आज़ादी चाहिए तो पहले मानो कि गुलाम हो (धोखे अहंकार के)

Acharya Prashant

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आज़ादी चाहिए तो पहले मानो कि गुलाम हो (धोखे अहंकार के)
मन रहेगा तो तन को खाने दौड़ेगा। वो तन को खाएगा और तन के माध्यम से खाएगा। मन जब तक अपने आप को तन से भिन्न समझेगा वो तन का एक ही उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करेगा — तन को खा लूँ और तन के माध्यम से दूसरे तनों को खा लूँ। अहम् अपने आप को शरीर से भिन्न इसीलिए मानने के ज़िद करता है; कहता है, ‘मैं शरीर नहीं हूँ, मैं शरीर का स्वामी। शरीर का भोक्ता हूँ। अब मैं शरीर को भोगूँगा और शरीर के माध्यम से और कुछ भोगूँगा।’ जब दिख गया कि शरीर-ही-शरीर हूँ, तो अब क्या भोगूँ! मौज करो। शरीर सरिता है बह रही है, हम भी अपना बस ऐसे ही तिनके की नाई फ़्लोट कर रहे हैं। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मेरा नाम रत्न है। प्रश्न है एक विषय के बारे में और वृत्ति भी जो अहम् के इर्द-गिर्द है। क्या कुछ संबंध है उसमें विषय से और वृत्ति से?

आचार्य प्रशांत: अहम् स्वयं वृत्ति ही है, अहम् वृत्ति के अलावा कुछ नहीं है। अहम् भी वृत्ति ही है, और कुछ नहीं है। वो वृत्ति कहाँ से आ रही है? वो अहम् की अपनी नहीं है, वो त्रिगुणात्मक है। ये जो है न मिट्टी जो शरीर बन गई है, ये उसकी वृत्ति है। उसी वृत्ति को अहम् नाम दे दिया जाता है।

जैसे ये (अपने ओर इशारा करते हुए) शरीर है, आप ये तो कहोगे न। एक मोटे तौर पर कि जैसे ये (गेंद को उठाते हुए) है। इसको मैं यहाँ से छोड़ूँ, तो इसकी वृत्ति है नीचे गिरने की। मोटे तौर पर कह रहे हैं, इसको अगर आप फिर भौतिकी के संदर्भ में बात करेंगे तो दूसरा आ जाएगा। लेकिन ऐसे। दिख रहा है न! कि इसकी वृत्ति है कि नीचे अगर कोई बहुत बड़ा भूखंड है, मास है, तो ये (गेंद) उसकी ओर गिरेगा। अब इसमें कोई बैठा नहीं है जो इसको गिराता है। बस ये जो इसका शरीर है, इसके शरीर में ही ये बात है कि तुम इसको छोड़ोगे, तो इधर (मेज़ की तरफ़) जाएगा।

वैसे ही ये (अपने शरीर की ओर इशारा करते हुए) जो ये शरीर है। इसका (गेंद का) शरीर क्या करता है, वैसे ही जो ये शरीर है, ये मैं बोलता है, ये मैं बोलता है। तो अहम् स्वयं एक वृत्ति है। अहम् को मूल वृत्ति कहा जाता है। और फिर उस मूल वृत्ति से अलग-अलग तरह की और वृत्तियाँ होती हैं। अब ये जो दूसरी वृत्तियाँ पैदा होती हैं, ये अलग-अलग वृत्तियों में अलग-अलग अनुपात में पाई जाती हैं। वो व्यक्ति सापेक्ष होती हैं। पर अहम् वृत्ति हर व्यक्ति में, हर जीव में पाई-ही-पाई जाती है।

आप यहाँ तक कह सकते हैं, और तकनीकी रूप से आपकी बात गलत नहीं होगी कि अहम् वृत्ति तो इसमें भी है (हरी गेंद को उठाकर दिखाते हुए), इसमें भी है।

जैसे कि उदाहरण; आपके बगल में आप बैठी हुई हैं (प्रश्नकर्ता के समीप बैठी हुईं श्रोता)। जो आपके बगल में बैठी हुई हैं अगर मैं उन्हें मारूँ, तो क्या आपको चोट लगेगी?

प्रश्नकर्ता: जी, नहीं।

आचार्य प्रशांत: नहीं लगेगी, नहीं लगेगी। आप ऊं, आँ कुछ भी नहीं बोलेंगी। आपके बगल में जो बैठी हुई हैं अगर वो सो रही हैं और मैं झँझोड़कर के जगाऊँ, तो क्या आप उठेंगी?

प्रश्नकर्ता: जी नहीं।

आचार्य प्रशांत: आप नहीं उठेंगी। हैं न? उसी तरीके से ये (गेंद) है। (मेज़ पर रखी गेंद के पास में ही दूसरी वस्तु को मेज़ पर ही मारते हुए) गेंद क्यों नहीं हिल रही? गेंद क्यों नहीं हिल रही? आपका उत्तर क्या है, जब मैंने कहा कि जब मैंने उनको मारा तो आप क्यों नहीं रोईं? तो आप क्या बोलेंगी? क्योंकि मुझे नहीं मारा। यही तो उत्तर होगा न?

आपके बगल में जो बैठी हैं, मैंने उनको मारा, वो रोईं, आप नहीं रोईं। मैं पूछूँगा आप नहीं रोईं तो आप क्या बोलेंगी?

प्रश्नकर्ता: मेरे को नहीं मारा।

आचार्य प्रशांत: मुझे तो नहीं मारा।

प्रश्नकर्ता: जी।

आचार्य प्रशांत: हाँ। अब गेंद से पूछिए, ‘तू क्यों नहीं हिल रही?’ पूछिए! पूछिए न! गेंद से पूछिए, ‘तू क्यों नहीं हिल रही?’

प्रश्नकर्ता: तुम क्यों नहीं रो रही हो?

आचार्य प्रशांत: क्योंकि मुझे थोड़े ही मारा। (प्रश्नकर्ता हँसती हैं।)

अहम् वृत्ति तो इसमें (गेंद में) भी है न! ये भी अपनी हस्ती की सीमाएँ जानती है। उस सीमा से बाहर अगर कुछ हो रहा है, तो ये जवाब ही नहीं देती। गेंद रानी ऐसे बैठ गई है (मेज़ पर रखते हुए)। अब इसकी ये सीमा है (गेंद की ऊपरी सतह)। ये जो है ये इसकी हस्ती की सीमा है। और इसके (सीमा के) बाहर आप कुछ भी करते रहिए, इसको फ़र्क ही नहीं पड़ता। इसको मारो तो चल देती है, ‘हाँ, नाराज़ हो गई हूँ, जा रही हूँ।’

जैसे ही उसकी हस्ती की सीमा को छूआ, वो चल दी। तो अहम् वृत्ति तो एक तरह से इसमें भी है। ये भी जानती है कि मैं कहाँ शुरू होता है, कहाँ खत्म होता है, इसको भी पता है। तो ये जो अहम् वृत्ति है वास्तव में शारीरिक वृत्ति है। शरीर का होना ही अहंता है। वो मूल वृत्ति है, द मदर टेंडेंसी (मातृ प्रवृत्ति)। ठीक है?

फिर चूंकि शरीर अलग-अलग तरह के होते हैं तो जो बाकी वृत्तियाँ हैं, जो बाद में आती हैं, जो मूल वृत्ति की शाखाओं की तरह की होती हैं। वो तो अलग-अलग होती हैं। उदाहरण के लिए; किसी में भय की वृत्ति ज़्यादा हो सकती है, किसी में कम हो सकती है, किसी में क्रोध की, किसी में मोह की, किसी में लोभ की, किसी में भय की। वही सब पचास तरीके की वृत्तियाँ हैं। ये सब किसी में ज़्यादा होती हैं, थोड़ी किसी में कम होती हैं। और कोई वृत्ति ज़्यादा हो कोई वृत्ति कम हो, एक वृत्ति है जो एकदम सार्वजनिक है। कौन-सी?

श्रोतागण: अहम् वृत्ति।

आचार्य प्रशांत: अहम् वृत्ति।

प्रश्नकर्ता: इसी के संबंध में एक प्रश्न और है। क्या मुक्त हो सकते हैं सब वृत्तियाँ रहते हुए अहम् के इर्द-गिर्द?

आचार्य प्रशांत: अहम् वृत्ति कभी ये नहीं कहती कि मैं शरीर हूँ। अहम् वृत्ति कभी ये नहीं कहती कि मैं तो शरीर हूँ। अहम् वृत्ति कहती है कि शरीर है, और मैं भीतर शरीर के अलग बैठी हूँ, मैं शरीर से भिन्न हूँ। इस अर्थ में ‘मैं तो आत्मा हूँ।’ क्योंकि आत्मा होती है न शरीर से अलग। ‘मैं तो आत्मा हूँ।’

अहम् वृत्ति हमेशा किस बिनाह पर, किस आधार पर पलती है? मैं तो अलग हूँ, शरीर से अलग हूँ। मेरे गाल पर किसने मारा? (अपने गाल पर मारने का अभिनय करते हुए)। मेरा गाल, मेरा गाल, मेरी गेंद, मेरी गेंद। (गेंद को उठाते हुए)। ये बात तार्किक सिर्फ़ तब है जब? (गेंद को अलग रखते हुए)

श्रोतागण: जब मुझसे अलग हो।

आचार्य प्रशांत: जब गेंद मुझसे?

श्रोतागण: अलग हो।

आचार्य प्रशांत: अलग हो। तब मैं कहूँगा, ‘मेरी गेंद।’ पर अहम् वृत्ति ऐसी ही बात करती है, कहती है, ‘मेरा गाल।’ मेरा गाल जैसे कि गाल अलग है, और मैं?

श्रोतागण: अलग हूँ।

आचार्य प्रशांत: गाल और तुम अलग नहीं हो। तुम गाल ही हो। तुम्हारा मूल वक्तव्य जो तुम्हारे देह की बात है वो है ‘अहम् देहास्मि।’ ये तुम्हारे दिल की बात है जो तुम कभी मानोगे नहीं।

तुम कहते ये हो कि मेरा विचार, मेरा गाल, मेरी भावनाएँ। अंग्रेजी में एक जुमला चलता है — आइ एम मेकिंग माय माइंड, आइ एम यट टू मेकअप माइ माइंड। या आइ हैव चेंज्ड माइ माइंड। (मैं अपना मन बना रहा हूँ, मुझे अभी अपना मन बनाना है या मैंने अपना मन बदल लिया है।)

जैसे कि मन अलग है और मैं अलग हूँ और मैं मन को बनाता इत्यादि हूँ। आइ हैव चेंज्ड माय माइंड। (मैंने अपना मन बदल लिया है।) जैसे कि तुम्हारा हक है तुम्हारी मन के ऊपर, जैसे कि तुम मालिक हो मन के। कहते हैं न! ये अहम् वृत्ति है। जो कभी माने को तैयार नहीं होती कि मैं शरीर मात्र हूँ, मैं त्रिगुणात्मक हूँ। मैं इस मिट्टी के ढेर का एक गुण मात्र हूँ।

तो मुक्ति क्या है फिर? कि अहम् ये जान ले कि उसकी अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता है नहीं। यही मुक्ति है। और ये कैसे पता चलता है? जहाँ कहीं अहम् कह रहा हो कि मैं हूँ, उसने दावा ठोका, ‘मैं हूँ,’ आप वहाँ पहुँच जाइए। आप पहुँच जाइए माने कौन? अहम् ही पहुँच जाए। अहम् को मुक्ति भी अहम् के माध्यम से ही मिलेगी।

तो अहम् दावा ठोक रहा है कि मैं हूँ, और आप वहाँ पहुँच जाइए। उदाहरण के लिए; क्या बोल रहा है अहम् कि मैं क्या हूँ? कुछ बोलिए जैसे; मैं खुश हूँ। ‘मैं हूँ’ इतना तो वो कभी बोलता नहीं, वो ‘मैं हूँ’ के बीच में कुछ लगाकर बोलता है हमेशा। तो मैं?

श्रोतागण: खुश हूँ।

आचार्य प्रशांत: तो आप पहुँच जाइए, कहिए, ‘तुम खुश नहीं हो, तुम्हें अभी रसगुल्ला मिला है। तो तुम्हारी कोई स्वतंत्र सत्ता?’

श्रोतागण: नहीं है।

आचार्य प्रशांत: नहीं है। और तुम अपने आप को हमेशा क्या साबित करते आए हो?

श्रोतागण: मैं आज़ाद हूँ।

आचार्य प्रशांत: स्वतंत्र। पर तुम स्वतंत्र तो हो नहीं, क्योंकि तुम्हारी खुशी किस पर आश्रित थी?

श्रोतागण: रसगुल्ले पर।

आचार्य प्रशांत: रसगुल्ले पर। तो हटो तुम। तुम्हारी कोई हस्ती नहीं है। अच्छा ठीक है।

कुछ और बोलिए! ‘मैं स्त्री हूँ।’ आप पहुँच जाइए, कहिए, ‘तुम तो ये बोलते थे कि तुम स्वतंत्र हो, पर स्त्री माने तो शरीर। तो तुम स्वतंत्र तो हो नहीं।’ जैसे ही आपने ये दावा खारिज कर दिया सबूत के साथ कि वो स्वतंत्र है, वैसे ही वो मिट जाता है, यही मुक्ति है। अहम् पहले ही अपने आप को क्या घोषित करे हुए है?

श्रोतागण: मुक्त।

आचार्य प्रशांत: मुक्ति इसमें है कि तुम दिखा दो कि अहम् मुक्त नहीं है, क्योंकि वो तो हमेशा इसी गुमान में जी रहा रहा है कि मैं तो मुक्त हूँ ही। आइ विल मेक अप माय माइंड, आइ विल थिंक ओवर एंड टेल यू, इफ़ आइ चेंज़्ड माय माइंड, आइ विल लेट यू नो।

(मैं अपना मन बनाऊँगा, मैं सोचूँगा और आपको बताऊँगा। अगर मैंने अपना मन बदल दिया, तो मैं आपको बता दूँगा।)

वो तो इसी रुतबे में जी रहा है कि मैं तो पहले से ही?

श्रोतागण: मुक्त हूँ।

आचार्य प्रशांत: मुक्त हूँ, हाँ। अवलोकन का अर्थ ही यही होता है, आत्मज्ञान होता ही यही है कि जितनी बार अहम् को देखा, उतनी बार उसे बंधन में पाया। बंधन क्या है? निर्भरता ही बंधन है। अहम् को हमने पाया ही नहीं, जब वो किसी पर निर्भर न हो। कभी देखा उसको खुश है, तो पाया उसकी खुशी किस पर निर्भर है?

श्रोतागण: रसगुल्ले पर।

आचार्य प्रशांत: रसगुल्ले पर। कभी देखा कि बहुत घमंड में है, तो उसकी खुशी किस पर निर्भर है? कि किसी ने आकर के उसको थोड़ा सम्मान दे दिया या किसी ने पैसे दे दिए, तो वो रुतबे में आ गया है कि देखो मैं तो जलवेदार हूँ। उसके पास कुछ भी ऐसा नहीं है जो उसका निजी हो। लेकिन दावा उसका क्या है? कि मैं तो स्वतंत्र हूँ, मैं तो मुक्त हूँ।

जैसे ही आप उसको लगातार देख-देखकर, आत्म-अवलोकन यही है; लगातार उसको देख-देखकर, देख-देखकर बता दे कि बेटा, तू जिस भी हालत में रहता है न, रहता तो तू किसी के कँधे पर ही है, रहता तो तू किसी की बैसाखी पर ही है। न तेरा सुख तेरा, न तेरा दुख तेरा, न बड़प्पन तेरा न दीनता तेरी। तेरा प्रेम भी तेरा नहीं है, तेरी ईर्ष्या भी तेरी नहीं है। तेरा जब कुछ अपना है ही नहीं, तो तू भी कौन है फिर? तू नहीं है।

अहम् को उसकी मुक्ति के झूठे प्रपंच से मुक्त कर देना ही मुक्ति है। जो पहले ही अपने आप को मुक्त जानकर बैठा हो, उसकी मुक्ति की नेति-नेति कर देना ही मुक्ति है। माने आज़ाद होना है तो बहुत ईमानदारी से, बहुत निर्ममता से ये स्वीकार करना सीखो कि तुम बहुत बड़े गुलाम हो।

आज़ादी के रास्ते में सबसे बड़ी समस्या ही यही है कि ज़्यादातर लोगों में कमज़ोरी ही इतनी होती है कि उनसे झेला ही नहीं जाता ये तथ्य कि वो भारी गुलाम हैं। उन्हें अपनी निजता में भरोसा होता है, वो कहते हैं, ‘हम कुछ हैं, अभी हम सोच रहे हैं, हम अपने व्यक्तिगत हिसाब-किताब से बताएँगे।’

तुम्हारा व्यक्तिगत हिसाब-किताब तुम्हारा है ही नहीं। तुम बहुत गुलाम आदमी हो। कोई और है जो तुम्हारे लिए सब कुछ तय करता है। जिस दिन आपने मान लिया कि आप गुलाम हो, जिस दिन आप अपनी गुलामी की तह तक पहुँच गए बिल्कुल, जिस दिन आपने अपने गुलामी के तल को भी बिलकुल खरोंच-खरोंचकर देख लिया, उस दिन आज़ादी है।

गुलामी को स्वीकार करना, स्वीकार करना इस अर्थ में नहीं कि गुलाम हूँ तो गुलाम ही रहूँगा; स्वीकार करना इस अर्थ में कि उसको एक्नॉलेज (अभिस्वीकृति देना), अभिस्वीकृति, जानना। गुलामी को स्वीकार करना ही आज़ादी है। और वही अटक जाते हैं जिनको दंभ होता है कि उनके पास कुछ पर्सनल थिंकिंग (व्यक्तिगत सोच) है, इंडिविजुअल थॉट (व्यक्तिगत विचार) है, पर्सनल एजेंसी (व्यक्तिगत अभिकर्त्तत्व) है।

आइ थिंक। (मुझे लगता है।) नो, यू डोंट थिंक, यू जस्ट रिएक्ट, दिस इज़ नॉट कॉल्ड थिंकिंग। दिस इज़ कॉल्ड ए केमिकल इक्वेशन, दैट टू एन अनबैलेंस्ड वन। (नहीं, आप सोचते नहीं, सिर्फ़ प्रतिक्रिया करते हैं, इसे सोचना नहीं कहते। इसे रासायनिक समीकरण कहते हैं, ये असंतुलित समीकरण है।)

किसी को आप बहुत गंभीरता से ये दावा करते हुए देखें, ‘अभी सोच रहा हूँ।’ ये आदमी अभी इसी हिसाब में है कि वो सोच सकता है। तुम सोच थोड़े ही रहे हो। ये लगभग ऐसे सी बात है कि मिक्सर ग्राइन्डर आपके सामने चल रहा है, और आप कह रहे हैं कि आप सोच रहे हैं।

उसका डिज़ाइन किसी और ने बनाया, माल उसमें कुछ बाहर का पड़ा हुआ है, बिजली उसमें कहीं और से आ रही है और गोल-गोल, गोल-गोल वो घूम रहा है, तुम्हारे हिसाब से तुम सोच रहे हो। दिमाग वैसा ही मिक्सर है। आप थोड़े ही सोच रहे हो।

गुणों में गुण बरत रहे हैं। जो हो रहा है प्रकृति कर रही है, तुम झूठमूठ का श्रेय लेने के लिए खड़े हो और कह रहे हो कि मैं कर रहा हूँ। मैं करने के लिए आज़ाद हूँ, स्वतंत्र हूँ, मैं कर रहा हूँ।

तुम क्या कर रहे हो। तुम वही कर रहे हो जो अभी यहाँ पर ये पूर्वपक्षी कर रहे थे कि चाहत रसगुल्ले की है और उस रसगुल्ले की खातिर तुम बड़े-से-बड़ा तर्क देने को और बहस करने को तैयार हो। कुल बात इतनी सी है कि मम्मी, रसगुल्ला! (बच्चे की तरह बोलने का अभिनय करते हुए)। पर इतना तुममें भोलापन भी नहीं रहा कि सीधे बोल ही दो कि कुछ भी नहीं है, रसगुल्ला चाहिए। (बच्चे की आवाज़ में अभिनय करते हुए)।

जैसे छोटे बच्चे हों, बिस्तर गीला कर दें। तो सुबह उठते हैं ऐसे आँखें मलते हुए ऐसे (नाटक करते हुए), बिस्तर गीला है, फिर नीचे देखते हुए हैं तो उनका निक्कर भी गीला है, तो कुछ नहीं करते, ऐसे (ऊपर की ओर मुँह करके हँसते हुए) माँ की ओर ऐसे देखेंगे बस ‘ह-ह-ह।’ और चाँटा पड़ेगा तो खा लेंगे, और क्या करेंगे बेचारे।

और यही जो हो जाते हैं बीस साल, तीस साल, चालीस साल के बच्चे, ये भी बिस्तर गीला करते हैं, तो बोलते हैं, ‘कुछ भी नहीं है, ये तो आकाश ये एक दिव्य नदी उतरी थी, मैं तो निमित्त मात्र हूँ, भगीरथ का अवतार हूँ मैं।’

अरे यार! सीधे बोलो न बिस्तर पर मूत आए हो! हो गया, बच्चे हो, ठीक है। बड़ी माँ (महामाया, महामाँ) के लिए तो सब बच्चे ही हैं। पर नहीं! बहस, बातें, गंभीरता, आइ ऐम समबडी। (मैं कुछ हूँ।)

और फिर जब आइ ऐम समबडी हो जाता है, बड़ा पर्सन (व्यक्ति) खड़ा हो जाता है, तो फिर उस पर्सन को पर्सनल स्पेस (व्यक्तिगत स्थान) का भी गुमान हो जाता है। वो पर्सनल स्पेस और थोड़े ही कुछ है। वो वैसे ही है जैसे महलों के इर्द-गिर्द खंदकें और खाईयाँ बनाई जाती थीं बड़ी-बड़ी। किसलिए? ताकि दुश्मन आक्रमण न कर सके। वो सारा पर्सनल स्पेस ही इसीलिए होते है ताकि कोई आकर के तुम्हारे अहम् को ध्वस्त न कर सके। और थोड़े ही कोई बात है।

जब मैंने सबसे पहले बोला था, पर्सनल टाइम इज़ हेल। (व्यक्तिगत समय नर्क है)।’ बहुत लोग बहुत नाराज़ हुए थे। उनको लगा कि मैं ये बोल रहा हूँ कि प्रोफेशनल टाइम (व्यावसायिक समय) होना चाहिए, उनको लगा कि मैं बोल रहा हूँ, कॉर्पोरेट स्लेव (कॉर्पोरेट गुलाम) बन जाओ।

ये मैं एमबीए वाले स्टूडेंट्स थे, उनको पढ़ा रहा था, तो उनको बोला था। उनको समझ में ही नहीं आया, उन्होंने कहा, ‘पर्सनल लाइफ़' (व्यक्तिगत जीवन) तो बड़ी इम्पोर्टेंट (महत्वपूर्ण) बात होती है, वर्क-लाइफ बैलेंस (व्यवसाय-जीवन संतुलन) तो होना ही चाहिए और आप बोल रहे हो, पर्सनल टाइम इज़ हेल। डू यू वॉन्ट टू टर्न अस इन्टू कॉर्पोरेट स्लेवस? (व्यक्तिगत समय नर्क है। क्या आप हमें कॉर्पोरेट गुलाम बनाना चाहते हैं?)

मैंने कहा, ‘तुम रसगुल्ले के तल पर ही सुन रहे हो। कॉर्पोरेट सैलरी से तुम्हें समस्या नहीं है। तुम चाहते हो कॉर्पोरेट सैलरी लेकर पर्सनल टाइम में उस सैलरी को भोगो। तो इसलिए तुम पर्सनल टाइम-पर्सनल टाइम (व्यक्तिगत समय-व्यक्तिगत समय) कर रहे हो।

मैं पर्सनल टाइम और प्रोफेशनल टाइम, दोनों की व्यर्थता की बात कर रहा हूँ। क्योंकि प्रोफेशनल टाइम में कर्ता है और पर्सनल टाइम में भोक्ता है। वो और क्या है? दिनभर घिसाऊँगा, उसके बाद माल घर लाऊँगा। और क्या करूँगा?

श्रोतागण: भोगूँगा।

आचार्य प्रशांत: भोगूँगा। दिन में क्या है वो?

श्रोतागण: कर्ता।

आचार्य प्रशांत: कर्ता। रात में क्या है वो?

श्रोतागण: भोक्ता।

आचार्य प्रशांत: भोक्ता। ये तो दोनों एक ही हैं। मैं ये कहाँ कह रहा हूँ कि एक दूसरे से बेहतर है। कर्ता-भोक्ता तो एक होते हैं। तुम समझ ही नहीं रहे हो मैं क्या कह रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ कि पर्सन ही कर्ता है और पर्सन ही भोक्ता है। और ये पर्सन ही तुम्हारा सारा दुख है।

तुम हिसाब में लगे हो कि मैं कमा तो लूँ और भोगने में कोई बाधा न आए। पर्सनल टाइम माने और क्या है।

तुम हो ही नहीं। कोई है जो तुमसे करवा रहा है, कोई है जो तुम्हें भोगने के लिए भी विवश कर रहा है। तुम्हारा भोगना यदि मैं व्यर्थ बोल रहा हूँ तो मैं कह रहा हूँ तुम्हारा करना भी उतना ही व्यर्थ है। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि करो तो, पर भोगो नहीं।

(कक्ष में रखा कुछ समान नीचे गिरने से उत्पन्न हुई आवाज़)

ये देखो! ये ऐसे ही नहीं बजा है। आप (प्रश्नकर्ता) पूछ रही थीं न वृत्ति क्या होती है, ये होती है। कुछ बज गया है। आचार्य जी बजा देते हैं जब तो फिर। ये देखिए! ये अक्सर होता है।

जब भी बात किसी खतरनाक बिंदु की ओर बढ़ने लगती है, सभागार में कुछ-न-कुछ बज जाता है। वो यूँही नहीं है।

सच जानिए! वो यूँही नहीं है। ये आपके साथ भी होगा। बात जैसे ही वहाँ जा रही होगी जहाँ आपके लिए खतरा है, आप पाएँगे घर में आपका बच्चा रो पड़ा। आप स्क्रीन के सामने बैठे सुन रहे थे, बच्चा रो पड़ा, या घुटने में दर्द हो गया। होगा, बिल्कुल होगा।

बात जैसे ही वहाँ जा रही थी, जहाँ आपके लिए खतरा हो जाता, आपके घुटने में दर्द हो जाएगा, आपकी पीठ में खुजली हो जाएगी, कुछ हो जाएगा। नींद आ जाएगी, अचानक भूख लगने लगेगी, प्यास लग जाएगी और किसी को लगातार ही नींद आ रही हो, तो मेरा एक-एक शब्द उसके लिए भारी खतरा है। ये वृत्ति है।

अहम् माने एक भारी झूठ, पाप वगैरह कुछ नहीं। एक ज़बरदस्त झूठ। कि सिर्फ़ इसलिए कि मैं मिट्टी पर पाँव रखकर चलता हूँ, इसलिए मैं मिट्टी? नहीं हूँ। इस झूठ को अहम् कहते हैं। इसी से मुक्त होना है। अब मौत नहीं आएगी न!

जब कोई मर जाता है तो कहते हैं कई घरों में, ‘मिट्टी रखी है।’ वहाँ तो मरने के बाद मिट्टी होते हैं, हम तो मरने से पहले ही मिट्टी हो गए। बताओ, हमें अब मौत कैसे आएगी? मरने से पहले जो मिट्टी हो गया वो अमर हो जाता है। यही मुक्ति है। मिट्टी के तरह जिओ।

मिट्टी कभी मिट्टी को भोगना चाहती है? मिट्टी की तरह जीने से क्या आशय है? मिट्टी इस दुराशा में नहीं रहती कि और मिट्टी को भोग लूँगी, तो मुझे कुछ?

श्रोतागण: मिल जाएगा।

आचार्य प्रशांत: मिल जाएगा। हाँ। तो निष्काम हो जाना ही है मिट्टी हो जाना, और निष्काम हो नहीं सकते बिना गहरे ज्ञान के। आत्मज्ञान के बिना निष्कामता संभव नहीं है।

बहुत ठाठ हैं, बहुत राजसी बात है। करोड़ों की चीज़ आपके सामने रखी हो और उसको आप ऐसे छुएँ जैसे सूत की साड़ी हो। कभी आप देखिएगा! आप जब जाते हैं गहनों की दुकानों में तो वहाँ पर जो सुनार, जौहरी होते हैं, वो आपको कुछ दिखाएँगे तो दिखाते भी ऐसे हैं जैसे दिखाने में ही उसकी कीमत दिख जाए, ‘ज़रा देखिए!’ (जौहरी की तरह कुछ चीज़ दिखाने का अभिनय करते हुए)।

‘अरे, ऐसे क्या दिखा रहे हो!’ गौर किया है? माने कि अगर एक सेंटीमीटर प्रति घंटा से ज़्यादा की गति से दिखाया, तो वो जो हीरा-मोती है उसमें दाग लग जाएगा। ‘वो ऐसे-ऐसे, आह! देखिए-देखिए।’

(श्रोतागण हँसते हैं)

और मैं कह रहा हूँ, उसको आप वैसे ही छुओ जैसे सूत की, कपास की, कॉटन (कपास) की साधारण साड़ी को आप छूते हो न ऐसे (छूने का अभिनय करते हुए)। अपमान से नहीं छूते, हेय दृष्टि से नहीं छूते, सहज छूते हो। सहज छूते हो न! आपने (प्रश्नकर्ता) ये टी-शर्ट पहन रखी है, इसे आप कैसे छूएँगी? छू दिया। वैसे ही। ये मुक्ति है।

मिट्टी है सब। मिट्टी के प्रति अपमान थोड़े ही रखा जाता है। पर ये सम्मान भी नहीं रखा जाता कि इसको और पा लूँगा तो राजा इंद्र बन जाऊँगा। किसी बड़े आदमी के दरबार में आपको ले जाया गया है और वहाँ सब कैसे घुस रहे हैं? कैसे घुस रहे हैं? कौन दिखाएगा? ‘जी-जी-जी। छ: फिट वाले भी साढ़े चार फिट होकर घुस रहे हैं।’ (कमर झुकाकर चापलूसी करने का अभिनय करते हुए)

एक-से-एक होते हैं जिनका पर्सनल टाइम और पर्सनल बहुत कुछ होता है, पर्सनल सेल्फ (व्यक्तिगत स्व।) पर जब वो बड़े लोगों के सामने पड़ते हैं, तो जी-जी-जी-जी! एकदम जी-जी शुरू हो जाता है।

वहाँ भी वैसे ही चले आओ जैसे सुबह सड़क पर टहलते हो। सुबह सड़क पर बहुत दम्भ, दर्प, अहंकार के साथ तो नहीं टहलते न। कैसे टहलते हो? सहज। वैसे ही बड़े-से-बड़ा आदमी है, उसके सामने सहज चले आओ ये मुक्ति है। या संस्कृत के श्लोकों के साथ बताऊँ, तब ज़्यादा लाभप्रद होगा?

समझ में आ रही है बात?

एक बार किसी को मालूम है मैंने कैसे बोला था। ‘मन को तन जान लेना ही मुक्ति है। मन को तन जान लेना ही मुक्ति है।’ तरीका है। कभी कैसे बोल दिया। माने जिसको तुम अपनी भावना, विचार, पसंद, नापसंद, सब बोलते हो, वो बस शारीरिक है। यही मुक्ति है।

जिसको ये समझ में आ गया कि अरे! आज घुटना दर्द हो रहा है तो जाकर के बैठकर लाइब्रेरी में पढ़ना था तो आज नहीं पढ़ेंगे, आज ज़्यादा समोसे खा लिए तो आज जिमिंग नहीं करेंगे, वो फिर ये नहीं करता। उसको पता है कि मन कुछ होता ही नहीं। क्या है? तन है। तो भैया तन का खयाल ही कर लो। चलो दौड़ लगा लेते हैं। द बॉडी इज़ एवरीथिंग। (शरीर ही सबकुछ है।)

अध्यात्म ये सिखाता है, ‘हा! पर ये तो गज़ब तरीके के भौतिकता हो गई। ये तो मटीरियलिज़्म (भौतिक्तावाद) सिखा रहा है दुराचार्य! ये क्या कर दिया। मार्क्सवादी है क्या। वहाँ भी हमने सुना है डाइलैक्टिकल मटीरियलिज़्म (द्वंद्वात्मक भौतिकवाद।)’ पर यही है।

और मुझ पर आप जो भी उपाधियाँ थोप रहे हो, वो सारी उपाधियाँ फिर अपने उपनिषदों पर भी डाल दो। क्योंकि मैं जो बोल रहा हूँ वो वहाँ से बिल्कुल मेल खाता है। तो आप जितने सुंदर-सुंदर वचन मेरे प्रति बोलते हो, वो वास्तव में मेरे प्रति नहीं बोल रहे हो, अपने ऋषियों के प्रति बोल रहे हो, और भगवद्गीता के प्रति बोल रहे हो, और श्रीकृष्ण के प्रति बोल रहे हो। क्योंकि जो मेरी बात है वो उनकी बात भी है।

समझ में आ रही है बात ये?

मन रहेगा तो तन को खाने दौड़ेगा। वो तन को खाएगा और तन के माध्यम से खाएगा। मन जब तक अपने आप को तन से भिन्न समझेगा वो तन का एक ही उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करेगा — तन को खा लूँ और तन के माध्यम से दूसरे तनों को खा लूँ।

अहम् अपने आप को शरीर से भिन्न इसीलिए मानने के ज़िद करता है; कहता है, ‘मैं शरीर नहीं हूँ, मैं शरीर का स्वामी। शरीर का भोक्ता हूँ। अब मैं शरीर को भोगूँगा और शरीर के माध्यम से और कुछ भोगूँगा।’ जब दिख गया कि शरीर-ही-शरीर हूँ, तो अब क्या भोगूँ!

मौज करो। शरीर सरिता है बह रही है, हम भी अपना बस ऐसे ही तिनके की नाई फ़्लोट (बह) कर रहे हैं।

अहम् की मुक्ति माने ये नहीं होता कि अहम् कुछ भारी बन जाता है। हमेशा क्या कहा जाता है? अहम् का विगलन। सरिता में गल गया। शरीर के सरिता; प्रकृति ही नदी है न! तो तन की ही सरिता है जो बह रही, शरीर की ही नदी बह रही है, और अहम् उसमें ज़बरदस्ती एक ढेला बनकर के अपना निजी अस्तित्व बता रहा था। उसका क्या हुआ?

श्रोतागण: गल गया।

आचार्य प्रशांत: गल गया। तो निर्वाण विगलन के अलावा और कुछ नहीं होता। गल गया, नहीं रहा -यही है आत्मस्थ हो जाना है। आत्मस्थ हो जाना माने ये नहीं कि अहंकार बड़ी भारी वस्तु बन गया, (आत्मस्थ हो जाना।) माने? रहा ही नहीं।

जैसे नमक का ढेला हो और समुद्र में जाकर के बिल्कुल बराबर हो गया। ऐसा मिल गया कि अब उसकी कोई निजी सत्ता बची नहीं। अहम् माने मेरी अब कोई निजी सत्ता नहीं है, मेरा सारा नमक समुद्र का नमक हो गया। मेरा सारा नमक अब समुद्र का नमक हो गया, मेरी कोई निजी सत्ता नहीं है। ये मुक्ति है।

योद्धा गाते हैं:

काल को देखो अहम् को जानो, अवलोकन ही आत्मस्नान है मल मान्यता मिथ्या धारणा, शुद्ध करता आत्मज्ञान है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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