प्रश्नकर्ता: मैं यूपी पुलिस में एज़ ए कांस्टेबल हूँ और मेरी पोस्टिंग इस समय इमरजेंसी सर्विस में है। आचार्य जी, अधिकांश मामले जो हैं ज़मीन से जुड़े हुए मामले आते हैं जिसमें दो पक्षों में आपस में वाद-विवाद, मारपीट, यहाँ तक छोटे ज़मीन के टुकड़े के लिए हत्याएँ तक हो जाती हैं। तो जैसा कि अभी आपने अभी सत्र में बताया कि नर्क और कुछ नहीं होता, एक गलत रिश्ता ही नर्क होता है। आचार्य जी, मैं दिनभर जितने अपराध देखता हूँ वो किसी-न-किसी गलत रिश्ते में फँसने के ही कारण होता है, तो जो गलत रिश्ते में फँस गया है उसके लिए क्या उपाय है? और मेरा प्रश्न है आचार्य जी, इन गलत रिश्तों में फँसने के कारण जो लोग न्यायालयों और कटघरों के बीच अपना पूरा जीवन बर्बाद कर देते हैं उनके लिए थोड़ा प्रकाश डालना चाहेंगे?
आचार्य प्रशांत: नहीं, कोई फँसा नहीं होता है गलत रिश्ते में, उस रिश्ते में उसका कुछ-न-कुछ स्वार्थ अटका होता है। अब ज़मीन का एक टुकड़ा है उसके लिए दो भाई लड़ रहे हैं, अब वो मुकदमा चल रहा होगा पाँच-आठ साल से, हो सकता है पंद्रह साल से, तो आप अपनी सामान्य भाषा में कहोगे कि वो उस मुकदमे में फँसा हुआ है। यही कहोगे न? फलाना उस मुकदमे में फँसा हुआ है, फँसा थोड़े ही हुआ है, फँसा थोड़े ही हुआ है; उसका तो उसमें...
श्रोतागण: स्वार्थ जुड़ा है।
आचार्य प्रशांत: वो चाहे तो अभी छोड़ दे, अभी बाहर आ जाए। बताओ छोड़ेगा क्यों नहीं? छोड़ेगा इसलिए नहीं क्योंकि उसको ज़मीन का बाज़ार भाव पता है और वो चीज़ होती है बिल्कुल सांख्यिक, न्यूमेरिकल, क्वांटिटेटिव, तो हमारी ये जो मोटी आँखें हैं और ये जो मोटी बुद्धि है उसको पता चल जाता है कि वो जो प्लॉट है वो न अभी बीस लाख का है, साठ लाख का है, ढाई करोड़ का है कुछ भी कीमत हो सकती है जहाँ पर है उसके अनुसार, जितना बड़ा है। हम कहते हैं, ‘छोड़ कैसे दें, छोड़ कैसे दें, छोड़ कैसे दें।‘ आप ये तो देख रहे हो कि छोड़ दोगे तो आपका पचास-लाख का नुकसान हो जाएगा, पर जो चीज़ आप नहीं देख पा रहे वो ये है कि उसको न छोड़ने के कारण आपका कितना नुकसान हो रहा है क्योंकि वो चीज़ क्वांटिटेटिव नहीं है।
बहुत मोटी बुद्धि होती है हमारी, जिन चीज़ों पर प्राइस टैग लगा हो, उसकी कीमत की जिस पर पर्ची लगी हो, ठप्पा लगा हो वहाँ तो हमें दिख जाता है कि ये चीज़ इतने की है। और विडंबना ये है कि जीवन में जो कुछ सबसे बड़ी कीमत का होता है उस पर कोई पर्ची लगी नहीं होती, उस पर कोई प्राइस टैग गुँथा नहीं होता तो हमें पता ही नहीं लगता कि वो चीज़ कितनी कीमत की है।
उदाहरण के लिए आप बताओ आपकी ज़िंदगी की क्या कीमत है? अच्छा आपकी टीशर्ट की क्या कीमत है? आप बता दोगे, पाँच-सौ रुपये, हज़ार-रुपये, पाँच-हज़ार रुपये। कुछ भी बता दोगे आप ठीक है! आपकी घड़ी की क्या कीमत है आप वो भी बता दोगे, मोबाइल फ़ोन की क्या कीमत है, आप वो भी बता दोगे। ज़िंदगी की कीमत बताओ? बोलो, पंद्रह-सौ की टीशर्ट, पाँच-हज़ार की घड़ी, ठीक है! और पंद्रह-हज़ार का कि पच्चीस-हज़ार का, पचास-हज़ार का फ़ोन, खट-खट-खट सबकी कीमत बता दी। मैंने कहा ज़िंदगी की कीमत बताओ, बता ही नहीं पा रहे। वही बेचारी सबसे सस्ती चीज़ है, ऐसी गिरी हुई, बिना कीमत की चीज़ है कि उसकी कोई कीमत ही नहीं बता रहे और हमने कहा हम इतनी मोटी बुद्धि के होते हैं कि हम जिस चीज़ की कीमत नहीं बता पाते हम उसकी कीमत लगा देते हैं...
श्रोतागण: ज़ीरो (शून्य) ।
आचार्य प्रशांत: क्योंकि मैं उसकी कोई कीमत बता नहीं सकता तो उसकी कीमत हो गई ज़ीरो। ये हमारी शानदार बुद्धि है तो वो ज़मीन पचास लाख की है वो तो दिख जाएगा, उस ज़मीन में जो तुमने पंद्रह-साल लगा दिए उसकी क्या कीमत थी तुमको नहीं दिखता, कोई फार्मूला है ही नहीं। नेट पर, वेब पर कोई ऐसा लॉस कैलकुलेटर है कि मेरी ज़िंदगी के पंद्रह सालों की कीमत बताओ, है कहीं? पर अभी आप इंटरनेट पर डालें कि फलानी जगह पर, कानपुर शहर में, फलानी जगह पर और इतने स्क्वायर मीटर ज़मीन है कीमत बताओ, तो आपको खट से बता देगा, ये चल रहा है साहब आजकल उसका रेट, तुरंत बता देगा, बता देगा कि नहीं?
अब वहीं पर ये भी डालो मैं इतने साल का हूँ, ये ये ये... मेरी ज़िंदगी की कीमत बताओ, कोई नहीं बता पाएगा। ये समस्या आती है।
और अगर आपको दिखने लगे कि आपकी ज़िंदगी की क्या कीमत है तो आपके लिए जहाँ फँसे हुए हो उस जगह को छोड़ना बहुत आसान हो जाएगा, बहुत आसान हो जाएगा। छोड़ते इसीलिए नहीं हो क्योंकि मामला एक तरफ़ा, एक पक्षीय है। बस ये दिखता है कि नुकसान कितना होगा; ये नहीं दिखता है कि न छोड़कर नुकसान कितना हो रहा है। इकोनॉमिक्स में और अकाउंटिंग में इसको बुक्ड लॉस और अपॉर्चुनिटी लॉस में कहेंगे।
आ रही है बात समझ में?
यही चीज़ और सब रिश्तों में आती है, चाहे वो दोस्त-दोस्त का रिश्ता हो, चाहे वो ये हो कि आप ट्रेन की किसी सीट पर फँस गए हो किसी बेवकूफ़ आदमी के बगल में; जो गंधा भी रहा है और कुछ-कुछ बक भी रहा है और लगातार फ़ोन पर बात करे जा रहा है। एकाध दफ़े हुआ है मैं जब स्टूडेंट था, मैं बेहतर समझता था वो सीट छोड़ देना, मैं जाकर ट्रेन में दरवाज़े पर खड़ा हो जाता था। कहता था, ‘ये तो दिख रहा है मैंने रिज़र्वेशन कराया तो मैंने कितने की सीट छोड़ दी और मुझे ये भी दिख रहा है कि वहाँ बैठकर के मैं कितने का नुकसान कर लेता।‘ सीट छोड़ना छोटा नुकसान है; सीट पकड़े रहना बड़ा नुकसान है, मैं नहीं पकड़े रहूँगा। मुझे मंज़ूर है, मैं वहाँ जाकर के खड़ा हो जाता था।
यही बात रिश्तों पर भी लागू होती है खासकर पति-पत्नी के रिश्ते पर। भारत में हम इस बात पर बड़ा फक्र करते हैं कि साहब हमारा डाइवोर्स रेट बहुत कम है; हम अपने आप से कभी ये नहीं पूछते कि फेल्ड-मैरिजिस (असफल विवाह) कितनी हैं। डाइवोर्स ज़्यादा बड़ा नर्क है या एक असफल विवाह? ये बताओ!
भारत में हो सकता है डाइवोर्स रेट पश्चिम से ज़्यादा न हो लेकिन भारत में असफल विवाह पश्चिम से बहुत ज़्यादा हैं, बताओ क्यों। क्योंकि वहाँ जब असफल विवाह होता है तो डाइवोर्स हो जाता है। यहाँ जब असफल विवाह होता है तो उसे ढ़ोया जाता है। क्यों ढ़ोया जाता है? क्योंकि कुछ स्वार्थ होता है, दोनों पक्षों से स्वार्थ होता है। दोनों पक्षों को ये तो दिख रहा होता है कि ढ़ोकर के स्वार्थ की क्या पूर्ति हो रही है; दोनों को ये नहीं दिख रहा होता है कि ढ़ोकर के तुम अपनी बर्बादी जो कर रहे हो उसका क्या आंकड़ा है। खुश बहुत होते हैं कि देखो गृहस्थी तो चल रही है न। अभी भी मिस्टर एंड मिसेज़ कहला रहे हैं, श्रीमान-श्रीमती कहला रहे हैं और श्रीमान-श्रीमती कहलाने में तुमने अपनी ज़िंदगी जो नर्क करी है कैसे बताएँ कि वो कितने लाख और कितने करोड़ का नुकसान है।
यही बात नौकरियों पर लागू होती है। तुमको ये तो दिखता है कि महीने के अंत में पगार कितनी ले आते हो, वो पगार लाने के लिए तुमने क्या-क्या बेच दिया ये तुम कभी आंकते हो क्या? कभी नहीं आंकते। हमको तो बस ये करना है कि आंकड़ा बड़ा यहाँ दिखना चाहिए (हाथ से इशारा करते हुए)।
एक चीज़ होती है कॉस्ट ऑफ़ सर्विसिंग द जॉब, मतलब समझ रहे हो इसका? सिर्फ़ वो जॉब करने की क्या कीमत होती है? और बहुत होती है वो। सबसे बड़ी तो उसमें यही होती है जो आपको आना-जाना पड़ता है। किन लोगों के साथ उठना बैठना पड़ रहा है, वो कौन लोग हैं, कैसे लोगों की बातें सुननी पड़ रही है सब! एक तरह से एक्सटर्नलिटीज़, इकोनॉमिक्स में कहेंगे। वो हम कभी गिन ही नहीं पाते।
बिल्कुल ऐसा हो सकता है कि आपको एक पगार मिल रही हो पचास-हज़ार , साठ-हज़ार, लाख-रुपए, दो-लाख जो भी आपको मिलती है और जितना आपको मिल रहा है उससे ज़्यादा आप दे रहे हों, यू आर सब्सिडाइज़िंग योर एंप्लॉयर (आप अपने नियोक्ता को सब्सिडी दे रहे हो), बिल्कुल हो सकता है। लेकिन चूंकि वो जो आप दे रहे हैं उसको वो सूक्ष्म है, सटल है तो आप उसकी गिनती कर ही नहीं पाते हो। कॉस्ट टू कंपनी तो वो बाकायदा आपको दिखा देता है, कॉस्ट ऑफ़ एंप्लॉयमेंट आप उसको दिखा ही नहीं पाते हो कि तेरे यहाँ काम कर-करके, काम कर-करके चौराहे पर खड़ा हूँ मैं, मुझे ड्यूटी यही दी गई है चौराहे पर खड़े हो जाओ। तेरे यहाँ काम कर-करके फेफड़े चले गए मेरे, बताओ इसकी क्या कीमत है? इतने भयंकर तरीके से ज़हरीला तुम्हारे यहाँ माहौल है क्योंकि तुम जो कंपनी चला रहे हो उसका उद्देश्य ही है लोगों को ठगना या लोगों में लालच का संचार करना।
कोई गहना बेचने की चीज़ चल रही है, कोई इंश्योरेंस बेचने की चीज़, कुछ भी ऐसे ही चल रहा है, गंजे को कंघी बेचने का काम चल रहा है, कि मेरी पूरी भीतरी वृत्ति ही हिंसक और शोषक हो गई है। बताओ ये जो तुम भीतरी तौर पर बर्बाद हुए इसकी क्या कीमत है? कोई नहीं कीमत लगाएगा, तुम इसी बात से खुश हो जाओगे कि सीटीसी इतनी मिल रही है, पिछली नौकरी से पाँच-हज़ार यहाँ ज़्यादा मिल रहा है चलो भग चलते हैं।
बात आ रही है समझ में?
एक बार ये दिखने लग जाए न कि पूरे मामले में नेट कैश फ्लो किधर को है, मैं कैश फ्लो की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि हम हिसाबी-किताबी लोग हैं, व्यापारी बुद्धि, इसलिए बोल रहा हूँ। तो मैं आपसे कहूँ कि शुभता का आंकलन कर लो तो आपको लगेगा ये कैसी इन्होंने मिस्टिकल बात बोल दी, शुभता कैसे? तो शुभता हटाओ तुम कैश फ्लो ही देख लो। और लेकिन शर्त ये है कि हर चीज़ का तुम मॉनेटरी इक्विवेलेंट ज़रूर रखना, जो कुछ भी तुम्हारे रिश्ते में चल रहा है उसको लिखो और पूछो अपने आप से कि इसका मॉनिटरी इक्विवेलेंट क्या है। मॉनेटरी इक्विवेलेंट समझ रहे हो? इसके समतुल्य एक आर्थिक मूल्य कितना होगा।
उदाहरण के लिए, भयानक तनाव है। क्यों तनाव है? क्योंकि किसी को डराना है या किसी को ठगना है। डराओगे, ठगोगे तो तनाव तो रहेगा! तो बताओ उसका मॉनेटरी इक्विवेलेंट क्या है, ये जो तीन-घंटे तनाव झेला इसकी क्या कीमत है? तो खुद ही लिखोगे कम-से-कम बीस-हज़ार रुपया तो है ही। अब लेकिन वो तनाव तुम झेल भी लेते हो और कभी बैठकर के वो स्प्रेडशीट कैलकुलेशन करा भी नहीं कि ये सबकुछ जो मैं यहाँ ले रहा हूँ और दे रहा हूँ वो कुल मिलाकर कितना बैठ रहा है। आमतौर पर मिलता तो कुछ है नहीं, तो लेने वाला तो जो कॉलम है वो ज़ीरो ही हो जाएगा। ऐसी बहुत कम नौकरियाँ होती हैं जहाँ आपको पैसे के अलावा भी कुछ मिल रहा हो। तो अगर कहीं कुछ मिल रहा होता है पैसे के अलावा तो हम उसकी गिनती करना तो एकदम ही भूल जाते हैं।
नाज़ के साथ कह सकता हूँ हमारी संस्था है ऐसी जगह जहाँ आपकी जो तनख्वाह होती है उससे पाँच-गुना आपको ज़्यादा मिल रहा होता है लेकिन आप भी उसकी गिनती नहीं कर पाते हो, बिल्कुल भूल जाते हो।
आज़ादी बहुत बड़ी चीज़ है गुलामी में कुछ फायदा हो भी रहा हो तो भूलना नहीं कि आज़ादी करोड़ों की होती है फिर गुलामी छोड़नी आसान हो जाएगी। गुलामी छूटती इसीलिए नहीं है क्योंकि लगता है पचास-लाख का नुकसान हो जाएगा। पचास-लाख छोड़ दोगे कि नहीं अगर मैं बताऊँ कि पाँच-करोड़ उधर रखा है। पचास-लाख को लात मारकर भागोगे, बोलो, ‘भागोगे कि नहीं?’ हाँ! वो पाँच-करोड़ दिखता नहीं है न, इसलिए पचास-लाख छूटता नहीं है न। देखो! गौर से देखो। भोगवाद में, पदार्थवाद में समस्या यही है कि बस वही देख पाते हो जो मटीरियल है। जो हम कहते हैं न मटेरियलिज़्म इज़ अ प्रॉब्लम वो इसीलिए है जो कुछ भी नॉन-मटीरियल होता है, सटल होता है, सूक्ष्म होता है वो दिखाई देना बंद हो जाता है।
प्रेम की क्या कीमत है सोचना ही छोड़ देते हो, सत्य की क्या कीमत है सोचना ही छोड़ देते हो। मैं नहीं कह रहा हूँ कि सत्य की कीमत लगाई जा सकती है पर बहुत बड़ी कीमत ये तो मानते हो न! वो मानना भी छोड़ देते हो। कहते हो, ‘बस जो दिख रहा है मटीरियल है, भौतिक है, स्थूल है, उसकी कीमत है।‘ नहीं! दूसरी चीज़ें हैं, उनकी बहुत बड़ी कीमत है और कई बार वो कीमत इतनी सूक्ष्म भी नहीं होती। मैं एक बात पूछ रहा हूँ, आप वो ज़मीन के मसले में फँसे हुए हो।
जैसा आपने कहा कि ज़मीन के लफड़े होते हैं, गोलियाँ चल जाती हैं, भाई-भाई लगे हुए हैं, जिन घरों में ज़बरदस्त मुकदमे चल रहे होते हैं उन घरों के लड़के, बच्चों का क्या होता है? उन घरों की आधी या कम-से-कम तिहाई जो आमदनी है वो तो वकील के घर जा रही होती है, जा रही होती है कि नहीं? दो-चार लोग टेंशन से बीमार हो गए होते हैं तो डॉक्टर को पैसा जा रहा होता है। बीच-बीच में दूसरे पक्ष से मार-पिटाई चलती रहती है होली-दिवाली... तो अस्पतालों में भी पैसा जा रहा है। चल रहा है न? और माँ-बाप का दिमाग लगातार इसी में लगा हुआ है कि मुकदमे में ज़मीन कब छीनेंगे, तो बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, परवरिश पर कोई ध्यान दे रहा है? इन सब चीज़ों की क्या कीमत है? ये तुमने मुकदमा जीत लिया और तुमने अपने बच्चे हार दिए, इसकी क्या कीमत है बोलो? बोलो क्या कीमत है?
अभी मैंने पढ़ा कहीं पर हुआ था बड़ा दर्दनाक, बड़ा दुखद हादसा। कोई सोलह-सत्रह साल का लड़का रहा होगा, उसने भारत का प्रतिनिधित्व तक कर रखा था ताइक्वांडो में किसी अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में; ज़मीन-जायदाद के झगड़ों के चलते उसके नात-रिश्तेदारों ने आज उसकी गर्दन काट दी, उस लड़के की। और उसकी माँ उस बेचारे लड़के का सिर अपनी गोद में रखकर घंटों तक बैठी हुई है; सन्न बिल्कुल, और उसकी फोटो आ रही हैं और ये प्रतिभाशाली खिलाड़ी है, ताइक्वांडो में इंडिया को रिप्रेज़ेंट कर चुका है और कितनी ज़मीन रही होगी, कितने पैसे मिल जाते छोड़ दो न, छोड़ दो।
कितनी बार बोलता हूँ गीता का युद्ध ज़मीन के लिए नहीं हुआ था। लोगों को लगता है हस्तिनापुर के लिए हुआ था। गीता का युद्ध; धर्म के लिए हुआ था। ज़मीन की बात होती तो कृष्ण खुद कहते, ‘छोड़ो ज़मीन में क्या रखा है।’ बात ये नहीं थी कि इन पाँच लोगों की ज़मीन का हक मारा जाएगा, बात ये थी कि वो जो पूरी प्रजा थी, दुर्योधन राजा बनकर के पूरी प्रजा ही भ्रष्ट कर देता इसलिए युद्ध ज़रूरी था। मैंने इतनी बार बोला है कि जहाँ नुकसान बस व्यक्तिगत हो रहा हो वहाँ क्षमा और जहाँ नुकसान समष्टिगत हो रहा हो वहाँ युद्ध।
कभी आपका नुकसान हो रहा हो और आपको तय करना हो कि माफ़ कर दें कि लड़ जाएँ तो पूछिए कहिए, ‘अगर नुकसान सिर्फ़ मेरा हो रहा है उपेक्षा, झेल जाएँगे कुछ नहीं हम बादशाह है हमारा कोई नुकसान नहीं कर सकता। लेकिन अगर दिखाई दे कि ये जो आदमी है ये सिर्फ़ मेरा नुकसान नहीं कर रहा है, ये सौ और का नुकसान कर रहा है तो भिड़ जाओ तब मत छोड़ना। ज़मीन-जायदाद के लफड़ो में तो हमेशा जो नुकसान होता है वो बिल्कुल व्यक्तिगत होता है। छोड़ दो यार, ले जाने दो ज़मीन।
कायरता या पलायन की बात नहीं कर रहा हूँ। समझ में आ रहा होगा तो देख पाओगे क्या कह रहा हूँ। धर्म की बात कर रहा हूँ और अगर हिसाब समझते हो तो पूरे हिसाब की बात कर रहा हूँ कि पूरा हिसाब लगाओगे तो पाओगे कि इसमें पड़ने से अच्छा है अपना श्रम, अपना ध्यान, अपनी पूँजी किसी सार्थक दिशा में लगाई जाए।
छोटी बातों की उपेक्षा करना सीखो। बिल्कुल भिड़ेंगे युध्यस्व! पर बड़े मुद्दों पर भिड़ेंगे, हर छोटी बात की उपेक्षा करते चलेंगे जैसे शिशुपाल की निन्यानवे गालियों की उपेक्षा करी थी, निन्यानवे बार का छोड़ो न, क्या फ़र्क पड़ता है, कुछ नहीं, जाओ।
दुर्योधन की भी तो उपेक्षा ही करते चले थे, अंत तक गए थे उसके पास संधि प्रस्ताव लेकर के कि ले ले भाई थोड़ा सा ज़मीन दे दे पाँच गाँव दे दे, हमें युद्ध नहीं करना, छोटी बात है माफ़ किया जाओ। हमारे लिए हर छोटी बात ऐसी हो जाती है कि अब इस पर अंगद का पाँव जमा दिया है, युद्ध तो करेंगे-ही-करेंगे।
पलायन नहीं है, सत्य और शांति के प्रति निष्ठा है। क्या हर छोटी चीज़ उतनी बड़ी है कि उसके लिए शांति बेच खाई जाए? बोलो न!
जब मैं पढ़ रहा था आइआइएम में, मैं तब भी सबेटिकल पर था सिविल सर्विसिज़ से। तो इस नाते वो मुझे यात्रा के लिए वारंट दिया करते थे, सरकार से मिलता था या आप अगर कभी किसी सरकारी परिवहन से कहीं जाएँगे तो वो निशुल्क आपकी यात्रा होगी, अच्छी बात है। तो ट्रेन में एसी टू टियर या फर्स्ट क्लास का ये लंबा-चौड़ा था वारंट, मुझे बस बताना होता था कि मुझे फलानी जगह जाना है तो रेलवे का ही कोई कर्मचारी आकर के मेरी ही डॉर्म में मुझे वो दे जाता था कि ये लीजिए ये आपका है आप इसमें जाइए और वहाँ जाओ तो अफसर जैसी फिर वहाँ खिदमत भी होती थी क्योंकि उनको पहले ही बता दिया जाता था कि इस ट्रेन में या इस कूपे में आज अफसर ट्रेवल कर रहे हैं। अब हैं स्टूडेंट ही पर अब यूपीएससी वाले कर लिए हैं तो अफसर हो गए हैं। ठीक है, अच्छी बात।
एक बार मैं वहाँ बैठा हुआ था वो उस दिन एसी टू टियर का था, अब उसमें जाने बारात की पार्टी उस दिन भर गई थी, जाने कौन थे लगे हैं शोर मचाने में और उनकी हँसी, खुशी, ये, वो कोई अहमदाबाद से चले थे, कोई गुजराती पार्टी थी, बच्चों का भी हल्ला-हुल्लू ये वो। तो वहाँ पर जो उस दिन कर्मचारी थे टीटी, वगैरह थे उन्होंने खुद ही देखा कि ये यहाँ बैठे हैं और ये सब चल रहा है तो उन्होंने जाकर चुप-उप कराया, फिर वो मेरे सामने बेबसी से आकर खड़े हो गए कि अब इनको कैसे बोलें भाई ये तो मैरिज पार्टी है। जो भी थी, पुरानी बात, इनको कितना बोला जा सकता है ये तो अपनी खुशी में हैं, जो भी खुशी होती है तथाकथित खुशी, लोक खुशी।
मैंने क्या पूछा? मैंने कहा, ‘ये अभी ये जो बोल रहे हो ये A1 का हाल है, A2 या A3 में कोई सीट खाली है?’ बोले, 'नहीं A2, A3 में नहीं है।‘ मैंने कहा, ‘अच्छा!’ A2-A3 माने आपके ही क्लास के डब्बे। मैंने कहा, ‘B1, B2, B3 देखकर आओ।‘ वो एसी थ्री टियर है उसमें था। मैंने कहा, ‘मैं जा रहा हूँ।‘ बोले, ‘पर आप नीचे वाले डब्बे में क्यों जाओगे?’ मैंने कहा, ‘स्लीपर में मिल रहा होता मैं वहाँ भी चला जाता।‘ मैं ये थोड़े ही देखूँगा कि इसका टिकट सोलह-सौ का होता है और उसका आठ-सौ का होता है; मैं क्या देखूँगा? मैं अपनी शांति देखूँगा न! सोलह-सौ वाले में अगर शांति नहीं मिल रही आठ-सौ वाले में मिल रही है तो आठ-सौ वाला ज़्यादा अच्छा है मैं उसमें चला जाऊँगा, छोड़ा! छोड़ दिया।
मुक्ति में ये बहुत बड़ी बाधा आती है। बंधन, चूंकि अभी है तो उसका मूल्य पता चल जाता है न। बंधन माने स्वार्थ, वो अभी है तभी तो बँधे हुए हो; वो प्रकट है, तथ्य है, वर्तमान है, अभी है तो उसका मूल्य पता चल जाता है तभी बँधे हुए हो कि इतने का स्वार्थ है भाई! पर आज़ादी सिर्फ़ एक संभावना है, एक पोटेंशियल है, एक अपॉर्चुनिटी है, वो अभी घटित!
श्रोतागण: नहीं हुई है।
आचार्य प्रशांत: वो अभी फलित!
श्रोतागण: नहीं हुई है।
आचार्य प्रशांत: वो भी साकार!
श्रोतागण: नहीं हुई है।
आचार्य प्रशांत: वो भी फ्रक्टिफाई!
श्रोतागण: नहीं हुई है।
आचार्य प्रशांत: वो भी मेनिफेस्ट
श्रोतागण: नहीं हुई है।
आचार्य प्रशांत: नहीं हुई है। तो बिल्कुल दावे के साथ, गारंटी के साथ, निश्चित होकर नहीं कहा जा सकता कि उसका मूल्य...। तो हम कहते हैं कि वो अनसर्टेन है तो उसका मूल्य!
श्रोतागण: शून्य है।
आचार्य प्रशांत: बस तो इसीलिए हम बंधनों में पड़े रह जाते हैं, कहते हैं, ‘ये तो पता है कि इसको छोड़ेंगे तो नुकसान कितना होगा पर ये कोई स्टैंप पेपर पर लिखकर दे ही नहीं रहा है कि उधर जाएँगे तो लाभ कितना होगा।‘ तो हमें बड़ा डर लगता है; अनिश्चितता से, अनसर्टेनटी से, रिस्क से, खतरे से। हम कहते हैं, 'अ नोन हेल इज़ प्रिफरेबल, टू एन अननोन हेवन।' कहते हैं हेल है पर नोन है तो ये प्रिफरेबल है।
श्रद्धा का क्या अर्थ होता है? मुझे नहीं पता क्या मिलेगा, कितना मिलेगा, मिलेगा भी कि नहीं मिलेगा; ये पता है कि ये जो है ये तो बंद होना चाहिए, जो अभी चल रहा है ये नहीं चलेगा मुझे ये पता इसके बाद क्या होगा मुझे नहीं पता और मुझे उसकी फिक्र करनी भी नहीं है, यही श्रद्धा है। तो श्रद्धा और निष्काम-कर्म एक होते हैं बिल्कुल, जिसमें फिक्र नहीं करी जाती कि क्या मिलेगा, जिसमें कुछ पता नहीं होता कि आगत क्या है?
समझ में आ रही है बात?