आचार्य प्रशांत: श्रद्धा का अर्थ है कि कर्म के लिए किसी कर्म करने वाले की जरूरत नहीं होती, कि कर्म के लिए कर्ता आवश्यक नहीं है। हमारा कहना होता है कि मैं नियंत्रण में ना रहूँ, मैं ना संभालूँ, मैं ना करूँ, तो कुछ होगा कहाँ? और यदि कुछ होगा भी, तो अनाप-शनाप हो जाएगा, अनियंत्रित होगा, तो अव्यवस्थित हो जाएगा? हम अपने करने को बड़ा भारी मूल्य लगाते हैं और हमारे पास प्रमाण भी होते हैं।
हम कहेंगे, ‘गाड़ी चल रही है, हम चालक हैं, हम स्टीयरिंग पर हैं। हम ना चलाएँ, तो चलेगी कैसे? और चलाते-चलाते अगर कभी झपकी आ जाए या बेध्यानी हो जाए, तो गाड़ी भिड़ जाती है ना?"
ऐसा हम उदाहरण देंगे। तो रोजमर्रा के जो हमारे अनुभव और हमारे उदाहरण होते हैं, उनके द्वारा हमें ऐसा प्रतीत होता है और हम ऐसा सिद्ध भी कर देते हैं कि कुछ होता रहे, ठीक से होता रहे, शुभता से होता रहे, व्यवस्था से होता रहे—उसके लिए हमारा करना बहुत जरूरी है।
ये एक तरह से आरंभ का बिंदु है, जहाँ से सारी कहानी आत्मज्ञान की शुरू होती है क्योंकि यही धारणा लेकर हर आदमी बैठा है। यहीं से हमारी शुरुआत होती है, और यहीं से सर दर्द, तनाव और हिंसा की भी शुरुआत होती है। "मुझे करना है। मैं जानता हूँ, उचित क्या है, वह मुझे करना है।"
कुछ बात थोड़ी पकड़ में आई?
"मुझे करना है"—ये बात प्रासंगिक ही तब होती है जब पहले मुझे पता हो कि मुझे क्या करना है। "मुझे करना है"—इस बात का महत्व ही तभी है जब पहले जो करना है, वह तय और निर्धारित भी मेरे द्वारा हो। याद रखिएगा, हमारे कर्म पहले नहीं आते—हमारी कामना पहले आती है।
कामना आ गई, और जहाँ से कामना आई, फिर "मैं" कहता है कि चूँकि मेरी कामना है, तो उसे पूरा करने का कर्म भी मैं ही करूँगा करूँगा। कामना मेरी, तो काम करने की फिर जिम्मेदारी—कर्तव्य भी मेरा। ऐसे कहानी शुरू होती है। यह सबकी स्थिति है, इसलिए कह रहा हूँ कि यह वह बिंदु है जहाँ से आगे की यात्रा शुरू होगी। तो मेरी कामना और मेरी कामना के पीछे मेरा कर्म।
ठीक है,अगर कामना आपकी है, तो फिर कर्म की जिम्मेदारी भी आपकी है। कामना आपकी है, तो कर्तव्य फिर आपका है कि कामना को पूरा करें। लेकिन अब आप जहाँ से कहानी शुरू करना चाहते हैं, मैं वहाँ से कहानी को आगे ले जाने की जगह कहानी को पीछे ले जाऊँगा।
अब आपको उसमें कुछ रोचक मिलने वाला है। आपकी कहानी शुरू कहाँ से होती है?
कामना से।
आप कहते हो, "कामना मेरी है, तो फिर उसे पूरा करने का कर्तव्य भी मेरा है, जिम्मा भी मेरा है।” ठीक है। लेकिन यह बताइए—क्या आपकी शुरुआत सचमुच सिर्फ़ कामना से होती है? हम कहेंगे—नहीं। कामना तो प्राकृतिक है ना? नैसर्गिक है। तो कामना तो, भाई, एकदम आरंभ का बिंदु—स्टार्टिंग पॉइंट—है ही है। मैं कहूँगा—नहीं, नहीं, नहीं। मैं थोड़ा अरूँगा यहाँ पर।
मैं पूछूंगा—कामना क्यों? कामना क्यों? आपको कामना पूरी करनी है, या आपको पूर्णता चाहिए? आनंद चाहिए? चैन चाहिए? आप लोग यहाँ सब बैठे हो। मैं आपसे पूछूं—पहला विकल्प: कामना पूरी करनी है। दूसरा विकल्प: चैन चाहिए। तो इसमें से आप किसको चुनोगे?
श्रोतागण : "चैन चाहिए।"
आचार्य प्रशांत: दूसरा विकल्प चुनोगे? अच्छा, दूसरा विकल्प आप क्यों चुनोगे?
क्योंकि कामना भी आप इसीलिए पूरी करना चाहते हो ताकि उसमें से आपको चैन मिल जाए, है ना? तो अगर चैन सीधे ही मिल सकता हो, तो फिर आप वही विकल्प चुनोगे। आपने चुना भी क्या थे?
दो विकल्प—पहला: कामना पूरी करनी है। और दूसरा: चैन चाहिए।
तो वहाँ पर कोई भी थोड़ा भी होशियार आदमी हो, तो वह यही चुनेगा कि चैन चाहिए। क्योंकि कामना भी आप चयन के लिए ही कर रहे हो।
"चैन" माने पूर्णता, आनंद। अब उसी के लिए पूरा करना चाहते हो। सीधे ही चैन मिल रहा हो, तो फिर आप चैन ही ले लोगे। तो आप कहोगे—"हाँ, ठीक है, हमने चुन लिया दूसरा विकल्प कि हमको चैन चाहिए।"
अरे, लेकिन चैन कामना के पूरे होने से ही तो मिलता है? तो पहले और दूसरे विकल्प में आप कहोगे कि कोई अंतर ही नहीं है। पहला विकल्प मार्ग है, और दूसरा विकल्प मंज़िल है। आप कहोगे, "कामना मार्ग है, और पूर्णता या शांति या चैन—यह मंज़िल है।"
अब यहाँ पर अध्यात्म बीच में भांजी मार देता है। यहीं पर जो समझदार लोग हैं—ज्ञानी, और गीता—यह आकर के आपकी धारणा पर प्रश्न चिह्न लगा देते हैं। वो कहते हैं, ‘हाँ, ठीक है भाई, कामना तो है तुम्हारे पास। लेकिन यह कैसे अनिवार्य हो गया कि कामना की पूर्ति से तुमको चैन मिल जाता है? यह बताओ।’
आप कहोगे, ‘नहीं, लेकिन हमारा मानना ऐसा ही है कि जो चीज़ हम चाह रहे हैं, जिसकी हमें इच्छा है, यदि वह हमें मिल जाए, तो हमें चैन मिल जाएगा।’
अब ज्ञानी फिर से सवाल खड़ा कर देता है। वो कहता है, ‘क्या ऐसा हुआ है? क्या तुम्हारा अतीत और विश्व का इतिहास इसकी गवाही देता है? क्या तुमने कभी भी ऐसा होता देखा है कि कामना पूरी हो गई है, तो चैन मिल गया?’
अब हमारे वादी साहब लगते हैं बगले झाँकने। ऐसा ज़बरदस्त उनकी धारणा पर प्रतिवाद पड़ा है कि मुँह छुपाए ही नहीं बनता। क्या थी धारणा? कि कामना पूरी होगी तो चैन मिल जाएगा। और एक साधारण-सा सवाल उस पर खड़ा कर दिया किसी जिज्ञासु ने, ‘ऐसा तुम्हारे अनुभव में आया है कभी, या बस कल्पना की पतंग उड़ा रहे हो?’
तुम इतने बरस के हो गए, ऐसा तो नहीं कि तुमने आज तक कोई कामना की ही नहीं? तुम इतनी कामनाएँ कर चुके हो। उनमें से बहुत सारी तुमने ज़ोर लगाकर पूरी भी कर ली। एकदम कोई भी कामना पूरी न हो, तो कामना से भरोसा उठ जाए। पर हमारी कुछ कामनाएँ बीच-बीच में पूरी हो जाती हैं। तुमने इतनी कामनाएँ पूरी भी की होंगी। उन कामनाओं के पूरे होने से तुम्हें चैन मिला? मिला क्या?
बहुत आशावादी किस्म का होगा, तो कह देगा, ‘मिला, थोड़ा-सा मिला, चार दिन का मिला।’ ‘नहीं साहब, पूर्ण नहीं तो अंश भी चलेगा, उसी के भरोसे तो ज़िन्दा हैं। ’ पर कोई नहीं कह पाएगा कि चैन मिल ही गया। कोई नहीं कह पाएगा। लेकिन यह प्रश्न आपको शायद प्रेरित कर दे, या विवश कर दे कि आप और गहराई से झाँकें कामना के पूरे व्यापार में।
और आप पाएँगे कि चैन मिला कितना, यह तो पता नहीं पर कामना धरे-धरे चैन गँवाया बहुत है। इतना ही नहीं, कई बार ऐसा भी हुआ है कि कामना पूरी हो जाने पर और ज़्यादा बेचैन कर गई। उससे भले तो तब थे, जब कामना पूरी नहीं हुई थी।
आप अगर बोलोगे कि कभी-कभार कामना के पूरे होने पर कम-से-कम अल्पकालिक या आंशिक चैन मिलता है—तो फिर प्रतिवादी, जिसको हम यहाँ पर जिज्ञासु या ज्ञानी कह रहे हैं, वह यह भी पूछेगा कि फिर उन सारे मौकों का भी हिसाब बताओ, जब कामना पूरे हो जाने पर रहा-सहा, बचा-खुचा चैन भी तुमने गँवा दिया है।
अब हालत बड़ी खराब हो जानी है। क्योंकि ऐसे मौके बहुत रहे हैं, जब आपने जो चाहा था, वह मिल गया और पाने के बाद कहते, ‘इससे तो भला था कि न मिलता। यह श्रम करके, समय लगाकर, संसाधन लगाकर, यह क्या हम हासिल कर आए? तो और गड़बड़ बात हो गई। ’
तो कामना की पूर्ति और आपकी पूर्णता के बीच जो रिश्ता है, वह बड़ा संदेहास्पद है, बड़ा कमज़ोर है और कई बार बड़ा विपरीत है, टेढ़ा है। कुछ नहीं कह सकते कि उसमें कुछ है भी कि नहीं। और एक बात तो शर्तिया कह सकते हैं, इसकी गारंटी है कि कामना के पूरे होने से आप पूरे नहीं हो जाते।
जैसे हम कहते हैं न कई बार—"इवन इफ डीज़ायर्स गेट फुलफिल्ड डू यू गेट फुलफिल्ड?” तो आपने कहानी कहाँ से शुरू करनी चाहिए थी? कि जब कामना हमारी है, तो उसको पूरा करने का कर्तव्य भी हमारा है। "मैं चाहता हूँ, तो मैं ही हासिल करके दिखाऊँगा साहब। ”
यहाँ से आपने कहानी शुरू करनी चाहिए थी। पर किसी ने आकर सवाल लगा दिया—"क्या?"
"कि कामना क्यों?" "कामना क्यों?"
तो आपने कहा—"कामना इसलिए, क्योंकि कामना से चैन मिलता है।" तो उसने कहा—"अच्छा, यह बताओ कि आज तक जो कामनाएँ पूरी हो गई हैं, उनसे कितना चैन पा गए हो?" और तुम में ऐसा क्या बदल गया कि सोच रहे हो कि जो अतीत में नहीं हुआ, वो भविष्य में हो जाएगा?
चमत्कार?
"अतीत में भी इतनी कामनाएँ पूरी कीं, क्या चैन पा गए? तो भविष्य में कहाँ से पा जाओगे?" तो अब जो पूरी बात है, वह दूसरी जगह से शुरू होगी। वह दूसरी जगह से ऐसे शुरू होगी कि चाहिए क्या है?
"चैन।"
जिसको चैन चाहिए, वह सोचता है कि चैन मिलेगा कामना पूरी करके। तो वह इसलिए कामना के पीछे भागता है, क्योंकि उसको चैन चाहिए। तो जो आरंभिक बिंदु था, वह फिर कामना नहीं है, वह चैन है।
आरंभिक बात यह नहीं है कि मुझे कामना पूरी करनी है। आरंभिक बात यह है कि ठंडक चाहिए। एक आखिरी तसल्ली चाहिए। एकदम विश्राम मिल जाए। मौज आ जाए। लगे कि ऐसे भरपूर हो गए कि भाई, सारी चिंता-फिक्र सब हट गई। यह चाहिए।
तो पहली बात यह नहीं है ज़िन्दगी में कि मेरी कामना क्या है। पहली बात यह है कि मुझे चैन चाहिए। यह बहुत अंतर होता है। यही अंतर तय कर देता है कि संसारी हो या ज्ञानी हो। संसारी सोचता है कि सब चीज़ों की शुरुआत होती है कामना से। वह कामना से ही शुरू करता है। कामना के पीछे क्या है, यह नहीं देखता। वह कामना पर खड़ा रहता है। और कामना के आगे क्या है, भविष्य क्या है, कामना को पूरा करने के लिए जुगाड़ और यत्न क्या करना है—वह यह सब देखना शुरू कर देता है।
संसारी यह नहीं देखता कि कामना के पीछे क्या है। वह कामना के आगे क्या है, वह देखना शुरू कर देता है। ज्ञानी की भी शुरुआत कामना से होती है, पर वह थोड़ा-सा अपने कंधे के पीछे देखता है। वह कहता है—"कामना के पीछे क्या है?" कामना कहाँ से आ रही है? तो उसे पता चलता है कि कामना आ रही है चैन की माँग से।
कामना जिस मूल कामना से आ रही है, वह है चैन की कामना। तो वह कहता है, "अच्छा, अच्छा... यानी विषय की कामना नहीं है?" "विषय की कामना नहीं। किसकी कामना है?" "चैन की कामना है। "
लेकिन संसारी सोचता है कि कामना माने विषय की कामना। तो वह आगे अपना भागना शुरू कर देता है। संसारी जब कामना उठती है, तो किसी विषय की उठती है, तो वह उस विषय के पीछे भागना शुरू कर देता है। विषय कुछ भी हो सकता है—बहुत साधारण आम विषय सबकी ज़िन्दगी में होते हैं। वह भागना शुरू कर देता है।
ज्ञानी कहता है—"अच्छा, विषय की कामना... या बात कुछ और है?" "विषय की कामना... या बात कुछ और है?" तो कहता है, "हाँ, कामना तो है। " क्योंकि ज्ञानी की भी शुरुआत तो अपूर्णता से ही होती है।
सबकी कहानी की शुरुआत कहाँ से होती है? अपूर्णता से से ही होती है। सब अपूर्ण ही पैदा होते हैं, तो ज्ञानी की भी शुरुआत अपूर्णता से ही होती है। वह देखता है कि जो मुझे चाहिए, वह वास्तव में क्या है—विषय या कुछ और? तो कहता है, "नहीं, विषय की कामना नहीं, चैन की कामना।"
ठीक है, चैन की कामना। फिर वह उसको देखता है जिसको चैन की कामना है। उसका क्या नाम है? अहंकार।
सबसे पहली बात तो यह कि मुझे विषय की कामना नहीं है। हालांकि बच्चा पैदा होता है, पैदा होते ही वह विषय की कामना करता है। बच्चा बड़ा हो जाता है, फिर भी वह विषय की ही कामना करता है, "सम ऑब्जेक्ट टू डीज़ायर।"
ज्ञानी पहले देखता है, फिर कहता है—"अच्छा, कामना तो है, पर वह विषय की नहीं है।" मूलभूत कामना चैन की है। फुलफिल्मेंट, कंटेंटमेंट। तो कहता है—"अच्छा, अच्छा, अच्छा। तो मूल कामना यानी चैन की है। किसको? यह कामना? नाम क्या है उसका?" तो पता चलता है—"नाम है अहंकार।" तो उसके पास जाता है।
अहंकार से पूछता है—"क्या हो गया? क्या बात है? कैसे यह हालत कर ली? चाय चलेगी? इतने बेचैन हो गए कि 'चैन-चैन' चिल्ला रहे हो। "
क्या चाहिए? "कामना है। " कामना के पीछे गए, तो क्या पता चला? "विषय की कामना नहीं है, चैन की कामना है। " अब चैन की कामना तो उसको पकड़ा जिसको है कामना। वह जो बेचैन होकर बैठा है, अब उससे पूछो—"क्या है? क्या बात है? क्यों इतने बेचैन हो? क्या हुआ?"
तो वह कुछ बात ही नहीं करना चाहता। उसको अपनी बेचैनी पर ध्यान ही नहीं देना। वह तो एक ही बात बोल रहा है—"विषय। विषय। "
अब मान लो मैं हूँ वह अहंकार। अब मेरे पास कोई आया। मान लो ज्ञानी, कृष्ण आ गया, अष्टावक्र आ गया, कोई आ गया। और ‘मैं ‘ऐसे बैठा हुआ हूँ—आधी नींद में, आधी बेहोशी में। कुछ गुरूर है, कुछ गुमान है—सब कुछ है उसमें। गुरूर से लेकर सुरूर तक—सब चढ़ा हुआ है।
और यही वह बिंदु है जहाँ से हर चीज़ की शुरुआत होनी है। इतने महान हैं ये कि इनकी बेचैनी भी महान है। फिर इन्हीं का निर्णय है कि बेचैनी मिटेगी किससे? "विषय से। " और फिर उसी विषय को पाने के लिए क्या करेंगे? "घनघोर कर्म करेंगे—जीवन भर। "
कौन ये? (अपनी ओर यानि ‘मैं’ को इंगित कर समझाते हुए)
इनकी हालत कैसी है? कुछ पूछो इनसे कि हालत ऐसी कैसे हो गई? तो एक ही जवाब आता है—"क्या? विषय। " विषय का कुछ नाम बता देते हैं। "कुछ भी नाम हो सकता है—रुपया, पैसा, कुछ भी। धनिया, कुछ भी। " विषय है, विषय। यही इनकी हालत है।
अब ठहरो थोड़ा सा। सब लोग ठहर जाओ। और पूछो अपने आप से—"जिसकी ऐसी हालत है, वह जो चीज़ माँग रहा है, उसको दोगे क्या?"
मेरे पास आ गए। कामना से शुरू किया। कामना से पता चला कि कामना तो मूलतः चैन की है। अब चैन की कामना है—तो जिसकी कामना है, पहले उसकी शक्ल भी देख लो। उसकी शक्ल कैसी है? अब यह आदमी है। इनका यह हाल है—सूख गए हैं, गिर रहे हैं, नशे में झूम रहे हैं, पता नहीं क्या है। और आत्मविश्वास पूरा है इनको अपना…
"कुछ भी पूछो मुझसे। कुछ पूछो। " तो इन्होंने मुझसे पूछा—"क्या चाहिए?"
अब मैं क्या बोलूँ? "गुटके की फैक्ट्री लगानी है। "
इस आदमी को आप गंभीरता से लोगे? लोगे? पहले इसकी हालत देखो।
“अपुन इच गॉड है। ” "अपुन ने जो माँगा, अपुन को मिलना माँगता। " यह भीतर बैठा है। और यह जैसे-जैसे अपना पाठ बता रहा है, वैसे बीच-बीच में यह भी बोल देता है—"क्या? रॉकेट चाहिए। रॉकेट। मार्स पर जाना है। " अपुन जाएगा। यह जो भी कामनाएँ कर रहा है, उसको कितनी गंभीरता से लोगे? बताओ।
कितनी गंभीरता से लोगे? "नहीं ले सकते?" तो क्यों लेते हो? "नहीं ले सकते, तो लेते क्यों हो?"
जिसकी हालत इतनी बेहोशी, बदहवासी की है, उसकी माँगों पर ध्यान क्यों देते हो? और भी वह कह रहा है—"मान लो बैठे हुए हैं। ऊपर से लाइट गुजरी।" तो ऐसे एकदम उछल के खड़ा हो गया। "क्यों खड़े हो गए भाई?" "क्या हो गया? क्या समस्या है?"
"मैं ऐसे न थामूँ, तो पायलट प्लेन को गिरा देगा। मेरे को ऐसे लैंड कराना है। यहाँ पे। कर्तव्य है मेरा। " "मैं कर्म नहीं करूँगा, तो प्लेन क्रैश हो जाएगा। "
"क्या हो गया तुझे?" प्लेन क्रैश क्यों नहीं होने देना है?
"उसी में तो धनिया आ रही है। " "लैंड कराएगा? इस पर आजा। लैंड कर जा। आजा। मेरी गोदी में लैंड कर जा।"
इसकी बेहोशी से इसकी उल-जुलूल कामना उठी है। और उस उल-जुलूल कामना को पूरा करने के लिए यह कोई भी एकदम ऊटपटांग कर्म करने को तैयार है। ये हमारी ज़िन्दगी है।
भीतरी बेहोशी। उस बेहोशी से उठी कामना। और फिर यह दावा कि कामना मेरी है, तो पूरा भी मैं ही करूँगा ना...
तो लगे पड़े हैं कर्तव्य निभाने में। बिना यह जाने कि तुम्हारे सब कर्तव्यों के पीछे कामना है। और तुम्हारी सब कामनाओं के पीछे बेहोशी है। कर्तव्य निभाने में सबसे आगे हैं। कर्ताभाव एकदम प्रबल है। कर्तव्य और कर्ताभाव एक ही चीज़ हैं। समझ रहे हो ना?
हम बड़े संस्कारी लोग हैं। हम कर्ता भाव की निंदा कर देते हैं और कर्तव्यशीलता के गुण गाते हैं। आप मिलिए किसी आधे-अधूरे धार्मिक या आध्यात्मिक आदमी से और उससे कहिए—"कर्ता भाव। "
वह तुरंत क्या बोलेगा? "छी छी। "
और उससे कहिए—"कर्तव्य। "
वह बोलेगा—"महान बात। कर्तव्य पालन तो होना ही चाहिए। "
अरे भाई, तुम्हारे सारे कर्तव्य, कामना: कर्तव्य होते हैं। तो तुम्हारी कर्तव्यशीलता का ही तो दूसरा नाम कर्ता भाव है ना? यह जो तुम्हारे कर्तव्य हैं, यह तुम्हारे अहंकार से ही तो उद्भूत हैं। यह समझ में नहीं आता?
कर्ता भाव को बुरा बोल दिया और कर्तव्य को अच्छा। कर्ता भाव बुरा है, तो कर्तव्य अच्छा कैसे हो गया? ईगो बुरी है, तो ड्यूटी अच्छी कैसे हो गई? अब थोड़ा समझो।
अंग्रेज़ी बोलते ही खट से सबने सर हिला दिया—"ईगो बुरी है, तो ड्यूटी अच्छी कैसे हो गई?" पर किसी को बोलो, "बड़ा एगोस्टिक है। " तो कहेगा—"घूंसा मार दूँगा। " और घूंसा मालूम है कैसे मारेगा?
ऐसे (अपने गाल पर घूंसा मारते हुए दिखाते हैं)। "भाई का घूंसा, भाई का गाल, पट। "
हम ऐसे ही तो मारते हैं ना। हमें लगता है, दुनिया को मार रहे हैं, पर मार अपने को ही लेते हैं। कहो, "इगोस्टिक है। " बड़ा बुरा मानेगा। और कहो, "ड्यूटीफुल है। " देखा। "पद्म विभूषण तैयार है। " "मैं बड़ा ड्यूटीफुल हूँ। "
यह रिश्ता बहुत कम लोगों को समझ में आएगा। खासकर, जिन लोगों को मेरी बात सुने महीना-दो महीना हुआ है, वे बिल्कुल चौक जाएँगे। समझ ही नहीं पाएँगे कि मैं क्या बोल रहा हूँ ।
कर्ता भाव और कर्तव्यशीलता—ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इगोस्टिक होना और रिस्पॉन्सिबल होना, या ड्यूटीफुल होना—बिल्कुल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आप रिस्पॉन्सिबल आदमी को अच्छा बोल देते हो। आप एगोस्टिक आदमी को बुरा बोल देते हो। आप यह नहीं समझ पाते कि जिसे वह अपना कर्तव्य बोल रहा है, वह उसकी कामनाओं से आ रहा है। और उसकी कामनाएँ उसकी बेहोशी से आ रही हैं। तो बताओ—ड्यूटीफुल होना, रिस्पॉन्सिबल होना या कर्तव्यशील होना—कैसे अच्छा हो गया?
आप नहीं देख पाते कि कर्ता भाव ही कर्तव्य बनकर सामने खड़ा हो जाता है। और आप नहीं देख पाते कि वही कर्तव्य आपकी ज़िन्दगी का नासूर बन जाता है। आपने ऐसी-ऐसी चीजों को अपना कर्तव्य बना रखा है, जिनका कोई तुक नहीं। आप ऐसी-ऐसी बातों के लिए खुद को जवाबदेह मान रहे हो, जहाँ आपको कोई लेना-देना ही नहीं।
और आंतरिक तौर पर आप ग्लानि का अनुभव करते हो। दबे-छुपे घूमते हो, अपराधबोध में जीते हो। क्योंकि आपसे आपके कर्तव्य कभी पूरे तो होते नहीं। कामना-ग्रस्त आदमी की यह शक्ल हम आमतौर पर स्वीकारते नहीं हैं। हम इतना ही कहते हैं कि कामना वाला, कामना के पीछे भागता है, ताकि वह कामना पूरी करके खूब ऐश करे, मौज मनाए। यही कहते हैं ना?
"कामना पूरी हो जाएगी, तो ऐश करेगा देखो। ", हम यह नहीं देखते कि कामना का ही नाम कर्तव्य है। और कर्तव्य किसी के पूरे नहीं होते। तो फिर वह कैसा दबा-दबा, ग्लानि-ग्रस्त और अपराध-ग्रस्त भी घूमता है।
यह कामना वाले आदमी की पहचान है। वह अपनी ही नजरों में गिरा हुआ रहता है। क्योंकि कामना आपके ऊपर कर्तव्य चढ़ा देती है। और वह कर्तव्य, चूँकि आपके होश से नहीं आया है, वह कभी पूरा होने वाला नहीं। और जब पूरा नहीं होता, तो आप भीतर से कैसे रहते हो?
गिल्टी, गिल्टी। "हाय, मुझसे नहीं हो पाया। " "हाय, मैं एक अच्छा बाप नहीं बन पाया। " "हाय, मैं एक अच्छी पुत्री नहीं बन पाई। " "हाय, मैं एक अच्छी माँ नहीं बन पाई। " "हाय, मैं झुन्नू के साथ वफा नहीं कर पाई।" तुम्हें कैसे पता कि ये सब तुम्हारे कर्तव्य थे भी? तुम्हें किसने बताया कि ये तुम्हारे कर्तव्य हैं? तुम्हें कैसे पता?
जिस चीज को तुम अपनी रेस्पोंसिबिलिटी, ड्यूटी, कर्तव्य आदि मान रहे हो, तुम्हें कैसे पता? तुम्हें कुछ नहीं पता क्योंकि सारे कर्तव्य उसी बेहोशी से आए हैं, जिस बेहोशी से कामना आती है।
लगे हो उनके पीछे चलने। और भरोसा भीतर यह है कि "मेरी बेहतरी आएगी, मेरी कामनाओं के पूरे होने से।" "मैं अपनी कामनाएँ पूरी कर लूँगा, तो मुझे चैन मिल जाएगा।"
और ज्ञानी आता है, हमारी शक्ल देखता है और कहता है, "तुम और तुम्हारी कामनाएँ, दोनों का थोबड़ा एक जैसा है।" "तुम कामनाएँ पूरी कर भी लो, तो तुम्हें चैन नहीं मिलने वाला।" हाँ, इतना ज़रूर है कि कामनाएँ पूरी करने के फेर में तुमने अपने ऊपर दर्जनों कर्तव्य लाद लिए हैं। कामनाएँ तो कुछ मिली नहीं, कर्तव्य मिल गए, ढेर सारे। अब करो पूरे। कामनाओं से तो कुछ और मिला नहीं। क्या मिला?
कर्तव्य मिल गए। नासमझी की सबसे बड़ी सजा यह होती है कि सर पर कर्तव्यों का बोझ आ जाता है। एकदम झूठे कर्तव्य। एकदम फिज़ूल कर्तव्य। जिनसे कोई लेना-देना नहीं, वे सर पर लाद लिए जाते हैं।
आ रही बात?
लेकिन फिर भी तुम उन कर्तव्यों को निभाए जाते हो। क्या सोच के? कि कर्तव्य में कल्याण है? कर्तव्य के पीछे कामना है, यह तो कभी दिखा नहीं, पर कर्तव्य में कल्याण है, इसका दावा पक्का रहता है। कल्याण नहीं है, कामना है। एक कर्तव्य अपना बता दो। यह आप लोगों के लिए मैं कम्युनिटी एक्टिविटी की तरह दे रहा हूँ। एक कर्तव्य बता दो, जिसके पीछे कामना ना हो। एक कर्तव्य बता दो। कर्तव्य में कल्याण नहीं निहित है, कर्तव्य में कामना निहित है। आप सोचते हो, कर्तव्य करके बेहतरी हो जाएगी? नहीं होगी।
क्या कह रहे हैं कृष्ण आज? कृष्ण कह रहे हैं, ‘तुम्हारी बेहतरी तुम्हारे करने से नहीं होगी। तुम्हारी बेहतरी तुम्हारे बहने से होगी। तुम्हारे करने से नहीं।’
अब तुम्हें लगता है डर! इसीलिए, आज के सत्र में पहली बात मैंने कही थी—श्रद्धा। हमें लगता है डर। हमें लगता है, अगर बहने लगे तो ना जाने कहाँ पहुँच जाएँगे। कृष्ण कह रहे हैं, जहाँ पहुँच जाओगे, उसी को मंज़िल मान लेना। क्योंकि तुम्हारी कोई मंज़िल है नहीं। तुम्हारी मंज़िल है बस बहना। जो बह रहा है, वो बहते-बहते मंज़िल पर पहुँचा हुआ है।
वो बहाव के मध्य ही मंज़िल पर मौजूद है। और कोई मंज़िल नहीं है। कोई भी मंज़िल नहीं है। तुम्हारे जीवन की क्या है? तुम्हारे जीवन में, आज पैदा हुए हो, कल मर जाना है। क्या इसकी मंज़िल हो सकती है? श्मशान मंज़िल है? कब्रिस्तान मंज़िल है? और क्या मंज़िल होगी? बताओ। कोई मंज़िल नहीं है। मंज़िल है तो बहना। मंज़िल है, पर तुम बहते नहीं।
तुम्हें लगता है, पकड़ के रखना है। अपने आप को बहाव से बचा के रखना है। अपनी कामना के अनुसार अपनी मंज़िल निर्धारित करनी है। और उस मंज़िल तक पहुँचने को अपना कर्तव्य मान लेना है। तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं है।
तुम्हारा कर्तव्य है बहना। तुम्हारी बेहतरी अहंकार द्वारा निर्धारित मंजिलों पर पहुँचने से नहीं है। तुम्हारी बेहतरी स्वयं को बहने देने में है। तुम्हारी बेहतरी स्वयं को बहने देने में है। बड़ा डर लगता है यह बात सुनके। "बह गए तो पता नहीं कहाँ पहुँच जाएँगे!"
कितने तो तर्क आते हैं ना भीतर से—"बह गए तो ना जाने कहाँ पहुँच जाएँगे!" तुम्हें कहीं पहुँचना ही नहीं है। तुम्हें बहना है। तो कहीं भी पहुँच जाओगे, कुछ बुरा नहीं होगा। तुम्हें बहना है। बिल्कुल सही बात है। जो बह रहा है, वो एकदम नहीं जानता, कल कहाँ पहुँच जाएगा।
कृष्ण कह रहे हैं, जानने की जरूरत भी नहीं है। तुम्हारा काम किसी खास जगह को पहुँचना नहीं है। तुम्हारा काम यह तो निर्धारित करना एकदम ही नहीं है कि फलानी जगह मुझे जाना है। तुम्हारा काम बहना है। नहीं, पर बह के कहीं भी पहुँच सकते हैं? हाँ, कहीं भी पहुँच सकते हो। तो क्या हो गया? क्यों रो रहे हो? क्यों डर रहे हो? कहीं भी पहुँच जाओगे तो?
अच्छा, एक बात बताओ। तुमने इतने नियंत्रित तरीके से अपना जीवन चलाया है। आज भी क्या तुम वहाँ पहुँचे हो, जहाँ पहुँचना चाहते थे? हुआ तो यही है ना कि आज भी तुम कहीं भी पहुँच गए हो। आज भी तुम किसी रैंडम, यादृच्छिक जगह ही तो पहुँच गए हो।
अपने पूरे प्रयत्न के बाद भी तुम कुछ नियंत्रित, कुछ कंट्रोल तो कर नहीं पाए हो। आज भी पहुँचे तो ना जाने कहाँ ही पर हो। तो ना जाने कहाँ ही पहुँच जाना है, तो नियंत्रण का प्रयास भी क्यों कर रहे हो? बह ही लो। जहाँ पहुँचोगे, देखा जाएगा। इसे श्रद्धा कहते हैं।
जहाँ पहुँचेंगे, देखा जाएगा। हमारा काम कुछ निर्धारित करना नहीं है। क्या कह रहे हैं आज के श्लोक में?
कह रहे हैं, "योगी जन आसक्ति रहित होकर मात्र आत्म-शुद्धि के लिए, तन, मन, बुद्धि और इंद्रियों द्वारा ही कर्म करते हैं।"
आशय क्या है? नेति-नेति में पढ़ो। यहाँ पे तन बोल दिया, मन बोल दिया, बुद्धि बोल दिया, इंद्रियाँ बोल दीं। क्या नहीं बोला? तन बोला, मन बोला, बुद्धि बोला, इंद्रिय बोली। क्या नहीं बोला?
अहंकार!
तो जो नहीं बोला, वह सुनो। वो कह रहे हैं, अहंकार द्वारा कर्म नहीं करते। तन कर्म कर ले, प्रकृति के सहज भाव में तन को कर्म करने देते हैं, जैसे सांस का चलना। मन कर्म कर ले, मन को कर्म करने देते हैं, वह भी प्रकृति की बात है। इंद्रियाँ कर्म कर लें। बुद्धि का कर्म है विचार।
बुद्धि विचार कर ले, इसमें नहीं आने देंगे अहंकार। अहंकार का नाम नहीं है यहाँ पर। यह प्रकृति के बच्चे हैं, छोटे-छोटे। प्रकृति की मान लो, तुम एक बड़ी व्यवस्था हो, एक बड़ा यंत्र हो, तो उसके छोटे-छोटे कलपुर्जे हैं, अवयव हैं। क्या? तन, मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त, स्मृति, पूरा अंतःकरण, सब कुछ। यह अपना काम करें।
इंद्रियाँ अपना काम करें। शरीर अपना काम करे। बुद्धि, प्रज्ञा, सब अपना काम करें। अहंकार की ज़रूरत क्या है? प्रकृति में सब अपना काम जानते हैं। तो यह जो जीव है, यह भी अपना काम जानता है ना। अहं की, अहं की इसकी ज़रूरत नहीं है।
काम हो जाएगा, मत डरो। हम डर जाते हैं। वह जो डर है, वही अहं बनकर खड़ा हो जाता है। कहता है, "मैंने अगर नहीं संभाला, तो दुनिया डूब जाएगी।" "मैंने नहीं संभाला, तो दुनिया डूब जाएगी।" एक समुदाय है, उनका मानना है कि उनका एक देवता है। उनका एक देवता है, जो पृथ्वी को यूं संभाले खड़ा हुआ है।
और पृथ्वी को उसने ही संभाल रखा है, नहीं तो पृथ्वी चकनाचूर हो जाएगी, गिरकर। अब गिरने से उनका जो भी आशय हो, जहाँ भी गिरे, उनके देवता ने ऐसे संभाल रखा है। तो मैंने उनके देवता का एक चित्र देखा। उनका देवता पृथ्वी को ऐसे संभाले खड़ा हुआ है। उन्होंने चित्र देखा, तो उन्होंने यह भी दिखा दिया था कि देवता के पांव के नीचे ज़मीन है! ये तो गज़ब हो गया! तुम्हारा देवता तो पृथ्वी को ऐसे संभाले खड़ा है, तो उसके पांव के नीचे क्या है?
फिर तुम्हारा देवता किस पर खड़ा है? उनको यह तक अक्ल नहीं आई कि कम से कम यही दिखा देते कि देवता आकाश में टंगा हुआ है। उन्होंने देवता के पांव के नीचे भी पृथ्वी बना दी!
तो देवता के पांव के नीचे भी पृथ्वी है, और देवता ऐसे संभाले खड़ा है। यह जो हमारा देवता है, यह हमारे अहंकार का ही संवर्धित रूप है। अ मैग्नीफाइड फॉर्म ऑफ अवर ओन ईगो। हम भी ऐसे ही अपनी पूरी दुनिया, अपनी पूरी व्यक्तिगत दुनिया को संभाले खड़े हैं। और यह नहीं देख रहे कि हम कहाँ पर खड़े हैं।
हम में से हर आदमी यह मान रहा है, "मैं ही तो करता-धरता हूँ।" "मेरी कर्तव्यशीलता से तो मेरी दुनिया चल रही है।" तुम अगर दुनिया को ऐसे उठाए खड़े हो, तो तुम किस पर खड़े हो? तुमने अगर दुनिया को संभाल रखा है, तो तुमको किसने संभाल रखा है? यह माँ के प्रति कृतघ्नता है!
हम नहीं समझते कि पूरी रेल को तो माँ चला रही है। हम उस नालायक बच्चे की तरह हैं, जो चलती रेलगाड़ी में दौड़ लगाए और कहे, "दौड़ूंगा नहीं, तो मंज़िल तक कैसे पहुँचूगा?" और अपने आप को श्रेय भी दे दे! "चार बोगी पार करके आया हूं! कौन कहता है, मैंने दौड़ नहीं लगाई?" "मेरा पसीना देखो, चार बोगी की दौड़ लगाई है!" "यह मैंने रास्ता तय किया कि नहीं किया?"
उसको यह समझ में नहीं आता कि तूने जो रास्ता तय किया, वह सौ मीटर नहीं है, और गाड़ी जा रही है हज़ार किलोमीटर की यात्रा पर। तूने क्या किया? तेरे करने से क्या हुआ? पर वह रेल के अंदर ही दौड़ रहा है, आगे की तरफ। कह रहा है, "मैं दौड़ रहा हूं, तभी तो मंज़िल पर पहुँचूंगा!" चलती रेल में दौड़ रहा है!
हम उस बच्चे की तरह हैं। यह कृतघ्नता है पूरे अस्तित्व के प्रति। अस्तित्व से क्या आशय है हमारा? यही प्रकृति। जो हो रहा है, वह यह विराट व्यवस्था कर रही है। हम उस विराट व्यवस्था में वैसे ही हैं, जैसे ट्रेन के कलपुर्जों में घर्षण। घर्षण के बावजूद ट्रेन तो चलती रहती है, पर हम घुस गए हैं धूल बनकर। जैसे दो गेयर्स हों…
गेयर जानते हैं ना? गाड़ी वाला गियर नहीं, मैकेनिकल वाला गेयर। वे आपस में गति कर रहे होते हैं, एक-दूसरे से लगकर। जो भी होना है मशीन में, वह गेयर्स की जो रिलेटिव मूवमेंट है, उससे होना है। लेकिन उसमें बीच में अहंकार क्या बनकर घुसा है? धूल! तो मूवमेंट तो अभी भी होगा, लेकिन अहंकार बस उसमें फिर आवाजें निकलेंगी, गंदी-गंदी। कभी सुना है ट्रेन से अजीब-अजीब आवाजें आ रही होती हैं?
आवाज़ें निकलेंगी, घर्षण होगा, लोहा घिसेगा। जो काम जल्दी हो सकता है, वह देर में होगा। गाड़ी सौ की गति से चल सकती थी, अहंकार ने घर्षण घुसा दिया, तो अस्सी की गति से चल रही है। तो जो काम जल्दी हो जाता, वह देर से होगा। और यह तक हो सकता है कि धूल इतनी भर जाए, इतनी भर जाए कि गाड़ी के कलपुर्जे ही टूट जाएं, दुर्घटना हो जाए!
हमारा अहंकार ऐसे ही हो गया। वह प्रकृति की गाड़ी में ऐसे धूल बनकर घुस गया है कि क्लाइमेट चेंज...वो व्यापक विश्व की बात हो गई! क्लाइमेट चेंज इसी तरह से है। हमारा अहंकार अपनी दुनिया में भी धूल बनकर घुसा हुआ है, और उसने पूरी मशीन में घर्षण-घर्षण कर दिया है। घर्षण बहुत हो जाए, तो आग भी लग जाती है, जानते हो ना? घर्षण बहुत हो जाए, तो आग भी लग जाती है! अब समझ में आ रहा है कि हमारी दुनिया में राख ही राख क्यों है? अहंकार बहुत है!
वह प्रकृति की मशीन को चलने नहीं देता। वह हर जगह खुद घुसा रहता है कि "मैं कर रहा हूँ!" तुम कुछ कर नहीं सकते। तुम बस जो हो रहा है, उसमें बाधा बन सकते हो। बताओ, तुम्हें कितना होना है? तुम्हारा बड़े से बड़ा काम और योगदान यह हो सकता है कि तुम रहो ही मत! "मैं कैसे सेवा करूं अपने स्वजनों की?" हट के!
चल रहा है विराट उत्सव! "मैं उसमें चार चांद कैसे लगा दूं?" तुम हट जाओ वहाँ से! पार्टी बहुत मस्त है, पर तुमसे त्रस्त है! कई होते हैं ना, जिनका काम ही होता है कि क्या? "पार्टी पूपर" आकर सब खराब कर देते हैं। अहंकार वही है! और ऊपर से क्या पूछ रहा है? "बताइए, मैं इस उत्सव को और जगमगाहट देने के लिए क्या कर सकता हूँ?
तुम सो जाओ। तुम हट जाओ। तुम मिट जाओ। तुम गल जाओ। तुम्हारी अनुपस्थिति ही तुम्हारा सबसे बड़ा योगदान होगी। तुम जाओ।
बौद्ध भिक्षु अक्सर बोलते हैं, तथागत की बात है— "गते गते परागते स्वाहा!"
यही सीख है अहंकार को। तुम जाओ। तुम जाओ और तुम इतने दूर चले जाओ कि तुम नज़र भी मत आओ। "गते गते परागते!" तुम्हारी स्मृति भी बिल्कुल राख हो जाए। "स्वाहा!"
यही तुम्हारा बड़े से बड़ा योगदान हो सकता है अपनी दुनिया को भी, और इस दुनिया को भी। जो दुनिया तुम्हारे यहाँ मन में है, उसको भी तुम्हारा योगदान यही हो सकता है कि तुम हटो। और बाहरी दुनिया को भी योगदान यही हो सकता है कि तुम हटो। पर तुम लगे हुए हो, हर चीज़ को नियंत्रित करने में।
और अब तुम क्रोधित भी बहुत हो। क्योंकि तुम्हारे बहुत बोलने पर भी वह जो प्लेन है, वह तुम्हारी हथेली पर लैंड ही नहीं कर रहा! वह लगा हुआ है। वह इतनी देर से, जब हम बात कर रहे थे, आपको क्या लग रहा है? वह मेरी बात सुन रहा है?
वह कराता ज़रूर है हर महीने एनरोलमेंट पर जब सत्र चल रहे होते हैं, तो वह व्यस्त होता है अपनी हथेलियों पर जहाज लैंड कराने में। वह दिन भर यही करता है, २४ घंटे यही करता है। उसने उम्र भर यही कराया है। उसने अपनी हथेलियों पर जहाज लैंड कराया है। क्योंकि उसके देखे जहाज, उसने ऐसे लैंड नहीं कराया, तो जहाज लैंड करेगा नहीं। और फिर बेचारी धनिया का क्या होगा? जहाज़ में धनिया है! बात समझ में आ रही है?
यह करने में सबसे मुश्किल काम क्या है? कुछ ना करना। सबसे मुश्किल काम है, कुछ ना करना। ठीक वैसे ही, जैसे बोलने में सबसे मुश्किल है—मौन! बैठने में सबसे मुश्किल है— स्थिरता!
आपसे बोला जाए, पचास तरीके से नाच कर बैठो, आप कर लोगे। ऐसे बैठे हो, ऐसे हिल लोगे, वैसे हिल लोगे। किसी से बोल दिया जाए— "ऐसे हो जाओ, बिल्कुल स्थिर!" तो मन की स्थिरता तो दूर की बात है, तन की स्थिरता भी आसानी से नहीं सधती।
इसी तरीके से, कुछ बोलने को बोल दिया जाए, आप खूब बोल लोगे। पर चुप रहना कितना मुश्किल है! होठों से चुप रहना तो फिर भी किसी तरह साध जाए, मन को चुप करना असंभव हो जाता है। उसी तरीके से, करने में सबसे मुश्किल काम है—कुछ ना करना। समझ में आ रही है बात?
जिसने कुछ ना करना साध लिया, पूरा जगत उसका अनुगामी हो जाता है। जिसने कुछ ना करना साध लिया, उसके बिना कुछ करे सारे कल्याणकारी काम हो जाते हैं। समझ आ रही है बात?
सबसे पहले आत्म-अवलोकन होना चाहिए, ताकि स्पष्ट हो कि जब हमने किया, तो क्या किया? जितनी ईमानदारी से यह दिखने लग जाता है ना, कि जब हमने किया, तो क्या किया! कितने होशियार हैं हम! जब आप उस बिंदु पर पहुंच जाते हो, कि आप अपने अतीत पर हंस सको, अपने निर्णयों की खुद ही खिल्ली उड़ा सको, तब आसान हो जाता है ठीक अभी भी अनुपस्थित हो पाना।
फिर आप एक तार्किक तरीके से कह पाते हो, "आज से पाँच साल पहले, जो मैं सोचता था, सोचती थी..." "अगर मैं आज उस पर हंस सकता हूँ, तो मैं आज जो सोच रहा हूँ, निश्चित ही पाँच साल बाद वह बात हंसी की हो जानी है।" "तो मैं उस पर पाँच साल बाद क्यों हसूं? मैं आज ही हंस लेता हूँ ना!"
यह आदमी जो अपने ऊपर हंसना शुरू करता है, यह अकर्ता हो जाता है। नॉन-डूअर हो जाता है। नॉन-डूअर का मतलब यह नहीं कि अब नॉन-डूइंग हो गई। डूइंग तो बहुत होगी! ज़बरदस्त होगी! घनघोर होगी! कल्याणप्रद होगी! ऑसपिसियस होगी! डूइंग होगी, डूअर नहीं होगा।
कर्म रहेगा, कर्ता नहीं होगा। और जो यह कर्ता-हीन कर्म होता है, "द डीड विदाउट डूअर", इसके क्या कहने! ये फिर अवतारों की लीला समान हो जाता है। ये जीवन को खेल बना देता है। ये पृथ्वी पर स्वर्ग उतार देता है। ये बहुत पुराना जो कैदी है, उसे आकाश की आज़ादी दे देता है।
बात आ रही है समझ में? सब अपना काम जानते हैं, थोड़ा भरोसा करिए। आप अनावश्यक हैं। यह दो-तीन सवाल हैं, अपने आप से पूछा करो, "एम आई नीडेड?" कहीं कुछ हो रहा हो, जिसमें आप घुसे पड़े हो, अपने आप से पूछिए। चाहे वह आपके बच्चों कीज़िन्दगीके फैसले हों, चाहे आपके कार्यक्षेत्र, दफ्तर की कोई बात हो। पहला सवाल — "एम आई नीडेड?"
ये हुआ कर्ता के बारे में। दूसरा जो आपको सूत्र दे रहा हूँ, वह है कर्म के बारे में — "इज इट इंपॉर्टेंट?" कर्ता के बारे में अपने आप से पूछा करिए — "एम आई नीडेड?" क्या मेरी ज़रूरत है? क्या मैं आवश्यक हूँ? और कर्म के बारे में पूछा करिए — "इज इट इंपॉर्टेंट?" क्या ये ज़रूरी है?
कर्ता पर नज़र रख सके, वाह! क्या बात है! कर्ता, लेकिन सूक्ष्म होता है। उस पर नज़र रखना थोड़ा मुश्किल होता है। तो अपने कर्मों को लेकर फिर यह सवाल सदा ज़ुबान पर रखें। कुछ भी कर रहे हो, अपने आप से पूछो — "इज इट इंपॉर्टेंट?" ये ज़रूरी है क्या? ये ज़रूरी है क्या?
और उत्तर में थोड़ा भी संशय आए तो जान लीजिए, ज़रूरी नहीं है। अंदर की बात है, पर अंदर मुझसे कुछ रखा नहीं जाता। तो बाहर कर ही देता हूँ। जितनी ईमानदारी से आप पूछेंगे — "इज इट इंपॉर्टेंट?" उतनी ही ईमानदारी से पता चलेगा कि जो कुछ आप कर रहे हैं, वह सब कुछ ही अनइंपॉर्टेंट है। तो अगर अपने किसी कर्म को लेकर आपमें सवाल उठे — "इज इट इंपॉर्टेंट?" और आप पाए कि उत्तर आ रहा है अस्सी प्रतिशत — नहीं, जरूरी नहीं है, महत्वपूर्ण नहीं है। और बीस प्रतिशत आ रहा है कि हाँ, महत्वपूर्ण है। तो जान लीजिए कि ईमानदारी का स्तर भी बस अभी अस्सी प्रतिशत का ही है। ईमानदारी जैसे-जैसे बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे प्रत्येक कर्म को लेकर यही उत्तर आएगा। शत प्रतिशत उत्तर आएगा कि — "नहीं, जरूरी नहीं है!"
आपको हटना पड़ेगा। मुझे मालूम है, आपको अचानक क्या प्रश्न कुलबुला गया? "ऐसे तो फिर जब हर प्रश्न हो जाएगा गैरजरूरी, हर कर्म हो जाएगा अमहत्वपूर्ण, तो फिर हम करेंगे क्या?" फिर आप वो करोगे, जिसमें आप इतना डूब जाओ कि पूछना भूल जाओ कि "इज इट इंपॉर्टेंट?"
फिर आप वह करोगे, जिस कर्म के सामने स्मृति विलुप्त हो जाए। याद ही नहीं रहा कि कुछ पूछना भी था। जब तक ये याद है कि कुछ पूछना है, तब तक जिस विषय में पूछा है, वह अनइंपॉर्टेंट ही है।
अब जानबूझकर मत भूलने लग जाना! कि कुछ करने की बड़ी कामना है, तो वहां सवाल ही नहीं पूछा — "इज इट इंपॉर्टेंट?" और फिर कहा — "देखा! यह काम इतना जरूरी था कि हम पूछना ही भूल गए कि इज इट इंपॉर्टेंट?" और किसी को हम बुद्धू बनाए ना बनाए, खुद को मूर्ख बनाने में हमारा कोई सानी नहीं है।
आखिरी बात होती है, सारे अध्यात्म में यही सहजता, मुक्ति का ही दूसरा नाम है — सहजता। एकदम जैसे हवा में उड़ता पत्ता। एकदम जैसे समुद्र की लहर। एकदम जैसे घास का कोई तिनका। सहजता। एकदम निर्विशेष और साधारण। कोई बात नहीं बहुत बड़ी कोई लक्षण नहीं बहुत ख़ास। एकदम सहज। किसी तरह की कोई विशेष प्रभा नहीं। चकाचौंध कर देने वाला सूर्य नहीं। जैसे एक साधारण सा टिमटिमाता कोई तारा, जिसकी उपेक्षा कर देना भी बहुत आसान हो।जैसे पक्षियों के झुंड में बस एक और पक्षी, जिसमें कुछ भी अद्वितीय ना हो।
समझ में आ रही बात?
मैं आपको मीडियोक्रिटी के लिए आमंत्रित नहीं कर रहा हूँ। मैं आपसे कह रहा हूँ कि जो आज़ाद हो जाता है, मुक्त हो जाता है, उसे कोई आवश्यकता नहीं बचती है बाहर से अपने आप को भिन्न, विशेष, खास दिखाने की। वह बाहर से बिल्कुल प्रकृति जैसा ही हो जाता है। एकदम प्रकृति जैसा।
किसी चित्रकार, जापान की कहानी है। ये था कि वो जिस विषय का चित्र बनाने लगता, उसका व्यक्तित्व भी कुछ-कुछ उस विषय जैसा होने लग जाता था। लोगों को ना पता हो कि यह कौन सा चित्र बना रहा है, लोग बस उसकी शक्ल और उसकी आँखें, उसका चेहरा, उसकी हस्ती को देख लें, और उनको अनुमान होने लग जाए कि किसका चित्र बना रहा है। इतना अभिन्न हो जाना!
"मैं चित्रकार नहीं हूँ, मैं स्वयं चित्र हो गया।" "मैं नर्तक नहीं हूँ, मैं स्वयं नृत्य हो गया।" "मैं कुछ कह नहीं रहा, मैं कही जा रही बात हो गया।" "तुम मुझे नहीं सुन रहे, तुम जो सुन रहे हो, वह मैं हूँ।" "उससे अलग, उससे भिन्न मेरी कोई हस्ती नहीं है।"
भिन्नता किसको चाहिए होती है? अहंकार को! वही कहता है कि दो होने चाहिए—"तुम और मैं!"
बात समझ रहे हो?
तल्लीनता, तन्मयता, अनन्यता। और इससे बिल्कुल अलग होता है उपद्रवी अहंकार। वो जहाँ होता है, वहाँ उसे अपने होने का एहसास कराना होता है। और उस बेचारे की बड़ी शामत हो जाती है, अगर वह अपने होने का एहसास ना करा पाए।
आमतौर पर उसे "अटेंशन सीकिंग बिहेवियर" बोलते हैं। वह जहाँ भी होगा, वहाँ उसे खास होना है। "मुझे देखो! मैं अलग हूँ ना? मेरी हस्ती का संज्ञान लो!"
और ज्ञानी की निशानी यह होगी कि वह जहाँ होगा, एक कोने में होगा। वह चाहेगा ही नहीं कि कोई उसे देखे। अहंकार जब जाएगा, तो उसे महफ़िल की जान बनना होगा। वह कहेगा, "मैं बिल्कुल बीच में, मध्य में अपने आप को खड़ा करूँगा।" वो भी मंच पर और ऐसे घूमकर तीन सौ साठ डिग्री में देखेगा, कि "सबकी आँखें मेरे ऊपर ही हैं ना?"
ज्ञानी वहीं आएगा, एकदम कोने में बैठ जाएगा। उसको पता भी नहीं कि वो ज्ञानी है! वह जहाँ जाता है, वहाँ ऐसे रहता है कि "कुछ छेड़ूँ नहीं, कुछ हिलाऊँ नहीं, कुछ बदलूँ नहीं।" चुप प्रवेश करूँ, चुप बाहर निकल जाऊँ। "जीऊँ भी ऐसे जैसे पैदा ही नहीं हुआ, और मरूँ भी ऐसे जैसे कोई गया ही नहीं।"
हाँ, इतना ज़रूर कर सकता हूँ कि किसी कक्ष, भवन या कमरे में प्रवेश करूँ, और पाऊँ कि वहाँ सब उल्टा-पुल्टा है, तो चुपचाप उसे ठीक कर दूँ। ठीक करके उस पर अपना ठप्पा नहीं लगाना! ठीक करके उसे उसकी सहज प्राकृतिक स्थिति में वापस पहुँचाना है। ये कर्म होता है ज्ञानी का।
वो प्रकृति से कुछ नया, कुछ आगे का नहीं बनाता। वो प्रकृति को वापस उसकी सहज, मूल, नैसर्गिक, प्राकृतिक अवस्था में पहुँचाता है। जो जैसा था, उसको वैसा कर दो। हम तुम्हारे घर को रौंधने नहीं आए, तुम्हारे घर को ठीक करने आए हैं। चुपचाप ठीक करेंगे और वापस चले जाएँगे। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि कौन ठीक कर गया। ठप्पा नहीं लगाएंगे, श्रेय नहीं माँगेंगे। समझ में आ रही है बात ये?
चुपचाप जीना। चीख नहीं जैसे कोई बहुत धीरे से गुनगुना रहा हो। अहंकार एक चीख की तरह होता है। उसे सबको सुनाना है। और क्या सुनाना है? बस अपना दर्द ही है उसके पास सुनाने को। और जब वह चीख किसी के कान में पड़ती है, तो उसको भी दर्द ही दे जाती है। वह दर्द से ही उठती है और दर्द ही देकर जाती है। अहंकार दर्द भरी चीख है।
ज्ञानी या तो मौन है, या बहुत मध्यम-सी गुनगुनाहट कि तुम बहुत ध्यान दोगे, तभी सुन पाओगे कि वह कुछ गुनगुना रहा है। बहुत सुंदर गुनगुना रहा है। जैसे दूर कहीं कोई झरना बह रहा हो और उसका गीत आपको सुनाई दे रहा हो। बहुत दूर बह रहा है, हल्की गुनगुनाहट उसकी हवा में तैर रही है। ऐसा जिसका जीवन हो गया वो तर गया।
अब अभी याद नहीं आएगा, पर मैं पाता था कि पुराने स्कूल-कॉलेज के दिनों में भी जो गीत पसंद थे, वो वही थे, जिनमें कुछ बहुत कोमल, बहुत नाज़ुक, बहुत मंद और मध्यम। अब बाकी अलग है। मैं कहूँ कि यही बात मुनि अष्टावक्र के श्लोकों में परिलक्षित होती है तो अष्टावक्र गीता हम कर ही रहे हैं।
बहुत पुराना, पच्चीस-तीस साल पुराना कोई कॉलेज का गाना था, वह याद आ गया। अब उसका वीडियो वगैरह देखेंगे तो उससे अलग छवि आएगी, पर मैं उसको जिस तरह से सुन रहा था, अगर वैसे सुन पाए तो। कुछ ऐसा था कि—"ज़रा आहिस्ता की जे बातें, धड़कने कोई सुन रहा होगा।"
चीखना-चिल्लाना नहीं। दखल देना नहीं। ज़ोर लगाना नहीं। हटना, पीछे हटना। और यही संस्कृति की भी निशानी होती है। एक सुसंस्कृत आदमी की पहचान यह होती है कि वह कभी भी कहीं बलपूर्वक प्रवेश नहीं करता। ये नहीं है कि उसमें अहंकार बहुत है, तो आमंत्रण माँगता है बार-बार। नहीं, नहीं, ये भी नहीं है।
वो सहज बहता है। आप द्वार खोल देंगे, तो धीरे से हो सकता है प्रवेश कर जाए। जैसे इन दिनों की ठंडी हवा। आपने भीतर अपना कोई माहौल बना रखा है। आप दरवाज़ा खोलते हैं, तो ही बाहर से थोड़ी ठंडक भीतर आती है। आप नहीं खोलेंगे, तो अपना बाहर तैर रही है। यही है सुसंस्कृत होना।
सुसंस्कृत होना माने जीवन के साथ धक्का-मुक्की नहीं। किसी पर भी बल प्रयोग नहीं। किसी की ज़िन्दगी में बलात प्रवेश नहीं और अपनी भी ज़िन्दगी में किसी को बलात प्रवेश नहीं। समझ रहे हो? ऐसे आएँगे जैसे आए ही नहीं और ऐसे चले जाएँगे जैसे कभी थे ही नहीं। आ रही है बात समझ में?
अहंकार- उपद्रवी, असंस्कृत, किसी पागल की तरह। ज़ोर लगाकर तोड़-फोड़, आना तो बर्बाद करना और जाना तो तोड़-मरोड़ कर जाना।
सहजता ऐसी जैसे रिश्ता हो सागर और तट का। पानी है, वो रेत है। वो पूरी रेत क्यों नहीं ले जाता? और इतना पानी है, सागर किलोमीटरों गहरा होता है। वह नीचे से क्यों नहीं घुस आता? जो पूरा तट है, इतने लाख साल से, सागर वहीं पर है। सागर में वो घुल क्यों नहीं जाता? सब कुछ तो घुलता है सागर में। और जो घुलता नहीं, वह टूट भी जाता है। लहरों के आवेग से, सब कुछ टूटता है ना? ये तो रेत होती है। पूरी रेत क्या है? पत्थर ही है जो टूट गए।
सागर सीमाओं का सम्मान जानता है, क्योंकि उसे कुछ पड़ी नहीं है किसी की सीमाएँ तोड़ने की। जो खुद सीमाओं में बहुत बंधा होता है, वही दूसरों की सीमाओं का आदर नहीं करता। वह कहता है, "मैं बंधा हूँ, तो तुझे भी दुख दूँगा।" जैसे सागर और तट का रिश्ता। एक साथ हैं। लहराते भी हैं, तुझसे मिलने आते हैं। देखो, लहरें आती हैं, कैसे रेत को चूमकर वापस जाती हैं। रुक नहीं जातीं। आती हैं, चूमती हैं, लौट जाती हैं।
सागर यह नहीं करता कि तट को छिन्न-भिन्न ही कर दे। अपनी सीमा जानता है और दोनों मिलते-जुलते रहते हैं। आगे आने, पीछे जाने का खेल चलता रहता है। बात समझ में आ रही है?
सागर बगल में रहता है, कभी अपनी उपस्थिति का एहसास कराता है, कभी लगता है कि "बाप रे बाप, कितनी बड़ी चीज़ के बगल में हो!" कभी लगता है? लगता है? कितने सारे तटीय शहर हैं कितने सारे। उनमें करोड़ों लोग रहते हैं। तटों पर ही ज़्यादा शहर बसते हैं। उन शहरों के जो लोग होते हैं, उन्हें कभी एहसास होता है कि वह कितने बड़े सागर के बिल्कुल पड़ोस में हैं? होता है? और यही, आपके बगल में कोई छुटभैया नेता भी रहता हो, तो वह रोज़ आकर अपना एहसास कराता है। कभी आपके घर के सामने अपनी फ़ॉर्च्यूनर खड़ी कर देगा, कभी हॉर्न मार देगा, कभी कुछ करेगा, कभी कुछ।
है कुछ नहीं, वह दो कौड़ी का कोई नेता, लेकिन वह भी जताना चाहेगा कि "देखो, हम कितने बड़े हैं!" और चढ़ेगा आपके ऊपर। सागर कभी चढ़ता है? इतना बड़ा सागर, बिल्कुल आपके सामने है! ये महानता की सहजता की निशानी होती है। सहजता ही महानता है। जो सहज हो गया, जो महान हो गया, वो आपके बगल में भी रहेगा, तो आपके ऊपर चढ़ेगा नहीं। वो आपकी ऊपर अपनी महानता थोपेगा नहीं। वो बल्कि आपको पूरा मौका दे देगा, जैसे छोटे बच्चे होते हैं, वे जाते हैं, लहरों को लात से मारते हैं।
छोटा-सा बच्चा है, वह जाकर के क्या कर रहा है? लहर को लात से मार रहा है। सागर कहता है, "ठीक!" और इतना ही नहीं, सागर उस खेल में प्रतिभागी बन जाता है। लहर आई, बच्चे ने लात से लहर को मारा, लहर वापस लौट गई। बच्चा कितना खुश है! "देखा, मैंने सागर को लात मार के वापस भेज दिया!" सागर कहता है, "हाँ, तूने मुझे लात मार के वापस भेज दिया।" ये महानता है।
क्षुद्रता क्या है? अहंकार क्या है? चढ़ बैठ। जो दुर्बल दिखा, ख़ास तौर पर उसको तो एकदम ही कुचल डाला। समझ रहे हो बात को? जैसे-जैसे जीवन में गुरुता आती जाएगी, वैसे-वैसे गुरुता प्रदर्शित करने का लोभ कम होता जाएगा।
कहीं पर कमरे में घुसो और घुसते ही एहसास हो जाए कि "यहाँ ज़रूर कोई महान विभूति बैठी है।" तो समझ लो कि वहाँ जो बैठा है, वह बहुत क्षुद्र है। बहुत क्षुद्र। वह महानता, जो अपने महान होने का एहसास कराए, वह महानता के भेस में क्षुद्रता है। महानता की पहचान ही यही है कि उसकी पहचान बड़ी मुश्किल होगी। ख़ास तौर पर क्षुद्र मन तो महानता को कभी पहचान ही नहीं पाएगा। वो ये ज़रूर करेगा कि महानता का भेस धरी क्षुद्रता को ही महानता बोल देगा जल्दी से।
बहुत सारे क्षुद्र लोग जिसे महान बोल रहे हैं, निश्चय ही वह अतिशय क्षुद्र होगा। और वह किसी क्षुद्र व्यक्ति को महान बोलेंगे भी किस आधार पर? उसका बाहरी रंग-रोगन, वेश-भूषा देख कर के? वह जता रहा होगा, "मैं महान हूँ, ये मान भी लेंगे कि मैं महान हूँ।" वह हर तरीके से प्रदर्शित करेगा, "मैं खास हूँ, खासम-खास हूँ।" ये मान भी लेंगे, "मैं खासम-खास हूँ।" प्रश्न यह है कि तुमने प्रदर्शित नहीं किया होता, तो किसको पता चलता?
ये जो आप पुरानी कहानियाँ सुनते हो ना, कि कोई बड़े ऋषि-मुनि, वेदों के, बुद्ध हो गए, महावीर हो गए, ये निकल रहे हैं कहीं से और सब लोग इकट्ठा हो गए कि "इनके चेहरे पर तो अनुपम आभा दिखाई दे रही है!" ये झूठी कहानियाँ हैं। कोई नहीं पहचान पाता।
हाँ, वो राजसी पोशाक में निकलते, तो जरूर पहचान लिया गया होता। बुद्ध अपने रथ पर निकले, बिल्कुल एकदम राज-रथी होकर के, तो एकदम पहचान लिए जाएँगे। पर बुद्ध, बुद्ध होकर के निकलेंगे, तो उन्हें वैसा ही कोई पहचान पाएगा, जो कम से कम थोड़ा-बहुत बुद्ध हो। उसको भी बस आहट-सी लगेगी, अंदाज़ा होगा, पूरी आश्वस्ति नहीं होने वाली।
सहजता आ जाती है। बुद्ध का निर्वाण सहजता का ही दूसरा नाम है। साधो, सहज समाधि भली। आखिरी बात, बिल्कुल ये। सब साधुओं को ही उपदेश दिया था, क्योंकि साधुओं में बड़ा ये "गुरुर आ जाता है, "हम अलग हैं!" होता है। साधु, सहज हो जाओ! क्यों इतने सारे लक्षण धारण करके लोगों को प्रभावित करने को घूमे जा रहे हो? जिसने कहा, वह खुद क्या थे? जुलाहे!
एक जुलाहा अपने कपड़े बेच रहा है बाज़ार में, कौन कहेगा कि "महा ज्ञानी है, संत शिरोमणि है?" कौन कहेगा? वह कर क्या रहा है? व्यापार कर रहा है, बाज़ार में निकला है, हाट में बैठा है। कोई आ रहा है, कह रहा है, "कपड़ा?" दाम बताया। "इतना नहीं देंगे!" - "तो ठीक है, अगली दुकान चले जाओ।" वो भी लेन-देन, मोल-भाव देखते होंगे ये सब। कौन कहेगा कि "यह महा ज्ञानी है?" ऐसा होता है!
बात समझ में आ रही है? सरल, सरल, एकदम सरल! इसीलिए कई बार छोटे बच्चे की उपमा दी जाती है। जैसे छोटा बच्चा होता है ना, अपनी कामनाएँ छुपाना नहीं जानता। वो अपना क्रोध भी छुपाना नहीं जानता, कुछ भी छुपाना नहीं जानता। उसे गुस्सा आएगा, तो ये नहीं कि मन में रखे गुस्से को! कामना होगी, तो खट से हाथ बढ़ा देगा! ऐसा प्राकृतिकबिल्कुल !
बच्चा ही नहीं हो जाना है, क्योंकि बच्चा यह भी नहीं जानता कि किधर को हाथ बढ़ाना है, किधर को नहीं। पर कुछ बात समझाने के लिए बच्चे का उदाहरण ठीक है।