प्रश्नकर्ता: नमस्कार, आचार्य जी। मैं पिछले दो महीने से गीता सत्र से जुड़ा हुआ हूँ। मेरे साथ एक समस्या है।आचार्य जी, मैं बचपन से अपने मम्मी-पापा को लड़ते-झगड़ते हुए देख रहा हूँ। इस समय मेरी उम्र फोर्टी-नाइन-ईयर्स (४९) की हो गई है और आज मेरे पिता जी की ऐज पचहत्तर साल (७५) और मम्मी की ऐज सत्तर साल (७०) करीब है।
अभी पिछले वीक (सप्ताह) एक घटना घटी, जिससे मैं बहुत परेशान हूँ। वो आज भी, इतनी उम्र के बाद भी अभी भी लड़ते रहते हैं। और एक दिन अभी, पिछले हफ़्ते उनमें इतनी लड़ाई हो गई, और बहुत छोटी-छोटी बातें रहती हैं, बहुत बड़ी बातें नहीं रहती, अगर आप उसको समझें तो बहुत, वो होता है कि ‘क्या है ये, ये भी कोई लड़ाई की बातें हो सकती हैं?’
और मेरे पिता जी जो पहले से भी थे मारने-पीटने में, वो मेरी मम्मी को मारने लगे और मैंने उनको इतना समझाने की कोशिश किया, उनको हटाने की कोशिश किया कि पिता जी मत करिए, अब तो ये, ऐसी, इतनी उम्र में भी ये सब चीज़ें, वो नहीं मानने को तैयार थे। तो पता नहीं, मेरे को उनको रोकने के लिए, मेरा भी उन पर एक हाथ उठ गया। और मेरा हाथ उठना था, उसके बाद वो शांत हो गए और मेरे को उल्टा-सीधा बोलने लगे। और इतना ही नहीं, मतलब जिन मम्मी के लिए मैं ये कर रहा था, वो मम्मी भी मुझे बोलने लगी कि — तुम कैसे बेटे हो कि तुमने अपने पिता जी पर हाथ उठा दिया।
और उसके बाद से एक हफ़्ते से न मैं पिता जी से ढ़ंग से बात कर पा रहा हूँ, न मम्मी से बात कर पा रहा हूँ। वो मुझसे नाराज़ हैं। और इवन (जबकि) मेरे दो भाई और हैं, उनको भी सब बताया तो वो भी आए क्योंकि यही रहते हैं मम्मी-पापा। तो वो भी मुझे, सभी लोग मुझे बोलने लगे कि तुम कैसे लड़के हो, क्या तुम धर्म-धर्म की बातें करते रहते हो, और तुम अपने पिता जी पर हाथ उठाए हो। मैं उस दिन से बिल्कुल ग्लानि महसूस कर रहा हूँ, मैं कैसे इस चीज़ से बाहर निकलूँ, समझ नहीं पा रहा हूँ।
आचार्य जी, कृपया कुछ समाधान करें कि मुझे ऐसा करना था या नहीं करना था। मतलब कैसे हो गया, मुझे पता भी नहीं चला। लेकिन ये था उसके बाद उनका मारना शांत हो गया, मतलब वो मम्मी को नहीं मार रहे उस वक्त, फिर शांत हो गए उसके बाद।
आचार्य प्रशांत: अतीत में कुछ हुआ था, उसका समाधान कभी ये नहीं होता कि मुझे वो करना चाहिए था कि नहीं करना चाहिए था। अतीत में जो हुआ, उसी के कारण आप आज जो हैं वो हैं, चाहे वो पाँच दिन पहले का अतीत हो चाहे पाँच दशक पहले का अतीत हो। अतीत में जो कुछ हुआ है, उसी के कारण आप जैसे आज हैं वैसे हैं। और जैसे आप हैं यही वो व्यक्ति है जो अतीत को देख के कह रहा है गलत हुआ।
अब मान लीजिए अतीत में कुछ और हुआ होता, तो आप वो व्यक्ति नहीं होते जो आप आज हैं। तो फिर ये सवाल भी नहीं होता कि क्या गलत हुआ। तो अतीत में जो हुआ, उसी के कारण तो आप आज ऐसे हैं न। अब पीछे देख कर कहना कि ‘सही हुआ कि गलत हुआ’ बदल सकते हो क्या?
कैसे बदल सकते हो? जो आप आज खड़े हो जब यही नहीं बदल सकता, तो अतीत क्या बदलेगा? उसका परिणाम तो सामने खड़ा है, अतीत कहीं चला थोड़े ही जाता है। तो वो सब छोड़िए कि करना चाहिए था कि नहीं करना चाहिए था। अब कर दिया, तो कर दिया, अब क्या बताऊँ उसमें, हो गया।
कहावत है कि जब बाप का जूता बेटे के पाँव में आने लगे, तो बाप-बेटा फिर दोस्त हो जाते हैं। अब पचास का पुत्र, पचहत्तर का पिता, ये तो संन्यास और वानप्रस्थ आपस में गले मिल रहे हैं, तो इसमें क्या ये सोचना है कि कौन पुत्र है कौन पिता है, कुछ नहीं है। ऐसे ही हैं, दो दोस्त हैं, धौल-धप्पा चलता रहता है, किसी ने किसी को लगा दिया। इसमें ऐसी क्या बात है? ग्लानि की क्या, इसमें कुछ भी नहीं।
फिर हमारा तो कथाओं का देश है। माँ गौरी बोल गईं थी कि — बेटा गणेश! हम नहा रहे हैं और कोई नहीं आएगा। और कोई नहीं आएगा तो फिर वो पिता से भी भिड़ गए। फिर भले उसके लिए वहाँ पिता ने हाथ उठा दिया। ऐसा हाथ उठा दिया कि गर्दन ही काट दी। तो ये सब तो हमारे यहाँ चलता रहता है, माँ की खातिर बाप बेटे में तनातनी लगी रहती है, ये कोई आज की बात थोड़े ही है।
समझ रहे हैं?
कुल मिलाकर के देखिए, दिक्कत ये है कि हमारे जो संबंध होते हैं न, न वो स्वस्थ होते हैं, न खुले होते हैं, न आज़ाद होते हैं। हमारे पास संबंधों का एक ब्लूप्रिंट (खाका) होता है। अब मैं मूल समस्या की बात कर रहा हूँ, आपके पास संबंधों का पहले से खींचा हुआ एक खाका होता है, द मैनुअल ऑफ आइडियल रिलेशनशिप्स, आदर्श संबंधों की निर्देशिका।
आप पैदा होते नहीं हो कि आपको बता दिया जाता है कि ऐसे रिश्ते होने चाहिए। ये दो व्यक्ति हैं जिसमें से एक का नाम है बाप, एक का नाम है बेटा, और ये आपस में इस-इस तरीके से बात करेंगे। प्रोटोकॉल (शिष्टाचार) निर्धारित हो जाता है, टीसीपी/आईपी (ट्रांसमिशन कंट्रोल प्रोटोकॉल/इंटरनेट प्रोटोकॉल- कंप्यूटर के बीच संचार की व्यवस्था) तय कि तुम दोनों आपस में ऐसे बात करोगे।
तो कौन-सी आज़ादी है फिर इसमें अगर पहले ही बता दिया गया है कि इसका आपस का रिश्ता ये होगा। और रिश्ता दोनों का आपस में ये है कि तुम इसे कूट सकते हो, तुम इसे नहीं कूट सकते हो।
‘इस्मत चुग़ताई’ (लेखक और फ़िल्म निर्माता) का नाम सुना होगा आपने, उनकी ‘लिहाफ़’ खासकर बड़ी प्रसिद्ध कृति है, और बड़ी बेबाक और विद्रोही लेखिका थीं। तो उनसे पूछा गया उनके बचपन के बारे में, आज ही देख रहा था, बोलीं, ‘देखिए, हिंदुस्तान में ये होता है कि घर का जो बच्चा होता है, उसको कूटने के बारे में एक नियम होता है, अलिखित नियम। नियम ये होता है कि — तुम उसे तब तक कूट सकते हो जब तक वो तुम्हें न कूटने लग जाए।'
(श्रोतागण हँसते हैं।)
बोलीं, ‘मैं ज़रा तेज-तर्रार थी, मुझे ये नियम जल्दी समझ में आ गया। तो सात-ही-आठ की बरस से मैं ऐसी हो गई कि जब मुझे कोई कूटने लगता था, तो मैं ऐसा धमाल मचाती थी, ऐसा चिल्लाती थी, ऐसा कूदती थी कि लोग मुझे कूटने से परहेज़ करने लगे।’
वो भी यही कह रही हैं कि एक नियम चल रहा है ये कि कुटाई तो हो सकती है पर एक ही तरफ़ से। किधर से? कि जो बड़ा वाला है वो छोटे को कूट देगा। हम ये नहीं कह रहे कि छोटा वाला भी बड़े को कूट दे। हम बात ये कर रहे हैं कि आपके पास एक ब्लूप्रिंट दे रखा है किसी ने कि ऐसे चलना, ऐसे चलना, ऐसे चलना। आपको जो अफ़सोस, जो दुख भी हो रहा है वो ये थोड़े ही है कि आप कह रहे हो कि अज्ञान में कुछ हो गया। आपको जो अफ़सोस हो रहा है वो भी ये हो रहा है कि कहीं मैंने पुत्र धर्म का उल्लंघन तो नहीं कर दिया, कहीं मैं परंपरा का दोषी तो नहीं हो गया, आपको ये दुख हो रहा है।
ये दोष तो बाद में लगेगा कि आपने परंपरा तोड़ दी कि नहीं तोड़ दी, पहले तो दोष ये लगेगा कि पचास साल तक लेकर कैसा चल रहे थे। परंपरा अगर तोड़ी भी है, तो पचासवें साल में तोड़ी है, पचास साल तक कैसा रिश्ता चला रहे थे पिता से। वैसा ही जैसा पिता जी और दादा जी का था, दादा जी और परदादा जी का था। क्योंकि यही तो हमें बताया गया है। रिश्तों की रूपरेखा पहले ही तय होती है न, एकदम तय होती है।
रिश्तों की रूपरेखा इस हद तक तय होती है, मैं आपको एक बताता हूँ। मैं गया हुआ था अपने ननिहाल, वहाँ से सामने से दो व्यक्ति चले आ रहे थे, तो वो बोलते हैं कि और दोनों लगभग एक ही उम्र के थे, उम्र का कोई इतना अंतर नहीं पता चल रहा था; तो वो बोलते हैं कि, एक बोलता है, ‘साला आ रहा है।’ दूसरे बोले, ‘क्यों गाली दे रहे हो?’ वो बोले, ‘नहीं, गाली नहीं दे रहे हैं, इसमें से वो जो है न वो उसका साला है।’ बोले, ‘कैसे पता चला?’ बोले, ‘चाल से पता चल गया।’
न नाम पता, न वहाँ उनके चेहरों पर कुछ लिखा हुआ है, पर ये दो व्यक्ति आपस में जिस तरह से व्यवहार करते हुए आ रहे हैं, इनकी चाल जैसी है, कैसे एक व्यक्ति है जो थोड़ा सा अकड़कर के थोड़ा आगे चल रहा है, एक है थोड़ा सा पीछे चल रहा है दबकर के, उसी से पता चल रहा है कि एक दामाद जी है और एक साला भाई साहब है।
आप कुछ न जानते हो तो भी इंसान को देख कर बता देंगे कि ये कौन-से एल्गोरिदम (प्रतीकगणित) का पालन किया जा रहा है। आप बात कर रहे हैं, एक बूढ़ा आदमी मिले और एक जवान आदमी मिले, आप देखें अपने सामने ये नज़ारा, और अचानक बूढ़ा आदमी झुककर के जवान आदमी के पाँव छू ले। इसका क्या अर्थ है?
इसका अर्थ है कि राजा जनक मुनि अष्टावक्र से मिले हैं? तो जो वृद्ध है वो युवा के पाँव छू रहा है। क्या इसका ये अर्थ है? बोलो। नहीं, इसका अर्थ बोलो फिर क्या है? जल्दी बताओ।
ससुर जी मिले हैं दामाद जी से। क्या आपके यहाँ नहीं होता ये दामाद जी की चरण स्पर्श करने का काम?
प्रश्नकर्ता: होता है।
आचार्य प्रशांत: वो देखा! मध्य प्रदेश से, बता दिया तुरंत। नहीं तो ये बात कितनी बेतुकी लगती कि एक बूढ़ा आदमी एक जवान आदमी के पाँव छू रहा है। या तो अष्टावक्र हो तो छू लो पाँव, वो तो हैं नहीं। तो क्यों छू रहे हो? क्योंकि एल्गोरिदम है, क्योंकि इंस्ट्रक्शन मैनुअल (निर्देश पुस्तिका) है — ऐसा करना होता है। आपको भी यही बुरा लग रहा है कि बाप को पीटना नहीं होता है, और मैंने पीट दिया, इससे अधिक कोई आपको आत्मबोध थोड़े ही हो गया है।
कोई आपको ये थोड़े ही लग रहा है कि मनुष्य होने के नाते मैंने एक दूसरे मनुष्य के साथ हिंसा कर दी, ये ग्लानि की बात है, ऐसा थोड़े ही हो रहा है। आपको अफ़सोस बस इंस्ट्रक्शन मैनुअल को वायलेट (उल्लंघन) करने का है कि ‘मैंने संबंधों की निर्देशिका का उल्लंघन क्यों कर दिया, आपको बस इस बात का।
तो मैं कह रहा हूँ कि अफ़सोस इसका नहीं होना चाहिए कि उल्लंघन क्यों कर दिया, प्रश्न ये पूछा जाना चाहिए कि इतने दिनों तक उस इंस्ट्रक्शन मैनुअल पर चल क्यों रहे थे। न बाप बेटे को जान पाता, न बेटा बाप से कोई रिश्ता बना पाता, क्योंकि दोनों बस किरदारों को जी रहे हैं। वो बाप का किरदार निभा रहा है, वो बेटे का। और कोई किरदार कभी दूसरे किरदार को नहीं जान सकता, कभी नहीं जान सकता।
व्यक्ति व्यक्ति को जान सकता है, किरदार किरदार को जान सकता है क्या? आप नाटक में अभिनय कर रहे हो, एक आपका किरदार है, एक आपके बगल वाले का किरदार है। हो सकता है कि आप वो जो दूसरा अभिनेता है उसको जानते हों, लेकिन जो आपका किरदार है क्या उसी किरदार को जान सकता है? बोलो।
संजीव कुमार अमजद खान को जान सकते हैं, पर क्या ठाकुर गब्बर को जान सकता है? बताओ क्यों नहीं जान सकता? क्योंकि ठाकुर कुछ है ही नहीं, ठाकुर तो कलम का गुलाम है, लेखक, स्क्रिप्ट राइटर (कहानीकार) की कलम का गुलाम है ठाकुर। ठाकुर के पास अपनी कोई चेतना ही नहीं है। ठाकुर कोई है ही नहीं। इसी तरह से गब्बर भी कोई है ही नहीं, गब्बर तो गढ़ा गया है।
इसी तरह से हमारे यहाँ हर इंसान गढ़ा जाता है, उसकी अपनी कोई चेतना विकसित ही नहीं होने दी जाती। सब किरदार अदा कर रहे हैं। आप पति बन जाते हैं, आपके पास एक किरदार आ जाता है, अब मुझे इससे इस तरह से बात करनी है।
बहुत सारी प्रेम कहानियाँ तो इसीलिए टूट जाती हैं, लड़का-लड़की थे तब तक चल रहा था, थोड़ा इंसान से इंसान की तरह रिश्ता हो जाता था। भले ही कैसा भी था, उल्टा-पुल्टा था, वासना थी, जो भी था, पर फिर भी दो इंसान थे किसी तरह के। अब जब शादी हुई नहीं कि वो मिस्टर हसबेंड (श्रीमान पति) बनना शुरू कर देता है। वो कहेगा, ‘ये करो, अब वो करो।‘ वो कहेगी, ‘पागल है क्या?’
और ये भी मिसेज़ वाइफ (श्रीमती पत्नी) बनना शुरू कर देती है, इसके भी कईं हक आ जाते हैं ऐसे वैसे, वो कहता है, ‘ऐ! चढ़ मत।’ अब फिर चलता नहीं मामला। क्योंकि ये भी क्या करना शुरू कर देते हैं? इन्हें भी बचपन से घुट्टी पिला दी गई थी कि हसबेंड को ऐसे-ऐसे होना चाहिए, ऐसे करना चाहिए, और वाइफ को ऐसे-ऐसे होना चाहिए और ऐसे-ऐसे करना चाहिए। तो ये रोल प्लेइंग (भूमिका निभाना) शुरू कर देते हैं और दो लोग जब रोल प्लेइंग कर रहे हों तो उनमें कोई रिश्ता नहीं बन सकता।
आईआईएम (इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट, भारतीय प्रबंधन संस्थान) में मैं खूब नाटक किया करता था। तो अब जवानी के दिन, तो वहाँ पर भी ऐसी ही बात हो रही थी किसी नाटक के सिलसिले में। तो वो जो नाटक था, उसमें जो किरदार थे उन्होंने मास्क (मुखौटा) पहन रखा था। उसका नाम ही मास्क से संबंधित था। तो मैं उसकी थीम समझा रहा था। थीम उसकी जो थी उसमें ये बात बड़ी प्रमुख थी कि किस तरह से लोग नहीं होते, सिर्फ़?
श्रोतागण: मास्क।
आचार्य प्रशांत: मास्क होते हैं। और मास्क के नीचे क्या होता है? एक और मास्क। और उसके नीचे क्या होता है?
श्रोतागण: एक और मास्क।
आचार्य प्रशांत: उसके नीचे क्या होता है?
श्रोतागण: एक और मास्क।
आचार्य प्रशांत: ठीक है। तो ये उसकी थीम थी, तो जो मेरी पूरी कास्ट (पात्रवर्ग) थी, उसको लेकर के वहाँ पर लुईस कान प्लाज़ा (आईआईएम का सम्मेलन केंद्र) में समझा रहे थे। तो वहाँ मेरी एक एक्ट्रेस (अभिनेत्री) थी, मैं उसमें एक्टिंग भी करता था, डायरेक्शन (निर्देशन) भी करता था; तो मेरी भी वहाँ पर एक अभिनेत्री थी। तो वो बोलीं, बट, व्हाट्स सो रौंग विथ वियरिंग मास्क्स? (लेकिन मुखौटा पहनने में बुराई क्या है?)
उनकी रही होगी मास्क्स पहनने की बड़ी ट्रेनिंग, बड़ा लंबा अभ्यास। तो ज़रा मसालेदार सौसी (धृष्ट) तरीके से मैंने जवाब दिया, बिकॉज टू पीपल कांट किस इफ़ दे आर वियरिंग मास्क्स। (क्योंकि अगर दो लोग मुखौटा पहनें तो वे चुंबन नहीं कर सकते।) अब जवाब तो मैंने लगभग छेड़ने के अंदाज़ में दे दिया था कि दो लोगों ने अगर मास्क पहन रखे हों, तो वो किस भी कैसे करेंगे। लेकिन अर्थ में कोई कमी नहीं थी।
तुम रिश्ता कैसे बनाओगे? जहाँ तुम्हारे होठ से होठ भी नहीं छू सकते, वहाँ अंतस से अंतस क्या मिलेगा? कुछ नहीं हो सकता। पता नहीं उसको समझ में आया कि नहीं आया, पर मुझे बड़ा मज़ा आया।
ये फादर मास्क (बाप का मुखौटा) और ये सन मास्क (बेटे का मुखौटा)। सन को पता ही नहीं है कि फादर के मास्क के पीछे है क्या। और भारत में तो ये खासतौर से है। और बाप-बेटा रिलेशनशिप तो और ज़्यादा। बल्कि जो बेटी और बाप की है वो थोड़े सी ज़्यादा सहज होती है भारत में। बाप के भीतर क्या है, वो एक बार को बेटी को पता चल सकता है, और बेटी के सामने वो हो सकता है प्रकट भी कर दे। आवश्यक नहीं है, पर ऐसा थोड़ा देखा गया है। पर बेटे के साथ तो बाप का छत्तीस का ही आँकड़ा रहना है।
‘राग दरबारी’ है, यदि आपने पढ़ी हो, ‘श्रीलाल शुक्ल’ की, उसमें एक बड़े पहलवान और एक छोटे पहलवान का उल्लेख आता है। तो उसमें यही था कि वो बताते हैं, वो जो हैं वो पूरा हास्य व्यंग से भरपूर उनकी कृति है; तो बोलते हैं, ‘बड़े पहलवान की अब उम्र हो गई थी तो इस कारण शरीर में जगह-जगह उनके दर्द रहता था, और गठिया का तो ऐसा है कि सबसे ज़्यादा दर्द होता है सो के उठने के बाद। तो जब वो सुबह सोकर उठते थे तो छोटे पहलवान का काम था कि उनको दनादन-दनादन रोज़ धोते थे, पटापट हाथ-पाँव से, फिर डंडे से।’ और फिर आगे और विस्तार में बताया है कि लेकिन फिर एक दिन बड़े पहलवान को दूसरी जगह के लोग भी आकर धो गए।
(श्रोतागण हँसते हैं।)
तो पंचायत बैठी। तो पंचायत बैठी तो उसमें, और बड़े वो पड़े हुए हैं पहलवान कराहते हुए, उनको खूब पीटा गया है, जितना छोटे पीटते थे उससे ज़्यादा पीटा गया है। तो पंचायत बैठी, तो पंचायत में छोटे आए एकदम उग्र होकर के, बोले, ‘कौन है, किसने मारा हमारे बाप को?’
तो गाँव वाले बोले, ‘अरे छोटे! तू तो खुद रोज़ अपने बाप को पीटता है। तू काहे के लिए इतना गर्म हो रहा है?’ बोलता है, ‘हमारा बाप है, हम पीटेंगे, कोई और आकर काहे पीट गया, इसी बात का तो हमें अफ़सोस है। जो काम हमारा था, उस पर किसी और ने कैसे सेंध मार दी। बोले, हमें ये दिक्कत कतई ही नहीं है कि बुड्ढा पिटा, हमें दिक्कत ये है कि किसी और से काहे को पिटा।’ अब ये व्यंग करा गया है पिता-पुत्र संबंधों पर। और ये खासकर हिंदुस्तानी नस्ल हैं संबंधों की।
आ रही है बात समझ में?
मज़ाल है कि एक बार बेटा जवान हो जाए, उसके बाद वो बाप से दिल खोलकर बात कर सके, मज़ाल है। अब बाप बूढ़ा नहीं हो गया होता जब तक बेटा जवान होता है। आप बीस-पच्चीस के हुए हैं तो बाप भी अभी लगभग जवानी पर, हाँ उसकी जवानी का सूर्यास्त हो रहा है; पर अभी रात नहीं आ गई। तो जैसे एक जवान आदमी दूसरे से मित्रता करता है, वैसे ही मित्रता इन दोनों में संभव है, पर हो नहीं पाएगी।
लड़के का किससे चक्कर चल रहा है, बाप को अगर सूँघना है, तो जाकर लड़के के दोस्तों से पूछता है। पर हो नहीं सकता कि लड़का खुद आए, बोले, डैड! लेट्स टॉक। (पिता जी, चलिए बात करते हैं), कैसी लगी ये? और बाप बोले, ‘भाई, मस्त।' (इशारे करके बताते हुए)
(श्रोतागण हँसते हैं।)
ये नहीं हो सकता हमारे यहाँ। देखो भैया, ‘मैं तो दुराचार्य हूँ।’ तो।
(श्रोतागण हँसते हैं।)
सड़े हुए संबंध, पिंजरों में कैद संबंध, किरदारों में कैद संबंध, वो इंसान नहीं है। वो कौन है? वो मामा है, या ताऊ है, या भाई है, या जेठ है, इंसान नहीं है सामने वाला। तो सामने वो लड़की नहीं है, वो या तो बेटी है या बहू है। और अगर बेटी है तो उससे एक प्रकार का व्यवहार होगा, और बहू है तो दूसरी प्रकार का व्यवहार होगा। इंसान तो हमें दिखाई ही नहीं देता।
इंसान अगर हमें दिख रहा हो तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं है, जैसा मैंने कहा एक पचास साल वाला, एक पचहत्तर साल वाला, दोनों में किसी बात पर ज़रा गरमा-गर्मी हो गई, थोड़ा लात-घूँसा चल गया। कुछ नहीं है, मसाज।
भाई, नाम-रूप में नहीं फँसना चाहिए, सारा अध्यात्म यही सिखाता है। आप किसी को पैसे देते हो मालिश करने के, वो आता है दनादन घूँसे मारता है, तब तो आपको बुरा नहीं लगता, अपमान नहीं लगता। और वैसे ही कोई आकर घूँसा दे दे तो कहते हो, ‘अरे! नाक कट गई, एफआईआर कर दूँगा।’ नाम-रूप की बात है न बस? एक को एक नाम दे रखा है, दूसरे को दूसरा नाम दे रखा है, बाबा जी हिल पड़े।
(श्रोतागण हँसते हैं।)
कभी देखा है ये जो हमारे मालिश वाले होते हैं कितना पीटते हैं? आवाज़ न निकल रही हो तो उन्हें चैन नहीं आता, जब तक आप कराह न दो और हाथ जोड़ के विनती न करो कि हो गया, आज की माफ़ी। छोड़े नहीं जा रहे। तब काहे नहीं कहते कि हिंसा हो गई? वो इतने घूँसे मारता है।
हमारे ट्रेनर साहब हैं, आने वाले होंगे, पहले तो बोझा उठवाएँगे दुनिया भर का — ये उठाओ, ये उठाओ, ये उठाओ। और उसके बाद जब मैं बिल्कुल पस्त हो जाऊँगा, तो मुझे पेट के बल लिटा देंगे, और पीठ पर दनादन-दनादन घूँसे। और उनको न जाने कहाँ कि एक तुर्र चढ़ी हुई है कि पीठ पर रीढ़ चटकने की आवाज़ आनी चाहिए। तभी वर्जिश पूरी हुई मानेंगे।
(श्रोतागण हँसते हैं।)
मैं तो कई बार अब ऐसे, मुँह नीचे करके (रीढ़ चटकने की आवाज़ मुँह से निकालते हुए) हो गया, हो गया, छोड़ दो।
वो इतने घूँसे मारें, तो कोई अपमान नहीं हो गया। हो गया, मार दिया, डैडू हैं, तुमने भी बहुत मारा था जब हम छोटू थे। हो गया एकाध, कोई बात नहीं। और जब हम छोटे थे तो हमने भी। छोटा तो होता है बच्चा जब तक, तब तक फिर भी सहज रहता है संबंध। पिता जी कई बार उसे छाती पर भी बैठा लेंगे, छाती पर मूत भी देगा, तब तो कोई समस्या नहीं हो गई थी। तो वैसे ही एक फिर से हमने आपको पुराने दिनों की, स्वर्णिम बाल्यकाल की याद दिला दी।
मित्रवत व्यवहार करिए। बच्चा किसी को बस दो ही शर्तों में मानिएगा, वो दो शर्तें भी मिलाकर एक ही शर्त हैं। दो शर्त मैं क्या बोल रहा था — या तो उम्र से बहुत छोटा हो, ऐसा छोटा कि गोद में उठाना पड़ता हो या उंगली पकड़ के चलाना होता हो, तो उसको बच्चा कह लीजिए। या कि वो चेतना से बहुत छोटा हो तो उसको बच्चा कह लीजिए। ये भी दोनों एक बात हो गई क्योंकि जो उम्र से बहुत छोटा है, वो चेतना से भी छोटा होता ही है।
तो बच्चा उसी को मानो जो चेतना से छोटा है और बड़ा भी उसी को मान लो जो चेतना से बड़ा है, बाकी सबको अपने ही स्तर का मानो, माने बाकी सब मित्र हैं। बाकी सब अपने ही जैसे सब मित्र हैं भाई। कोई बड़ा-वड़ा क्या? काहे के बड़े हैं पिता जी अगर माता जी को पीट रहे हैं अभी? इनको हम बड़प्पन का श्रेय देंगे?
बहत्तर साल की महिला, और ऑस्टियोपोरोसिस (एक हड्डी रोग है, जिसमें हड्डियाँ कमज़ोर और कम घनी हो जाती हैं) वगैरह हो रखा हो, हड्डियाँ कमज़ोर हों, तुम पीट रहे हो, उनका फ्रैक्चर हो जाए, हड्डी जुड़ेगी भी नहीं इस उम्र में। इनको बड़ा माने क्या? ये बड़ा मानने योग्य हैं? इनको हम क्या मान लेंगे? मित्र हो, बंधु हो। डैडी नहीं, बैंडी, बंधु। तब ठीक, फिर ठीक है। भाई-बहनों वगैरह में भी रिश्ते जानते हो सबसे अच्छे कौन से चलते हैं जहाँ दोस्ती होती है।
मान लो दो-तीन भाई बहन हैं और फिर वो सब ममेरे-चचेरे मिलाकर के दस-बारह हो गए हैं, उसमें से तुम पाओगे कि कोई दो-तीन हैं, इनकी बड़ी लंबी उम्र के अंत तक चली, ये दो-तीन कौन थे?
इनकी आपस में दोस्ती हो गई थी। रिश्ता तो वही चलेगा जिसमें नाम से ज़्यादा दोस्ती हो। ये नाम रिश्ते को नहीं चला पाता। नाम का रिश्ता तो कौरवों और पांडवों के बीच भी था, चला क्या? भाई ही थे, चला क्या?
दोस्ती चलती है। कर्ण सबसे अच्छा उदाहरण हैं, दोस्ती उसकी जिसके साथ थी उसके लिए उसने जान भी दे दी। और उधर भाई भी खड़े हैं, माँ भी खड़ी है, श्रीकृष्ण भी खड़े हैं, माँ और श्रीकृष्ण दोनों बुलाने भी आए, वो गया नहीं, बोला, ‘जिससे दोस्ती है उसके लिए जान दूँगा। वो भाई और ये सब अपनी तरफ़ रखो, भाई-वाई हम नहीं जानते, दोस्त इधर खड़ा है, दोस्त के लिए मरूँगा।’
ऐसे रिश्ते बनाना चाहते हो न कि दूसरे के लिए प्राण भी दे सकें, तो मित्रता कर लो। और मित्रता में ये ठीक है, कभी गले लगा सकते हैं, तो कभी घूँसा भी लगा सकते हैं, चलता है।
मैं कोई वकालत नहीं कर रहा हूँ मार-पिटाई की। कि आज घर गए, गले लगाया और लगे पीटने। बुढ़ऊ परेशान हैं, बोल रहे, ‘काहे पीट रहा है लल्ला? बोल रहे, बिकॉज वी आर नाओ फ्रेंड्स (क्योंकि हम अब मित्र हैं), पट्टाक।' करने मत लग जाना कि दोस्ती का मतलब तो मार-पिटाई होता है, ये नहीं कह रहा हूँ।
एक बार मैंने पूछा था, मैंने कहा था घर में एक देवी जी थीं, कुछ सवाल कर रही थीं, उनका कुछ पारिवारिक था हिसाब, और सारा दोष जो है वो पतिदेव पर डाल रही थीं। मैंने कहा, आप घर में रहती हो, हाउसवाइफ़ थीं; मैंने कहा, ‘आप घर में रहती हो, दिन में घंटी बजती होगी, प्लमबर (नलसाज़) आया है, इलेक्ट्रिशियन (बिजली मिस्त्री) आया है, कोई आया है, कोई वेंडर (विक्रेता) आया है, कोई आया है, मेड (कामवाली बाई) आई है। आप खोलते हो दरवाज़ा, थोड़ी देर को तो देखते हो न कौन आया है?’ बोली, ‘हाँ।‘
मैंने कहा, ‘और जो साधारण लोग होते हैं जो आते-जाते रहते हैं, जो जितने ज़्यादा अपरिचित होते हैं, उनको आप उतना ज़्यादा देखती हो न?’ बोली, ‘हाँ।’ बोली, ‘और दोपहर के समय तो थोड़ा-सा सन्नाटा हो जाता है तो उस समय तो और पहले गौर से मैं ऐसे देखती हूँ उससे (दरवाज़े पर लगे कैमरा से) और उसके बाद ही खोलती हूँ। और खोलने के बाद भी गौर से थोड़ा देखती हूँ, हाव-भाव कैसे हैं इसके। कुछ हथियार-वथियार तो नहीं लिए, क्या है।'
मैंने कहा, ‘अच्छा!’ मैंने कहा, ‘और ये पतिदेव कब आते हैं घर?’ बोली, ‘कभी छः, कभी सात, कभी आठ-नौ भी बजाते हैं, काम पर हैं।’ मैंने कहा, ‘जब ये आते हैं, तो ये भी घंटी बजाते हैं?’ बोलीं, ‘हाँ।’ मैंने कहा, ‘घंटी बजती है, खोलती हो, उनको कितना देखती हो? पहले सोचने लगीं, बोलीं, ‘एकदम नहीं देखती।' मैंने कहा, ‘क्यों?’ बोलीं, ‘इनको क्या देखना?’ मैंने कहा, ‘इनको क्यों नहीं देखना?’ बोलीं, ‘इनका सब देखा हुआ है।’ मैंने कहा, ‘ये है न समस्या।’
जिनको तुम अपना कहते हो न उनको तुम बिल्कुल नहीं देखते। गैरों को तो फिर भी देख लेते हो, अपनों को तो ज़रा नहीं देखते। और जिसको ज़रा भी नहीं देख रहे, उसके बारे में जानोगे क्या।
वो आज बिल्कुल मरकर के आया होगा दफ़्तर से, पर तुम उसकी आँखों में जब देख ही नहीं रही हो तो तुम्हें पता कैसे चलेगा उसकी हालत क्या है। तुम तो कह रही हो — इसको तो जानती हूँ ये तो पति है। नाम दे दिया न रिश्तों को, जहाँ रिश्ते को नाम दिया, वहाँ इंसान खत्म हो गया। रिश्ता बचता है इंसान खत्म हो जाता है। सोचना।
क्या ज़रूरत है ये तो, इसके साथ सब सेटल्ड (स्थिर) है पहले ही। बाहर वालों के साथ अभी सेटल्ड नहीं है क्योंकि कोई रिश्ता नहीं है, तो वहाँ फिर भी थोड़ा गौर करोगे, ध्यान दोगे। जिसके साथ चीज़ सेटल हो गई, चाहे वो बाप-बेटे का रिश्ता हो, पति-पत्नी का, भाई-बहन का, वहाँ फिर किसी तरह की कोई जिज्ञासा, कोई आत्मीयता नहीं रह जाती। वहाँ बस रोल प्लेइंग बचती है। घंटी बजी, देखा, वो खड़ा है, ऐसे खोल दिया, भीतर गए, पता है अभी आया है चाय पिएगा, चाय बनाकर इसको दे दो, चाय फेंक दी।
बापों की तो बहुत दुर्दशा है, इसमें तो कोई शक नहीं। यहाँ जो बेटे बैठे हैं बताएँ उन्होंने बाप से आखिरी बार कब दिल की बात करी थी? नहीं करते। पुरुषों को तो मतलब ऐसा बना दिया है कि उनको किसी तरह के स्नेह की, स्पर्श की, ज़रूरत ही नहीं होती। और ये गहरा लिंग-भेद है।
लड़का भी जब किसी प्रकार की भावनात्मक स्थिति में होता है तो फोन पता है किसको मिलाता है? अम्मा को, बाप को नहीं मिलाता। बाप तो ऐसा है कि वही जैसे बड़े पहलवान, वो पिटने के ही काम आना है। हिंदुस्तान में असंभव है कि एक प्रौढ़ बेटा अपने बाप से खुलकर के अपने हृदय की बात कह रहा हो। नहीं होता। क्यों? क्या चल रहा है? रोल प्लेइंग। हिंदुस्तानी लोग हैं भाई, हमारे पास बड़े-बड़े आदर्श हैं बाप-बेटे के रिश्ते के। अरे! राम और दशरथ का देश है ये, हमें पहले ही पता है कि हमारा रिश्ता कैसा होना चाहिए। अरे! भीष्म का देश है ये, पिता की खातिर कितनी बड़ी उसने प्रतिज्ञा कर ली। हमें पहले ही पता है कि बाप बेटे का रिश्ता कैसा होना चाहिए, सब हमें पहले ही पता है।
क्योंकि हमें सब पहले ही पता है, तो इसीलिए हमें कुछ भी पता नहीं चलता। हमें ये नहीं पता चलेगा कि बाप का दिल एकदम टूटा हुआ है, हम बात ही करने नहीं जाएँगे। हमें नहीं दिखाई देता कि रात में ग्यारह-बारह बजे, एक बजे एक बाप-बेटा बाहर सड़क पर टहल रहे हैं एकसाथ और धीरे-धीरे कुछ बात कर रहे हैं। हम कहेंगे — ऐसे तो प्रेमी लोग आपस में बात करते हैं, बाप-बेटा थोड़े ही करेंगे।
क्यों? बाप-बेटा एक दूसरे के दुश्मन हैं? प्रेमी नहीं हो सकते? फिर हम सोचते हैं पुरुष महिलाओं से पाँच साल पहले क्यों मर जाते हैं? मैं पूछ रहा हूँ जिएँ काहे के लिए? काहे के लिए जिएँ?
वो ऐसे-ऐसे (छाती ठोकते हुए) करते रहते हैं, कहते हैं, ‘चौड़ी छाती, मजबूत छाती वाला है, छाती नहीं पत्थर है।’ वो भीतर से खोखला हो चुका होता है। लेकिन उसे मज़ा बहुत आता है। क्या करने में? (छाती ठोकते हुए।)
महिला लचीली होती है, बहती है, थोड़ी कमज़ोर सी दिखती है, लंबा जीती है। और पुरुष कैसे होते हैं, इसका एक आपको बताऊँ, आंकड़ा है। ‘पति के मर जाने के बाद भी जो औसत महिला होती है, वो पाँच से आठ साल और जीती है। लेकिन अगर पत्नी मर गई है तो औसत पति बस एक से तीन साल में मर जाता है।’
हाँ, यही जब तक पत्नी जिंदा थी तो उससे वो दो बातें ढ़ंग की न कर पाया होगा। पर वो मरी तो इनपर ऐसा सदमा लगता है, यही जो बनकर घूम रहे थे कि हम तो अजेय, आयरन मैन हैं, इनको ऐसा झटका लगता है कि खट से झड़ जाते हैं, एकदम मर जाते हैं। और पत्नियाँ बल्कि जी जाती हैं। इसीलिए आपने विधवाएँ ज़्यादा देखी होंगी, विदुर कम देखे होंगे, वो बचते ही नहीं।
और भी कारण हैं ट्रोलिंग (किसी व्यक्ति को ऑनलाइन परेशान करने के लिए जान-बूझकर अपमानजनक, असंवेदनशील, या अप्रासंगिक संदेश पोस्ट करना) मत शुरू कर देना। मुझे मालूम है इसके जेनेटिक (आनुवंशिक) कारण भी हैं। और भी हैं कारण, महिलाएँ नशा-वशा कम करती हैं और भी कई ऐसे काम हैं जो कम करती हैं, तो इसीलिए थोड़ा ज़्यादा जी जाती हैं।
अब आपको सलाह देता हूँ आखिरी, ठीक! जैसे पिता जी पर हाथ उठा लिया था न वैसे ही जाकर गले भी लगा लीजिए।
जो हमारी डायरेक्टरी ऑफ रिलेशनशिप्स (रिश्तों की निर्देशिका) है, उसमें न तो ये है कि बेटा बाप पर हाथ उठा सकता है और न ये है कि बेटा बाप को गले लगा सकता है। विशेषकर हमारे उत्तर और मध्य भारत में तो बेटा अधिक-से-अधिक बाप का चरण स्पर्श कर सकता है, गले लगाने की हमारी नहीं परंपरा।
तो आपने जब अब उस निर्देशिका का उल्लंघन कर ही दिया है, तो मैं कह रहा हूँ, एक बार और करिए। पहली बार उल्लंघन करा था हाथ उठाने के लिए, अब उल्लंघन करिए गले लगाने के लिए।
आ रही है बात समझ में?
कोई नहीं बाप, कोई नहीं बेटा, दोनों बुड्ढे हो। बाप-बेटा क्या होता है? क्या पता चलता है? थोड़ी और उम्र बढ़ जाएगी, दोनों इकट्ठे निकलेंगे तो कुछ पता नहीं चलेगा, बाप कौन है बेटा कौन है। दोनों ही डुग-डुग ऐसे लाठी टेकते चल रहे हैं।
जाइए। और लजाइएगा नहीं, हमारे यहाँ लाज बड़ी बात होती है कि बड़ा संकोच आया ऐसे थोड़े ही करेंगे, अरे पिता जी हैं। गाली थोड़ी देने जा रहे हो, गले लगाने जा रहे हो न, इसमें क्या संकोच है। हाँ, कहिए क्या कह रहे हैं?
प्रश्नकर्ता: पैर पड़कर के तो मैंने उनसे कई बार पाँच-छः दिन में माफ़ी माँग ली, लेकिन वो मतलब।
आचार्य प्रशांत: ये पैर पड़कर के तो आप यही सिद्ध कर रहे हैं कि जो पहले कोड ऑफ कंडक्ट (आचार संहिता) दिया गया था वो ठीक था। वो जो पहले का कोड ऑफ कंडक्ट है, वो यही कहता है न कि ‘पैर पड़ो,’ तो आप उसी को ठीक साबित कर रहे हैं। और अगर वो ठीक है तो फिर आपने जो करा अपनी माता जी के लिए वो गलत हो गया।
वो जो आचार संहिता है कोड ऑफ कंडक्ट, मैं कह रहा हूँ उसको परे कर दीजिए, पैर-वैर छोड़िए, बहुत छू लिए पैर, हो गया। कौन-सी आई थी जिसमें ‘जादू की झप्पी’ थी?
श्रोतागण: मुन्नाभाई।
प्रश्नकर्ता: धन्यवाद, आचार्य जी। मन हल्का हो गया।
आचार्य प्रशांत: पिता जी का भी हल्का करिए मन। और अगर बात बन जाए, तो मम्मी को भी बुला लीजिए, तीनों लोग ऐसे (गले लग जाइए) हो जाइए। और कोई हो इधर-उधर का, तो उसको बोलिए, ‘एक फ़ोटो खींच।’