प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, मैं पश्चिम बंगाल के एक छोटे-से प्रांत पुरुलिया से हूँ। ऐसे कॉलेज में अध्यापन करता हूँ लेकिन वहाँ एक स्कूल (विद्यालय) भी चलाते हैं हम लोग। तो मेरे मन में एक प्रश्न आया है कि वहाँ जो दो साल से लेकर ग्यारह साल तक के बच्चे पढ़ते हैं, छोटी जगह है तो आईक्यू लेवल (बुद्धि स्तर) भी बहुत बिगड़ा हुआ रहता है।
तो मुझे अगर कुछ आपसे विचार मिलता, मार्गदर्शन मिलता, कि किस तरह से छोटी-सी उम्र से, इन बच्चों को और इनके माता-पिता को और या हमारे स्कूल में जो पढ़ाते हैं वो टीचर्स (शिक्षक), उनके भीतर भी जैसे ये बोध आए। क्योंकि कभी-कभी इस तरह की घटनाएँ घटती हैं जो बड़ा अद्भुत लगता है कि इतने छोटे-से बच्चे के भीतर में, वो एक गरीब जो आया है उसके हाथ से मुझे नहीं खाना है, इस तरह की बात।
तो या कभी एक क्लास वन या टू के बच्चे के भीतर में सेक्स की एक भावना। तो मुझे ये समझ में नहीं आता, कभी-कभी हम लोग पेरेंट काउंसलिंग (अभिभावक परामर्श) करते हैं, कुछ वर्कशॉप (कार्यशाला) भी करते हैं तो अगर आप कुछ इस विषय में अगर प्रकाश डालते...
आचार्य प्रशांत: देखिए, मैं अपने बारे में बोल सकता हूँ अगर मैं इस लायक हूँ कि थोड़ा बहुत मेरी बात दृष्टांत बन सके तो। मुझे बहुत-बहुत सालों तक, दुनिया की ये जो क्षुद्रताएँ होती हैं, इनके प्रभाव से बहुत बचाकर रखा गया। मुझे एक्सपोज़ (अनावृत) नहीं किया गया। और मुझे लगता है उसने मेरी बहुत मदद करी।
मैं क्या कहना चाह रहा हूँ, समझाऊँगा। मुझे बहुत बातें पता ही नहीं लगने दी गईं कि ऐसी होती हैं। मुझे किताबें दी गईं। मेरे बहुत सारे दोस्त-यार बने नहीं, जितने साधारण तरीके से स्कूल में बन जाते थे तो बन जाते थे। पर वो सब नहीं था कि शाम को भी जाकर दोस्तों के पास बैठे हैं और शाम को भी बहुत खेल रहे हैं, ये, वो। मुझे नायक दिए गए, हीरोज़ दिए गए। मुझे ऊँचे, मज़बूत, कद्दावर चरित्र दिए गए, मैं उनके साथ समय गुज़ार पाया।
दुनिया में क्या चल रहा है मुझे नहीं पता होता था। मुझे अभी भी नहीं पता होता। कल ये दिखा रहे थे कि फ़लाना है, ये हुआ है, इतने सारे मिले, इन्होंने वीडियो बनाया। तो उसमें दिखाने लगे, ये, ये है, ये, ये है। अब मैं पूछ रहा हूँ, ‘ये कौन है? मुझे नहीं पता।’ और मैं बहुत खुशकिस्मत हूँ कि मुझे नहीं पता, ये जो पता होना होता है न, ये बड़ी खतरनाक चीज़ होती है।
शिव सूत्र बिल्कुल शुरू में ही बोलते हैं “ज्ञानम बंध:,” गलत तरीके का ज्ञान ही बंधन बनता है। और जब हम बोलते हैं कि आत्म अज्ञान ही केंद्रीय दुख है, तो हमने ये भी कहा है कि अज्ञान माने झूठा ज्ञान। मुझे झूठे ज्ञान से बचाकर रखा गया। मुझे नहीं पता होता था, मुझे बहुत फ़िल्मों के बारे में नहीं पता होता था, मैं टीवी के बारे में बहुत ज़्यादा नहीं जानता था।
एक छोटा पोर्टेबल ब्लैक एंड वाइट टीवी घर में होता था बस, पोर्टेबल वाला। क्या-क्या चल रहा है बहुत नहीं....... छुट्टियों में चले जाते थे ननिहाल, तो वहाँ फिर भी सीरियल वगैरह देख लेते थे, नहीं तो घर में नहीं चलता था। जब कुछ खास होता था जो दिखाना ही होता था मुझको तो बाहर से टीवी, वीसीआर मँगाया जाता था और फिर इसमें देख लो।
स्कूल जाता था जूते पहन रखे हैं, साथ के बच्चे पहला सवाल पूछते थे, ‘कितने का है?’ अब ये, आप ये भी कह सकते हैं कि ये तो बिल्कुल कॉटन वूल में किसी को लपेटकर रखने वाली बात है, मुझे पता ही नहीं होता था कितने का है, मुझे कभी बताया ही नहीं गया कितने का है। मेरे भीतर ये जिज्ञासा भी नहीं जागृत होने दी गई कि तुम्हें ये सब बातें पता होनी चाहिए कि कपड़ा कितने का आता है, जूता कितने का आता है, पेन कितने का आता है। कुछ नहीं, जो तुम्हारी ज़रूरत की चीज़ है ले लो और जो तुम्हें पढ़ना चाहिए वो पढ़ो।
अब ये सुनने में बहुत उबाऊ बात लग रही होगी, पर मैं और क्या बताऊँ, मेरे लिए तो यही रास्ता है। मैं क्यों संगति करूँ इन मूर्खों की? मैं क्यों इस मज़बूरी में जिऊं कि जो मेरे आसपास हैं, मुझे तो बस उन्हीं का सानिध्य करना पड़ेगा न।
नहीं, जो मर गए हैं, मैं उनका सानिध्य करूँगा, उनकी किताबें है न, तो उनके साथ जिऊँगा। इधर चंपू सिंह, इधर पप्पू सिंह, इनका खयाल मेरे दिमाग में क्यों आए? मेरे दिमाग में भगत सिंह का खयाल आना चाहिए न। हाँ तो पढ़ो, भगत सिंह हैं, लो पढ़ो इनको। और मैं देख भी नहीं पाता कि इसके अलावा तरीका क्या हो सकता है।
बच्चे का एक्सपोज़र (अनावरण) रोकना पड़ेगा उसको इंसुलेट (अलग करना) करना ही पड़ेगा, नहीं तो ये दुनिया उसको बहुत जल्दी खा जाएगी। पागल-से-पागल माँ-बाप वो हैं जो टीवी लगाकर बच्चे को सामने बैठा देते हैं या कि आपस में बहस कर रहे होते हैं दुनियादारी की, नालायिकियाँ कर रहे होते हैं और बच्चा बैठा है सुन रहा है।
जब कभी मैं भी ये बातें सुन पाया, मुझ पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ा। पर जिन्होंने मेरी परवरिश की, वो लगभग सभी लोग इस बात को लेकर सजग थे कि इसके कुछ जानना नहीं चाहिए। कुछ था मतलब, लगभग एक प्रोजेक्ट (परियोजना) की तरह उन्होंने मुझे पाला। और यही नहीं सिर्फ़ माँ-बाप, मेरे नाना भी।
बच्चा प्रोजेक्ट ही होता है, छोटी बात नहीं है न। बहुत सारी बातें तो ऐसी होती थीं मुझे भी नहीं होता था कि टीचर (शिक्षक) से बात चल रही है। और वहाँ सब पता रहता था कि अभी इसका क्या है, कैसा है, किस दिशा ले जाना है, कैसे करना है। ये नहीं कि बस ऐसे ही हवाओं और लहरों के भरोसे छोड़ दिया कि बच्चा अब जिधर को जाएगा तो जाएगा, ऐसे नहीं।
मैं आपसे कई बार कहता हूँ, घर में लाइब्रेरी (पुस्तकालय) थी, बार-बार बोलता हूँ क्योंकि मेरे लिए वो बहुत-बहुत कीमती चीज़ रही है। असली बात तो ये है कि उसमें भी किताबें बस यूँही संयोगवश नहीं भरी हुई थीं। मुझे बिना बताए चुपचाप उसमें लाकर वो किताबें रखी जाती थीं जो मेरी उस अवस्था में मेरे लिए ठीक होतीं। कहा नहीं जाता था कि पढ़ो, बस रख दी जाती थीं, मैं खुद ही चला जाता था।
किताबों के अलावा शायद कोई ज़रिया है नहीं। हाँ, अब मल्टीमीडिया का एज (युग) है तो आप किताबों में फिर वीडियो भी जोड़ लीजिए, ऑडियो भी जोड़ लीजिए, आप पेपर बुक्स की जगह ई-बुक्स जोड़ लीजिए, वो सब ठीक है, वो उसी बात का विस्तार हैं। लेकिन वो बच्चा जो हमारी, वयस्कों की इस गंदी दुनिया को एक्सपोज़्ड है, नहीं बच पाएगा, नहीं बच पाएगा।
मैंने देखा है, जो व्यापारी तबके से परिवार होते हैं, वो पिताजी और चाचाजी, वो बच्चा है अभी आठ-दस साल का, उसको दुकान में बैठाना शुरू कर देते हैं। कहते हैं, ‘आज संडे (रविवार) है, आज आजा दुकान चल।‘ और दुकान पर वो हर तरीके की लानतें देख रहा है, वो क्या बनकर निकलेगा? उसमें दस की उम्र से ही कुटिलता आ गई है, उसमें दस की उम्र से ही व्यापार बुद्धि आ गई है, ये क्या कर रहे हो उसके साथ?
मैं फिर बोल रहा हूँ, ‘मेरे साथ जो अच्छे-से-अच्छा हुआ, वो ये हुआ कि बहुत सारी बातें मुझे न तब पता थीं न अब पता हैं।‘ क्यों पता हों? और जब व्यर्थ की बातें नहीं पता होतीं तो जगह खाली बचती है वो बातें पता करने की जो पता होनी चाहिए। सब मूर्खता की बातें ही पता हैं और उसी में तुम सोच रहे हो मैं बड़ा दुनियादार हो गया, मैं बहुत व्यवहारकुशल हो गया।
मुर्खता की बातें जानकार ही तो हम कहते हैं न कि देखो कितना प्रैक्टिकल है।’ तो तुम्हारे लिए प्रक्टिकैलिटी का यही मतलब है कि देखो कितना छोटा सा है लेकिन वो सब जानता है, बेटा, सनी आंटी का बताना, लास्ट वीडियो कब आया था, सनी लियोनी।
वो तुरंत बता रहा है कि कौन से प्लेटफॉर्म पर लास्ट वीडियो कब आया था और उनकी सक्सेसर आंटी कौन हैं। अब उसके बाद आप पूछ रहे हैं कि पहली-दूसरी के बच्चों में भी सेक्सुअलिटी जागृत हो रही है तो और नहीं होगी तो क्या होगी! माँ-बाप का काम है सचमुच उनको ऐसे बचा के रखना कि मैं बहुत सारी बातें तेरे कान में पड़ने ही नहीं दूँगा।
अभी उस दिन तो बात हुई थी, महीन, दो-महीना पहले ही, किसने पूछा था कोई देवी जी थीं, डॉक्टर ही थीं कि आठ-नौ साल की बच्चियों के पीरियड (मासिक धर्म) शुरू हो रहे हैं। ये पहले सोचो, आठ-नौ साल में जो घटना हो रही है वो तो ठीक है, आठ-नौ साल की उम्र तक उसके कान में क्या-क्या नहीं आपने पड़ने दिया है। तब जाकर के न उसका पूरा...... हम तो साइकोसोमेटिक (मनोदैहीक) होते हैं, मन में बात गई है तो शरीर भी उत्तेजित हो गया है। और ये भी हो सकता है कि उसके शरीर पर भी किसी का हाथ पड़ा हो, ये भी हो सकता है।
बहुत बचाना पड़ता है। लोग कहते हैं, ‘आचार्य जी, ये शादी के खिलाफ़ हैं,’ तुम जो दुर्व्यवहार करते हो बच्चों के साथ, मुझे कैसे अच्छा लगे कि तुम ब्याह करने जा रहे हो और अब बच्चा पैदा करोगे और उसकी ज़िंदगी खराब कर दोगे। तुम इस लायक हो कि तुम शादी कर सको? तुम इस लायक हो कि अब बच्चे पैदा कर सको?
और शादी करने के लिए उतावले हैं, चले जा रहे हैं, राजा की आएगी बारात, रंगीली होगी रात, मगन में नाचूँगी। शादी हुई नहीं कि आठवें महीने पेट फुलाकर घूम रहे हो, वो पैदा हो गया है चिबिल्ला, वो रो रहा है, पता नहीं कुछ। दुनिया में सबसे शोषित जाति यही तो है ‘बच्चा।‘ लेकिन कूदे पड़े हैं ब्याह के लिए। मुँह धोना आता नहीं, ब्याह करना है। और फिर बच्चा आ जाता है।
बच्चा बहुत जल्दी एडल्ट हो जाता है, बहुत जल्दी। आप एक बात बताओ, जब तेरह साल से, अब तो तेरह भी नहीं रहा अब तो दस ही साल है, अब तो ये सब भी आता है न कि तीसरी क्लास की लड़की प्रेग्नेंट (गर्भवती) हो गई, पाँचवी क्लास का उसका बॉयफ्रेंड था। जब प्रकृति आपको दस साल की उम्र से ही सेक्सुअली कैपेबल बना देती है तो जो बालपन है उसकी अवधि बची ही क्या।
जिसको आप कहते हो कि अभी इसका बाल्यकाल चल रहा है, बचपना चल रहा है, वो तो बहुत छोटा होता है। और वो खट से बीतता है और उस समय पर इमरजेंसी मेजर्स (आपातकालीन उपाय) लेने होते हैं उसको बचाने के लिए। नहीं लोगे तो........
इट्स अ ट्रिमेंडस प्रोजेक्ट, रेज़िंग अ किड (ये एक ज़बरदस्त परियोजना है एक बच्चे का पालन पोषण करना)। रेजिंग ह्यूमैनिटी (मानवता को बढ़ाना) तो कुछ होता ही नहीं है व्हेन यू आर रेज़िंग अ किड डैट्स व्हेन यू आर रेज़िंग अ एंटायर ह्यूमैनिटी (जब आप एक बच्चे का पालन-पोषण कर रहे हैं तब आप पूरी मानवता का पालन पोषण कर रहे हैं)।
लोग कहते हैं न, ‘मानवता बदलनी है, मानवता ठीक करनी है,’ मानवता नहीं, वो जो बच्चा है न, एक बच्चा ठीक कर दो मानवता अपने आप ठीक होगी। मानवता को बर्बाद करने के ज़िम्मेदार माँ-बाप के अलावा और कौन हैं? और करनी है शादी तुरंत कूदकर।
प्रश्नकर्ता: मैं ये पूछना चाह रहा था कि आपने जो कहा वो समझ में आ रही है बात। लेकिन जो बच्चे हमारे स्कूल में चार-पाँच घंटा सिर्फ़ बिता रहे हैं, हमें सिर्फ़ वो पाँच घंटे के लिए मिलते हैं, उस पाँच घंटे के दौरान क्या हमारे पास कुछ भी नहीं है करने के लिए?
आचार्य प्रशांत: इतना जो मैंने बताया वो किसको बताया फिर? किताबें जो बता रहा हूँ वो किसके लिए बता रहा हूँ? उस पाँच घंटे में आपका जो भी करिकुलम (पाठ्यक्रम) वगैरह है उसको एक तरफ़ करिए, सबसे पहले उनको, उनका एक्सपोज़र दीजिए जो हीरोइक (वीर) रहे हैं, जो जानने लायक लोग हैं।
मैं क्या बता रहा हूँ, बच्चे को फ़ालतू की बातों का नहीं ऊँची-से-ऊँची बातों का एक्सपोजर दीजिए। मन में नाम होते हैं, जो ऊँचे-से-ऊँचे नाम हैं वो उसके मन में मौजूद होने चाहिए। आपको अगर अपने बच्चे की चेतना की दशा जाननी है तो उसे कहिए बीस लोगों के नाम लिखो। और उन बीस लोगों में अगर वो इतिहास की महान विभूतियों के नाम नहीं लिख रहा है तो बच्चा बर्बाद हो रहा है।
और बीस लोगों में अगर लिख रहा है रिंकू आंटी और फ़लाना चड्ढा और ये और वो, तो इसका मतलब गया, गया। भई, ये जिन लोगों ने अपना पूरा जीवन आहुत कर दिया, किसके लिए कर दिया? हमारे लिए कर दिया न। और हम सौभाग्यशाली हैं कि उनकी बातें हमें मिल हुई हैं, किस रूप में?
श्रोतागण: किताबों के रूप में।
आचार्य प्रशांत: वो उनके शरीर का खून हैं, वो उनके जीवन का सार है वो किताब। बच्चे को सिर्फ़-और-सिर्फ़ उस किताब के साथ जीने दीजिए। उसको बिल्कुल नहीं पता होना चाहिए कि बगल वाली पम्मी आंटी ने बैंगन में क्या डाला। तुम्हें क्यों पता हो, तुम्हें नाम भी नहीं पता होना चाहिए पम्मी आंटी का, नाम भी नहीं पता होना चाहिए।
बहुत होते हैं पाँच घंटे। देखिए, ऊँचाई का अपना आकर्षण होता है, है न, वासुदेव कृष्ण बोलते हैं। कृष्ण माने? जो खींच लेते हैं अपनी ओर। मोहन बोलते हैं, ऐसा करते हैं कि मन उधर ही खींच जाए। एक बार बच्चों को महानों के संपर्क में लाइए, महानता खुद खींच लेगी उसे ऊपर। एक बार उसे स्वाद लग गया न ठीक से, उसके बाद ये इधर-उधर की जो चिल्ल-पों होती है, इसको वो देखना खुद ही बंद कर देगा। उसको अच्छा ही नहीं लगेगा, बोलेगा, ‘ये क्या दिखा रहे हो मुझको, मुझे नहीं देखना, ये क्या बिग बॉस है, ये क्या दिखा रहे हो?’
आप उसको दिखाओगे ट्रेन में एडवेंचर (साहसिक कार्य) हो रहा उसे काकोरी कांड याद आएगा। वो कहेगा, ‘अगर ट्रेन की बात करोगे तो मुझे वो ट्रेन याद आ रही है। तुम एक बंद कमरे की बात करोगे तो मुझे सूर्या सेन याद आ रहे हैं। तुम अगर एक ज़बरदस्त जवान महिला की बात करोगे तो मुझे उनमें सेक्सुअलिटी नहीं दिखाई देगी, मुझे फिर क्रांतिकारी महिलाएँ हमारी याद आएँगी।’ कितनी ही लड़कियाँ थीं, प्रीतिलता से लेकर कल्पना तक, उसको ये नाम याद आएँगे।
आप उसे सेक्सुअलाइज़ (कामुक बनाना) भी कर नहीं पाओगे आसानी से क्योंकि उसके लिए फिर जवान लड़की का मतलब हो जाएगा प्रीतिलता वादेदर’ (भारतीय क्रांतिकारी)। वो कह ही नहीं पाएगा कि जवान लड़की माने आइटम गर्ल।
फिर बोल रहा हूँ, ‘कृष्ण, कृष्ण का मतलब ही होता है अट्रैक्शन (संकर्षण), पुल।‘ उसको सही दिशा में एक्सपोज़ करिए फिर कुछ समय बाद तो खुद ही उस दिशा में बह निकलेगा। बताया है न, मैं, मेरी आँखें ऐसे दर्द, सूज जाती थीं और किताब होती थी, मैं उसको पढ़ रहा हूँ, पढ़ रहा हूँ, एंबेसडर की लाइट जल रही है अंदर की और मैं उसको पढ़े जा रहा हूँ अँधेरे में। और गड्ढे भरी सड़क है, ऐसे-ऐसे हिल रही है लेकिन पढ़ रहा हूँ और सर दर्द हो रहा फिर मुझे उल्टी होती थी घर आकर पर नहीं छोड़ पाता था किताब। उसका इतना आकर्षण होता है।
उसकी जगह आप उनको वीडियो गेम दे रहे हो, वो वीडियो गेम में सूअर जाकर चिरई मार रहा है और बंदर ने जाकर के भालू के पिछवाड़े पर धौल जमा दिया, यही चल रहा है।
आ रही है बात समझ में?
बहुत लोगों को बात ये नहीं रुच रही होगी, बोलेंगे, ‘बस ये वन ट्रैक बात करते हैं बुक्स।‘ तो और जो करना है कर लो। अफ्रीका में एक झरना है, वहाँ ले जाकर के ऐसे टाँग से पकड़ के बच्चे को ऐसे-ऐसे पाँच बार करो तो जादू होगा, उस जादू के फल स्वरूप वो जागृत हो जाएगा। मैं तुम्हें क्या बताऊँ? क्या सुनना चाहते हो?
और बुक माने भी ‘हैरी पॉटर’ की नहीं बात कर रहा हूँ मैं। बहुत एक सोचा समझा हुआ एसोर्टमेंट (वर्गीकरण)।
लाइब्रेरी पीरियड होता था स्कूल में, मेरी क्लास टीचर थीं ज्योति मैम, उनसे अभी मैं गया था मिलकर भी आया। एक बार वो लाइब्रेरी पहुँच गईं, मैं पढ़ रहा हूँ, ‘यू आर नॉट सपोज़्ड टू रीड दिस’ (तुम ये नहीं पढ़ सकते)। लाइब्रेरी में भी, अब लाइब्रेरी में, स्कूल की लाइब्रेरी में है तो अच्छी ही किताबें होंगी पर उन अच्छी किताबों में भी ये विवेक, ये डिस्क्रीशन (तमीज़) रखना पड़ता है कि बच्चा कौन-सा पढ़ेगा।
इट्स अ प्रोजेक्ट, एंड ओनली व्हेन यू फील यू आर जेनुइनली कैपेबल ऑफ अंडरटेकिंग इट, शुड यू इनिशिएट इट (ये एक परियोजना है और केवल जब आपको लगे कि आप वास्तव में इस कार्य को करने में सक्षम हैं तो आपको इसे शुरू करना चाहिए)। मज़ाक नहीं है कि धकाधक-धकाधक अब बच्चा आ गया उसको ऐसे ‘हे हे हे, ये देखो, ये आया निकलकर, खिलौना है खिलौना’, झुनझुना बजा रहे हैं उसका।
एक चीज़ जुड़ गई है जो पहले उपलब्ध नहीं थी डॉक्युमेंट्रीज़ (वृत्तचित्र- एक तरह की फ़िल्म होती है जो वास्तविक जीवन से जुड़ी घटनाओं, विषयों, समस्याओं, या लोगों की जाँच करती है), उसको आप जोड़ सकते हैं। और ये बात में जितनी घर के तल पर बता रहा हूँ उतनी ही स्कूल के तल पर भी लागू होती है भई।
और ‘संगति,’ फिर से बोल रहा हूँ, संगति हमें जैसे बड़ों में सावधानी से रखनी पड़ती है, वैसे ही बच्चों में भी। बिल्कुल मत सोचिएगा कि पाँच साल का कोई बच्चा, अपने पाँच साल के साथी को बिगाड़ने की ताकत नहीं रखता, बिल्कुल रखता है। एक पाँच साल का बिगड़ा हुआ बच्चा भी घातक हो सकता है, वो पाँच और बच्चों को बिगाड़ सकता है, बिल्कुल बिगाड़ सकता है। संगति का खयाल वहाँ भी रखना होता है। ये नहीं कहना होता कि ये बच्चे ही तो हैं।
जो लोग मधुरता के आशिक हैं, उनको मेरी बातें पसंद नहीं आ रही होंगी। कह रहे होंगे, ‘ये तो कितनी कड़ाई करने की बात कर रहे हैं, बच्चे तो ऐसे ही हैं, पल जाते हैं, हमारा काम है पैदा करना।‘ दादी बोलती थी न, ‘बेटा तुम पैदा करो, पाल तो वो देता है’। ऐसे नहीं पल जाते।
आपके पास एक बच्चा आ रहा है, आपके बेटे का, बेटी का दोस्त, ठीक है, और वो आकर कह रहा है कि ‘आई नो द ब्रांड्स ऑफ ऑल द बिग कार मेकर्स, हे टोयोटा इज़ कमिंग विद दिस मॉडल, दिस, दैट’ (मैं सभी बड़ी कार निर्माताओं के ब्रांड जानता हूँ, टोयोटा का ये मॉडल या रहा है, ये वो)। उसको ये मत कहिए, ‘हाउ क्यूट, हाउ स्मार्ट’ (कितना प्यारा, कितना बुद्धिमान है)। बोलिए, ‘बेटा, लास्ट टाइम (अंतिम बार है),’ उसकी माँ को फोन मिलाइए और बोलिए, ‘इसे दोबारा मत भेज देना।’
पाँच साल का जो बच्चा ये करके बैठा हो कि मुझे तो सारे ऑटो मेकर्स (मोटर निर्माता) के नाम और ये और वो पता हैं वो आपके बच्चे के लिए अच्छी संगति नहीं हो सकता। बिगेस्ट ऑटो मेकर (सबसे बड़ी मोटर निर्माता) का नाम पता होना जेनरल नॉलेज (सामान्य ज्ञान) होता है, सारे ऑटो मेकर्स के नाम पता करना और सारे ब्रांड्स (मार्का) का पता करना और लेटेस्ट रिलीज़ेस (नवीनतम विमोचित) को पकड़कर रखना, ये फेटिश (अंधश्रद्धा) होता है, ये अबनॉर्मेलिटी (विकृति) है, ये डिजीज़ (बीमारी) है मन की।
और तब तो छोड़ देते हो कि वो दोनों अपना बैठे हुए हैं, टीटू और नीटू, और वो आपस में कुछ कर रहे हैं, नन्हें बच्चे खेल रहे होंगे। अरे, वो खेल गए, वो खेल रहे नहीं वो खेल गए। फिर कहते हैं, ‘हाय रब्बा! मैनू की पता था कि..........।‘
गुड टच, बैड टच (अच्छा स्पर्श बुरा स्पर्श) स्कूलों में चलता है न? वो बस शरीर का नहीं होता वो मन का ज़्यादा होना चाहिए। मन पर जो बैड टच है उसे रोको और मन को गुड टच दो बहुत सारे।
मैंने इतना पढ़ा, इतना पढ़ा कि मुझे पाँच प्रतिशत भी याद नहीं है मैंने कितना पढ़ा। क्योंकि ज़्यादातर जो पढ़ा वो मुझे समझ में ही नहीं आता था। जिन क्रांतिकारियों के नाम अब तो खो भी गए होंगे, गूगल करने पर भी मुश्किल से मिलें, उनकी पूरी-की-पूरी जीवनियाँ मेरे नाना ने रखी हुई थीं क्योंकि वो उस समय के थे। पुरानी, पुरानी किताबें, ऐसी कि पन्ने अगर पलटो तो पन्ने टूट जाएँ, सावधानी से न पलटो तो पन्ना ही टूट जाए, ऐसी किताबें।
और मैं, लंबी-लंबी दुपहरिया, पढ़े जा रहा हूँ, पढ़े जा रहा हूँ, पढ़े जा रहा हूँ। गर्मियों की छुट्टियाँ, खूब गर्मी है, क्या करोगे? कमरे के अंदर हो, अपना पढ़ रहे हो। उसके बाद एक वितृष्णा जगती है, वैराग्य जगता है दुनिया जैसी है उसके प्रति।
आप देखते हो, एक इंसान की ज़िंदगी को पढ़ते हो और आप उसके साथ हो, कई घंटों तक आप उसके साथ हो, उसके बाद आप किताब को रखते हो और अपने आसपास की दुनिया को देखते हो, उससे आता है वैराग्य। आप कहते हो, ‘ये दुनिया अगर ऐसी है तो नहीं चाहिए, ये दुनिया वैसी क्यों नहीं हो सकती जैसा ये इंसान था?’ तब अनासक्ति आती है और तब आप प्रेम का भी सही अर्थ जान पाते हो।
ये दुनिया बहुत गंदी है, बहुत, बहुत बचाना पड़ता है बच्चे को, उसको साफ़ रखना है तो। बहुत-बहुत गंदी है दुनिया ये। दुनिया में चल क्या रहा है मैं उससे नावाकिफ़ होने को नहीं कह रहा हूँ, मैं इग्नोरेंस (अनभिज्ञता) की वकालत नहीं कर रहा हूँ, मैं कह रहा हूँ, ‘उसमें पार्टिसिपेट (हिस्सा लेना) मत करने दो।' नोइंग कैंसर इज़ वन थिंग, हैविंग कैंसर इज अनदर थिंग (कैंसर को जानना एक बात है और कैंसर होना दूसरी बात है)। उसको पार्टिसिपेट मत करने दो ये सब जो चल रहा है।
और एक काम तो बिल्कुल मत करना, शादियों में बच्चों को लेकर मत जाओ। क्योंकि वहाँ जाकर तुम खुद मशगूल हो जाते हो, तुम्हें नहीं पता होता बच्चा अब कहाँ है। होता है कि नहीं? बच्चे को तो छोड़ देते हो, ‘वो बाकी बच्चों के साथ खेल रहा होगा’ और जितनी बर्बादी शादी के चार दिन के घर में हो जानी है बच्चे की उतनी उसकी पूरे साल न हो। बेकार के कर्मकांडों में बच्चे को मत बैठाओ, तुम्हारी रूढ़ियाँ, तुम्हारे अंधविश्वास, तुम्हें चलाने हैं तो चलाओ, बच्चे को क्यों उसमें घसीट रहे हो?
प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर! मैं दिल्ली से हूँ, मैं स्कूल के बच्चों के साथ काम करती हूँ, अब प्रॉब्लम मुझे सर ये महसूस हो रही है, जगहें बदली, गाँव में जाकर रही, शहर में वापस आई अपने बच्चों को लेकर, उन तक तो मेरा कंट्रोल है मैं उनको बुक्स दे रही हूँ लेकिन अल्टीमेटली (आखिरकार) वो स्कूल जाते हैं।
मैंने होम स्कूलिंग भी सर ट्राई (कोशिश) किया बट आपने कहा कि अविद्या देनी भी ज़रूरी है आप घर तक नहीं रख सकते, तो बाहर भेजना शुरू किया। मैं एज़ अ मदर (एक माँ के रूप में) जो कर सकती हूँ, उनके टीचर्स के साथ कोऑर्डिनेट (समन्वय) करके, बुक्स देकर, वो अपना रोल प्ले (भूमिका निभाना) कर रही हूँ।
अब नंबर टू जो मैं बच्चों के साथ काम कर रही हूँ। लेकिन सर अभी तक जितने भी सेशन (सत्र) लिए हैं, मुझे यही दिखता है कि माहौल उनके घरों का अलग है, मैं जो एफर्ट (प्रयास) डालकर, शायद बहुत जल्दी देखने की कोशिश कर रही हूँ, मैं किस डायरेक्शन (दिशा) में जाऊँ मुझे समझ ही नहीं आ रहा। क्योंकि वो ऐसी फैमिली से बच्चे आते हैं, माहौल उनका खराब है, वो टीचर्स भी कहने लगे कि आप अपना एफर्ट वेस्ट (बर्बाद) कर रहे हो।
आचार्य प्रशांत: एक बच्चे को ही अगर आपने ठीक निखार दिया तो वो जगत का प्रकाश बन जाता है। ये सोचना कि आप पचास-साठ या सौ बच्चों के साथ बहुत कुछ यकायक कर लोगे, इसमें यही पता चलता है कि आप इस काम की गुरुता और महत्ता को कम आँक रहे हो। जब हमें कोई काम थोड़ा छोटा लगता है न तभी हम ये उम्मीद पालते हैं कि जल्दी पूरा हो जाएगा। जब कोई छोटा होता है तभी लगता है न जल्दी पूरा हो। ये काम इतना बड़ा है कि ये जल्दी पूरा नहीं होगा।
मैं कह रहा हूँ, ‘एक बच्चे को भी अगर आपने निकाल दिया,’ स्वामी विवेकानंद बोलते थे न, ‘मुट्ठी भर जवान लोग चाहिए,’ उन्हें उतने भी नहीं मिले। अगर देश में दस-बीस भी ऐसी माएँ होतीं, दस-बीस भी ऐसे पैदा कर पातीं तो ये पूरा राष्ट्र बदल जाता। तो यहाँ मास प्रोडक्शन ऑफ़ नचिकेता (बड़े पैमाने पर नचिकेता के उत्पादन) की तो बात हो ही नहीं रही न, वो बहुत दूर की कौड़ी है। हम अपना एक बच्चा संभाल लें, तो काम हो जाएगा।
हाँ उस एक बच्चे को संभालने में हमें शिक्षा व्यवस्था, स्कूल, स्कूल के टीचर्स, इनकी सबकी मदद चाहिए होगी। पर आपका जो, अगर आप माँ हैं तो आपका जो ध्यान है, फोकस (केंद्र) है, वो एक-दो बच्चों पर होना चाहिए। और उन एक-दो बच्चों के लिए आप कहते हो, ‘स्कूल जाते हैं तो डिस्ट्रक्ट (विचलित) हो जाते हैं,’ स्कूल जा रहे हो तो टेक्स्ट बुक (पाठ्य पुस्तक) के लिए जा रहे हो और टेक्स्ट बुक्स प्यारी होती हैं।
जितना हम दुनिया भर के विविड (ज्वलंत) तरीके के लिटरेचर से सीखते हैं, जितना भी हमारा दुनिया भर का साहित्य है, उतना ही, आपने अविद्या कहा, उतना ही हम स्कूली पाठ्यक्रम की किताबों से भी सीखते हैं। तो कोई स्कूल जा रहा है बच्चा, एक के बाद एक तो वहाँ पीरियड्स होते हैं, उसे हाई एकेडमिक परफॉर्मेंस (उच्च शैक्षणिक प्रदर्शन) की तरफ़ धकेलिए न।
और हाई परफॉर्मेंस (उच्च प्रदर्शन) ये नहीं कि कॉम्पिटेटिव (प्रतिस्पर्धी) हो जाएँ, इसको बीट (हराना) करना है उसको बीट करना है। कोई भी सवाल है, वो तुम्हारा गलत क्यों होना चाहिए। बात ये नहीं कि तुम्हारी रैंक क्या आई? परसेंटेज कितने आए? बात ये है कि इस सवाल में ऐसा क्या था कि तुमसे गलत हो गया? तो स्कूल में कौन कंपेनियंस (साथी) हैं? टेक्स्ट बुक्स। घर में कौन कंपेनियन है? अच्छा माहौल, माँ-बाप, अच्छी संगति, अच्छी किताबें, अच्छी 'डॉक्यूमेंट्रीज़'। इस पूरी प्रक्रिया में, मैं फिर से बोल रहा हूँ, बहुत याद रखना पड़ेगा कि दुनिया बीमारी है। और दुनिया से बच्चे को बहुत बचाना पड़ेगा। क्योंकि हम खुद उस बीमारी के आशिक होते हैं, तो हमें ये समझ में ही नहीं आता कि इससे बच्चे को बचाना है, हम बल्कि अपनी ओर से ही बच्चे को और वो बीमारी लगा देते हैं।
बच्चे को ऐसे बड़ा करना होता है कि दुनिया का एक भी छींटा उस पर पड़ने न पाए। और ये हरक्यूलिन टास्क (अत्यंत कठिन कार्य) है। एक ऐसा बच्चा आपने निकाल दिया तो कह तो रहा हूँ न कि वो सूरज की तरह चमकता है, पता नहीं कितनों को रोशनी दे देगा। आप एक या दो पर ध्यान केंद्रित करें। हाँ, उसके लिए जिसकी मदद चाहिए, वो मदद ले लीजिए।