प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मेरा सवाल दहेज प्रथा पर है। बाल विवाह बन्द करवाया गया, पर दहेज प्रथा को लेकर अभी भी समाज वहीं खड़ा है। मैंने ठान लिया है कि मैं दहेज नहीं लूँगा — पूरा समाज, परिवार आज एक तरफ़ खड़ा है और मैं अपने उसूल के साथ। हिम्मत हुई आपकी वीडियो देखकर कि आपने भी दहेज के ख़िलाफ़ बोला है।
ये भी एक समाज की कुरीति है। राजा राममोहन रॉय ने बालविवाह बन्द कराया बहुत सारी कुरीतियाँ ख़त्म हुईं। ये कब ख़त्म होगी हमारे जीवन से?
आचार्य प्रशांत: जब प्रेम आ जाएगा।
प्र: परिवार, रिश्तेदार सब एक ही राग में गा रहे हैं और वो उसको सिद्ध भी कर रहे हैं कि नहीं, ये सही है — मैं अकेले खड़ा हूँ और आप मेरे साथ हैं।
आचार्य: जब प्रेम आ जाता है, चेतना आ जाती है, ज़िम्मेदारी आ जाती है तो तुमसे ये करा ही नहीं जाएगा कि तुम किसी के साथ रहने के लिए या जीवन बिताने के लिए उससे पैसे माँगो। दहेज सीधे-सीधे यही तो है — आप एक व्यक्ति से कह रहे हो कि मैं तुम्हारे साथ तब रहूँगा, जब तुम मुझे पहले पैसे दोगे। ठीक है?
जब होश एक सीमा पर पहुँच जाता है, एक तल पर और जब दूसरे के प्रति शोषण का नहीं, प्रेम का भाव होता है और जब इंसान को अपनी गरिमा की कुछ परवाह होती है, तब ये करना असम्भव हो जाता है कि पैसे माँगो। कि मैं तुम्हें अपने घर में तभी आने दूँगा या मैं तुम्हारे घर में तभी जाऊँगा या तुम्हें अपनी पत्नी तभी घोषित करूँगा या तुम्हारे साथ शारीरिक सम्बन्ध तभी बनाऊँगा जब मुझे पैसे मिलेंगे। ये एक तरीक़े की वेश्यावृत्ति है कि नहीं है?
पुरुष स्त्री से पैसे माँग रहा है और पैसे लेकर के फिर उससे वो सम्बन्ध बना रहा है। है न?
प्र: लेकिन पूरा पढ़ा-लिखा समाज इसमें शामिल है।
आचार्य: अरे, कर रहे हैं उससे क्या हो जाता है जो बात है, सो है! इतनी बार तो मैंने कहा है न कि स्त्री पैसा लेकर के पुरुष से सम्बन्ध बनाये तो उसे वैश्या बोलते हैं और पुरुष जब पैसा लेकर के स्त्री से सम्बन्ध बनाता है तो उसे दूल्हा बोलते हैं।
प्र: फिलहाल मैं अपने उसूलों के साथ ही खड़ा हूँ और मैंने ठान लिया है कि मैं दहेज नहीं लूँगा।
आचार्य: हाँ, तो अच्छा करा है, इसमें अपनेआप को बहुत विशेष मानने की भी ज़रूरत नहीं है, ये तो मनुष्य होने का न्यूनतम मूल्य है जो तुमको चुकाना पड़ेगा, कुछ बहुत बड़ा नहीं कर दिया तुमने! ये कोई बहुत बड़ा विद्रोह या क्रान्ति भी नहीं हो गयी कि मैं दहेज नहीं लूँगा, ये तो, न्यूनतम, कम-से-कम वो चीज़ है जो हर खुद्दार इंसान को करनी ही पड़ेगी। और अगर तुम ऐसे हो कि दहेज वगैरह लेते हो, तो तुम्हें तो मेरे सामने भी बैठने का अधिकार नहीं है। तो क्रान्ति होनी तो अभी शेष है, विद्रोह तो यहाँ से शुरू होता है, ये तो विद्रोह का ‘क ख ग’ है कि भाई, दहेज वगैरह नहीं लेता मैं! ये कोई बहुत बड़ी बात नहीं हो गयी, असली चीज़ तो आगे आती है।
मुझे हैरत होती है, वो लड़कियाँ कौनसी होती हैं जो किसी ऐसे के साथ बँधने को तैयार हो जाती हैं जिसने उनसे पैसे लिये हैं! ये कैसी लड़कियाँ होती हैं! किस ग्रह से आती हैं! वो चलता नहीं है कि कौन हैं ये लोग कहाँ से आते हैं! (श्रोतागण हँसते हुए)
प्र२: लेकिन आचार्य जी, जो ले चुके हैं उनका क्या?
आचार्य: लौटा दो! (श्रोतागण हँसते हुए) पूछ रहे हैं ‘जो ले चुके हैं उनका क्या?’ अगर भीतर थोड़ा सा भी आत्मसम्मान है तो तुरन्त लौटा दो!
श्रोता: लेकिन आचार्य जी, ये तो बचपन से ही सिखाया जाता है।
आचार्य: तुम अभी बच्चे हो?
श्रोता: नहीं-नहीं, मैं आगे बढ़ रहा हूँ उसमें, हमारे यहाँ घरों में जब लड़के पैदा होते हैं — जैसे, जब मेरा बेटा पैदा हुआ था, तो काफ़ी रिश्तेदार — क्योंकि हम लोग बनिये हैं, हम लोगों ने शादी-वादी को ज़्यादा बिगाड़ रखा है, तो हमारे यहाँ तो जैसे ही किसी के घर लड़का होता है तो बात ही ऐसे करते हैं कि एक करोड़ के आसामी आयी है!
मतलब, वो दिमाग में बचपन से ही ये चीज़ किसी तरीक़े से भर दी जाती है।
आचार्य: भ्रष्ट! दूषित! खोखला! जर्जर! सड़ा हुआ! आगे की गालियाँ ज़्यादा आगे की हो जाऍंगी! (श्रोतागण हँसते हैं)
ऐसा हमारा परिवार और समाज है। और दया आती है उस लड़के पर जिसको पैदा होते ही एक करोड़ की आसामी की तरह देखा जा रहा है — क्या उसकी चेतना जाग्रत करी जाएगी! क्या उसकी परवरिश करी जाएगी! उसको तो वैसे ही बड़ा करा जाता है, जैसे कसाई अपने बकरे को बड़ा करता है कि एक दिन इसको वसूलूँगा!
इन्वेस्टमेंट है, एक निवेश है, एक दिन इसमें से ब्याज-समेत वसूली होगी! तो क्या उस लड़के के साथ न्याय कर पाऍंगे उसके अभिभावक, अगर उसको वो वैसे देख रहे हैं? ये मुद्दा हमें कब का पीछे छोड़ देना चाहिए था — बहुत ताज्जुब की बात है, ये मुद्दा आज भी ज्वलंत है, ये मुद्दा अभी बचा कैसे हुआ है समझ में नहीं आता!
वैसे तो लड़कियाँ बड़ी तोप बन गयी हैं! फ़ेमिनिज़्म आ गया है, क्रान्ति कर रही हैं! ये नारीवाद, फ़लानावाद, उदारवाद! और शादी के समय दहेजवाद नहीं ख़त्म करा जा रहा है इनसे?
मैंने तो सुना है, बहुत सारी लड़कियाँ हाेती हैं जो ख़ुद बापूजी पर दबाव बनाती हैं कि और ज़्यादा दो, क्योंकि जितना ज़्यादा दोगे, ससुराल में उतनी मेरी इज़्ज़त होगी! ये कौनसा नारीवाद है? ये कौनसा नारीवाद है जो दहेज को स्वीकार कर लेता है? या मॉडर्निटी बस इसी में है कि नंगे होकर सड़क पर घूमना है? सारी आधुनिकता बस छोटे कपड़ों में ही समा जाती है? दहेज का विरोध करने की हिम्मत नहीं होती?
अच्छा, कैसे हो जाता है? मान लो, लड़की भी कमा रही है, लड़का भी कमा रहा है। कई बार तो हो सकता है लड़की ज़्यादा भी कमाती हो लड़के से — तो दहेज का तुक क्या बना? पहले दहेज का एक आर्थिक तर्क होता था, एक इकोनॉमिक लॉजिक था, वो ये था कि लड़की कुछ करती-कराती तो है नहीं, गाय है! उसका काम है बस बच्चे जनना — तो जब तक पिता के घर में थी तो पिता उसका खर्चा उठा रहा था, बोझ की तरह थी, अब पति के घर में जाएगी तो वो खर्चा जो पहले पिता उठाता था, अब वो पति के ऊपर आ गया।
तो पिता एक तरह के मुआवज़े, कॉम्पेनसेशन की तरह पैसे देता था कि भाई, अब मेरा खर्चा बचने लगा, क्योंकि गाय अब मैंने तुम्हारे यहाँ बाँध दी, लेकिन अब तुम्हारा ख़र्चा शुरू हो जाएगा, तो ये लो मेरी ओर से मुआवज़े का पैसा!
लोग पहले इस तरीक़े का कुतर्क देते थे दहेज के पक्ष में कि दहेज का एक इकोनॉमिक लॉजिक होता है, अब तो वो भी नहीं रहा! अब तो कमाती भी हैं या कम-से-कम कमाने की सामर्थ्य रखती हैं — तो अब किस तर्क पर दहेज देते हो? (श्रोतागण कुछ उत्तर देते हुए)
श्रोता: कल्चर!
आचार्य: कल्चर?
श्रोता: हमारे समाज में तो यही बोला जाता है कि लड़कियों को ज़्यादा पढ़ायें नहीं, क्योंकि अगर पढ़ाऍंगे तो फिर उनकी डिमांड्स (मॉंगें) बढ़ जाती हैं। चूॅंकि वो नहीं पढ़ाते इसीलिए — जैसे माँ-बाप अपनी लड़कियों की शादी के लिए पैसे ज़्यादा जोड़ते हैं और पढ़ाई के लिए कम। जैसे कि अगर बेटी कहे — जैसे मेरी कज़िन ही कहती है कि उसको लंदन जाकर पढ़ना है तो वो मना कर देते हैं।
आचार्य: ऐसे घर की कोई लड़की है तो उसके लिए मेरे पास एक ही गूढ़ दर्शन है — पूरा वेदान्त उसको बताये देता हूँ दो शब्दों में! ज़बरदस्त सूत्र है समझ लेना! इसका मूल संस्कृत में था मैं अभी हिन्दी में बता रहा हूँ — भाग जाओ! (श्रोतागण का हँसते हैं)
‘भागो’!
श्रोता: आचार्य जी, वो बोलते हैं, ‘सबने लिया तुम नहीं लोगे तो…
आचार्य: दहेज मत लो, माईक तो ले लो! (श्रोतागण हँसते हैं)
प्र: आचार्य जी, मैंने जब विरोध किया दहेज का कि मैं नहीं लूँगा, उस समय मैं इतना स्टेबल (सामर्थ्यवान) भी नहीं था — सामने वाला परिवार भी उतना स्टेबल नहीं है और सबने यही बोला, चाहे क़रीबी हो, दोस्त हो, ‘अरे, हमने तो लिया है! आज हम देखो स्टेबल हैं, उसी पैसे से हमने धन्धा कर लिया। अरे, तुम नहीं लोगे तो समाज में क्या बोलोगे! कि क्या मिला वहाँ से!’ और ये सब तो बहुत पहले से चला आ रहा है, वो लिये, उनके चाचा लिये, मामा लिये, फूफा लिये…।
आचार्य: तो बोल दो कि तुमने लिया है, वो तुम्हारा बैंक खाता चेक करने आऍंगे क्या? ऐसे हैं जिनको बहुत खुजली हो रही है उनको बोल दो, ‘हाँ, लिया है’!
प्र: मैंने उन्हें एक जवाब दिया था।
आचार्य: पच्चीस करोड़ लिया!
प्र: माफ़ी चाहूॅंगा बीच में बोल रहा हूँ, मैंने अपने घर वालों को एक जवाब दे दिया था कि आप जितना लोगे उतना मैं उनको दे दूँगा और मैं उनको कैसे दूँगा वो मैं देख लूँगा, आज मैं इतना स्टेबल हूँ कि दे सकता हूँ।
आचार्य: जवाब देने से काम चल जाता हो तो दे दो इस जवाब को, परेशान क्यों हो! वैसे जवाब देने की भी तुम्हारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है, तुम्हारी कहीं से कोई बाध्यता, कोई ऑब्लिगेशन नहीं है कि तुम दूसरों को समझाओ कि तुमने दहेज क्यों नहीं लिया।
तुम्हारा मसला है, तुम लो नहीं लो — वो कौन होते हैं पूछने वाले? ‘तुम्हारा क्या हक़ है? कल को तुम कुछ भी पूछोगे मेरा और मेरी पत्नी के दरम्यान क्या चल रहा है? मैं क्यों बताऊँ? अपने काम से काम रखो!’ और कोई सिर पर ही चढ़ा आ रहा हो तो बोल रहा हूँ न, कह दो उसको, ‘पच्चीस करोड़ लिया है और बहुत ख़ुश हूँ! और तुम उधार माँगोगे तो दूँगा नहीं।’ (श्रोतागण हँसते हैं)
प्र: धन्यवाद!
आचार्य: लोग किस सीमा तक घुस सकते हैं जानते हो? अभी राजस्थान के ही — आपमें से कौन है राजस्थान का? अभी राजस्थान के ही किसी समुदाय को लेकर के आया है, घटना आयी है वहाँ पर एक कुकड़ी या कुड़की करके प्रथा चलती है, इनके पास है रोहित को मैंने फॉरवर्ड करा था जब मुझे मिला था। कहाँ हैं? उदित को भी पता है, उसको भी भेजा था।
तो वो प्रथा ये है कि और ये राजस्थान में ही है कि वो लोग, जो नवविवाहिता होती है उसके बिस्तर पर सफ़ेद चादर बिछाते हैं और कहते हैं, ‘ये लाल होनी चाहिए और अगर लाल नहीं है, तो इस पर पाँच-दस लाख का हर्जाना लगाया जाएगा।’ और ये अर्थदंड जो लगता है ये किसके पास जाता है सारा पैसा? वो जो खाप के चार-पाँच दबंग होते हैं उनके पास वो पैसा चला जाता है।
और ये चली आ रही थी प्रथा सैकड़ों सालों से। अभी दस-पन्द्रह दिन हुए हैं, एक लड़की ने इस पर आवाज़ उठायी और जाकर के एफ़आइआर दर्ज़ करा दी, तो ये बात अब मीडिया में आ रही है और अब वो जो दबंग थे जो ये सब कराया करते थे, वो लोग कह रहे हैं, ‘नहीं-नहीं हमारे यहाँ तो ऐसा कुछ होता ही नहीं’।
और कहते थे कि अगर — मतलब, समाज कहाँ तक घुस सकता है एक नारी के पूरे शरीर में ही! कहते थे, ‘अगर वो चादर लाल नहीं हुई है तो तुमको उसके बदले दो और परीक्षाएँ होती हैं दोनों में से एक पास करनी पड़ेगी! एक होती थी जल परीक्षा और एक अग्निपरीक्षा।
जलपरीक्षा ये है कि एक तालाब में उसको कहते थे, ‘पूरा अन्दर तक घुस जाओ, सिर भी अन्दर चला जाए और वही जो खाप का ही कोई दबंग होता था, वो सौ क़दम चलेगा तालाब के इर्द-गिर्द और सौ क़दम जब तक वो चलेगा, तब तक तुम्हारा सिर नीचे रहना चाहिए, अगर साँस लेने के लिए बाहर निकाल दिया तो सिद्ध हो जाएगा कि तू कुलटा है, व्यभिचारिणी है और फिर तेरे घर वालों से दस-बीस लाख हम वसूलेंगे’!
सारा खेल पैसों का! ‘फिर तेरे घर वालों से पैसे वसूलेंगे!’ और दूसरी जो अग्निपरीक्षा होती थी वो ये होती थी कि तेरे हाथ में एक तपता हुआ तवा रख देंगे और तपता हुआ तवा रखकर तुझे पाँच या सात क़दम कुछ चलना है, अगर तू चल ली सात क़दम और तवा छोड़ नहीं दिया हाथ जलने पर, तब तो पतिव्रता और तू — सिद्ध हो जाएगा कि शीलवंती है नहीं तो फिर से और ज़्यादा तेरे पर हम हर्जाना लगवाऍंगे!
दुनिया बिलकुल तुम्हारे घर में, तुम्हारे व्यक्तिगत मसलों में, तुम्हारे बिस्तर में, तुम्हारे शरीर के अन्दर घुस आएगी! तुम इनको कितनी अनुमति दे सकते हो? कहीं पर तो एक मर्यादा की रेखा खींचने पड़ेगी न कि इससे ज़्यादा मत पूछना! न तुम्हारे लिए पूछना उचित है, न हमारे लिए बताना उचित है।
कुछ सवाल ऐसे हैं जो नहीं करे जाने चाहिए — दो लोगों का मसला है वो देख लेंगे आपस में। हाँ, हम तुमसे सलाह माँगने आयें, तो अलग बात है। पर, हमने तुमसे पूछा क्या! पूछा नहीं तो क्यों आ रहे हो मुँह खोलने?
इतना क्यों तुम परेशान हो रहे हो? और इसमें इतना हैरान-परेशान, रोने-धोने की क्या बात है! क़ाबिल आदमी हो, पढ़े-लिखे हो, कमाते हो, इतना दबाव अनुभव ही क्यों कर रहे हो समाज का? शिक्षा इसीलिए मिलती है न! “या विद्या सा विमुक्तये’ जो मुक्ति दे वही विद्या है”। तो तुमने शिक्षा क्यों ली, जब तुम्हें मुक्ति ही नहीं मिल रही है, इन सब पचड़ों से?
आदमी शिक्षा हासिल करता है, कमाना-धमाना शुरु करता है, संसार में शक्ति अर्जित करता है इसीलिए ताकि मूर्खताओं से आज़ाद हो सके। शिक्षा, नौकरी सब पाने के बाद भी अगर तुम आज़ाद नहीं हो रहे हो तो सब व्यर्थ गया तुम्हारा! इतना नहीं लोगों को सिर पर चढ़ाते, सिर पर सिर्फ़ एक चढ़ सकता है उसको ‘सत्य’ बोलते हैं। चाहे उसको ऊपर वाला बोल लो, चाहे अन्दर वाला बोल लो। सिर्फ़ एक को हैसियत देनी चाहिए कि सिर पर चढ़कर बैठ! समाज को नहीं ये अधिकार दे देते कि सिर पर चढ़कर बैठ जाए!
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