सनातन धर्म: एक कविता व आखिरी परिभाषा (बड़ा कौन- संविधान,विज्ञान या अध्यात्म?) ||आचार्य प्रशांत(2023)

Acharya Prashant

32 min
137 reads
सनातन धर्म: एक कविता व आखिरी परिभाषा (बड़ा कौन- संविधान,विज्ञान या अध्यात्म?) ||आचार्य प्रशांत(2023)

आचार्य प्रशांत: अद्वैत वेदान्त झूठ नहीं बोल सकता इसलिए बहुत प्रसिद्ध नहीं हो पाया। सम्मानित बहुत हुआ, प्रचलित नहीं हो पाया। झूठ बोलना नहीं जानता। बाक़ी इंसान का ऐसा है कि वो दर्शन के नाम पर भी झूठ ही चलाता है। अद्वैत अकेला होता है जो झूठ बोलने वाले की गर्दन पकड़ लेता है। वो बोलता है, ‘यही तो है’, वो बोलता है, ‘जब तक कोई बोलने वाला है, तब तक सच बोला नहीं गया।‘ तो सच सिर्फ़ तब बोला जाएगा जब ये जो बोल रहा है, इसकी गर्दन ही मरोड़ दो। तो अब झूठ कहाँ से आएगा? जब न सच आ सकता हो न झूठ आ सकता हो सिर्फ़ तब सच आया। वरना तो जब आपने झूठ बोला तो झूठ बोला ही, जब आपने सच बोला तब भी झूठ बोला।

सच सिर्फ़ एक दशा में सम्भव है: कुछ नहीं बोला। कैसे नहीं बोला? क्योंकि भाई! कर्ता ही कर्म है तो वक्ता ही वाक्य है। वाक्य अगर हटाना है तो ये वक्ता ही हटाओ। तो अद्वैत वेदान्त अकेला है जिसमें झूठ हो नहीं सकता क्योंकि उसमें झूठ बोलने वाला रह ही नहीं जाता। कहता है अगर अभी कुछ भी बचा हुआ है, भले ही कितना भी सच बोल रहा हो, मामला गड़बड़ है।

बाक़ी सब दर्शन किसी न किसी सच पर जाकर रुक जाते हैं। अद्वैत वेदान्त मौन पर जाकर रुकता है। और जो आपका सच होगा, इस बात को लाओत्सु ने बड़े प्यारे तरीक़े से कहा है न, “जो आपका सच होगा, उससे बड़ा कोई झूठ हुआ है आज तक?” जब आप बोलो, ”इट इज़ माय ट्रुथ (ये मेरा सच है)”, उससे बड़ा कोई झूठ होता है? ’माय ट्रुथ’ माने आपके अनुभव का सत्य और अनुभव का सत्य माने अनुभोक्ता आश्रित सत्य, उससे बड़ा क्या झूठ होगा! अनुभव का सत्य माने अहंकार का सत्य, उससे बड़ा क्या झूठ होगा!

अद्वैत वेदान्त तो आपका पूरा समूल नाश करता है। क्या हुआ प्रश्नकर्ता का? उसका उन्मूलन हो गया — मूल से उखाड़ दिया गया; यही हुआ, कुछ नहीं बचा — न सच बचा न झूठ बचा।

क्या करने आये? झूठ हटाने आये हो, झूठ हटाने का काम तो अच्छा लगता है तो सब करते हैं। इंसान वो चाहिए जो सारे सच हटा दे। अधर्म हटाने का काम तो अच्छा लगता है, वो तो सब करते हैं। दर्शन वो चाहिए जो धर्म को ही हटा दे, तब आती है बात। जो ग़लत है उसको तो हटाना बड़ा आकर्षक लगता है। सब खड़े हो जाते हैं नैतिक लोग, ग़लत है हटा दो। सूरमा वो है जो उसको हटाये जो अच्छा भी लगता है।

जो कुछ भी आपको ठीक लगता है, अच्छा लगता है, ऊँचा लगता है, शुभ लगता है – उसको जो हटा दे, वो है सच्चा सेनानी।

अहंकार आप जिस भी चीज़ को समझते हैं उसकी तो आप सदा भर्त्सना करते ही रहते हैं, करते हैं न? आम भाषा में कहते हैं, ‘अहंकार बुरी बात है।‘ किसी की निन्दा करनी हो तो कहते हैं, ‘ऐ अहंकारी।‘ तो दर्शन वो चाहिए जो अहंकार को ही नहीं आत्मा को भी हटा दे। क्योंकि अहंकार की तो सब निन्दा कर लेते हैं, हमें वो दर्शन चाहिए जो आत्मा को भी हटा दे। कौनसी आत्मा? ‘मेरी आत्मा।‘ जब ‘मेरी आत्मा’ हट जाती है तब जो शेष रहता है, उसको आत्मा बोलते हैं। जब ‘मेरा सत्य’ हट जाता है तब जो शेष रहता है, उसको सत्य बोलते हैं।

तो अहंकार को हटाने वाले तो सब दर्शन खड़े हुए हैं। कोई धर्म लीजिए, कोई दर्शन लीजिए, सब अहंकार का विरोध करते हैं। आप नहीं ला पाएँगे खोज करके एक भी ऐसा पंथ दुनियाभर में कहीं से भी, इतिहास से कहीं भी कि जिसने अहंकार को कहा हो कि वाह! क्या बढ़िया बात है। अहंकार का तो सब विरोध करते हैं। हमें वो चाहिए जो आत्मा को हटाता हो, झूठी आत्मा को। और झूठी आत्मा ही तो वो जगह है जहाँ अहंकार छिपकर बैठा रहता है। तो आत्मा, 'मेरी आत्मा', इसको हटाना बहुत ज़रूरी है। जबतक ‘मेरी आत्मा’ नहीं हटेगी, अहंकार को ठिकाना मिलता रहेगा।

आज इन्होंने (स्वयंसेवी को सम्बोधित करते हुए) दिखाया, तो मैं ख़ुद थोड़ा उसमें अवाक् सा रह गया था कि क्या है। मेरी ही लिखी हुई, सत्रह की उम्र थी मेरी, तब की एक कविता है। असल में उसने जो लिख रखा था उसमें उसने लिख‌ रखा था दिसंबर पंचानवे, ऐसे। मैंने कहा, “पंचानवे माने मैं कितने साल का?” बोले, “सत्रह साल का।“ मुझे भी थोड़ा झटका सा लगा, सत्रह साल में मैं क्या लिख रहा हूँ! सत्रह साल में भी वही लिख रहा था जो मैंने अभी-अभी आपसे बोला। वो चीज़ बहुत ज़रूरी है। अधर्म को तो सब हटाते हैं, धर्म को हटाना बहुत ज़रूरी है। कौनसा धर्म? ‘मेरा धर्म’।

आचार्य जी कविता सुनाते हैं:

"तलाश है एक मसीहा की एक मसीहा ऐसा पुरुषार्थ का धनी जो प्रेरित करे न कोई नया धर्म, न समाज, न व्यवस्था अपितु प्रतिपादित करे मात्र एक सिद्धांत जिसके बाद कोई मानव-कृत धर्म रहे ही नहीं।"

~ आचार्य प्रशांत द्वारा दिसंबर १९९५ में लिखित कविता

तो एक मसीहा ऐसा चाहिए जो सारे मानव-कृत धर्मों को हटा दे। एक ही धर्म बचे और वो जो एक ही धर्म है, जो मानव-कृत नहीं है, उसको ही सनातन कहते हैं। बाक़ी जितने मानव-कृत धर्म हैं, उनमें कुछ नहीं रखा है कि इस इंसान ने धर्म शुरू करा, इसने ये किया, वो किया। वो क्या है? वो कुछ नहीं है। वो तो काल की धूल है, कभी अगर शुरू हुए थे किसी इंसान के द्वारा, तो फिर कभी समाप्त भी हो जाएँगे; उसमें कुछ नहीं रखा है।

मानव-कृत धर्मों का हटना बहुत ज़रूरी है, और वो धर्म आवश्यक नहीं है कि कोई औपचारिक आयोजित धर्म ही हो। हर व्यक्ति अपने लिए जो लक्ष्य निर्धारित करता है, जो कर्तव्य बनाता है, वही तो उसका धर्म हो जाता है न कि ‘मेरा धर्म है ये काम करना’, क्यों? क्योंकि मेरा ये स्वप्न है, अपने सपनों को साकार करना मेरा धर्म है। तो ये जो मानव-कृत धर्म है यही स्वप्न है, यही कल्पना है और इसको हटाना ही वास्तविक धर्म है। वही सनातन है, और नहीं कुछ। तो

"तलाश है एक मसीहा की एक मसीहा ऐसा पुरुषार्थ का धनी जो प्रेरित करे न कोई नया धर्म, न समाज, न व्यवस्था अपितु प्रतिपादित करे मात्र एक सिद्धांत जिसके बाद कोई मानव-कृत धर्म रहे ही नहीं।"

समझ में आ रही है बात?

आत्मा के लिए एक शब्द है — 'अकृत'। जैसे प्रकृति होती है न, तो प्रकृति से पूरा भेद दर्शाने के लिए अकृत, जिसको किसी ने बनाया नहीं। जो असली है वो वही होगा जिसको किसी ने बनाया नहीं, और जिसको किसी ने बनाया है वो बनाने वाले से ऊपर का नहीं हो सकता। तो आपके सपनों को आप ही तो बनाते हो न, वे आपसे ऊपर के नहीं हो सकते।

तो ख़ैर, आप जब भी बात करते हो कि बन्धन-बन्धन-बन्धन, तो लगता तो बुरा ही है, तो फिर मुक्ति की बात करनी पड़ती है, विवशता में करनी पड़ती है। और मुक्ति की बात जब भी होगी कभी आपको भी करनी पड़े, तो सूत्र याद रखना — नकार में करना। इस तरह से बात भी हो जाएगी और झूठ भी नहीं बोलना पड़ेगा। मुक्ति की बात जब भी करनी पड़े बात बन्धन की ही करना, बस सामने वाले का मन रखने के लिए न लगा देना — ये ‘न’ बड़ी बढ़िया चीज़ होती है। जैसे — गणित में होता है न, माइनस और माइनस मिलकर, बस वही बात है। कोई बहुत पूछे कि कुछ अच्छाई बताइए, तो कैसे-कैसे बुराइयाँ नहीं हैं बस ये बता देना, अच्छाई का नाम मत लेना। पूछे, ‘शुभ क्या होता है?’ तो जितने तरीक़े के अशुभ जानते हो उनका नाम लेना, कहना, ‘इनका अभाव ही शुभ होता है।‘

इसलिए बहुत प्रयास करा ऋषियों ने की आत्मा शब्द का उपयोग ही न करना पड़े लेकिन लोगों ने एकदम दौड़ा लिया होगा बोले, ‘क्या है, कहते हैं, अहंकार हटाओ, बोले, ’अहंकार हटेगा तो कुछ बचेगा, कोई सेब-वेब हाथ में आएगा या नहीं आएगा? तो बोले, ‘हाँ, आत्मा, आत्मा।‘ उनका बस चलता तो वो कुछ न कहते, वो आत्मा के नाम पर चुप हो जाते बस। कहते, ‘अहंकार हटा दो, इतना काफ़ी है, और कोई बात नही करनी,’ लेकिन विवश होकर कहना पड़ जाता है। तो कह तो दिया आत्मा, लेकिन आत्मा का वर्णन पूरे तरीक़े से किसमें करा? नकार में करा।

आप आत्मा को लेकर के एक उपाधि, एक उपमा, एक विशेषण ऐसा नहीं बता पाएँगे जो नकार का नहीं हो, बताकर दिखा दीजिए। आत्मा को लेकर जितनी बातें करी गयी हैं सब नकार में करी गयी हैं क्योंकि सब मजबूरी में करी गयी हैं। आत्मा को लेकर के कोई सकारात्मक या विधायक बात करी ही नहीं जा सकती। कायदे से तो कोई बात नहीं की जानी चाहिए, लेकिन लोग हैं, ‘वो ऋषि महाराज की बिलकुल टाँग पकड़कर के बैठ गये हैं, नहीं बता ही दो आत्मा क्या होती है। आज बता दो, आज नहीं जाएँगे।‘

ऋषि बोल रहे, “वो जो तुम सोच नहीं सकते उसको आत्मा बोलते हैं।“ तुम्हारा दिल भी रख लिया झूठ भी नहीं बोला। बोले, ‘आत्मा के बारे में एक बात तो बता दो महाराज।‘ “वो जिसके बारे में कोई बात नहीं की जा सकती उसको आत्मा बोलते हैं।“ लोग खुश हो गये, देखा! पता चल गया। आत्मा का क्या पता चला? ‘जिसके बारे में पता नहीं चल सकता उसको आत्मा बोलते हैं, अभी-अभी बताया है।‘

समझ में आ रही है बात ये?

कुल मिलाकर के इतनी देर से जो मैं बक-बक कर रहा हूँ, उसका उद्देश्य बस ये है कि आप ये समझ जाओ कि बन्धनों पर ध्यान दो। बाहर के माने कल्पना के पट बन्द कर, भीतर के पट खोल। बन्धनों को देखो, आगे सुनहरे ख़्वाब मत बुनो। दिखाई दे नहीं रहा है यहाँ (आँखों की ओर दिखाते हैं) से, और कह रहे हैं, ‘वो उधर वहाँ, वो जो स्वर्णमहल है, एक दिन उसमें रहेंगे,’ वो बूचड़ख़ाना और है। अरे! बाहर के पट बन्द कर भीतर के पट खोल। और भीतर के पट ये हैं कि यहाँ पर (आँखों की और इशारा करते हैं) क्या लगा रखा है? काला चश्मा, काला पट्टा, इसको हटाओ।

ये मत बताओ कि अभी हमें वहाँ पर वो दिखाई दे रहा है कि क्या बहुत बढ़िया चीज़ है, वहाँ जा रहे हैं। तुम्हें दिख क्या रहा है? कल्पना माने भविष्य की बात, तुम्हें दिख क्या रहा है? तुम्हें दिख रहा होता तो तुम कल्पना करते ही नहीं, तुम्हें दिख रहा होता तो तुम कल्पना करते नहीं। कल्पना की ज़रूरत ही उनको पडती है जिन्हें कुछ दिख नहीं रहा।

आप में से गाड़ी किस-किसने चलायी है, कभी भी, कोई सी भी चार पहिये, आठ पहिये, दस पहिये कैसे भी? तो कल्पना कर-करके चलाते हो या देखकर के चलाते हो? तो कल्पना क्यों नहीं करते? हम तो कल्पनावादी लोग हैं, कल्पना करो न। आगे एक ट्रक आ रहा है, तो मैंने बायें मोड़ दी, कल्पना क्यों नही करते? खूबसूरत ट्रक है, एकदम सजा-बजा ट्रक है, और है उस पर लाल-गुलाबी चित्रकारी हुई पड़ी है और क्या क़ातिल शेर लिखे हुए हैं, ट्रकों की शायरी। करो, कल्पना करो न। कल्पना की ज़रूरत तब पड़ती है जब? गाड़ी चलाते हुए कल्पना की ज़रूरत पड़ती है जब कोहरा बहुत होता है। करते हो न तब थोड़ी-बहुत, तो देख लो कि कल्पना कब आती है तस्वीर में; जब दिख नहीं रहा होता।

घने कोहरे में चलाई है किसी ने कभी गाड़ी? तब क्या करना पड़ता है? पहले तो गति कम करो और फिर थोड़ा तुक्का लगना पड़ता है कि अच्छा ये डिवाइडर दिख रहा है तो यही सड़क होगी। क्योंकि सड़क तो दिख नहीं रही पर डिवाइडर चमक रहा होता है, तो डिवाइडर से सटा-सटाकर के। अच्छा! वो सामने वाले ट्रक के पीछे की दो बत्तियाँ दिख रही हैं, तो माने हम सही रास्ते पर होंगे, है न?

कल्पना की ज़रूरत सिर्फ़ उसको पड़ती है जिसकी आँखें नहीं होती, आपकी आँखें हैं। बाहर के पट बन्द कर भीतर के पट खोल।

बन्धनों पर ध्यान दो, मुक्ति की कल्पना मत करो। असत्य पर ध्यान दो, सत्य की कल्पना मत करो।

आत्मज्ञान अपने ही भीतर के गटर में घुसकर के सफ़ाई जैसा है। वो कहीं बाहर के निर्मल सरोवर में स्नान जैसा नहीं है। और हम चाहते हैं कि अरे! बढ़िया बाहर निर्मल कहीं पर नीर बह रहा हो, उसमें जाकर स्नान कर आयें, तो हम तर जाएँगे। नहीं, तरने के लिए बाहर के निर्मल सरोवर में स्नान नहीं करना पड़ता, अपने ही भीतर के गटर में घुसना पड़ता है। जो अपने भीतर के गटर में घुस गया उसने समझ लो गंगा स्नान कर लिया। और जो बाहर का निर्मल नीर तलाश रहा है, वो फिर भीतर से गटर में ही रह जाएगा।

क्या फ़ायदा! भीतर भयानक मलाशय है, सैप्टिक टैंक पूरा, और बाहर से जाकर के कह रहे हो कि मैं एकदम स्वच्छ पानी में, अभी-अभी फ़लाने तीर्थ के पानी में स्नान करके आया हूँ। क्या फ़ायदा है? स्नान करना है तो कहाँ करोगे? भीतर स्नान करो। ‘नहीं, भीतर स्नान क्यों करें?’ क्योंकि बेटा जब सफ़ाई करने जाते हो तो स्नान हो जाता है उसमें। कभी कोई गन्दी टंकी साफ़ करी है? जब साफ़ करते हो तो उसमें स्नान हो ही जाता है न। तो भीतर उतरकर के भीतर के गटर को साफ़ करना पड़ता है, वही असली स्नान है।

सफ़ाई-वफ़ाई की बातें छोड़ दो, गन्दगी में उतरना सीखो। हम में से लेकिन बहुत लोग होते हैं जो गन्दगी से बहुत घबराते हैं। वो कहते हैं, ‘सब साफ़-साफ़ रखो न, कुछ भी गन्दी बातें मत करो, किसी का दिल मत दुखाओ, कुछ भी ऐसा मत करो जो अनप्लेज़ेंट (अप्रिय) हो।‘ सुनते नहीं हो ‘लेट्स कीप इट सिविल एंड पोलाइट’ (सभ्य एवं विनम्र रहो)?’ यही लोग होते हैं जो फिर मुझे गालियाँ सबसे ज़्यादा देते हैं। पर आप तो ’सिविल एन पोलाइट रख रहे थे?’ ‘या, बट यू जस्ट गोट टू माई नर्वस’ (हाँ, लेकिन आप मेरी नब्ज़ तक पहुँच गये)।

देखिए, ऐसे नहीं होता, शिष्ट रखकर, मीठा रखकर कोई काम नहीं होता। जैसे चाशनी चाट-चाटकर बस एक दिन मीठी मौत आ जाती है, कुछ नहीं होता। गन्दा होना सीखो अगर साफ़ होना चाहते हो। जो गन्दगी से घबराता है, वो कभी साफ़ नहीं हो पाता है। गन्दगी में उतरो, बस नीयत ये होनी चाहिए कि सफ़ाई करनी है। हाथ में झाड़ू होना चाहिए, हाथ में झाड़ू ले लो और गन्दगी में एकदम गोता मार दो।

धूमिल बोले थे: जो अपना हाथ मैला होने से डरता है, वो एक नहीं ग्यारह कायरों की मौत मरता है।

पर हम शुचितावादी हो जाते हैं न, गन्दगी जहाँ है, वहाँ ‘नहीं, नहीं’। सफ़ाईवादी, शुचितावादी, गन्दगी नहीं। गन्दगी में घुसो, अन्दर की गन्दगी में भी, बाहर की गन्दगी में भी। बुरी आदत डाल ली है, ये सफ़ाई पसन्द होना बहुत बुरी आदत है। ऐसों के लिए ही कहा है,

नहाये धोये क्या भया जो मन मैल न जाए। मीन सदा जल में रहे धोये बास न जाए।। ~कबीर साहब

ये शुचितावाद भारत में खूब रहा है। दिन में तीन बार नहा रहे हैं। ये भ्रष्ट आदमी, हर समय जब देखो पानी में ही नज़र आता है। क्यों पानी ख़राब कर रहा है इतना? पानी गन्दा कर दिया तेरे जाने से। तू इतना गन्दा है कि तू महासागर में भी स्नान कर ले, तो तू साफ़ नहीं होगा, सागर गन्दा हो जाएगा। भारत में ये खूब रहा है। यहाँ तो धार्मिक होने का ही यही लक्षण है कि नहाता है। हैं भई! नहाने का धार्मिक होने से क्या मतलब है? ऐसे तो सबसे ज़्यादा लोटा है धार्मिक, कि नहीं हुआ?

साहब के साथ हुआ था एक बार (कबीर साहब)। तो वो पंडित जी को देखें। वहीं रहते थे अपना बनारस में, देखें पंडित जी आ रहे हैं और वो सुबह भी नहायें, दोपहर भी नहायें, सांझ को भी नहायें। तो बोले, ‘महाराज आप इतना नहाते हो तो बाक़ी काम कब करते हो?’

तो बोले, ‘कौन जात है तू?’

बोले, ‘नहीं, जात का प्रश्न से क्या सम्बन्ध, मैंने तो प्रश्न पूछा है।‘

तो बोले, ‘जात बता अपनी।‘

बोले, ‘मैं तो जुलाहा हूँ साधारण।‘

तो बोले, ‘हट, हम तो सिर्फ़ ब्राह्मणों के प्रश्न का जवाब देते हैं।‘

बोले, ‘अरे! महाराज! मैं छोटा आदमी लेकिन मेरी साधारण जिज्ञासा शान्त कर दो न। आप इतना नहाते हो तो क्या?’

तो बोलते, ‘नहाने से निर्मलता होती है।‘

तो कबीर साहब ने बिलकुल लोटा पकड़कर लिया, बोले, ‘तो ये जो आपका लोटा है, ये तो एकदम निर्मल हो गया होगा अब तक। आप जितना नहाते हो, आपसे ज़्यादा तो ये लोटा नहाता है, तो ये तो एकदम निर्मल हो गया होगा।‘

तो बोले, ‘भाग यहाँ से, म्लेच्छ कहीं का! तभी तो हम बात नहीं करते इधर-उधर के लोगों से। बेकार में इसके मुँह लगे।‘

वहीं से फिर उन्होंने सारी बातें पकड़ लीं, बोले, ‘ये तो तुम ये कर्मकांड करते हो, इससे कुछ होता होता तो’, “बार-बार के मूंडते भेड़ न बैकुंठ जाए।“ कभी तुम बाल मुंडा रहे हो, कभी तुम नहा रहे हो, इससे क्या मिल रहा है तुम्हें?

“पाथर पूजे हरि मिले”, पत्थर पूज रहे हो, तो मैं पहाड़ पूज लेता हूँ उससे कुछ मिलता होता हो। ये जो तुम कर रहे हो इससे कुछ हो रहा है? लेकिन ये सब करने में एक बड़ा संतोष है कि हमने सफ़ाई कर ली, पूरी सफ़ाई कर ली भीतर की गन्दगी को बिना छुए। क्या? कैसे कर ली ये सफ़ाई, कौनसी सफाई है ये जिसमें सब बाहर-बाहर साफ़ कर लेते हो और भीतर देखते भी नहीं?

दुनिया में कोई ऐसी चीज़ बता दो जिस पर किसी भी चीज़ का प्रभाव न पड़ता हो, बताओ? ऐसी कोई चीज़ नहीं होती। तो मैं कह रहा हूँ ऐसी कोई चीज़ होनी चाहिए भीतर जिस पर संसार का कोई भी प्रभाव न पड़ता। तो इसका मतलब वैसी कोई चीज़ संसार की है ही नहीं, क्योंकि संसार की चीज़ होती तो प्रभाव पड़ता। इसीलिए फिर बुद्ध ने उस वस्तु को कहा कि वो वस्तु है ही नहीं, वो एक अभाव मात्र है, वो अनात्मा है, वो एक खाली जगह है, एक शुद्ध रिक्तता है, अनात्मा, शून्यता। क्योंकि ऐसी कोई चीज़ हो नहीं सकती, जो है तो लेकिन प्रभावित नहीं होती, बदलती नहीं।

लेकिन वो जो भी है, चाहे उसको खालीपन कह लो, चाहे भरापन कह लो, चाहे ये बोल लो, वो बोल लो, लालपन, हरापन मर्ज़ी तुम्हारी है, पर उसे होना ज़रूर चाहिए। अगर उसको तुम न होना भी बोलते हो, तो वो न होना ज़रूर चाहिए, पर वो जो भी कुछ है, चाहिए। अगर वो नहीं है तो फिर क्यों जियें भाई? जी काहे के लिए रहे हैं? काला कौआ आकर काऊँ-काऊँ करके गया, हम रो पड़े, ये क्या है? कौनसी ज़िन्दगी है यह? फिर सारस आ गया, बगुला आ गया कोई और आ गया, हम उछल पड़े। ये क्या है? कभी कौआ, कभी सारस। ख़रीदने गये थे, लोहा मिल गया तो रो रहे हैं। कौआ सारस, लोहा पारस; पारस मिल गया तो उछल रहे हैं, अब तो बहुत सारा सोना मिलेगा — ये ज़िन्दगी चाहिए ही नहीं।

अद्वैत वेदान्त — एक बहुत दूसरी दृष्टि से कह रहा हूँ — एक अड़ियल बच्चे का दर्शन है, एक अक्खड़ जवान आदमी का दर्शन है, जो कह रहा है या तो ज़िन्दगी में गरिमा हो, नहीं तो चाहिए ही नहीं। जवान आदमी का दर्शन है। कोई इसमें आश्चर्य नहीं कि एक युवा व्यक्ति ही था जो अद्वैतवाद का प्रणेता बना और वो शरीर से ही युवा रहे-रहे चला भी गया। कौन? आदिशंकराचार्य। ये काम बूढ़ों के बस का था भी नहीं। जवान आदमी हैं, बोल रहे हैं या तो चीज़ ऐसी हो कि असली है, खरी है, सिर्फ़ मेरी है, न छोटी होगी न बड़ी होगी, पूरे तरीक़े से हमारे अधिकार की होगी, नहीं तो हमें चाहिए ही नहीं, चाहिए नहीं। शायरी में इसको कहते हैं — या तो चाँद चाहिए, नहीं तो कुछ भी नहीं। वो रूठ गयी थीं, इन्होंने जाकर के पूछा ‘काहे रूठी हो, क्या चाहिए?’ तो बोली ‘या तो चाँद चाहिए, नहीं तो कुछ भी नहीं।‘ ये अद्वैतवाद है — या तो पूरा, नहीं तो नहीं ही चाहिए, नहीं तो नहीं चाहिए।

प्रश्नकर्ता: नमस्कार, आचार्य जी। आपने अपनी कविता में बताया कि ऐसा पुरुषार्थी चाहिए जो कोई नया धर्म, समाज या व्यवस्था लेकर न आये, बस एक सिद्धांत प्रतिपादित करे, जिससे कोई मानव-कृत धर्म रहे ही नहीं। लेकिन आजकल कुछ लोग विज्ञान को या कुछ लोग संविधान को इसी प्रकार बोलते हैं कि धर्म नहीं चाहिए, संविधान या विज्ञान चाहिए, या संविधान चाहिए। बल्कि कल तो सुप्रीम कोर्ट में एक पीआईएल (जनहित याचिका) भी लगी थी जिसमें वो एक सिंगल कांस्टीट्यूशनल रिलीजन (एकल संवैधानिक धर्म) के ऊपर...। हालाँकि वो रद्द हो गयी। तो अब आप जिस मसीहा की बात कर रहे हैं, वो किस तरह का मसीहा होगा?

आचार्य: मैंने बात करी न कि अहम् को सनातन आत्मा की ओर ले जाने के अलावा और कोई धर्म हो नहीं सकता। और इसमें किसी इंसान के किसी आविष्कार के लिए कोई जगह नहीं है न। इंसान, उसकी सोच और ये सब तो बहुत बाद में आये हैं, अहम् वृत्ति तो बहुत पहले से है। मनुष्य जब एकदम ही आदिम था, अहम् वृति तो तब भी थी। लेकिन तब क्या कोई मानव-कृत धर्म था?

प्र: नहीं था।

आचार्य: लेकिन वो अहम् वृत्ति तो तब भी चाहती थी न कि शान्ति मिले। तो मानव-कृत धर्म तो बहुत बाद में आये हैं, बहुत बाद में। आप अगर धर्मों का इतिहास देखेंगे आज के जो धर्म हैं, तो ये कितने पुराने हैं? कुछ नहीं कल के हैं, बिलकुल एकदम कल के हैं। सनातन से क्या आशय होता है?

सनातन से आशय है कि जब इंसान ने धर्म के बारे में सोचा भी नहीं था, तब से जो धर्म चला आ रहा है वो सनातन है, वो मानव-कृत नहीं हुआ, और क्या है वो धर्म? वो धर्म है अहम् को शान्ति की ओर ले जाना, क्योंकि अहम् है तो अशान्त रहेगा। उसको मन कह लीजिए साधारण भाषा में। मन को शान्ति की ओर ले जाना। मन अज्ञान में है, उसको ज्ञान की ओर ले जाना। यही है, और क्या है?

उसके लिए जो सबसे अच्छा, उसकी अभिव्यंजना होगी, वो उपनिषदों से आती है कि “तमसो मा ज्योतिर्गमय।” बस यही है सनातन धर्म और ये मानव-कृत नहीं है। मैं अन्धेरे में हूँ, मुझे ज्योति की ओर जाना है, यही सनातन धर्म है। “असतो मा सदगमय“ — मैं भ्रम में, मिथ्या में, असत माने जो कुछ क्षणभंगुर है, उसमें जी रहा हूँ, मुझे नित्यता की ओर जाना है, यही सनातन धर्म है।

अब ये काम न विज्ञान कर सकता है न संविधान कर सकता है, क्योंकि वो बात ही नहीं करते हैं आदमी के भीतर के अन्धेरे की। संविधान देश का सबसे बड़ा कानून है, कानूनों का कानून है। आपके भीतर अन्धेरा हो इस बात पर कोई जेल कर सकता है आपको? बस यही दिक्क़त है न। संविधान यहाँ पर असफल हो गया। आपके भीतर कितना भी अन्धेरा हो इस बात की कोई कानून आपको सज़ा देगा क्या? आप बैठ करके विचार कर रहे हों कि फ़लाना बेवकूफ़ है, फ़लाना दुष्ट है, आप किसी के प्रति ईर्ष्या से भरे हैं, आप ये सब कर रहे हैं, आप जले जा रहे हैं अपने भीतर की आग में, इसकी कोई सज़ा है कानून में? तो संविधान यहाँ असफल हो गया न।

संविधान का जो सम्बन्ध है वो सामाजिक समरसता से है, सामाजिक न्याय से है, देश को एक सही तरीक़े से चलाने पर है। और अध्यात्म होता है ताकि इंसान भीतरी तौर पर सही तरीक़े से चल सके। तो संविधान निश्चित रूप से बहुत महत्वपूर्ण है और भारतीय संविधान बहुत उदात्त है, क्योंकि वो बहुत ऊँचे मूल्यों पर आधारित है।

लेकिन संविधान कितना भी ऊँचा हो जाये वो अध्यात्म का स्थान नहीं ले सकता। संविधान आपको बस ये बता देगा कि इंसान और इंसान बराबर होने चाहिए लेकिन वो ये थोड़े ही बताएगा कि इंसान होता क्या है। इसको और इसको हर क्षेत्र में बराबरी के अवसर मिलने चाहिए, और ये दो व्यक्ति हैं और इन दोनों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए। कहते हैं न, कास्ट, क्रीड, रिलीजन, इन पर नहीं होना चाहिए। इनकी जाति क्या है, हमें नहीं देखनी है, इनकी विचारधारा क्या है, हमें नहीं देखनी है, इनका लिंग क्या है, हमें नहीं देखना, कोई भेदभाव मत करो भाई। इंसान, इंसान में भेदभाव न करो ये काम तो संविधान कर देगा। लेकिन इंसान चीज़ ही क्या है? इंसान सिर्फ़ यही थोड़े ही चाहता है कि मैं दूसरे इंसान के साथ बराबरी पाऊँ, इंसान ये भी तो चाहता है कि मैं कौन हूँ मैं ये भी जान पाऊँ। मैं दूसरे इंसान के साथ बराबरी के अवसर पाऊँ, इसके लिए संविधान है।

लेकिन ‘मैं कौन हूँ?’ और मेरे भीतर क्यों एक आग जलती रहती है और दुख क्यों है, मुझमें इतना और मुझे नींद क्यों नहीं आती है? मेरे सपनों में इतना अंतरद्वंद्व क्यों है? मेरे सब रिश्ते क्यों ख़राब हैं? ये प्रेम क्या चीज़ है और मैं जानता क्यों नहीं कि प्रेम कहते किसको हैं? ये संविधान थोड़ी सिखाएगा आकर के, तो उसके लिए अध्यात्म है।

अब आती बात विज्ञान की। विज्ञान तो घोषित ही करके चलता है कि उसका क्षेत्र ये भौतिक जगत है। जो कुछ भी दृष्टव्य है, अनुभव्य है, मात्र वही विज्ञान के दायरे में आता है न। आप उसको देख सकते हैं, छू सकते हो तभी तो उस पर प्रयोग कर सकते हैं। जो टैंजिबल नहीं हैं, मटीरियल नहीं है, भौतिक नहीं है, अनुभव्य नहीं है, विज्ञान उसका क्या करेगा? विज्ञान क्या करेगा? अणु-परमाणु से लेकर के, सुदूर आकाश गंगाओं तक का क्षेत्र विज्ञान का है। लेकिन मनुष्य भीतर से असन्तुष्ट है, इसमें विज्ञान क्या कर लेगा? मनुष्य भीतर से लगातार अपूर्ण है, इसमें विज्ञान क्या कर लेगा?

हिटलर को क्या विज्ञान एक बेहतर आदमी बना सकता था? उल्टी बात है न, एक घटिया आदमी विज्ञान का भी दुरुपयोग कर ले जाएगा। विज्ञान तो ग़ुलाम बन जाता है, एक घटिया आदमी के हाथ में। हिटलर को एक बेहतर आदमी न संविधान बना पाता, न विज्ञान बना पाता। लेकिन अगर हिटलर को कोई बढ़िया ज्ञानी ही मिल गया होता, तो शायद उस विश्व युद्ध की विभीषिका से हम बच जाते और उन लाखों यहूदियों की जान भी बच जाती।

तो संविधान सुन्दर है, सम्माननीय है, उपयोगी है, पर उसका एक स्थान है बाहर की दुनिया में, बाहर की दुनिया में समाज को ठीक चलाने के लिए संविधान है। बाहर की दुनिया में वस्तुएँ क्या हैं, उनका यथार्थ क्या है, तथ्य क्या है इस बात को प्रयोग और परीक्षण के माध्यम से जानने के लिए विज्ञान है। लेकिन भीतरी दुनिया, जिसमें हम सचमुच जीते हैं, उसके लिए अध्यात्म है।

तो आप ये भी देख लीजिए की तीनों मे से ज़्यादा आवश्यक कौन है? क्योंकि आप बाहर की दुनिया में कम जीते हो, भीतर दुनिया में ज़्यादा जीते हो। कोई भी इंसान कमरे में बैठा हो, तो कमरे में बाद में बैठा है, वो पहले अपने भीतर बैठा है। सबसे पहले आप अपने भीतर जी रहे होते हो। इसका प्रमाण ये है कि उसी कमरे में पाँच लोग बैठे हों और पाँचों बहुत अलग-अलग अनुभव में होंगे। बैठे उसी कमरे में हैं लेकिन एक रो रहा है; बैठे उसी कमरे में हैं, एक उत्साह से भरा हुआ है; बैठे उसी में कमरे में हैं, एक निराशा से भरा हुआ है; बैठे उसी कमरे में हैं एक उदासीन है। अगर बाहरी माहौल ही सबकुछ होता तो उन पाँचों को एक सा होना चाहिए था क्योंकि एक ही कमरे में है। लेकिन एक ही कमरे में पाँच लोग बैठकर के भी पाँच अलग-अलग ब्रह्मांडों में बैठे हो सकते हैं। एक व्यक्ति एक ब्रह्मांड में बैठा है जो शोक का ब्रह्मांड है। एक व्यक्ति हर्ष के ब्रह्मांड में, एक आशा, एक निराशा के ब्रह्मांड में बैठा हो।

तो जो भीतर की दुनिया है, वो बाहर की दुनिया जितनी ही महत्वपूर्ण है, बल्कि भीतर की दुनिया बाहर की दुनिया से ज़्यादा महत्वपूर्ण है। तो इसीलिए अध्यात्म, विज्ञान, संविधान तीनों ही बहुत महत्वपूर्ण हैं। लेकिन तीनों में सबसे ज़्यादा जो महत्वपूर्ण है वो तो अध्यात्म ही है। तो हमने ये समझ लिया अध्यात्म इनसे महत्वपूर्ण है और हम ये भी कह रहे हैं कि मानव-कृत धर्म अध्यात्म नहीं होता।

लाओत्सु के साथ इन दिनों हम हैं तो मुझे वो बार-बार याद आ जाते हैं। वो कहते हैं, "वो प्रेम जो तुमने परिभाषित कर दिया वो प्रेम नहीं होता, वो धर्म जो तुमने परिभाषित कर दिया वो धर्म नहीं होता, वो सत्य जो तुमने परिभाषित कर दिया वो सत्य नहीं होता।" वो धर्म जो किसी इंसान ने बनाकर खड़ा कर दिया है, वो धर्म नहीं होता। धर्म तो मात्र सनातन होता है, जो बस है, है, क्या है? कहीं भी कोई भी इंसान हो, आदमी हो, औरत हो, अमीर हो, ग़रीब हो, काला हो, गोरा हो, कुछ हो, रूसी हो, चीनी हो, बोध सबको चाहिए, शान्ति सबको चाहिए, यही सनातन धर्म है। अपनेआप को बोध और शान्ति की ओर ले जाना ही आपका अपने प्रति कर्तव्य है, अपने प्रति इसी कर्तव्य को सनातन धर्म कहते हैं, और ये मानव-कृत नहीं है।

प्र: अध्यात्म गाइड है और संविधान और साइंस टूल्स हैं, ये गाइड नहीं हो सकते।

आचार्य: बिलकुल, बिलकुल। ये पॉलिसीज़ हैं, पॉलिसीज हैं। संविधान क्या है? वो एक नीतिगत वक्तव्य है, हम ऐसा करेंगे है और जब आप नीति बनाते हो, तो प्रेरित होनी चाहिए किसी ऊँचे आध्यात्मिक मूल्य से। तो भारत का संविधान ऊँचे आध्यात्मिक मूल्यों से प्रेरित है, इसीलिए तो सम्माननीय है। पूरे दुनियाभर में भारत के संविधान का सम्मान है क्योंकि उसके पीछे ऊँचे आध्यात्मिक मूल्य हैं। लेकिन फिर भी, है तो वो एक नीतिगत वक्तव्य ही।

प्र: जी, ठीक है।

आचार्य: वो इंसान और इंसान के बीच की बात है, वो इंसान और राज्य के सम्बन्धों की बात है, वो देश में जो अलग-अलग राज्य हैं, उनमें आपस में कैसे सम्बन्ध होंगे, वो उसकी बात करता है। लेकिन वो आपसे आपके सम्बन्ध की बात थोड़े ही करता है। भई, आपका आपके पड़ोसी से क्या सम्बन्ध होगा, ये बात संविधान के क्षेत्र में आती है, लेकिन आपका आपसे ही क्या सम्बन्ध होगा, ये बात संविधान के क्षेत्र में नहीं आती न।

और सबसे बड़ा रिश्ता वो होता है, जो हमारा हमारे ही साथ होता है — उस रिश्ते की बात संविधान नहीं करता है। और उसे करनी चाहिए भी नहीं, वो बात संविधान के दायरे से बाहर की है। तो ये कोई संविधान की इसमें अयोग्यता, अक्षमता नहीं हो गयी, या संविधान का इसमें कोई दोष नहीं हो गया कि अगर वो इंसान के आन्तरिक सम्बन्ध की बात नहीं करता तो। वो बात संविधान की परिधि से बाहर की है, संविधान को वो बात करनी भी नहीं है।

प्र: कर ही नहीं सकता शायद।

आचार्य: कर सकता भी नहीं है, करनी भी नहीं है। वो उसकी ब्रीफ़ (वृतान्त) में नहीं आती है बात। वो उसके क्षेत्र में, उसके डोमेन में नहीं आती है, ठीक वैसे जैसे अहम् की बात करना विज्ञान के क्षेत्र में नहीं आता है; या मुक्ति की बात करना विज्ञान के क्षेत्र में नहीं आता है। विज्ञान का उद्देश्य ये होता ही नहीं है कि अहम् को मुक्ति मिले। विज्ञान तो कहता है, ‘भाई! बाहर क्या हिसाब-किताब है, हम बता देंगे, और उसके बाद उसका क्या करना है, आप देख लो।‘ आपको अगर उसका बम बनाकर के पूरी पृथ्वी उड़ा देनी है, तो आप उड़ा दो, विज्ञान रोकने थोड़े ही आएगा आपको।

प्र: अभी जब आप बता रहे हैं, तो ये बात इतनी सिंपल (सरल) लग रही है और ये लग रहा कि इसके अलावा कुछ है नहीं। लेकिन हमें अज्ञान भी इसी बात को लेकर है सबसे बड़ा हमारा।

आचार्य: हम अपनी नज़रों में बहुत कुछ होते हैं। हमें लगता है, हम कुछ हैं, हम कुछ हैं, तो हमने कुछ करा‌ है, तो वो भी कुछ होगा ही होगा। और मैं बार-बार कहा करता हूँ कि आपकी हैसियत, आपकी औक़ात, ये है कि आपका शरीर तो क्या, आपकी स्मृति तक मिट जानी है। शरीर तो ग़ायब होगा ही होगा, आपकी स्मृति तक इस दुनिया से ग़ायब हो जाती है। लेकिन हमें लगता है ‘हम कुछ हैं,’ तो हमने कुछ करा है, तो वो बहुत बड़ी ही बात होगी। क्या है; कुछ नहीं।

ऊँचा बस वो है जो आपने नहीं करा। जो आपने करा है वो आपसे बड़ा थोड़े ही हो जाएगा। कर्म कर्ता से बड़ा थोड़ी हो सकता है। अपनेआप को भ्रम में रखना अच्छा लगता है, बस यही है और कुछ नहीं। और दुर्भाग्य ये है कि जीवन इतनी घटिया चीज़ है कि आप अपनेआप को भ्रम में भी लगातार रखे रहो, तो भी वो राज़ी-खुशी बीत सकता है।

काश! कि कोई ऐसी व्यवस्था होती है कि जो भ्रम में होता उसको मौत नहीं आती। जैसे आप जब पाँचवीं में फेल हो जाते हो, तो छठी नहीं आती न। कहते हैं, ‘अभी तुमने अपना सबक तो पाँचवी वाला ठीक से पढ़ा ही नहीं, तो तुम्हें पाँचवी छोड़ने की इजाज़त कैसे मिल सकती है? पाँचवी में आये थे तुम पाँचवी में कोई सबक पढ़ने के लिए, तो पाँचवी तुम कैसे छोड़ सकते हो जब तुमने सबक नहीं पढ़ा?‘ पर ऐसा होता नहीं है, ज़िन्दगी अगर पाँचवी है तो ज़िन्दगी पूरे-पूरे भ्रम में भी कट जाती है, मौत आ जाती है।

होना तो ये चाहिए कि जिन्होंने ज़िन्दगी में सबक नहीं सीखा, वो अश्वत्थामा बन जायें। कहें कि तुम्हे मौत मिलेगी तब जब तुम सीख लोगे। पुराना गाना है मोहम्मद रफ़ी की आवाज में, बिलकुल सही उन्होंने बोला है वहाँ पर। गीतकार कौन है मुझे याद नही, देख लीजिएगा। तो कहते हैं कि:

“फ़लक पे जितने सितारे हैं वो भी शर्माएँ, ओ देनेवाले मुझे इतनी ज़िन्दगी दे दे, गम उठाने के लिए, मैं तो जिये जाऊँगा।“

~ हसरत जयपूरी गायक: मोहम्मद रफ़ी फ़िल्म: 'मेरे हुज़ूर'

वो अपने लिए सज़ा माँग रहा है, उसने कुछ कर दिया होगा पाप-वाप। होते हैं कुछ लोग जिनमें इतनी ईमानदारी होती है, जब पाप कर लेते हैं तो प्रायश्चित सोचते हैं। दूसरे तो ऐसे होते हैं कि पाप करने के बाद और वो इधर-उधर फुदक मारते हैं।

तो बोल रहे हैं कि "फलक पे जितने सितारे हैं वो भी शर्माएँ।" सितारों की बड़ी लम्बी उम्र होती है न। कह रहे हैं, ‘उन सितारों से ज़्यादा लम्बी उम्र दे दो मुझे।‘

"फलक पे जितने सितारे हैं वो भी शर्माएँ, देने वाले मुझे इतनी ज़िन्दगी दे दे, गम उठाने के लिए मैं तो जिये जाऊँगा।"

मैं ज़िन्दा रहना चाहता हूँ ताकि मैं और गम उठाऊँ, यही मेरा प्रायश्चित होगा। पर ऐसा होता नहीं। आपने घटिया ज़िन्दगी भी जी है, तो भी आपको ज़िन्दगी से रिहाई मिल जाती है। तो लोग कहते है, ‘ठीक है, मरना तो है ही, तो घटिया तरीक़े से भी जी करके जब मौत आ ही जानी है, तो ठीक है, क्या है; कुछ नहीं।‘ अपने भ्रम में ही जी लो, सच्चाई से दूर-दूर रहकर के ही जी लो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
Be the first one to add a comment :)
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Articles On Religion
Excerpts From Articles
कॉमेडी हो तो ऐसी
हमारी ज़िंदगी में तो लगातार वही सबकुछ हो रहा है जो होना नहीं चाहिए। आप लोगों को हमारी ज़िंदगी का ही आईना दिखा दो न। हम सब अपने गधों को अपनी पीठ पर बैठाकर चल रहे हैं। इतनी जोर की हँसी आएगी कि मज़ा आ जाएगा। कुछ ऐसा है जो बेमेल है, विसंगत है, और हमारी ज़िंदगियाँ मूर्खता की ही एक अंतहीन कहानी हैं। ये एब्सर्डिटी दिखाओ न लोगों को, खूब हँसेंगे।
Living Without Illusions: A Lesson on Expectations and Reality
It is not that the way the world is, the ignorance, the stupidity, the suffering, the perverseness of it all. It's not that that hurts or surprises you. What shocks is that adverse things come from people you think of as decent, respectable and wise. It is not events or people, therefore, who are shocking you, it is the expectations that you hold of them.
What Makes a Woman Beautiful?
The woman is not beautiful; the man is not beautiful either. Truth and compassion are beautiful. The compassionate one stands head and shoulders above the gorgeous woman or the handsome man. And this is possible only when love and appreciation for the right, gender-independent values are fostered in both the man and the woman.
How Can The Common Man Make Better Decisions In Life?
First of all, we have to realize what our life is like. You know, I can’t change something without firstly understanding its processes and its actuality. I must know what this thing called my life is. We keep living without knowing a thing about life. And we’re blinded by names and identities.
Leadership and Spiritual Insights from the Bhagavad Gita
My concern is the way we are. My concern is the face of the human being. My concern is the little sparrow. I'm not here to tell people what God has said. I'm here to take care of the sparrow. That's my concern. And the sparrow cannot be taken care of unless we go to the Gita. Hence, the Gita.
How Influencers Fool Us So Easily
We have reserved critical thinking only for problems related to science and technology, but not for life itself. Why can’t the same spirit of inquiry be present in everything? Without the filter of thought and inquiry, you will be enslaved and exploited. So, pause at every sentence, analyze, and refuse to move on until you are satisfied.
The Female Body, Chastity and 'Rape Culture'
Rape is happening all over the place. A husband raping a woman is not something new. Public apathy—nobody reporting the rape—that is again not something new. What is new is the woman standing up. And not just standing up in a way that displays raw courage, but standing up in a way that displays something deeper. She is challenging the very notion of female honor.
Why Do We Hide Things In Relationships?
Cultures place too much value on conforming to relationship stereotypes. These dogmas and rigid opinions do not easily accept reality. And so, to please them, you become a habitual liar. But good relationships are founded on freedom; they are not based on obligations, and they are not afraid of reality. In good company, the other might frown, but less on what you did, and more on what you hid.
आश्रित महिलाएँ और अध्यात्म
जो आश्रित महिलाएँ हैं, इनको सबसे बड़ी सज़ा यह मिलती है कि इनका अध्यात्म की तरफ़ बढ़ने का रास्ता बिल्कुल रोक दिया जाता है। परमेश्वर की ओर कैसे बढ़ोगे अगर पति ही परमेश्वर है? जो कैद में है, उसके लिए साधना है — दीवारों को तोड़ो और बाहर आओ। बाहर निकलकर कोई नया ज्ञान, कला, या कोई कुशलता सीखो।
Astrology: A Myth People Believe
It has been extremely conclusively proven, demonstrated that astrology is not a science at all. It's a conjecture. It's a belief system. Belief system with no material basis at all.
इंसान हो तो ज़िंदगी से जूझकर दिखाओ
दुनियादारी सीखो, भाई! और मुझसे अगर प्रेम है या कोई नाता है, इज्जत है, तो मेरी अभी स्थिति क्या है, वो समझो। प्रेम अगर है, तो प्रेम यह देखता है ना कि सामने वाला क्या चाहता है, उसकी क्या जरूरत है? प्रेम आत्म-केंद्रित थोड़ी हो जाएगा कि "मैं अपने तरीके से!" अपने तरीके से है, तो फिर प्रेम नहीं है, स्वार्थ है ना!
How to Raise a Daughter?
Please be an observer and a compassionate witness. Keep watching, watch from a distance. Meddling is not needed. Being a parent of a girl child today is a humongous opportunity. You have the chance to give rise to a new world—if you can truly raise one girl as a free girl.
Science and Spirituality Always Go Hand in Hand
The most common thing in spirituality and science is 'an honest urge to know the Truth.' Science observes the external universe, and spirituality observes the mind. These two have to be in tandem. The one thing that enables true knowledge in any field is honesty and integrity.
Kids and Anxiety: What’s Going Wrong?
If a kid has been continuously told that the world is everything, how will an untouched point remain within? The world, as we know, is quite fickle, while our real nature is stability or permanence. It is this dichotomy that pushes us into stress and anxiety. A big portion of the mental health problem can be addressed if we provide the right value system to the kid—the right literature.
Categories