सिर्फ़ उनके लिए जिन्हें अपने माँ-बाप पसंद नहीं || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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सिर्फ़ उनके लिए जिन्हें अपने माँ-बाप पसंद नहीं || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, एक बेटे या बेटी का माँ-बाप के प्रति क्या ऋण होता है? मेरे पिता भ्रष्ट व्यक्ति हैं, मुझे पसंद नहीं हैं। लेकिन बार-बार यह ऋण चुकाने वाली बात मन पर हावी हो जाती है। कुछ कहें!

आचार्य प्रशांत: संतान का और माँ-बाप का रिश्ता दो तलों पर होता है। पहला तल है- शरीर का। आपको शरीर माँ-बाप से मिला है और इस रिश्ते में एक बात बिलकुल निर्णित रहती है, एकदम तय कि शरीर तो माँ-बाप से ही मिलेगा।

दूसरे तल पर जो रिश्ता होता है- वह चेतना का होता है। आपकी चेतना को कितनी स्पष्टता, कितनी सफ़ाई, कितनी ऊँचाई माँ-बाप से मिली, इस तल पर बात कुछ तय नहीं रहती। कुछ पक्का नहीं है कि माँ-बाप बच्चे को मानसिक तौर पर, चेतना के तल पर कितना सहयोग, कितनी सामर्थ्य, कितनी ऊँचाई दे पा रहे हैं।

इन्हीं दोनों तलों के योग से तय होता है कि मातृऋण-पितृऋण क्या है और कितना है।

शरीर के तल पर तो बात सीधी है, तयशुदा है। कोई भी बच्चा जन्म माँ-बाप से ही लेता है। जैसे उसको शरीर माँ-बाप से मिला है, जैसे उसे अपना भौतिक अस्तित्व माँ-बाप से मिला है, उसी तरीक़े से माँ-बाप को शारीरिक तल पर सेवा देना, सहयोग देना बच्चे की ज़िम्मेदारी है। बच्चे की भौतिक हस्ती ही माँ-बाप से आयी है, तो माँ-बाप की भौतिक ज़रूरतें पूरी करना संतान का दायित्व हुआ। इस दायित्व से पीछे नहीं हटा जा सकता। यह दायित्व निश्चित रूपेण है।

संतान बड़ी होती है, माँ-बाप तब तक प्रौढ़ हो रहे होते हैं, फिर वृद्ध हो जाते हैं। उनको भौतिक, शारीरिक, आर्थिक सहयोग की ज़रूरत पड़ने लग जाती है। संतान का दायित्व है कि उस तल पर उनको जितना सहयोग दे सकता है, दे। पर याद रखा जाए कि मैंने ज़रूरतों की बात करी है, माँगों की नहीं।

जब बच्चा अभी छोटा होता है, तो माँ-बाप इतना तो ख़्याल रखते ही हैं कि जो उसकी वाज़िब, वैध ज़रूरतें हैं, उनको ही पूरा करें। अगर बच्चे की सब ऊँची-नीची, ऊल-जलूल, ऊटपटांग माँगें माँ-बाप मानने लगें, तो वो अच्छे माँ-बाप नहीं कहलाएँगे।

चॉकलेट भौतिक चीज़ ही होती है न? अब बच्चा कह रहा है, 'मुझे चॉकलेट ही चॉकलेट चाहिए। पचास अलग-अलग तरह के खिलौने चाहिए।' और माँ-बाप वो सब कुछ उसको दिलवाना शुरू कर दें, तो इसमें प्रेम नहीं है। यह तो मूढ़ता हो गई।

उसी तरीक़े से संतान का दायित्व यह निश्चित रूप से है कि जैसे बच्चे की ज़रूरतें माँ-बाप ने पूरी करी थी, वैसे ही माँ-बाप की ज़रूरतें संतान पूरी करे लेकिन विवेक का इस्तेमाल करके। जैसे बच्चे की हर माँग जायज़ नहीं होती, वैसे ही माँ-बाप की भी हर भौतिक माँग जायज़ नहीं होती।

भला हो कि माँ-बाप में इतना विवेक हो कि वो कोई अवैध, अवांछित, अनुचित माँग करें ही नहीं। क्योंकि छोटा बच्चा अगर कोई मूर्खता पूर्ण माँग करता है तो उसे माफ़ किया जा सकता है – बच्चा है, छोटा है – पर माँ-बाप अगर अनाप-शनाप माँगे करना शुरू कर देते हैं संतान से, तो यह बात कुछ समझ में आने वाली नहीं है।

तो मामला ज़रा सूक्ष्म है और अभी हम सिर्फ़ भौतिक तल की बात कर रहे हैं, और हम कह रहे हैं कि भौतिक तल पर ऋण निश्चित रूप से है, क्योंकि यह जो बच्चा है छोटा, इसने बहुत कुछ लिया है।

आप यदि यह दलील भी दें कि जब छोटा बच्चा ले रहा था, तब तो उसमें लेने या न लेने का चयन करने की क्षमता ही नहीं थी। तीन साल का बच्चा है, वह यह चुनाव भी कैसे कर सकता है कि उसे कितना लेना है, कितना नहीं लेना है; तो भी यह दलील बहुत दूर तक नहीं जाती है क्योंकि दस साल, बारह साल, चौदह साल का होते-होते तो संतान इस हालत में पहुँच ही जाती है कि उसे पता होता है कि वो माँ-बाप से कितना ले रही है।

तो यह जो ऋण लिया जाता है माँ-बाप से, यह अनजाने में ही नहीं लिया जाता; यह जानते-बूझते भी लिया जाता है। बीस-बीस साल वाले, पच्चीस-पच्चीस साल वाले माँ-बाप के सामने खड़े हो जाते हैं– 'इतना पैसा दो।' कभी तो पढ़ाई के लिए माँग लेते हैं, कभी व्यापार के लिए माँग लेते हैं, और कई बार तो बस यूँही मौज-मस्ती के लिए।

तो ऋण तो निश्चित रूप से है। आपने जो लिया है धन, वह आपको लौटाना चाहिए ही। और वह जो आपने लिया है, वह आपने काफ़ी लिया है। आप कहेंगे, 'गिनती क्या है?' कोई गिनती करने की ज़रूरत नहीं है। जैसे आपकी ज़रूरतों का ख़्याल रखा गया, वैसे ही आप उनकी ज़रूरतों का ख़्याल रख लीजिए। मैं अभी भौतिक तल की बात कर रहा हूँ, इतना काफ़ी है।

लेकिन साथ में हमने सावधानी भी बरतनी है कि ख़्याल ज़रूरतों का ही रखा जाए, अन्यथा मन की माँगों की तो कोई सीमा नहीं होती। ठीक है?

अब आते हैं चेतना के तल पर। कोई भी इंसान जितना शरीर होता है, उससे ज़्यादा वह चेतना होता है। ठीक है? तो एक व्यक्ति पच्चीस-तीस-पैंतीस की उम्र में जो बन गया है, उसमें उसके शरीर का कुछ हिस्सा है, लेकिन आप जो कुछ भी हैं आपके अस्तित्व की पूर्णता में, आपकी आइडेंटिटी की टोटैलिटी में, हम कह रहे हैं– ज़्यादा बड़ा हिस्सा आपकी चेतना का है।

और यहाँ पर बात कुछ निश्चित नहीं होती है कि आपकी चेतना को कितना योगदान माँ-बाप से मिला है। ज़्यादातर मामलों में व्यक्ति की चेतना को बहुत योगदान उसके माता-पिता देते नहीं। देना चाहिए, देते नहीं; खेद की बात है।

तो वहाँ पर क्योंकि योगदान हुआ नहीं, इसलिए कोई ऋण बना नहीं। जब मिला ही नहीं तो कर्ज़ काहे का? कर्ज़ की बात तो तब होती है न जब कुछ मिला हो। चेतना के तल पर अगर संतान को अपने अभिभावकों से कुछ मिला ही नहीं या बहुत कम मिला या कई बार तो जो मिला वह विकृत और विषैला मिला, तो ऋण कैसा? ऋण कैसा?

तो उस तल पर अनिवार्य, निश्चित कुछ नहीं है कि कोई ऋण है भी। उस तल पर तो आपको निर्णय करना पड़ेगा कि एक व्यक्ति के तौर पर एक सचेतन वयस्क युवा बनने की प्रक्रिया में आपको अपने अभिभावकों से कितना सहयोग मिला है। और जो मिला है, वो फिर एक विशेष तरह का ऋण होता है।

भौतिक तल पर तो ऋण बहुत सीधा होता है कि रुपया लिया है, रुपया लौटाओ। चेतना के तल पर जो मिलता है, वो एक अलग तरह का ऋण होता है। वहाँ क्या करना होता है? वहाँ यह करना होता है कि अगर पाया है, तो बाँट दो।

क्योंकि उसको लौटाओगे कैसे? जिसने तुमको दिया, उसके पास पहले से है तभी तो तुम्हें दिया; उसको तुम लौटा कैसे दोगे? माँ-बाप आपके ऊपर रुपया लगाते हैं, तो उनका रुपया घट जाता है; पर माँ-बाप अगर आपको ज्ञान देते हैं, तो उनका ज्ञान घट नहीं जाता न।

तो रुपया अगर आपको मिला है, तो प्रेम के नाते, ज़िम्मेदारी के नाते, आपको वो रुपया वापस लौटाना है। चाहे उसे कर्तव्य मान लो, चाहे उसे प्रेम मान लो।

लेकिन अगर आपको ज्ञान मिला है, गहराई मिली है माँ-बाप से, तो उसको लौटाने का कोई सवाल नहीं उठता; वो लेंगे ही नहीं वापस, वो ले सकते ही नहीं वापस। ये चीज़ ऐसी नहीं है जिसे वापस लौटाया जा सके। तो फिर इसे क्या करना होता है? इसे बाँटना होता है। यही‌ माँ-बाप के प्रति सच्ची निष्ठा होती है। उनसे‌ आपने जो पाया, उसके अनुग्रह की यही सच्ची अभिव्यक्ति होती है।

लोग भी देखा नहीं है कैसे पूछते हैं, 'इतना अच्छा काम कर रहा है, बताओ! किसकी औलाद है?' यह क्यों पूछ रहे हैं वो? आप कोई बहुत अच्छा काम कर दें, तो कई बार टिप्पणी आती है– 'धन्य हैं वो माँ-बाप, जिन्होंने ऐसे लाल को जन्म दिया!' यह टिप्पणी क्यों आती है? यह आप परोक्ष रूप से अपनी ऋण अदायगी कर रहे हैं। आपने दिया एक तीसरे को और धन्यवाद मिला माँ-बाप को। दिया आपने किसी तीसरे को, और धन्यवाद किसको मिल रहा है? आपके माँ-बाप को मिल रहा है। यह मामला जमा! यह बात मस्त है न कुछ!

मैं चाहता हूँ, हर संतान अपना ऋण इन दोनों तरीक़ों से उतारे। माँ-बाप की कोई शारीरिक आवश्यकताएँ हैं, उन्हें अस्पताल ले जाना है, उनको धन की ज़रूरत है, और संतान ऐसे मौके पर पीठ दिखा दे, तो धिक्कार है।

तुम्हें एक दिन, रात में भूख लग जाती थी, तुमने रात में दो बजे सोते से अपनी माँ को उठा दिया होगा। कभी रात में तीन बजे अपने पिता को बोला होगा, 'जाओ! वहाँ रेलवे स्टेशन पर गोलगप्पे मिलते हैं, वहाँ से लेकर के आओ।' वो बेचारे भागते चले गये और अब अगर उनको किसी बात के लिए तुम्हारी शारीरिक उपस्थिति की ज़रूरत है और तुम कहते हो, 'नहीं साहब, हम आपके काम नहीं आ सकते।' तो यह बात ठीक नहीं है।

तो भौतिक तल पर ऋण लौटाइए। उसका तरीक़ा यह है कि अगर रुपये की ज़रूरत है, आपकी शारीरिक उपस्थिति की ज़रूरत है, आपके किसी और सहयोग की ज़रूरत है, तो दीजिए। लेकिन वह बात वहीं ख़त्म हो जाती है। हमने कहा, उस तल पर ज़रूरतों का ख़्याल रखना है; माँगों का नहीं। ठीक है?

जैसे माँ-बाप यह देखते हैं न, निर्णय करते हैं न कि बच्चे की कौनसी माँग पूरी करनी है और कौनसी माँग पूरी नहीं करनी है, है न? क्योंकि माँ-बाप वयस्क थे तब, तो उनके पास विवेक की क्षमता थी कि वो देख सकते थे कि बच्चे की कौनसी माँग माने, कौनसी नहीं।

वैसे ही बच्चा भी जब वयस्क हो जाए, तो उसे भी माँगे मानने से पहले अपने विवेक का इस्तेमाल करना पड़ेगा कि इनकी कौनसी माँग माननी है और कौनसी माँग नहीं माननी है। आप सारी माँगें मान लें, यह बिलकुल ठीक नहीं है। आप कोई माँग नहीं मान रहे, यहाँ तक कि ज़रूरतें भी नहीं मान रहे; यह बात तो एकदम ही ठीक नहीं। दोनों ही अतियों से बचना है। तो यह हुआ भौतिक तल।

और जो चेतना का तल है उस पर मैंने कहा, लौटाने का सवाल नहीं उठता। या यह कहिए वहाँ लौटाना एक ख़ास तरीक़े से होता है। वहाँ लौटाने का नाम होता है—बाँटना।

मुझसे पूछा जाए कि सबसे अच्छा तरीक़ा क्या है उऋण होने का? ऋणमुक्त होने का? तो मैं कहूँगा– वो चेतना वाला तरीक़ा। काश कि सब अभिभावकों और उनकी संतानों के सम्बन्ध ऐसे हों कि संतानें उऋण चेतना के तल पर ही हो रही हों। कि माँ-बाप ने उनको ऐसा पाला है, ऐसा पाला है, उनके भीतर ऐसा प्रकाश भर दिया है कि वो बच्चा पूरी दुनिया को रोशन करे दे रहा है।

किसी ने तुमको रोशनी दी, तुम लौटाने जाओगे क्या? रोशनी लौटाई नहीं जाती; रोशनी को कई गुना बढ़ा दिया जाता है दूसरों को रोशन करके। ठीक है? समझ में आ रही है बात?

प्र: भगवान श्री, प्रणाम! शरीर के तल का तो स्पष्ट हो गया कि ज़रूरत ही पूरी हुई थी, तो ज़रूरत के तल पर पूरा करना है। चेतना के तल पर यह तो हो गया कि माँ-बाप ने अगर दिया है, तो उनके पास प्रकाश पहले से ही है, इसलिए बाँटना है। और अगर वो नहीं मिला है, विकृति मिली है, तो फिर?

आचार्य: तो फिर जहाँ से मिला है प्रकाश, वो माँ-बाप को भी देना है। कहीं से तो प्रकाश मिला होगा न। माँ-बाप से मिला है तो वह एक विशेष ऋण है, जिसको चुकाया जाता है- बाँटकर। माँ-बाप से नहीं मिला, मान लीजिए माँ-बाप से विकृति ही मिली, अंधेरा ही मिला, तो रोशनी कहीं और से लीजिए। और फिर रोशनी कहाँ पहुँचेगी? जैसे सब तक पहुँचेगी वैसे ही माँ-बाप तक भी पहुँचाइए।

अच्छा किया पूछ लिया। यह वाला हिस्सा अनुत्तरित रह गया था कि अगर माँ-बाप से नहीं ही मिली चेतना को रोशनी, तो क्या करना है? तो फिर यह करना है कि रोशनी जहाँ से मिल रही है, वहाँ से लो न भाई!

पहले जब घरों में चूल्हे होते थे, तो थोड़ी-सी आग बचाकर रखी जाती थी। जब चूल्हों पर खाना बनता था, तो थोड़ी-सी आग बचाकर रखते थे। क्यों बचाकर रखते थे? ऐसा नहीं होता था कि खाना बन गया रात में, उसके बाद चूल्हे में पानी ही डाल दिया; थोड़ी-सी आग बचाते थे।

चूल्हे का अनुभव किन लोगों को है? तो थोड़ी-सी बचाते काहे को थे? ज़रूरत पड़ेगी न दोबारा! लेकिन कई बार बुझ जाती थी, तब क्या करते थे? पड़ोस से लाते थे। भाई, अपने घर से नहीं मिल रही है अगर आग, अपने घर से नहीं मिल रही रोशनी, तो भूखे थोड़े ही रह जाना है, पड़ोस से लाना है।

अपने माँ-बाप से अगर नहीं मिल रही चेतना, तो अंधेरे में थोड़े ही रह जाना है, पड़ोस से लाना है। और फिर पड़ोस से लाना है, अपने घर में लाना है, रोटी पकानी है, ख़ुद भी खानी है और जो अपने परिवार के लोग हैं, अपने कुल-कुटुम्ब के लोग हैं, उनको भी खिलाइए।

यह तो कोई तुक नहीं हुआ न कि 'साहब! हम तो अपने घर में ही…।' आग का आविष्कार करोगे क्या? तुम्हारे घर में नहीं ही है, तो क्या करोगे? जाओ! जहाँ मिलती है, लेकर आओ वहाँ से।

अभी आप और कुछ पूछना चाहते हैं?

प्र: जो बाँटने वाली बात है, तो घर वाले तो लेते नहीं?

आचार्य: मुझे पता था यही है। देखिए, जो लेता नहीं, सही चीज़ को भी लेता नहीं, उसको बालक समान मानना चाहिए। दिक्क़त बस यह है कि कानून उसे बालक नहीं मानता। जो खाने वाली चीज़ को भी न खाए, वह किसके जैसा व्यवहार कर रहा है? वह बालक जैसा व्यवहार कर रहा है।

छोटा बच्चा होता है, वह दुनिया की सब व्यर्थ चीज़ें खा रहा है। उसको आप लेकिन कोई ठीक चीज़ देना चाहते हैं, वह ले नहीं रहा। तो फिर वयस्क होने के नाते आपका क्या धर्म होता है? उसको समझा दो, थोड़ा बहला दिया, फुसला दिया, कुछ कर दिया। दवाई नहीं खा रहा था तो शहद में डाल करके, उसको चूर के, शहद में मिलाकर दवाई चटा दी, यही सब तो करा जाता है। तो यही सब करना होता है।

दिक्क़त बस उसमें यह आती है कि बच्चे के साथ खेल आसान होता है, क्योंकि उसे समाज भी जानता है कि बच्चा है और विधान भी जानता है कि बच्चा है। विधान माने कानून। बड़े के मन में लेकिन जब बच्चे जैसी हालत रहती है — एक वयस्क तीस-साल चालीस-साल का जब आंतरिक तौर पर बच्चे जैसा होता है — तब स्थिति थोड़ी जटिल हो जाती है क्योंकि वह ख़ुद को बच्चा मानता नहीं। समाज भी उसे बच्चा नहीं मानता और विधान भी उसको बच्चा नहीं मानता।

तो अब आपको देखना है कि मोह को अगर अलग रख दें, तो कौन है जो सबसे ज़्यादा सुपात्र है आपके प्रयत्नों का। बात समझ रहे हैं?

सिर्फ़ इतना काफ़ी नहीं होता है कि मैंने किसी को सुधारने की बहुत कोशिश की। आपसे यह भी पूछा जाएगा कि आपने किसको सुधारने की कोशिश की? जिसको आप सुधारने की कोशिश कर रहे हैं, उसमें कुछ पात्रता है भी सुधरने की, कि नहीं? और अगर आप पात्रता के बिना ही किसी पर ज़ोर लगाए जा रहे हैं, मेहनत करे जा रहे हैं, तो यह काम फिर ज्ञान का नहीं, मोह का हुआ।

भाई, मैं कहूँ कि मैं देखो, भूखा रह गया। क्यों? क्योंकि मैं अपना खाना दूसरों को खिला रहा था। तो यह बात सुनने में ठीक लगती है। लेकिन हम कह रहे हैं कि सवाल यह भी पूछो कि तुम अपना खाना ख़ुद भूखे रहकर किसको खिला रहे थे?

कहीं ऐसा तो नहीं किसी ऐसे को खिला रहे थे, जिसकी अभी खाने की कोई नीयत ही नहीं है, या जिसको अभी खाने की कोई ज़रूरत ही नहीं है, या जो बस अभी थोड़ा-सा ही भूखा है उसको खिला रहे थे। क्यों? क्योंकि वह तुम्हारे रिश्ते में लगता था, उससे तुम्हारा मोह बैठा हुआ था। तो तुम लगे हुए थे कि इसको खिला दूँ। और जब तुम उसको खिला रहे थे, बगल में एक दूसरा खड़ा हुआ था, जो वास्तव में बहुत भूखा था, उसे खाने की सख़्त ज़रूरत थी, लेकिन उसको तुमने नहीं खिलाया क्योंकि तुम्हारा मोह नहीं था उससे।

यह भूल बड़ी सूक्ष्म है और बहुत भारी पड़ती है। त्याग कर तो रहे हो, पर किसके लिए? मेहनत कर तो रहे हो, पर किसके ऊपर? 'पानी को मथने से मक्खन हो जाएगा?' पुराने लोगों ने पूछा है! दूध फट गया है तो उसमें से अब क्या निकलेगा? किसके ऊपर मेहनत कर रहे हो भाई? और वहाँ पर चयन में धोखा नहीं हो गया है, वहाँ मामला धोखे का नहीं है; वहाँ मामला सिर्फ़ मोह का है।

आपके पास बहुत ज्ञान है, आपके पास बहुत ऊर्जा है दूसरों पर मेहनत करने की, आप बेशक़ करिए। लेकिन यह तो देख लीजिए कि इस वक़्त सबसे ज़्यादा अधिकारी कौन है आपके प्रयत्नों का; उसके ऊपर मेहनत करिए।

असल में हम कैसे कह दें कि जो हमारे बहुत निकट के लोग हैं, वो इस लायक़ भी नहीं हैं कि उन पर मेहनत की जाए। यह कहना दिल को बिलकुल छेद जाता है न। क्यों? इसलिए नहीं कि यह कहने में उन लोगों का अपमान है जिनकी बात हो रही है; असल में यह कहने में हमारा अपमान है। क्यों? कि अगर वह जो इंसान है, वह इतना ही कुपात्र, इतना ही नालायक है, तो उसको तुम इतने सालों से अपने क़रीब बैठाये काहे को हुए थे? तुम किस तरह के आदमी हो?

तुम किस तरीक़े के आदमी हो कि तुमने एक ऐसे इंसान को अपने पास पाल रखा था कि आज तुम उसे अमृत पिलाना चाहते हो, वह अमृत भी पीने को राज़ी नहीं है। यह कौनसा इंसान है जिसे अमृत से ज़्यादा जलजीरा पसंद है? और जैसा भी है, तुम कैसे हो कि तुमने ऐसे को पकड़ रखा था? तो इसलिए यह बात हमको बहुत-बहुत बुरी लगती है। हम कहते हैं, 'नहीं, देखिए साहब! मेरा बेटा कोई बुरा नहीं है, वो बस थोड़ा-सा उसमें ऊर्जा ज़्यादा है।'

वो अभी-अभी पाँच-सात लोगों का सिर फोड़कर आया है, और यह बापराम की सफ़ाई है। क्या बोल रहे हैं? 'नहीं, वो बुरा नहीं है, दिल का तो बहुत ही साफ़ है। मैं कह रहा हूँ– क़तई मासूम है। बस उसमें ऊर्जा थोड़ी ज़्यादा है तो बीच-बीच में पाँच-सात का सिर फोड़ देता है।' क्योंकि अगर यह मान लिया कि बेटा एकदम ही अब बर्बाद हो गया है, तो सवाल बेटे पर नहीं, बाप पर उठेगा। लेकिन एक ग़लती का जवाब दूसरी ग़लती तो नहीं हो सकती न, या हो सकती है?

आप कुम्हार हैं, और आपको खाना भी बनाना है। भाई, कुम्हार खाना भी तो खाता है न जीने के लिए। अब कुम्हार ने दिनभर कुछ करके एक पात्र बनाया, उसी में उसको अब खाना बनाना है रात को। वो पात्र बनाया बिलकुल घटिया, उसमें सौ छेद। तो मोह के मारे वो क्या बोले कि मेरा है इसलिए मैं इसी में पकाऊँगा? अगर वह ऐसा कह रहा है, तो वो कुम्हार भी बेकार है, और रसोईया, बावर्ची के तल पर भी वह बेकार ही है। न उसे पात्र बनाना आता है, न भोजन पकाना आता है।

एक ग़लती के उत्तर में दूसरी ग़लती मत करो। पहली ग़लती हो गई, जो भी तुमने पात्र बनाया, वह गड़बड़ बना दिया। अब दूसरी ग़लती मत करो कि मैंने बनाया इसीलिए पकाऊँगा भी इसी में; ग़लती स्वीकार कर लो। दूसरा पात्र पकड़ लो, भले ही वह तुम्हारा न हो। उसमें पका लो या इंतजार कर लो कि भाई अपना पात्र जब ठीक-ठाक हो जाएगा, तब उसमें पका लेंगे; काहे को अभी इसमें हम और मेहनत करें, पानी डालें, उबालें, क्या-क्या करें और सब गड़बड़ हो जाए।

लेकिन बात समझ में आ भी जाए, उसके बाद भी ज़िंदगी नहीं बदलती न अक्सर! बहुत लोगों को आपने कहते सुना होगा। उसकी वजह है। उसकी वजह यह है कि हमारे पास समझ तो होती है, समझ के अलावा भी कोई चीज़ होती है। कौनसी चीज़ होती है? अतीत।

यह जो अतीत है, यह हमारी समझदारी को कर्म में, जीवन में नहीं उतरने देता। अगर आपके पास सिर्फ़ समझदारी हो और अतीत न हो, तो आज आप बड़े खुले, मुक्त और निर्भीक तरीक़े से काम करेंगे। पर हमारे पास समझ तो है, लेकिन साथ-ही-साथ अतीत की स्मृतियाँ हैं, मोह के बंधन हैं, और यह है और वह है। वो सब बातें समझ को दूषित कर देती हैं। फिर आप समझते-बूझते भी सही काम नहीं कर पाते। अन्यथा जो बातें हम यहाँ पर कर रहे हैं, उनमें जटिलता क्या है? सीधी, सहज, सरल बातें हैं; समझ गए, उतार दो।

लेकिन अतीत रहता है न! और वह अतीत ग़ायब नहीं होना चाहता। वह अतीत अपनेआप को ग़लत नहीं मानना चाहता। वह अतीत अपनेआप को मूल्यहीन नहीं मानना चाहता। वह अड़ के खड़ा रहना चाहता है। और समझ का उस अतीत से कोई मेल बैठता नहीं। नतीजा—एक असंगत मिश्रण हैं हम। जिसमें एक तरफ़ एक पल को हम ऐसे हो जाते हैं, जैसे बोधिसत्व। और फिर थोड़ी देर बाद हम दोबारा अपने पाशविक रूप में आ जाते हैं।

ज्ञान हमारे लिए अक्सर ऐसा ही होता है जैसे कोई गंदे शरीर पर नये साफ़ कपड़े पहन ले। शरीर गंदा ही है, उसकी सफ़ाई नहीं करनी; उसके ऊपर नये साफ़ कपड़े पहन लिए और उस पर इत्र भी लगा लिया।

ज्ञान हमारा ऐसा ही होता है। लोगों के कपड़े – दुनिया में – बाहर से गंदे होते हैं। हमारे कपड़े भीतर से गंदे होते हैं, बाहर से साफ़ होते हैं। क्योंकि गंदग़ी बाहर से तो बाद में आएगी, पहले तो भीतर ही है। तो भीतर की गंदग़ी अभी-अभी जो नया ज्ञान पहना है, उसको भी गंदा कर देती है।

हो सकता है आपका जो ज्ञान है, वह संसार प्रूफ़ (अभेद्य) हो कि साहब, इस ज्ञान को संसार की ताक़तें गंदी नहीं कर सकती, तो उसमें जो भी प्रूफिंग (अभेद्यता) होगी, वह किस तरफ़ से होगी? बाहर से होगी। बाहर से गंदा नहीं हो सकता। पर अब जिसने पहन रखा है, वह अंदर से ही गंदा है, तो अंदर से तो गंदा हो जाएगा न?

तो इसी तरीक़े से हमें भी जो भी ज्ञान मिलता है, उसको हम अपने अतीत के ऊपर पहन लेते हैं, उसको हम अपने अज्ञान के ऊपर पहन लेते हैं। तो वह भीतर से ही गंदा हो जाता है और फिर वह ज्ञान हमारे किसी काम नहीं आता।

जिन भी लोगों की ऐसी स्थिति हो कि उन्हें ज्ञान तो ख़ूब मिला है, पर ज़िंदगी नहीं बदल रही। वो समझ लें कि उनके साथ एक ही चीज़ चल रही है — अतीत का बड़ा भारी बोझ। उसको वो राज़ी नहीं हो रहे छोड़ने को। और उसको छोड़ने का यह मतलब नहीं होता कि कुछ भौतिक तल पर छोड़-छाड़कर भाग जाना है कि फैक्टरी त्याग दी, घर त्याग दिया, दुकान छोड़ दी, नौकरी.., ये सब नहीं होता।

उसका मतलब होता है– ग़लतियों को ग़लती मान लिया। फिर उनके साथ कोई सुखद छवि जोड़कर नहीं देखी कि 'यह तो बड़ी प्यारी चीज़ है, मेरा तो ऐसा था, मेरा तो वैसा था।'

एक बार को दर्द होगा। यह चीज़ कचोटती है कि मैं अपनी पूरी ज़िंदगी को एक लंबी-चौड़ी ग़लती कैसे मान लूँ! तुमसे इस क्षण को, आज के ज़िंदा जीवन को ग़लती मानने को नहीं कहा जा रहा भाई! तुमसे उसको ग़लत मानने को कहा जा रहा है जो बीत चुका है, जो मुर्दा है, जो अब है ही नहीं। उसको अगर मान भी लोगे कि ग़लत था, तो तुम्हारा क्या छिन जाएगा? बताओ।

तुमसे नहीं कहा जा रहा कि तुम अपने चालीसवें साल में आज जो पल जी रहे हो, उस पल में भी तुम एक ग़लत इंसान हो। और तुम्हारी ज़िंदगी तो अभी है न? इसी क्षण में है न? तुम अभी जो हो, उसको ग़लत नहीं कहा जा रहा, बल्कि वह तो बहुत सही हो जाएगा अगर पीछे जो कुछ था, उसको ग़लत मान लें। और पीछे जो कुछ था, वह तो पीछे छोड़ आए न, तो क्या समस्या है?

प्र: एक और बात पूछनी थी। जो कुम्हार ने बर्तन बनाया छेद वाला, ख़राब बनाया। वह पॉइंट (बिंदु) तो स्पष्ट हो गया कि हम मानेंगे कि भाई, हमने बनाया, तो अपने पर आ रही है। लेकिन मैं अपने में देखता हूँ तो प्रयास यह रहता है कि अगर यह सही हो जाए, तो जिस दिशा में जाना चाहते हैं, उसकी गति बढ़ जाएगी। वो लालच पकड़े हुए है।

आचार्य: नहीं, वह लालच इसलिए पकड़े हुए है क्योंकि आप जिस दिशा में जाना चाहते हैं, आप कुम्हार बनकर ही जाना चाहते हैं। तो आप कह रहे हैं, 'मैं उस दिशा में जाऊँगा ही तभी जब मैं अपने साथ ये दोनों अपने बर्तन पकड़े हुए रहूँगा; तभी जाऊँगा।' तो आप लगे हुए हैं कि जब तक कि बर्तन ठीक नहीं हो जाएगा, तब तक मैं सच की दिशा में प्रस्थान करूँगा ही नहीं।

सच की दिशा में कुम्हार बनकर थोड़े ही जाया जाता है। आप सच को भी अपना रुतबा दिखाएँगे क्या? कि 'देखो, हम कोई छोटे आदमी नहीं हैं। हमने दिनभर मेहनत करी, ये दो बढ़िया हमने पात्र बनाये और इनको लेकर के अब हम तुम्हारी ओर आये हैं।'

वहाँ तो जाइए, हाथ जोड़कर खड़े हो जाइए, कह दीजिए 'पूरा जीवन मेरा निष्फल ही रहा है। जो भी मैंने बनाया, वह कुपात्र ही रहा है; ऐसा हूँ मैं। अब तुम्हारे सामने खड़ा हूँ नंगा, असफल।' आपकी असफलता ही आपकी जीत बनेगी।

लेकिन आप लगे हुए हैं पहले सफ़ल होने में कि मैं तो एक बिलकुल सफ़ल पारिवारिक व्यक्ति बनकर जाऊँगा सत्य के पास। और वहाँ कहूँगा, 'यह देखो! हमें देखिए साहब, हम बिलकुल नमूने हैं, आदर्श हैं, रोल मॉडल हैं।'

और सत्य कहेगा, 'जब तुम पहले ही आदर्श हो तो यहाँ क्या करने आये हो? हमारे यहाँ तो जो हारता है, वह जीतता है। आपको अपनी हार नहीं स्वीकार, तो आपको फिर जीत की ज़रूरत क्या है? आप तो अपनी नज़रों में पहले ही जीते हुए हैं।' हमारी हालत ऐसी रहती है।

अभी पिछले साल के लॉकडाउन में यहाँ पर हुआ कि भाई, सब लोग अपना-अपना खाना अब ख़ुद बनाएँगे। तो यहाँ महाराज ने अपना खाना बनाया और खाना एकदम ऐसा कि माने मुर्दे को खिला दो तो वो चीखकर भागे।

तो दो-दो लोगों का दल बनता था कि दो लोग बनाएँगे, दो लोग बनाएँगे। तो दो जनों ने बनाया, बाक़ी सबने उस खाने का बहिष्कार कर दिया कि साहब, कोई नहीं खाएगा, यह छोड़ो। अब ये जो दो लोग हैं, ये काहे को मानें कि हमने ये ऐसा ज़हर तैयार करा है।

तो ये सब से बोल रहे, 'नहीं, हमने बढ़िया बनाया है। तुम्हीं लोगों की नाक ज़्यादा ऊँची है, तुम खाना नहीं चाहते। बड़े बादशाह हो रहे हो!' उन्होंने क्या किया कि दूसरों को दिखाने के लिए भरपेट खाया और फिर जो होना था, सो हुआ। माहौल ख़राब करा। शौचालय ख़राब करा। हवा ख़राब करी।

'मैंने पकाया है न, तो ख़राब कैसे हो सकता है!' पहली ग़लती करी– तुमने ऐसा पकाया। और दूसरी ग़लती करी– उसी को खाया। हम ये एक के ऊपर एक, दो ग़लतियाँ करते हैं अपनी ज़िंदगी में।

अरे, फेंक दो! मान लो कि तुम्हें पकाना नहीं आता। दोबारा पकाओ, या कम-से-कम भूखे सो जाओ। पर यह जो पकाया है, इसी को तो मत खाते जाओ।

अब हम ऐसा भोजन करके सच की दिशा में यात्रा करना चाहते हैं। हम कहते हैं, 'सच की तरफ़ जाएँगे और अपना पकाया हुआ सब भीतर लेकर जाएँगे।' यह जो तुमने पकाया है जीवनभर, इसको भीतर लेकर के सच की तरफ़ नहीं बढ़ पाओगे आगे — उपवास करना सीखिए, उपवास का यही मतलब होता है असली — उनके साथ तो आप भैंसे वाले (मृत्यु) की दिशा में भी नहीं जा पाएँगे।

पहली लहर आयी (कोविड की), दूसरी लहर आयी, इसमें इतना तो सीख लीजिए कि घर में एक को हो जाता है, तो यह थोड़े ही कहा जाता है कि बाक़ी सब घरवाले आकर इससे गले मिल सकते हैं।

कवारन्टीन बहुत सुन्दर शब्द है। उसका मतलब जानते हैं क्या होता है? अकेलापन। वह वायरस (कोरोना) भी आपको बता देता है कि आप कितने अकेले हो। वायरस ही है एक। आप कितने अकेले हो।

वायरस लग गया तो ऐसा थोड़े ही होता है अब कि माँ-बाप, बेटी-बेटा पत्नी-पति कोई आकर आपके साथ बैठ सकता है, लेट सकता है, गले मिल सकता है। अनुमति हो भी, तो भी कोई न आये। ऐसा नहीं कि डॉक्टरों ने पकड़ रखा है इसलिए नहीं आ रहे, आपका कोई सबसे अब जिगरी यार हो और आपको कोविड है, वह भी उतनी ही दूर से बात करेगा।

ये लोग कोरोना वार्ड तक तो साथ जाएँगे नहीं, अमरपुर तक कैसे आपके साथ जाएँगे!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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Articles On Relationship
Excerpts From Articles
The Female Body, Chastity and 'Rape Culture'
Rape is happening all over the place. A husband raping a woman is not something new. Public apathy—nobody reporting the rape—that is again not something new. What is new is the woman standing up. And not just standing up in a way that displays raw courage, but standing up in a way that displays something deeper. She is challenging the very notion of female honor.
Astrology: A Myth People Believe
It has been extremely conclusively proven, demonstrated that astrology is not a science at all. It's a conjecture. It's a belief system. Belief system with no material basis at all.
What Makes a Woman Beautiful?
The woman is not beautiful; the man is not beautiful either. Truth and compassion are beautiful. The compassionate one stands head and shoulders above the gorgeous woman or the handsome man. And this is possible only when love and appreciation for the right, gender-independent values are fostered in both the man and the woman.
Living Without Illusions: A Lesson on Expectations and Reality
It is not that the way the world is, the ignorance, the stupidity, the suffering, the perverseness of it all. It's not that that hurts or surprises you. What shocks is that adverse things come from people you think of as decent, respectable and wise. It is not events or people, therefore, who are shocking you, it is the expectations that you hold of them.
How Can The Common Man Make Better Decisions In Life?
First of all, we have to realize what our life is like. You know, I can’t change something without firstly understanding its processes and its actuality. I must know what this thing called my life is. We keep living without knowing a thing about life. And we’re blinded by names and identities.
Science and Spirituality Always Go Hand in Hand
The most common thing in spirituality and science is 'an honest urge to know the Truth.' Science observes the external universe, and spirituality observes the mind. These two have to be in tandem. The one thing that enables true knowledge in any field is honesty and integrity.
इंसान हो तो ज़िंदगी से जूझकर दिखाओ
दुनियादारी सीखो, भाई! और मुझसे अगर प्रेम है या कोई नाता है, इज्जत है, तो मेरी अभी स्थिति क्या है, वो समझो। प्रेम अगर है, तो प्रेम यह देखता है ना कि सामने वाला क्या चाहता है, उसकी क्या जरूरत है? प्रेम आत्म-केंद्रित थोड़ी हो जाएगा कि "मैं अपने तरीके से!" अपने तरीके से है, तो फिर प्रेम नहीं है, स्वार्थ है ना!
How Influencers Fool Us So Easily
We have reserved critical thinking only for problems related to science and technology, but not for life itself. Why can’t the same spirit of inquiry be present in everything? Without the filter of thought and inquiry, you will be enslaved and exploited. So, pause at every sentence, analyze, and refuse to move on until you are satisfied.
कॉमेडी हो तो ऐसी
हमारी ज़िंदगी में तो लगातार वही सबकुछ हो रहा है जो होना नहीं चाहिए। आप लोगों को हमारी ज़िंदगी का ही आईना दिखा दो न। हम सब अपने गधों को अपनी पीठ पर बैठाकर चल रहे हैं। इतनी जोर की हँसी आएगी कि मज़ा आ जाएगा। कुछ ऐसा है जो बेमेल है, विसंगत है, और हमारी ज़िंदगियाँ मूर्खता की ही एक अंतहीन कहानी हैं। ये एब्सर्डिटी दिखाओ न लोगों को, खूब हँसेंगे।
Leadership and Spiritual Insights from the Bhagavad Gita
My concern is the way we are. My concern is the face of the human being. My concern is the little sparrow. I'm not here to tell people what God has said. I'm here to take care of the sparrow. That's my concern. And the sparrow cannot be taken care of unless we go to the Gita. Hence, the Gita.
How to Raise a Daughter?
Please be an observer and a compassionate witness. Keep watching, watch from a distance. Meddling is not needed. Being a parent of a girl child today is a humongous opportunity. You have the chance to give rise to a new world—if you can truly raise one girl as a free girl.
Why Do We Hide Things In Relationships?
Cultures place too much value on conforming to relationship stereotypes. These dogmas and rigid opinions do not easily accept reality. And so, to please them, you become a habitual liar. But good relationships are founded on freedom; they are not based on obligations, and they are not afraid of reality. In good company, the other might frown, but less on what you did, and more on what you hid.
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Kids and Anxiety: What’s Going Wrong?
If a kid has been continuously told that the world is everything, how will an untouched point remain within? The world, as we know, is quite fickle, while our real nature is stability or permanence. It is this dichotomy that pushes us into stress and anxiety. A big portion of the mental health problem can be addressed if we provide the right value system to the kid—the right literature.
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