिटी के लिहाज़ से। लेकिन सिक्योरिटी वगैरह की बहुत परवाह की नहीं है अतीत में। रहा भी है कि दिक्कत हो सकती है तो भी चले गये हैं।

मन-सा उचट रहा है। जिस जगह से मुझे इतना प्रेम रहा है और जिस जगह से मुझे इतना प्रेम मिला भी है, जिस गंगा के तट पर मैंने इतना कुछ सीखा है। इन्होंने ऐसा कर दिया उसको कि उससे मेरा मन उचटने लग गया है! और मैं सचमुच मना रहा हूँ कि वहाँ पर विदेशी आना और बहुत-सारे विदेशी आना शुरू करें। शायद कुछ सुधरेगा माहौल क्योंकि वो यहाँ पर होटलों के लिए नहीं आते। होटल उनके पास अपने यहाँ बहुत अच्छे-अच्छे हैं। वो यहाँ विकास देखने नहीं आते। उनका अपना विकास ठीक-ठाक है। वो यहाँ जिस चीज़ के लिए आते हैं, वो दूसरी है और वो जिस चीज़ के लिए आते हैं उस चीज़ को हम खा गये।

मेरे पास कोई एक्सेस (पहुँच) नहीं है कि मैं जान पाऊँ कि पूरी जो प्रोजेक्ट फिजिबिलिटी रिपोर्ट है, वो चार धाम की, वो क्या बोलती है। लेकिन पेड़ों का कटना, वो तो मैंने अपनी आँखों से देखा है न? हर दो सौ मीटर पर अर्थमूवर्स (एक मशीन) खड़े हुए हैं और वो पहाड़ काट रहे हैं। आप में से कोई गया है उस रास्ते पर पिछले दो साल में? अभी भी चल ही रहा है वहाँ पर काम! तो आज जोशीमठ, कल पूरा विश्व!

ऐसा थोड़े ही है कि बगल के घर में आग लगेगी तो आपका घर बच जाएगा। और कारण पूरे तरीक़े से हमारे अहंकार से उठा हुआ है। क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) किसने खड़ा करा है? हमने! हमारी ही विकास की जो स्थूल भौतिक अवधारणा है, उसने क्लाइमेट चेंज का असुर, मॉन्सटर हमारे सामने, हमारे सिर पर खड़ा कर दिया है। और उसके बारे में मैं इतना बोल चुका हूँ कि बोलते-बोलते मुझे ऊब होने लगी है।

अब चार महीने में फिर से मानसून आ जाएँगे पहाड़ों पर और इस बार वो कौन-सी आपदा ले करके आएँगे, कोई नहीं जानता। और पहाड़ सिर्फ़ पहाड़ नहीं होते हैं। पहाड़ मैदानों की जान होते हैं भाई! दोनों अर्थों में स्थूल अर्थ में भी और सूक्ष्म अर्थ में भी। इसीलिए समझदार लोगों ने इतने तीर्थों की स्थापना पर्वतों पर करी थी कि पर्वतों को पूज्य मानना। आन्तरिक दृष्टि से भी मैदानों का प्राण होते हैं पहाड़! और भौतिक दृष्टि से भी।

उत्तरांचल को बर्बाद करके उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल बच लेंगे क्या? क्यों नहीं बचेंगे? एक छोटा-सा नाम है ‘गंगा’। बाढ़-सूखा कुछ भी आपने गंगोत्री का जो हाल कर दिया है उसके बाद ये आवश्यक नहीं है कि बाढ़ ही आये। जब ग्लेशियर नहीं रहेगा तो गंगा जी कहाँ से रहेंगी? और वो बन गया पर्यटन स्थल! और पर्यटन का मतलब ही होता है भोगना! ‘वहाँ जा किसलिए रहा हूँ? पैसा वसूलने के लिए। काहे कि जाना महँगा होता है भाई! तो वहाँ जाएँगे तो पूरा वसूलकर आएँगे। और वसूलने का मतलब ही होता है कि पर्वत का बलात्कार करके आएँगे पूरा।

गँवार क़िस्म का टूरिज्म! चिप्स के पैकेट, बिसलेरी की बोतलें। कितने ही झरने हैं! वहाँ तो हर दो-सौ मीटर पर कोई झरना होता है। ख़ासतौर पर बरसाती झरना। वैसे सूख जाता है। बरसात में बहता है। अब देखिएगा ग़ौर से वो कितने झरने हैं जो सिर्फ़ प्लास्टिक के कारण अवरुद्ध हो गये हैं, वो बह ही नहीं सकते अब। प्लास्टिक ने उनको रोक लिया है। और रुकता जाता है पानी, रुकता जाता है, ऊपर से तो आ ही रहा है, बर्फ़ पिघल रही है। वो रुकेगा-रुकेगा फिर क्या करेगा? फिर तोड़-फोड़ मचाएगा। या फिर जहाँ रुक रहा है वहाँ की चट्टान को वो घोल देगा। और जब घोल देगा तो क्या होगा? सबकुछ नीचे आ जाएगा। सबकुछ इसलिए है क्योंकि हमें अध्यात्म से कोई मतलब नहीं। हमारे लिए धर्म का मतलब है एक प्रकार की संस्कृति! धर्म के नाम पर हम एक भोगवादी संस्कृति को बढ़ा रहे हैं, बस! बस! बस! कल्चर , ‘ये हमारा कल्चर (संस्कृति) है।’

धर्म का मतलब कल्चर कब से हो गया, ये मुझे समझ में नहीं आ रहा लेकिन हर आदमी संस्कृति की बात कर रहा है। और संस्कृति माने क्या? वही तुम्हारी सड़ी-गली पिछले सौ-दो सौ साल की, ग़रीबी की, गुलामी की, अशिक्षा की, अज्ञान की भोगवादी संस्कृति। तुम्हें धर्म का मतलब संस्कृति ही निकालना है तो चलते हैं न ऋग्वैदिक काल में चलते हैं, तब की संस्कृति क्यों नहीं लाते? तुम्हें पिछले सौ-दो सौ साल की संस्कृति से ही क्या मतलब है? तुम कह रहे हो, ‘नहीं, बस जो डेढ़-सौ साल पहले चलता था, संस्कृति मतलब खान-पान, व्यवहार यही सब संस्कृति होता है। खानपान-व्यवहार; तीज-त्योहार इनको मनाने का तरीक़ा ये संस्कृति है।’ कहते हो, ‘डेढ़-सौ साल की जो संस्कृति थी पुरानी वही आज भी चलानी है।’ डेढ़-सौ वर्ष पहले तुम्हारी हालत क्या थी? गुलामी की, ग़रीबी की, अज्ञान की, अशिक्षा की। मानो तुम कह रहे हो ग़रीबी, गुलामी, अज्ञान, अशिक्षा की जो संस्कृति है, वो आज भी चलाकर रखनी है।

अगर अपनी मूल संस्कृति ही चलानी है तो हम चलते हैं न, पीछे चलते हैं। उपनिषदों के ऋषियों से पूछते हैं, ‘बताओ तुम्हारी संस्कृति कैसी है?’ वो चलाते हैं। पर उनकी संस्कृति देखकर के इनके होश उड़ जाएँगे, संस्कृतिवादियों के। क्योंकि ऋषियों की जैसी संस्कृति है, तुम्हारी वैसी बिलकुल भी नहीं है। तुम झेल नहीं पाओगे ऋषियों की संस्कृति को।

ऋषियों की संस्कृति तो बहुत उदार है, बहुत खुली है। उन्मुक्त चिंतन है वहाँ पर। क्षुद्र सीमाएँ नहीं हैं। वर्जनाएँ नहीं हैं, संकुचन नहीं हैं। संकीर्ण वृत्ति नहीं है वहाँ पर। ये सब संकीर्णताएँ, शुद्रताएँ, सीमाएँ ये तो अभी की हैं, पिछले कुछ सौ सालों की।

और ये हमारे इतिहास के सबसे रुग्ण काल का प्रतीक है। हम अपनी रुग्णता को ही ढोते रहना चाहते हैं ये कहकर कि हमारी महान संस्कृति है। और वास्तव में जो कुछ आपके पास महान है अतीत का उससे आप बहुत डरते हो। अपनी महानता से आप पीछा छुड़ाते हो और अपनी बीमारी को आप ढोते रहना चाहते हो। ये कहाँ की समझदारी है? कि है?

अभी भी जो पूरा हो-हल्ला मच रहा है। वो इस पर मच रहा है कि जोशीमठ के पीड़ितों को अब बसाया कहाँ जाएगा, उनका रिहैबिलिटेशन (पुनर्वास) कैसे होगा, उनको मुआवजा कितना मिलेगा, और अगर सरकार उनको नये घर नहीं दे सकती है — जैसे टिहरी में हुआ था न, याद है? कितने लोग विस्थापित हुए थे! — तो सरकार उनको नये घर नहीं दे सकती है तो किराया महीने का कितना मिलेगा। और वहाँ के लोग भी इसी बात को लेकर अभी सबसे ज़्यादा उद्विघ्न हैं। मैं उनको दोष नहीं देता, जिनके घर गये हैं। वो तो सबसे पहले यही पूछेंगे कि मेरा नया घर कहाँ है? लेकिन जो अपनेआप को बुद्धिजीवी, चिंतक, विचारक बोलते हैं और ये पूरी मीडिया है। ये भी बस इसी बात को लेकर उड़ी हुई है कि जो हटेंगे उनका क्या होगा?

वो भी जो मूल मुद्दा है, उसको नहीं उठा रही है। कि हमारी विकास की अन्धी परिभाषा और धार्मिकता की अहंकारी अवधारणा, अज्ञानी अवधारणा, ये दोनों मिलकर पूरी पृथ्वी पर कहर बरपा रहे हैं।

सन्तों ने इतना समझाया, इतना समझाया कि असली तीर्थ है आत्मस्नान। और आत्मस्नान यदि नहीं हो रहा है तो तुम गन्दे ही रह जाओगे।

“मीन सदा जल में रहे। धोए बास न जाए।”

तुम कितना गंगा स्नान कर लो, भीतरी गन्दगी नहीं हट रही तो नहीं हट रही। अभी हमारी हालत ये है कि हम भीतरी गन्दगी हम और बढ़ा रहे हैं धर्म के नाम पर। और गंगा जी हमें क्या साफ़ करेंगी, हमने गंगा को गन्दा कर दिया। और समझाने वाले कह गये, “क्यों पानी में मलमल नहाए, मन की मैल छुटा रे प्राणी!“

“गंगा गये होते मुक्ति नाहिं, सौ-सौ गोते खाइए।”

लेकिन जब मन की मैल बचाकर रखनी होती है तो फिर हम गंगा को भी मैला कर देते हैं। और जब भीतर जानवर बैठा होता है न, तो हम पहाड़ों के, जंगलों के सारे जानवर काट डालते हैं।

जब हम भीतर के पशु से मुक्त नहीं होते तो बाहर वाले जितने पशु होते हैं उनके साथ बड़ा अत्याचार करते हैं। अगर मैं पुराणों की भाषा में बोलूँ, तो जोशीमठ का धँसना एक दैवीय चेतावनी है, ‘सुधर जाओ, अभी भी रुक जाओ। तुम धर्म का जो रूप चला रहे हो उसमें बहुत पाप है, रुक जाओ। ये जो तुम कर रहे हो, धर्म नहीं है, ये पाप है।’ और अक्सर पाप धर्म का नाम लेकर ही किया जाता है। कोई भी विधर्मी ये थोड़े ही बोलता है, ‘मैं पापी हूँ, अधर्मी हूँ।’ बोलता है क्या? वो भी अपनेआप को धर्मी ही बताता है। और हिमालय का जो ये पूरा क्षेत्र, ये अर्थक्वेक प्रोन (भूकम्प-प्रवण) भी है। और एक बड़ा भूकम्प आना बाक़ी है। भूकम्प आने की सम्भावना हम बहुत-बहुत बढ़ा देते हैं जब हम पर्वतों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं। और जब पहाड़ों पर भूकम्प आएगा न तो दिल्ली बच नहीं जाएगी। फिर दिल्ली अपना विकास अपनी जेब में रख ले। क्योंकि हिमालय से दिल्ली की सीधी-सीधी दूरी बहुत ज़्यादा नहीं है, मुश्किल से डेढ़ सौ-दो सौ किलोमीटर।

(प्रश्नकर्ता से पूछते हुए) और कुछ इस पर? ये मेरे पास कुछ आँकड़े लेकर के आये हैं। (आँकड़े पढ़ते हुए) पिछले पाँच साल में उत्तराखंड में तीन-हज़ार प्रतिशत वृद्धि हुई है, लैंडस्लाइड्स में। तीन-हज़ार प्रतिशत समझते हैं कितना होता है? सौ-प्रतिशत वृद्धि का मतलब होता है दूना हो जाना। कोई चीज़ यदि सौ-प्रतिशत बढ़ गयी माने दूनी हो गयी है। तो अब सोच लीजिए तीन-हज़ार प्रतिशत वृद्धि हुई है भूस्खलन के मामलों में! पिछले पाँच सालों में और पिछले ही पाँच सालों में हमारी धार्मिकता और ख़राब करी गयी है।

ये कोई संयोग भर नहीं है, पाँच साल का जो आँकड़ा है। वैज्ञानिक कह रहे हैं कि उसका कारण है, प्रदेश की डीन्यूडेड हिल्साइड। डीन्यूडेड माने पेड़ काटकर के जिनको नंगा कर दिया गया है। डीन्यूडेड! पेड़ों को काट-काटकर के पर्वतों को नंगा कर दिया गया है और तीन-हज़ार प्रतिशत वृद्धि हुई है, लैंडस्लाइड्स में। और पिछले बीस सालों में चंडीगढ़ के कुल क्षेत्र से पाँच गुना ज़्यादा क्षेत्र के वन उत्तराखंड ने खो दिये हैं, पाँच सौ स्क्वायर किलोमीटर। पाँच सौ स्क्वायर किलोमीटर समझते हैं कितना होता है? लगा लीजिए कि एक वर्ग है लगभग बाइस किलोमीटर की साइड्स का, अ स्कवायर ऑफ़ साइड्स ट्वेंटी टू किलोमीटर्स। इतना होता है पाँच सौ स्क्वायर किलोमीटर। बाइस किलोमीटर ऐसे चलते जाइए (सीधे), नब्बे डिग्री मुड़िए, बाइस किलोमीटर ऐसे चलते जाइए (दाहिनी ओर)। उतना एरिया ले लीजिए। उस पूरे एरिया में पेड़ थे, वन थे। वो सब काट दिए गये हैं। इतने पेड़ काटे गये हैं और ये बात आपको मीडिया बता रहा है क्या?

और इसका आर्टिकल का है— थ्री मंथ्स बिफोर पोल्स, उत्तराखंड गवर्नमेंट मेड माइनिंग इज़ीयर इन ए स्टेट ऑलरेडी डीवास्टेटेड बाय लैंडस्लाइड एंड डिफॉरेस्टेशन। (चुनाव से तीन महीने पहले उत्तराखंड सरकार ने भूस्खलन और वनों की कटाई से पहले से ही तबाह हुए राज्य में खनन को आसान बना दिया है ) ताकि चुनाव में जीत मिल सके। चुनाव के लिए पइसा चाहिए होता है न, तो वहाँ पर माइनिंग माफिया होता है और ये सब होते हैं। तो उनसे पैसा लेने के लिए, चुनाव में जीत लेने के लिए। चुनाव से तीन महीने पहले उत्तराखंड गवर्नमेंट मेड माइनिंग इज़ीयर इन ए स्टेट रैवेज़्ड बाय लैंडस्लाइड एंड डिफॉरेस्टेशन।

पिछले पाँच साल में सैंतीस पुल गिर चुके हैं, उत्तराखंड में। गुजरात में एक गिरा था, उससे बहुत शोर मचा था। यहाँ सैंतीस गिरे हैं। और इन सैंतीस के अलावा सत्ताईस और हैं जो गिरने को तैयार खड़े हैं।

लोकल्स एट्रिब्यूट द डिजास्टर अनब्राईडल्ड माईनिंग ऑफ़ सेंड फ्रॉम रिवर्स, मेकिंग फ्लड्स मोर डेवास्टेटिंग। (स्थानीय आपदा के कारण नदियों से रेत का अनियंत्रित खनन बाढ़ को और अधिक विनाशकारी बना रहा है) पैसा! पैसा! पैसा! पैसा! पैसा! विकास!

सितंबर 2021 में लैंड स्लाइड्स ट्रिगर्ड बाय पार्टिकुलरली हेवी रेन, ब्लॉक्ड एटलीस्ट हंड्रेड रोड्स अक्रॉस दी हिमालयन स्टेट। थाउजेंड ऑफ़ ट्रीज हैव बीन कट लूजनिंग व्हास्ट क्वांटिटी ऑफ़ मड अदरवाइज बाउंड बाय ट्री रूट्स। (विशेष रूप से भारी बारिश के कारण हुए भूस्खलन ने हिमालयी राज्य में कम-से-कम सौ सड़कों को अवरुद्ध कर दिया हज़ारों पेड़ काटे जा चुके हैं और भारी मात्रा में मिट्टी बह रही है जो कि पेड़ों की जड़ों से जकड़ी हुई थी) आप जब पेड़ काटते हो, पता है न क्या होता है। पेड़ो ने ही मिट्टी को पकड़ रखा होता है। पेड़ों ने ही पर्वतों को बचा रखा होता है। पेड़ गया नहीं कि वो मिट्टी ढीली हो गयी। अब उसको पकड़ने वाला जो एडीसिव (चिपचिपा) था, वो नहीं रहा, तो जैसे ही उस पर पानी पड़ेगा वो बह जाएगी।

डिस्पाईट द इंपैक्ट ऑफ़ माइनिंग ऑन रिवर्स पीपल इंफ्रास्ट्रक्चर इन एनवायरनमेंट द गवर्नमेंट रलेक्स्ड रेगुलेशंस टू मेकिंग इजियर फॉर माइनिंग कम्पनीज़ हु आर मेजर फंडर्स ऑफ़़ पोलिटिकल पार्टीज़ इन उत्तराखंड। (पर्यावरण में नदियों पर खनन के प्रभाव के बावजूद, सरकार ने खनन कम्पनियों की आसानी के लिए विनियमन में ढील दी, जो उत्तराखंड में राजनीतिक दल के प्रमुख फंडर हैं।)

रिमाइनिंग होती है तो जो चीज़ माइन से निकली है, वो रेत हो, चाहे वो मिनरल हो, उससे विकास होता है न! और वही हमें चाहिए। द ग्लोरियस करण जौहर एनआरआइ मूवी। वही हमारा आदर्श है। डेवलपमेंट ही डेवलपमेंट (विकास ही विकास) और वहाँ हम सब नाच रहे हैं। पैसा-ही-पैसा है और शादियाँ हो रही हैं, एक-के-बाद-एक और सब नाच रहे हैं, पैसा उछल रहा है।

द गवर्नमेंट निग्लेक्टिड अड्रेसिंग द लॉन्ग स्टैंडिंग कंसर्न्स ऑफ़ इलीगल माइनिंग एक्टिविटीज़ एंड डाइल्यूटेड माइनिंग रेगुलेशंस बिफॉर द एंड ऑफ़ द टेनयोर टू सेव देयर सपोर्टर्स। (सरकार ने अवैध खनन गतिविधियों की लम्बे समय से चली आ रही चिन्ताओं को दूर करने की उपेक्षा की और अपने समर्थकों को बचाने के लिए कार्यकाल समाप्त होने से पहले खनन नियमन को कमजोर कर दिया।)

ये आ रहा है सब टीवी चैनलों में? टीवी चैनल में तो ये आ रहा होगा कि ये देखिए ये हैं साक्षी देवी, इनका घर टूट गया है। घर में इनकी बछिया बँधी थी, बताइए उसे लेकर कहाँ जाएँगी? और साक्षी देवी हाय! हाय! दहाड़े मारकर रो रही हैं और चलिए साक्षी देवी को सहायता दीजिए। इस लिंक पर डोनेट करिए। मूल बात है वो आपसे कोई बता रहा है? न कोई बता रहा है, न आप जानना चाहते हैं।

हम जैसे जी रहे हैं, हमने जैसे अपने आदर्श बना रखे हैं। उन्हीं की वजह से क्लाइमेट चेंज है, उन्हीं की वजह से डिफोरेस्टेशन (पेड़ों की कटाई) है, उन्हीं की वजह से पृथ्वी बिलकुल रसातल में जा रही है। जो हमारी फ़िलॉसफ़ी ही है न लाइफ़ की वो बिलकुल ग़लत है।

क्या है हमारी फ़िलॉसफ़ी? हैप्पीनेस इज़ द परपस ऑफ़ लाइफ एंड हैप्पीनेस इज़ ऑब्टेंड थ्रू कन्जम्प्शन बस। ये कुल मिलाकर के दो पंक्तियों का सबका जीवन दर्शन है। हैप्पीनेस इज़ द परपस ऑफ़ लाइफ़ , सुख ही जीवन का उद्देश्य है और भोग के द्वारा सुख की प्राप्ति होती है। कुल मिलाकर ये हमारी दर्शन की किताब है — सुख जीवन का लक्ष्य है और सुख मिलता है पदार्थों को भोगने से। यही मूल कारण है कि सारी बर्बादी हो रही है।

अभी जो नियमों में वहाँ पर कुछ संशोधन किये गए हैं तो नियम और आसान बना दिए गये हैं। पर्वतों को बर्बाद करने के लिए एनवायरमेंटल क्लीयरेंस विल नो मोर बी रिक्वायर्ड फॉर कंस्ट्रक्शन एक्टिविटीज़ लाइक लेवलिंग, वॉटर स्टोरेज, रीसाइक्लिंग फिशपॉन्ड सेक्टर ऑन प्राइवेट लैंड एडजेसेंट टू द वेड ऑफ़ द रिवर ट्रिब्यूटरी और एस्टुअरी। (नदी के मुहाने के तल से सटी निजी भूमि पर जल भंडारण, पुनर्चक्रण, मछली, तालाब क्षेत्र को समतल करने जैसी निर्माण गतिविधियों के लिए अब पर्यावरण मंजूरी की आवश्यकता नहीं होगी) बिलकुल नदी के बगल में भी अगर आपको ये सब काम करने हैं तो खुलेआम कर सकते हैं। उसके लिए किसी प्रकार की अनुमति की भी आवश्यकता नहीं है। आगे चीज़ें और विस्तार में दी गयी हैं। ये सबकुछ उपलब्ध है। ये कोई पेड रिपोर्ट नहीं है। ये तो सब खुला हुआ है। आप गूगल करेंगे, आपको मिल जाएगा। पढ़ते नहीं हैं।

रिवर बेड माइनिंग मस्करेडिंग एज़ रिवर ट्रेनिंग और ड्रेसिंग इज़ द फैक्टर कंट्रीब्यूटिंग टू द राइज़ इन कोलेप्सिस ऑफ़ ब्रिजेज़। सैंड होल्डर्स एंड मिनरल्स आर इंपॉर्टेंट टू इंश्योर रिचार्ज ऑफ़ ग्राउंड वाटर टू कीप वाटर क्लीन एंड टू कीप इट फ्लोइंग। रिवर बेड माइनिंग ऑफ़ स्ट्रक्ट ऑल ऑफ़ दिस। फॉर द लास्ट डिकेड थाउसेंड्स ऑफ़ फ्लैशलाइट्स क्लाउडबस्ड एंड लैंडस्लाइड्स हैव स्ट्रक द स्टेट किलिंग पीपल एंड कॉजिंग लार्ज स्केल इंफ्रास्ट्रक्चरल डैमेज। (नदी तल खनन नदी प्रशिक्षण या ड्रेजिंग के रूप में बहाना पुलों के ढहने में वृद्धि में योगदान करने वाला कारक है। पानी को साफ़ रखने और इसे प्रवाहित रखने के लिए भूजल के पुनर्भरण को सुनिश्चित करने के लिए रेत धारक और खनिज महत्वपूर्ण हैं। नदी किनारे उत्खनन का होना इस सब में बाधा डालता है। पिछले एक दशक में अचानक हज़ारों बाढ़, बादल फटने और भूस्खलन से राज्य में लोगों की मौत हुई है और बड़े पैमाने पर ढाँचागत क्षति हुई है।)

इस पूरी चीज़ में वैसे! (कार्यकर्ता को सम्बोधित करते हुए) वो जो कल जो एक कमेंट आया था उत्तराखंड से वो दीजिएगा। जो उत्तराखंड के निवासी हैं। उनका भी कुछ कम योगदान नहीं है। देवभूमि है, पुण्य भूमि है, लेकिन अज्ञान और अन्धविश्वास से बिलकुल भरी हुई है।

अगर स्थानीय निवासी एकजुट हो जाएँ कि वो सबकुछ नहीं होने देंगे, जो विकास के नाम पर हो रहा है तो ये हो नहीं सकता। लेकिन वहाँ पर भी टीवी पहुँच गया न पच्चीस-तीस साल पहले। तो वहाँ भी सबको पैसा चाहिए! और पैसा चाहिए! और पैसा चाहिए! तो भी कहते हैं होता रहे। देखिए, अध्यात्म जहाँ नहीं होगा वहाँ पर एक ही चीज़ होगी जो हमें चाहिए। क्या? भौतिक सुख। और अनन्त भौतिक सुख। भौतिक आवश्यकताएँ सबकी होती हैं, बिलकुल होती हैं, आपकी हैं, मेरी हैं, सबकी होती हैं। भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करना एक बात होती है और भौतिक सुखों को ही जीवन का परम लक्ष्य बना लेना बिलकुल दूसरी बात होती है।

ये (सन्देश) कल उत्तराखंड से आया है। एक सज्जन हैं उन्होंने लिखा है, ये जो कमेंट है, ये सार्वजनिक ही है, यूट्यूब पर पड़ा हुआ है। उसको पढ़ देता हूँ, ‘मैं उत्तराखंड में पैदा हुआ था। स्वाभाविक ही है कि मेरे आस-पास माँसाहार ही चलता था और चलता ही है, किन्तु जानवरों के लिए करुणावश मैंने माँस छोड़ दिया था। पर नौवीं कक्षा में मेरे अध्यापक ने मुझसे कहा कि जान तो पौधों की भी जाती ही है तो ये तर्क सुनकर मैंने फिर से माँसाहार शुरू कर दिया।

कक्षा ग्यारहवीं में मेरे सामने मैंने देखा माँस की दुकान पर एक मुर्गे को बड़ी बेदर्दी से मारा गया। पहले उसके पैर काटे गये। फिर सिर और जब वो तड़पकर मर गया तो उसकी खाल खींचकर काट दिया। उसे अन्य मुर्गे देख रहे थे। उनमें भय छाया हुआ था। मैं फिर भी नीच विचारों की आड़ ले ये सब देखकर भी चुपचाप बैठा था और वहाँ से मुर्गे की जगह मछली का माँस खरीदकर घर ले गया। लेकिन बारहवीं के बाद जीवन की दिशा तय करते समय जब मैं तमाम दिशाओं में सोचने लगा तो मन हर बार किसी भी दिशा में थोड़ा आगे सोचकर बढ़ने से इंकार कर देता। निश्चित हो गया कि मन पुरानी दिशाओं में ज़्यादा दिनों तक रमेगा नहीं। फिर क्या करणीय है, क्या करूँ? तब मैंने यूट्यूब में जीवन के बारे में खोजना शुरू किया।

पहली बार फिर मैंने आचार्य जी को सुना। उस वक्त मैं जितना भी समझा जीवन की गाड़ी आगे को चल पड़ी थी। फिर मेरा माँस छूट गया। कुछ दिनों बाद दूध भी छूट गया। फिर मन्दिर के लिए फूल भी जो ख़ुद ही भूमि पर गिर गये हैं, वो जाने लगे। फिर खाए हुए फलों के बीजों को भी मैं अलग-अलग जगह फेंकने लगा और कुछ को तो बोले भी लगा। फिर सूक्ष्मजीवों के जीवन को ध्यान में रखते हुए भी अपने चुनाव बदलने लग गया और अब ये सोचता हूँ कि ये सबकुछ करने वाली पहले भी प्रकृति थी। अब कोई और है।

माँस भक्षण मेरे क्षेत्र में बहुत होता है। यह पर्यटन क्षेत्र है। लोग यहाँ आते हैं, घूमते हैं। उनमें से अधिकांश धुएँ, शराब और माँस का मज़ा लेकर चले जाते हैं, किन्तु मरे जानवरों की लाशें भय, चीख, दर्द, जीवन कुछ भी नहीं बचता। ये गोलू देवता के नाम पर मुर्गी और बकरी की बलि देते हैं जिसमें बस ये होता है कि काटकर चढ़ावे की नौटंकी करके ख़ुद ही खा जाते हैं। जबकि इनमें थोड़ी भी शर्म होती तो ये गोलू देवता के साथ ऐसा नहीं करते क्योंकि गोलू देवता इसी क्षेत्र में भैंसे चराते थे और उनका भैंसों के साथ प्रेम पूर्ण सम्बन्ध था।

यहाँ तक कि उनके शत्रु ने भी उन्हें मारने के लिए भैंसों को मोहरा बनाया और जब गोलू देवता भैंस को बचाने लगे तो उनके शत्रु ने छल से उनकी गर्दन पर वार किया। फिर गोलू देवता ने अपनी गर्दन के रक्त स्त्राव पर कपड़ा बाँधकर खून को रोककर उस शत्रु को मारा और फिर उनके अन्तिम क्षण उन्हीं भैंसों के साथ अत्यन्त करुणामय तरीक़े से व्यतीत हुए। पर ठीक उसी जगह पर जहाँ, कभी प्रेम और करुणा की रसधार फूटी थी। लोग और गोलू देवता की वंशी का संगीत बहता था। लोग आज निर्दोष पशुओं की जीवनधारा समाप्त करते हैं। करुणा और प्रेम की रसधार बहाने के स्थान पर उसी जगह पशुओं की रक्तधार बहाते हैं।’ अन्त में आख़िरी बात कही है कि चैतन्यता ही बोध ला सकती है।

तो अध्यात्म स्थानीय लोगों में भी नहीं। देवभूमि है पर अन्धविश्वास कूट-कूट कर भरा हुआ है, अध्यात्म नहीं है। और अध्यात्म उनमें भी नहीं जो देहरादून में बैठे हैं कि दिल्ली में बैठे हैं। न स्थानीय लोगों में, न राजधानियों में बैठे हुए आकाओं में। तो बताइए कौन बचाएगा फिर प्रकृतिक को और पर्वतों को?

ऋषियों ने ऐसे ही पर्वतों को, विशेषकर हिमालय को और हिमालय में भी विशेषकर उत्तराखंड को अपना घर नहीं बनाया था। देवभूमि कहते हैं, उसके पीछे कारण है और बहुत ठोस कारण है, वहाँ है विशिष्टता! और इसीलिए अहंकार उस जगह से इतना ज़्यादा चिढ़ता है इसीलिए उस जगह को सबसे ज़्यादा बर्बाद किया जा रहा है क्योंकि अगर वो जगह है तो उस जगह से सम्बन्धित प्रतीक भी बचे रहेंगे और जो प्रतीक हैं वो अहंकार के लिए घातक हैं। ये आप छुपी हुई बात देख पा रहे हैं?

अगर पुण्य भूमि है— उत्तराखंड और पुण्य को ही समाप्त करना है तो किसको समाप्त करना पड़ेगा? उत्तराखंड को समाप्त करना पड़ेगा इसलिए उत्तराखंड हर तरीक़े से समाप्त किया जा रहा है। स्थूल तरीक़े से भी और सूक्ष्म तरीक़े से भी। प्राकृतिक तरीक़े से भी और मानसिक तरीक़े से भी। वहाँ बाहर-बाहर जो प्रकृति है वो भी बर्बाद हो। और वहाँ लोगों का जो मन है वो मन भी बर्बाद हो। दोनों तरीक़ों से उस जगह को बर्बाद किया जा रहा है।

सनातन धर्म की स्थिति क्या चल रही है उसको जाँचने के लिए, नापने के लिए; एक अच्छा पैमाना सदा ये रहेगा कि उत्तराखंड की स्थिति क्या चल रही है। और गंगोत्री, यमुनोत्री और गंगा की स्थिति क्या चल रही है। जितना दूषित सनातन धर्म होता जाएगा उतनी दूषित हमारी नदियाँ होती जाएँगी। जितनी ध्वस्त सनातन धर्म की इमारत होती जाएगी, उतने ही ध्वस्त उत्तराखंड के पर्वत होते जाएँगे।

तो सनातन धर्म की हालत क्या चल रही है और इसको कभी भी नापना हो तो वहाँ जाकर के पर्वतों को, नदियों को और पर्वतों के निवासियों को देख लीजिएगा जो उनकी दशा है वही पूरे सनातन की दशा है।

आप समझ रहे हैं कि जोशीमठ नहीं धँस रहा! क्या धँस रहा है? सनातन धर्म धँस रहा है। सनातन धर्म से मेरा आशय सामुदायिक, साम्प्रदायिक इत्यादि नहीं है। सनातन धर्म! धर्म मात्र ही धँस रहा है! धर्म ही। धर्म ही धँस रहा है। एसेंशियल रिलीजियोसिटी वही ख़त्म हो रही है, धँस रही है। ज़मीन का धँसना मत मान लीजिएगा उसको। वो हमारा धँसना है। हम पाताल में जा रहे हैं! धँस रहे हैं।

प्र: सर, इसी विषय में एक बात और जोड़ने थी कि अक्सर जब इस तरह से बात की जाती है कि किस तरीक़े से प्रकृति का शोषण हो रहा है, पहाड़ों में तो ये कह दिया जाता है कि चीन से भारत को ख़तरा है और उत्तराखंड का बॉर्डर चीन से जुड़ता है। तो इसलिए उत्तराखंड में अच्छी सड़कें और सब चीज़ें डिफेंस के लिए बहुत ज़रूरी हैं।

आचार्य: डिफेंस से साफ़ मना करा है जब ये सब विनाश का कार्यक्रम शुरू कराया गया था विकास के नाम पर, तो उसको जस्टिफाई करने के लिए देश की रक्षा का बहाना बताया गया था कि साहब, अगर सड़क चौड़ी नहीं की गयी तो आर्मी जल्दी से चीन वाली सीमा पर नहीं पहुँच पाएगी तो आर्मी चीफ़ ने तत्काल कहा था कि माफ़ करिएगा। आर्मी के पास अपने तरीक़े हैं, हम खट से पहुँच जाएँगें। हमारे लिए नहीं इन सड़कों की कोई ज़रूरत है। आर्मी चीफ़ ख़ुद मना कर चुके हैं। मेरे ख़्याल से शायद तब विपिन रावत थे, उन्होंने कहा था, देखिएगा। मिल जाएगा। आर्मी वाली बात नहीं है ये, ये कुल मिलाकर के वही है— एनआरआइ ड्रीम!

‘मेरा तीर्थ है न! तो बिलकुल फाइव स्टार तीर्थ होना चाहिए। खट से गाड़ी निकले दिल्ली से और खट से सीधे केदारनाथ में खड़ी हो जाए। साँय-साँय-साँय!’ वहाँ तो अभी आवश्यकता ये है कि जो रिलीजियस टूरिज्म (धार्मिक यात्रा) भी होता है, उसको भी रेगुलेट किया जाए। कौनसा ये सब-के-सब वहाँ पर जा रहे हैं महादेव के प्रेम में? ज़्यादातर लोगों को तो शिवत्व का कुछ पता भी नहीं है। ये तो वहाँ पर जाते हैं, ये बॉक्स को टिक करने कि हाँ, भाई तीर्थ भी कर लिया। अब उसकी फोटो लेंगे, फेसबुक पर लगाएँगे और शेखी ही बघारेंगे कि मैं तो होकर आया हूँ अभी-अभी बद्री, केदार।

जिनकी ज़िन्दगी में शिव कहीं नहीं हैं वो पहाड़ पर चलकर शिव को पा जाएँगे, क्या? उन्हें शिव से कोई प्रेम भी है? खच्चर, घोड़े पर अत्याचार करके तुम वहाँ तक जाते हो, ये पशुपति के प्रेम का प्रतीक है पशुओं पर अत्याचार? ये तो जो चार धाम टूरिज्म है, ये तो रेगुलेट होना चाहिए। चार-चार महीने की वेटिंग लगनी चाहिए। ताकि वही लोग जाएँ जो सचमुच गम्भीर हों। ऐसे नहीं कि किसी ने भी मुँह उठाया और बोला, ‘चलो डार्लिंग हनीमून मनाने, ऊपर चलते हैं पहाड़ों पर! यहाँ गर्मी बहुत हो रही है, क्लाइमेट चेंज हो गया है, चार डिग्री औसत से ज़्यादा तापमान है, दिल्ली में। चलो केदारनाथ चलते हैं, मज़ा आएगा। केदारनाथ के रास्ते में और भी सब चीज़ें हैं, उनके भी मजे लेते हुए चलेंगे। पहले ऋषिकेश रुकेंगे, फिर कान्हा ताल है, उसमें रुकेंगे। केदारनाथ के पास चोपटा है, वहाँ मजे मारेंगे। चलो डार्लिंग!’

चार-चार छः-छः महीने की वेटिंग लगे। और एकदम! सीमित संख्या में वाहनों को जाने दिया जाए। एक-से-एक बड़े माँसाहारी! अत्याचारी! भ्रष्टाचारी! ये वहाँ चढ़े जा रहे हैं पर्वत पर। इनके पाप नहीं साफ़ होंगे पर्वत पर चढ़कर। हाँ, पर्वत जरूर गन्दा हो जाएगा इनके चढ़ने से।

ये मत करो कि सड़क इतनी चौड़ी कर दी है कि ज़माने भर की गाड़ियाँ पर्वत पर चढ़ जाएँ। सड़क तो और पतली रखो ताकि वही जाए तो सचमुच जाने लायक़ हैं, जिनमें इतना संयम है, इतनी पात्रता है और इतना प्रेम है कि वो कहेंगे कि हम इंतज़ार करेंगे। ‘मेरा नम्बर छः महीने बाद भी आएगा तो भी मैं प्रतीक्षा करूँगा। मैं तब जाऊँगा।’

ऐसा थोड़े ही है कि गुड़गाँव के रईस हैं और उठाई अपनी फॉर्च्यूनर और चढ़ गये झट से वहाँ पर और बहुत खुश हुए कि वाह! रोड अब कितनी चौड़ी हो गयी है, मज़ा आ रहा है। बीच-बीच में चिकन टिक्का भी मिल रहा है। ग़लत बोल रहा हूँ तो बताइए।

पहाड़ों पर प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण कौन लोग हैं? क्या स्थानीय निवासी? क्या स्थानीय निवासी पहाड़ों को गन्दा करते हैं? नहीं। स्थानीयों में तो फिर भी पर्वत के प्रति कुछ प्रेम होता है। पर्वतों को बर्बाद तो ये पर्यटक करते हैं और इन्हीं पर्यटकों को और ज़्यादा और ज़्यादा वहाँ बुला रहे हो। काहे के लिए भाई? कहेंगे, अर्थव्यवस्था के लिए। पहाड़ों के लोगों को भी तो पैसा मिलना चाहिए तो एक काम कर लो, पहाड़ों के लोगों को सब्सिडाइज़ कर दो वो कहीं बेहतर है। उन्हें सौ तरह की सब्सिडीज़ दे दो।

अगर आप यही चाहते हो कि पहाड़ के लोगों के हाथ में कुछ पैसा आए। तो उसके लिए पहाड़ को क्यों बर्बाद कर रहे हो? पहाड़ के लोगों को सब्सिडी दो। बहुत अच्छी बात है, पूरा देश तैयार हो जाएगा। भाई, पूरा देश जो टैक्स भरता है उसका आधे से ज़्यादा तो तुम खा जाते हो, अपने भ्रष्टाचार में। हमारा-आपका जो टैक्स जाता है, आपको क्या लग रहा है, वो विकास के कार्यों पर खर्च होता है? हमारा आपका टैक्स तो यही खा जाते हैं, सब नेता और ब्यूरोक्रेट्स (नौकरशाह)!

तुम्हें पहाड़ों की इतनी ही चिन्ता है तो जो हम टैक्स देते हैं उसी टैक्स का इस्तेमाल करके पहाड़ के लोगों को सब्सिडी दे दो। उनकी ज़िंदगी बेहतर हो जाएगी, आर्थिक रूप से भी। लेकिन पहाड़ क्यों बर्बाद कर रहे हो?

ये इतनी अजीब बात है, एक विदेशी आता है जब हमारे पर्वतों पर तो वो विदेश में माँसाहार करता होगा, भारत आकर के कहता है, ‘नहीं, माँसाहार छोड़ दो। मैं पशु क्रूरता के उत्पाद माने दूध, पनीर वगैरह भी नहीं छुऊँगा।’ ये विदेशियों का हाल रहता है। वो यहाँ पर साधारण कपड़े पहनकर घूमते हैं, अपने देश वाले नहीं।

वहीं ऋषिकेश से दो सौ-चार सौ रुपए का कुर्ता खरीद लेंगे, वही डाल लेंगे। वही पहन के अपना घूम रहे हैं। एक फटी चप्पल में अपना और मजे कर रहे हैं और जब देसी आदमी पहाड़ों पर जाता है तो वहाँ बकरा चबाता है। वो कहता है, ‘हम पहाड़ पर आये किसलिए हैं? बीयर और बार्बी क्यू!’

विदेशी माँसाहारी है पर वो पहाड़ पर आकर हो जाता है, शाकाहारी और देसी अपने घर में भले शाकाहारी होगा, लेकिन पहाड़ पर चलकर हो जाता है बलात्कारी! एकदम पूर्ण माँसाहारी। ये हमारी महान संस्कृति है! वो इसलिए क्योंकि संस्कृति में अध्यात्म कहीं नहीं है, बस संस्कृतिभर है। मिठ्ठू, बोलो राम-राम! तो मिट्ठू राम-राम बोल रहा है। तोता रटन्त संस्कृति।

क्या है ये? (मोबाइल में पुनः आँकड़ों को देखते हुए) तो जब ये सब तोड़-फोड़ हुई थी और उसमें जो बहाना बताया गया था, आर्मी का कि ये तो देश की रक्षा के लिए की जा रही है, तो भारतीय सेना की ओर से वक्तव्य आया था। मैं बिलकुल वैसे ही पढ़ देता हूँ विदिन कोट्स ‘इंडियन आर्मी रिलेक्टेंटली फॉलोइंग पॉलीटिकल इस्टेब्लिशमेंट। ये है विदिन कोट्स। सीनियर एडवोकेट कॉलिंग गोंजाल्विस रिप्रेजेंटिंग द इंडियन आर्मी टोल्ड द सुप्रीम कोर्ट दैट द इंडियन आर्मी वॉज़ ओनली फॉलोइंग द पॉलिटिकल एस्टेब्लिशमेंट विम्स। विम्स माने सनक। सनक है। विकास है ये! विकास! एंड इट वाज़ ऑलरेडी हैप्पी विद एक्ज़िस्टिंग रोड्स दैट कनेक्ट द पिलग्रिम्स टू द चारधाम’। (भारतीय सेना अनिच्छा से राजनीतिक प्रतिष्ठान का पालन कर रही है। भारतीय सेना का प्रतिनिधित्व करने वाले गुलालवी को बुलाने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया कि भारतीय सेना केवल राजनीतिक प्रतिष्ठान की इच्छा का पालन कर रही थी और तीर्थयात्रियों को चार धाम से जोड़ने वाली सड़कों की स्थापना से पहले से ही खुश थी।)

ये रोड इंडियन आर्मी के लिए नहीं है। ये रोड हैं इंडियन प्राईड्स को शो केस करने के लिए। सारा खेल ही वही है, प्राइड! प्राइड माने अहंकार, ‘हम भी तो कुछ हैं। ये देखो, बड़ी-बड़ी चीज़ें हमारी भी देखो!’ और जो हम बड़ी-बड़ी चीज़ें दिखाएँगे तो लोग वैसे ही इंप्रेस हो जाएँगे, जैसे करण जौहर और सूरज बड़जात्या की फिल्में देखकर इंप्रेस होते हैं और फिर हम को मिलेगा वोट! हम बोलेंगे, ‘देखो हमने क्या-क्या बड़ी चीज़ें की हैं, तुम्हारे प्राइड को बढ़ाने के लिए!’

अभी आर्मी ने क्या कहा है सुनिएगा। आर्मी कह रही है (मोबाइल से रिपोर्ट पढ़ते हुए) ’ए बेंच ऑफ़ जस्टिसेज डी.वाई. चंद्रचूड़, सूर्यकांत एंड विक्रमनाथ; दैट द प्रोजेक्ट कौन-से प्रोजेक्ट? ये जो रोड वाइडनिंग प्रोजेक्ट है। दैट द प्रोजेक्ट वॉज़ टेकिंग प्लेस बिकॉज़ इन टू-थाउजेंड-सिक्स्टीन चारधाम परियोजना वॉज़ डिक्लेयर्ड, व्हिच इन्क्लुडिड कंस्ट्रक्शन ऑफ़ हाईवेज़ ऑन द माउंटेन्स।’ नाउ विदिन कोट्स व्हाट इज़ द आर्मी काउंसलिंग सेइंग, विदिन कोट्स — ‘दिस विल इनेबल एसयूवीज़ टू रेस अप एंड डाउन द माउंटेन। दिस कम्स एट द टेरिबल कोस्ट एंड इट नीड्स टू बी वेड।’ (‘गोंस्लाव ने जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, सूर्यकांत और विक्रमनाथ की बेंच को बताया; दो-हज़ार-सोलह में चारधाम परियोजना की घोषणा की गयी थी जिसमें पहाड़ों पर राजमार्गों का निर्माण शामिल था।’ क्या कह रही है सेना की काउंसलिंग — ‘इससे एसयूवी पहाड़ के ऊपर और नीचे दौड़ने में सक्षम होगी। उन्होंने कहा कि ये एक भयानक क़ीमत पर आता है और इसे तौलने की ज़रूरत है।’)

ये आर्मी ने कहा है कि ये आर्मी के लिए नहीं बन रहा है, ये बन रहा है एसयूवीज़ के लिए। ‘सनासन-सनासन, मौज मारी जाए।’ और एसयूवीज़ का मतलब आम आदमी भी नहीं होता। एसयूवी का मतलब आर्मी तो होता ही नहीं है, एसयूवी का मतलब आदमी भी नहीं होता, एसयूवी का मतलब होता है एनआरआइ। वही ’द एनआरआइ ड्रीम।’ एनआरआइ मतलब देसी एनआरआइ भी शामिल है उसमें, गुडगाँव वाला एनआरआइ। और वो एनआरआइ बहुत ज़रूरी है, क्योंकि वही फंडिंग करता है न! वही है जो हिंदू प्राइड का बादशाह है और वही फंडिंग भी करता है। तो ये सारा विध्वंस उसके लिए किया जा रहा है। आपके और हमारे लिए भी नहीं है ये।

आर्मी के लिए भी नहीं है, आम आदमी के लिए भी नहीं है। जोशीमठ यूँ ही नहीं धँस रहा। समझ में आ रही है बात ये? आगे आर्मी के काउंसिल का वक्तव्य है — ’कैन द हिमालयाज़ अलाउ ह्यूमनबींग्स टू थिंग्स दैट दे वांट टू डू?’ ‘आप जो कुछ भी करना चाहते हो, क्या हिमालय अनुमति देंगे आपको करने की?’

’द कोंसीक्वेंसिस आर टेरिबल वन ऑफ़ अस मेट। (एक भयानक परिणाम हम भुगत चुके हैं) बिपिन रावत चीफ़ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ ही सेड, बिपिन रावत का वक्तव्य है, विपिन रावत ख़ुद उत्तराखंडी थे — ‘वी द आर्मी हैप्पी विद द रोड एस दे आर’ (‘सेना इन रास्तों से खुश है’) ‘हमें नहीं चाहिए।’ ये हो रहा है— दिल्ली, चंडीगढ़, गुड़गाँव बाक़ी जितनी जगहों पर। एसयूवी, एनआरआइ मामला है, उसके लिए चल रहा है। ताकि आप कह सकें हम भी तो कुछ हैं!

पढ़ लीजिएगा बाक़ी पूरा, कितना मैं करूँ!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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