श्रीमद्भगवद्गीता दूसरा अध्याय २, श्लोक 15-24

Acharya Prashant

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श्रीमद्भगवद्गीता दूसरा अध्याय २, श्लोक 15-24
मनुष्य की देह होने भर से आपको कोई विशेषाधिकार नहीं मिल जाता, यहाँ तक कि आपको जीवित कहलाने का अधिकार भी नहीं मिल जाता। सम्मान इत्यादि का अधिकार तो बहुत दूर की बात है, ये अधिकार भी नहीं मिलेगा कि कहा जाए कि ज़िन्दा हो। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

आचार्य प्रशांत: अर्जुन को तीन सत्ताओं में दीक्षित कर रहे हैं। पहली अहम्, दूसरी प्रकृति और तीसरी आत्मा। प्रकृति से क्या सही संबंध रखना है? यही धर्म की विषय वस्तु है। तो प्रकृति से सही संबंध वही होता है जो अहम् को आत्मा की ओर ले जाए।

तो हमने पिछले सत्र में कहा था, ‘जो आत्मा की ओर ले जाए उसको पूजना है और जो आत्मा के आड़े आए उसको तोड़ना है।’ यही सही संबंध है प्रकृति से। और कैसे पता चलता है कि अहम् की दिशा है आत्मा की ओर ही? प्रकृति से संबंध बनाने की अनिवार्यता, विवशता कम होने लगती है। अगर आपकी आंतरिक यात्रा सही दिशा में जा रही है तो एक यह आपको प्रमाण मिलेगा—प्रकृति से संबंध बनाने की जो आंतरिक मजबूरी होती है, कम होने लगती है। प्रकृति का दृष्टा होना पर्याप्त लगने लगता है। संबंध बनाना ज़रूरी नहीं है। जानना पर्याप्त है। जान गए, इतना काफ़ी है। ठीक है?

तो प्रकृति से ही सही संबंध क्या होता है? यही बात यहां पंद्रहवें श्लोक में भी है।

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ। समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।२.१५।।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 2, श्लोक 15

अर्थ:

हे बलि पुरुष (ऋषभ), प्रकृति के मध्य जो धीर व्यक्ति अव्यथित रह जाता है, और सुख-दुख में एक समान रह जाता है, वो अधिकारी होता है आनंद का, आत्मा का।

‘हे पुरुष ऋषभ!’ ऋषभ का एकदम भौतिक अर्थ होता है तगड़ा साँड। और सांकेतिक अर्थ होता है कोई जो बलवान हो। जब कह रहे हैं, ‘हे पुरुष ऋषभ’ तो आशय है ‘हे बलि पुरुष।’ ‘हे बलि पुरुष, ये सब जो हैं जिनकी बात अभी पिछले श्लोक में करी थी, किनकी बात करी थी? सुख-दुख, शीतोष्ण आदि की।

शीतोष्ण माने बदलती हुई स्थितियाॅं, प्राकृतिक द्वैत के दोनों पहलू माने प्रकृति की आती-जाती लहरें भाँति-भाँति की। तो यह सब जो है प्रकृति के थपड़े इनके मध्य जो धीर व्यक्ति अव्यथित रह जाता है और सुख-दुख में एक समान रह जाता है, वो अधिकारी होता है आनंद का। आनंद माने कौन? आत्मा। तो जो प्रकृति में समभाव रह जाता है, अनछुआ रह जाता है, जो प्रकृति का वरण नहीं करता,वो अधिकारी हो जाता है किसी और का। किसका? वो आत्मा का अधिकारी हो जाता है। जो प्रकृति का वरण नहीं करता वो आत्मा का अधिकारी हो जाता है।

समझ में आ रही है बात?

आगे जितनी भी बातें होंगी वो इन तीनों को खयाल में रखकर करी जाऍंगी। कौन से तीन? ‘हे अर्जुन, कोई समय नहीं था जब तुम ना हो, मैं ना होऊॅं और और ये सब ना हों,’ ये तीन। ये तीन कौन हैं? अहम्, प्रकृति और आत्मा। ठीक है? इसलिए अध्याय का नाम क्या है? सांख्ययोग। पुरुष है, प्रकृति है और मुक्ति है। सांख्ययोग में आत्मा नहीं होती पर मुक्ति होती है, मुक्ति को ही आत्मा समझिए। तो आगे,

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।२.१६।।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 2, श्लोक 16

अर्थ:

असत् वस्तु का अस्तित्व नहीं है, परन्तु सत् वस्तु का कभी अभाव नहीं है। तत्व-ज्ञानियों के द्वारा इन दोनों की सच्चाई जानी गई है।

‘असत् वस्तु का अस्तित्व नहीं है, परन्तु सत् वस्तु का कभी अभाव नहीं है। तत्व-ज्ञानियों के द्वारा इन दोनों की सच्चाई जानी गई हैं।’ ठीक है? अभी ये आपको बताना है, हम सिर्फ़ दोहरा नहीं रहे, रिवीज़न नहीं चल रहा है, इसके साथ-साथ आपकी परीक्षा भी चल रही है। असत् है नहीं, असत् का अस्तित्व नहीं है, सत् का अभाव नहीं है माने सत् है ही है लगातार, हर जगह, सर्व्यापक, निरंतर और तत्व-ज्ञानियों द्वारा ये सच्चाई जान ली जाती है।

अब इसको सुनते ही कौन-सा ऑंकड़ा उभर कर आ रहा है? तीन। कौन-से तीन है यहाँ पर? जल्दी-जल्दी बोलिए। सत्, असत् और तत्व-ज्ञानी। सत् क्या है? आत्मा। असत् क्या है? प्रकृति। और तत्व-ज्ञानी कौन है? आत्मा-मुखी अहंकार। तो जब अहंकार प्रकृति को मिथ्या माने असत् जान लेता है, ये तो है ही नहीं बस लगती रहती है, मुझे ही लगती है, मेरे ही अनुभव में आती है वरना तो ये क्या ही है, मेरी ही चीज़ है, छाया। तो जो तत्व-ज्ञानी है वो प्रकृति को मिथ्या और आत्मा को एकमात्र सार्वभौम सत्य जान लेता है। ठीक है ना?

ये किसने जाना? ये जाना आत्मा-मुखी अहंकार ने। अब यही जो अहंकार है ये असत्-मुखी हो जाए तो ये क्या जानेगा? ये अपनी पीठ कर ले आत्मा की ओर, अब इधर देख रहा है प्रकृति की ओर तो अब ये क्या जानेगा?

श्रोतागण: प्रकृति।

आचार्य प्रशांत: कहेगा, ‘यही सबकुछ है और कुछ है ही नहीं, इसके अलावा क्या है?’ फिर उसका जो दर्शन होता है वो कहलाता है भौतिकवाद, यही है। भौतिकवाद माने प्रकृति ही सब कुछ है, वो एक फिलॉसफी है। और वो आपको ऐसा इसलिए दिख रहा है क्योंकि आपने अपनी पीठ कर रखी है, किसकी ओर? सच्चाई की ओर। सच्चाई की ओर पीठ करने का मतलब क्या होता है? मुहावरे के आगे, क्या मतलब है इसका? सच्चाई की ओर पीठ करना माने अपने आप को ना जानना। सच्चाई की ओर पीठ करना माने दुनिया को देखते रहना, ये नहीं देखना कि तुम कौन हो, तुम्हारा क्या चल रहा है। ये होता है आत्मा की ओर पीठ करना।

आत्मा कोई चीज़ नहीं है कि जैसे दीवार है उधर पीछे (अपने पीछे की ओर इशारा करते हुए) और मैंने दीवार की ओर पीठ कर ली है, ऐसे नहीं है। असत्-मुखी होने का मतलब होता है कि इन्द्रियाँ सब बहिर्मुखी हैं। आँखें बहिर्गामी हैं, मन भी बहिर्जगत के विषय में ही सब सोच रहा है और एक पल की भी आत्म-जिज्ञासा नहीं चल रही है। खुद को देखने में डर बहुत है या हिचक है, तो ये होता है असत्-मुखी हो जाना।

यही वो मूल विकल्प हैं जो हमको उपलब्ध हैं, इधर देखना है कि उधर देखना है। किधर को भी देख सकते हो और जिधर को भी देखोगे कुछ-ना-कुछ मत बना ही लोगे। और तुम्हारी दृष्टि में तुम्हारा मत कभी गलत नहीं होता। है भी नहीं गलत। मैं ऐसे (अपने सामने) देख रहा हूँ तो मैं कह सकता हूँ कि यहाँ बहुत लोग हैं। और जो ये आगे बैठे हैं, ये बिल्कुल कह सकते हैं— अगर यह ध्यान से सुन रहे हैं—कि इस कमरे में सिर्फ़ एक व्यक्ति है। ना मैंने गलत बोला ना इन्होंने गलत बोला, अंतर बस ये है कि किसका मुख किधर को है।

तो जब हमारे चुनाव की बात है कि मुँह किधर को करना है, तो असत् की ओर मुँह क्यों करें? वजह बहुत सीधी है, वो असत् है ना, असत् माने कुछ है नहीं। जब है नहीं तो तुम्हें देगा क्या? क्योंकि वो है नहीं इसीलिए कुछ भी देता नहीं, और तुम्हें कुछ चाहिए तभी तुम इधर-उधर मुँह करते रहते हो, कभी इधर मुँह, कभी उधर मुँह। कुछ चाहिए तभी तो इधर-उधर? असत् की ओर मुँह करोगे तो वो कुछ देगा कैसे? देने के लिए पहले उसे होना पड़ेगा, वो है ही नहीं, तुम्हें देगा क्या! असत् ऐसा है जैसे कोहरे की दीवार, बड़ी भारी लगती है, अभेद्य लगती है। है क्या? है ही नहीं।

सत्ररहवाँ श्लोक, ‘जिससे ये सारा संसार ही है।’ जो भी सुनिएगा उसे उन्हीं तीन में बाँट दीजिएगा जल्दी से। जिससे यह सारा संसार ही है, तो इसमें संसार क्या है?

श्रोतागण: प्रकृति।

आचार्य प्रशांत: और जिससे यह सारा संसार है?

श्रोतागण: अहंकार।

आचार्य प्रशांत: हाँ, तुम्हारी बात भी ठीक है पर कृष्ण का आशय यहाँ आत्मा से है। किसी और संदर्भ में तुम्हारी बात बल्कि ज़्यादा ठीक होती औरों की बात से, पर अभी यहाँ कृष्ण का आशय आत्मा है।

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्। विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हतिः।।२.१७ ।।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक १७

अर्थ:-

जिससे ये सारा संसार ही है, उसी को विनाश रहित अविनाशी जानना। नित्य आत्मा का विनाश कर पाने की पात्रता किसी में नहीं होती।

तो जिससे यह सारा संसार ही है, उसी को विनाश रहित अविनाशी जानना। अविनाशी माने जो अनंत है। नित्य है। ‘नित्य आत्मा का विनाश कर पाने की अर्हता, पात्रता किसी में नहीं होती।’ अब ये क्यों बोल रहे हैं? ऐसे मत पढ़े जाना जैसे एक श्लोक एक अलग कहानी हो, जो पूरा भाव चल रहा है सब श्लोक उसी केंद्र से उठ रहे हैं।

तो हम तीन की बात कर रहे हैं, बताइए उसका यहाँ से क्या संबंध है? संबंध ये है कि तुम जो कभी आत्मा की ओर देखते हो, कभी प्रकृति की ओर देखते हो, तुम कुछ ऐसा चाह रहे हो जो मिटे ना। अब विनाश शब्द का उपयोग कर रहे हैं और जो अभी पूरी पृष्ठभूमि है, उसमें विनाश शब्द बड़ा सांकेतिक है क्योंकि अर्जुन डर ही किससे रहे हैं? अर्जुन विनाश से ही तो डर रहे हैं ना। तो विनाश शब्द का उपयोग कृष्ण ने यहाँ भी कर लिया, जैसे कृष्ण सीख देना चाह रहे हों।

कह रहे हैं, ‘अर्जुन उसी की ओर चले जाओ ना फिर जिसका विनाश हो ही नहीं सकता।’ विनाश से ही तो डर रहे हो, कुल का नाश हो जाएगा, परिजनों, प्रियजनों का नाश हो जाएगा, ये सब। तो ‘अर्जुन, वहीं क्यों नहीं चले जाते जिसका नाश हो ही नहीं सकता। उनके लिए बैठ के क्यों रो रहे हो, जो नाशवान लहरें हैं प्रकृति के सागर की या नदी की उनका नाश तो होना ही है।’ प्रकृति को बस एक चीज़ है जो बचा सकती है। क्या है वो?

श्रोतागण: आत्मा

आचार्य प्रशांत: वो आत्मा का साधन बन जाए वरना तो प्रकृति स्वयं ही नाशवान है।

एक जगह पर कृष्ण कहेंगे, ‘तुम मरे हुए के लिए शोक कर रहे हो।’ जो आत्मा की ओर नहीं जा रहा वो मरेगा नहीं, वो मरा ही हुआ है। क्योंकि प्रकृति में मृत्यु ही मृत्यु है। जो कृष्ण की ओर जा रहा है सिर्फ़ वही बचा हुआ है, बाकी सब मरे ही हुए हैं, बस उनकी मृत्यु तुम्हें अभी नहीं दिख रही है, समय का धोखा है। तो मरे हुए को मारने से क्या झिझकते हो, इन्होंने मृत्यु स्वयं चुनी है तुम थोड़ी मार रहे हो। इन्होंने कैसे मृत्यु स्वयं चुनी है? मेरे विरुद्ध होकर के इन्होंने मृत्यु स्वयं चुनी है। तुम क्यों सोच रहे हो कि तुमने मारा, तुमने थोड़ी मारा। ये मेरे साथ भी तो खड़े हो सकते थे, इन्हें क्या आवश्यकता थी मेरे विरुद्ध खड़े होने की? मौत तो इन्होंने स्वयं चुनी है, तुम थोड़ी मार रहे हो।

तो आत्मा के अतिरिक्त बाकी सब मरा हुआ है, आत्मा को ही अविनाशी जानो अर्जुन। जिससे ये संसार व्याप्त है वो बचा रहता है, उससे जो संसार उठता है उस संसार को बस मृत्यु का घर समझो। उस संसार को घर मत बना लो। वहाँ मौत है। उस संसार का सार्थक उपयोग कर लो उसी संसार से बाहर आने के लिए। अगर अपने आप को संसार में पाते हो तो वहाँ घर मत बनाना, वहाँ उपाय तलाशना, संसार इसलिए है। यहाँ भाॅंति-भाॅंति के संसाधन हैं — कम-से-कम तुम्हें तो ऐसे ही लगता है संसाधन हैं। बाद में नहीं लगेगा संसाधन हैं, पर अभी तो लगता है कि संसाधन हैं। तो जितने तरीके के संसाधन हैं, इन्हें खोजो, तलाशो, तराशो; इसलिए पैदा हुए हो।

नाव को खेते हैं कि उसमें घर बनाते हैं? जगत नाव है, खोजो उसमें चप्पू कहाँ पर रखा है, फिर सीखो कि चप्पू चलाते कैसे हैं? जगत बड़ी नाव है एक, उसमें बहुत कुछ रखा हुआ है। उसमें ईंट, रोड़ी, सीमेंट, बालू ये सब भी रखा हुआ है— बड़ी नाव है, जहाज़ है समझ लो— और इतनी बड़ी नाव है तो उसमें कहीं पर चप्पू भी रखे हुए हैं, दबे हैं, किसी चीज़ के नीचे। सीमेंट के बोरे के नीचे चप्पू सब दबे हुए हैं।

और नाव है उसको देखकर ऐसे ही लग रहा है कि भाई, इतनी बड़ी नाव है तो स्थायी भी है, सुरक्षित नाव है। क्या करना है? घर बनाने का माल उपलब्ध है, घर बनाया जाए? कृष्ण कह रहे हैं, ‘नहीं, ये मत कर लेना, वो तो डूबेगी।’ कैसी भी नाव हो अनंत नहीं होती, वो तो डूबेगी, घर मत बना लेना। तुम खोजो- खोजो, उसमें वो साधन कहाँ है जो तुम्हें नैया पार करा देगा और उसका उपयोग करना सीखो, समय तुम्हें इसीलिए मिला है। समय किसलिए मिला है? खोजने और सीखने के लिए, डिस्कवरी, लर्निंग। समय का यही उपयोग है। खोजो कि क्या काम का है, सीखो कि उससे काम कैसे लेना है, सो मत जाना। कि कहो, ‘नौका विहार कर रहे हैं, मस्त।’

जब चैनल एकदम नया-नया बना था दो-हज़ार-ग्यारह में यूट्यूब पर, तो उस पर एक वीडियो डाला था, तब मैंने उसका शीर्षक दिया था ‘नाव बीच भँवर, नाविक बेख़बर,' तो अभी याद आ गया। दस साल से ऊपर हो गए इसको।

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः। अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।२.१८।।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक १८

अर्थ:

न नित्य है, न अविनाशी है, न अगोचर है, ये जितने शरीर तुम अर्जुन देख रहे हो, ये तो सब के सब बस विनाशी हैं। इसलिए तुम तो युद्ध करो।

तुम्हारा प्रकृति से कोई और संबंध होना ही नहीं चाहिए। देखो और पूछो यहाँ क्या है जो मेरे लिए सहायक बनेगा? मुझे तो बंधन काटने हैं, तो मैं तो युद्ध करने आया हूँ यहाँ पर। मेरा जन्म ही किसलिए हुआ है? युद्ध करने के लिए। क्यों? ऐसा नहीं कि मुझे लड़ने की कोई खुजली लगी है, जन्म हुआ ही है मेरा कारागार में, तो और किसलिए फिर मैं जन्मा? सलाखें काटने को ही तो। या स्वीकार कर लूँ कि कैद में जन्म हुआ है, ठीक है। नहीं वैसे नहीं होगा।

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्। उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।२.१९।।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक 1९

अर्थ:

जो सोचते हैं कि आत्मा मारती है, वे भी आत्मा को नहीं जानते। जो सोचते हैं कि आत्मा मर सकती है, वे भी आत्मा को नहीं जानते। आत्मा स्वयं भी नहीं मरती और किसी को मारती भी नहीं है।

भेद सिखा रहे हैं, वही तीनों के मध्य। जब कह रहे हैं कि आत्मा ना मरती है ना मारती है तो आत्मा को किससे भिन्न स्थापित कर रहे हैं? प्रकृति से। तो जो सच्चाई है उसका तो कुछ बिगड़ेगा नहीं ना अर्जुन, जो चीज़ बाण खाएगी, जो चीज़ हारेगी, जो चीज़ जीतेगी, वो तो सब सत्य से पृथक् है। दुख यदि होना भी चाहिए तो सत्य को चोट देने का या सत्य के विरुद्ध जाने का, तुम जिनके विरुद्ध जा रहे हो वो सत्य हैं ही नहीं, प्राकृतिक मात्र हैं, माया है। जो असत्य है उसके विरुद्ध जाने में कैसी ग्लानी होनी? क्यों दुखी हो रहे हो, क्यों मोहित हो रहे हो?

एक-एक बात अर्जुन को स्थापित कर रही है एक स्थान पर और वो स्थान है अहंता का। एक-एक बात जितने सामने शत्रु पक्ष में योद्धा लोग खड़े हैं सबको एक संयुक्त जगह स्थापित कर रही है, कहाँ पर? कि ये प्राकृतिक हैं, प्राकृतिक हैं। आत्मा नहीं है ये, आत्मा माने सच्चाई नहीं है ये। वहाँ कुछ है ही नहीं, तुम्हें बस प्रतीत हो रहा है या वहाँ कुछ है भी तो तुम्हारे उपयोग का नहीं है भाई। तुम तो अहम् हो जिसको आत्मा चाहिए, तुम्हें वो सब चीज़ें चाहिए ही नहीं है, तो उनके मोह में क्यों पड़ रहे हो?

आत्मा के विषय में अब क्या कह रहे हैं? ‘ना जन्मती है, ना मरती है’ और ऐसा भी नहीं है कि एक बार जन्मी है और अब जिए जा रही है। ऐसा भी नहीं है कि जात है पर अमर है कि एक बार जन्म हो गया और फिर मृत्यु होनी नहीं। जन्मी ही नहीं है, है ही नहीं। तुम जितने भी तर्क लगा लो, जितनी भी बातें सोच लो, उससे अलग है। जो भी तुम सोचोगे, वो होने के आयाम में होगा, ‘आत्मा ऐसी होती है,’ ‘अच्छा, ऐसी नहीं होती तो वैसी होती है।’ आत्मा है ही नहीं, तुम्हारे विचार की सीमा के भीतर है ही नहीं। इसी श्लोक में जिसको मैं बहुत बार उद्धृत करता रहता हूँ— ‘ना हन्यते हन्यमाने शरीरे।’

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।२.२०।।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक २०

अर्थ:

न जन्म है, न मृत्यु है, नित्य है, सनातन है। देह आती-जाती रहती है, आत्मा का क्या बिगड़ता है!

प्रकृति का बहाव है उसमें कभी कुछ आता है, कभी कुछ जाता है। जो आया था वो भी सत्य नहीं, जो गया वो भी सत्य नहीं, तुम शोक किसके लिए कर रहे हो। ना मोह करो, ना शोक करो, कर सकते हो तो प्रेम करो। और प्रेम उससे करो जो तुम्हें तुम्हारे विनाशी स्वरूप से मुक्त कर देगा।

और फिर सारी बातों का निष्कर्ष—

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् । कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ।।२.२१।।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक २१

अर्थ:

जो जानते हैं कि आत्मा का कोई विनाश नहीं है, आत्मा नित्य है, आत्मा परिणाम-शून्य है। न वो किसी से उपजी है, न उससे कुछ उपजता है। आत्मा का कोई हिस्सा नहीं हो सकता, आत्मा की कोई हानि नहीं हो सकती। अब बताओ अर्जुन कौन वध कर रहा है और किसका?

‘जो जानते हैं कि आत्मा का कोई विनाश नहीं है, आत्मा नित्य है, आत्मा परिणाम शून्य है। ना वो किसी से उपजी है, ना उससे कुछ उपजता है। आत्मा का कोई हिस्सा नहीं हो सकता, आत्मा की कोई हानि नहीं हो सकती। अब बताओ अर्जुन कौन वध कर रहा है और किसका वध कर रहा है?’ कैसा वध? किसका वध?

यदि आत्मा ही सत्य है तो बाकी जितने खड़े हैं, ये क्या है? और जो है ही नहीं उसको कैसे मिटा लोगे तुम? तो वध कहाँ हुआ और किसका हुआ? हो तो तुम भी नहीं अर्जुन पर तुम्हारे पास संभावना है कि हो सकते हो। बात सुन लो मेरी, एक हो जाओ मुझसे तो संभावना है कि हो जाओगे। ना तुम हो, ना ये जितने खड़े हुए हैं इनमें से कोई है, तो कौन वध करेगा? किसका वध हो जाएगा? कुछ आ रही बात समझ में?

प्रकृति माने जो नदी, पहाड़, बादल, आसमान दिख रहे हैं उतना ही नहीं होता, जो आपको व्यक्ति दिख रहे हैं, वो भी सारे। उन व्यक्तियों को मूल्यवान मानना आपका कर्तव्य नहीं है, व्यक्ति नहीं मूल्यवान हैं, मूल्य होता है व्यक्ति की सत्यनिष्ठा में। व्यक्ति अगर सत्यनिष्ठ है तो उसकी सत्यनिष्ठा मूल्यवान है अन्यथा वो जो हाड़-माँस का, रक्त का पिंड है उसमें अपने आप में कोई मूल्य नहीं होता। अगर आप व्यक्ति को ही मूल्यवान बना देंगे तो आपने ले-देके ये कह दिया कि जिसके पास भी देह है वो मूल्यवान हो गया। तो आपने कीमत किसको दे दी? देह को। नहीं, व्यक्ति मूल्यवान नहीं है। ये बड़ी निर्मम बात बोल दी है कृष्ण ने।

कृष्ण कह रहे हैं कि जो प्रमाणित करे दे रहा है कि सत्य को कोई निष्ठा दिखानी ही नहीं है, एकदम डट गया है, ढीठ हो गया है, वो रहे ना रहे उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता फिर। उसका होना, उसका ना होना, दोनों किसी मूल्य की बात नहीं है, वो मृत बराबर है। जिसमें सत्य निष्ठा नहीं है वो मृत बराबर हो गया। ये बात हमारे बहुत निर्ममता की, हो सकता है क्रूरता की लगे, क्योंकि हमारे देखे तो कोई व्यक्ति कैसा भी हो वो सिर्फ़ इसलिए संरक्षण का पात्र होता है क्योंकि वो व्यक्ति है, क्योंकि उसके पास देह है, इसलिए उसका मूल्य है।

कृष्ण कह रहे हैं, ‘देह का कोई मूल्य है ही नहीं।’ ये सामने जितने खड़े हुए हैं इनके जीवन का कोई मूल्य नहीं है। देह मात्र हैं, देह में क्या रखा है। हाँ, इनके जीवन का मूल्य हो सकता था अगर ये मुझ में निष्ठा दिखाते। पर अगर ये मुझमें निष्ठा दिखाते तो ये स्वयं ही अपने जीवन का मूल्य नहीं करते। फिर ये कहते, ‘जीवन गया एक तरफ, जीवन को तो हम आहुति में दे देंगे, हमें तो सत्य चाहिए।’ तो ले-देकर दोनों ही स्थितियों में जीवन का क्या मूल्य है? तुममें सत्य के लिए कोई निष्ठा नहीं है तो वैसे ही तुम मरे हुए हो और सत्य के लिए अगर तुममें निष्ठा है तो तुम स्वयं ही अपने जीवन का बहुत मूल्य नहीं करोगे।

तो अर्जुन देख लो कि इनकी निष्ठा किधर है। और तुम्हारा देह भाव है जो तुम्हें इन देहियों के मोह में डाल रहा है, नहीं तो तुम मोह कर किसका रहे हो? सामने जब कुछ मूल्यवान होता है उसके प्रति मोह करा जाता है ना। मूल्य माने? जब किसी चीज़ में मूल्य होता है तो उसके संपर्क से, उसके संसर्ग से आपका मूल्य बढ़ जाता है। इस तरीके से किसी वस्तु की मूल्यवत्ता ज्ञात की जाती है। जिसके निकट आने से आपका मूल्य बढ़ जाए वो वस्तु मूल्यवान हो गई। उदाहरण के लिए, दवा मूल्यवान है क्योंकि उसके निकट आने से आपका स्वास्थ्य सुधर जाता है। ठीक? मुकुट मूल्यवान है, आप उसको पहन लेते हैं आपका सम्मान बढ़ जाता है।

उनमें क्या मूल्य है तुम्हारे लिए बताओ ना, उनके निकट जाकर के तुम्हें क्या मिल जाएगा? तो फिर उन्हें बचाकर तुम्हें क्या मिल जाएगा? तो क्या जीने का अधिकार जैसी कोई चीज़ नहीं होती? गीता कहती है, नहीं। सिर्फ़ इसलिए कि तुम जीवित हो, हम तुम्हारे जीवन को कोई मूल्य नहीं दे सकते। इसका मतलब ये नहीं है कि हम में बड़ी आतुरता पड़ी है तुम्हारा वध करने की, लेकिन फिर भी जो सच्चाई है वो आपको बताए देते हैं। जीव का मूल्य सिर्फ़ इसलिए कदापि नहीं हो सकता कि वो साँस ले रहा है, खा रहा है, पी रहा है, उठ-बैठ रहा है, चल रहा है, सिर्फ़ इस कारण से जीव का मूल्य नहीं हो सकता है। तो इनसे मोहित होने की कोई बात नहीं।

जिसका शून्य मूल्य है, उसका वध भी क्या करना। और जिसका मूल्य है वो अवध्य है उसका वध तो वैसे ही नहीं कर पाओगे तुम। तो क्यों तुम इस कर्ताभाव में हो कि तुम वध कर रहे हो या हो रहा है किसी का वध। इनमें था क्या जिसको तुमने मार दिया, इनमें था क्या? किसी भी व्यक्ति के पास जो एकमात्र मूल्यवान चीज़ होती है, वो होती है उसकी चेतना, उसकी संभावना और इन्होंने अपनी संभावना का तो खुद ही गला घोट के मार दिया है। यहाँ खड़े हो गए हैं कुरुक्षेत्र में, उधर दुर्योधन के साथ। कौन-सी संभावना इनकी बची है! इनके लिए क्या शोक करना, ये मृत हैं। जीवन तो अमरता की माने आत्मा की संभावना में होता है, इन्होंने तो संभावना स्वयं ही त्याग दी है। तुमने इन्हें थोड़ी मारा, मर तो ये चुके हैं।

तो इसमें अहंकार के लिए क्या संदेश है? प्रकृति में जीवन नहीं है। यद्यपि इन आंखों को जीवित हमेशा प्रकृति ही लगती है। हम कहते हैं, ‘प्रकृति में दो प्रकार के पदार्थ होते हैं, जड़ होते हैं, चेतन होते हैं।’ तो हम चेतना को भी प्रकृति में अवस्थित करते हैं। लेकिन गीता बता रही है, ‘प्रकृति में जीवन नहीं है।’ वो जीवन जीवन ही नहीं है जिसके साथ मृत्यु लगी हो, तो जीवन सिर्फ़ अमरता में हो सकता है। तो जीवन फिर आत्मा मात्र में है, प्रकृति में जीवन नहीं है।

अहंकार को पूरा जीवन चाहिए और वो शायद अधिकार भी है उसका। हम बार-बार कहते रहते हैं, जीव, जीवन, ज़िंदगी; वो ऐसे इधर-उधर खोज-खोजकर नहीं मिलेगा। हाँ, प्रकृति में कोई ऐसा मिल सकता है जिसकी अमरता के प्रति निष्ठा हो। वहाँ जीवन के इशारे मिल जाएँगे, जीवन फिर भी नहीं मिलेगा। संसार में कोई ऐसा मिल गया जो आत्मा की ओर झुका हुआ है तो वहाँ से इशारे तुम्हें मिल जाएँगे कि जीवन किसको कहते हैं, जीवन तब भी नहीं मिलेगा वहाँ। जीवन तो सिर्फ़ आत्मा में ही मिलेगा। सीढ़ी से आकाश के इशारे मिलते हैं, आकाश नहीं मिलता। लेकिन अच्छा है सीढ़ी ही मिल जाए कम-से-कम, ज़मीन पर लौटने से बेहतर है।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।२.२२।।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक २२

अर्थ:

जिस प्रकार मनुष्य ख़राब हो चुके माने फट चुके जीर्ण हो चुके कपड़ों को छोड़कर दूसरे नए वस्त्र ग्रहण करता है, उसी तरीक़े से ये जो अहंकार है, जो शरीरी जीव है, वो एक शरीर के बाद दूसरा शरीर ग्रहण करता ही रहता है।

तो इन शरीर तीरों में कुछ रखा नहीं है, अभी कह रहे थे ना देह अपने आप में कोई मूल्य नहीं रखती है, मूल्य देह का है ही नहीं। देह ऐसी ही है जैसे चप्पल, उसका क्या मूल्य होगा। हाँ, उसको पहनकर के आप किसी सही दिशा चले हों, चप्पल ने सहायता कर दी हो, तो ठीक है, उस सीमा तक चप्पल की उपयोगिता हो गई, उससे अधिक कुछ नहीं है।

देहें आती-जाती रहती हैं स्वयं ही अहंकार की बेचैनी यथावत् बनी रहती है। और क्यों बनी रहती है? क्योंकि देहें आ-जा रही हैं, वो देहों में ही आत्मा तलाश रहा है। देह में आत्मा नहीं होती, देह में आत्मा नहीं होती क्योंकि देह सत्य नहीं है, आत्मा और सत्य एक हैं। और अहंकार देह में ही आत्मा खोजता है। वो देह में ही— माने जो दृश्य जगत है जिसको देखा, छुआ, अनुभव करा जा सकता है—वो उसमें ही सच्चाई तलाशता है। वहाँ नहीं है सच्चाई।

इतनी देहें अहंता बदल चुकी हैं, लेकिन फिर भी उसका अज्ञान जाता नहीं। वो अनंत देहें और धारण करती रहती है या ऐसे कह लो कि अनंत देहों में अपने आप को अभिव्यक्त करती रहती है। जैसे उसको अभी उम्मीद बची हो, किससे? देह से। इतनी देह आईं, इतनी गईं, तुम अर्जुन जो अहंता हो, क्या तुम्हें मुक्ति मिल गई? मिल गई होती तो तुम यहाँ खड़े नहीं होते ऐसे, मिल गई होती तो तुम अपने आप को जन्मा नहीं मानते। जब देही होना तुम्हें मुक्ति नहीं दे पाया तो ये सब जो देहें खड़ी हैं, इनको लेकर के मोह-शोक क्यों कर रहे हो?

देखिए, जो बात यहाँ कही जा रही है एकदम ज़मीनी तौर पर क्या है? इंसान की इंसान होने भर से कोई कीमत नहीं हो जाती, एकदम शून्य; इंसान का मूल्य है उसकी सत्यनिष्ठा में। तो थोड़ा भी इसमें संतुलन स्थापित करने का प्रयास मत करिए, ये मत कह दीजिए कि अच्छा ठीक है सत्यनिष्ठ नहीं है तो उसके मूल्य थोड़ा कम हो जाएगा, सत्यनिष्ठ है तो मूल्य थोड़ा ज्यादा हो जाएगा। नहीं, ऐसा नहीं, सत्यनिष्ठ नहीं है तो उसका मूल्य शून्य, और सत्यनिष्ठा अगर उसकी उद्दाम है तो उसका मूल्य फिर आत्मा से कम नहीं।

यही निर्मोह कहलाता है, मोह हमेशा देह के लिए होता है, सत्य मोह तो होता नहीं। निर्मोह होता है देह को देह की जगह पर रख देना। कहना, ‘इस हाड़-माॅंस से हमें नहीं लेना देना, ये हाड़-माॅंस किसी काम का हो तो इसकी इज़्ज़त करेंगे, नहीं तो कचरा है।

आपको एक गाड़ी दी गई है। बहुत शानदार दिख रही है, एकदम चिकनी है, मज़बूत, सुंदर। जो कुछ भी वांछित हो सकता है एक गाड़ी में वो सब कुछ है उसमें, बस एक चीज़ नहीं है— पहले तो कल्पना कर लीजिए ऐसी गाड़ी की, जितनी चीज़ें आप किसी गाड़ी से मांग सकते हैं उसमें सबकुछ है, सब कुछ है। दिल दे दें आप तत्काल, ऐसी गाड़ी है। कल्पना कर लीजिए, कर लिया। जितना आप माँग सके उससे ज़्यादा गुण है उस गाड़ी में और फिर आपसे कहा जाता है— बस एक छोटी सी कमी है, मंज़िल तक नहीं पहुंचाती।

आपको ये बता भी दिया जाए तो भी आपमें से बहुत लोग उस गाड़ी की बड़ी कीमत लगा देंगे। वैसे ही बीमार वृत्ति से लड़ने का प्रयास कर रहे हैं कृष्ण। बोलो, हाँ या ना? बोले, ‘सब जगह ले जाएगी, मंज़िल नहीं ले जाएगी।’ तो हम कहेंगे, ‘सब जगह ले जाएगी ठीक है, कहीं भी उल्टा-पुल्टा जा रहे होंगे, वीडियो बना लेंगे, सेल्फी बना लेंगे या आधे रास्ते तो ले जाएगी? वहाँ से आगे कुछ और कोई और दूसरी गाड़ी कर लेंगे, कुछ और करेंगे, देखेंगे। भाई, ‘मज़ा आ गया! क्या गाड़ी है।’

श्रीकृष्ण कह रहे हैं, ‘ऐसी चीज़ को शून्य महत्व देना है।’ बस यही समझाया जा रहा है, पूरे में। आकर्षक है, उपयोगी नहीं है तो मूल्य कम नहीं है, शून्य है। और चूँकि मूल्य शून्य है तो उसका वध भी तुम कहाँ कर रहे हो, वो तो पहले से ही शून्य है। कोई ऐसी चीज़ तुमने थोड़ी तोड़ दी जो पहले ही कचरे के समान थी या तुमने ख़राब कर दी। जिसका मूल्य शून्य है वो क्या हुआ? कचरा। तो तुमने थोड़ी तोड़ दिया, वो तो कचरा था पहले से।

लेकिन ये अभी भी गले से बात उतर नहीं रही होगी ना, इतनी अच्छी क्या गाड़ी है! और कीमत भी उसकी बताई जा रही है पचास लाख। पचास लाख की गाड़ी, एकदम मनोहारी तो इसकी कीमत शून्य कैसे हो सकती है? बस इसने एक छोटा सा ही तो गुनाह कर दिया है कि मंज़िल तक नहीं ले जाती, तो हम इतनी बड़ी सजा दे दें, मूल्य इसका एकदम शून्य कर दें? ऐसा करते हैं, पचास का चालीस कर देते हैं, चालीस की हो गई, चालीस की ठीक है, डिस्काउंट, और ले जाइए साहब। चालीस में आप उसे ले भी जाएँगे। ‘ये मंज़िल-वंज़िल हटाओ, चीज़ देखो, चीज़! क्या चीज़ है!’

प्रकृति के साथ भी यही होता है, हम कहते हैं, ‘चीज़ देखो ना चीज़।’ वो चीज़ आपको आपकी मंज़िल से ही वंचित रखने वाली है, इसका आपको ज़रा भी अफ़सोस नहीं होता। दिख जाए आपको ऐसे गाड़ी जैसी कोई चमकती हुई चीज़, खूबसूरत क्या उसके डिज़ाइन हैं, क्या चमक है, क्या नूर है! आहाहा! आपको बता भी दिया जाए, ‘इसमें एक बार घुस गए, मंज़िल भूल जाओ,’ तो भी क्या करोगे? घुस तो जाओगे ही जैसे हम सब घुसे हुए हैं।

कृष्ण यही बोल रहे हैं, ‘अरे!’ एक पैमाना दे रहे हैं आपको मूल्य निर्धारण का, कोई भी चीज़ सामने आए तो उसको लेकर सिर्फ़ एक सवाल पूछें, क्या?मंज़िल तक ले जाएगी कि नहीं ले जाएगी। ये नहीं पूछना है, माइलेज कितनी देती है। ये भी नहीं पूछना है रिसेल कितना मिलेगा, सर्विस सेंटर कितने हैं। सब बातें एक तरफ़, पहला प्रश्न, ‘ले जाएगी कि नहीं ले जाएगी?’ और कहे, ‘बाकी सब बहुत बढ़िया है बस मंज़िल तक नहीं हीं ले जाएगी।’ परे हट।

नींद भी एक चीज़ है। जो कुछ भी तुम्हारे अनुभव में आ सकता है, उसको विषय ही मानो, एक वस्तु। अभी अनुभव में आ रही है ना, क्या? क्या अभी अनुभव में आ रहा है? जैसे ये अभी मग है (मग को हाथ में उठाते हुए) जो मेरे अनुभव में आ रहा है। तुम्हें नींद आती है, तुम्हारे अनुभव में आती है? है तो बहुत चित्तहारी, मन को पूरा खींच लिया है।मंज़िल तक ले जाएगी? तो कोहनी मारो ना बगल वाले (झपकते हुए श्रोता) को। गाड़ी ऐसी भी नहीं होनी चाहिए कि दूसरों की गाड़ियों को लगे कि हमारे लिए बाधा है।

भाव भी क्या है? एक चीज़ है। चीज़ें बस ऐसी नहीं होती कि स्थूल ही हैं। आंतरिक भी हो सकती हैं, सूक्ष्म भी हो सकती हैं। जो कुछ भी यहाँ पर (मन में) चमके, उसके प्रति एक ही प्रश्न, क्या? मंज़िल की तरफ़ ले जाएगी या नहीं!

लेकिन उसके लिए एक ही प्रश्न कर सको कि एक शर्त होती है, मंज़िल की आतुरता तो हो। मंज़िल तक जाना ही नहीं तुमको और मंज़िल तक ले जाना नहीं उसको, तो चोर-चोर मौसेरे भाई। हमको जाना नहीं तुझको पहुँचाना नहीं, तो कैसे करते हैं बच्चे (अपने दोनों हाथ मिलाते हुए)। उसने भी ईमानदारी दिखाई, उसने बोल दिया, ‘एक बात बताऊँ,’ क्या? ‘मैं हूँ तो बहुत सही, मस्त चीज़, बस मुझे पहुँचाना नहीं।’ तो आप बोले, ‘मैं भी एक बात बताऊँ,’ और आँख मार के बोले,’ मुझे जाना नहीं।’ तुझे पहुँचाना नहीं, हमें जाना नहीं। जब हमें जाना होता है तब ये सवाल गूँजता है,’ये चीज़ ले भी जाएगी?’

बारिश हो रही है, रात बहुत हो गई है और ठंड भी है बहुत। सड़क पर खड़े हुए हो, टैक्सी तलाश रहे हो— मान लो, ओला -ऊबर का ज़माना नहीं है— गाड़ियाँ बहुत आ-जा रही हैं, एक निकलेगी मस्त गाड़ी, जी उसमें लग जाएगा? देखते रहोगे कि क्या गाड़ी है? तुम तो टैक्सी खोज रहे हो, तुम्हारे पास तो बस एक पैमाना और एक सवाल होगा,क्या? ‘जाएगी क्या?’ लेकिन यही एक सवाल बचे इसके लिए मंज़िल की आतुरता होनी चाहिए। और मंज़िल की आतुरता तब होती है जब पता लगे कि बारिश बहुत हो रही है, ठंड लग रही है, कष्ट है, कष्ट है, यही पता चले कि कष्ट है।

जिसे सुख पता चल रहा हो— कई तरीके के सुख होते हैं, नशे का सुख, बेहोशी का सुख—जिसे सुख पता चल रहा हो, वो काहे को कहेगा कौन सी गाड़ी ले जाएगी, कौन सी नहीं ले जाएगी? बच्चा माँ की गोद में सो गया है, उसको तो वहीं सुख मिल गया। वो बच्चा फिर पूछता है क्या कि कौनसी टैक्सी मुझे घर ले जाएगी? अब कहीं बाहर होते हैं, आप परेशान हो रहे होते हैं, घर कैसे पहुँचेंगे, और बच्चा क्या कर रहा है? वो सो गया। उसको तो वहीं सुख मिल गया, बीच रास्ते में ही। वो काहे को पूछेगा कि मंज़िल तक जाएँगे कि नहीं जाएँगे?

तो ये एक पैमाना वही लोग रख पाते हैं जो मझधार में फँसे हों और दुख का अनुभव कर रहे हों। बच्चे को नींद आ गई है, बच्चे को सुख मिल गया, बच्चा काहे को कहेगा कि मुझे मंज़िल चाहिए, बताओ। लेकिन वो जो माँ है जो बच्चे को लेकर खड़ी है, बारिश हो रही है, वो नहीं देखेगी कि बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ कौनसी जा रही हैं, सड़क पर क्या माहौल चल रहा है, क्या है। उसकी आँखें तो बस टैक्सी तलाश रही हैं। उसके पास हर वाहन के लिए बस एक ही प्रश्न है। क्या? मंज़िल तक पहुॅंचाओगे? ये सब आते-जाते वाहन क्या है? प्रकृति।

रसोई में चूहेदानी रखी गई। उसमें चूहा गया फँस और रसोई में फ्रिज भी है, माइक्रो ओवन भी है, मिक्सर भी है। चूहा कह रहा है—फँसा हुआ है चूहा— ‘क्या चीज़ है भाई, कटिंग एज!’ वो फँसा पड़ा है, तभी रसोई में और भी कोई चीज़ लाई गई तो क्या बोल रहा है वो, ‘ये चीज़ तो ज़बरदस्त है!’ क्या बोलोगे उसको? क्या बोलोगे? क्या बोलोगे? ‘तेरे किस काम का है?’ तो तुम क्यों बिल्कुल बावले होते रहते हो जब दुनिया में तरह-तरह की प्रकार-प्रकार की अतरंगी चीज़ें आती हैं? क्या चीज़ है? क्या चीज़ है? चूहेदानी के अंदर है, पूँछ उसकी फँसी हुई है फाटक में, और कह रहा है, ‘ये नई कंपनी आई है मार्केट में, इसके उपकरण दस प्रतिशत ज़्यादा ऊर्जा बचाते हैं।’ भाई तुझे क्या लेना-देना, तू अपनी देख।

अहंकार के साथ यही समस्या है, अपनी नहीं देखता। अपनी देखने को शास्त्र में क्या बोलते हैं? आत्मज्ञान। चूहे को आत्मज्ञान नहीं है, उसकी आँखें उसको ऐसे दिखा रही हैं रंगीनियाँ (चारों तरफ़ देखते हुए) और वो उसमें मगन हुआ जा रहा है। तुझे क्या मिल गया उससे, तुझे क्या मिल गया? कि कुछ मिल गया? पर ये भाव बचपन से ही होता है, छोटे बच्चों की परीक्षाऍं होती हैं, वो पढ़ाई नहीं कर रहा— दूसरी में, तीसरी में है — वो कह रहा है है, ‘नहीं, क्रिकेट आ रहा है, मैं क्रिकेट देखूँगा टीवी में।

तो माँऍं उनको बोलती हैं, ‘एक टीम हारेगी, एक टीम को ट्रॉफी मिलेगी, तुझे क्या मिलेगा?’ तुझे बस मनोरंजन मिला। तू अपनी स्थिति नहीं जानता। जो अपनी स्थिति नहीं जानता वो बस मनोरंजन माँगता है। तुझे थोड़ी देर के लिए बेहोश होने में और सहायता मिल गई। तुझे ग़ाफिल होने में सहूलियत मिल गई। आपके घरों में हुआ है ऐसा? बोला होगा माँ-बाप ने कई बार कि वो तो खेल रहे हैं तो उन्हें पैसा मिलेगा, तुम उन्हें देख रहे हो, तुम्हें क्या मिलेगा?

कैसा अजीब सवाल है। वो बड़ा आध्यात्मिक सवाल है, पुरुष से किया जा रहा है, ‘प्रकृति में जो भी कुछ चल रहा है उसमें मुँह डाल के तुझे मिलेगा क्या?’ बोल रहा है, ‘ये तो अभी होश नहीं है सोचने का। मिलेगा क्या पता नहीं लेकिन मज़ा बहुत आ रहा है।’

इसी चीज़ को समझाने के लिए विद्वान लोग कहा करते हैं ये दो-तीन शब्द इनसे बचना— रुचि, झुकाव, इंटरेस्ट, पैशन। ये सब-के-सब किसी ओर के होते हैं? किसके होते हैं? अहंकार और प्रकृति के मध्य ये रिश्ता नहीं होना चाहिए। क्या? रुचि, झुकाव, लगाव, इंटरेस्ट पैशन। इन सब शब्दों से बिल्कुल परे और बिल्कुल ऊपर है एक शब्द जिसका नाम है प्रेम और वो होना चाहिए आत्मा से। मूर्ख आदमी इंटरेस्ट और पैशन की भाषा में बात करता है, ज्ञानी मात्र प्रेम की भाषा में बात करता है। अज्ञानी प्रकृति में मन लगा देते हैं और ज्ञानी आत्मा में मन गँवा देते हैं। ये अंतर समझाना, बहुत अंतर है।

दुनिया में तुम कह सकते हो दो ही तरह के लोग होते हैं— एक इंटरेस्ट (रुचि) वाले लोग और एक लव (प्रेम) वाले लोग। वो कहते हैं न, ‘मैं इस सेक्टर में इंटरेस्टेड हूँ, मैं इस फील्ड में इंटरेस्टेड हूँ।’ ये, ये यही है वो जो चूहेदानी में बैठा था। चूहेदानी में बैठकर के वो बहुत इंटरेस्ट दिखा रहा है कि आजकल माइक्रो-वेविंग में नई-नई टेक्नोलॉजी क्या आ रही हैं। काहे भाई, तुझे ही पकाया जाएगा अंदर, अपनी हालत देख! चूहेदानी में बैठ कर के पूरी रुचियाँ दिखा रहा है कि यहाँ क्या हो रहा है। जैसे किसी का घर जल रहा हो और वो बैठ के टीवी देख रहा हो कि अमेरिका में जो चक्रवात आया था उससे किसी को कोई परेशानी तो नहीं हुई। आ रही है बात, समझ में?

आपको काहे में इंटरेस्ट है? ये आज के युग के बड़े माननीय शब्द हैं — पैशन, इंटरेस्ट, इंक्लिनेशन (झुकाव)। कुछ जम रही है बात?

यही दोनों बातें ज्ञान पर भी लागू होती हैं। एक ज्ञान होता है जो रुचि के कारण आता है और एक ज्ञान होता है जो प्रेम के साथ आता है या प्रेम को साथ लाता है। मैं किसी क्षेत्र में रुचि रखता हूँ तो मैंने वहाँ का ज्ञान हासिल किया, शेयर मार्केट का, ये एक चीज़ है। और दूसरी चीज़ है कि आजादी चाहिए तो अपनी ही गुलामी के तारों को समझना है, भीतर कहाँ गुत्थी पड़ी हुई है, कहाँ फँसे हुए हैं, ये जानना है। वो बिल्कुल अलग बात है।

चूॅंकि ज़्यादातर लोग ज्ञान रुचि के कारण ही हासिल करते हैं, उसका परिणाम ये हुआ कि इतिहास में ज्ञानी शब्द ही रूखेपन का पर्याय बन गया। और ये बिल्कुल होगा कि आपकी जिस क्षेत्र में रुचि हो जाएगी माने प्रकृति के जिस विषय में आपको आकर्षण हो जाएगा, आप उसका ज्ञान तो हासिल करने ही लगेंगे।

भाई, मक्खी को मीठा चाहिए तो वो जलेबी के इर्द-गिर्द मंडराने लगती है ना। तो ये क्या कर रही है? वो एरियल सर्वे कर रही है। काहे के लिए? वो ज्ञान प्राप्त कर रही है कि किस तरीके से, वहाँ से कुछ दो-चार छोटे-छोटे कण उठा लिए जाएँ। जहाँ आपका लोभ है वहाँ का आप ज्ञान अर्जित करने को आतुर हो ही जाओगे लेकिन उससे प्रेम तो आएगा नहीं। तो ज्ञानी और प्रेमी फिर आमजन की दृष्टि में दो अलग-अलग लोग हो गए। आप समझ रहे हो अध्यात्म में दो मार्ग क्यों बताए जाते हैं, ज्ञानमार्ग और प्रेममार्ग? वो जो दो अलग-अलग हैं उनमें ज्ञान में ज्ञान नहीं है और प्रेम में प्रेम नहीं है। ज्ञान में ज्ञान होगा तो वो प्रेममार्ग बन जाएगा और प्रेम में प्रेम होगा तो ज्ञानमार्ग बन जाएगा।

जब ज्ञान और रुचि एक होते हैं तो ज्ञानमार्ग प्रेममार्ग से अलग होता है। लोग देखे होंगे, चलते-फिरते इंसाइक्लोपीडिया जैसे होते हैं, वो कुछ नहीं है। वो कोई ऐसी चीज़ उठाकर के पढ़ रहे हैं जहां उनका स्वार्थ बैठा हुआ है जैसे मक्खी का जलेबी में, तो वो जलेबी-विशेषज्ञा हो गई। इनको सब पता है हलवाई की दुकान में कौन-कौन से छेद हैं, कहाँ-कहाँ से घुस सकते हैं। कौन-से शेल्फ़ में किस तरह की मिठाई रखी है, कितने दिन में क्या सड़ जाता है, कौन-सी नाली में डाला जाता है, सब उसको पता है, एकदम स्पेशलिस्ट। ये सब क्यों जाना उसने? क्यों जाना?

तो एक ज्ञान होता है जो स्वयं विषय बन जाता है और एक ज्ञान होता है जो विषयों से आज़ाद कर जाता है।

जैसे कह रहे हैं कि देह होने भर से कोई चीज़ मूल्यवान नहीं हो गई, कोई व्यक्ति देही होने भर के कारण मूल्य नहीं रखता वैसे ही समझ लो कि ज्ञान भी अपने आप में कोई मूल्य नहीं रखता है। ना ज्ञानी अपने आप में कोई मूल्य रखता है। प्रश्न ये है कि वो ज्ञान उसके पास है क्यों? वो ज्ञान भी सत्यनिष्ठा रखता है कि नहीं? उसका ज्ञान सच्चाई की दिशा में इस्तेमाल हो रहा हो, तो उसका ज्ञान पूजनीय है। उसका ज्ञान बस उसके स्वार्थ के लिए हो तो किसी को यूँ ही आदर मत दे देना कि इसको तो बहुत पता है, होगा बहुत पता।

मक्खी ने बहुत पता कर लिया, बहुत पुरानी मक्खी है, दो-सौ करोड़ साल पुरानी मक्खी है। शोध कर-कर के ऐसे-ऐसे उसने राज़ जान लिए जलेबी के, तो? रही तो मक्खी ही ना। ज्ञानी मक्खी है, तो सिर पर बैठा लें? पहले भी दुत्कारी जाती थी, अभी भी दुत्कारेंगे। और यही कह रहे हैं कृष्ण अर्जुन को, ‘दुत्कार दो ना, कहाँ तक उनकी देह को सम्मान देने लग गए, दुत्कार दो।’

ये आध्यात्मिक आदमी की एक पहचान होती है, शिष्टाचार उसको बड़ा विचित्र सा लगता है, एक स्वस्थ अ-सम्मान उसमें आप हमेशा पाऍंगे। वो यूँ ही मन रखने के लिए या मान रखने के लिए विनीत, विनम्र नहीं हो पाएगा। जब उसको दिख ही रहा है कि फलानी चीज़ का कोई मूल्य नहीं है तो कितना अभिनय करे कि जैसे मूल्य है। दुनिया की दृष्टि में उसे अशिष्ट होना पड़ेगा क्यूंकि दुनिया चाहती है कि बोल दो कि देह है तो मूल्य है, उसको मूल्य दिख ही नहीं रहा है।

तो या तो वो मौन रह जाएगा, नहीं तो जैसे ही मुँह खोलेगा पकड़ा जाएगा कि देखो, तुम मूल्य नहीं देते हो। तो फिर से या तो मौन रह जाएगा, या बोल दे, हाँ, देते तो सचमुच नहीं हैं।’ वो कह रहे हैं, ‘हमें बुरा लग रहा है ऐसी बात कर रहे हो।’ तो फिर से या तो मौन रह जाए या बोल दे, ‘अब लग रहा है बुरा तो लगे, क्या करें।’ वो कहेंगे, ‘अक्खड़ है है, मुँहफट है।’ ये आध्यात्मिक आदमी एक चीज़ विकसित होने लगती है, उसकी सहज बात भी दुनिया को चुभने लगती है, उसने बोला नहीं चुभने के लिए।

और अर्जुन, तुम्हारे लिए शुभ संदेश और हैं, आत्मा के कोई अंग नहीं होते। आत्मा कई हिस्सों को एक साथ लाकर के जोड़ी हुई या गुथी हुई कोई वस्तु नहीं है, निर्-अवयव है तो टूटती ही नहीं है। कुछ टूट सके इसके लिए आवश्यक है कि वो वस्तु ही जोड़ी हुई हो। जो कईयों का संकलन होगा उसको ही तोड़ा जा सकता है, जो अविभाज्य है, उसका विभाजन कैसे करोगे? इनडिविज़िबल है आत्मा, प्राइम है आत्मा।

मज़ेदार बात है, अंग्रेजी में प्राइम माने जो इनडिविज़िबल है उसके दो अर्थ होते हैं। एक तो ये कि वो विभाजित नहीं हो सकता, दूसरा कि वो श्रेष्ठ है, शीर्ष है। इससे क्या पता चलता है? जो बट नहीं सकता वही प्राइम है, श्रेष्ठ है, शीर्ष है। तो आत्मा क्या है? आत्मा के लिए एक नया शब्द मिल गया। क्या? हिंदी में कहते हैं पी से परम और अंग्रेज़ी में पी से प्राइम।

तो अर्जुन, निर्-अवयव होने के कारण काट नहीं पाओगे इसको, जला नहीं पाओगे, गला नहीं पाओगे। श्लोक समझ गए कौन सा है?

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत ।। २.२३ ।।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक २३

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च । नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।। २.२४ ।।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक २४

अर्थ:- जला नहीं पाओगे, गला नहीं पाओगे, सुखा नहीं पाओगे। आत्मा सर्वव्यापी है, स्थिर है, नित्य है, निश्चल है, अनन्त है, सनातन है।

आचार्य प्रशांत: ‘जला नहीं पाओगे, गला नहीं पाओगे, सुखा नहीं पाओगे।’ आत्मा सर्वव्यापी है, स्थिर है, नित्य तो है ही, निश्चल है, अनंत है, सनातन है।’ तो कोशिश मत करो। ये नहीं होगा कि धोखे से आत्मा को मार दिया। जो मर सकते हैं, उनको बेखट के मारो, आत्मा को लेकर निश्चिंत रहो उसका कुछ नहीं बिगड़ने वाला। सत्य को तुम क्या मार दोगे? तुम तो उसको मार दो जो सत्य की राह में बाधा है, तुम उसको मार दो जो सत्य की राह में बाधा बनने के कारण स्वयं ही मृत है।

देखिए, एक यहाँ पर समीकरण रख दिया है कृष्ण ने जिसको समझना बहुत जरूरी है। कह रहे हैं, ‘ज़िन्दा होने का मतलब है आत्मस्थ होना, और दूसरी कोई परिभाषा चलेगी नहीं, हम अस्वीकार करते हैं।’ तो ज़िन्दा कृष्ण मान बस उसको रहे हैं जो आत्मस्थ हो। अब आपको गीता पढ़नी है आगे तो ये परिभाषा कर लें स्वीकार। जो आत्मा में है बस वही ज़िन्दा है बाकियों को ये कह दो कि चलते-फिरते मुर्दे हैं, साँस ले रहा है पर ज़िन्दा नहीं है।

जैसे गुरुदेव ने बोला था, ‘जैसे खाल लौहार की साँस लेत बिनु प्राण।’ वो ऐसों के लिए ही है। कोई पूछे, कैसे हैं? बोले, ‘चल फिर रहे हैं।’ ये मत कहा करो कि ज़िन्दा हैं। जिनका पता है कि सत्य से, कृष्ण से कोई लेना ही देना नहीं है, वो कैसे हैं? ज़िन्दा है? नहीं, उस पर हम मौन रहेंगे, कुछ बोल देंगे तो बात लग जाएगी। अरे! मर तो बहुत पहले गए थे। अब ये बात भी हमने गलत बोल दी, मरेंगे तो तब ना जब कभी पैदा हुए हों। तो ऐसे ही है, कोई चीज़ है जो लुढ़क-पुढ़क रही है, वस्तु है कोई प्रकृति में जो हिलती है। हवा चलती है, ये भी चलते हैं। इतनी चीज़ें हैं जो गतिशील हैं इस जगत में, ये भी गतिशील हैं, तो ज़िन्दा थोड़ी है ये। कि ज़िन्दा है?

ये कैमरा मुझे देख रहा है, ऐसे ये भी देख रहे हैं (एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए) तो इसका मतलब ये थोड़ी है कि इनके पास आँख है, देखता तो कैमरा भी है। और पीछे उधर वाली कुर्सी खाली पड़ी है, इधर की दो खाली पड़ी हुई है। इनमें एक पर झींगूर, एक पर तिलचट्टा बैठा है। वैसे ही इतनी कुर्सियों पर इतने लोग बैठे हैं, उनको ज़िन्दा थोड़ी बोल देंगे। कुर्सी पर तो धूल भी बैठती है। तो सिर्फ़ इसलिए कि तुम कुर्सी पर बैठे हो, जीवित थोड़ी कहलाओगे। धूल भी बैठी है, जीवित हो गई क्या? कहे, ‘नहीं, हम तो ऐसे हिल-डुल रहे हैं।’ अभी पंखा चला दूँ तो धूल भी हिलेगी-डुलेगी कुर्सी पर बैठे-बैठे तो जीवित मान लें?

‘नहीं, आए हैं।’ ठीक है, दिल रखने को इतनी सी ही बात बोलेंगे, आगे हम बोलेंगे ही नहीं। आए हैं, ये नहीं कहेंगे कि ज़िन्दा है। दरवाज़ा खुला, कुछ अंदर आया। ये भी नहीं कहेंगे, ‘कोई अंदर आया,’ कोई से जीव का भान होता है। भाषा हमारी अगर ईमानदार होती तो ‘ही’ ‘शी’ की जगह ‘इट’ में बात करती। इट इज़ सिटिंग ऑन चेयर ( ये कुर्सी पर बैठा है) और सिटिंग भी क्या बोलना, सिटिंग से ऐसा लगता है जैसे कोई चैतन्य एजेंसी (सत्ता) हो, तो इट इज़ लाइंग ऑन चेयर (ये कुर्सी पर पड़ा है) या इट इज़ प्लेस्ड ऑन चेयर (ये कुर्सी पर रखा हुआ है), दैट थिंग प्लेस्ड ऑन चेयर (वो वस्तु कुर्सी पर रखी हुई है)।

तो जड़ और चेतन का जो भेद है कृष्ण उसको पुनर्भाषित कर रहे हैं। कह रहे हैं, ‘उठना-बैठना, चलना, बात करना, देखना-सोचना इन सबसे चैतन्य नहीं हो जाते। जब चेतना कृष्ण-मुखी है तब चैतन्य हो। ऐसी चेतना जो कृष्ण की ओर नहीं देख रही है उसको तुम अचेतना ही मानो, वो जड़ता ही है।’

समझ में आ रही है बात ये?

तो चेतना क्या है? ज़िन्दा है कि मुर्दा है? मुर्दे की ओर देख रही है तो मुर्दा है और जो जीवन है उसकी ओर देख रही है तो तो ज़िन्दा है। हम नहीं बताऍंगे, ये तो चेतना को स्वयं बताना है वो जीवित है या मृत है। जड़ पदार्थों की और देख रही है— जड़ पदार्थों में ये सब जितने जड़-जीव घूम रहे हैं ये भी आते हैं— इनकी ओर देख रही है चेतना तो जड़ है। जिसकी ओर देख रही है, वैसी है।

आ रही है बात समझ में?

दो लोग चले आ रहे हैं, दोनों शरीरधारी हैं। दोनों बराबर हैं? जल्दी बोलिए। दो आए हैं, दोनों को कुर्सी दिखा दें कि आइए बैठिए दोनों लोग? दोनों को नमस्कार कर लें? दोनों को पानी पिला दें? कहिए? क्यों नहीं? क्योंकि कैसी बराबरी कर दी आपने, बस देह की बराबरी कर दी। आँखें होती तो आपको दिखाई देता कि एक देवता है, एक कुत्ता है। दोनों को अगल-बगल आसन दे दोगे? दोनों ने शरीर इंसान का ओढ़ रखा है पर एक है देवता और एक है कुत्ता। तो दोनों को अगल-बगल बैठा दोगे? नहीं न। यही कह रहे हैं कृष्ण, ’इंसान और इंसान को समान मानना छोड़ दो। और अपने आप को विशेष मानना या विशेषाधिकार देना छोड़ दो, सिर्फ़ ये सोच के कि तुम इंसान हो,’ नहीं।

मनुष्य की देह होने भर से आपको कोई विशेषाधिकार नहीं मिल जाता, यहाँ तक कि आपको जीवित कहलाने का अधिकार भी नहीं मिल जाता। सम्मान इत्यादि का अधिकार तो बहुत दूर की बात है, ये अधिकार भी नहीं मिलेगा कि कहा जाए कि ज़िन्दा हो।

तकलीफ़ हो रही है कुछ आज? कह रहे हैं, ‘अभी तक तो यही कहते थे बुरे हो, नीच हो, पापी हो, अधम हो, आज कह दिया ज़िन्दा नहीं हो।’ अब जैसे काम कर रहे हो दो-चार दिन से तो मुश्किल है कह पाना कि ज़िन्दा हो। ज़िन्दा भी हो कि नहीं वो तुम्हारी चेतना तय करेगी, चेतना के होने भर से नहीं ज़िन्दा हो गए, चेतना के कृष्ण मुखी होने से ज़िन्दा कहलाओगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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