दलित का ठप्पा माथे पर लगा है; मैं ये धर्म ही छोड़ दूँगा

Acharya Prashant

26 min
40 reads
दलित का ठप्पा माथे पर लगा है; मैं ये धर्म ही छोड़ दूँगा
जिसने शोषण करा है न, वो लोक धर्म है बेटा। वो सनातन धर्म नहीं है, सनातन धर्म नहीं है। सनातन धर्म में केंद्रीय स्थान श्रुति का है, श्रुति की बहुत केंद्रीय बात ये है कि ये जो तुम अपने आप को देह माने बैठे हो न, तुम देह नहीं हो, “नाहम् देहास्मि।” और अगर आप देह नहीं हो, तो जाति कहाँ से आ गई? श्रुति जाति को किसी हालत में नहीं मानती है। यहाँ तक कि आप जिसको वर्ण व्यवस्था कहते हो, उसका भी स्थान नहीं है। क्योंकि जब आप देह हो ही नहीं, तो वर्ण किसका? जो पूरा वर्णाश्रम धर्म है उसको श्रुति मानती ही नहीं है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्ते, आचार्य जी। आचार्य जी मैं झारखंड के एक छोटे से गाँव से हूँ और आपको मैं एक साल से सुन रहा हूँ। आचार्य जी मैं जिस क्षेत्र से हूँ उस क्षेत्र में दलित निवासी हैं और मूलत: सांथाल (एक जनजाति) हैं। और मैं अक्सर ये पाया हूँ कि जो हम दलित हैं वो अशिक्षित और शोषित हैं। और इसका कारण जानने के लिए मैंने कुछ लोगों से बात किया और चर्चाएँ भी की, तो उन्होंने मुझे बताया कि हिंदू धर्म दलितों का सदियों से शोषण करता आया है, और इसको प्रूव करने के लिए उन्होंने मनुस्मृति का संदर्भ दिया।

आचार्य जी, आपका मैंने कहीं वीडियो देखा और स्वामी विवेकानंद को भी पढ़ा है, तो मैंने पाया है कि आप दोनों ही मनुस्मृति का खंडन करते हैं। लेकिन आचार्य जी आपका एक वीडियो आया था जिसमें आप मनुस्मृति का एक श्लोक “धर्मो रक्षति रक्षित:” पर चर्चा कर रहे थे। इस दोनों का मुझे लग रहा कि विरोधाभास हो रहा है। इस पर आपका मार्गदर्शन चाहिए।

आचार्य प्रशांत: देखिए, सबसे पहले तो ये बात कि हिंदू धर्म दलितों का शोषण करता है। हाँ, आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं जो लोकधर्म हमारा रहा है, जैसा वो प्रैक्टिस हुआ है, जैसा वो व्यवहार में आया है, आचरण में आया है; निसन्देह उसमें शोषण हुआ है, और ये बात हर ईमानदार आदमी को सीधे-सीधे माननी होगी, अनएंबिगुअसली (स्पष्ट रूप से), बिना उसमें कुछ इफ एंड बट (यदि, लेकिन), किंतु-परंतु जोड़े — हाँ, शोषण तो हुआ है। ठीक है।

शोषण हुआ ही नहीं है मैं जब अपने आसपास देखता हूँ, तो मुझे व्यक्तिगत तौर पर ग्लानि का, अपराध बोध का अनुभव होता है। आइ फील गिल्टी।

अभी हम मुंबई में थे, अभी पंद्रह दिन पहले की बात होगी; तो वहाँ एक सड़क से निकल रहे थे जिसमें एक तरफ़ सब बड़े-बड़े शोरूम थे। जो साथ में थे वो (संस्था के सदस्य) बता पाएँगे जिन्होंने मुंबई और ज़्यादा देखी है, बड़े-बड़े शोरूम्स थे। और उसमें से कुछ ऐसे भी ब्रांड्स थे जो इंटरनेशनल थे, और उसको आप देखेंगे, तो आपको लगेगा कि ये मुंबई क्या है लगभग दुबई है।

और उसी सड़क में इस तरफ़ एकदम गरीबों की बस्ती थी। बहुत मतलब निम्न मध्यमवर्गीय बस्ती, और उस बस्ती के बीच में मैंने देखा एक अंबेडकर मूर्ति लगी हुई थी। उससे मुझे तुरंत ये खयाल आया कि गरीब ही नहीं हैं दलित हैं।

बात ये तो रही ही है कि आपने मानसिक तौर पर अपमान करा है। बात ये रही। आपने नहीं, हमने-हमने, हमारी ज़िम्मेदारी है गिल्ट हमारे ऊपर है, मानसिक तौर पर तो अपमानित करा ही है, आर्थिक तौर पर सीधे-सीधे फ़िजिकल (भौतिक) मटीरियल तौर पर भी वंचित रखा है।

एकदम वो जो कॉन्ट्रास्ट (विरोधाभास, अंतर) था, वो बहुत ज़बरदस्त था। इधर ऐसे सारे वो थे, और इधर सब एकदम छोटी-छोटी टायर की दुकान, कोई समोसे की दुकान, और उन्हीं दुकानों के ऊपर छोटे-छोटे घर बने हुए जिसमें शायद लोग रहते हैं। और वहाँ बीच में बाबा साहब अंबेडकर की एक ऐसे मूर्ति लगी हुई थी, और मूर्ति भी कोई बहुत बड़ी नहीं थी, ऐसे ही बस स्थापित थी जितना कम संसाधन में हो सकता वैसे ही लोगों ने लगा दी होगी।

वो इतना ग्लेयरिंग कॉन्ट्रास्ट (स्पष्ट विरोधाभास) था, इतना ज़बरदस्त था कि दिख रहा था कि ये, ये हुआ तो है, ये हुआ तो है। और एक बात और है, वो मूर्ति भी न उसी तरफ़ (बाँई ओर को हाथ से इशारा करते हुए) हो सकती थी, उस तरफ़ (दाँई ओर को हाथ से इशारा करते हुए) नहीं थी वो मूर्ति। ठीक है? तो वो हुआ है।

ये सबसे पहले तो इसको हमें अनइक्विवोकली (असमानता), बेशर्त तौर पर स्वीकार करना पड़ेगा, और ये एक तथ्य है, तथ्यों से मुँह नहीं फेरा जाता। गलत किया है, शोषण किया है, माफ़ी माँगनी चाहिए। माफ़ी माँगनी होगी। बात सही है ये बिल्कुल।

और अब दूसरी बात पर आता हूँ। दूसरी बात ये कि जिसने शोषण करा है न, वो लोक धर्म है बेटा। वो सनातन धर्म नहीं है, सनातन धर्म नहीं है। मैं बार-बार श्रुति और स्मृति का अंतर समझाता हूँ। श्रुति में सिर्फ़-और-सिर्फ़ वेद और उपनिषद् आते हैं और कुछ नहीं आता। बाकी जितनी किताबें हैं न; मनुस्मृति और, याज्ञवल्क्य स्मृति, और चाहे वो आपके सारे पुराण हों, या कि इतिहास ग्रंथ हों आपके, महाकाव्य सारे। यहाँ तक कि जो षड दर्शन हैं वो भी। वो सब इसमें आता है स्मृति में आता है।

सनातन धर्म में केंद्रीय स्थान श्रुति का है, मैं बल्कि बोलूँगा एकमात्र स्थान श्रुति का है क्योंकि स्मृति भी सिर्फ़ उसी सीमा तक मानी जाती है ये नियम है; स्मृति सिर्फ़ उसी सीमा तक मानी जानी चाहिए जिस सीमा तक वो श्रुति का अनुगमन करती है। माने श्रुति में जो बात कही गई है अगर स्मृति की बात उससे ऐसे मेल खा रही है, तो स्मृति को मानोगे। नहीं तो स्मृति को नहीं मानना है, नहीं मानना है, नहीं मानना है।

ठीक वैसे जैसे, ये उदाहरण मैं कई बार दे चुका हूँ आप कह रहे हो आप मुझे सुना करते हो, तो ये उदाहरण भी आपने सुना होगा।

प्रश्नकर्ता: जी, सुना है।

आचार्य प्रशांत: कौन-सा उदाहरण देने जा रहा हूँ?

प्रश्नकर्ता: सर, स्मृतियाँ जब तक श्रुति को खंडन नहीं करती, तब तक उसको स्वीकार नहीं करना।

आचार्य प्रशांत: तो ये समझाने के लिए मैं किसका उदाहरण दिया करता हूँ? जो हमारा इंडियन जुडिशियल सिस्टम (भारतीय न्यायिक प्रणाली) है। लोअर कोर्ट होते हैं। है न? डिस्ट्रिक्ट कोर्ट, ये सब। फिर उसके ऊपर क्या आता है? हाईकोर्ट्स आते हैं। उसके ऊपर क्या आता है? सुप्रीम कोर्ट आता है। है न?

तो नीचे के जो ये सब कोर्ट्स वगैरह हैं, उनकी बात तभी तक मान्य है जब तक सुप्रीम कोर्ट के जो जजमेंट्स (फ़ैसले) रहे हैं, जो धारा सुप्रीम कोर्ट ने तय कर दी है, वो उसको मानते हों। नहीं तो उन्होंने जजमेंट दे भी दिया, तो जजमेंट माना नहीं जाएगा। उनको कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड (अभिलेख न्यायालय) नहीं बोलते, कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड जो होता है वो सिर्फ़ हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट होता है। और हाईकोर्ट की भी बात सुप्रीम कोर्ट के सामने नहीं चलती। और सुप्रीम कोर्ट की भी छोटी बेंच की बात हो, तो सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बेंच उस बात को अमान्य कर सकती है।

‘श्रुति’ सुप्रीम कोर्ट की सबसे बड़ी बेंच है, उसने जो बात कह दी उसके आगे स्मृतियों की बात, पुराणों की बात या कि इतिहास ग्रंथों की बात नहीं मानी जानी है। जहाँ कहीं भी दोनों बातों में असंगति हो, विरोध हो, तो वो फिर सिर्फ़-और-सिर्फ़ उपनिषद् की बात मानी जाएगी।

आप मनुस्मृति की बात उठा रहे हो इसलिए बोल रहा हूँ। जो मनुस्मृति वगैरह हैं न, ये धर्मशास्त्र हैं धर्मशास्त्र। वहाँ पर धर्म से मतलब ये होता है कि समाज में किस तरह एक-दूसरे से संबंध बनाना है और एडमिनिस्ट्रेशन कैसे होना है, उस अर्थ में उसे धर्मशास्त्र बोलते हैं। धर्म के वास्तविक अर्थ में धर्मशास्त्र नहीं उनको बोलते हैं।

तो जो ‘स्मृति’ शब्द है वो एक अंब्रेला टर्म (व्यापक शब्द) है, उसमें सिर्फ़ ये धर्मशास्त्र नहीं आते, उसमें चार-पाँच और तरीके की चीज़ें आती है। जितने भी आप धर्म के नाम पर ग्रंथ बोलते हो न कि धार्मिक किताब, धार्मिक किताब, धार्मिक किताब, वो सब स्मृतियाँ हैं। यहाँ तक कि मैं कह रहा हूँ पुराण भी सारे स्मृतियाँ हैं, रामायण और महाभारत भी स्मृतियों के अंतर्गत आते हैं, षड दर्शन भी स्मृतियों के अंतर्गत आते हैं।

‘श्रुति’ जो सनातन धर्म है वो वेदांत का धर्म, श्रुति का धर्म है। श्रुति माने वेद, वेदांत। अब वेद चार हैं, और वेदांत उस अर्थ में कि उपनिषद्, दर्शन के अर्थ में नहीं; उपनिषद्। और उपनिषद् हैं, वो सब वेदों से संबंधित हैं, उसमें जो ग्यारह प्रमुख उपनिषद् हैं उसको श्रुति में ले लेते हैं। तो जो सनातन धर्म है, वो श्रुति का धर्म है।

यहाँ तक बात समझ में आई?

सनातन धर्म, स्मृति का धर्म नहीं है और श्रुति क्या है? श्रुति, मैंने सारे उपनिषदों को लेकर के उसमें से करीब पचास या सत्तर सूत्र हैं जो छानकर के हमारी किसी किताब में हमने उसको प्रकाशित करा है; हमने कहा है कि आप अगर समूचा वेदांत नहीं भी पढ़ सकते, तो ये जो है ये पचास-सत्तर सूत्र हैं आप अगर इनको समझ गए हो और इन पर आप लंबे समय तक ईमानदारी से ध्यान करें, तो समझिए कि आप वेदांत जान गए।

अलग-अलग जगहों से उठाकर के, मात्र उपनिषद् ही नहीं कई सारे और प्रकरण ग्रंथ, और कई जगहों से लेकर के, गीता से भी लेकर के; उनका मैंने एक संकलन बनाया है। उनमें क्या बात आती है कुल? उनमें कुल बात ये आती है कि तुम जो हो, तुम जो हो, वो प्रकृति के प्रभावों से पैदा हुआ बस एक अपीयरेंस (उपस्थिति) है। अहंकार झूठी बात है। और अहंकार अपने आप को जिन सब चीज़ों से जोड़कर रखता है, वो संबंध बस झूठ के सहारे के लिए हैं।

तुम ऐसे कह सकते हो कि श्रुति की बहुत केंद्रीय बात ये है कि ये जो तुम अपने आप को देह माने बैठे हो न, तुम देह नहीं हो, “नाहम् देहास्मि।”

और बेटा अगर आप देह नहीं हो, तो जाति कहाँ से आ गई? श्रुति जाति को किसी हालत में नहीं मानती है। और अलग-अलग मौकों पर इस बात के प्रमाण के तौर पर मैं सैकड़ों प्रमाण रख चुका हूँ कि श्रुति में जाति व्यवस्था का कोई स्थान नहीं है। यहाँ तक कि आप जिसको वर्ण व्यवस्था कहते हो, उसका भी स्थान नहीं है। क्योंकि जब आप देह हो ही नहीं, तो वर्ण किसका? जो पूरा वर्णाश्रम धर्म है उसको श्रुति मानती ही नहीं है।

श्रुति के देखे लिंग भी किसी काम का नहीं है। श्रुति कहती है जब देह ही एक झूठ है, तो स्त्री-पुरुष में भेद कहाँ से आ गया। उम्र को भी नहीं मानती, तो आप अभी कहो कि मैं गृहस्थ आश्रम में हूँ कि वानप्रस्थ आश्रम में हूँ। ये सब बेकार की बात है।

श्रुति मानती है कि चेतना हो, और चेतना को तब तक ऊँचे बढ़ते जाना है जब तक वो आसमान में लीन न हो जाए। जब तक चेतना आकाश में जाकर बिल्कुल मिट ही न जाए, आकाश ही न हो जाए, तब तक तुमको बेहतर होते रहना है, अपनी सफाई करते रहनी है। ठीक है?

तो ये सब बातें कि जाति है, ये है वो है, ये सनातन धर्म की नहीं हैं, ये लोक धर्म की हैं, और ये अंतर करना बहुत ज़रूरी है। क्योंकि अंतर अगर नहीं करोगे, तो एक तो लोक धर्म को बहुत बड़ा वैलिडेशन दे दिया कि लोक धर्म, वाह! लोक धर्म ही तो हिंदू धर्म है। बहुत बड़ा वैलिडेशन दे दिया एक बहुत बेकार सी चीज़ को। और सनातन के साथ बड़ी नाइंसाफ़ी कर दी। क्योंकि ये लोग जो थे न जिन्होंने सोचा, बहुत सोचा, बहुत गहरा ध्यान किया, और हमको कहा कि तुम देह नहीं हो।

आप ‘निर्वाण षटकम्’ पढ़िए। जहाँ (ऋषि) कह रहे हैं, “तुम देह नहीं हो, तुम इंद्रियाँ नहीं हो, तुम चतुर्वर्ण नहीं हो, तुम चार आश्रमों में से कोई नहीं हो, तुम कर्मेंद्रिय नहीं हो, तुम ज्ञानेंद्रिय नहीं हो, तुम बुद्धि नहीं हो, तुम स्मृति नहीं हो, तुम चित्त नहीं हो, तुम अहंकार नहीं हो। तुम कुछ नहीं हो, तुम अपना ज्ञान भी नहीं हो, तुम अमीर नहीं हो, तुम गरीब नहीं हो; इन सबको नकारो। “नेति-नेति” विधि है श्रुति की। नकारो, तुम ये जो कुछ अपने आप को मान के बैठे हो। जिससे भी तुम जुड़कर बैठे हो अपने आप को पहचान देने के लिए, वस्तु को भोगने के लिए, वो सब तुम नहीं हो। तो जाति कहाँ से आ गई श्रुति में?

वास्तव में दुनिया का कोई भी धर्म हो सकता है किसी तरीके से भेदभाव को स्वीकार करता हो। सनातन धर्म वो है जो भेदभाव को स्वीकार कर ही नहीं सकता, क्योंकि उसके फंडामेंटल प्रिंसिपल (मूल सिद्धांत) में ही उन सब चीज़ों का नकार निहित है जिनका इस्तेमाल किया जाता है भेद करने के लिए।

अरे यार! तुम भेद करोगे किसी बेसिस पर। ये मेरे पास है (मेज़ पर रखे गिलास को उठाते हुए), ये तुम्हारे पास नहीं है, तो मैं कह सकता हूँ देखा! मैं महान हूँ मेरे पास है, तुम्हारे पास नहीं है।

सनातन कहता है, “इससे (गिलास की ओर इशारा करते हुए) जुड़ना व्यर्थ है। तुम्हारी इससे जो आइडेंटिफिकेशन (पहचान) है वो फाल्स (झूठी) है, तो बताओ अब भेद कैसे बचेगा? अगर मेरा इससे तादात्म्य आइडेंटिफिकेशन ही अमान्य है, फाल्स है, तो हममें-तुममें भेद नहीं हो सकता न।

मैं साहब ज़्यादा तगड़ा हूँ, तुम तगड़े नहीं हो, तो मैं तुमसे श्रेष्ठ हूँ। सनातन फिर हँसेगा और इसको ऐसे (हाथ से हवा में क्रोस की आकृति बनाते हुए) काट देगा। कहेगा — तुम जिससे आइडेंटिफाई कर रहे हो, आइडेंटिफिकेशन ही फाल्स है, तो तुम उससे तगड़े कैसे हो गए।

बात यहाँ तक जाती है कि हमारे तुम्हारे बीच में ये जो शरीर की दीवार है, ये भी फॉल्स है। तो हम तुमसे श्रेष्ठ क्या होंगे, हम तुमसे भिन्न ही नहीं है। हम और तुम दो ही नहीं है, तो अब बताओ जातिगत भेद कैसे कर लें? हम और तुम दो ही नहीं है अदरनेस (भिन्नता) खत्म। सनातन माने ‘अद्वैत’, तो बताओ हम तुम अलग कैसे हो गए?

तो एक ओर तो मैं कह रहा हूँ लोक धर्म ने निश्चित रूप से शोषण किया है और इसके लिए उन सब लोगों को क्षमा प्रार्थी होना चाहिए जो उस शोषण के लाभार्थी रहे हैं। लेकिन दूसरी और मैं ये भी कहूँगा कि कृपा करके ये मत मान लो कि धर्म ही शोषण सिखाता है। धर्म शोषण नहीं सिखाता, जिन्होंने शोषण करा है, वो ऐसे थे जो खुद धर्म को नहीं जानते थे। लोक धर्म तो सनातन धर्म का दुश्मन होता है।

ये जो जिसको हम आम हिंदू कहते हैं न, ये जिस धर्म का व्यवहार कर रहा है, जिस धर्म को प्रैक्टिस कर रहा है, वो सनातन धर्म नहीं है।

एक बार एक टीवी वाले आए थे, मैंने उनको बोला, “भारत में हज़ार हिंदू भी नहीं है।” उससे बहुत लोगों को बड़ी आग लगी। बोले, ‘ऐसा कैसे बोल सकते हैं?’ मैंने कहा, “मैं जानता हूँ।”

ये सब लोक धर्म का पालन करने वाले लोग हैं, ये सनातनी थोड़े ही हैं। आप इनको हिंदू वगैरह बोल लो, पर ये सनातनी नहीं है। जो यही सब जो सोचता हो होली-दिवाली, यही सब है रंग-गुलाल, पटाखा यही धर्म है जिसको ये लगता हो, वो ये मानने से सनातनी थोड़े ही हो गया।

सनातनी वो है जो श्रुति को समझता हो। और ये मेरी दी हुई परिभाषा नहीं है। लोग कहते हैं — ये मनगढ़ंत परिभाषाएँ देते हैं। ये मेरी दी हुई परिभाषा है? जिन्होंने चार किताबें न पढ़ी हों, जिन्होंने एक किताब भी न पढ़ी हो, वही ये बोल सकते हैं कि ये परिभाषा मेरी दी हुई है।

मैंने नहीं दी है, ऋषियों ने दी है। सनातन धर्म माने ‘श्रुति।’ जो श्रुति पर चल रहा है मात्र वही सनातनी है। जो ये सब तीज-त्यौहार, प्रथा-परंपरा कर रहा है, ये ठीक है लोक धर्म का पाल कर रहा है। और इस लोक धर्म में मैं स्वीकार करता हूँ कि अन्याय हुआ है, अत्याचार हुआ है, भेदभाव हुआ है, बिल्कुल हुआ है। लेकिन सनातन धर्म भेदभाव का नहीं है, उसमें हो ही नहीं सकता।

कोई भेदभाव करे, और बोले — मैं सनातनी हूँ, ये दोनों बातें एकसाथ नहीं चलती हैं।

समझ में आ रही है बात ये?

अब आप पूछ रहे हो कि मैं “धर्मो रक्षति रक्षित:” क्यों उद्धृत कर देता हूँ? कुछ तो समझ ही गए होंगे उत्तर। थोड़ा और बता देता हूँ।

पहली बात तो वो सिर्फ़ मनुस्मृति में आता नहीं है, वो महाभारत में भी दो-तीन जगहों पर आता है। वन पर्व में आता है, अनुशासन पर्व में आता है, एकाध कहीं और भी आता होगा। ठीक है?

पूरी बात ऐसे है कुछ कि “धर्म एव हतो हंति, धर्मो रक्षति रक्षित:।” जो धर्म का नाश कर रहा है, वो खुद ही नष्ट हो गया। और जो धर्म की रक्षा कर रहा है उसकी रक्षा हो जाती है। धर्म का नाश। अब कौनसे धर्म की बात हो रही है? लोक धर्म की या सनातन की?

सनातन की बात हो रही है, लोक धर्म की नहीं बात हो रही है। और क्यों बात हो रही है? बहुत तार्किक बात है। हम बेचैन होते हैं न भीतर से उसी बेचैनी का नाम अहंकार होता है। हम भीतर से बेचैन होते हैं, उस बेचैनी का नाम है, अहंकार।

प्रश्नकर्ता: अहंकार।

आचार्य प्रशांत: अहंकार। है न? धर्म क्या है? अपनी बेचैनी का शमन। भीतर के जो बंधन है तमाम और गड़बड़ भीतर पकड़ के बैठे हैं मान्यताएँ, बिलीव (विश्वास), सुपरस्टिशन (अंधविश्वास); उनको हटाना ही धर्म है। यही धर्म की परिभाषा है, और नहीं कुछ धर्म है।

तुम सही धर्म पर नहीं चलोगे, तो तुम बर्बाद हो। क्योंकि बर्बाद तो तुम हो ही। “धर्म एव हतो हन्ति।” और अगर तुम सही धर्म पर चल लिए, तो तुम बच जाओगे, क्योंकि बचने को ही धर्म कहते हैं। ये इतनी सीधी-सी बात है। मैं इसको उद्धृत किया करता हूँ।

मैं इसको उद्धृत करके जो पूरा स्मृति साहित्य है उसकी वकालत नहीं कर रहा हूँ। मैं तो बार-बार कहता हूँ कि स्मृति से बहुत आगे है? श्रुति। और ये बात मेरी दी हुई नहीं है, ये बात सनातन का मूल नियम है। मैंने नहीं आविष्कृत करा है।

बस गड़बड़ ये हो गई है कि दुनियाभर में हिंदू धर्म को जाना किससे गया है? स्मृतियों से। तो लोगों को लगता है कि यही सब जो चल रहा है तमाशा, यही हिंदू धर्म है। ये हिंदू धर्म है ही नहीं। तभी तो कि भारत में हज़ार हिंदू भी नहीं है, दुनिया में नहीं हैं।

ये सब जो चल रहा है, ये तो ऐसे ही तमाशा है। ये कोई धर्म थोड़े ही है। असली धर्म का पालन तो हम करते नहीं। असली धर्म का पालन करने के लिए हमें श्रुति के पास जाना होगा, पढ़ना होगा। पढ़ने से हमें बड़ी समस्या है। हमें उछल-कूद से मतलब है पढ़ने से थोड़े ही मतलब है।

आ रही है बात समझ में?

तो मनुस्मृति से या महाभारत से जो ये मैं वाक्यांश उठाता हूँ, ये वास्तव में मैं सनातन धर्म क्या है, ये समझाने हेतु उठाता हूँ। मनुस्मृति की अगुवाई में या पैरवी करने के लिए एडवोकेसी में, वकालत में नहीं उठाता।

और अच्छी चीज़ कहीं मिले, तो ले लेनी चाहिए न। देखो मैं कितना घटिया आदमी हूँ, पर मैं दो-चार अच्छी बातें बोल दूँ, तो तुम लोगे न? ऐसे ही। अब कोई ढंग की बात है वो महाभारत में है, मनुस्मृति में है, तो हम क्यों नहीं लेंगे? क्यों नहीं लेंगे?

महाभारत में ही ये उल्लेख भी है कि एकलव्य के साथ भेदभाव हुआ, और महाभारत में ही भगवद्गीता भी है। बताओ लें कि न लें? जो लेने लायक है वो लेंगे, जो नहीं लेने लायक है नहीं लेंगे बाबा!

एकलव्य का उदाहरण नहीं लेंगे, एकदम नहीं लेंगे। भगवद्गीता? एकदम लेंगे। मनुस्मृति में भी अगर कोई वाक्यांश है जो बहुत ऊँचे दर्जे का है, तो उसे ले लेंगे। ये मन के खुलेपन को, मन की उदारता को दर्शाता है। जहाँ कहीं जो कुछ अच्छा मिले, स्वीकार कर लो, सर झुका दो। और जिस चीज़ को तुम बहुत ऊँचा भी समझते हो, उसमें अगर कोई खोट मिले, तो सिर्फ़ इसलिए मत स्वीकार कर लेना कि वो खोट ऊँची चीज़ से आ रही है। अस्वीकार कर दो। पर कितना अस्वीकार करना है? जितना खोट है, उतना अस्वीकार कर दो।

अस्वीकार कैसे करें? कैसे जानें? क्या अहंकार के द्वारा, खुद ही जान लें? अरे बाबा! जानना है, तो ये देख लो कि वेदांत के मूल सिद्धांतों के साथ है, तो स्वीकार कर लेंगे। वेदांत के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है, तो एकलव्य वाली बात क्यों अस्वीकार कर देंगे? क्योंकि वेदांत नहीं मानता। और गीता क्यों स्वीकार कर लेंगे? क्योंकि गीता खुद एक उपनिषद् मानी जाती है। है उपनिषद जैसी, इसलिए गीता स्वीकार करेंगे।

गीता को स्वीकार करेंगे, एकलव्य का उदाहरण अस्वीकार करेंगे, क्योंकि एकलव्य का उदाहरण वेदांत से नहीं चलता साथ। और गीता तो कहती ही यही है कि जो उपनिषदों की बात है वही हम आपको बता रहे हैं। तो इसलिए गीता स्वीकार है।

सनातन धर्म माने तुम्हें नहीं ज़रूरत है उल्टी-पुल्टी प्रथाओं में, और जनसामान्य के रूढ़ियों में, और अंधविश्वासों में फँसने की। मत, एकदम नहीं, एकदम नहीं, एकदम नहीं।

सनातन धर्म के केंद्र में बिल्कुल वही बात है, तुम्हारे सिर के ऊपर कितनी शुभ बात है, वहाँ देखो कौन बैठे हुए हैं, महात्मा बुद्ध बैठे हुए हैं। (प्रश्नकर्ता के सिर के पीछे दीवार पर महात्मा बुद्ध की तस्वीर टँगी है) वो हैं सनातन। जो उनकी बात है न, बिल्कुल वही सनातन की बात है।

और देखो कितने सुंदर लग रहे हैं! हम उलझे हुए हैं चर्चा में, वहाँ से मौन, साक्षी होकर के निहार रहे हैं। यही ‘मौन’, सनातन का सूत्र है ये, उपनिषदों की बात है ये ‘मौन'।

और इसलिए बार-बार बोला करता हूँ कि जो बौद्ध दर्शन है विशेषकर माध्यमिक शून्यवाद और अद्वैत वेदांत; इसमें मैं ढूँढकर के भी कोई अंतर नहीं निकाल पाता। हाँ, एक की भाषा अलग है एक की दूसरी है। अद्वैत वेदांत में कुछ बातें और विस्तार से बोल दी गई हैं। शून्यवाद में रियलिटी (वास्तविकता) के दो तल बताए हैं, अद्वैत वेदांत ने उसको तीन तल कर दिया है। वो ऊपर थोड़ा उन्नीस-बीस का कुछ कर दिया है। लेकिन एकदम जो केंद्रीय बात है एकदम ‘एक’ है। यही है सनातन। वही जो केंद्रीय बात है वही सनातन है।

और केंद्रीय बात ये है कि भीतर जो ये बैठा हुआ है, ये नहीं है। हाँ? वेदांत उसको बोल देता है मिथ्या, और बौद्ध मत उसको बोल देता है शून्य। बाकी सब जो तुम देख रहे हो धर्म के नाम पर प्रपंच है। उसको बिल्कुल अस्वीकार कर दो, एकदम अस्वीकार कर दो। ठीक है? स्पष्ट हुआ है या कुछ बच रहा है?

प्रश्नकर्ता: जी, स्पष्ट हुआ।

आचार्य प्रशांत: ये इतनी गंदगी फैल गई है न, इतनी सारी शताब्दियों पुरानी, तो साफ़ करना बड़ा मुश्किल होता है। क्योंकि हम चाहें-न-चाहें इतिहास का हम पर असर तो पड़ता ही है। और जिन बेचारों ने भुगता है उन पर और ज़्यादा असर पड़ता है, उनके लिए भुला पाना और मुश्किल होता है।

लेकिन फिर समझा रहा हूँ जैसा अन्याय बेटा! दलितों के साथ हुआ है न, बराबर का अन्याय ऋषियों के साथ हुआ है। अन्याय करने वाला कौन है? वही जो साधारण मध्यमवर्गीय धार्मिक आदमी है। ये लोकधर्मी है न, लोक धर्म माने प्रचलित धर्म, जैसे सब लोग करते हैं; ये जो लोक धर्म का आदमी है इसने दोनों तरफ़ अन्याय करा है। इसने एक तरफ़ कुछ लोगों को नीचा बोलकर उनके साथ अन्याय करा, और दूसरी तरफ़ इसने ऋषियों के साथ भी अन्याय करा, उनको ऊँचा बोला और उनकी सुनी नहीं। उनकी जगह इसने किस चीज़ को धर्म बना लिया? किस्से-कहानियाँ, अंधविश्वास, रूढ़ियाँ, प्रथा-परंपरा, ये-वो हमारी ऐसी मान्यता चलती है। हम ऐसा करते हैं, यहाँ डोरा बाँधते हैं, ये करते हैं, ये सब इसने बना लिया।

तो जितना अन्याय दलितों के साथ हुआ है, समझ लो उसी तरह अन्याय ऋषियों के साथ भी हुआ है। वो क्या समझाना चाहते थे और आम आदमी ने धर्म को कितना विकृत कर दिया।

और ये बात मैं नहीं बोल रहा हूँ बेटा! आप उपनिषदों को पढ़ो। मैंने कहा तो कि मैंने उसमें से निकाल-निकालकर के सूत्र किताब में ही पिरो दिए हैं।

प्रश्नकर्ता: वेदांत।

आचार्य प्रशांत: आप उसको पढ़ो। आप उसको देखोगे, आप कहोगे, प्रफुल्लित हो जाओगे। कहोगे — इतनी आज़ादी, इतना खुलापन, इतना अपनापन। और वो कौन-से लोग थे जिन्होंने इस धर्म को इतना विकृत कर दिया और ज़हर से भर दिया। वो कौन-से लोग थे, बता देता हूँ — वो आम आदमी है।

आम आदमी बड़ी गंदी चीज़ होता है, उसको अपनी गृहस्थ चलानी है। उसको अपने विकार पालने हैं, उसको अपने स्वार्थ पालने हैं। और उन स्वार्थों की खातिर वो ऊँची-से-ऊँची बात को भी कीचड़ में गिरा सकता है। उसको आप बहुत ऊँची बात समझा दो, उसका वो अपना मनमाना अर्थ करेगा, या कि उसको अलग हटा देगा, अपनी कोई कहानी बना लेगा। अपने हिसाब से वो ऐसे-वैसे कुछ भी इधर-उधर की माइथोलॉजी (पौराणिक कथा) तैयार कर लेगा, और कहेगा यही धर्म है।

आम आदमी से बचना। उनके पास जाओ जो मौलिक हैं। उनके पास जाओ। देखो जो मौलिक होता है न उसमें करुणा बहुत होती है। वो किसी का बुरा नहीं चाह सकता, किसी का बुरा नहीं चाह सकता। ऋषि मौलिक थे। वो समाज, संसार के गली-मोहल्लों में रहकर के ऋषि नहीं हो गए थे, जंगल में जाकर बैठे थे। तब जाकर के उन्होंने कोई असली बात बोली, जो कि समाज में थी ही नहीं पहले। पीछे बुद्ध हैं, बुद्ध मौलिक थे, महल छोड़कर जंगल गए थे, कुछ मौलिक बात बोली।

तो लोगों से धर्म नहीं लेना है कृष्णों, बुद्धों, कबीरों से धर्म लेना है। ये लोगों का जो धर्म है, इसको तो तुरंत रिजेक्ट करो। बोलो — ये जो तुम चला रहे हो, ये धर्म नहीं मानते हम। ठीक है?

समझ में आ रहा है या?

प्रश्नकर्ता: जी।

आचार्य प्रशांत: स्पष्ट हो रहा है एकदम?

प्रश्नकर्ता: जी। आचार्य जी, जैसे कि मैं भी ये प्रयास करना चाहता हूँ जैसे कि दलित वर्ग जो है और स्पेशली जो सांथाल (जनजाति) है; मैं उसके पास में उपनिषद् ले जा सकूँ। विवेकानंद भी कहते हैं कि अगर व्यक्ति को धर्म नहीं दिया गया, तो जो कुछ भी दे तो अपर्याप्त होगा।

आचार्य जी, मैं पहले अपने वर्ग से उधर जो कम्युनिटी है पहला, वो मैं ट्वेल्थ क्लास में भी आकर के अभी नीट का तैयारी कर रहा हूँ, और वैसे भी वहाँ कोई पढ़ा-लिखा नहीं है।

आचार्य प्रशांत: सबसे पहले वहाँ पढ़ाई ले जाओ बेटा।

प्रश्नकर्ता: हाँ।

आचार्य प्रशांत: धर्म बाद में ले जाना पहले पढ़ाओ लिखाओ। उनमें प्रेरणा पैदा करो कि वो सम्मान दें पढ़ने को। भूखे पेट पढ़ें, लेकिन पढ़ें ज़रूर। जो पढ़ा-लिखा नहीं होगा न, उस तक और ऊँची बात पहुँचाना थोड़ा और मुश्किल हो जाता है। ऐसा नहीं कि असंभव हो जाता है, पहुँचाया जा सकता है। लेकिन खासकर अभी जिनकी पढ़ने-लिखने की उम्र हो पहला प्रयास तो ये करो कि वो पढ़ें, उनके हाथ में किताबें दो। धर्म ग्रंथ इंतज़ार कर सकता है।

और जो पढ़-लिख रहे हो मान लो उनकी भी शुरुआत ये नहीं करो कि आज मैंने तुम्हारे हाथ में किताब दे दी है, इस किताब में सब सच लिखा है तुम इसको पढ़ो। ऐसे नहीं होता।

धर्म माने इंक्वायरी (जाँच करना), जिज्ञासा, क्रिटिकल इवेलुएशन (आलोचनात्मक मूल्याकंन); उसकी शुरुआत खुद से होती है खुद को देखो और अपनी ज़िंदगी को देखो, और बताओ जो चल रहा है क्यों चल रहा है, किसलिए चल रहा है, कहाँ से आया, और क्या लगता है तुम्हें कि इससे तुम्हारी बेहतरी होगी।

ये सवाल-जवाब यही धर्म का उदगम है, ओरिजिन (मूल, उत्पत्ति) है। जो सवाल-जवाब करना सीख गया, जो अब डरता नहीं है तथ्यों का सामना करने से, फिर उस तक धीरे-धीरे कोई धार्मिक किताब लाई जा सकती है।

पर शुरुआत ऐसे नहीं करी जाती कि लो बेटा! ये सूत्र, ये श्लोक पढ़ो। ऐसे बस पाखंड पैदा हो जाता है। खुद से शुरुआत करी जाती है, मैं कैसा हूँ, मैं क्या सोचता हूँ, मैं क्या चाहता हूँ, मैं किससे डरता हूँ, मैं जिन बातों में विश्वास करता हूँ वो बातें मुझ तक कहाँ से आ गईं।

और फिर कहा जाता है, देखो! ये और लोग हुए हैं इन्होंने कुछ सोचा था। ये विवेकानंद की बात है, देखो तुम्हें ठीक लग रही है क्या? और कोई कहे — हाँ, ये बात जँच रही है। तो कहो — तो चलो फिर चर्चा करते हैं। और चर्चा इसलिए नहीं करते कि वो बात मान ही लेनी है। समझनी है, मान नहीं लेना है। समझना है। लेकिन सारी बातों से पहले है पढ़ाई-लिखाई, शिक्षा। स्कूल भेजो, कॉलेज भेजो। ठीक है? और बताओ?

प्रश्नकर्ता: धन्यवाद, आचार्य जी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
Be the first one to add a comment :)
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Articles On Social Issues
Excerpts From Articles
How Influencers Fool Us So Easily
We have reserved critical thinking only for problems related to science and technology, but not for life itself. Why can’t the same spirit of inquiry be present in everything? Without the filter of thought and inquiry, you will be enslaved and exploited. So, pause at every sentence, analyze, and refuse to move on until you are satisfied.
Living Without Illusions: A Lesson on Expectations and Reality
It is not that the way the world is, the ignorance, the stupidity, the suffering, the perverseness of it all. It's not that that hurts or surprises you. What shocks is that adverse things come from people you think of as decent, respectable and wise. It is not events or people, therefore, who are shocking you, it is the expectations that you hold of them.
Why Do We Hide Things In Relationships?
Cultures place too much value on conforming to relationship stereotypes. These dogmas and rigid opinions do not easily accept reality. And so, to please them, you become a habitual liar. But good relationships are founded on freedom; they are not based on obligations, and they are not afraid of reality. In good company, the other might frown, but less on what you did, and more on what you hid.
आश्रित महिलाएँ और अध्यात्म
जो आश्रित महिलाएँ हैं, इनको सबसे बड़ी सज़ा यह मिलती है कि इनका अध्यात्म की तरफ़ बढ़ने का रास्ता बिल्कुल रोक दिया जाता है। परमेश्वर की ओर कैसे बढ़ोगे अगर पति ही परमेश्वर है? जो कैद में है, उसके लिए साधना है — दीवारों को तोड़ो और बाहर आओ। बाहर निकलकर कोई नया ज्ञान, कला, या कोई कुशलता सीखो।
How to Break Free from the Trap of Seeking External Validation?
The relationship can be very strong, but the strength of the relationship may not necessarily be an auspicious thing. You can have a very, very strong relationship with the external, and yet it could be from a very wrong center. And what do we mean by wrong? The center of inner ignorance.
Kids and Anxiety: What’s Going Wrong?
If a kid has been continuously told that the world is everything, how will an untouched point remain within? The world, as we know, is quite fickle, while our real nature is stability or permanence. It is this dichotomy that pushes us into stress and anxiety. A big portion of the mental health problem can be addressed if we provide the right value system to the kid—the right literature.
The Female Body, Chastity and 'Rape Culture'
Rape is happening all over the place. A husband raping a woman is not something new. Public apathy—nobody reporting the rape—that is again not something new. What is new is the woman standing up. And not just standing up in a way that displays raw courage, but standing up in a way that displays something deeper. She is challenging the very notion of female honor.
How Can The Common Man Make Better Decisions In Life?
First of all, we have to realize what our life is like. You know, I can’t change something without firstly understanding its processes and its actuality. I must know what this thing called my life is. We keep living without knowing a thing about life. And we’re blinded by names and identities.
How to Raise a Daughter?
Please be an observer and a compassionate witness. Keep watching, watch from a distance. Meddling is not needed. Being a parent of a girl child today is a humongous opportunity. You have the chance to give rise to a new world—if you can truly raise one girl as a free girl.
Astrology: A Myth People Believe
It has been extremely conclusively proven, demonstrated that astrology is not a science at all. It's a conjecture. It's a belief system. Belief system with no material basis at all.
Science and Spirituality Always Go Hand in Hand
The most common thing in spirituality and science is 'an honest urge to know the Truth.' Science observes the external universe, and spirituality observes the mind. These two have to be in tandem. The one thing that enables true knowledge in any field is honesty and integrity.
Leadership and Spiritual Insights from the Bhagavad Gita
My concern is the way we are. My concern is the face of the human being. My concern is the little sparrow. I'm not here to tell people what God has said. I'm here to take care of the sparrow. That's my concern. And the sparrow cannot be taken care of unless we go to the Gita. Hence, the Gita.
कॉमेडी हो तो ऐसी
हमारी ज़िंदगी में तो लगातार वही सबकुछ हो रहा है जो होना नहीं चाहिए। आप लोगों को हमारी ज़िंदगी का ही आईना दिखा दो न। हम सब अपने गधों को अपनी पीठ पर बैठाकर चल रहे हैं। इतनी जोर की हँसी आएगी कि मज़ा आ जाएगा। कुछ ऐसा है जो बेमेल है, विसंगत है, और हमारी ज़िंदगियाँ मूर्खता की ही एक अंतहीन कहानी हैं। ये एब्सर्डिटी दिखाओ न लोगों को, खूब हँसेंगे।
इंसान हो तो ज़िंदगी से जूझकर दिखाओ
दुनियादारी सीखो, भाई! और मुझसे अगर प्रेम है या कोई नाता है, इज्जत है, तो मेरी अभी स्थिति क्या है, वो समझो। प्रेम अगर है, तो प्रेम यह देखता है ना कि सामने वाला क्या चाहता है, उसकी क्या जरूरत है? प्रेम आत्म-केंद्रित थोड़ी हो जाएगा कि "मैं अपने तरीके से!" अपने तरीके से है, तो फिर प्रेम नहीं है, स्वार्थ है ना!
What Makes a Woman Beautiful?
The woman is not beautiful; the man is not beautiful either. Truth and compassion are beautiful. The compassionate one stands head and shoulders above the gorgeous woman or the handsome man. And this is possible only when love and appreciation for the right, gender-independent values are fostered in both the man and the woman.
Categories