जिस साल मेरा चयन हुआ था, पाँच लाख बैठे थे और सीट थी मुश्किल से, मेरे ख्याल से, ढाई-सौ, तीन-सौ। वो जो पूरी प्रक्रिया है वो बनी ही ऐसी है कि उसमें से हज़ार में से नौ-सौ-निन्यानवे लोग अचयनित ही निकलेंगे और यह बात तुमको पहले से पता होती है न। इसमें क्यों मन छोटा कर रहे हो? कुछ तो समय बाँधो – एक साल, दो साल, चलो तीन साल।
यहाँ ऐसे होते हैं, बहुत सारे होते हैं, हज़ारों की तादाद में होते हैं – इक्कीस की उम्र में अंदर आते हैं और अट्ठाईस-तीस में बाहर निकलते हैं, वह भी तब जबकि उम्र-दराज़ हो जाते हैं।
इस प्रक्रिया से बाहर आ गए हो, देखो, कुछ और करो। बहुत बड़ी दुनिया है, बहुत बड़ी ज़िन्दगी है, बहुत रास्ते खुले हुए हैं, लालच मत करना, यह उम्मीद मत रखना कि, “साहब हमको तो शुरुआत ही पचास हज़ार से, एक लाख रूपए से करनी है।“ सही दृष्टि रखो, सीखने का मन बनाओ और जहाँ दिखाई दे कि काम के बारे में और जहान के बारे में कुछ सीख पाओगे, वहीं प्रवेश ले लो। सीखते रहो, आगे बढ़ते रहो। मन छोटा करने की बिलकुल कोई ज़रूरत नहीं है।